संपादकीय
हिन्दुस्तान के आम चुनाव दुनिया के सबसे ही अनोखे होते हैं। शायद ही कोई ऐसा देश होता हो जिसमें इतनी क्षेत्रीय पार्टियां हों, कई राष्ट्रीय पार्टियां हों, कुछ क्षेत्रीय गठबंधन हों, कुछ राष्ट्रीय गठबंधन हों, और कई गठबंधन हर पांच बरस में कुछ-कुछ बदल भी जाते हों। वैसे भी यह देश अपने आपमें योरप की तरह का है जिसके अलग-अलग देश मिलकर कुछ खास एजेंडा के लिए यूरोपीय समुदाय जैसा एक संगठन बनाते हैं, और इन देशों में यूरोपीय संसद के सांसद चुनने के लिए अलग से चुनाव भी होते हैं। लेकिन ऐसे एक संगठन की तरह होने के साथ-साथ भारत तो एक देश है जहां पर एक राष्ट्रीय सरकार है, और ढाई दर्जन प्रादेशिक सरकारें हैं। दर्जन भर से अधिक भाषाएं हैं, और सैकड़ों बोलियां हैं। आधा दर्जन से अधिक धर्म हैं, और सैकड़ों जातियां हैं। दर्जनों राजनीतिक दल देश में मान्यता प्राप्त हैं, और कुछ दल एक से अधिक प्रदेशों में भी जाकर चुनाव लड़ते हैं, आम आदमी पार्टी ने दो प्रदेशों में सरकार बनाने में कामयाबी पाई है। वामपंथी दल पश्चिम बंगाल के अलावा केरल और त्रिपुरा में भी राज करते रहे।
भारत के इन ताजा चुनावी नतीजों को देखें तो यह देश हैरान करता है। धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों को नकारते हुए वोटरों ने जिस तरह चुनाव को एक धार्मिक जनमत संग्रह में बदलने से इंकार कर दिया, वह देखने लायक है। राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र जैसे विषयों के शोधकर्ताओं के लिए भारतीय राजनीति और चुनाव से अधिक दिलचस्प तो पूरी दुनिया में और कुछ नहीं हो सकता। राजनीतिक बेईमानी की जितनी विविधताएं भारत में देखने मिलती हैं, वे दुनिया के कुछ देशों में इक्का-दुक्का मामलों में यहां से अधिक हो सकती हैं, लेकिन ऐसी विविधताओं वाली नहीं हो सकतीं। फिर हर मौसम में जिस तरह कुछ पेड़ों के फूलों और पत्तों के रंग बदल जाते हैं, कोई फल से लद जाते हैं, उसी तरह हिन्दुस्तान की राजनीति में पार्टियों और गठबंधनों के ईमान बदल जाते हैं, उनके एजेंडा बदल जाते हैं। कहां तो कोई पार्टी कुनबापरस्ती के खिलाफ आसमान सिर पर उठाकर रखती है, और फिर परले दर्जे की कुनबापरस्त पार्टियों, और बलात्कारी कुनबों में से किसी को गोद में बिठाती हैं, तो किसी को सिर पर चढ़ाती हैं। नीति और सिद्धांत की बेईमानी की हिन्दुस्तान से बड़ी विविधता शायद किसी देश में न होती हो।
और फिर हिन्दुस्तान एक ऐसा देश भी है जो चुनाव आयोग की वोट डालने की मशीनों के ठीक काम कर लेने को लोकतंत्र की कामयाबी भी मान लेता है। हर पांच बरस में चुनावों की निरंतरता ही हिन्दुस्तानी आबादी के लिए लोकतंत्र है। हजारों बरसों में दुनिया की सभ्यता ने विकसित होते-होते हाल के कुछ सौ बरसों में लोकतंत्र के जिन बुुनियादी तत्वों को समझा था, और जिन पर चलना शुरू किया था, उन्हें पूरी तरह कुचलकर, चूर-चूर करके भी हिन्दुस्तानी यह मानते हैं कि यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लोकतंत्र को एक ढांचे की तरह मान लिया गया है जिसकी लंबाई, चौड़ाई, और ऊंचाई सबसे अधिक होने से ही वह सबसे बड़ा लोकतंत्र हो गया हो। चाहे वह अभिव्यक्ति और आजादी के अलग-अलग बहुत से पैमानों पर जमीन पर औंधेमुंह गिरा हुआ देश ही क्यों न बन चुका हो, उसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, और इस पर गर्व किया जाता है। सच तो यह है कि हिन्दुस्तान लगातार चुनावों में भी जितने किस्म की बेईमान, अनैतिक, अलोकतांत्रिक, और भ्रष्ट बातों का इस्तेमाल करके सरकार चुनता है, उन्हें देखें तो यह लगेगा कि यह चुनना भी कुछ चुनना है? यह लोकतंत्र भी कोई लोकतंत्र है?
यह भी समझने की जरूरत है कि जनमत, जनादेश, समाज या नागरिकों को सामूहिक जनचेतना जैसे भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल भारत के लोकतंत्र के गौरवगान के लिए अक्सर ही होता है, और उनकी हकीकत क्या है? जिस देश में किसी बलात्कारी के बेटे को उम्मीदवार बनाने की अकेली योग्यता यह हो कि वह दबंग बलात्कारी, या दंगाई अपने दम-खम से अपनी अगली पीढ़ी की राजनीतिक स्थापना कर सकता है, तो वहां पर ऐसे लोगों की जीत हो जाने को किस तरह की सामूहिक जनचेतना कहा जाएगा? जिस तरह देश के तमाम छोटे-बड़े गठबंधन वक्त-जरूरत कुनबापरस्ती को कोसते रहें, और अपनी जरूरत पर खालिस कुनबापरस्त पार्टियों को सिर पर बिठाते रहें, तो उसे क्या कहा जा सकता है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राहुल गांधी को शहजादा कहते-कहते, कुनबापरस्ती और परिवारवाद को कोसते-कोसते अपना गला सुखा बैठते थे, लेकिन जमाने तक उनके एनडीए को खालिस कुनबापरस्त शिवसेना, और अकाली दल, तेलुगु देशम, और नेशनल कांफ्रेंस जैसी सभी पार्टियां सुहाती रहीं। अगर कांग्रेस भी एनडीए में शामिल हो जाती, तो उसे भी कुनबापरस्ती की तोहमत से छुटकारा मिल जाता। राजनीति शास्त्र के किसी शोधकर्ता के लिए भारतीय राजनीति में कुनबापरस्ती अपने आपमें कई पीएचडी का मुद्दा हो सकता है, और यह भारतीय लोकतंत्र का एक बड़ा छोटा सा तत्व रह गया है। इस देश की विविधता यह देखकर भी हैरान करती है कि किस तरह धर्म और जाति के आधार पर, किस तरह भडक़ाई गई सांप्रदायिकता के आधार पर, और किस तरह चुनाव और बाकी राजनीति में सफेद झूठ के इस्तेमाल से चुनाव जीते जाते हैं। इन्हें देखें तो लगता है कि जिस देश का चुनाव आयोग इनमें से किसी पर लगाम नहीं लगा सकता, वह अपने आपकी तारीफ किसी मशीन बेचने वाले की मशीन की गारंटी की तारीफ में पढ़े जाने वाले कसीदों की तरह करता है। हिन्दुस्तान एक अजीब देश इस मायने में भी है कि यहां लोगों को मतदाताओं की संख्या का आकार गौरव का सामान लगता है।
जिस तरह हिन्दुस्तान के चुनाव भ्रष्टाचार पर टिके रहते हैं, कई पार्टियां करोड़ों रूपए लेकर टिकट देती हैं, इसके बाद टिकट पाने वाले उम्मीदवार चुनावी खर्च की सीमा से सैकड़ों गुना ज्यादा भी खर्च करके किसी फंदे में नहीं फंसते, और संसद या विधानसभाओं में पहुंच जाते हैं, ताकत रहने पर मंत्री भी बन जाते हैं, यह सब दिल दहलाने वाला नजारा है। लेकिन इन सबको भी लोकतंत्र की तथाकथित कामयाबी और निरंतरता के नाम पर अनदेखा कर दिया जाता है। भारतीय लोकतंत्र अब न गरीबों का हिमायती रह गया है, न ही धर्म और जाति के आधार पर जो तबके गरीब हैं, उनका हिमायती। यह लोकतंत्र कानून बनाने से लेकर कानून लागू करने तक, और उस कानून के आधार पर फैसला देने तक, किसी भी तरह के काम में दौलतमंदों के पास गिरवी रखे गए सामान की तरह हो गया है। पिछले कुछ दशकों में किस तरह हिन्दुस्तानी लोकतंत्र धीरे-धीरे सबसे अधिक पैसेवालों का जरखरीद सामान हो गया है, किस तरह अरब-खरबपतियों की पसंद उम्मीदवारी तय करने से लेकर चुनाव जितवाने तक, और फिर मंत्री बनवाने तक काम आने लगी हैं, यह देखना भी भयानक है। और हिन्दुस्तानी लोग धीरे-धीरे होने वाले इस पतन को देखने के इतने आदी हो गए हैं कि उन्हें अब यह बड़ा स्वाभाविक लगने लगा है। लेकिन देश के बाहर से अगर शोधकर्ता यहां आएंगे, तो उन्हें भारतीय लोकतंत्र में अंतर्निहित विसंगतियां और विरोधाभास सतह पर तैरते हुए दिखेंगे, जिन्हें देखने के हम आदी हो चुके हैं, और हमें इनका अहसास होना बंद हो चुका है।
हम किसी एक पार्टी या गठबंधन, एक प्रदेश या एक चुनाव को लेकर ये तमाम बातें नहीं लिख रहे हैं। हमारा यह साफ मानना है कि भारतीय लोकतंत्र में तमाम किस्म के भ्रष्ट तत्व धीरे-धीरे करके जिस तरह और जिस हद तक नवसामान्य मान लिया गया है, वह लोकतंत्र के पतन का एक बड़ा लक्षण है। एक निहायत ही भ्रष्ट, नाजायज, और अनैतिक चुनाव को अगर कामयाब लोकतंत्र मानकर उसे दुनिया में सबसे अधिक गर्व के लायक मान लिया गया है, तो इसकी बुनियादी खामियों पर कभी शर्मिंदगी और सुधार की तो गुंजाइश ही नहीं रहेगी। खैर, दुनिया में लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है, जैसी सरकार के वे हकदार रहते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)