संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पानी के दाम लिए बिना पानी की इज्जत नहीं होगी
25-Jun-2024 5:58 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पानी के दाम लिए बिना पानी की इज्जत नहीं होगी

केन्द्रीय जल शक्ति नियोजन मंत्री सी.आर.पाटिल ने कहा है कि लोगों को पानी पूरी तरह मुफ्त में देना ठीक नहीं है। उन्होंने गुजरात की सूरत शहर की मिसाल सामने रखी जिसने 50 साल की एक योजना बनाई है, और पानी का न्यूनतम मूल्य भी तय किया है, जो कि हर किसी को देना होता है। भारत के अधिकतर राज्यों में पानी की मीटरिंग नहीं है। कुछ चुनिंदा शहरों में स्थानीय संस्थाओं या राज्य शासन ने निजी कंपनियों के साथ मिलकर पानी का निजीकरण भी किया है, और उसकी लागत निकालने के लिए मीटर भी लगाए हैं। इससे लोग जरूरत जितना पानी लेते हैं, और कम से कम नागपुर जैसे एक शहर की जानकारी हमारे पास है जहां पर लोगों के घरों के नलों में मीटर लग जाने के बाद शहर की कुल खपत खासी कम हो गई है, क्योंकि अब लोग बर्बाद करेंगे, तो उसका भुगतान भी करेंगे, और मुफ्त में मिले सामान को तो लोग नाली में बहा देते हैं, लेकिन जब उसका दाम चुकाना होता है, तो बर्बादी नहीं करते। 

लेकिन यह इंतजाम भी म्युनिसिपल या स्थानीय संस्था के सप्लाई किए गए पानी के बारे में है। एक बहुत बड़ी खपत ऐसे घरों की है जिनके अपने ट्यूबवेल हैं, और जो मनमाना पानी धरती के नीचे से निकालते हैं, और उसका कोई भुगतान नहीं करना पड़ता। ऐसे ही लोग रोज अपने घर-आंगन धोते हैं, कारों को धोते हैं, और सामने की सडक़ पर पानी की धार मारकर वहां से धूल-मिट्टी भी हटाते हैं। एक तरफ तो लोग एक घड़े पानी के लिए टैंकरों के आगे-पीछे दौड़ते हैं, दूसरी तरफ अपने घरेलू ट्यूबवेल से पानी निकालने पर चूंकि कोई भुगतान या टैक्स नहीं है, इसलिए मनमानी खपत होती है। हमारा मानना है कि धरती के नीचे का पानी किसी की निजी संपत्ति नहीं है, और वह एक सामूहिक संपत्ति है। इस पर तमाम लोगों का हक होना चाहिए, और जिसकी ताकत गहरा बोर करवाने, और उसमें महंगा पंप लगाने की हो, उसे पानी की मनमानी खपत का हक देना सामाजिक न्याय के खिलाफ है, समानता के खिलाफ है। 

अगर लोगों में पानी के लिए जागरूकता लानी है, तो सरकारी नलों पर जिंदा लोगों से इसकी शुरूआत नहीं हो सकती, क्योंकि यहां तो सीमित वक्त के लिए सीमित पानी मिलता है। इसकी शुरूआत निजी इंतजाम पर से होनी चाहिए, और हर ट्यूबवेल जितनी इमारत, या जितने लोगों की जरूरत पूरी करता है, उससे उसी अनुपात में टैक्स लिया जाना चाहिए। जो लोग इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, उनके पूरे के पूरे इलाके एक दिन बेंगलुरू की तरह का सूखा देखेंगे, जहां लोगों से शहर छोडक़र चले जाने की अपील करनी पड़ी थी। जिस रफ्तार से गहरे, और अधिक गहरे ट्यूबवेल खोदे जा रहे हैं, और अधिक ताकतवर पम्प लगाए जा रहे हैं, उससे धरती के भीतर का पानी खत्म होने जाना तय है। और लोगों को जागरूक करने के लिए उनकी खपत के अनुपात में टैक्स लगाना एक जरूरी बात है। जिस तरह प्रॉपर्टी टैक्स तय होता है, उसी तरह ट्यूबवेल टैक्स भी तय होना चाहिए, और कड़ाई से वसूल करना चाहिए। दिक्कत यह है कि जब तक कोई शहर सूखे का शिकार नहीं हो जाता, तब तक वहां की सरकार या स्थानीय म्युनिसिपल लोगों को नाराज करने लायक कोई टैक्स लगाना नहीं चाहते। यह अदूरदर्शिता लोगों को गर्म इलाकों में छतों पर भी बगीचा बनाने का हौसला देती है, और शहर के बहुत से हिस्सों में लोग टैंकरों के इंतजार में पूरी रात गुजारते हैं, और उसी शहर के संपन्न इलाकों में लोग कार और सडक़ को पाईप के प्रेशर से धोते हैं। सरकारें अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के बजाय जब मुंह चुराती हैं, तो ऐसी ही नौबत आती है। 

अभी देश में जगह-जगह पंचायतों के स्तर पर कैच द रेन अभियान चल रहा है। बारिश का जो पानी नालों से होते हुए नदियों में बह जाता है, उसे जगह-जगह रोकने के लिए, और धरती के लिए री-चार्जिंग के तालाब या गड्ढे बनाने का काम चल रहा है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम पिछले करीब 20 बरस से लगातार इस बात की वकालत कर रहे हैं, और छत्तीसगढ़ की पिछली राज्य सरकारों को भी यह सलाह देते आए हैं कि बारिश का अतिरिक्त पानी जिन जगहों से नदियों तक पहुंचता है, वहां रास्ते में ऐसे बड़े जलाशय बनाकर उसे रोकना चाहिए जो कि इंसानों और जानवरों की निस्तारी के काम आएं या न आएं, कम से कम वे पानी को धरती में वापिस भेजने का काम तो कर ही सकें। इससे नदियों तक मिट्टी बहकर पहुंचना कम होगा, और नदियों में बाढ़ आना भी घटेगा। जब पानी के रास्ते में ही छोटे-बड़े कई किस्म के जलाशय खोद दिए जाएंगे, तो उससे नदियों की बाढ़ भी घटेगी जो कि आखिर में जाकर समंदर के पानी की सतह भी बढ़ाती है, और दुनिया के हिस्सों पर डूबने का खतरा भी खड़ा करती है। हम तो यह भी सुझाते आए हैं कि भूजल की री-चार्जिंग के लिए बनाए जाने वाले ऐसे तालाबों को मजदूरी देने की योजनाओं से भी अनिवार्य रूप से नहीं जोडऩा चाहिए, क्योंकि बहुत से ऐसे इलाके रहेंगे जहां न मजदूर रहेंगे, न निस्तारी के लिए तालाबों की जरूरत रहेगी। वहां पर सरकार को मशीनें लगाकर भी तालाब खोदने चाहिए, और जितना पानी बहकर जाता है, उसके अनुपात में ऐसे छोटे या बड़े तालाब बनाने चाहिए। 

एक बार फिर हम पानी को मुफ्त में देने या न देने के एक विवादास्पद मुद्दे पर लौटें, तो हमारा यह साफ मानना है कि अमीर या गरीब सबको पानी का एक दाम देना चाहिए। हो सकता है कि यह गरीबों के लिए बहुत ही कम हो, और साल भर में कुछ सौ रूपए ही उनसे लिए जाएं, लेकिन जब किसी को किसी चीज के दाम देने पड़ते हैं, तो उसकी इज्जत भी होती है। इसके बाद ही लोग पानी को सोच-समझकर इस्तेमाल करेंगे। हर नल की मीटरिंग होनी चाहिए, और हर ट्यूबवेल की भी। देखते हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारें, या स्थानीय संस्थाएं जनता को जिम्मेदार बनाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करेंगी, या फिर वोटरों के तलुए सहलाने का काम करेंगी।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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