संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : शुरूआती खुशी और गम से उबरने के बाद अब...
06-Jun-2024 3:59 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : शुरूआती खुशी और गम से उबरने के बाद अब...

फोटो : सोशल मीडिया

4 जून की सुबह से ही देश में शुरू हुई उथल-पुथल दो दिन के भीतर ही काफी हद तक थम चुकी है, और अब ऐसा लग रहा है कि एनडीए की सरकार बनने, और मोदी के प्रधानमंत्री बनने में कोई शक बाकी नहीं है। एक दिन की अटकलबाजी बड़ी तेजी से बारिश की बूंदों से बैठ गई बूंद की तरह थम चुकी है, और नीतीश कुमार और चन्द्राबाबू नायडू को लेकर शुरू हुई अटकलें एक दिन के भीतर ही शांत हो चुकी हैं। जहां तक भाजपा और एनडीए के सदमे से उबरने का सवाल है, तो आंकड़ों की हकीकत देखकर वे भी उबर रहे हैं कि प्रधानमंत्री तो नरेन्द्र मोदी ही बनेंगे, और कहने के लिए यह तो है ही कि भाजपा की अपनी सीटें बाकी तमाम विपक्ष की मिली हुई सीटों से भी अधिक हैं। निराशा के बीच भी नरेन्द्र मोदी ने भाजपा कार्यालय से अपने भाषण में तीसरी बार सत्ता में लौटने की ऐतिहासिक कामयाबी को गिनाया, और ओडिशा राज्य को विधानसभा, और लोकसभा दोनों में जीत लेने का शुक्रिया अदा करने के अंदाज में उन्होंने जय-जगन्नाथ से बात शुरू की, ओडिशा की चर्चा की, और भगवान जगन्नाथ के आशीर्वाद की चर्चा की। इस मौके पर राम मंदिर की चर्चा अब प्रासंगिक नहीं रह गई थी क्योंकि रामलला अपनी अयोध्या में ही भाजपा को नहीं जिता पाए, और अयोध्या वाले उत्तरप्रदेश में भाजपा का बड़ा नुकसान देखने मिला है, जबकि राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा से पूरे देश में बड़े फायदे की उम्मीद की जा रही थी। पांच बरस के भीतर बीजेपी की लोकसभा सीटें 303 से गिरकर 240 पर आ गई हैं, और उत्तर भारत के चार राज्यों, यूपी, राजस्थान, बिहार, और हरियाणा में उसकी पिछले चुनाव की सीटें आधी रह गई हैं। ऐसे में जब ओडिशा ने भाजपा को इस बार 21 में से 20 लोकसभा सीटें दी हैं, और राज्य में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल को हटाकर भाजपा को आधे से अधिक विधानसभा सीटें दी हैं, और भाजपा की सरकार बनाई हैं, तो मोदी का भगवान जगन्नाथ का आभार मानना स्वाभाविक ही था।

 
अब इन आंकड़ों से परे की बात देखें, तो मोदी के पिछले दो कार्यकाल से उनका यह कार्यकाल अलग रहने वाला है। दरअसल उनका यह कार्यकाल उनके सारे सत्ताकाल से अलग रहने वाला है। गुजरात के मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्होंने राज्य सरकार के साथ-साथ भाजपा और संघ परिवार के संगठनों पर एकतरफा राज किया था। वहां जो कुछ थे, वे ही थे। इसके साथ ही जब वे पहली बार दिल्ली पहुंचे, तब अपनी एनडीए सरकार के दोनों कार्यकाल में जो कुछ थे, वे ही थे। वे मंत्रिमंडल में पहुंचकर अपने उन राष्ट्रव्यापी और ऐतिहासिक फैसलों की घोषणा करते थे जो कि मंत्रिमंडल की बैठक खत्म होने के पहले लागू होने वाले थे। वे एक राजा के अंदाज में अपने दरबार को अपने फैसले बताते थे, लेकिन लोगों का यह अंदाज है कि अब इस कार्यकाल में नौबत बदली रहेगी। तेलुगु देशम और जेडीयू जैसी पार्टियां मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के एवज में आन्ध्र और बिहार के लिए विशेष दर्जा भी मांग सकती हैं, लोकसभा अध्यक्ष और ऐसे दूसरे कई पद मांग सकती हैं, और मंत्रालयों के बंटवारे में भी वे अपनी कई शर्तें रख सकती हैं। इसके साथ ही एक बात यह भी है कि मोदी को पहली बार गठबंधन-धर्म का सम्मान करने की नौबत आ सकती है, या आ चुकी है। इसके तहत हो सकता है कि वे मुस्लिमों के प्रति पिछले कुछ महीनों के अपने ताजा रूख को उसी आक्रामकता के साथ जारी न रख सकें क्योंकि सहयोगी दलों में कई ऐसे हैं जिन्हें मुस्लिमों से इस दर्जे का परहेज नहीं है। गंभीर समाचार माध्यमों की यह व्याख्या है कि मोदी अपनी सरकार के अकेले निर्णायक की तरह जिस अंदाज में काम करने के आदी हैं, उनके लिए यह बड़ा अटपटा होगा कि उन्हें औरों की बात भी सुननी होगी। यह नौबत उनके लिए अटपटी हो सकती है, लेकिन हिन्दुस्तान का प्रधानमंत्री तीसरी बार बनने के लिए यह बहुत बड़ा समझौता होगा, ऐसा मानना भी ठीक नहीं होगा। 

एनडीए गठबंधन के भीतर भाजपा का दबदबा कुछ कमजोर होना तय है, लेकिन भाजपा के भीतर मोदी और शाह का दबदबा कम होगा, ऐसा कोई आसार अभी दिखता नहीं है। ऐसा इसलिए भी है कि एनडीए के दूसरे ताकतवर सहयोगी दल अपने हक के लिए चाहे जितने अड़ें, भाजपा के भीतर के मामलों से उनका कुछ लेना-देना नहीं रहेगा, और भाजपा के भीतर मोदी और शाह की लीडरशिप को फिलहाल तो कोई चुनौती नहीं दिख रही है। इस मतगणना के पहले ही जिस तरह भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए एक इंटरव्यू में बहुत ही असाधारण अंदाज में यह कहा था कि भाजपा अब बहुत ताकतवर पार्टी हो गई है, और उसे अब आरएसएस की उस तरह की जरूरत नहीं रह गई है। नड्डा ने मतगणना के दस दिन पहले के इंटरव्यू में कहा था कि भाजपा उस वक्त से बहुत आगे बढ़ गई है, और सक्षम हो गई है, और अपने को चलाकर अपना काम करने में अब उसे आरएसएस की जरूरत नहीं रह गई। उनसे पूछा गया था कि अटल बिहारी बाजपेयी के पीएम रहने के वक्त से अब तक भाजपा में आरएसएस की मौजूदी में क्या फर्क पड़ा है, तो उनका कहना था-शुरू में हम अक्षम होंगे, थोड़ा कम होंगे, आरएसएस की जरूरत पड़ती थी, आज हम बढ़ गए हैं, सक्षम हैं, तो बीजेपी अपने आपको चलाती है। 

चुनाव के बीच में तो भाजपाध्यक्ष के इस इंटरव्यू पर आरएसएस की कोई प्रतिक्रिया देखने में नहीं आई थी, लेकिन आज बदले हुए हालात में जब भाजपा अपने आपमें 2019 जितनी ताकतवर नहीं रह गई है, तो यह देखना है कि अब उसे संघ की जरूरत एक बार फिर लग रही है या नहीं। और यह भी ऐसे समय जब मोदी सरकार के भीतर अपने पिछले पीएम-सीएम के तमाम कार्यकाल जितनी आजादी और जितने अधिकार वाले शायद नहीं रह जाएंगे। यह वक्त हो सकता है कि मोदी को गठबंधन-धर्म निभाना भी सिखा सके, और हो सकता है कि यह संघ की जरूरत से उबर चुके भाजपाध्यक्ष नड्डा के लिए भी आत्ममंथन का हो। 

सहयोगी दलों पर निर्भरता बहुत नुकसानदेह नहीं रहती है। हमारा देखा हुआ है कि यूपीए-1 सरकार वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से चल रही थी, और गठबंधन के साथियों के दबाव के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार में भ्रष्टाचार उतना नहीं हो पाया था जितना कि बाद में वामपंथियों की जरूरत खत्म हो जाने के बाद हुआ था। हो सकता है कि सहयोगी दलों पर आश्रित रहते हुए मोदी सरकार का एजेंडा देश में अधिक लोकतांत्रिक रहे, और यह सरकार पिछले दो कार्यकाल के मुकाबले बेहतर भी साबित हो। सहयोग का मोहताज होना कई बार अपने आपको सुधारने का मौका भी देता है। इसलिए हम इसे अगले पांच बरस में विपक्ष की बारी आ जाने जैसा नहीं मानते। हो सकता है कि इस बार के झटके से उबरते हुए मोदी और उनके सहयोगी इतने संभल जाएं कि अगले चुनाव में इससे बड़ा झटका न खाएं। खैर, एनडीए, या इंडिया-गठबंधन, इनमें से किसका भला-बुरा होता है, इससे अधिक फिक्र हमें देश के भले-बुरे की है। अब जब एनडीए पांच बरस के लिए जनता द्वारा चुन ली गई है, तो इसे बेहतर बनाने की जिम्मेदारी उसके बड़े भागीदारों पर भी मोदी से कम नहीं है। देखना है कि कौन अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी कितनी निभाते हैं।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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