संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सूरज की लपटों तले क्यों करवाएं चुनाव?
01-Jun-2024 5:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सूरज की लपटों तले  क्यों करवाएं चुनाव?

भारत के आम चुनाव के आज के आखिरी मतदान में लोकसभा की दस फीसदी से अधिक सीटों पर वोट डल रहे हैं। सात राज्यों, और एक केन्द्र शासित प्रदेश की 57 सीटों पर इस वक्त वोट डल रहे हैं, और देश एक अभूतपूर्व गर्मी का सामना कर रहा है। कल एक दिन में लू से देश भर में करीब तीन सौ लोगों के मरने की खबर है, और बहुत से ऐसे लोग गुजरे होंगे जिनकी मौत इस वजह से दर्ज नहीं हो पाई होगी। पिछले ढाई महीने से चले आ रहा यह आम चुनाव जब एक राज्य बिहार में एक दिन में 15 चुनाव कर्मियों की लू से मौत दर्ज करता है, तो जाहिर है कि वोटरों में से भी बहुत से लोग निकलने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे। यह सही वक्त है कि पांच बरस बाद के अगले आम चुनाव, या उसके बीच किसी बरस में मई-जून में अगर किसी राज्य के चुनाव होने हैं, तो उनकी तारीखों के बारे में अभी से तय कर लिया जाना चाहिए। और आम जनता के लिए चुनाव महज एक-दो घंटे मतदान केन्द्र आना-जाना हो सकता है, लेकिन सरकारी कर्मचारी, सुरक्षा कर्मचारी चुनाव इंतजाम में कई-कई दिन ट्रेनिंग पाते हैं, मतदान और मतगणना की तैयारी करते हैं, और सुरक्षा कर्मचारी तो इस गर्मी में सैकड़ों या हजारों किलोमीटर तक का सफर करके खतरनाक जगहों पर पहुंचते हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब मई-जून के ये महीने भयानक गर्मी के रहते हैं, और हर बरस गर्मी बढ़ते चलती है, तो संसद या विधानसभाएं अपने कार्यकाल और अगले चुनाव को लेकर समय रहते कोई फैसला क्यों नहीं लेती हैं? क्या सांसद और विधायक अब एयरकंडीशंड कारों से बाहर निकलना जरूरी नहीं समझते? अगर आमतौर पर ऐसा होता भी है, तो भी इस बार का पूरा चुनाव अभियान तो गर्मी में ही गुजरा है, और पिछले कई हफ्तों में लगातार ऐसी भयानक गर्मी रही है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी दर-दर भटकने का अपना काम ठीक से नहीं कर पाए होंगे। 

भारत में वैसे तो देश के अलग-अलग हिस्सों में मौसम हमेशा ही बहुत अलग-अलग रहता है, अब जैसे आज जब एक दिन में लू से तीन सौ लोग मरे हैं तो उसी दिन मणिपुर में भयानक बाढ़ आई हुई है, और असम में भी। असम में बाढ़ से आधा दर्जन लोगों के मरने की खबर है, और मणिपुर, मेघालय में भी भूस्खलन और सडक़-पुल डूब जाने या बह जाने की खबरें हैं। लाखों लोग बहुत प्रभावित हुए हैं, और उन्हें राहत शिविरों में रखा गया है। यह देश इतना विशाल है कि एक तरफ बाढ़ है, और दूसरी तरफ सूखे की वजह से बेंगलुरू जैसे शहर को खाली करवाने की सरकारी कोशिश चल रही है। लेकिन इस बीच भी पहाड़ों पर सर्दी खत्म हो जाने के बाद, और गर्मियां शुरू होने के पहले पूरे देश का मौसम कुछ ऐसा रहता है कि उस वक्त के चुनाव सबके लिए सहूलियत के हो सकते हैं, और उन चुनावों में जनता की भागीदारी भी अधिक हो सकती है। अप्रैल-मई-जून के बजाय अगर ये चुनाव फरवरी-मार्च-अप्रैल में हुए रहते, तो तमाम लोगों को बड़ी सहूलियत रहती। इस लोकसभा का कार्यकाल दो महीने कम करके आसानी से हर पांच बरस के चुनावी महीनों को बदला जा सकता था, अब भी बदला जाना चाहिए। 

पता नहीं सुप्रीम कोर्ट इतनी मौतों को देखते हुए भी इस मामले में कोई दखल देने के लिए तैयार होगा या नहीं, न भी हो, वहां पर अगर किसी जनहित याचिका के तहत इस मुद्दे पर बहस ही हो जाए, और सुप्रीम कोर्ट इस मामले को सरकार और संसद के सोच-विचार के लायक कहकर छोड़ दे, तो भी इस पर बहस आगे बढ़ सकती है। देश में चुनाव तैयारी में ही सरकारी और राजनीतिक करोड़ों लोगों को हफ्तों तक काम करना पड़ता है, और उन पर यह जुल्म बंद होना चाहिए। फिर जिस अंदाज में मौतें हो रही हैं उनको देखते हुए किसी तरह की सरकारी या राजनीतिक जिद भी जायज नहीं है कि संसद के 60 महीने के कार्यकाल में से दो महीने कम नहीं किए जा सकते। इस मामले पर फैसला विधानसभाओं को जोडक़र लेना चाहिए क्योंकि इस चुनाव में ही कुछ विधानसभाओं का चुनाव हो ही रहा है। और बीच के बरसों में भी इन महीनों में कुछ और विधानसभाओं के या स्थानीय संस्थाओं के चुनाव होते हों, उन पर भी रोक लगानी चाहिए, क्योंकि चुनाव तो पांच बरस में एक बार ही आते हैं, और उन्हें हर बार झुलसाती हुई गर्मी में क्यों रखा जाए? आज तो हालत यह है कि देश के अलग-अलग प्रदेशों में सरकारें लोगों से यह अपील कर रही हैं कि वे दोपहर 12 से 4 के बीच बहुत जरूरी न हों, तो घरों से न निकलें। अब ऐसे में लोगों से चुनाव प्रचार करने, और वोट डालने निकलने की उम्मीद करना तो बहुत ही नाजायज होगा। 

दुनिया में मौसम की मार बढ़ती चल रही है, हर बरस गर्मी बढ़ती चली जा रही है। आज ही खबरों में यह है कि नागपुर में कल तापमान 56 डिग्री था। आज तो 45 डिग्री पर भी लोग गिरकर मर रहे हैं, 56 डिग्री गर्मी कैसी रही होगी? आज ही की एक दूसरी खबर बताती है कि ईरान में कल 66 डिग्री सेल्सियस तापमान था। एक मेडिकल जानकारी वाला लेख बतलाता है कि 45 डिग्री के ऊपर इंसानों के दिमाग पर किस तरह का असर पडऩे लगता है। दिल्ली में कल 52.9 डिग्री तापमान था, और जो योरप आमतौर पर ठंडा माना जाता है, उसके भी अलग-अलग शहरों में बीते कुछ बरसों से लगातार बड़ी गर्मी दर्ज की जा रही है। मौसम के जानकार लोगों का कहना है कि यह गर्मी तो हर बरस बढ़ती ही चलेगी। सरकार को न सिर्फ चुनावों के लिए अलग महीने तय करने चाहिए, बल्कि सडक़ और भवन निर्माण जैसे बहुत से कामों के लिए यह तय कर लेना चाहिए कि उन्हें गर्मियों के पहले या उसके बाद किस तरह से करवाया जा सकेगा। फिलहाल आज मतदान निपट जाए, 4 तारीख को मतगणना निपट जाए, और अगली सरकार के सामने मई-जून के किसी भी राज्य के चुनावों के साथ-साथ संसद के अगले चुनावों का कैलेंडर बदलने का मुद्दा लाना चाहिए। कायदे से तो हमारे बजाय सांसदों और विधायकों को ही यह बात उठानी चाहिए थी, लेकिन उन पर शायद गर्मी की सीधी मार अब नहीं पड़ती है, इसलिए जनता के बीच से कुछ लोगों को संसद और विधानसभा के लिए, और जरूरत पड़े तो अदालत तक जाकर भी इस मुद्दे को उठाना चाहिए। चुनाव प्रचार, इंतजाम, और हिफाजत, इन तीनों कामों में लगे हुए करोड़ों लोगों में से दो-चार फीसदी लोगों को भी एयरकंडीशनर नसीब नहीं होते हैं, इसलिए कानून बनाकर ही मौतों का यह खतरा घटाया जा सकता है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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