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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कमाई देने वाले पर्यटकों से भी थक गए हैं लोग...
17-Jun-2024 6:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  कमाई देने वाले पर्यटकों से भी थक गए हैं लोग...

पिछले कुछ महीनों में हिंदुस्तान के उत्तराखंड राज्य पहुंचने वाले तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की वजह से कई-कई दिनों का ट्रैफिक जाम रहा। और यह तो जाहिर है कि जब इतनी गाडिय़ां सडक़ों पर एक-दूसरे से सटी हुई भर गई थीं, तो इनसे वहां प्रदूषण भी हुआ होगा, और स्थानीय लोगों को अगर पहाड़ों से नीचे आना है, तो उसमें भी भारी दिक्कत हुई होगी। खबरें तो बताती हैं कि ट्रैफिक जाम में फंसे-फंसे कई लोगों की मौत भी हो गई, अगर देव-दर्शन नहीं हुए, तो भी ऊपर जाकर सीधे ईश्वर के दर्शन हो गए होंगे। हिंदुस्तान में पहाड़ों और समंदर के किनारे की जगहों पर अलग-अलग कुछ खास महीनों में पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की बड़ी भीड़ लगती है, और सार्वजनिक और कारोबारी, हर तरह की सुविधाएं दम तोड़ देती हैं। फिर धार्मिक तीर्थ कुछ खास महीनों में और खास तिथियों-तारीखों पर अधिक होते हैं, इसलिए उन गिने-चुने दिनों पर अंधाधुंध लोग जुटते हैं। ऐसे में भीड़ की भगदड़ में हिंदुस्तान में हिंदू तीर्थों से लेकर सऊदी अरब में हज यात्रियों की भगदड़ तक बड़ी संख्या में मौतें दर्ज होती हैं।

अब दुनिया भर से खबरें आ रही हैं कि किस तरह कुछ खास जगहों पर पहुंचने वाले लोगों की बेकाबू भीड़ से स्थानीय लोग इस हद तक थक गए हैं कि वे अब पर्यटकों का विरोध करने लगे हैं। कई जगहों पर पर्यटकों पर टैक्स लगाया जा रहा है ताकि उनकी भीड़ कुछ कम की जा सके। इटली के बीच रोम में बसे वैटिकन में, और इटली के नहरों वाले शहर वेनिस में ऐसी ही अंधाधुंध भीड़ रहती है। लेकिन शहरों से परे भी कई ऐसी जगहें हैं जहां पर गांव-जंगल में रहने वाले लोग भी पर्यटकों की भीड़ से, उनके बर्ताव से परेशान हो जाते हैं। पिछले एक दशक से एक शब्द का चलन लगातार बढ़ रहा है, ओवरटूरिज्म, और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई चुनिंदा जगहें इसे भुगत रही हैं। यह एक अलग बात है कि पर्यटक अपने साथ अर्थव्यवस्था में बढ़ोत्तरी भी लेकर आते हैं, होटल, टैक्सी, बस, रेस्त्रां, और सामानों की बिक्री से स्थानीय अर्थव्यवस्था खूब बढ़ती है। हिंदुस्तान के उत्तराखंड और हिमाचल, कश्मीर और दार्जिलिंग जैसी पहाड़ी इलाके मोटे तौर पर पर्यटन-अर्थव्यवस्था पर ही चलते हैं, और यही वजह है कि सरकारों से लेकर कारोबारियों तक  कोई भी पर्यटन और तीर्थ की भीड़ में कटौती नहीं चाहते। हालत यह है कि ऐसी बढ़ती हुई भीड़ के लिए जिस तरह के कानूनी और गैरकानूनी निर्माण बढ़ते चल रहे हैं, उनसे पहाड़ों का ढांचा कमजोर होते जा रहा है।

एक दूसरी बात जो भारत में गंभीरता से नहीं ली जाती, बाहर से आने वाले जो पर्यटक अधिक लापरवाह और अराजक होते हैं, उनकी बड़ी भीड़ स्थानीय जीवनशैली और संस्कृति को भी खराब करती है। कहीं पर नशे का कारोबार बढऩे लगता है, कहीं देह का कारोबार। पर्यटकों की अंधाधुंध खपत से स्थानीय पर्यावरण की बर्बादी होती है, और इन दिनों एवरेस्ट से कचरा और इंसानी पखाना उतारने का एक अभियान चल रहा है जिसे पर्वतारोही ऊपर छोड़ आते हैं। फिर दुनिया में आदिवासी इलाकों में बहुत सी ऐसी अनछुई जगहें हैं जहां संवेदनाशून्य पर्यटकों की भीड़ स्थानीय लोगों की भावनाओं को भी चोट पहुंचाती है। कई बार रोजगार और कारोबार की मजबूरी में लोग ऐसी दखल को बर्दाश्त भी कर लेते हैं, लेकिन इनसे लंबा नुकसान होता है। दुनिया का कारोबार पर्यटन और तीर्थयात्रा को बहुत हमलावर तरीके से आगे बढ़ाता है, और सरकारें भी इसे अनदेखा करती हैं। अब नौबत यह आ गई है कि पहाड़ या समंदर, तीर्थ या प्राकृतिक जगहों पर पहुंचने वाली भीड़ से टैक्स लिया जाना चाहिए। जब लोग दूर-दूर से ऐसी जगहों तक पहुंच सकते हैं, उसका खर्च उठा सकते हैं, तो फिर उन्हें स्थानीय विकास और संरक्षण के लिए एक टैक्स और देना चाहिए। लोग यह भी कह सकते हैं कि तीर्थयात्री और पर्यटक हर स्थानीय खरीदी या सहूलियत पर तरह-तरह का टैक्स देते ही हैं, लेकिन साल जो महीने अधिक भीड़ के रहते हैं, उन महीनों में बोझ घटाने के लिए तब तक टैक्स लगाना और बढ़ाना चाहिए जब तक आने वाले लोगों का एक संतुलन कायम न हो जाए। आज पर्यटन कारोबार के नाम पर हर ऐसे प्रदेश में तरह-तरह के गैरकानूनी निर्माण होते चल रहे हैं, और उनसे स्थानीय पर्यावरण हमेशा के लिए बर्बाद हो रहा है। हर पर्यटन-प्रदेश को सहूलियतों को बढ़ाने से पहले उनके असर का भी अंदाज लगा लेना चाहिए।

एक और काम जो हो सकता है, वह नए पर्यटन केंद्रों को विकसित करने का है। हर देश-प्रदेश में कई जगहें अभी तक चलन में नहीं आई होंगी, उन जगहों तक साफ-सुथरा पर्यटन विकसित किया जाना चाहिए, ताकि मौजूदा जगहों पर से बोझ कुछ कम हो सके। सरकारों के सामने रोजगार, और बाजार के सामने कारोबार की प्राथमिकता भी रहती है, और इनके बीच पर्यावरण और आदिवासी-ग्रामीण जीवन के जानकार लोगों की विशेषज्ञता का भी इस्तेमाल करना चाहिए। हमने दस-ग्यारह बस पहले केदारनाथ में विकराल बाढ़ का एक नजारा देखा था, उसे भूलना नहीं चाहिए, और धरती और कुदरत से छेडख़ानी से बचना चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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