संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का विशेष संपादकीय : एनडीए के दावों, और एक्जिट पोल में से अधिक बड़ी शिकस्त किसकी?
04-Jun-2024 4:14 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  विशेष संपादकीय :  एनडीए के दावों, और  एक्जिट पोल में से अधिक  बड़ी शिकस्त किसकी?

-सुनील कुमार

हिन्दुस्तानी आम चुनाव के नतीजे उन लोगों को तो चौंकाने वाले हैं जो मीडिया, सोशल मीडिया, और एक्जिट पोल का मजा लेते बैठे थे। इन सबके मुताबिक देश में एक मोदी लहर चल रही थी, जिसमें इंडिया नाम का गठबंधन बह जाने वाला था। लेकिन अभी जब नतीजे आ रहे हैं, तो दोपहर 4 बजे के रूझान के आंकड़ों को लेकर हम यह टिप्पणी लिख रहे हैं। सभी 543 सीटों पर वोटों की गिनती चल रही है, और चार सौ पार के एक मुश्किल नारे के साथ देश के इतिहास का सबसे आक्रामक चुनाव अभियान चलाने वाले, एनडीए के चेहरे नरेन्द्र मोदी को दावे और एक्जिट पोल की उम्मीद के मुताबिक कामयाबी मिलते नहीं दिख रही है। इस पल के आंकड़े बता रहे हैं कि एनडीए को पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले भी काफी कम सीटें मिल रही हैं। एनडीए को 295 सीटें मिल रही हैं, जिनमें से भाजपा की सीटें 239 हैं। लोगों को याद होगा कि पिछले आम चुनाव में भाजपा की अपनी कमल छाप सीटें 303 थीं, और इस बार वह 63 सीटें खोते दिख रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस के पास पिछले लोकसभा चुनाव में 52 सीटें थीं, जो कि अब 100 होते दिख रही हैं, यानी कांग्रेस को 48 सीटों का इजाफा हुआ है। इंडिया-गठबंधन पिछले चुनाव में इस शक्ल में नहीं था, और इस बार उसमें दूसरी पार्टियां जुड़ी हैं, और इस गठबंधन को 230 सीटें मिलने का आसार दिख रहा है। ये चुनावी नतीजे बहुत अधिक फेरबदल वाले नहीं दिख रहे हैं, और ऐसा लगता है कि अपने दावों, उम्मीदों, और मीडिया-समर्थन के मुताबिक अधिक होता न देखकर भाजपा में एक निराशा होगी, लेकिन देश की अगली सरकार तो किसी कीर्तिमान से नहीं बनती है, गिनती से बनती है, और गिनती तो यही है कि एनडीए की अगुवाई कर रही भाजपा अपना अगला प्रधानमंत्री बनाने जा रही है। यह रिकॉर्ड भी कोई कम नहीं है, और जीतकर लगातार तीसरी बार पीएम बनने वाले मोदी शायद नेहरू के बाद दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री होंगे। भाजपा को अपना ही नारा खासे वक्त तक चुभते रह सकता है, अबकी बार चार सौ पार अब जमीन पर तीन सौ तक भी पहुंचते नहीं दिख रहा है। इससे अधिक तो भाजपा की अपनी कमल छाप सीटें पिछली बार थीं। 

यह आम चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक था। एक तरफ तो कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी तक, तृणमूल से लेकर दक्षिण की पार्टियों तक, उधर कश्मीर में फारूख से लेकर बिहार में लालू तक, अनगिनत मोदी विरोधी नेता और पार्टी लगातार केन्द्रीय जांच एजेंसियों के निशाने पर बने हुए थे। हो सकता है कि इनमें से बहुत से भ्रष्टाचार में शामिल रहे हों, लेकिन इनके मुकाबले देश में एक ऐसी तस्वीर बन रही थी कि भाजपा, और एनडीए के तमाम लोग दूध के धुले हुए हैं। भ्रष्टाचार पर कार्रवाई अच्छी बात है, लेकिन जब 95 फीसदी मामले सिर्फ विपक्ष के लोगों पर हों, तो जनता को भी यह बात कहीं न कहीं दिख रही होगी, और चुभ रही होगी। यही वजह है कि एनडीए गठबंधन ने तो कुल 63 सीटें खोई हैं, लेकिन उसके भीतर भाजपा ने 66 सीटें खोई हैं। अब जब चुनावी नतीजे सामने हैं, तो भाजपा के एजेंडे को भी देखना होगा जिसने इस चुनाव को मुंह से कहे बिना देश में एक धार्मिक जनमत संग्रह में तब्दील कर दिया था। उसके तमाम नारे, मनमोहन सिंह की न कही हुई बात का हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल, मुसलमानों को कहीं घुसपैठिया कहना, कहीं ओबीसी आरक्षण में मुस्लिमों को शामिल करने का विरोध करना, तो कहीं मंगलसूत्र छीन लिए जाने का डर दिखाना, ऐसी इतनी बातें चुनाव प्रचार में खुद प्रधानमंत्री के भाषणों में कही गईं, कि पार्टी के बाकी नेताओं के भाषणों और बयानों में उसी की गूंज चलती रही। और तो और भाजपा ने एक बहुत बड़ा बेबुनियाद, और भडक़ाऊ नारा अपने सर्वोच्च स्तर से चलाया था कि अगर इंडिया-गठबंधन की सरकार बनी तो राम मंदिर पर बाबरी ताला डल जाएगा। यह सुनते हुए भी चुनाव आयोग उसी तरह सोते रहा, जिस तरह अपने पोते के सैकड़ों बलात्कार की शिकायतें सुनते हुए एचडी देवेगौड़ा सो रहे थे, या अपने को पसंद सरकार के भ्रष्टाचार अनदेखे करते हुए अन्ना हजारे सोते हैं। केन्द्र सरकार के एक विभाग की तरह काम करने की तोहमत झेल रहे चुनाव आयोग को भी भाजपा को धर्म के आधार पर बयानबाजी न करने को कहना पड़ा। हालांकि आयोग अपने बाकी फैसलों, और बाकी कार्रवाई से मजाक का सामान बनते रहा, और सोशल मीडिया पर उसके बारे में यह लिखा जाता रहा कि आयोग भाजपा सरकार में शामिल नहीं होगा, वह बाहर से समर्थन जारी रखेगा। भाजपा का नारा तो आज मतगणना के बाद हारा है, चुनाव आयोग अपनी साख बहुत पहले से हार चुका है, और इससे कम विश्वसनीयता वाले लोग इसके पहले कभी चुनाव आयोग पर नहीं बैठे थे। फिर भी जो भी हो, एनडीए गठबंधन लगातार तीसरी बार एक स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता पर आ गया है, और गठबंधन को अपने नुकसान पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि कौन सी ऐसी वजहें थीं कि वह चार सौ सीटों के अपने नारे, और पिछली लोकसभा में अपनी 353 सीटों के आंकड़ों से इतना पीछे रह जा रहा है। भारतीय लोकतंत्र में आत्मविश्लेषण न करने, अपने तौर-तरीकों को न सुधारने, किसी की आलोचना बर्दाश्त न करने का पूरा कानूनी हक हर किसी को रहता है। लेकिन ऐसे हक का ऐसा इस्तेमाल लोगों को और गहरे गड्ढे में डालता है। भाजपा के सामने अभी लंबा राजनीतिक जीवन है, और उसे पिछले पांच बरस के अपने तौर-तरीकों के बारे में एक बार फिर सोचना चाहिए कि देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को ध्यान में रखते हुए मुस्लिमों के खिलाफ इस हद तक हमलावर अभियान भी उसे ईडी-आईटी-सीबीआई से जख्मी पार्टियों पर फतह क्यों नहीं दिला पाया? क्या देश की जनता का राजनीतिक और धार्मिक बर्दाश्त उतना अधिक नहीं है जितना कि भाजपा उम्मीद कर रही थी? यह मौका जेल और कटघरों में खड़े इंडिया-गठबंधन के नेताओं के लिए भी चाहे कानूनी राहत का न हो, राजनीतिक राहत का तो है ही कि जनता ने इतने बड़े पैमाने पर सिर्फ विपक्षी नेताओं पर भ्रष्टाचार की कार्रवाई को पसंद नहीं किया, और एनडीए-गठबंधन के भीतर भाजपा की शिकस्त गठबंधन की कुल शिकस्त से अधिक बड़ी हुई। अभी आज यहां पर हम अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों, और राज्यों के नतीजों का विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, और महज राष्ट्रीय स्तर पर सामने आई एक बड़ी तस्वीर पर छोटी सी टिप्पणी कर रहे हैं। 

अब अगर हम छत्तीसगढ़ की बात करें, जहां पर यह अखबार बसा हुआ है, तो यहां की 11 में से 10 सीटों पर भाजपा को जीत मिलते दिख रही है, और यह जीत पिछले लोकसभा चुनाव से एक सीट अधिक ही है। इसलिए यह राज्य की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के लिए एक राहत की बात भी होगी कि उन्होंने भाजपा की सीटों में कुछ इजाफा ही किया है। छत्तीसगढ़ की कोरबा सीट से ज्योत्सना महंत मौजूदा कांग्रेस सांसद हैं, और वे ही कोरबा सीट से भाजपा की दिग्गज नेत्री सरोज पांडेय को हराते हुए दिख रही हैं, वे छत्तीसगढ़ से अकेली कांग्रेस सांसद रहेंगी, अगर आगे की मतगणना में यही रूख कायम रहता है। उनके पति डॉ.चरणदास महंत छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं, और प्रदेश कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ नेता भी हैं, और अपनी सज्जनता के लिए जाने जाते हैं। पति-पत्नी की यह मिलीजुली जीत दोनों के राजनीतिक कद और उनकी ताकत में इजाफा करेगी। खासकर उस हालत में जब पांच बरस प्रदेश के अभूतपूर्व ताकत वाले मुख्यमंत्री रहे भूपेश बघेल चुनाव हारते दिख रहे हैं, और कांग्रेस के कई बड़े-बड़े नेता छत्तीसगढ़ में चुनाव हार रहे हैं। छत्तीसगढ़ के नतीजों का विश्लेषण भी हम अलग से करेंगे, आज मतगणना के आंकड़ों के बीच यह टिप्पणी टीवी स्क्रीन पर बदलते हुए नंबरों का एक विश्लेषण है। बाकी बातें आने वाले दिनों में। दो राज्यों के विधानसभा चुनाव के आंकड़े भी सामने हैं जिनके मुताबिक ओडिशा में पिछले 24 बरस से मुख्यमंत्री चले आ रहे नवीन पटनायक की सरकार को बेदखल करके भाजपा वहां राज्य सरकार बनाने के करीब है। दूसरी तरफ आन्ध्र में एनडीए के साथ की घोषणा कर चुके चन्द्राबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी भारी लीड के साथ सरकार बना रही है, और नायडू ने अभी खुलकर घोषणा की है कि वे एनडीए के साथ रहेंगे। 

चलते-चलते बस एक बात और, एक्जिट पोल से देश के मनोरंजन की एक शाम अच्छी गुजरी थी, और जैसी शिकस्त एनडीए की हुई है, उससे बुरी शिकस्त एक्जिट पोल की हुई है। 

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