संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नौजवान दलित नेता के संसद पहुंचने से उम्मीदें
07-Jun-2024 3:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  नौजवान दलित नेता के संसद पहुंचने से उम्मीदें

photo : twitter

उत्तरप्रदेश के एक नए और नौजवान दलित नेता चंद्रशेखर आजाद ने एक दलित-आरक्षित सीट, नगीना, पर भाजपा को डेढ़ लाख वोटों से हराया और इस सीट पर बसपा उम्मीदवार चौथे नंबर पर रहा जिसे सिर्फ तेरह हजार वोट मिले। पिछले चुनाव में यहां बसपा उम्मीदवार जीता था क्योंकि 2019 में सपा और बसपा के बीच गठबंधन था। चंद्रशेखर आजाद पिछले कई बरस से आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) बनाकर दलितों के बीच राजनीतिक कर रहे हैं, और इस बार कुछ जगहों पर चुनाव लडऩे के बावजूद चंद्रशेखर अकेले संसद पहुंच पाए हैं। एक नए नौजवान दलित नेता का उत्तर भारत की राजनीति में चुनावी कामयाबी पाना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि उत्तरप्रदेश में राज कर चुकी बसपा-मुखिया मायावती पिछले कुछ बरसों से सार्वजनिक रूप से गुमसुम है, और लोगों का ऐसा अंदाज है कि वे अपने भ्रष्टाचार की तरह-तरह की एजेंसियों से चल रही जांच की वजह से मोदी सरकार से इस हद तक दबी हुई हंै कि वे बस नाम के लिए राजनीति में रह गई हैं, और भाजपा विरोधियों के वोट काटने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। और फिर जैसा कि किसी भी कुनबापरस्त पार्टी में होता है, मायावती ने पहले तो अपने भतीजे को आसमान पर चढ़ाया, और अपने वारिस की तरह पेश किया, और एक दिन अचानक उसे अपरिपक्व करार देते हुए उसे विरासत से बेदखल कर दिया। ऐसी सनक के साथ चल रही राजनीति और पार्टी से दलित समुदाय का कोई भला नहीं हो सकता, और इस बार यूपी के चुनाव में भाजपा की जो तबाही हुई है, उसके बारे में कहा जा रहा है कि इस बार दलितों ने बसपा को छोड़ सपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों को वोट दिया क्योंकि वे ही भाजपा हरा सकते थे। मतलब यह है कि बसपा अब दलित राजनीति में भाजपा के हाथ का एक वोटकटवा औजार बनकर रह गई है। ऐसे में दलितों के राजनीतिक और सामाजिक हक के लिए चंद्रशेखर आजाद का उभरना एक अच्छी बात है, और आगे-पीछे वे मायावती से निराश दलितों को एकजुट कर सकते हैं, उम्र उनके साथ है, और भ्रष्टाचार की किसी गठरी का बोझ उनके सिर पर नहीं है। 

मायावती ने कांशीराम से विरासत में मिली बसपा का ऐसा गजब का बेजा इस्तेमाल किया कि उससे देश के दलितों की इज्जत खराब हुई। जब कोई किसी तबके के नाम पर राजनीति करे, और उस तबके के हितों से परे  अपने निजी मुनाफे के लिए आसमान छूता भ्रष्टाचार करे, तो उससे उस तबके की राजनीतिक ताकत ही तबाह होती है। मायावती का खुद का भ्रष्टाचार के मामलों में चाहे जो हो, उन्होंने अपने प्रभाव के दलित तबके को मानो भाजपा के हाथ बेच सा दिया था। इसलिए देश के दलितों का बसपा से छुटकारा एक अच्छी नौबत है, और ऐसे शून्य में एक नई लीडरशिप के उभरने का मौका रहता है, और चंद्रशेखर आजाद का सांसद बनना संसद में एक दलित पार्टी की आवाज पहुंचने के समान है। उत्तरप्रदेश के पिछले चुनाव में कांग्रेस और सपा ने मायावती की बसपा से गठबंधन किया था, और इस चुनाव में वह गठबंधन नहीं रहा, इसलिए अगले किसी चुनाव तक कांग्रेस, सपा, और दूसरे भाजपाविरोधी दलों को चंद्रशेखर आजाद की संभावनाओं पर सोचना चाहिए। देश के अलग-अलग हिस्सों में अगर इस नई पार्टी को, जिसने अपना नाम सोच-समझकर आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) रखा है, जिसे कि संक्षिप्त में आसपा कहा जाएगा, जगह देने के बारे में दूसरी पार्टियों को भी सोचना चाहिए। आज उत्तरप्रदेश में भी कांग्रेस और सपा के साथ अगर कोई मजबूत दलित पार्टी रहती, तो इस गठबंधन को चुनावी कामयाबी अधिक मिलती। अब देश की चुनावी राजनीति कांग्रेस और भाजपा जैसी दो पार्टियों के काबू में नहीं दिख रही हैं। भाजपा अगर इस चुनाव में सरकार बना पा रही है, तो वह गठबंधन के साथियों की वजह से, और कांग्रेस अगर आज एक बार फिर प्रासंगिक हुई है, तो वह भी गठबंधन के दूसरे दलों की वजह से। क्षेत्रीय पार्टियों के नवजागरण के इस दौर में देश की इस नई ताजी दलित पार्टी की संभावनाओं को कौनसी पार्टी या गठबंधन पहचानते हैं यह सोचने और देखने की बात है।

देश में धर्म और जाति के आधार पर बहुत से आर्थिक मुद्दे भी सामने आते हैं। और आर्थिक असामनता के लिए कुछ जातियों को अतिरिक्त प्रोत्साहन देने की जरूरत है। इसलिए एक दलित पार्टी के मजबूत होने से देश में सामाजिक न्याय की एक संभावना बन सकेगी। यह भी है कि किसी धर्म, जाति, या क्षेत्र के नाम पर बनी पार्टियां शुरू में तो एक मकसद पूरा करती हैं, लेकिन धीरे-धीरे वे अपने मौजूदा मुखिया की भ्रष्ट हसरतों की शिकार हो जाती हैं, और राजनीतिक ताकत उसी तरह खो बैठती हैं, जिस तरह आज बसपा खो चुकी है। इसलिए यह भी हो सकता है कि हर एक-दो दशक में भ्रष्ट हो चुकी पार्टियों का विर्सजन कर दिया जाए, और उन तबकों के लिए नई पार्टियों को मौका दिया जाए। अभी हम चंद्रशेखर आजाद को लेकर अधिक व्याख्या नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे बहुत नए हैं, और उन्हें भ्रष्ट होने का मौका शायद अभी तक मिला भी नहीं होगा। लेकिन उत्तरप्रदेश में अब एकदम से कामयाबी पा चुकी कांग्रेस और सपा को चाहिए कि वे इस नई दलित पार्टी के साथ तालमेल की संभावनाएं देखें। इसके अलावा देश में जहां कहीं भी दलित-आरक्षित लोकसभा या विधानसभा सीटें हैं, वहां पर चंद्रशेखर आजाद को भी मेहनत करनी चाहिए, और दलित हिमायती दूसरी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को भी उन्हें साथ रखना चाहिए। देश में आज दलित मुद्दे बहुत हैं, लेकिन उनकी साफ-साफ हिमायती, और उस समुदाय के बीच विश्वसनीय पार्टी कोई नहीं रह गई है। ऐसे में दलित-आदिवासी, पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदायों पर केंद्रित पार्टियों को एक-दूसरे से बेहतर तालमेल रखना ही चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news