संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जिंदा या मुर्दा प्रेमीजोड़ों और मां-बाप, सबको बहुत समझने की जरूरत
19-Jun-2024 4:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  जिंदा या मुर्दा प्रेमीजोड़ों  और मां-बाप, सबको बहुत समझने की जरूरत

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी गांव में सुबह एक खेत में एक प्रेमीजोड़े की लाशें मिलीं। उन्होंने जहर खाकर खुदकुशी कर ली थी। दोनों में प्रेम-संबंध था लेकिन लडक़ी के घरवालों ने उसकी कहीं और सगाई कर दी, दिन में सगाई हुई, रात में उसने अपने प्रेमी के साथ खेत में खुदकुशी कर ली। दोनों 20 बरस के थे। अलग-अलग किस्म से प्रेमीजोड़े आए दिन खुदकुशी कर रहे हैं, और ऐसे अधिकतर मामलों के पीछे एक आम वजह यह है कि घरवाले उनके प्रेम-संबंध को शादी में बदलने के लिए तैयार नहीं होते। अभी दो-चार महीने पहले ही प्रेमीजोड़े की एक ऐसी आत्महत्या सामने आई थी जिसमें दोनों ही नाबालिग थे। फिर इससे परे कुछ शादीशुदा लोग विवाहेत्तर संबंधों के चलते जीवनसाथी को छोड़ किसी और के साथ प्रेम रहने पर उसके साथ खुदकुशी कर लेते हैं। लेकिन शादी के लायक उम्र वाले बालिग हुए लोग जब खुदकुशी करते हैं, तो सवाल यह उठता है कि उन्हें जान देने की इतनी हड़बड़ी क्या है? अभी तो उनके सामने लंबी उम्र बाकी है। पहले तो हर किसी को पढ़ाई-लिखाई पूरी करके कामकाज से लगना चाहिए, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना चाहिए, उसके बाद शादी के बारे में सोचना चाहिए। प्रेमसंबंधों को लेकर तो आनन-फानन हत्या-आत्महत्या की नौबत नहीं आनी चाहिए। यह भी हो सकता है कि कुछ बरस के प्रेमसंबंधों के बाद प्रेमीजोड़े में खुद ही खटास आ जाए, और एक-दूसरे से छुटकारा पाना बेहतर लगे, और ऐसे में न साथ मरने की, और न एक-दूसरे को मारने की नौबत आएगी। लेकिन जितने बड़े पैमाने पर ताजा-ताजा बालिग हुए लोग, और नाबालिग लोग भी प्रेमसंबंधों में निराश हो रहे हैं, आपस में रिश्ता टूटने पर मर या मार रहे हैं, या शादी के लिए घरवालों के तैयार न होने पर साथ में जान दे दे रहे हैं, वह सिलसिला बिल्कुल ही बेवकूफी का है। लोग अगर जिंदगी में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाते हैं, तो वे परिवार से अलग भी रह सकते हैं, और बालिग लोगों के प्रेम या शादी में उनके परिवार की दखल का कोई महत्व भी नहीं होता। लेकिन अगर लडक़े-लडक़ी यह समझते हैं कि वे बिना काम से लगे, बिना कमाई किए, मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हुए बैठे रहेंगे, और अपनी मर्जी से शादी करना चाहेंगे, तो फिर यह मुमकिन नहीं है। जो खाना देंगे, उनकी बात सुननी भी पड़ेगी।

अब मां-बाप के नजरिए से देखें तो हिन्दुस्तानी समाज बड़ा दकियानूसी है, यहां धर्म को लेकर, जाति को लेकर, गोत्र या आर्थिक स्तर को लेकर अगर लडक़े-लडक़ी के परिवारों में फर्क है, तो फिर हर मां-बाप शहंशाह अकबर बनकर तलवार खींच लेते हैं। हर किसी को परिवार की प्रतिष्ठा दिखने लगती है, और हिन्दुस्तानी फिल्मों ने लोगों की सोच को और अधिक हद तक दकियानूसी बनाकर रखा है। फिल्में लोगों के दिल-दिमाग पर गहरा असर छोड़ती हैं, और साथ जिएंगे, साथ मरेंगे की सोच के साथ खुदकुशी का रास्ता फिल्मों से भी जिंदगी में आया है। अभी दो दिन पहले ही कहीं की खबर थी कि एक प्रेमीजोड़े ने खुदकुशी करने के लिए नदी में छलांग लगा दी, उन्हें मछुवारों ने बचा तो लिया, लेकिन उनकी अक्ल ठिकाने लगाने के लिए उन्हें थप्पड़ें भी जड़ीं। लोगों को याद होगा कि बॉबी नाम की एक नौजवान-रोमांटिक फिल्म ने कुछ इसी तरह की खुदकुशी की कोशिश दिखाई गई थी, और उसमें तो ये दोनों बचा लिए गए थे, असल जिंदगी में खुदकुशी पर अड़े लोगों का बचना मुश्किल होता है। 

हिन्दुस्तानी समाज को दुनिया के कुछ विकसित और सभ्य देशों से यह सीखना चाहिए कि बालिग आल-औलाद को अपनी जिंदगी किस तरह जीने दिया जाए। दुनिया में जो देश आगे बढ़ते हैं, उनकी बुनियाद में खुशहाल नौजवान रहते हैं। वे किसके साथ रहना चाहते हैं, कब बच्चे पैदा करना चाहते हैं, क्या करना चाहते हैं, ये बातें न तो मां-बाप पर बोझ रहतीं, न ही उनमें दखल देना उनके अधिकार क्षेत्र में रहता। सभ्य देशों में बालिग हुए लोगों को सचमुच ही तमाम बालिग अधिकार दे दिए जाते हैं, और उसके बाद परिवार की दो पीढिय़ां जरूरत रहने पर एक-दूसरे से मदद लेती-देती हैं, वरना वे अपनी-अपनी अलग-अलग राह चलती हैं, और एक-दूसरे को चैन की जिंदगी जीने देती हैं। भारत में मराठियों सरीखे कुछ और ऐसे समाज हैं जिनमें शादी के बाद नए जोड़े को उनके हिसाब से अलग घर में रहने देने को बुरा नहीं माना जाता है, और शादी के पहले भी अपनी पसंद से दोस्त, प्रेमी, या जीवनसाथी छांटना उनमें आम बात है। आज 21वीं सदी में पहुंचने के बाद भी लोग शहंशाह अकबर और शहजादे सलीम के बीच अनारकली को लेकर जिस तरह की तनातनी हुई थी, उसे परिवार के भीतर दो पीढिय़ों का आम रिश्ता मान लेते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। 

दूसरी तरफ प्रेमीजोड़ों को भी यह समझने की जरूरत है कि पहले तो बालिग हो जाने के बाद ही किसी भी तरह की एक संभावना बनती है कि प्रेम जीवनसाथी बन सके। दूसरी तरफ आत्मनिर्भरता के साथ-साथ इतनी हिम्मत भी रहनी चाहिए कि दोनों के परिवार अगर ऐसे रिश्ते को खारिज कर दें तो भी आर्थिक और सामाजिक रूप से, भावनात्मक रूप से प्रेमीजोड़े खुद अपनी जिंदगी जी सकें। इसके लिए ठीक-ठाक नौकरी या रोजगार, या कारोबार तक पहुंच जाना होगा, दोनों को काबिल बनकर मेहनत करनी होगी, तभी जाकर वे अपनी मर्जी से जीने-खाने का दावा कर सकते हैं। जीना अपनी मर्जी से चाहें, और खाना मां-बाप के साथ चाहें, ऐसा होना मुश्किल है। 

समाज के बड़े लोगों में, उम्रदराज लोगों में अगली पीढ़ी की भावनाओं के लिए एक सम्मान होना चाहिए। पिछली पीढ़ी अगली पीढ़ी पर अपने सामाजिक मूल्यों को थोपती रहेगी, तो फिर समाज मुगलिया सल्तनत से आगे ही नहीं बढ़ पाएगा, जबकि हिन्दुस्तान की संस्कृति हजारों बरस की पौराणिक कहानियों में प्रेम से भरी पड़ी है, और लोग मर्जी से शादी करने के बाद दुल्हन को लेकर अपने घर पहुंचते रहे हैं। नई पीढ़ी को अपनी मर्जी से जीने का हक देकर ही समाज और देश आगे बढ़ सकते हैं, बच्चों के बालिग हो जाने के बाद भी उन पर अपनी मर्जी थोपकर लोग उन्हें महज गोबर थापने के लायक बना सकते हैं, अगर उन्हें आगे बढऩा है, तो उनको व्यक्तित्व विकास का मौका भी देना होगा। ऐसा न करने वाले समाज अपनी खुद की संभावनाओं से बहुत पिछड़ जाते हैं। योरप का नार्वे जैसा देश अगर खुशी जीवन के पैमाने पर दुनिया में सबसे ऊपर है, तो उससे भी कुछ सीखने की जरूरत है। दुखी नौजवान पीढ़ी वाला देश कभी अपनी पूरी संभावनाओं तक नहीं पहुंच सकता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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