विचार / लेख
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में राजद्रोह के अपराध को कई कारणों से दुबारा जांचने की जरूरत महसूस की है। यह एक अच्छा लक्षण है। राजद्रोह तो सांप है जो जनता को डस रहा है। जस्टिस चंद्रचूड़ के साथ दिक्कत यही है कि वे अपनी पूरी प्रतिभा का फलसफा गढ़ पाने में कहीं न कहीं संकोच कर रहे हैं। वे कर गए, तो कर गए। बाकी आगे क्या है? जो है सो है। इसलिए यह लेख लिखने का मन हो गया। जानता हूं बहुत से लोग नहीं पढ़ते हैं। भरमाते जरूर रहते हैं कि आप लिखते रहिए। हम तो आपको पढ़ते हैं। लेखक वही सच्चा होता है, जो लिखता रहता है। भले कोई उसे पढ़े या न पढे़। उसकी किताब छापकर प्रकाशक उसे धोखा देकर देश का सबसे बड़ा प्रकाशक भी कहलाने लगे।
धरती पर क्यों आए हुजूर?
1704 में इंग्लैंड में चीफ जस्टिस सर जाॅन होल्ट ने राजद्रोह के अपराध की परिभाषा में सुधार लाते कहा था लोग सरकार के खिलाफ बुरी भावना या बददिमागी रखें तो जवाबदेही तय किए बिना सरकार का चलना संभव नहीं होगा। लोगों को सरकार के लिए सद्भावना रखनी चाहिए। भले ही आरोप लगाने वाले सच भी क्यों न बोल रहे हों। ज़्यादा गंभीर मामलों में पूरा सच उजागर करने से सरकार की छवि का नुकसान तो होता ही है। भारत में भारतीय दंड संहिता केे रचनाकार लाॅर्ड मैकाले ने शुरुआत में राजद्रोह का अपराध शामिल नहीं किया था। मैकाॅले की टक्कर के न्यायशास्त्री जेम फिट्ज़ेम्स स्टीफन ने दस साल बाद राजद्रोह को जोड़ते कहा यह धोखे से छूट गया था। कारण असल में यह था कि 1863 से 1870 तक भारत में आज़ादी के लिए मशहूर वहाबी आंदोलन चला था। उससे निपटने सरकार को राजद्रोह का दंड संहिता में बीजारोपण करना मुफीद लगा। राजद्रोह अपराध का गर्भगृह इंग्लैंड का ‘द ट्रेजन फेलोनी एक्ट‘ काॅमन लाॅ में रहा। भारत में 1892 में ‘बंगबाशी‘ पत्रिका के संपादक जोगेन्द्र चंदर बोस एवं अन्य के खिलाफ अदालती विचारण में आया। मामले में चीफ जस्टिस पेथेरम ने कहा आरोपी की सरकार के खिलाफ नफरत या मनमुटाव की भावना साफ झलकती है।
इंग्लैंड में जन्मे, तिलक तक पहुंचे
राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मुकदमे एक के बाद एक आकर लोकमान्य तिलक को नागपाश में बांधने की कोशिश कर गए। 1859 में तिलक का पहला मामला उनके भाषण और भक्तिपूर्ण भजन गायन को शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की स्मृति संबंधी आयोजन में दर्ज हुआ। दूसरा मुकदमा 1908 में चस्पा किया गया। बंगाल विभाजन के नतीजतन मुजफ्फरपुर में अंगरेजी सत्ता के खिलाफ बम कांड हुआ। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए जा रहे अत्याचारों की तिलक ने समाचार पत्र ‘केसरी‘ में कड़ी आलोचना की। जज दावर ने तिलक को राजद्रोह का दोषी ठहराया। 1908 में तिलक के अपराधिक प्रकरण में बचाव पक्ष के वकील मोहम्मद अली जिन्ना की जानदार तकरीर भी काम नहीं आई। तिलक को छह वर्ष के लिए कालापानी की सजा दी गई।
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गांधी ने राजद्रोह को आईना दिखाया
सबसे मशहूर मामला गांधी का हुआ। 1922 में सम्पादक गांधी और समाचार पत्र ‘यंग इंडिया‘ के मालिक शंकरलाल बैंकर पर तीन आपत्तिजनक लेख छापे जाने के कारण राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ। सुनवाई में बहुत महत्वपूर्ण राजनेता अदालत में हाजिर रहते। देश में उस मामले को लेकर सरोकार था। जज स्टैंªगमैन के सामने गांधी ने तर्क किया कि वे साम्राज्य के पक्के भक्त रहे हैं लेकिन अब गैरसमझौताशील, असंतुष्ट बल्कि असहयोगी नागरिक हैं। ब्रिटिश कानून की मुखालफत करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है। यह कानून वहशी है। जज चाहें तो अधिकतम सजा दे दें। कहा कि राजद्रोह भारतीय दंड संहिता में राजनीतिक अपराधों का राजकुमार है। वह नागरिक आजादी को कुचलना चाहता है। जज ने कहा वे मजबूर हैं। गांधी को छह वर्ष के कारावास की सजा दी गई।
1910 में गणेश दामोदर सावरकर ने कई द्विअर्थी कविताओं का प्रकाशन किया था। पढ़ने पर नहीं कहा जा सकता था कि खुले आम कोई नफरत या हुक्मउदूली की जा रही है। लेकिन आरोप था कि लेखक का आशय हिन्दू देवी देवताओं के नामोल्लेख के जरिए अंगरेज़ी हुकूमत के खिलाफ नफरत और मुखालफत का इजहार करना ही था। 1927 में सत्यरंजन बख्शी के मामले में राजद्रोह का हथियार फिर चलाया गया। 1942 में मशहूर मुकदमा निहारेन्दुदत्त मजूमदार का हुआ। उनके प्रकरण में चीफ जस्टिस माॅरिस ग्वाॅयर ने लेकिन पारंपरिक ब्रिटिश कानून की व्याख्या का अनुसरण करते यही सही ठहराया कि जब आरोपी के कहने से लोक शांति के भंग या भंग होने की युक्तियुक्त सम्भावना या खतरा प्रतीत हो तो ही वह अपराधी ठहराया जाएगा। अपराधी की मानसिक स्थिति भर से अपराध होने का कोई आधार नहीं माना गया। लेकिन आगे चलकर सदाशिव नारायण भालेराव के प्रकरण में प्रिवी काउंसिल ने निहारेंदु दत्त मजूमदार के प्रकरण के फैसले के आधारों को पलट दिया।
संविधान सभा से खारिज
संविधान सभा में ‘राजद्रोह‘ को स्वतंत्रता के बाद कायम रखने के खिलाफ जीवंत बहस हुई। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंतशयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने इस संड़ांध भरे अपराध को निकाल फेंकने के पक्ष में पुरजोर तर्क रखे। इतिहास का सच है कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत में मूल अधिकारों की उपसमिति के सभापति सरदार पटेल ने राजद्रोह को अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी के प्रतिबंध के रूप में शामिल किया। संविधान सभा में सोमनाथ लाहिरी ने वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोड़ा बनाए जाने पर बेहद कड़ी आलोचना की। उन्होंने व्यंग्य में पूछा क्या सरदार पटेल सोचते हैं कि स्वतंत्र भारत की सरकार को ब्रिटिश सरकार से भी ज़्यादा नागरिक विरोधी शक्तियां मिलनी चाहिए? महत्वपूर्ण है जवाहरलाल नेहरू ने संविधान बनने के बाद अनुच्छेद 19 (1) (क) के सिलसिले में संविधान में प्रथम संशोधन होते वक्त साफ कहा था मैं इस राजद्रोह को कायम रखने के पक्ष में कभी नहीं रहा। इसे व्यावहारिक और ऐतिहासिक कारणों से हटा दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य लेकिन यही है कि जाने क्यों राजद्रोह का अपराध कायम रहकर अपने बाज जैसे जबड़ों में हर तरह के अभिव्यक्तिकारक विरोध को गौरेया समझकर दबा लेता है।
1954 में रामनंदन नामक राजनीतिक व्यक्ति ने कांग्रेस और नेहरू के खिलाफ बहुत आपत्तिजनक भाषण दिए थे। निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को पलटते इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस गुर्टू ने फैसले में लिखा ऐसी आलोचना करते वक्त लोकव्यवस्था और लोकशांति को ध्वस्त करने के कृत्य किए ही जाएं, तब ही राजद्रोह का अपराध घटित होना माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसके पहले 1951 में पंजाब हाईकोर्ट ने तारासिंह गोपीचंद के प्रकरण में ऐसा ही फैसला दिया था कि भारत अब सार्वभौम लोकतांत्रिक राज्य है। सरकारें आएंगी, सरकारें जाएंगी और राज्य की बुनियाद को हिलाए बिना उन्हें रुखसत करने के कारण भी पैदा किए जा सकते हैं। ( बाकी हिस्सा कल )