संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सरकारें आती-जाती हैं, उम्मीद नजर नहीं आती
13-Jun-2024 4:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  सरकारें आती-जाती हैं,  उम्मीद नजर नहीं आती

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

छत्तीसगढ़ के किसी एक दिन के अखबार उठाकर देखें तो समझ पड़ता है कि सरकार का ढांचा कितना जर्जर है। जगह-जगह अस्पतालों में मशीनें खराब हैं, जांच के लिए जरूरी केमिकल-किट नहीं हैं, कहीं ऑक्सीजन प्लांट बंद है, कहीं स्कूल-कॉलेज की छत गिर रही है, सडक़ें अंधेरी पड़ी हैं, रजिस्ट्री ऑफिस में पैर रखने की जगह नहीं है, और सरकार को टैक्स में लाखों रूपए देने के लिए खड़े हुए लोग मानो किसी ट्रेन के आम डिब्बे में कैटल-क्लास की तरह खड़े हुए हैं। सरकारी दफ्तरों के सर्वर डाउन हैं, वहां पहुंचने वालों को लोग नहीं मिलते, सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर वक्त पर नहीं हैं, स्कूल शिक्षक गांव के किसी बेरोजगार लडक़े को क्लास चलाने का ठेका दे चुके हैं, अस्पताल सरकार से बेईमानी कर रहे हैं, निजी स्कूलें नामौजूद छात्रों की फीस सरकार से ले रही है। कुल मिलाकर सरकार से जुड़े हुए किसी भी काम को देखें, तो उसमें गड्ढा दिखता है। और यह कोई इस सरकार के छह महीने का हाल नहीं है, यह हाल राज्य बना है तब से, और अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से चले आ रहा है। 

सरकारें नई योजनाओं की घोषणाओं में आगे रहती हैं, लेकिन जो रोज का काम ठीक से चलना चाहिए, उसके सही तरीके से चलने पर कोई वाहवाही नहीं मिलती, इसलिए नई-नई योजनाओं की शोहरत सत्ता को अधिक जरूरी लगती है, और रोजाना के कामकाज की बदहाली पर किसी का ध्यान नहीं जाता। अब तो पूरे देश में आम चुनाव निपट गया है, और अब आम जनता को निपटाने की नौबत वाली सरकारी व्यवस्था को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए। आम कामकाज को पटरी पर चलाने से नेताओं को सुर्खियां नहीं मिलतीं, अफसर नेताओं को इन्हें अपनी खूबी की तरह नहीं दिखा पाते। इसलिए सत्ता से जुड़े हर किसी की पहली कोशिश यह होती है कि कोई अनोखी और मौलिक योजना लागू की जाए, जिसके साथ उनका नाम ताजमहल बनवाने वाले शाहजहां की तरह दर्ज हो जाए। ताजमहल से रोज की खून की जांच नहीं होती, रोज का राशन नहीं मिलता, गैस सिलेंडर की वक्त पर डिलिवरी नहीं होती, लेकिन दुनिया में वाहवाही ताजमहल की होती है। कोई देशी-विदेशी सैलानी यह नहीं पूछते कि शाहजहां के राज में इलाज समय पर मिलता था या नहीं, राशन कार्ड बनता था या नहीं। 

वैसे तो सांसद से लेकर विधायक तक, पार्षद से लेकर पंच तक, हर इलाके में एक से अधिक निर्वाचित जनप्रतिनिधि रहते हैं, जिनकी दिलचस्पी रहे, जो सक्रिय रहें, तो हर छोटी-छोटी चूक दुरुस्त करने की कोशिश हो सकती है। लेकिन वक्त इतना खराब आ गया है कि स्थायी सरकारी कर्मचारी-अधिकारी से लेकर पांच बरस वाले निर्वाचित जनप्रतिनिधि तक आमतौर पर कमाई करने में जुट जाते हैं, और यह कमाई सरकारी काम में लापरवाही, गड़बड़ी से ही हो पाती है। कहीं जनप्रतिनिधि सीधे कमीशन लेने लगते हैं, कहीं वे सरकारी अफसरों की तैनाती में रकम ले लेते हैं, और फिर बाद में वे अफसर कमाई करके पूंजीनिवेश वापिस वसूलते हैं। अभी कुछ हद तक अखबार ही ऐसे हैं जो कि इन मामलों को उजागर करते हैं, और उससे पता चलता है कि सरकार कोई भी आती-जाती रहे, बदइंतजामी आमतौर पर जारी रहती है। 

जब विपक्ष भी एक किस्म से सत्ता के सुख में भागीदार हो जाता है, तो फिर चीजों के सुधरने की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है। सरकारी अफसर हर बरस एक ही फुटपाथ पर कभी सीमेंट के पत्थर लगा देते हैं, तो कभी उस पर कांक्रीट कर देते हैं, कभी उस पर डामर की सडक़ बना देते हैं, सडक़ें बनती हैं और कुछ दिनों के भीतर उनकी खुदाई शुरू हो जाती हैं। स्थानीय संस्थाओं में जो निर्वाचित लोग रहते हैं, वे भी अगर ईमानदारी से सवाल उठाएं कि सडक़ बनने के कुछ हफ्तों के भीतर पूरी सडक़ को क्यों गहरा खोद दिया गया है, पहले से संबंधित विभागों से क्यों नहीं पूछा गया कि उन्हें पाईप या केबल डालना तो नहीं है, नाली तो नहीं बनानी है? आज धूप में बेहाल लोग चौराहों पर लालबत्तियों में रूक नहीं पा रहे हैं, और पुलिस शामियाना वालों से अपील करके ट्रैफिक रूकने की जगह पर कपड़े की छत लगवा रही है, लेकिन हर लालबत्ती पर ऐसी जगहों के आसपास तेज रफ्तार बढऩे वाले बड़े पेड़ लाकर लगाए जाएं, इतनी मामूली सी सोच भी न अफसर दिखाते, न निर्वाचित स्थानीय नेता दिखाते। 

सरकार के खर्च का एक बहुत बड़ा हिस्सा घटिया सामानों की खरीदी में चले जाता है, जिन सहूलियतों के ठेके दिए जाते हैं, उनका ठिकाना नहीं रहता, और जाहिर है कि ऐसे हर काम में सरकार में बैठे लोग मोटी रिश्वत ले लेते हैं। किसी सरकार में किसी विभाग में यह थोड़ा-बहुत कम हो जाता है, और किसी दूसरे विभाग में खासा बढ़ जाता है। भूले-भटके कोई नेता, या कोई अफसर ईमानदार निकल आते हैं, और उनसे काम करवाने में लोगों को परेशानी महसूस होने लगती हैं। बाजार व्यवस्था सरकारी कुर्सियों पर भ्रष्ट लोगों को पसंद करती है जिनसे गलत काम करवाना, स्तरहीन काम करवाना आसान रहता है। सरकारों के साथ एक दिक्कत यह भी रहती है कि एक सरकार में भ्रष्टाचार के जितने तरीके ईजाद कर लिए जाते हैं, अगली सरकार सबसे पहले उन्हीं तरीकों को गोद ले लेती हैं, उसके बाद फिर अपने और बच्चे पैदा करने में भी लग जाती है। 

भारत में अब गैरसरकारी सामाजिक संगठन धीरे-धीरे खत्म कर दिए गए हैं, वरना उनमें से कुछ संगठन सरकार की गड़बडिय़ों को उजागर करते थे।  अब तो कितनी भी सरकारें आएं, और चली जाएं, भ्रष्ट व्यवस्था के सुधरने की कोई उम्मीद नहीं दिखती है। देश के तकरीबन तमाम प्रदेशों का यही हाल दिखता है, लंबी, गहरी, अंधेरी सुरंग के आखिर में कोई रौशनी टिमटिमाते भी नहीं दिखती।    (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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