संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : 24 दिन की बच्ची को मां ने कैसे मारा होगा?
04-Jul-2024 1:34 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : 24 दिन की बच्ची को  मां ने कैसे मारा होगा?

अभी एक परिवार में मां के पास सो रही 24 दिनों की बच्ची गायब हो गई, और फिर उसकी लाश पास एक कुएं में मिली। जिस तरह से घर के दरवाजे बंद थे, यह बात किसी के गले नहीं उतर रही थी कि यह बच्ची गायब कैसे हुई होगी, उसकी मां भूत-प्रेत पर शक जाहिर करती रही। कुएं से मिली लाश का जब अंतिम संस्कार हो रहा था तो यह मां खुद ही टूट गई, और उसने तमाम लोगों के सामने यह मंजूर किया कि पहले से दो बेटियां रहते हुए जब फिर तीसरी बेटी हुई, तो उसने उसे मार डालना तय किया क्योंकि उसे डर था कि लगातार तीन बेटियां हो जाने पर घर में उसका मान-सम्मान कम हो जाएगा। अभी तक जो जानकारी सामने आई है उसमें ऐसा नहीं आया है कि परिवार इस महिला को प्रताडि़त कर रहा हो, अभी तक तो यही दिख रहा है कि यह महिला खुद ही तीन-तीन बेटियां होने से हीनभावना से घिर गई थी, और उसे खुद ही ऐसी आशंका हो रही थी कि अब परिवार और समाज उसे नीची निगाह से देखेंगे।

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि जन्म देने के तुरंत बाद महिलाएं कई तरह के भावनात्मक संघर्षों से गुजरती हैं। बहुत से मामलों में वे डिप्रेशन (अवसाद) की शिकार हो जाती हैं। ऐसा लगता है कि अभी इस ताजा मामले में घिरी हुई यह महिला महीने भर पहले की डिलीवरी के बाद ऐसी ही मानसिकता से गुजर रही होगी, और पुत्रमोह की खुद की, परिवार की, और समाज की चाह ने उसे तीसरी बेटी को ही मार डालने तक पहुंचा दिया। कैसी तकलीफ की बात है कि एक तरफ तो इस देश में लोगों को हसरत रहते हुए भी बच्चे गोद लेने को नहीं मिल रहे हैं। कल ही एक रिपोर्ट छपी थी कि किस तरह बिना बच्चों वाली कुछ दम्पत्तियां 9-9 बरस से बारी का इंतजार कर रही हैं, और सरकार की संतान उपलब्ध कराने की योजना में उन्हें कोई भविष्य नहीं दिख रहा है। पूरे देश में दसियों लाख मां-बाप अपने खुद के बच्चे न होने पर बेसहारा बच्चों को गोद लेने के लिए सरकार में नाम दर्ज करवाते हैं, लेकिन उनकी बारी नहीं आ पाती। ऐसे बेसहारा बच्चों की हिफाजत के लिए गोद लेने के कानून को बहुत कड़ा बनाया गया है, जो कि एक अच्छी बात है। दूसरी तरफ देश में हर दिन दर्जनों बच्चे नालियों और गटर में मिलते हैं, जो कि अविवाहित या पति खो चुकी महिलाओं की संतान रहते हैं, और वे सामाजिक बदनामी की वजह बन सकते हैं, इसलिए ऐसी माताएं उन्हें फेंक देती हैं। ऐसे बच्चों की जिंदगियां बचाने के लिए मदर टेरेसा की संस्था सहित देश में बहुत सी दूसरी संस्थाएं भी अनाथाश्रम चलाती हैं, लेकिन बच्चों को वहां तक पहुंचाने के बजाय उन्हें फेंक देने को लोग अधिक सुरक्षित मानते हैं, और अकेली महिला की इज्जत बचाने का रास्ता भी समझते हैं।

दरअसल हिन्दुस्तान में, और खासकर हिन्दू-जैन समुदाय में बेटे की चाह बहुत बड़ी रहती है। इसकी एक वजह तो धर्मों में पुत्र की महिमा का बखान है, दूसरी बात यह भी है कि खेती से लेकर कारोबार तक सभी में बेटों को काम पर लगाने का चलन अधिक है। ऐसा भी नहीं है कि बेटियां किसी भी काम में पीछे रहती हैं, लेकिन समाज की सोच बेटियों को बहुत किस्म के काम करने नहीं देती है। कई जगहों पर धर्म यह बताता है कि बेटे के हाथों अंतिम संस्कार न होने पर लोगों को शायद स्वर्ग नहीं मिलेगा, या उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। जो भी हो, हिन्दू धर्म के बहुत से पुराने ग्रंथों के मुताबिक बेटा पैदा करना एक किस्म से जरूरी रहता है, और इस चाह में कई लोग आधा दर्जन बेटियां पैदा कर चुके रहते हैं, लेकिन उसके बाद भी बेटे की उम्मीद में कोशिश जारी रखते हैं। इसका एक आसान इलाज भ्रूण के लिंग परीक्षण का हो सकता था जिससे लोग अनचाही संतान का गर्भपात कर सकते थे, लेकिन हिन्दुस्तान में इसे गैरकानूनी इसलिए करार देना पड़ा कि पुत्रमोह में कन्या भ्रूण हत्या इतने धड़ल्ले से हो रही थीं कि देश में लडक़े-लडक़ी का अनुपात ही गड़बड़ा गया था। हिन्दुस्तान में गर्भपात पर कोई कानूनी रोक नहीं है, बल्कि इसे पूरी तरह से सामाजिक मान्यता भी मिली हुई है, इसे कोई बुरा नहीं समझते, लेकिन भ्रूण के लिंग परीक्षण की सहूलियत से अनचाहे बच्चों का जन्म भी रोका जा सकता था, और लोग परिवार में लडक़े-लडक़ी का मनचाहा संतुलन भी बना सकते थे। लेकिन तकनीक का प्रयोग लड़कियों का जन्म रोकने के खिलाफ ही इतने हिंसक तरीके से होता है कि भारत में उसे जुर्म करार देना ही पड़ा। दुनिया के बहुत से देशों में सामाजिक रूप से लडक़े और लडक़ी में कोई फर्क नहीं है, और इसलिए वहां पर भ्रूण-लिंग परीक्षण पर कोई रोक भी नहीं है।

भारत में आज छोटी बच्चियों तक से लेकर महिलाओं के खिलाफ जितने किस्म की सेक्स-हिंसा होती है, उनका जितने तरह से शोषण होता है, उससे भी बहुत से मां-बाप अपनी लड़कियों के लिए फिक्रमंद रहते-रहते ही मरते हैं। ऐसे में मां-बाप की यह फिक्र जायज भी रहती है कि वे बहुत ज्यादा लड़कियां नहीं चाहते हैं। छत्तीसगढ़ में जिस तरह इस महिला ने अपनी तीसरी बच्ची को महीने भर की उम्र के भीतर ही कुएं में फेंककर मार डाला है, वह बात दिल दहलाती है। लेकिन इसे एक निजी जुर्म की तरह देखने के बजाय एक कड़वी सामाजिक हकीकत की तरह देखना चाहिए, और समाज की स्थितियों को सुधारना चाहिए। कानून तो इस मां को लंबी सजा दे देगा, लेकिन कानून समाज को नहीं सुधार सकेगा। समाज को अपनी सोच खुद ही सुधारनी पड़ेगी, और अगर लड़कियों के प्रति समाज जिम्मेदार रहता, तो फिर किसी को तीसरी संतान की जरूरत भी नहीं होती, दो लड़कियां ही काफी होतीं। लेकिन समाज, धर्म, और परिवार ये सब मिलकर लडक़ा पैदा करने का जितने किस्म का तनाव महिला पर डालकर रखते हैं, उनसे ही यह महिला कातिल बन बैठी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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