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राजपथ-जनपथ : बलौदाबाजार के बाद दलित राजनीति की दिशा
26-Jun-2024 4:48 PM
राजपथ-जनपथ : बलौदाबाजार के बाद दलित राजनीति की दिशा

बलौदाबाजार के बाद दलित राजनीति की दिशा

बलौदाबाजार हिंसा को लेकर बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती का बयान घटना के 15 दिन बीत जाने के बाद आया है। बलौदाबाजार और उससे आगे जाने पर मिलने वाले कसडोल, चंद्रपुर, पामगढ़, जैजैपुर, अकलतरा, जांजगीर, वे विधानसभा क्षेत्र हैं, जहां बहुजन समाज पार्टी का खासा असर है। ये ही वे इलाके हैं, जिनमें से उनके विधायक चुनकर आते हैं। इस बार जरूर कोई जीत नहीं सका लेकिन कांग्रेस या भाजपा प्रत्याशियों की हार-जीत में उनके उम्मीदवारों की मौजूदगी एक कारक रही।

इसके विपरीत घटना के एक सप्ताह बाद भीम आर्मी के प्रमुख, सांसद चंद्रशेखर आजाद का बयान आ गया था, जो यूपी में मायावती के प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहे हैं। छत्तीसगढ़ पर उनका बयान इस लिहाज से भी जरूरी था क्योंकि पुलिस ने बलौदाबाजार हिंसा में उनके संगठन से जुड़े कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है।

यह गौर करने की बात है कि मायावती की प्रतिक्रिया बहुत संयमित है, जबकि आजाद ने अपने समर्थकों की गिरफ्तारी पर रोष अधिक दिखाया था। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि लोग मानकर चलते हैं कि भाजपा के प्रति मायावती उदार रहती हैं। मायावती ने बलौदाबाजार की कंपोजिट बिल्डिंग में हुई हिंसा की निंदा करते हुए जिम्मेदार असामाजिक तत्वों पर कार्रवाई की बात भी कही है। भीम आर्मी प्रमुख आजाद ने इसकी चर्चा भी अपने बयान में नहीं की। मायावती और आजाद दोनों ने ही बेकसूर लोगों को प्रताडि़त करने का सवाल उठाया है। 

मायावती ने अपना जनाधार बढ़ाने के लिए छत्तीसगढ़ में केवल अनुसूचित जाति पर व्यूह केंद्रित नहीं किया। ओबीसी को भी उन्होंने टिकट दी। इस बार चंद्रपुर सीट से हार गए पूर्व विधायक केशव चंद्रा ओबीसी से आते हैं। मगर, आजाद ने अपनी राजनीतिक गतिविधि सिर्फ अनुसूचित जाति पर केंद्रित रखी है। बसपा ने भी पहले ऐसा ही किया था, वह बाद में उदार हुई।

 यह कहा जा रहा है कि भाजपा की ओर रुझान के चलते छत्तीसगढ़ के अनुसूचित जाति के पारंपरिक मतदाता बसपा से विमुख हुए हैं। इसका असर 2023 के विधानसभा चुनाव में दिखा, जब उसे एक भी सीट नहीं मिली। बसपा ओबीसी मतदाताओं में पैठ रखने के बावजूद अपने प्रभाव वाली सीटों पर नाकाम रही। दूसरी ओर भीम आर्मी की, बलौदाबाजार घटना के बहाने दस्तक हो गई है, जिसका फोकस सिर्फ अनुसूचित जाति के मतदाताओं पर है। आने वाले दिनों में अनुसूचित जाति पर राजनीति करने वाले दलों की भूमिका बदलनी तय दिखाई दे रही है। यह अधिक बिखराब के रूप में भी हो सकता है और एकजुटता के रूप में भी।

पूर्व सीएस अजय सिंह चर्चा में आए

मुंगेली जिले के एक छोटे से गांव पथरिया, जो अब नगर पंचायत है, के धोती-कुर्ता धारी एक वकील फतेह सिंह चंदेल ने तय किया कि वे अपना सारा परिश्रम बच्चों को ऊंचे मुकाम पर पहुंचाने में लगाएंगे। वे परिवार सहित बिलासपुर शिफ्ट हो गए। यहीं वकालत करने लग गए और बच्चों को अच्छी शिक्षा दी। उनके बेटे अजय सिंह पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह के दौर में मुख्य सचिव हुआ करते थे। छत्तीसगढिय़ावाद को बहुत आगे बढ़ाने का दावा करने वाले भूपेश बघेल को ये छत्तीसढिय़ा जमे नहीं। दिसंबर 2018 में कांग्रेस सरकार बनने के 15 दिन बाद वे प्रमुख सचिव पद से हटा दिए गए। खैर, हर सीएम को अधिकार है कि वे अपनी पसंद का सीएस रखें। इस बीच अजय सिंह राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे, फिर 2020 में रिटायर हो गए। इसके बाद वे क्या कर रहे थे, इसकी कोई चर्चा नहीं हुई। सरकार के ताजा आदेश के मुताबिक अब वे राज्य निर्वाचन आयुक्त की जिम्मेदारी संभालेंगे। इनका पहला काम नगरीय निकायों का चुनाव कराना होगा, जो इस साल के नवंबर में होने जा रहा है। उसके बाद पंचायतों की बारी भी आएगी।

अजय सिंह की पत्नी आभा एक काबिल चिकित्सक हैं। उनके एक भाई भी डॉक्टर हैं और एक भाई अरविंद सिंह चंदेल हाईकोर्ट में जज हैं।

मंत्री-विधायकों के परफॉर्मेंस की जांच

लोकसभा चुनाव में भाजपा ने भले ही 10 सीटें जीती हैं, लेकिन सभी मंत्री-विधायकों के परफॉर्मेंस से भाजपा खुश नहीं है। पिछले दिनों हुई एक वर्चुअल बैठक में प्रदेश संगठन महामंत्री पवन साय ने विधानसभावार खराब परफॉर्मेंस की रिपोर्ट बनाने के लिए कहा है। इसमें यह देखा जाएगा कि जहां-जहां भाजपा के विधायक हैं, उन सीटों पर लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा प्रत्याशी को कितने वोट मिले हैं। यदि कम मिले हैं तो क्या कारण हैं?

दरअसल, 10 सीटें जीतकर भाजपा ने अपनी प्रतिष्ठा भले ही वापस पा ली, लेकिन परफॉर्मेंस के हिसाब से देखें तो कुछ महीने पहले जीती हुई 11 विधानसभा सीटों पर लोकसभा चुनाव में भाजपा पीछे रही। कोरबा सीट भाजपा के हाथ से निकल गई, जबकि यहां संगठन ने पूरी ताकत लगाई थी। स्थानीय स्तर पर कुछ नेताओं द्वारा भितरघात करने की बातें आ रही हैं। पूरी रिपोर्ट बनने के बाद संभवत:  जिम्मेदारों से जवाब-तलब किया जा सकता है। आने वाली नियुक्तियों में भी इसका असर पड़ सकता है।

पुराने मंत्रियों के साथ क्या होगा?

मंत्रिमंडल की दो खाली सीट पर किसे नियुक्ति दी जाएगी, किसे नहीं, इससे ज्यादा चिंता इस बात को लेकर है कि जो पुराने नेता हैं, उनका क्या होगा? दरअसल, पिछले बजट  सत्र में सब लोगों ने देखा कि धरमलाल कौशिक और अजय चंद्राकर समेत कई पुराने नेताओं ने किस तरह विधानसभा में अपनी ही सरकार के सामने असहज स्थिति पैदा कर दी थी।

सवाल तो पुरानी सरकार के कामकाज पर पूछे गए थे, लेकिन नए नवेले मंत्रियों के लिए जवाब देना आसान नहीं था। कुल मिलाकर संदेश यह गया कि विधायकों ने अपनी ही सरकार को घेरा। मंत्रिमंडल के दो पदों पर इतने सारे पुराने नेताओं को तो एडजस्ट नहीं किया जा सकता। यदि ये नेता विधानसभा में सवाल पूछने लगे तो भी सरकार के लिए असहज होने की स्थिति बनती रहेगी। ([email protected])

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