संपादकीय
ईरान में राष्ट्रपति के एक दुर्घटना में मारे जाने के बाद बेवक्त नए राष्ट्रपति का चुनाव करवाना पड़ रहा है। मतदान को हफ्ता भर भी नहीं बचा है कि वहां तमाम उम्मीदवारों के बीच सबसे बड़ा मुद्दा ईरान का बहुत कड़ा हिजाब कानून है जिसमें कोई महिला अगर ठीक से हिजाब नहीं बांधती है, या बाल खुले रखती है, तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता है, और करीब दो बरस पहले वहां ऐसे ही आरोपों में गिरफ्तार की गई एक युवती, महसा अनीमी की हिरासत में बुरी मौत के बाद से ईरान में महिलाओं की आजादी का जो आंदोलन चल रहा है, उसे वहां के सत्तारूढ़ मुल्लाओं ने भी कभी सोचा नहीं रहा होगा। इसलिए किसी देश में महिलाओं, या दबे-कुचले किसी और तबके की मांग को लेकर, उनके आंदोलनों को लेकर हमेशा किसी तरह की साजिश नहीं देखनी चाहिए। यह भी हो सकता है कि किसी तबके के जायज हकों की दबी-कुचली हसरतें आंदोलन की शक्ल में सामने आ रही हों। ईरान की दबाकर रखी गई महिलाओं का यह आंदोलन औरत, जिंदगी, आजादी नाम से एक नया इतिहास गढ़ रहा है। और आज हालत यह है कि जिन सत्तारूढ़ मुल्लाओं ने हिजाब का यह फौलादी कानून लड़कियों और महिलाओं पर थोपा है उनके सामने राष्ट्रपति चुनाव के हर उम्मीदवार ने कड़े हिजाब कानून का विरोध किया है। अभी आधा दर्जन आदमी राष्ट्रपति चुनाव के मैदान में हैं, इनमें से पांच धार्मिक-संकीर्णतावादी हैं, लेकिन उन्होंने भी हिजाब कानूनों को लेकर हिंसा, गिरफ्तारी, और जुर्माने से अपने आपको अलग कर लिया है। देश की आधी मतदाता महिलाएं हैं, और वे आंदोलन के जैसे मिजाज से गुजर रही हैं, यह जाहिर है कि उन्हें और खफा करने वाले, उन्हें जायज हक मना करने वाले किसी उम्मीदवार का जीतना नामुमकिन रहेगा।
जिस हिजाब को लेकर हिन्दुस्तान सहित दुनिया के बहुत से देशों में मुस्लिम महिलाएं हक का आंदोलन कर रही हैं, और हिजाब के खिलाफ हिन्दुस्तान के स्कूल-यूनीफॉर्म नियम से लेकर फ्रांस और योरप के कुछ और देशों में सार्वजनिक जगहों पर बुर्के पर रोक के नियम का विरोध किया जा रहा है। लेकिन धार्मिक रूप से दुनिया में सबसे कट्टर देशों में से एक, ईरान में महिलाओं ने जिस तरह से हिजाब न पहनने को अपनी आजादी का हक माना है, उसने ईरानी सत्ता की आंखें खोल दी हैं। कुछ लोगों को लग सकता है कि भारत और फ्रांस सरीखे देशों में मुस्लिम महिलाओं पर परंपरागत पोशाक के थोपे गए रिवाज को उनके हक का दर्जा देना चाहिए, लेकिन दूसरी तरफ यह एक ऐसा मौका भी है कि मुस्लिम समाज में सिर्फ महिलाओं पर थोपे गए पोशाक के ऐसे रिवाज के खिलाफ को तोड़ा जा सके। और ईरान की महिलाएं आज वही कर भी रही हैं। यह बड़ी अजीब बात है कि सौ फीसदी मुस्लिम देश ईरान की महिलाओं का एक बड़ा बहुमत पोशाक की कट्टरता का विरोध कर रहा है, और आजादी की मांग कर रहा है, दूसरी तरफ दुनिया के कुछ दूसरे देशों में मुस्लिम महिलाएं इस थोपे गए रिवाज का हक मांग रही हैं। यह विरोधाभास अपने-अपने देशों में उन महिलाओं के भोगे गए सच की वजह से उनके अलग-अलग नजरियों का नतीजा है, और इनमें कोई बुनियादी टकराव नहीं मानना चाहिए।
हमारा ख्याल है कि महिलाओं या समाज में दबाकर, कुचलकर रखे गए किसी भी तबके को हक देने का कोई भी मौका जब मिले, तब उसका इस्तेमाल करना चाहिए। हिन्दुस्तान में छुआछूत खत्म करने से लेकर, बाल विवाह खत्म करने, सतीप्रथा खत्म करने, तीन-तलाक खत्म करने जैसे बहुत से मुद्दे अलग-अलग समय पर कानून बनाकर सुलझाए जा सके। कर्नाटक में भाजपा की सरकार ने चाहे जिस नीयत से स्कूल-कॉलेज की लड़कियों की यूनीफॉर्म से हिजाब को हटाया था, उसे हटा देना ही ठीक था, और फिर नीयत चाहे जो रही हो, हमने इस फेरबदल का समर्थन किया था। भारत जैसे देश में अंतरजातीय, और अंतरधर्मीय शादियों को बढ़ावा देने के लिए कई बार कानून का सहारा भी लेना पड़ता है। तमाम सामाजिक तनाव के बावजूद आज भी दलित-गैरदलित के बीच शादी होने पर सरकार की तरफ से ढाई लाख रूपए की प्रोत्साहन राशि दी जाती है। किसी भी पार्टी की सरकार ने यह योजना खत्म नहीं की है। इसी तरह हिन्दुस्तानी अदालतों ने जवान लडक़े-लड़कियों के बालिग हो जाने पर मर्जी से शादी करने की हिमायत करते हुए कितने ही फैसले दिए हैं। लोगों को याद होगा कि भारत की जाति व्यवस्था में अभी तक मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में दलितों के साथ भेदभाव वाली हिंसा चलती ही रहती है, लेकिन कानून के कड़े अमल से इसमें कमी आ रही है, या आ सकती है। इसलिए परंपराओं में अगर कोई सुधार जरूरी है, तो उसके लिए कानून में फेरबदल करना चाहिए, या नए कानून बनाने चाहिए। ईरान आज ऐसे ही एक दौर से गुजर रहा है जब वहां की इस्लामी सत्ता को यह समझ पड़ रहा है कि देश की महिलाओं का आंदोलन सिर्फ पश्चिम का भडक़ाया हुआ नहीं है, यह देश के भीतर एक युवती की पुलिस हिरासत में मौत के बाद फूटा हुआ ज्वालामुखी है, जिसके खौलते-पिघले लावे से आज राष्ट्रपति चुनाव के हर उम्मीदवार अपने को बचा रहे हैं।
दुनिया के तमाम देशों को धर्मान्धता का नतीजा देखना चाहिए। अफगानिस्तान में 20 बरस के अमरीकी राज के बाद भी अब तालिबानी लौटे हैं, तो उन्होंने अफगान लड़कियों और महिलाओं को पत्थर युग की गुफाओं में वापिस भेजने का काम किया है। उनकी पढ़ाई-लिखाई पर रोक लगा दी है, उनके कामकाज, या उनकी आवाजाही पर रोक लगा दी है, और अमरीका जैसा गैरजिम्मेदार देश अफगान नागरिकों को 20 बरस की अपनी फौजी हुकूमत के बाद उन्हीं खूंखार, हत्यारे, और धर्मान्ध तालिबानियों के हवाले करके भाग गया है। तमाम धर्मों को भी 21वीं सदी के मानवाधिकारों और महिला अधिकारों के मुताबिक अपनी कट्टरता में फेरबदल करना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि पिछले कुछ हजार बरस की अपनी जिंदगी में इन धर्मों ने अपने में कोई फेरबदल ही नहीं किया है। विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की सहूलियतों का कोई जिक्र तो धर्मों में था नहीं, लेकिन उनमें से हर एक का फायदा उठाया गया है। इसी तरह धर्मों को अपने ही सदस्यों को बराबरी का हक देने का काम करना चाहिए, वरना सबसे कट्टर, और सबसे फौलादी ईरान सरीखी व्यवस्था के भीतर भी महिला के बालों की लटें आजादी का झंडा बनकर कैसे फहरा सकती हैं, यह दिख ही रहा है। ईरान में राष्ट्रपति चुनाव में जुल्फों के खुली हवा में उडऩे का मुद्दा सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा दिख रहा है। दुनिया में महिला अधिकारों के लिए जागरूकता का इससे बड़ा कामयाब पल और कौन सा हो सकता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)