विचार/लेख
- विनीत कुमार
जनवरी 1950 को जयपुर में काग्रेस के 55वां अधिवेशन होने जा रहा था। इसी दौरान नेहरूजी जयपुर के बालिका विद्यापीठ भी गए। जिनके स्वागत में छोटी-छोटी बालिकाएं कई तरह के नारे लगा रही थीं। जिनमें एक नारा बार-बार गूँज रहा था। ‘भारत माता की जय।’ नेहरूजी ने शोर थमने के बाद बालिकाओं से पूछा, ‘मेरे प्यारे बच्चों, बताओ भारत माता कोन है?’ सभी बालिका गुमसुम हो शिक्षकों की ओर देखने लगीं तो....
नेहरूजी ने मुस्कुराकर कहा, ‘अरे! इन्हें कहां मालूम। वास्तव में हमारा देश और उसके निवासी ही भारत माता हैं।’...वे आगे बोले, ‘बच्चों, हमारा पूरा देश, इसके पहाड़, इसकी नदियाँ, गाँव, शहर सभी भारत माता है। देश के उद्योग, मशीनरी, सभी औजार भारत माता है। देश के सभी जाती-धर्म के लोग, अमीर-गरीब, छोटे-बडे, बूढ़े-बच्चे सभी लोग भारत माता हैं। हमें इनकी बेहतरी के लिए काम करना चाहिए। इनको विकास की ऊंचाइयों पर ले जाना चाहिए। संतान का काम माता की देखभाल करना है, उसको खुश रखना है। जिसमें देश के एक भी व्यक्ति की आँखें नम न हो। देश के संसाधनों से खिलवाड़ न हो। यदि आप ऐसा नहीं करते हो तो ये ‘भारत माता’ के साथ धोखा है, छल है।’....यह सुनकर वहाँ उपस्थित शिक्षक, बच्चे, स्वाधीनता सेनानी व उद्योगपति घनश्यामदास विड़ला भाव-विभोर हो गये। सभी ने एक साथ जोर से कहा, भारत माता की जय।
समय के साथ यह नारा काग्रेस से हाथ से निकल गया और इसके मायने ही बदल गये। इसके दम पर आज सरकारें बनने बिगडऩे लगीं, जिसे हम और आप बखूबी देख भी रहे हैं..
27 मई चाचा नेहरू जी की पुण्यतिथि पर नमन
-सुसंस्कृति परिहार
जब भारत आज़ाद हुआ इस वक़्त तक इज़रायल के गठन का कैंपेन अपने चरम पर पहुंच चुका था. इस मसले पर 29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र में एक वोटिंग होनी थी. वोटिंग का विषय था, फिलिस्तीन का बंटवारा. इसे दो भाग में बांटना. एक हिस्सा, यहूदियों का देश. दूसरा, अरबों यानी फिलिस्तीनियों का देश. इस वोटिंग से पहले ही यहूदी राष्ट्रवादी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अपने लिए समर्थन जुटा रहे थे.
वे ख़ासतौर पर भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समर्थन के इच्छुक थे क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर नेहरू की बहुत प्रतिष्ठा थी. चाइनीज़ गृह युद्ध से लेकर पूंजीवाद और सोवियतवाद, अंतरराष्ट्रीय मसलों में उनकी बहुत दिलचस्पी थी. साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ़ चल रहे वैश्विक संघर्ष में वो एक बड़ी अथॉरिटी माने जाते थे. स्पष्ट था कि दुनियावी मामलों में उनकी राय का आज़ाद भारत की आगामी विदेश नीति पर भी असर पड़ने वाला था ।
नेहरू जी मानते थे कि जहां आज फिलिस्तीन बसा है, उस ज़मीन से यहूदियों की प्राचीन जड़ें जुड़ी हैं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आधुनिक काल में भी उस भूभाग पर यहूदियों का अधिकार हो. नेहरू ने 1939 में लिखा था-ये सच है कि यहूदियों के लिए फिलिस्तीन उनकी पवित्र ज़मीन है. मगर फिलिस्तीन कोई निर्जन भूभाग नहीं. वो अरबों का घर, उनका वतन है.
लेकिन ऐसे दृष्टिकोण रखने वाले नेहरु जी से यहूदियों को आज़ाद भारत का समर्थन चाहिए था, तो ज़रूरी था कि नेहरू के विचार बदले जाएं. इसका जिम्मा मिला, मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन को , जो नेहरू के प्रशंसक थे. इसीलिए आइंस्टाइन ने चार पन्नों की एक चिट्ठी भेजी नेहरू को भेजी थी।इसमें उन्होंने हिटलर के हाथों हुए यहूदी नरसंहार का हवाला देते हुए इज़राइल का समर्थन मांगा। तब नेहरू ने साफ साफ लिखा कि वो यहूदियों के लिए हमदर्दी रखने के साथ-साथ अरबों के प्रति भी सहानुभूति रखते हैं. वो फिलिस्तीनी भूमि के बंटवारे और यहूदी राष्ट्र के गठन को सपोर्ट नहीं कर सकते।
कई जानकार मानते हैं कि नेहरू ने भारत का बंटवारा. धर्म के नाम पर भारत के जो दो टुकड़े हुए और सांप्रदायिक नफ़रत के चलते राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय एकता बड़ी चुनौतियां थीं. देश में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की एक बड़ी आबादी थी।उसी के मद्देनजर यह जवाब दिया था ।
यह भी कहा जाता है कि पाकिस्तान को काऊंटर करने के लिए अरब और मुस्लिम देशों का भी समर्थन चाहिए था ये मुस्लिम देश फिलिस्तीन के समर्थक थे. शायद ये भी एक बड़ी वजह थी कि आज़ाद भारत ने फिलिस्तीनी अधिकारों के साथ खड़े होने का विकल्प चुना। 29नवम्बर1947 को जब इस मुद्दे पर UN में वोटिंग हुई, तो भारत ने पार्टिशन रेजॉल्यूशन के विरोध में मतदान किया लेकिन दो सुपरपावर्स के सपोर्ट के चलते इज़रायल का गठन हो गया. 14 मई, 1948 को इज़रायल ने स्वतंत्र देश बन गया।आखिरकार, एक लंबी उठापटक के बाद भारत ने इजरायल को सितम्बर, 1950 में अपनी स्वीकार्यता दे दी। दिल्ली से 1,400 किलोमीटर दूर बम्बई में उसे एक वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति दी गयी
1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया. ये युद्ध नेहरू की चाइना नीति की करारी हार थी. साथ ही, अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर होने की कोशिश कर रहे भारत के पास चीन का मुकाबला करने की सैन्य क्षमता भी नहीं थी. भारत को हथियारों और कूटनीतिक समर्थन के लिए अंतरराष्ट्रीय मदद मांगनी पड़ी.
27 अक्टूबर, 1962 को नेहरू ने इज़रायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन को भी पत्र भेजा. जवाब में गुरियन ने भारत के साथ हमदर्दी जताते हुए हथियार देने की पेशकश की. इज़रायल ने भारत को आर्म्स सपोर्ट दिया भी, मगर सीमित. इस प्रकरण के चलते इज़रायल और भारत करीब तो आए, मगर फिर 1967 के सिक्स-डे वॉर के चलते दोनों में दूरी आ गई
पाकिस्तान के सवाल पर इंदिरा गांधी सरकार के आगे भी अमेरिका का बहुत दबाव रहा। गवर्नमेंट को सोवियत के अतिरिक्त भी इंटरनैशनल बैकअप चाहिए था. इस तस्वीर में इज़रायल की एंट्री दिखती है 1971 के बांग्लादेश युद्ध में. इस टाइम भारत को हथियारों की फिर ज़रूरत पड़ी. सरकार ने इज़रायल से मदद मांगी. और उसने भारत को लिमिटेड सपोर्ट भी दिया.
लेकिन इस सपोर्ट के बावजूद भारत ने फिलिस्तीन का पक्ष नहीं छोड़ा. इसी क्रम में 1975 के साल भारत ने यासिर अराफ़ात के PLO, यानी फिलिस्तीनियन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन को फिलिस्तीन देश के प्रतिनिधि की मान्यता दी । तभी से यह सिलसिला जारी है लेकिन मोदी सरकार आने के बाद इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतान्याहू से जो मजबूत रिश्ते बन रहे थे उससे ऐसा लग रहा था कि शायद नेहरू द्वारा स्थापित विदेश नीति परिवर्तित ना हो जाए पर ऐसा कुछ नहीं हुआ
ताजा घटनाक्रम के अनुसार इज़रायल और फ़िलिस्तीन के बीच जो हिंसा का लगभग हफ़्ते भर दौर चला वह बीत चुका है. इस हिंसा में अब तक 58 बच्चों समेत 198 फिलिस्तीनी मारे गए हैं. इज़रायल के कब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में भी सिक्यॉरिटी फोर्सेज़ के हाथों 13 फिलिस्तीनी मारे गए. उधर हमास द्वारा छोड़े गए सैकड़ों रॉकेट्स से इज़रायल में दो बच्चों समेत 10 लोगों की मौत हुई है.फिलहाल संघर्ष विराम जारी है।
इस हिंसा के खिलाफ़ दुनिया के कई शहरों में प्रोटेस्ट हो रहे हैं. कोई फ़िलिस्तीन का पक्ष ले रहा है, कोई इज़रायल का. भारत में भी सोशल मीडिया फीड ‘आई सपोर्ट फिलिस्तीन वर्सेज़ आई सपोर्ट इज़रायल’ से भरी हुई थी कई लोग इज़रायल का सपोर्ट करने के साथ-साथ इस्लामोफ़ोबिया का भी भद्दा प्रदर्शन कर रहे थे। न्यूक्लियर हमले और नरसंहार जैसी भीषण अपीलें भी जा गई। इन सबके बीच एक ट्वीट को लेकर काफी कौतुहल दिखा ये ट्वीट था, इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का. 16 मई के अपने इस ट्वीट में नेतन्याहू ने अमेरिका और ब्रिटेन समेत 25 देशों का झंडा लगाया. इसके साथ नेतन्याहू ने लिखा-इज़रायल के साथ सुदृढ़ता से खड़े रहने के लिए शुक्रिया. आतंकी हमलों के विरुद्ध अपनी सुरक्षा के हमारे अधिकार का समर्थन करने के लिए आपका धन्यवाद.
इस ट्वीट पर भारतीयों के भी कई कमेंट आए. कई भारतीयों ने ताज्जुब जताया कि नेतन्याहू ने अपने ट्वीट में भारत का झंडा क्यों नहीं लगाया? ये बड़ा सवाल है. मगर इसका जवाब नेतन्याहू के पास नहीं. क्योंकि ये मामला जुड़ा है, भारतीय विदेश नीति से । विदेश नीति, यानी किसी दुनियावी मसले पर एक देश का आधिकारिक स्टैंड और यह स्टैंड भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा रखी गई सुचिंतित सफल विदेश का ही सुखद प्रतिफल है ।
-प्रकाश दुबे
सबरीमला के अयप्पा लोकसभा क्षेत्र पत्तनंतिट्टा में विराजमान हैं। वीना जार्ज लोकसभा चुनाव हारीं। हिम्मत नहीं हारी। उसी लोकसभा क्षेत्र के एक विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर वीना मंत्री बनीं। वाम मोर्चा के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, उनके दामाद मोहम्मद रियास सहित 15 लोगों ने सत्यनिष्ठा के नाम पर शपथ ली। वीना ने भगवान को याद किया। ईसाई बहुल केरल कांग्रेस के मणि गुट के प्रतिनिधि रोशी आगस्टीन, इंडियन लीग के अहमद दावरकोविल ने अपने अपने आराध्य को याद किया। सबरीमला मिलनसार देवता का स्थान है। इसे शैव और वैष्णव दोनों अपना मानते हैं। वार्षिक यात्रा में करीब दो करोड़ श्रद्धालु आते हैं। 41 दिन की कठिन यात्रा मंडपम को तभी पूरा माना जाता है जब श्रद्धालु वावर बाबा मस्जिद में मत्था टिका कर आए। इस्लाम मानने वाले परिवार में जन्मे वावर अयप्पा के भक्त थे। यूं तो सबके लिए खुला है-मंदिर ये। कुछ महिलाओं को छोडक़र। वीना मंत्री हैं परंतु अयप्पा दर्शन? टीवी पत्रकार रही हैं। दूर से दर्शन सही।
मुक्कों की मार से बरसे सोना
मुक्केबाज मेरी काम सब काम छोडक़र सोने का एक पदक पक्का करने की कोशिश में जी जान से जुटी हैं। बच्चों की बीमारी से बेचैन रहीं। दिल पर हाथ रख अपने को समझाया। कोरोना महामारी के बीच दिल्ली कोचिंग के लिए जाने की तैयारी की। मुक्केबाजी एसोसिएशन ने ही कोचिंग कैम्प रद्द किया। हजारों किलोमीटर पुणे में प्रैक्टिस जारी है। विश्व स्तर की स्पर्धा में आधा दर्जन स्वर्ण पदक बटोर चुकी मेरी काम की आयु 40 से दो साल कम है। 50 किलो वजन वाली मुक्केबाज टोकियो ओलम्पिक में सोना पाने का अवसर गंवाना नहीं चाहतीं। ओलम्पिक से पहले एशियाई मुक्केबाजी स्पर्धा में तैयारी का एक अवसर है। स्पर्धा के लिए दुबई जाने की उनकी तैयारी है। पहुंचना और शामिल होना मेरी काम के वश में नहीं है। भारत और दुनिया की विमान सेवाओं और इस समय महामारी से संबंधित प्रतिबंधों पर बहुत कुछ निर्भर करता है। हम भारतीय किसी को रोता देखकर मोहित हो जाते हैं। स्वर्ण पदक लेते समय रोते हुए देखना चाहते हैं या न जाने और न पाने के कारण आंसू बहाने पर? तय करो।
ठंडे का फंडा
प्रेस क्लब आफ इंडिया का मुख्य काम इन दिनों बंद है। यह मत पूछिए क्या? हर तरह के सोमरस को शीतल और पत्रकार सदस्यों को जोशीला बनाने वाली मशीनें ठंडी पड़ी हैं। प्रेस क्लब के सचिव विनय कुमार सिर्फ पत्रकार के रूप में ही कल्पनाशीलता के लिए प्रख्यात नहीं हैं। उन्होंने प्रेस क्लब की मशीनों का महामारी को मात देने के लिए उपयोग करने का प्रस्ताव रखा। औषधियां, इंजेक्शन, टीके सुरक्षित रखने के लिए इन प्रशीतकों का उपयोग हो सकता है। प्रेस क्लब परिसर का उपयोग सामूहिक टीकाकरण के लिए किया जा सकता है। प्रस्ताव से प्रभावित दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इसके एवज में प्रेस क्लब सदस्यों के टीकाकरण की तैयारी दिखाई। शनिवार को अधिकारी मुआयना कर गए। प्रेस क्लब के चार हजार से अधिक सदस्य और उनके परिवारजन आश्वासन से खुश हैं। वे यह भूल गए कि टीके केजरीवाल के घर नहीं बनते। केन्द्र सरकार से मिलते हैं। तिथि की सूचना मिलने के बाद पक्का समझाना। टीके के बजाय पेय पदार्थ से प्रतिरोधक ताकत पाने का विकल्प है। उसके लिए लाक डाउन और क्लब खुलने तक इंतजार करना पड़ेगा।
कुर्सी चाहे कैसी हो
बहुत पुराने जमाने की बात नहीं है जब आला कमान की अनसुनी करने पर पत्ता साफ हो जाता था। जब सत्ता नहीं है तो आलाकमान ही ढीला पड़ा है। विधानसभा चुनाव से पहले सबने सौ सौ बार कसमें खाईं कि आपस में झगड़ा नहीं करेंगे। जीत कर आने के बाद भी। आलाकमान जिसे तय करेगा, उसे मुख्यमंत्री मान लेंगे। आलाकमान मुगालते में रहा हो, केरल के राज्य नेता एक दूसरे पर भरोसा नहीं कर पाए। जनता बेवकूफ नहीं है। उसने भी दावे पर यकीन नहीं किया। सत्ता नहीं मिली। तो क्या हुआ? अब नेता प्रतिपक्ष के लिए खींचतान जारी है। जीतने वाले मोर्चे ने सरकार बना ली। मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने वाले रमेश चेन्निथला नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी बचाने के लिए दो दर्जन नवनिर्वाचित विधायकों का जुगाड़ करने में जुटे हैं। उनकी कोशिश नाकाम करने कम से कम चार दावेदार राह में अड़े हैं। केरल के प्रभारी महासचिव तारिक अनवर हैरान हैं। इतनी मेहनत चुनाव में की होती तो नतीजे कुछ बेहतर होते। अंतत: चेन्निथला को हटाकर नया चेहरा लाए। वैसे सतीशचंद्रन पहले भी चुनाव जीत चुके हैं। विधानसभा में उनकी सक्रियता से तारिक भाई प्रभावित हुए।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इजराइल और फिलीस्तीनियों के संगठन हमास के बीच पिछले 11 दिनों तक युद्ध चलता रहा। अब मिस्र और अमेरिका के प्रयत्नों से वह युद्ध ऊपरी तौर पर शांत हो गया है लेकिन बुनियादी झगड़ा जहां का तहां बना हुआ है। अल-अक्सा मस्जिद, जो कि दुनिया के मुसलमानों का पवित्र तीर्थ-स्थल है, उसमें इजराइलियों का जाना-आना ज्यों का त्यों बना हुआ है और शेख ज़र्रा नामक पूर्वी यरुशलम से फिलीस्तीनियों को खदेड़ना जारी है। इन दोनों मसलों के कारण ही यह युद्ध छिड़ा था।
इन दोनों से भी बड़ा और असली मुद्दा है- उस फिलीस्तीनी भूमि पर दो राष्ट्रों का स्थापित होना। 1948 में इजराइल वहाँ स्थापित हो गया। उसकी स्थापना में ब्रिटेन और अमेरिका ने जबर्दस्त भूमिका निभाई लेकिन फिलीस्तीनियों का राज्य बनना अभी तक संभव नहीं हुआ है जबकि उसकी स्थापना के लिए संयुक्तराष्ट्र संघ ने प्रस्ताव पारित कर रखा है। सभी पश्चिमी राष्ट्र और यहां तक कि अरब राष्ट्र भी इस मामले में जबानी जमा-खर्च करके चुप हो जाते हैं।
इजराइल में रहने वाले अरबों की दुर्गति तो सबको पता ही है, फिलिस्तीनी इलाकों की गरीबी, अशिक्षा और असुरक्षा शब्दों के परे हैं। इसके अलावा पिछले अरब-इजराइली युद्धों में इजराइल ने जिन अरब इलाकों पर कब्जा कर लिया था, उनमें रहने वाले अरबों की हालत गुलामों जैसी है। वे अपने ही घर में बेगानों की तरह रहते हैं। एक जमाना था, जब दुनिया के मालदार इस्लामी राष्ट्र इन शरणार्थियों की खुलकर मदद करते थे लेकिन अब ईरान के अलावा कोई राष्ट्र खुलकर इनकी मदद के लिए सामने नहीं आता।
तुर्की और मलेशिया जैसे राष्ट्र जबानी बंदूकें चलाने में उस्ताद हैं लेकिन परेशान फिलीस्तीनियों की ठोस मदद करने वाला आज कोई भी नहीं है। खुद फिलीस्तीनी कई गुटों में बंट गए हैं। अल-फतह और हमास– ये दो तो उनके जाने-पहचाने चेहरे हैं। छोटे-मोटे कई गुट सक्रिय हैं जबकि उनके विरुद्ध पूरा का पूरा इजराइल एक चट्टान की तरह खड़ा होता है। इजराइल की पीठ पर अमेरिका की सशक्त यहूदी लाबी का हाथ है।
भारत एक ऐसा देश है, जिसका इजराइल और फिलिस्तीन, दोनों से घनिष्ट संबंध है। भारत ने वर्तमान विवाद में अपनी भूमिका के असंतुलन को सुधारा है और निष्पक्ष राय जाहिर की है। वह किसी का पक्षपात करने के लिए मजबूर नहीं है। फिलीस्तीनियों के प्रसिद्ध नेता यासिर अराफत कई बार भारत आते रहे और भारत सरकार खुलकर उनका समर्थन करती रही है।
नरसिंहराव सरकार ने इजराइल के साथ सक्रिय सहयोग शुरु किया था, जो आज काफी ऊँचे स्तर पर पहुंच गया है। अन्य अरब देश भी भारत का बहुत सम्मान करते हैं। इजराइल सुरक्षित रहे लेकिन साथ-साथ अरबों को भी न्याय मिले, इस दिशा में भारत का प्रयत्न बहुत सार्थक हो सकता है। भारत कोरे बयान जारी करके अपना दायित्व पूरा हुआ, यह न समझे बल्कि दोनों पक्षों से खुलकर बात करे तो वह अमेरिका जो प्रयत्न कर रहा है, उसे सफल बना सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
25 मई 2013 को बस्तर की दरभा घाटी में नक्सलियों ने भयानक नरसंहार किया। उसमें कांग्रेस के बड़े नेताओं विद्याचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल, महेन्द्र कर्मा, उदय मुदलियार और योगेन्द्र शर्मा सहित कई लोगों की हत्या हुई। आनन फानन में तब की कांग्रेसी केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी के जरिए जांच कराने का ऐलान किया। उस पर छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने हामी भरी। तब से दरभा घाटी से भी ज्यादा पेंच भरे घुमावदार कानून के गली कूचों में जांच की प्रक्रिया अपनी मंजिल का पता पूछ रही है। जंगलों के अंधेरे में घनी वादियों के बीच रास्ता नहीं सूझता। कानून की भूलभुलैया में तो अंधेरा ही भटक जाता है।
घटना के पांच साल बाद छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार आई और उसके चार साल पहले ही केन्द्र में भाजपा की सरकार आ जाने से सत्ता का उलट पलट हो गया। मौजूदा कांग्रेस सरकार ने विशेष जांच दल गठित कर झीरम की जांच करानी चाही लेकिन राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी अधिनियम के तहत केन्द्र को अधिकार है कि वह नक्सली अपराधों सहित राष्ट्रीय नस्ल के अन्य अपराधों में जांच कर सके जिनका अंतराज्यीय फैलाव होता है। केन्द्र ने राज्य सरकार को नकार दिया।
मैंने अधिकृत तौर पर सरकारी फाइलों को देखा है, सलाह दी है और भविष्यवाणी तक कर दी है। उसका फिलहाल यहां खुलासा नहीं करना है। मामला केन्द्र और राज्य के बीच हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपनी ताकत दिखाने का होता रहता है लेकिन न्याय तो पीड़ित परिवारों को चाहिए, जनता को भी चाहिए। सरकारें तो फकत अन्याय करती हैं। उन्हें न्याय पाने की इच्छा कहां होती है। आनन-फानन में भाजपाई राज्य सरकार द्वारा गठित न्यायिक आयोग में भी मामला चला गया। वहां भी वह ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस‘ के मुहावरे का अर्थ पीड़ितों को समझाता रहा। अब भी तो समझा रहा होगा कि क्या हुआ या हो सकता है। सरकारी ऐलान फिर भी होता है झीरम घाटी प्रकरण में न्याय मिलेगा।
सवाल है न्याय किसको मिलेगा और मिलेगा भी तो न्याय होता क्या है? समझ लें अदालती न्याय मु्ट्ठी में हवा को बंद करने जैसा होता है। दिखता नहीं है। घोषणाएं और आश्वासन इसलिए हवा हवाई ही होते हैं। यह अंगरेजी के शब्द एन आई ए और सी बी आई जनता को हातिमताई या देवदूतों की तरह क्यों लगते हैं! इनमें सामान्य पुलिसिया अफसर ही होते हैं। कई बार तो दागी अफसरों को इन केन्द्रीय एजेंसियों की झीरम घाटी में धकेल दिया जाता है। वहां भी ये अपनी हरकतों से बाज नहीं आते। सी बी आई के दो बडे़ अफसरों की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक डांट डपट खाती रही। सुप्रीम कोर्ट ने कह तो यह भी दिया कि ‘सी बी आई सरकार के पिंजरे का तोता है। एन आई ए भी तो वही है। उसकी टांग गलत जगह अड़ा दी जाती है क्योंकि वे अपनी टांगों को अंगद के पैर समझती हैं।‘ बंगाल में सी बी आई हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच जिला स्तरीय कोर्ट की अपनी असफलता का रोना रो रही है।
1984 की भोपाल गैस त्रासदी में राजनेताओं और अदालतों के कारण पीड़ितों को आज तक मुकम्मिल न्याय नहीं मिला। तब तो 2013 वाली झीरम घाटी को प्रतीक्षा सूची में रहना है। कठुआ, उन्नाव तथा हाथरस के बलात्कार के जघन्य कांडों मे बेचारी पीड़ित बच्चियों और उनके परिवारों को क्या खाक न्याय मिला है। तेज तर्रार जे एन यू नेता कन्हैय्या कुमार को दिल्ली की अदालत के प्रांगण में वकीलों ने असभ्य तरीके से पिटाई की। क्या न्याय मिला? कपिल मिश्रा जैसे लोगों ने दिल्ली में हिंसात्मक धांधलेबाजी मचाने का आरोप झेला। हाई कोर्ट जज मुरलीधरन ने एफ आई आर कराने का आदेश दिया तो केन्द्र सरकार के कारण सुप्रीम कोर्ट ने आधी रात को जज का तबादला कर दिया। हां, जस्टिस मुरलीधरन को न्याय मिल गया!
छत्तीसगढ़ सरकार श्वेत पत्र प्रकाशित करेगी कि आज तक भाजपा प्रशासन के बस्तर में आदिवासियों को कितने नरसंहारों में मारा गया है? कितने आयोग गठित किए गए? आयोगों की रिपोर्टें क्या हैं? उनमें कितना धन और समय खर्च हुआ और सरकार ने क्या कार्यवाही की? किसको किसको न्याय मिला? पश्चिम बंगाल की हिंसा में पीड़ित लोग न्याय मांगते दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। जो सक्षम हैं, वे सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ में मरते तो आदिवासी हैं। उनकी तरफ से सरकार अपने खर्च से बडे़ से बडे़ वकीलों को लगाकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ने में मदद क्यों नहीं करती? भाजपा और कांग्रेस की सरकारें तो अदल-बदल के किरदार हैं। एक दूसरे पर दोष लगाने से चुनाव जीते जाते हैं। आश्वासन देने का अधिकार मिल जाता है। राजनीतिक आश्वासन का व्याकरण में अर्थ है झांसा।
अदालतों की कार्यवाही में जब दो पक्ष मिली जुली कुश्ती लड़ते हैं तो बेचारे न्याय को ही न्याय नहीं मिलता। वह दूसरों को क्या न्याय देगा? फिर भी यह लोकतंत्र है। जनता हर बार उसको वोट देगी जो कहेगा तुमको न्याय मिलेगा। न्याय जब नहीं मिलेगा तो विपरीत पार्टी को वोट देगी और उसका आश्वासन मानेगी कि न्याय मिल गया। न्याय एक धुंध है। धुंधलका है। मृगतृष्णा का अरुणोदय है। गोधूलि बेला है। वह झीरम घाटी की टीसती आंत में ठहरा हुआ अहसास है। उस पर आदिवासियों की उम्मीदें उसी तरह कायम हैं जैसे उन्हें लगता है कि अदानी, अंबानी, टाटा, वेदांता, एस्सार, जायसवाल ये सब लोग जनता के रक्षक हैं।
-पुष्य मित्र
अगर कल से फेसबुक-ट्विटर-वाट्सएप बंद हो गये तो सबसे अधिक खुश मैं होऊंगा। हालांकि एक स्वतंत्र पत्रकार होने के कारण ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म मेरे लिए जॉब काउंटर सरीखे हैं। मेरे लिए कई खबरों के आइडियाज यहीं से मिलते हैं और काम के कई ऑफर भी। मेरे लिए यह सिर्फ टाइमपास, दोस्ती, राजनीति, एक्टिविज्म और अपने आप को प्रमोट करने का जरिया ही नहीं है। यह मेरी रोजी रोटी से जुड़ा है। फिर भी मुझे पूरा भरोसा है कि कोई न कोई जरिया निकल ही जायेगा।
हालांकि मुझे यह भी मालूम है कि इनमें से कोई बंद नहीं होगा। हमसे ज्यादा इन माध्यमों पर सरकार की डिपेंडेंसी है। हमारा काम चल जायेगा, सरकारों का काम इनके बगैर एक दिन नहीं चलेगा। आप देखिये किस तरह इन माध्यमों से जुड़कर देश के बड़े नेता और मंत्री अब इंडिपेंडेंट मीडिया बन चुके हैं। इन्हें अपनी बात लाखों लोगों तक पहुंचाने के लिए अब अखबारों, टीवी चैनलों और दूसरे समाचार माध्यमों की जरूरत नहीं। इन माध्यमों में सरकार के लिए कोई संपादकीय अवरोध भी नहीं। ये जो चाहते हैं, हर किसी तक पहुंचा देते हैं। सही-गलत दोनों तरह की बात। विवादास्पद बयान तक।
फिर इन माध्यमों पर इनके लाखों नासमझ फॉलोअर हैं, जो इनके एक इशारे पर इनके विरोधियों की वाट लगाते रहते हैं। सोशल मीडिया पर सत्ता और विपक्ष का शक्ति संतुलन 90 बनाम दस का है। इनकी आईटी सेल है, जो इनकी हर असफलता, हर गलत फैसले पर कुतर्क गढ़ती है और पल भर में गांव-गांव तक फैला देती है। सत्ताधारी दल के बूथ लेवल तक वाट्सएप ग्रुप हैं। जिनके जरिये चुनाव लड़े और जीते जाते हैं और प्रोपेगेंडा फैलाये जाते हैं।
यही वह ताकत है जिसकी वजह से हद दर्जे की आर्थिक और राजनीतिक असफलता के बावजूद यह सरकार बेफिक्र है। उसे मालूम है कि उसके पास अपने कुतर्क और प्रोपेगेंडा को फैलाने के लिए एक चैनल बना हुआ है। अखबार आज भी नैतिकता के एक मोरल प्रेशर में काम करते हैं, उनके पतन औऱ सत्ताउन्मुख होने की अपनी सीमा है। उस पर फेक न्यूज न फैलाने का दबाव है। ऐसे में जब हर बाजी नाकाम हो जाती है तो वाट्सएप यूनिवर्सिटी काम आती है। सरकार इस ताकत को नहीं गंवा सकती।
हां, अपनी ताकत के जोर पर वह उसे दबाना और झुकाना जरूर चाहती है। जिस तरह उसने ज्यादातर टीवी न्यूज चैनलों को झुका दिया है। वह सोशल मीडिया स्पेस में सीमित हैसियत में मौजूद विरोधी आवाज को कुचलना चाहती है। क्योंकि यही वह आवाज है जो तमाम प्रोपेगेंडा के बावजूद सरकार को प्रेशर में रखती है, उसके अपराधों को सामने लाती है। सरकार का लक्ष्य इन माध्यमों को इतना झुका देना है कि वह इन आवाजों का धीरे-धीरे गला घोंट दे। ताकि सोशल मीडिया पर सिर्फ उसका प्रोपेगेंडा गूंजता रहे।
सोशल मीडिया के होने से विरोधी आवाजों को भी एक भ्रम सा हो गया है कि वे यहां ताकतवर हैं। वे एक ट्विटर कैंपेन या फेसबुक पोस्ट लिखकर सरकार को झुका देते हैं। इस चक्कर में उनका आम लोगों से जुड़ाव घटता जा रहा है। अगर ये माध्यम बंद हुए तो विरोधी ताकतों को फिर से आम लोगों से बतियाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यह उनके लिए लाभदायक होगा। सरकार का पिंड भी मीडियम क्लास फुरसतिये भक्तों से छूटेगा। जो अपनी कल्पना से हर बात के लिए कुतर्क गढ़ते और सारा दोष पब्लिक पर डाल देने के अभ्यस्त हो चले हैं।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
एक-दो प्रांतों को छोड़कर भारत के लगभग हर प्रांत से खबर आ रही है कि कोरोना का प्रकोप वहाँ घट रहा है। अब देश के सैकड़ों अस्पतालों और तात्कालिक चिकित्सा-केंद्र में पलंग खाली पड़े हुए हैं। लगभग हर अस्पताल में आक्सीजन पर्याप्त मात्रा में है। विदेशों से आए आक्सीजन-कंसन्ट्रेटरों के डिब्बे बंद पड़े हैं। दवाइयों और इंजेक्शनों की कालाबाजारी की खबरें भी अब कम हो गई हैं। लेकिन कोरोना के टीके कम पड़ रहे हैं। कई राज्यों ने 18 साल से बड़े लोगों को टीका लगाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया है। देश में लगभग 20 करोड़ लोगों को पहला टीका लग चुका है लेकिन ये कौन लोग हैं ? इनमें ज्यादातर शहरी, सुशिक्षित, संपन्न और मध्यम वर्ग के लोग हैं। अभी भी ग्रामीण, गरीब, पिछड़े, अशिक्षित लोग टीके के इंतजार में हैं। भारत में 3 लाख से ज्यादा लोग अपने प्राण गवां चुके हैं। यह तो सरकारी आंकड़ा है। इस आंकड़े के बाहर भी बहुत-से लोग कूच कर चुके हैं। अब तक 3 लाख से ज्यादा लोग चले गए। पिछले 12 दिन में 50 हजार लोग महाप्रयाण कर गए। इतने लोग तो आजाद भारत में किसी महामारी से पहले कभी नहीं मरे। किसी युद्ध में भी नहीं मरे।
मौत के इस आंकड़े ने हर भारतीय के दिल में यमदूतों का डर बिठा दिया। जो लोग सुबह 5 बजे गुड़गांव में मेरे घर के सामने सड़क पर घूमने निकलते थे, वे भी आजकल दिखाई नहीं पड़ते। सब लोग अपने-अपने घरों में बंद हैं। आजकल घरों में भी जैसा अकेलापन, सूनापन और उदासी का माहौल है, वैसा तो मैंने अपने जेल-यात्राओं में भी नहीं देखा। अब 50-60 साल बाद लगता है कि कोरोना में रहने की बजाय जेलों में रहना कितना सुखद था। लेकिन जब हम दुनिया के दूसरे देशों को देखते हैं तो मन को थोड़ा मरहम-सा लगता है। भारत में अब तक 3 लाख मरे हैं जबकि अमेरिका में 6 लाख और ब्राजील में 4.5 लाख लोग ! जनसंख्या के हिसाब से अमेरिका के मुकाबले भारत 4.5 गुना बड़ा है और ब्राजील से 7 गुना बड़ा। अमेरिका में चिकित्सा-सुविधाएं और साफ-सफाई भी भारत से कई गुना ज्यादा है।
इसके बावजूद भारत का ज्यादा नुकसान क्यों नहीं हुआ ? क्योंकि हमारे डॉक्टर और नर्स देवतुल्य सेवा कर रहे हैं। इसके अलावा हमारे भोजन के मसाले, घरेलू नुस्खे, प्राणायाम और आयुर्वेदिक दवाइयां चुपचाप अपना काम कर रही हैं। न विश्व स्वास्थ्य संगठन उन पर मोहर लगा रहा है, न हमारे डाॅक्टर उनके बारे में अपना मुँह खोल रहे हैं और न ही उनकी कालाबाजारी हो रही है। वे सर्वसुलभ हैं। उनके नाम पर निजी अस्पतालों में लाखों रु. की लूट-पाट का सवाल ही नहीं उठता। भारत के लोग यदि अफ्रीका और एशिया के लगभग 100 देशों पर नज़र डालें तो उन्हें मालूम पड़ेगा कि वे कितने भाग्यशाली हैं। सूडान, इथियोपिया, नाइजीरिया जैसे देशों में कई ऐसे हैं, जिनमें एक प्रतिशत लोगों को भी टीका नहीं लगा है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और अफगानिस्तान में भी बहुत कम लोगों को टीका लग सका है। कोरोना की इस लड़ाई में सरकारों ने शुरु में लापरवाही जरुर की थी लेकिन अब भाजपा और गैर-भाजपा सरकारें जैसी मुस्तैदी दिखा रही हैं, यदि तीसरी लहर आ गई तो वे उसका मुकाबला जमकर कर सकेंगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गोपाल राठी
आयुर्वेद भारत की प्राचीन चिकित्सा प्रणाली है। हम सबने बचपन में इस पैथी से इलाज करवाया है। हमारे वैद्यराज अपने खरल में दवाई का चूर्ण बनाकर पुडिय़ा बनाकर देते थे। वैद्यराज इतने दक्ष होते थे कि नाड़ी देखकर रोग की गम्भीरता और रोगी की तासीर जानते थे और उसी अनुसार दवाई दी जाती थी। यह दवा किसी कम्पनी का उत्पादन नहीं होता था। हर वैद्य अपनी दवा स्वयं तैयार करता था। दवाई का कच्चा माल रखने और दवा को घोंटने पीसने के लिए जो कमरा होता था उसे रसायन शाला कहते थे। पिपरिया की मंगलवारा धर्मशाला में चलने वाले धर्मार्थ आयुर्वेदिक औषधालय में आज से 40-50 साल पहिले जिन्होंने भी स्व. वैद्य हरिनारायण तिवारीजी से इलाज करवाया हो वह दृश्य याद कर सकता है। एक स्थिति के बाद वे स्वयं डॉक्टरी इलाज (एलोपैथी) इलाज की सलाह दिया करते थे।
आयुर्वेद की जो सबसे बड़ी कमी यह रही कि उसमें समय-समय पर शोध और अनुसंधान की कोई परंपरा नहीं है। नई बीमारियों और चुनौतियों से निपटने की कोई दृष्टि नहीं रही। वे हर मर्ज का इलाज आयुर्वेद के हजारों साल पुराने उन ग्रंथों में खोजते रहे जो अब धर्मग्रंथ बन गए हैं।
इस कारण आयुर्वेद में आस्था रखने वाले भी अब आयुर्वेद के भरोसे नहीं हैं। गंभीर बीमारियों में कोई रिस्क नहीं लेना चाहता और सीधे डॉक्टर की शरण में जाता है। स्वयं रामदेव जब कोमा में गए तब और बालकृष्ण आचार्य जब बीमार हुए तब एम्स में ही भर्ती हुए थे। 19 शताब्दी की शुरुआत में स्वीडिश फ्लू में करोड़ों भारतीयों की मौत हुई। प्लेग, हैजा, चेचक, टीबी आदि अनेक महामारियों का प्रकोप रहा, पोलियो का जोर रहा, लेकिन इन सब बीमारियों के सामने आयुर्वेद असहाय सिद्ध हुआ। चिकित्सा जगत में वैक्सीन और एंटीबायोटिक का अविष्कार एक क्रांतिकारी कदम था, जिसने मौत के मुंह में जा रही मानवता को बचाया, बस यही वो समय था जब भारतीय चिकित्सा पद्धति के विकल्प के रूप में आधुनिक चिकित्सा पद्धति का महत्व स्थापित हुआ।
सरकार किसी की भी रही हो सबने आधुनिक चिकित्सा पद्धति को महत्व दिया। बड़े-बड़े अस्पताल और अनुसंधान केंद्र बने, आयुर्वेद का महत्व सिर्फ उतना ही रह गया जितना देवभाषा संस्कृत का है, जो 6 से 10 वीं तक एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है, जिसे पढक़र ना कोई संस्कृत सीखता, ना समझता।
अगर आज कोई कोरोना मरीज आयुर्वेदिक पद्धति से इलाज कराना चाहे तो नगर स्तर पर जिले स्तर पर और भोपाल स्तर पर ऐसा अस्पताल और वैद्य बताइए जहां जाकर वह भर्ती हो सके और आयुर्वेदिक उपचार से ठीक होने का भरोसा हो।
मध्यप्रदेश में 17 साल से भाजपा की सरकार है, उसने आयुर्वेदिक पद्धति के प्रसार के लिए क्या-क्या किया? जब मुख्यमंत्री कोरोना पॉजिटिव हुए थे तो वे किस आयुर्वेदिक संस्थान का ट्रीटमेंट ले रहे थे ?
भारत में आयुर्वेदिक दवा बनाने वाली सौ-सौ साल पुरानी कम्पनियां और धर्मार्थ संस्थाएं हैं, सब अपनी दवा बेचते हैं जिनकी आस्था हो फायदा हो वो खरीदते हैं, लेकिन कभी किसी ने इतना हाय-तौबा नहीं मचाया। स्वदेशी ही खरीदनी है तो डाबर, बैद्यनाथ, झंडू जैसी दर्जनों सालों पुरानी और विश्वसनीय स्वदेशी कम्पनियां हैं। उनके उत्पाद खरीदे जा सकते हैं।
कृष्ण गोपाल कालेडा धर्मार्थ संस्थान की दवा सबसे सस्ती है, क्योंकि उनकी पैकिंग आकर्षक और फैंसी नहीं है। लेकिन गुणवत्ता में नम्बर एक है। इस संस्थान ने बहुत सारा आयुर्वेदिक साहित्य भी प्रकाशित किया है जो सस्ता है और उसे पढक़र आप स्वयँ अपने वैद्य बनकर अपना इलाज कर सकते हैं।
भारत में अभी भी रामदेव से बड़े, बहुत बड़े, आयुर्वेद के आचार्य जानकर और वैद्य मौजूद हैं, लेकिन कभी किसी ने एलोपैथी या किसी अन्य पैथी के खिलाफ ऐसा युद्ध नहीं छेड़ा, यह बाबा की बिजनेस स्ट्रेटजी है। लेकिन उसने कोरोना का यह गलत समय चुन लिया इसलिए खलनायक बन गया।
-कश्मीरा शाह चतुर्वेदी
सब्जी वाले ने तीसरी मंजिल की घंटी का बटन दबाया। ऊपर बालकनी का दरवाजा खोलकर बाहर आई महिला ने नीचे देखा।
‘बीबी जी! सब्जी ले लो।’ बताओ क्या- क्या तोलना है। कई दिनों से आपने सब्जी नहीं खरीदी मुझसे, कोई और देकर जा रहा है क्या? सब्जी वाले ने कहा।
‘रुको भैया! मैं नीचे आती हूँ।’
महिला नीचे उतरकर आई और सब्जी वाले के पास आकर बोली- ‘भैया! तुम हमारे घर की घंटी मत बजाया करो। हमें सब्जी की जरूरत नहीं है।’
‘कैसी बात कर रही हैं बीबी जी ! सब्जी खाना तो सेहत के लिए बहुत जरूरी होता है। किसी और से लेती हो क्या सब्जी?’ सब्जी वाले ने कहा।
‘नहीं भैया! उनके पास अब कोई काम नहीं है। किसी तरह से हम लोग अपने आपको जिंदा रखे हुए हैं। जब सब ठीक हो जाएगा, घर में कुछ पैसे आएंगे, तो तुमसे ही सब्जी लिया करूंगी। मैं किसी और से सब्जी नहीं खरीदती हूँ। तुम घंटी बजाते हो तो उन्हें बहुत बुरा लगता है ! उन्हें अपनी मजबूरी पर गुस्सा आने लगता है। इसलिए भैया अब तुम हमारी घंटी मत बजाया करो।’ इतना कहकर महिला अपने घर में वापिस जाने लगी।
‘बहन जी! तनिक रुक जाओ। हम इतने बरस से आपको सब्जी दे रहे हैं । जब तुम्हारे अच्छे दिन थे, तब तुमने हमसे खूब सब्जी और फल लिए थे। अब अगर थोड़ी-सी परेशानी आ गई है, तो क्या हम तुमको ऐसे ही छोड़ देंगे? सब्जी वाले हैं! कोई नेताजी तो है नहीं कि वादा करके छोड़ दें। रुके रहो दो मिनिट।’
और सब्जी वाले ने एक थैली के अंदर टमाटर, आलू, प्याज, घीया, कद्दू और करेले डालने के बाद धनिया और मिर्च भी उसमें डाल दिया ।
महिला हैरान थी... उसने तुरंत कहा- ‘भैया! तुम मुझे उधार सब्जी दे रहे हो, कम से कम तोल तो लेते और मुझे पैसे भी बता दो। मैं तुम्हारा हिसाब लिख लूंगी। जब सब ठीक हो जाएगा तो तुम्हारे पैसे वापस कर दूंगी।’ महिला ने कहा।
‘वाह! ये क्या बात हुई भला? तोला तो इसलिए नहीं है कि कोई मामा अपने भांजी-भाँजे से पैसे नहीं लेता है और बहिन, मैं कोई अहसान भी नहीं कर रहा हूँ। ये सब तो यहीं से कमाया है, इसमें तुम्हारा हिस्सा भी है। गुडिय़ा के लिए ये आम रख रहा हूँ, और भाँजे के लिए मौसमी। बच्चों का खूब ख्याल रखना, ये बीमारी बहुत बुरी है और आखिरी बात भी सुन लो, ‘घंटी तो मैं जब भी आऊँगा, जरूर बजाऊँगा।’ इतना कहकर सब्जी वाले ने मुस्कुराते हुए दोनों थैलियाँ महिला के हाथ में थमा दीं।
महिला की आँखें मजबूरी की जगह स्नेह के आंसुओं से भरी हुईं थीं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल की सरकार और संसद एक बार फिर अधर में लटक गई है। राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने अब वही किया है, जो उन्होंने पहले 20 दिसंबर को किया था याने संसद भंग कर दी है और 6 माह बाद नवंबर में चुनावों की घोषणा कर दी है। याने प्रधानमंत्री के.पी. ओली को कुर्सी में टिके रहने के लिए अतिरिक्त छह माह मिल गए हैं। जब पिछले 20 दिसंबर को संसद भंग हुई थी तो नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय को गलत बताया और संसद को फरवरी में पुनर्जीवित कर दिया था लेकिन ओली उसमें अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर सके।
पिछले तीन महीने में काफी जोड़-तोड़ चलती रही। काठमांडो जोड़-तोड़ और लेन-देन की मंडी बनकर रह गया। कई पार्टियों के गुटों में फूट पड़ गई और सांसद अपनी मनचाही पार्टियों में आने और जाने लगे। इसके बावजूद ओली ने अभी तक संसद में विश्वास का प्रसताव नहीं जीता और अपना बहुमत सिद्ध नहीं किया।
संसद में जब विश्वास का प्रस्ताव आया तो ओली हार गए। राष्ट्रपति ने फिर नेताओं को मौका दिया कि वे अपना बहुमत सिद्ध करें लेकिन सांसदों की जो सूचियां ओली और नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ने राष्ट्रपति को दीं, उनमें दर्जनों नाम एक-जैसे थे। याने बहुमत किसी का नहीं था। सारा मामा विवादास्पद था। ऐसे में राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी किसे शपथ दिलातीं? उन्होंने संसद भंग कर दी और नवंबर में चुनावों की घोषणा कर दी।
अब विरोधी दलों के नेता दुबारा सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेंगे। उन्हें पूरा विश्वास है कि न्यायालय दुबारा इसी संसद को फिर से जीवित कर देगा। उनकी राय है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय दुबारा संसद को जीवित नहीं करेगा और ओली सरकार इस्तीफा नहीं देगी तो उसके खिलाफ वे जन-आंदोलन चलाएंगे। दूसरे शब्दों में अगले पांच-छह महिनों तक नेपाल में कोहराम मचा रहेगा, जबकि कोरोना से हजारों लोग रोज पीडि़त हो रहे हैं। नेपाल की अर्थ-व्यवस्था भी आजकल डांवाडोल है।
वे मांग कर रहे हैं कि नेपाल की राष्ट्रपति को या तो नया प्रधानमंत्री नियुक्त करके संसद में उससे बहुमत सिद्ध करने के लिए कहना था या कोई संयुक्त सरकार बना देनी थी, जो निष्पक्ष चुनाव करवा सकती थी। अब कार्यवाहक प्रधानमंत्री की तौर पर ओली चुनाव आयोग को भी काबू करने की कोशिश करेंगे। वैसी ओली ने चुनाव आयोग से निष्पक्ष चुनाव करवाने की मांग की है। विपक्ष के नेता राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी और ओली पर मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं। ओली की कृपा से ही वे अपने पद पर विराजमान हुई हैं। इसीलिए वे ओली के इशारे पर सबको नचा रही हैं।
इस आरोप में कुछ सत्यता हो सकती है लेकिन सवाल यह भी है कि यदि विपक्ष की सरकार बन भी जाती तो वह जोड़-तोड़ की सरकार कितने दिन चलती ? इससे बेहतर तो यही है कि चुनाव हो जाएं और नेपाली जनता जिसे पसंद करे, उसी पार्टी को सत्तारुढ़ करवा दे। कोरोना के इस संकट के दौरान चुनाव हो पाएंगें या नहीं, यह भी पक्की तौर पर नहीं कहा जा सकता। नेपाली राजनीति बड़ी मुश्किल में फंस गई है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-तारन प्रकाश सिन्हा
बाढ़ जैसे-जैसे उतरती है, तबाही का असली मंजर वैसे-वैसे प्रकट होने लगता है। कोरोना की नदी भी उतर रही है। चरम को छूकर संक्रमण दर लगातार कम हो रही है। छत्तीसगढ़ में यह 6 प्रतिशत से नीचे आ चुकी है। नये संक्रमितों का आंकड़ा भी 3 हजार प्रतिदिन के आस-पास आ चुका है। उम्मीद है कि जल्द ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। हम अपनी सामान्य दिनचर्या की ओर लौट आएंगे।...लेकिन तब क्या सचमुच सब कुछ सामान्य हो चुका होगा ?
बाढ़ के उतरने के बाद के बाद भी जो वृक्ष बचे रह जाते हैं, उनकी शाखाओं में बरबादी का कहानियां अटकी रह जाती हैं।
हम सबको अकल्पनीय पीड़ाएं देकर कोरोना लौट रहा है। संक्रमण में सिर से पांव तक डूबे रहने के बाद हमारे जीवन की शाखाएं फिर प्रकट होने लगी हैं। इन शाखाओं में उन जिंदगियों की निशानियां रह गई हैं, जो अब कभी प्रकट नहीं होंगी। छत्तीसगढ़ में ही कोरोना ने हम सबसे 12 हजार से ज्यादा लोगों को छीन लिया। ये हजारों लोग जिस दिन इस धरती पर आए रहे होंगे, धरती ने उनके आने की खुशियां मनाई होगी। इनकी विदाई में उसी धरती के आंसू कम पड़ गए।
एक जीवन का मिट जाना केवल एक व्यक्ति का चले जाना नहीं होता। यह एक दुनिया का तबाह हो जाना होता है। ऐसे ही हजारों-लाखों दुनियाओं से मिलकर एक पूरी-दुनिया बनती है।
जो लोग चले गए, वे अपने पीछे उजड़ी हुई दुनिया छोड़ गए हैं- बिलखती हुई माताएं, रोती हुई बहनें, अनाथ हो चुके बच्चे। इन छूटे हुए लोगों के सामने अब जीवन के नये सवाल उपस्थित हैं। घर का कमाने वाला चला गया, तो घर कैसे चलेगा। बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी। बेटियों और बहनों का ब्याह कैसे होगा। बुजुर्गों की देखभाल कैसे होगी....ये दुख अपनों को खो देने से कहीं ज्यादा बड़ा है।
कोरोना-संकट का हम सबने मिलकर सामना किया है। समाज ने सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस चुनौती का मुकाबला किया है। हम जीत रहे हैं, लेकिन इस जीत के बाद हमें जश्न मनाने की इजाजत यह समय नहीं देने वाला। तब हमारी लड़ाई दूसरे मोर्चे पर शुरू हो चुकी होगी, और जाहिर है कि हम इसके लिए तैयार भी हैं।
बचे हुए लोगों को बचाए रखना तभी संभव हो पाएगा, जब हम पुरानी गलतियों को न दोहराएं। कोरोना एप्रोप्रिएट बिहेवियर का ध्यान रखें, ताकि संक्रमण को दुबारा फैलने से रोका जा सके। टीकाकरण के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रेरित करें, ताकि हम सबको एक मजबूत सुरक्षा कवच मिल सके। चुनौती इसलिए भी बड़ी है क्योंकि इस वायरस की वापसी गांवों की गलियों और सड़कों से हो रही है, जहां अशिक्षा और अज्ञानता का अंधकार है। हमें वहां भी रौशनी करनी होगी। छत्तीसगढ़ में टीकाकरण अब काफी तेजी हो रहा है। शासन ने पंजीकरण की प्रक्रिया को आसान करने के लिए सीजी-टीका पोर्टल भी तैयार किया है। ज्यादा से ज्यादा लोग टीकाकरण करवाएं, यह जिम्मेदारी हम सबको उठानी पड़ेगी, ताकि बचे हुओं को बचाया जा सके।
कोरोना-संकट ने हम सबको मानसिक रूप से भी चोट पहुंचाई है। समाज इस समय सामूहिक अवसाद का सामना कर रहा है। जो लोग कोरोना-मुक्त हो चुके हैं, उन्हें पोस्ट-कोविड इफेक्ट झेलना पड़ रहा है। कोरोना के समानांतर अब ब्लैक-फंगस के संक्रमण जैसी चुनौतियां भी उपस्थित हो रही हैं। लॉकडाउन का अर्थव्यवस्था पर बुरा असर होना ही था। हजारों लोगों का व्यवसाय चौपट हो चुका है। सैकड़ों लोग रोजगार गंवा चुके हैं। बच्चों से उनका बचपन ही छिन गया है। और भी बहुत कुछ....इसीलिए संक्रमण-दर में कमी की खबरें हमारे लिए केवल एक फौरी राहत हैं, असल चुनौतियों से उबरने के लिए हमें अभी बहुत कुछ करना होगा।
हमने अब तक जैसे एक-दूसरे का हाथ कसकर थाम रखा है, वैसे ही आगे भी कस कर थामे रखना होगा। अनाथ हो चुके बच्चों, उजड़ चुके परिवारों को संभालने के लिए हमें मिलजुलकर कुछ करना होगा। छत्तीसगढ़ शासन ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है। कोरोना की वजह से जिन बच्चों ने अपने माता-पिता को खो दिया है, छत्तीसगढ़ सरकार ने उनकी पढ़ाई का खर्च उठाने का निर्णय लिया है, साथ ही इन बच्चों को छात्रवृत्ति भी देने की घोषणा की है, चाहे ये बच्चे किसी भी स्कूल में पढ़ते हों। उन बच्चों की पढ़ाई का जिम्मा भी सरकार लेगी जिनके परिवार के कमाने वाले सदस्य को कोरोना ने छीन लिया है। यदि ऐसे बच्चे स्वामी आत्मानंद इंग्लिश मीडियम स्कूल में प्रवेश के लिए आवेदन करते हैं तो उन्हें प्राथमिकता दी जाएगी, उनसे कोई फीस नहीं ली जाएगी। छत्तीसगढ़ के प्राइवेट स्कूलों ने भी एक संवेदनशील पहल करते हुए उन बच्चों की फीस माफ करने का निर्णय लिया है, जिनसे कोरोना ने उनके माता-पिता को छीन लिया है।
ये बच्चे हमारे भविष्य की धरोहर हैं, इन्हें सहेजना-संवारना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। इसी तरह की दृष्टि और संवेदना की जरूरत प्रत्येक क्षेत्र में है। न केवल बच्चों के लिए, बल्कि कोरोना से बरबाद हो चुकी हरेक जिंदगी के लिए भी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमास और इस्राइल के बीच चल रहा 11 दिवसीय युद्ध बंद हो गया है, यह अच्छी खबर है लेकिन सारा मामला हल हो गया है, यह नहीं माना जा सकता। क्योंकि युद्ध-विराम की घोषणा के बावजूद अल-अक्सा मस्जिद के परिसर में फलस्तीनियों और इस्राइली पुलिस के बीच मुठभेड़ की खबरें आ रही हैं। फलस्तीनी प्रदर्शनकारियों ने पत्थर बरसाए तो यहूदी पुलिसवालों ने हथगोले और अश्रुगैस के गोले बरसाए। यों तो फलस्तीनियों के अतिवादी संगठन हमास और इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, दोनों ने अपनी-अपनी विजय की घोषणा की है लेकिन असलियत यह है कि गाजा-क्षेत्र में लगभग ढाई सौ लोग मारे गए हैं और दो हजार घायल हुए हैं। उनमें यहूदी सिर्फ 12 हैं। हमास ने 11 दिन में 4000 राकेट दागे हैं जबकि इस्राइल ने 1800 ! हमास के राकेटों को यदि लोह-स्तंभ नहीं रोकता तो सैकड़ों यहूदी मारे जाते। इस्राइल राकेटों ने सैकड़ों लोगों को हताहत कर दिया, लगभग 17 हजार फलस्तीनी घर गिरा दिए और लगभग एक लाख लोगों को गाजा-क्षेत्र से भागने को मजबूर कर दिया लेकिन हमास के लोग इस युद्ध-विराम को अपने विजय-दिवस के रुप में मना रहे हैं।
वे ऐसा इसीलिए कर रहे हैं कि उन्होंने इस्राइली ज्यादती के सामने घुटने नहीं टेके। यदि इस्राइल के यहूदियों और पुलिस ने फलस्तीनियों को उनकी शेख जर्रा की बस्तियों से खदेड़ना शुरु किया और अल-अक्सा मस्जिद परिसर में कब्जा करने की कोशिश की तो हमास ने राकेट बरसा दिए। अब दोनों पक्षों में युद्ध तो बंद हो गया है लेकिन उस क्षेत्र में दो राज्यों——इस्राइल और फलस्तीन— का सपना आज भी अधर में लटका हुआ है। संयुक्तराष्ट्र संघ द्वारा दो राज्यों का प्रस्ताव अभी तक सिर्फ कागजों में सिमटा हुआ है। जो फलस्तीनी इलाका इस्राइल के कब्जे के बाहर है, उसमें भी काफी टूट है। आधा हमास के पास है और आधा अल-फतेह के पास। एक तीसरा अतिवादी इस्लामी संगठन भी पिछले कुछ वर्षों में खम ठोकने लगा है। सारे अरब और मुस्लिम देश भी पूरे मन से फलस्तीनियों का साथ नहीं दे रहे हैं। जो कल तक इस्राइल के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए थे, वे अरब देश अब सिर्फ जबानी जमा-खर्च कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय इस्लामी संगठन भी कोरे प्रस्ताव पारित करके अपना मौखिक फर्ज पूरा कर देता है। यदि मिस्र और बाइडन का अमेरिका जी-तोड़ कोशिश नहीं करता तो वर्तमान मुठभेड़ 1967 के अरब-इस्राइली युद्ध की भयंकर शक्ल भी ले सकती थी। अब जरुरी है कि भारत-जैसे राष्ट्र, जिनका दोनों पक्षों से अच्छा संबंध है, चुप न रहें, तटस्थ न दिखें, चिकनी-चुपड़ी बातें न करें बल्कि आगे आएं और दोनों पक्षों के बीच स्थायी शांति-समाधान करवाएं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. परिवेश मिश्र
मेरे मित्र हैं श्री गिरीश केशरवानी। पत्रकार हैं। युवा हैं। भाजपा के समर्थक हैं (और संभवत: आर.एस.एस. से संबद्ध हैं)। वैचारिक रूप से मित्र गिरीश तथा मैं विपरीत ध्रुवों पर रहे हैं किन्तु मैं उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता का सम्मान करता हूं।
उनकी एक पोस्ट है जिसका सार संक्षेप कुछ यूं है : 1991 में देश की डूबती आर्थिक नैया को बचाने के लिये वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरसिंहराव को रुपये के अवमूल्यन का सुझाव दिया। केबिनेट में विरोध की संभावना थी सो नरसिंहरावजी ने पहले अटल बिहारी वाजपेयीजी को विश्वास में लिया। अटलजी ने देश हित में कांग्रेस सरकार का साथ दिया और अवमूल्यन हो सका। इसके विपरीत वर्तमान में नोटबंदी और कोरोना जैसी स्थिति में वही कांग्रेस सरकार के विरोध में दिख रही है, जोकि उचित नहीं है, आदि।
गिरीशजी ने बहुत सी बातें याद दिला दीं।
श्री नरसिंहराव या/और अटलजी ने कुछ नया या अनूठा नहीं किया था। देश को प्रभावित करने वाला एक बड़ा फैसला लेने से पूर्व विपक्ष को विश्वास में लिया गया यह अच्छा कदम था। यहां दो बातें स्पष्ट होती हैं। यदि श्री अटल बिहारी का समर्थन मिला तो सिर्फ इसलिए क्योंकि श्री नरसिंहराव और वे, दोनों की स्पष्ट राय थी कि निर्णय देश के व्यापक हित में है। (वाजपेयी का समर्थन मिलने से कैबिनेट के संभावित विरोध पर पानी फिरता हो ऐसा नहीं था)। देश हित का बड़ा निर्णय अकेले लेकर ‘श्रेय’ की अकेले दावेदारी का अवसर श्री राव के सामने था किन्तु उन्होंने वही किया जो राजधर्म था।
श्रीमती इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के लिए हुए युद्ध से पूर्व तत्कालीन जनसंघ समेत सभी विपक्षी दलों को विश्वास में लिया था।
1980 के दशक में श्री अटल बिहारी वाजपेयी किडनी की बीमारी से जूझने के बाद 1985 में एक किडनी गवां चुके थे। कुछ समय में दूसरी भी जवाब देने लगी। श्री वाजपेयी का जीवन संकट में आ गया था। 1988 में श्री राजीव गांधी को इस बात की जानकारी मिली। उन दिनों लोकसभा में कांग्रेस के 410 और भाजपा के 2 (दो) सदस्य थे। अटलजी 1985 में ग्वालियर में सिंधिया के हाथों लोकसभा चुनाव हारने के बाद राज्यसभा में पहुंचे थे। राजीवजी ने अटलजी को अपने कार्यकाल में बुलाकर बताया कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजे जा रहे भारतीय प्रतिनिधिमंडल में वे उन्हे (अटलजी को) बतौर सदस्य शामिल कर रहे हैं। राजीवजी ने आगे बताया कि उनके इलाज की व्यवस्था कर दी गयी है। साथ ही राजीवजी ने अधिकारियों को हिदायत दी कि यूएन का सत्र जब कभी भी समाप्त हो अटलजी तभी लौटेंगे जब उनका इलाज पूरा हो जाए। उम्र में 20 वर्ष बड़े अटलजी को राजीवजी अपना बड़ा भाई मानते हुए वैसा ही सम्मान देते थे।
राजीवजी के जीतेजी यह सब बातें कभी बाहर नहीं आयीं। राजीवजी की हत्या के बाद स्वयं अटलजी ने ही अपने साक्षात्कार में यह सब बताया था। अटलजी के शब्द थे ‘यदि मैं आज जीवित हूं तो राजीव गांधी के कारण’। उनका यह साक्षात्कार ‘द अनटोल्ड वाजपेयी : पॉलिटिशियन एन्ड पैराडॉक्स’ में उद्धृत है।
कोई ऐसा निर्णय जो देश की समूची जनता को प्रभावित करता हो, उसे लेने से पूर्व प्रधानमंत्री के द्वारा विपक्षी नेताओं को विश्वास में लेने तथा आपस में मधुर संबंध बनाये रखने तथा एक दूसरे के प्रति आदर भाव एवं प्रेमपूर्ण रिश्ते बनाए रखने की परम्परा भारत में हमेशा से रही है। जहां पहले संभव न हो पाया वहां निर्णय लेने के बाद विपक्ष को उसकी आवश्यकता और उसके औचित्य का विवरण देने का प्रयास किया गया। 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यही किया था।
23 जून 1981 के दिन इंदिराजी को सूचना मिली कि उनके घर से कुछ ही दूरी पर बेटे संजय गांधी का प्लेन क्रैश हुआ है। तत्काल वे दुर्घटनास्थल पर पहुंचीं। उस समय फायर ब्रिगेड वाले बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो चुके शरीर को विमान के मलबे में से निकालकर एम्बुलेंस में रख रहे थे। इंदिराजी उसी एम्बुलेंस में बैठ कर राममनोहर लोहिया अस्पताल पहुंचीं। सूचना पाकर उसी समय अटलजी और चंद्रशेखरजी भी इंदिराजी को सांत्वना देने अस्पताल पहुंचे। चंद्रशेखरजी को देखते ही इंदिराजी उन्हें एक तरफ ले गयीं और कहा : ‘अच्छा हुआ आप मिल गये। मैं बहुत दिनों से आप से बात करना चाह रही थी। असम में हालात ठीक नहीं हैं। आपसे सलाह करना है।’
चंद्रशेखरजी अवाक रह गये। वे जनता पार्टी के अध्यक्ष थे। उस पार्टी के जिसे कुछ माह पूर्व चुनाव में हराकर इंदिराजी ने सत्ता में वापसी की थी। इस तरह का परस्पर संवाद अजूबा नहीं था। चूंकि इस घटना की पृष्ठभूमि असाधारण थी (जवान बेटे के शव को डॉक्टरों को सौंपने के तत्काल बाद एक मां से बात हो रही थी) इसलिए इसकी जानकारी बाहर आयी। अन्यथा कुछ भी असामान्य नहीं था।
विपक्ष को विश्वास में लेने की परम्परा के जनक श्री जवाहरलाल नेहरू थे। सामूहिकता के सिद्धांत के पालन में तो वे बाकी से अनेक कदम आगे थे। गांधीजी की समझाईश थी कि 1947 में स्वतंत्रता के बाद जो सरकार बन रही थी वह देश की थी। अकेले कांग्रेस की नहीं। हालांकि संविधान सभा (इसके लिए देश में चुनाव हुए थे) में कांग्रेस के पास 82% का बहुमत था।
14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद रात में नेहरू जी ने अपने 14 सदस्यीय मंत्रिमंडल की सूची गवर्नर जनरल को सौंपी। 15 की सुबह 8 बजे शपथ ग्रहण हुआ। नेहरू और पटेल के अलावा बाकी 12 सदस्यों के नामों ने सबको आश्चर्य में डाल दिया। इनमें तीन मंत्री थे जो न केवल कांग्रेस के सदस्य नहीं थे बल्कि कांग्रेस के घोर आलोचक रहे थे। बाकी 9 में से 5 अन्य व्यक्ति भी कांग्रेस से बाहर के थे।
नेहरू ने हिन्दू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी, भीमराव अम्बेडकर, जस्टिस पार्टी के आर के शन्मुखम चेट्टी, अकाली दल के सरदार बलदेव सिंह, राजकुमारी अमृत कौर, पारसी उद्योगपति व्यवसायी सी.एच. भाभा तथा एन. गोपालस्वामी आयंगर को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। जयप्रकाश नारायण (जेपी) और राममनोहर लोहिया ने शामिल होने का आमंत्रण स्वीकार नहीं किया था।
एक वर्ष बीतते ही वित्त मंत्री श्री चेट्टी को मंत्रीमंडल छोडऩा पड़ा। (क्यों जाना पड़ा यह एक महत्वपूर्ण किन्तु अलग कहानी है)। उनकी जगह नेहरू ने बंगाल से हिन्दू महासभा के श्री के.सी. नियोगी को वित्तमंत्री बनाया।
अब आते हैं वर्तमान पर। मित्र गिरीशजी की पोस्ट पर। नोटबंदी एक ऐसा फैसला था जो भारत की शत-प्रतिशत जनता को प्रभावित करता था (किया भी)। वही हाल कोरोना में भी था। श्री नरेन्द्र मोदी ने इन दोनों अवसरों पर विपक्ष को विश्वास में लेने आवश्यक नहीं समझा।
लोकतंत्र में जो राज करता है वह पूरी/शत-प्रतिशत जनता के द्वारा चुना हुआ या वोट प्राप्त नहीं होता। पचास प्रतिशत भी हो जरूरी नहीं। भाजपा ने 2014 और 2019 में चुनाव जीते। दोनों बार उसे देश के 30 प्रतिशत के आस-पास लोगों ने वोट दिया। ‘जन-मत’ और ‘मैन्डेट’ जैसे भारी भरकम शब्दों का जितना भी प्रयोग हो, सच्चाई यह रही कि देश के 70 फीसदी लोग मोदीजी को नहीं चाहते थे।
ऐसी स्थिति में उन 70 फीसदी लोगों की नुमाईन्दगी करने वाली पार्टियों और नेताओं को विश्वास में लेना तो समझदारी ही मानी जाती।
ऐसे मौकों पर प्रधानमंत्री जी थोड़ा बड़प्पन क्यों नही बताते भाई ? यदि बताते तो क्या हुआ होता : जनवरी-फरवरी में भाजपा उन्हे (तथा वे स्वयं को) कोरोना को शिकस्त देने वाले विश्व के एकमात्र नेता का खिताब दे रहे थे। वैसा करने में शायद परेशानी हुई होती यदि विपक्ष के सहयोग से कोरोना का सामना किया होता। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि दूसरी वेव की घोर असफलता का पूरा ठीकरा अकेले मोदी जी के सिर न फूटता।
मेरा मानना है लोकतंत्र के मैदान में चुनाव एक खेल है जिसमें जीत हार होती रहती है। आज का जीता कल का हारा हो ही सकता है। मैदान को हारने वाली टीमों से मुक्त-विमुक्त-विलुप्त-नेस्तनाबूद करने का सपना देखने या ऐसी दुआएं करने वाली टीम आगे किस के साथ खेल आगे बढ़ाएगी? विपक्ष का अस्तित्व तो पक्ष के लिए भी जरूरी है।
साथ ही, यदि खेल के मैदान प्रभावित हो रहा हो तो जीतने वाले का कर्तव्य है कि हारी हुई टीमों से सहयोग प्राप्त करे।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजीव गांधी को गए, आज तीस साल हो रहे हैं। 21 मई 1991 की वह रात मुझे आज भी ज्यों की त्यों याद है। उन दिनों मैं पीटीआई (भाषा) का संपादक था। अपने दफ्तर से मैं रात को घर पहुँचा और सोने के लिए बिस्तर पर लेटा ही था कि श्रीपेरेम्बदूर से हमारे संवाददाता का फोन लगभग सवा दस बजे आया कि राजीव गांधी की यहाँ हत्या हो गई है। मैंने उससे कहा कि आप होश में तो हैं ? आप क्या बोल रहे हैं ? उन्होंने अपनी बात फिर दोहराई और कहा कि मैं यही खड़ा हूँ। राजीवजी का सिर फट गया है। खून में लथपथ हैं। अब कुछ बचा नहीं है। यह सुनते ही मैंने अपने दफ्तर फोन किया और जो कपड़े पहने थे, उनके साथ ही मैं संसद मार्ग पर स्थित अपने दफ्तर के लिए निकल पड़ा। मेरे बेटे सुपर्ण ने 100 की स्पीड पर कार भगाई और कुछ ही मिनिट में प्रेस एनक्लेव से दफ्तर पहुँच गया।
वहाँ मुश्किल से मैं पाँच-सात मिनिट रुका और 10, जनपथ पहुँच गया। राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद छोड़ने के बाद वहीं रहते थे। 10, जनपथ पर एकदम अंधेरा था। मेरा बेटा कार को अंदर तक ले गया। मैंने घंटी बजाई। प्रियंका बाहर निकली। उसने मुझे उस समय वहाँ देखकर आश्चर्य व्यक्त किया। ज्यों ही मैं अपना नाम बताने लगा, सोनियाजी अंदर से बाहर आ गईं। मुझे देखते ही वे पूछने लगीं कि आप इस वक्त यहाँ कैसे ? मैंने उन्हें सिर्फ इतना ही बताया कि श्रीपेरम्बदूर में राजीव जी के साथ कुछ दुर्घटना हो गई है। आपको कुछ पता चला क्या ? मैं अपने दफ्तर से मालूम करके आपको सारी बात बताता हूँ। हम बात कर ही रहे थे कि इतने में चैन्नई से चिदंबरम का फोन आया और उन्होंने सोनियाजी को सारी बात बता दी। इस बीच शायद टीवी चैनलों ने भी खबर जारी कर दी थी। देखते-ही देखते 10 जनपथ पर नेताओं की भीड़ जमा हो गई। थोड़ी ही देर में राष्ट्रपति वेंकटरमन भी आ गए।
सुरक्षाकर्मियों ने मेरे बेटे से अपनी कार बाहर ले जाने के लिए कहा। वेंकटरमनजी की कार ज्यों ही अंदर घुसी, कई कार्यकर्ताओं ने उसका शीशा तोड़ दिया। श्री सीताराम केसरी ने कहा कि कांग्रेस पार्टी की तरफ से अखबारों को श्रद्धांजलि भेजी जाए। श्री रमेश भंडारी ने लंबा ड्राफ्ट तैयार किया। केसरीजी ने उसे रद्द कर दिया। उन्होंने मुझे कहा कि आप ही एक संक्षिप्त भावपूर्ण श्रद्धांजलि तैयार करके पीटीआई से जारी करवा दीजिए। उधर सोनियाजी ने तमिलनाडु पहुंचने की तैयारी की और सुबह तक नेता लोग 10, जनपथ पर आते रहे। मैंने वहीं से अपने मित्र नरसिंहरावजी को फोन किया।
राव साहब उस रात मेरे साले रमेशजी और रागिनीजी के घर नागपुर में भोजन कर रहे थे। वे हतप्रभ रह गए। दूसरे दिन सुबह वे दिल्ली पहुँचे। हम दोनों दोपहर को डेढ़-दो घंटे साथ रहे। उसी दिन सुबह प्रधानमंत्री चंद्रशेखरजी, चौधरी देवीलालजी और मैं राष्ट्रपति भवन परिसर में चौधरी साहब के घर पर विचार-विमर्श करते रहे। चंद्रशेखरजी कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे। उन दिनों चुनाव चल रहे थे। चुनाव के दौरान ही श्रीलंका के तमिल उग्रवादियों ने श्रीपेरम्बदूर में राजीवजी की हत्या कर दी थी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘फांकि’ कविता पर लिखते हुए मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि गुरुदेव और उनकी यह कविता इतिहास की अनेक गुमनाम विथिकाओं में मुझे बहुत दूर तक अपने साथ बहा ले जायेंगी, जहां से सही सलामत लौट आना मेरे तथा मेरे जैसे संवेदनशील पाठकों के लिए एक दुष्कर कार्य सिद्ध होगा।
गुरुदेव की ‘फांकि’ कविता के बिना छत्तीसगढ़ की खोज मेरे लिए संभव नहीं था। यह सत्य है कि कोई भी राष्ट्र या राज्य अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजे बिना राष्ट्र या राज्य का वास्तविक रूप नहीं ले सकता है।
‘फांकि’ कविता हमारे इस नए प्रदेश के लिए जो बीस वर्ष का युवा हो चुका है, केवल एक मूल्यवान कविता भर नहीं है, बल्कि एक मूल्यवान धरोहर भी है।
गुरुदेव का इस प्रदेश की भूमि पर पग रखना ही छत्तीसगढ़ के गौरव को विश्व क्षितिज पर प्रतिष्ठित कर देना है।
बहुत सारे मित्रों ने मुझसे कहा कि वे अभी तक गुरुदेव और ‘फांकि’ कविता के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाएं हैं और वे जल्द ही इससे मुक्त होना भी नहीं चाहते हैं, इसलिए मैं किसी नई कड़ी का प्रारंभ अभी न शुरू करूं। वे चाहते थे कि दो तीन सप्ताह के लिए मैं छत्तीसगढ़ एक खोज को स्थगित कर दूं।
छत्तीसगढ़ एक खोज पहली कड़ी से लेकर सत्रहवीं कड़ी तक प्रत्येक रविवार को मेरे फेसबुक पर और ‘दैनिक छत्तीसगढ़’ तथा ‘आज की जनधारा’ में जगह पाता रहा है। नियमानुसार प्रत्येक शुक्रवार तक मैं इसे लिख भी लेता हूं, भले ही इसके लिए मुझे अन्य कार्यों को स्थगित करना पड़े।
इसलिए मुझे लगा कि दो तीन सप्ताह तक इसे मैं स्थगित रखूं, यह उन सबके प्रति एक तरह से ज्यादती होगी जो मेरी तरह छत्तीसगढ़ की खोज में लगे हुए हैं।
सो सिलसिला अविराम जारी है दोस्तों।
पता नहीं छत्तीसगढ़ की उर्वर भूमि में ऐसा कौन सा प्रबल आकर्षण छिपा हुआ है कि देश के अनमोल रत्न छत्तीसगढ़ की भूमि की ओर खींचे चले आते हैं।
छत्तीसगढ़ की भूमि केवल रत्नगर्भा ही नहीं है, दूसरे राज्य के रत्नों को भी चुंबकीय शक्ति से अपनी ओर खींच लाने की शक्ति रखने वाली अलौकिक भूमि भी है। यह छत्तीसगढ़ के साथ-साथ कोशल और महाकोशल भी है। जहां कोई साधारण नदी नहीं, अपितु महानदी जैसी नदी बहती है। महानदी जिसे हमारे आदि ऋषि मुनियों ने चित्रोत्पला की संज्ञा से विभूषित किया था।
स्वामी विवेकानन्द, हरिनाथ डे, रवींद्रनाथ ठाकुर, विभूतिभूषण बंदोपाध्याय जैसी विभूतियां यों ही छत्तीसगढ़ नहीं आ गए थे।
इसी तरह की एक और विभूति थे ठाकुर जगमोहन सिंह। आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माता भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनन्यतम सखा और विजयराघवगढ़ रियासत के होनहार राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह।
विजयराघवगढ़ कोई साधारण रियासत नहीं थी। हमारे इस कड़ी के महानायक राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह किसी साधारण रियासत के कोई साधारण राजकुमार नहीं थे, अपितु विजयराघवगढ़ जैसी एक ऐसी रियासत का प्रतिनिधित्व करने वाले राजकुमार थे, जिस रियासत ने 1857 की क्रांति में बढ़-चढक़र हिस्सा लिया था।
सन 1857 की क्रांति की चिंगारी मेरठ, झांसी, जबलपुर होते हुए विजयराघवगढ़ पहुंच गई थी। सन 1857 में विजयराघवगढ़ रियासत के राजकुमार सोलह वर्षीय ठाकुर सरयू प्रसाद सिंह थे।
ठाकुर सरयू प्रसाद सिंह अभी किशोर ही थे, ठीक से युवा भी नहीं हुए थे लेकिन स्वतंत्रता की चिंगारी उनके भीतर दावानल की भांति सुलगने लगी थी। वे दूसरी रियासतों के राजकुमार की तरह अंग्रेजों की जी हुजूरी करने और उनकी गुलामी में जीने के लिए नहीं पैदा हुए थे।
सो उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंक दिया। मात्र सोलह वर्षीय राजकुमार ठाकुर सरयू प्रसाद सिंह ने झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, कुंवर सिंह और तात्या टोपे का मार्ग चुना। यह मार्ग था। देश की स्वतंत्रता के लिए मर मिटने का। किशोर राजकुमार के मन में देशप्रेम और देश की स्वतंत्रता से बढक़र और कुछ नहीं था। पर इतिहास में कुछ और लिखा हुआ था। देश की कई रियासतों ने देश के साथ गद्दारी की। उन्होंने अंग्रेजों के सामने घुटने टेक दिए थे। सन 1857 की क्रांति भी अपनी नियत समय से पहले ही प्रारंभ हो गई थी। देश अभी पूरी तरह से इस क्रांति के लिए तैयार भी नहीं हुआ था। इसलिए सन 1857 की क्रांति विफल हो गई।
राजकुमार ठाकुर सरयू प्रसाद सिंह भी अंग्रेज सरकार द्वारा बंदी बना लिए गए। अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें काला पानी की सजा सुनाई।
सरयू सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत में सजा भोगने से बेहतर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर लेना उचित समझा। उन्होंने आत्महत्या कर अपनी देह लीला समाप्त कर ली।
ऐसे वीर और क्रांतिकारी राजकुमार ठाकुर सरयू प्रसाद सिंह के सुपुत्र हैं, हमारी इस कड़ी के महानायक ठाकुर जगमोहन सिंह।
ठाकुर सरयू सिंह की मृत्यु के पश्चात् विजयराघवगढ़ की रियासत अंग्रेजों के अधीन हो गई। ठाकुर जगमोहन सिंह के नौ वर्ष पूर्ण होने पर सन् 1866 में पढऩे के लिए बनारस स्थित क्वींस कॉलेज भेजा गया।
ठाकुर जगमोहन सिंह बचपन से ही मेधावी एवं प्रतिभाशाली छात्र थे। मात्र चौदह वर्ष की उम्र में ही उन्होंने महाकवि कालिदास कृत ‘गंगाष्टक’ तथा अपनी मौलिक कविता ‘द्वादश मासी’ को एक साथ एकत्र कर ‘प्रेम रत्नाकर’ के नाम से सन 1873 में बनारस प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित करवाया।
क्वींस कॉलेज बनारस में अध्ययन के दरम्यान ही पंद्रह वर्ष की अल्पायु में उन्होंने कालिदास के सुप्रसिद्ध काव्य ‘ऋतु संहार’ का संस्कृत से हिंदी में न केवल अनुवाद किया अपितु सन 1875 में उसे प्रकाशित भी करवा लिया।
सन 1878 में क्वींस कॉलेज बनारस से शिक्षा पूरी कर वे विजयराघवगढ़ वापस लौटे। तब तक वे संस्कृत, हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य में निष्णात हो चुके थे।
दो वर्षों तक विजयराघवगढ़ में बिताने के पश्चात सन 1880 में उनकी तहसीलदार के पद पर नियुक्ति हो गई। तहसीलदार के रूप में उनकी पहली पदस्थापना छत्तीसगढ़ के धमतरी में हुई।
(शेष अगले हफ्ते...)
शुक्रवार को सुंदरलाल बहुगुणा के निधन के साथ हिमालय में पर्यावरणीय संघर्ष और चेतना के एक अध्याय का समापन हो गया.
डॉयचे वैले पर हृदयेश जोशी की रिपोर्ट
93 साल के सुंदरलाल कोरोना से पीड़ित थे और पिछली 8 मई को उन्हें ऋषिकेश के एम्स में भरती किया गया था. बहुगुणा को सत्तर के दशक में उत्तराखंड में चले चिपको आंदोलन से जुड़े होने के कारण "चिपको” नेता के नाम से जाना जाता है लेकिन आमजन और पर्यावरण के लिए उनके संघर्ष की कहानी की तो यह बहुत छोटी कड़ी है.
सच्चे गांधीवादी
नौ जनवरी 1927 को उत्तराखंड के टिहरी ज़िले के मरूड़ा गांव में जन्मे बहुगुणा का जीवन पर्यावरण, राजनीति, समाज सेवा और पत्रकारिता समेत बहुत सारे अनुभवों को समेटे था. उनकी समझ गांधी के विचारों से प्रेरित थी. उन्होंने 13 साल की उम्र में आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया. किशोरावस्था में कौसानी में गांधी सरला बहन के आश्रम में उनका वक्त गुजारा और वहीं उनकी चेतना विकसित हुई. यह गांधी का प्रभाव ही था कि बहुगुणा ने अपने पूरे जीवन में इस बात के लिये प्रयत्न किया कि कथनी और करनी में अंतर ना हो. वह अपना छोटे से छोटा काम भी स्वयं ही करते और जब उनकी पर्यावरणीय चेतना विकसित हुई तो उन्होंने एक सस्टेनेबल और प्रकृति के अनुरूप जीवन शैली अपनाई.
बहुगुणा ने एक बार कहा, "मैं चावल नहीं खाता क्योंकि धान की खेती में बहुत पानी की खपत होती है. मुझे पता नहीं कि इससे पर्यावरण संरक्षण की कोशिश कितनी मजबूत होगी लेकिन मैं प्रकृति के साथ सहजीविता के भाव के साथ जीना चाहता हूं ताकि कोई अपराध बोध न हो.”
युवावस्था में बहुगुणा ने स्यालरा में पर्वतीय जन जीवन मंडल की स्थापना की और दलित बच्चों और बालिकाओं को शिक्षित करने का काम शुरू किया. उन्होंने उत्तराखंड के बूढ़ा केदार में दलित परिवारों के साथ जीवन बिताया. एक ही घर में सोये और भोजन किया. यह वह दौर था जब जाति की बेड़ियां बहुत मजबूत थीं और और गांधीवादी छुआछूत के खिलाफ संघर्ष तेज कर रहे थे.
इसी दौर में उनकी मुलाकात सामाजिक कार्यकर्ता विमला नौटियाल से हुई जो उत्तर भारत के जाने-माने नेता विद्यासागर नौटियाल की बहन भी हैं. साथ में काम करते हुये दोनों ने जीवन साथ बिताने का फैसला किया. बहुत से लोगों को लगता है कि विमला नौटियाल ने विवाह से पहले ही सुंदरलाल को राजनीति के बजाय समाजसेवा के लिये प्रेरित किया.
कांग्रेस नेता और उत्तराखंड के गांवों में वनाधिकार आंदोलन चला रहे किशोर उपाध्याय कहते हैं, "वो पत्रकार भी रहे. यूएनआई और पीटीआई के लिये रिपोर्टिंग की. उन्होंने श्रीनगर (गढ़वाल) से अरुणाचल तक की पैदल यात्रा की. उन पर विनोबा भावे का बड़ा प्रभाव था लेकिन अगर वह राजनीति में बने रहते तो वह पंडित गोविन्दबल्लभ पन्त के बाद या हेमवती नंदन बहुगुणा से पहले यूपी के मुख्यमंत्री बन गये होते.”
पर्यावरण संरक्षण को दिया नया आयाम
सत्तर के दशक में सुंदरलाल बहुगुणा का दिया एक नारा लोगों की चेतना का आधार बना:
क्या हैं जंगल के उपकार,
मिट्टी, पानी और बयार,
जिंदा रहने के आधार.
इस नारे से हिमालय को बचाने के लिये ग्रामीणों और आमजन की चेतना काफी प्रभावित हुई और उन्हें समझ में आया कि जंगल का मानव जीवन के साथ कितना गहरा रिश्ता है. सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी कहते हैं कि चिपको हिमालय को पहला वन आंदोलन नहीं था बल्कि आजादी के बाद से ही कुमाऊं और गढ़वाल में ऐसे आंदोलन चल रहे थे. उनके मुताबिक बहुगुणा ने इन संघर्षों को संगठित, व्यावहारिक और योजनाबद्ध रुप दिया.
तिवारी कहते हैं, "हमारे यहां आजादी के आंदोलन में जल, जंगल और जमीन के सवाल प्रमुख रहे हैं. गढ़वाल में कम्युनिस्ट और कुमाऊं में समाजवादी ऐसे कई आंदोलनों को चला रहे थे. चिपको असल में इन्हीं वन आंदोलनों का परिमार्जित रूप है. बहुगुणा के बारे में समझने की अहम बात ये है कि उन्होंने पर्यावरणीय आंदोलनों के साथ सामाजिक बुराइयों के खिलाफ भी काम किया। मिसाल के तौर पर सत्तर के दशक में उन्होंने शराबबंदी के खिलाफ 16 दिन का अनशन किया क्योंकि उस वक्त शराब पहाड़ी समाज में एक बड़ी समस्या थी.”
मुआवज़े का फलसफा
विकास परियोजनाओं में प्रभावित लोगों को बिना किसी क्षतिपूर्ति के बच निकलना सरकारों और कंपनियों की आदत रही है. किशोर उपाध्याय कहते हैं कि टिहरी आंदोलन में भले ही एक विशाल बांध बन गया और टिहरी डूब गया लेकिन बहुगुणा ने जिन सवालों को उठाया उससे सत्ता में बैठे कई लोगों को ऐसे विराट परियोजनाओं का अमानवीय चेहरा दिखाई दिया और कम से कम वह मुआवजे के लिये तैयार हुए. उपाध्याय कहते हैं कि बहुगुणा को इतने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों के बावजूद आत्मचिंतन करने और अपनी गलतियों को सुधारने में कोई हिचक नहीं थी।
"पर्यावरण कार्यकर्ताओं के दबाव से जंगलों, नदियों, वनस्पतियों और जीव-जंतुओं को बचाने के लिये कानून तो बने लेकिन इन क्षेत्रों में रह रहे लोगों के सरोकार पीछे छूट गये. उन्हीं जंगलों से लोगों को अलग कर दिया गया जिनका जीवन उस पारिस्थितिकी पर टिका था. एक बार मैंने बहुगुणा जी से इस बात को कहा तो उन्होंने दरियादिली से कमी को स्वीकार किया और कहा कि आप जैसे युवाओं को इस लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहिये. ये उस आदमी की महानता थी और इसलिये उनके जाने से भारत की ही नहीं पूरे विश्व की क्षति हुई है.” (dw.com)
(मलयालम से अनुवाद रति सक्सेना द्वारा)
5 बेहद व्यस्तता वाले वर्ष बीत गए हैं। मेरे लिए कामरेड पिनाराई विजयन के नेतृत्व वाली वाम सरकार का हिस्सा बनना मेरे जीवन का सबसे गौरवपूर्ण अध्याय है। इसी काल में निपाह वायरस, ओखी और कोविड सभी ने मिलकर समस्याएं पैदा की, ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य विभाग का कार्यभार संभालना आसान नहीं था। हालांकि मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बने गठबंधन, सह-मंत्रियों और विभागीय सहयोग ने जिम्मेदारियों को निभाने में काफी मदद की.जिससे प्रान्त में दुनिया के बड़े देशों की तुलना में कोविड का प्रभाव कम हुआ है। हरित केरल, सरकार द्वारा घोषित चार मिशन, जीवन, सार्वजनिक शिक्षा और कोमलता, लोगों के जीवन में किए गए परिवर्तन आशान्वित हैं। केरल के स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन सरकार की नीति और इच्छाशक्ति के कारण पैदा हुए।
1957 में पहली वाम सरकार के दौरान शुरू किए गए सुधारों का परिणाम केरल के स्वास्थ्य विभाग पर भी पड़ा। सबसे महत्वपूर्ण कार्य था बहुत व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य नेटवर्क। 2016 में जब पिनाराई सरकार सत्ता में आई तो पीएचसी के अतिरिक्त कोई पंचायत नहीं थी। 5000 जनसंख्या के लिए एक एक सबसेन्टर था। प्रत्येक जिले में एक सीएचसी सेन्टर, हर जिले में तालुक जनरल अस्पताल था। केरल बाल मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर में कमी के कारण भी देश के लिए एक मॉडल था। फिर भी स्वास्थ्य क्षेत्र में कुछ समस्याएं थीं जिन्हें तत्काल हल करने की आवश्यकता है। जब 2016 की जांच की गई, तो यह पाया गया कि केरल के 67 प्रतिशत लोग स्वास्थ्य देखभाल के लिए निजी चिकित्सा क्षेत्र पर निर्भर हैं। स्थिति यह थी कि मध्यम वर्ग के परिवार भी इलाज का खर्च वहन नहीं कर पा रहे थे।
विभिन्न प्रकार की महामारियों और जीवन शैली की बीमारियों ने बड़े पैमाने पर समाज पर ग्रहण लगा लिया था। केरल को भारत की मधुमेह राजधानी के रूप में जाना जाने लगा था। उच्च रक्तचाप, कैंसर, थायराइड आदि जैसी बीमारियों से न गुजरने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक थी। यह नहीं कहा जा सकता था कि इस त्रासदी में भूमिगत सुधार के बिना केरल के स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार हुआ है। इतनी सारी फर्म और उपकरण होने का कोई फायदा नहीं होता है। यही नहीं इनके प्रति सचेत भी रहना जरूरी है, किस तरह इनका लाभ उठाया जाये। इसके लिए विशेषज्ञों की सलाह और विभिन्न विभागों के गठबंधन के माध्यम से स्वास्थ्य क्षेत्र में पिनाराई सरकार द्वारा किए गए हस्तक्षेप ने ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की हैं।
Ardram Mission. की सहायता से प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को पारिवारिक स्वास्थ्य केन्द्र में परिवर्तित किया जाने लगा। लोगों ने देखा कि उनके गांवों में बेहतरीन लैब के साथ आधुनिक अस्पताल बनते जा रहे हैं। वे लोग न केवल विस्मय में देख रहा था बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र पर विश्वास भी करने लगे, और जल्द ही बीमारियों की जांच और इलाज की मांग भी करने लगे। इस तरह सरकारी अस्पताल में आने वालों की संख्या 33 फीसदी से बढ़कर 51 फीसदी हो गई है. प्रसव में शिशु मृत्यु दर 12 से घटकर 6 हो गई। मातृ मृत्यु दर 67 से घटकर 30 . हो गई।
KIFB की मदद से, हमारे तालुक अस्पताल और जिला अस्पताल आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न हैं , जो किसी भी कॉर्पोरेट अस्पताल को मात देते हैं। उनमें से कुछ पहले बन चुके थे। लेकिन अभी भी बड़े पैमाने पर अस्पतालों का निर्माण कार्य चल रहा है। प्रत्येक अस्पताल का मास्टर प्लान विशेषज्ञ कमेटी बनाकर और कई बार जांच कर तैयार किया गया। विपक्ष को आलोचना का मौका दिए बिना कि कुछ नहीं हो रहा है,इस तरह लोगों के सम्मुख सार्वजनिक अस्पताल निर्मित हो रहे हैं, , उन में से अधिकांश दो साल के भीतर पूरे हो जाएंगे। फिर हमारा सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र दुनिया के लिए आश्चर्य होगा। पहले से ही बहुत से लोग इस प्रणाली को सीखना चाहते हैं। हमारे मेडिकल कॉलेज आधुनिक समय के अनुसार सुविधाओं की कमी से परेशान थे। उन्हें भी परिमार्जित किया था। सभी के लिए विस्तृत परियोजना डिजाइन बनाये गये।
आज आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित मेडिकल कालेज का कार्य पूरा हो जायेगा,तभी समझ में आएगा कि हमने स्वास्थ्य क्षेत्र में कितना निवेश किया है। हमने मेडिकल कॉलेज को शिक्षा उत्कृष्टता और अनुसंधान का केंद्र बनाने की शुरुआत भी की। केरल द्वारा कोरोना वायरस के आनुवंशिक परिवर्तन पर किया गया अध्ययन उल्लेखनीय था। हम इमरजेंसी के इलाज में पीछे थे। इससे सड़क दुर्घटनाएं और अधिक हुईं। इसी संदर्भ में पिछली सरकार के दौरान संपूर्ण ट्रॉमा केयर योजना शुरू की गई थी। सभी मेडिकल कॉलेजों और जिला तालुक अस्पतालों में सर्वश्रेष्ठ ट्रैज सिस्टम और ऑपरेशन थिएटर सहित आपातकालीन उपचार विभाग शुरू किए । मौजूदा इमारतों को गिरा कर, अथवा मरम्मत करके पुनर्निर्माण आरम्भ किया । कुछ जगहों पर निर्माण कार्य चल रहा है।
केरल में 315 बीएलएस एंबुलेंस तैनात की गई हैं। अब हर 30 किलोमीटर के दायरे में 108 एंबुलेंस उपलब्ध हैं।ये एंबुलेंस कोविड काल में मरीजों को समय पर अस्पताल पहुंचाकर हजारों लोगों की जान बचाने के लिए जिम्मेदार रही हैं। तिरुवनंतपुरम में जो एपेक्स ट्रेनिंग एंड रिसर्च सेंटर बनाया गया है, वह एक गौरवपूर्ण उपलब्धि है।
ई-स्वास्थ्य प्रणाली बनाइ गई, जिसके कारण रोगियों शीघ्र इलाज मिल सके, अस्पतालों में भीड़ को नियंत्रित करने, सुचारू अस्पताल प्रशासन आदि के लिए ई, सिस्टम का उपयोग किय ा जा रहा है। मरीजों को इलेक्ट्रॉनिक हेल्थ कार्ड दिए जा रहे हैं। तीन सौ से ज्यादा अस्पतालों में लागू इस प्रोजेक्ट को सभी अस्पतालों में बढ़ाया जा रहा है. सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में यह आधुनिकीकरण दुनिया में दुर्लभ है।
वायनाड में हीमो ग्लोपिनोपैथी नामक गंभीर बीमारियों का समाधान खोजने के लिए स्थापित उपचार अनुसंधान केंद्र भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगी। यह केंद्र सिकलसेल एनीमिया, थैलेसीमिया, हीमोफीलिया जैसी बीमारियों से पीड़ित लोगों की के लिए आशा का केन्द्र होगा।
संपूर्ण स्वास्थ्य बचाव योजना की घोषणा करते हुए 42 लाख परिवारों को इसके दायरे में लाया। स्वास्थ्य विभाग ने बीमा कंपनियों से परहेज कर सीधे करुणा स्वास्थ्य सुरक्षा योजना चलाने की शुरुआत की है। इसके लिए राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण ने एसएचए का गठन किया है। कोविड काल के दौरान, एसएचए ने कई निजी अस्पतालों को कैस्प के तहत लाने और कई को सरकारी खर्च पर इलाज देने के लिए हस्तक्षेप किया।
आनुवंशिक हृदय विकारों वाले बच्चों के जीवन को बचाने के लिए हृदय योजना, सभी लोगों की जीवन शैली की बीमारियों का पता लगाने के लिए अमृतम स्वास्थ्य योजना, तपेदिक उन्मूलन के लिए अश्वमेघम, कुष्ठ उन्मूलन योजना, महामारी नियंत्रण के लिए स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम, कैंसर के उपचार को सुनिश्चित करने के लिए पूर्ण कैंसर नियंत्रण सूत्र और व्यावहारिक गतिविधियाँ आदि समस्त प्रोजेक्ट चल रहे हैं। प्रमुख स्वास्थ्य व्यवहार में व्यायाम की आदत को सुनिश्चित करने की योजना शुरू की गई है।
आयुष खंड में अंतरराष्ट्रीय मानक अनुसंधान केंद्र का निर्माण शुरू हो गया है जो अनुकंपा फार्मेसियों, डायलिसिस केंद्रों, स्ट्रोक इकाइयों और प्रतीक्षा प्रयोगशालाओं को विस्तृत करने में सक्षम हैं। नए अस्पतालों की योजना में ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्र भी शामिल हैं। 125 से अधिक अस्पतालों ने राष्ट्रीय गुणवत्ता प्रत्यायन पुरस्कार प्राप्त किया है जो ऐतिहासिक है।
हमें सावधान रहना चाहिए कि बीमारी का इलाज ही न करें बल्कि अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाएं। प्रत्येक व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के मुद्दों का मूल्यांकन करना भी जरूरी है। इस लक्ष्य से शुरू की गई सैकड़ों गतिविधियों को अपनी मंजिल तक पहुंचाने के साथ-साथ हमें नई व्यवस्थाओं को शुरू करने में सक्षम हो जायेंगे। यह उस समूह की सफलता है जो स्वास्थ्य क्षेत्र में ऐतिहासिक महत्व रखती है।
यह सामूहिक प्रयत्नों की जिससे स्वास्थ्य क्षेत्र में ऐतिहासिक लाभ मिला। आदरणीय मुख्यमंत्री, स्थानीय सरकार के मंत्री जिन्होंने प्रत्येक जिले में स्थानीय सरकार के हस्तक्षेप को मजबूत किया, वित्त मंत्री, विधायक, नगर अध्यक्ष, पंचायत अध्यक्ष, डीएमओ डीपीएम अन्य जिला स्तर के अधिकारी, चिकित्सा अधिकारी, नर्स, आशा वर्कर, लैब तकनीशियन, फार्मासिस्ट, सफाई कर्मचारी अस्पताल में, और स्वास्थ्य कर्मी, मैं सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं। स्वास्थ्य विभाग के सचिवों, निदेशकों, चिकित्सा सेवा निगम के पदाधिकारियों आदि के प्रति प्रेम और आभार।
कार्यालय के कर्मचारी जिन्होंने लगातार काम किया, वे मेरे लिए परिवार की तरह हैं। जिन्होंने संकट के समय मेरा साथ दिया, उनकी कड़ी मेहनत के लिए उन्हें धन्यवाद भी नहीं दे सकती। इन सबसे ऊपर कैबिनेट, पार्टी और एलडीएफ मोर्चे में मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों के समर्थन से स्वास्थ्य विभाग का काम और मजबूत हुआ है. एक बार फिर राहत के साथ सभी का धन्यवाद कि स्वास्थ्य विभाग अधिक शक्तिशाली हाथों में है।
-ओम थानवी
सुंदरलाल बहुगुणा सुंदर शख़्सियत थे। छरहरे बदन, रजत दाढ़ी, मृदुभाषा या उनकी पहचान बने सफ़ेद पटके भर के कारण नहीं, पर्यावरण के प्रति ईमानदार सरोकार, गांधीवादी जीवन-शैली, यायावर मन और लेखन के प्रति सतत लगाव के कारण।
चिपको आंदोलन से उनका संसार में नाम हुआ। चण्डीप्रसाद भट्ट ने भी उस आंदोलन को जिया। लोगों ने दोनों के बीच दीवार खींचनी चाही। जबकि दोनों का काम बड़ा था। पूरक था।
बहुगुणाजी में भी ग्रामसुलभ विनय बहुत थी। एक दफ़ा जोधपुर आए। खेजड़ली गए। अमृतादेवी और पेड़ों के लिए लड़ने वाली अन्य स्त्रियों की दास्तान सुनी। निस्संकोच बोले — हमारा नाम लिया जाता है; पर असल चिपको आंदोलन तो यहाँ (खेजड़ली) से शुरू होता है। उनका बड़प्पन था।
वे स्वाधीनता सेनानी थे। पत्रकार भी थे। हिंदुस्तान के बरसों स्ट्रिंगर रहे। अस्सी के दशक में जब मैं इतवारी पत्रिका (राजस्थान पत्रिका समूह का एक राजनीतिक-सांस्कृतिक साप्ताहिक) का काम देखता था, उन्होंने हमारे लिए अनेक लेख लिखे। बाद में जनसत्ता के लिए भी। मुझे उनकी बड़े-बड़े अक्षरों वाली पर्वत-रेखा सी ग़ैर-समतल लिखावट बख़ूबी याद है।
एक बार जयपुर में हमारे घर भोजन पर आए हुए थे। मैं अपनी यज़दी मोटरसाइकल पर बाद में स्टेशन छोड़ने गया। उनका टिकट पक्का नहीं हुआ था। रात का वक़्त था। वे फ़िक्रमंद हुए। किसी तरह दिल्ली जा पहुँचें। एक मित्र मिले। बोले टीटी से बात करते हैं, कुछ ले-दे कर शायद बात बन जाए। बहुगुणाजी ने बात वहीं रोक दी — इस तरह बिलकुल नहीं। वे साधारण डिब्बे में चढ़ने को तैयार थे। पर टीटी को उनका परिचय मात्र देने से बात बन गई; एक ख़ाली शायिका मिल गई थी। हमें सिद्धांत के लिए अड़ने की सीख मिली।
वे 94 की वय में गए हैं। कोरोना काल में शतायु ही समझिए। उनके जीवन और काम को स्मरण करने का वक़्त है। विदा कहने का नहीं।
-कमल ज्योति
शासन-प्रशासन भले ही लॉकडाउन के माध्यम से कोरोना को नियंत्रित कर रही है, लेकिन हम सभी को चाहिए की हम अपनी आदतों को बदले और शासन-प्रशासन से इत्तर अपनी जिम्मेदारी भी समझे। हमारा जीवन जीने का जो तरीका है वह बेपरवाह और दूसरों को खतरे में डालने वाला न हो। ताकि लॉकडाउन की नौबत ही न आए। यदि हम कोरोना की पहली लहर में बनी आदतों और दूसरी लहर में हुई गल्तियों से सीख लेकर जीवन का सलीका बदल लेंगे और टीका लगवायेंगे तो निश्चित ही कोरोना की आने वाली तीसरी लहर हमारा ज्यादा कुछ नुकसान नहीं कर पाएगी। हम स्वस्थ भी रहेंगे और आने वाले कल को भी देख पाएंगे क्योंकि ‘जान है तो जहान है...
टीका का नाम आते ही एक विश्वास का भाव पैदा होने लगता है। यह टीका भले ही उस मासूम के चेहरे के किसी हिस्से में लगने वाला काजल का टीका हो या फिर किसी संक्रामक बीमारी से बचने के लिए हो। परम्परानुसार चली आ रही धारणा आज भी प्रचलन में है कि मां अपने मासूम बच्चों को किसी के नजर से बचाने टीका लगाती है। बहरहाल यह धारणाओं और परम्पराओं पर आधारित है, इसलिए इसे लगाने के बाद सौ फीसदी विश्वास कायम हो, डर-भय समाप्त हो जाए यह शायद ही संभव है। यदि ऐसा होता तो निश्चित ही कोई बच्चों को संक्रामक बीमारी से बचाने के लिए अस्पताल में टीकाकरण नहीं कराता। आप पाएंगे कि जागरूकता के साथ ही बच्चों में टीकाकरण का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। टीकाकरण बचपन में होने वाली कई जानलेवा बीमारियों से बचाव का सबसे प्रभावशाली एवं सुरक्षित तरीका है। टीकाकरण बच्चे के रोग प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत बनाता है और उन्हें विभिन्न जीवाणु तथा विषाणुओं से लडऩे की शक्ति प्रदान करता है।
नि:संदेह टीका या वैक्सीन वैज्ञानिकों, चिकित्सकों द्वारा जांची और परखी गयी वह खोज है, जो हमें संक्रामक बीमारी से लडऩे की शक्ति प्रदान करती है। वर्तमान में हम सभी को मालूम है कि कोविड-19 को एक संक्रामक रोग घोषित किया गया है। चिकित्सा वैज्ञानिकों की खोज का ही परिणाम है कि को-वैक्सीन और कोविशील्ड का टीका लोगों को लगाया जा रहा है। यह वैक्सीन कोरोना के संक्रमण से बचने में प्रभावी हो रही हैं। इसलिए कोरोना की रोकथाम के लिए टीकाकरण का अभियान हर जगह जोर-शोर से जारी है।
बहरहाल टीकाकरण जारी है और वैक्सीन का जो उत्पादन तथा उपलब्धता है, उससे संभावना है कि शतप्रतिशत टीकाकरण का कार्य लंबे समय तक जारी रहेगा। कोरोना की पहली लहर के बाद दूसरी लहर और इस लहर में हमें अपनों से लेकर आसपास के वे लोग जो कोरोना की जंग हार गए तथा ऐसे लोग जो कोरोना से लड़ते हुए जंग जीत गए, इन दोनों से मिली सीख को हमें जीवन में उतार लेना चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि तीसरी लहर जब आए तो हम उससे कैसे अपने आपको और अपने परिवार को इससे बचा सकें। हम में से बहुत लोगों की धारणा है कि एक बार टीका लगने के बाद हम कोरोना से आसानी से लड़ सकते हैं, टीका लगने के बाद कोरोना का वायरस हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकता। इस संबंध में अनेक चिकित्सा विशेषज्ञों की राय, अपील, पढऩे, जानने समझने के बाद वर्तमान परिपेक्ष्य में इतना तो कहा जा सकता है कि टीका हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। हमें बीमारी से लडऩे में सहायता करता है। कोरोना संक्रमितों के सम्पर्क में आने के बाद हम संक्रमित होते भी हैं तो हमारी स्थिति उतनी गंभीर नहीं होती, जितनी बिना वैक्सीन वाले संक्रमितों की होती है।
कहने का अर्थ यहीं है कि वैक्सीन लगने के बाद आप संक्रमित न हो इसकी कोई ठोस गारंटी नहीं है। ऐसे में हमें टीका लगवाने के साथ अपने जीवन जीने का सलीका बदलने की आवश्यकता है। यह जीवन जीने का सलीका हमारे घर के भीतर खान-पान, योगा-व्यायाम और मास्क लगाकर चलने तक ही सीमित नहीं है। दरअसल हम में से बहुत लोग भूल जाते हैं कि घर से बाहर निकलते ही सडक़ पर चलते हुए हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है। भले ही मुहं में मास्क पहने हुए होते हैं, लेकिन गुटखा और तंबाकू, पान इत्यादि चबाते होते हैं और जब मर्जी पड़ी, बिना आगे-पीछे देखे कही भी थूक देते हैं। जब छींक या खांसी आती है तो मास्क हटाकर छींकते-खांसते हैं। हमें हमारे पीछे चलने वालों की जरा भी परवाह नहीं होती।
हम तब भी लापरवाह होते हैं, जब किसी दुकान में कोई सामान लेना हो, हमें किसी बीमारी की डर से ज्यादा जल्दी सामान लेने की होड़ होती है और इस जल्दबाजी में हम सोशल-फिजिकल डिस्टेसिंग का पालन नहीं करते। हम में से बहुतों को बेवजह घूमने-फिरने का शौक भी है। घर से बाहर जरूरी काम का बहाना बनाकर सडक़ पर, किसी चौराहों पर, गुमटी-ठेलों पर अनावश्यक खड़े हो जाते हैं, घूमते-फिरते होते हैं और इस तरह भीड़ बढ़ाकर हम अपने साथ घर परिवार को भी संकट में डालने का काम करते रहते हैं। कोरोना संक्रमण का सबसे ज्यादा खतरा गंदगी और लापरवाही पर टिका हुआ है। स्वयं की स्वच्छता के प्रति हमारी कमी ही हमेें संक्रमित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बीमार होने के बाद हम हजार रुपए से लेकर कई लाख रुपए तक अपनी जान बचाने के लिए अस्पताल और दवाई में खर्च कर देते हैं।
हम अनावश्यक चीजे खाना बंद करते हैं। फल खाते हैं। जूस पीते हैं। मल्टी विटामिन लेते हैं। हम यह जानते भी है कि स्वच्छ रहकर भी बहुत से बीमारी से बचा जा सकता है, इसके बावजूद क्या हम अपना गंदा हाथ बार-बार धोने के लिए 10 से 20 रुपए का साबुन अपने साथ नहीं रख सकते? क्या मास्क और रोज पहनने वाले कपड़े घर जाते ही साफ नहीं कर सकते?
कोरोना की पहली लहर खत्म होने के बाद शायद हम उतने सतर्क और सावधान नहीं हुए, पहली लहर में हमने सीखा था कि मास्क पहनना है। हाथ लगातार धोना है। खान-पान पर ध्यान देना है। काढ़ा पीना है। गले साफ रखने के लिए गरारा करना है। बाजार या बाहर से कोई सामान लाए तो उसे कुछ देर घर के बाहर रखना है और अच्छी तरह से धोकर ही उपयोग करना है। सोशल डिस्टेसिंग का पालन करना है। लेकिन दुर्भाग्यवश पहली लहर का असर कम होने के साथ हम सभी के भीतर से कोरोना का भय मिटता चला गया और हमारी लापरवाही जारी रही। इस दौरान शासन-प्रशासन की सख्ती की वजह से मुंह पर केवल दिखावटी मास्क ही हमारे बचाव के लिए रह गए थे। इसलिए दूसरी लहर सभी के लिए चुनौतियों के साथ पीड़ादायक रही। कोरोना की पहली लहर ने जहां हमें बहुत कुछ सिखाने का काम किया है वहीं दूसरी लहर ने हमें अपनी गल्तियों और लापरवाही का अहसास कराते हुए फिर से कठिन चुनौतियों से लडऩे के लिए तैयार किया है। शासन-प्रशासन भले ही लॉकडाउन के माध्यम से कोरोना को नियंत्रित कर रही है, लेकिन हम सभी को चाहिए की हम अपनी आदतों को बदले और शासन-प्रशासन से इत्तर अपनी जिम्मेदारी भी समझे। हमारा जीवन जीने का जो तरीका है वह बेपरवाह और दूसरों को खतरे में डालने वाला न हो। ताकि लॉकडाउन की नौबत ही न आए। यदि हम कोरोना की पहली लहर में बनी आदतों और दूसरी लहर में हुई गल्तियों से सीख लेकर जीवन का सलीका बदल लेंगे और टीका लगवायेंगे तो निश्चित ही कोरोना की आने वाली तीसरी लहर हमारा ज्यादा कुछ नुकसान नहीं कर पाएगी। हम स्वस्थ भी रहेंगे और आने वाले कल को भी देख पाएंगे क्योंकि ‘जान है तो जहान है...(सहायक जनसंपर्क अधिकारी)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत जबसे आजाद हुआ है, कोरोना-जैसा संकट उस पर कभी नहीं आया। इस संकट ने राजा-रंक, करोड़पति-कौड़ीपति, औरत-मर्द, शहरी-ग्रामीण, डॉक्टर-मरीज किसी को नहीं छोड़ा। सबको यह निगल गया। श्मशानों और कब्रिस्तानों में लाशों के इतने ढेर देश में पहले किसी ने नहीं देखे। भारत में यों तो बीमारियों, दुर्घटनाओं और वृद्धावस्था के कारण मरने वालों की संख्या 25 हजार रोज की है। उसमें यदि चार-पांच हजार ज्यादा जुड़ जाएं तो यह दुखद तो है लेकिन कोई भूकंप-जैसे बात नहीं है लेकिन सरकारी आंकड़ों पर हर प्रांत में सवाल उठ रहे हैं।
देश में ऐसे लोग अब मिलना मुश्किल है, जिनका कोई न कोई रिश्तेदार या मित्र कोरोना का शिकार न हुआ हो। यों तो भारत के दो प्रतिशत लोगों को यह बीमारी हुई है लेकिन सौ प्रतिशत लोग इससे डर गए हैं। इस डर ने भी कोरोना को बढ़ा दिया है। मृतकों की संख्या अब भी रोजाना 4 हजार के आस-पास है लेकिन मरीजों की संख्या तेजी से घट रही है। संक्रमण घट रहा है और संक्रमित बड़ी संख्या में ठीक हो रहे हैं।
यदि यही रफ्तार अगले एक-दो हफ्ते चलती रही तो आशा है कि हालात काबू में आ जाएंगे। 15-20 दिन पहले जब कोरोना का दूसरा हमला शुरु हुआ था तो आक्सीजन, इंजेक्शन और पलंगों की कमी ने देश में कोहराम मचा दिया था। कई नर-पिशाच कालाबाजारी पर उतर आए थे। निजी अस्पताल और डॉक्टरों को लूटपाट का अपूर्व अवसर मिल गया था लेकिन सरकारों की मुस्तैदी, लोकसेवी संस्थाओं की उदारता और विदेशी सहायता के कारण अब सारा देश थोड़ी ठंडक महसूस कर रहा है।
लेकिन चिंता अभी कम नहीं हुई है। राज्य-सरकारें कोरोना के तीसरे हमले के मुकाबले के लिए कमर कस रही हैं। दिल्ली और हरियाणा की सरकारों ने हताहतों के संबंध में कई अनुकरणीय कदम उठाए हैं। केंद्र और राज्यों ने पहले हमले के समय की गई लापरवाही से कुछ सबक सीखा है। लेकिन हमारे राजनीतिक दलों के नेतागण अभी भी एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए हैं। वे यह नहीं सोचते कि वे अपने विरोधी की जगह होते तो क्या करते?
यदि केंद्र में भाजपा की सरकार है तो लगभग दर्जन भर राज्यों में विरोधियों की सरकारें हैं। कोरोना के पहले दौर के बाद क्या उन्होंने कम लापरवाही दिखाई? अब यदि उनके नेता कहते हैं कि कोरोना का यह दूसरा हमला ‘मोदी हमला’ है तो ऐसा कहकर वे अपना ही मजाक उड़ा रहे हैं। भाजपा के प्रवक्ता भी विरोधी नेताओं के मुँह लगकर अपना समय खराब कर रहे हैं।
यह समय युद्ध-काल है। इस समय हमारा शत्रु सिर्फ कोरोना है। उसके खिलाफ पूरे देश को एकजुट होकर लडऩा है। देश के लगभग 15 करोड़ राजनीतिक कार्यकर्ता, 60 लाख स्वास्थ्यकर्मी और 20 लाख फौजी जवान एक साथ जुट जाएं तो कोरोना की कमर तोडऩा आसान होगा। डर के बादल छंटे तो आशा की किरण उभरे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रदीप सुरीन
कोरोना महामारी के बीच भले लोगों की जान बचाने के लिए टीकों की बहुत जरूरत है। लेकिन संकट की इस घड़ी में फार्माकोविजिलेंस की जरूरत पहले से भी ज्यादा है। महामारी से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने अफरा-तफरी में टीकों के इस्तेमाल की मंजूरी दे दी। लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि अभी भी इन टीकों के सभी क्लिनिकल ट्रायल पूरे नहीं हुए हैं। इन टीकों के साइड इफेक्ट्स भी जरूर होंगे।
आप में से कई लोगों के लिए फार्माकोविजिलेंस शब्द नया होगा। इसमें कोई गलत बात भी नहीं क्योंकि ज्यादातर लोगों का इससे सीधा वास्ता भी नहीं होता। दुनियाभर की दवा कंपनियां इसी विभाग से डरती हैं। लोगों की जान बचाने के लिए इस विभाग को किसी भी देश में होना अनिवार्य है। लेकिन भारत में बस कुछ साल पहले ही फार्माकोविजिलेंस विभाग का गठन किया गया है।
चलिए पहले जान लेते हैं कि आखिर ये फार्माकोविजिलेंस होता क्या है। दरअसल किसी भी देश में मिलने या बिकने वाली दवाओं और टीकों के साइड इफेक्ट्स पर निगरानी रखने के लिए ही फार्माकोविजिलेंस का गठन किया जाता है। दवा और टीके लोगों की जान बचाने के ही काम आते हैं। लेकिन सभी दवाओं और टीकों के साइड इफेक्ट्स भी होते हैं जिनसे लोगों की जान भी जा सकती है। फार्माकोविजिलेंस पूरे देश में किसी दवा या टीके से होने वाले हादसों और अप्रिय घटनाओं का लेखा-जोखा रखती है।
भारत में इस विभाग द्वारा जुटाए आंकड़ों के आधार पर कई दवाओं और टीकों को बैन किया जा चुका है। कोरोना महामारी के बीच भले लोगों की जान बचाने के लिए टीकों की बहुत जरूरत है। लेकिन संकट की इस घड़ी में फार्माकोविजिलेंस की जरूरत पहले से भी ज्यादा है। महामारी से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने अफरा-तफरी में टीकों के इस्तेमाल की मंजूरी दे दी। लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि अभी भी इन टीकों के सभी क्लिनिकल ट्रायल पूरे नहीं हुए हैं। इन टीकों के साइड इफेक्ट्स भी जरूर होंगे।
मुझे बस एक बात खटक रही है, जब कोरोना टीकों के सभी ट्रायल नहीं हो पाए थे तो फिर फार्माकोविजिलेंस विभाग को मुस्तैद क्यों नहीं किया गया। देश में कोरोना के टीके लॉन्च होने के साथ ही फार्माकोविजिलेंस विभाग को लगभग निष्क्रिय किया जा चुका है।
अब फार्माकोविजिलेंस विभाग भी सूचना के अधिकार कानून की तरह हो गया है। सिर्फ दिखावे के लिए ही मौजूद है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कोविशिल्ड और कोवैक्सीन लाखों लोगों की जान बचा रहे हैं। लेकिन इनके साइड इफेक्ट्स पर खुद सरकार का आंख मूंद लेना बिलकुल भी सही नहीं है।
अभी तक जो होता आ रहा है उससे भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन आने वाले दिनों के लिए चिंतित होना लाजमी है। अगले कुछ महीनों में 2 साल के बच्चों से लेकर लगभग सभी उम्र के लोगों पर टीकों का क्लिनिकल ट्रायल होगा। लेकिन अगर इन टीकों से मासूम और बेजुबान बच्चों में कोई साइड इफेक्ट होता है तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
पूरी दुनिया में बेजुबान बच्चों पर बेहद कम क्लिनिकल ट्रायल होते हैं। कोरोना वायरस के लिए कई देशों में छोटे बच्चों पर क्लिनिकल ट्रायल की मंजूरी दी गई है। भारत ने भी इसी नियम को फॉलो किया है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि बच्चों पर होने वाले हर पांच में से एक क्लिनिकल ट्रायल असफल साबित हुआ है। यानी बच्चों पर होने वाले ट्रायल पर खास नजर रखने की जरूरत होती है।
पिछले कुछ महीनों से ज्यादातर हेल्थ रिपोर्टर्स फार्माकोविजिलेंस विभाग को ट्रैक करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन किसी को भी सफलता नहीं मिल पा रही है। फार्माकोविजिलेंस विभाग के नंबर गोल-मोल घुमाकर बंद हो जाते हैं। जब टीकों के साइड इफेक्ट्स की रिपोर्टिंग ही नहीं होगी तो इनसे हो रही मौतों के बारे में भी कोई चर्चा ही नहीं होगी।
-कृष्ण कांत
बिहार के बक्सर जिले में सोमवार को गंगा में 40 लाशें बहती देखी गईं। आज गाजीपुर में यूपी-बिहार बॉर्डर के गहमर गांव के पास गंगा में दर्जनों लाशें मिली हैं। गंगा में नाव चलाने वाले गहमर के बुजुर्ग नाविक शिवदास का कहना है कि चालीस साल से नाव चला रहे हैं, लेकिन गंगा में इस तरह बिखरी लाशों का मंजर कभी नहीं देखा। एक वीडियो वायरल है जिसे शेयर करना मुनासिब नहीं है। वह भयावह है। कई गांवों में 40, 50, 60 मौतों की खबरें आ रही हैं।
ऐसा महसूस होता है कि हमारे चारों तरफ लाशें ही लाशें बिखरी हैं। जहां से भी सूचनाएं मिल सकती हैं सिर्फ मौत का तांडव दिख रहा है। हमारी सरकारों ने कोरोना रोकने की जगह खबरों को रोकने में ताकत लगा दी है। जिस भी श्मशान में रिपोर्टर चेक कर रहे हैं, सरकारी और वास्तविक आंकड़ों में जमीन आसमान का अंतर है। बक्सर में रविवार को सरकारी आंकड़ों में 76 शव दर्ज हुए, जबकि 100 से ज्यादा अंतिम संस्कार हुए।
इससे हमारे गांवों की भयावह हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। खबरें बता रही हैं कि गांवों में श्मशानों में जगह कम पड़ गई है। दिन रात लाशें जल रही हैं। इसके बावजूद कई जगह लोग शवों को गंगा में प्रवाहित कर रहे हैं। वे शव बहकर कहीं पर किनारे लग रहे हैं।
यूपी और बिहार के गांव-गांव में लोग खांसी और बुखार से पीडि़त हैं। एक-एक गांव में दर्जनों मौतें हो रही हैं। अभी तक शहरों के हाहाकार से निपटने का ही कोई खास इंतजाम नहीं है। गांवों का क्या होगा, कोई नहीं जानता।
गांव में न टेस्ट हो रहे हैं, न दवाएं हैं, न डॉक्टर हैं, न अस्पताल हैं। जो लोग बीमार हो रहे हैं, वे छुआछूत के डर से बीमारी छुपा रहे हैं। हर जिले में बिना सुविधाओं के कम से कम एक जर्जर जिला अस्पताल या हर ब्लॉक में एक खंडहरनुमा प्राथमिक चिकित्सा केंद्र तो है ही, जहां कुछ लोगों के टेस्ट हो सकते हैं। लेकिन लोग टेस्ट कराने से भी बच रहे हैं।
खबरें कहती हैं कि लकड़ी और जगह की कमी के चलते लोग शवों को जलाने की जगह गंगा में प्रवाहित कर रहे हैं।
इस तरह गंगा में तैरते शवों से संक्रमण और ज्यादा फैल सकता है। सरकार के पास ऑक्सीजन और दो-चार दवाओं जैसी मामूली चीजों का अब तक कोई इंतजाम नहीं है तो गांव-गांव तक महामारी रोकने के बारे में कुछ किया जाएगा, यह सोचना भी आसमान से फूल तोडऩे की कल्पना करना है।
चुनाव हवसियों और सत्तालोभियों ने पूरे भारत को श्मशान में बदल डाला है।
-वीरेंदर भाटिया
‘कौन-सा नंबर है तुम्हारा?’, एक मुर्दे ने पास पड़े मुर्दे से पूछा!
‘मालूम नहीं’, दूसरे ने बेतकल्लुफ जवाब दिया।
‘कौन-से नम्बर का दाह हो रहा है?’
‘अरे मालूम नहीं बोला न? तुम्हें क्या जल्दी पड़ी है, दाह संस्कार की? जि़ंदा था, तब राशन, टिकट, बैंक की लाइन में घंटों खड़ा रह लेता था, आज क्या हुआ?’
‘उस लाइन में मैं खुद लगता था। यहाँ बच्चे लगे हैं, लाइन में।’
‘एक काम कर, खड़ा होकर बजा डाल सबकी। एकदम से नम्बर आएगा।’
‘जब खड़ा हो सकता था तब नहीं बजाई। काश! तब बोलते हम।’
‘तो अब पड़ा रह शांति से। चुप्पी मारने की सजा यही होती है। जब आदमी कुछ नहीं बोलता, तब ही आदमी मर जाता है।’
‘तुम्हारी जान कैसे गई?, एक मुर्दे ने दूसरे से पूछा’
‘ऑक्सीजन नहीं मिली!’
‘तुम कैसे मरे?’
‘मुझे हॉस्पिटल में बेड नहीं मिला!’
‘कितने सस्ते में मर गए न हम लोग’, पहले ने आह भरी!
‘हम यही डिज़र्व करते थे, भाई। चुपचाप जैसे मर गए, वैसे चुपचाप अंतिम संस्कार का इंतजार करो।’
‘मुझे एक बार जीने का मौका मिल जाये, तो चीख़-चीख़ कर कहूँ कि हमें सिस्टम ने मारा है। हम इतने बीमार नहीं थे, जितना सिस्टम बीमार निकला’, एक मुर्दे ने खीझ कर दूसरे मुर्दे से कहा।
‘चुपचाप पड़ा रह। मुर्दे कभी बोलते नहीं। यह मुर्दों का देश है साधो। जब जिंदा थे, तब भी मुर्दा ही थे हम। अब हेकड़ी दिखाने का कोई लाभ नहीं!’
‘यार कितने संस्कार हो चुके, कितने बाकी हैं?’ एक मुर्दे ने दूसरे से पूछा।
‘अभी 7 हुए हैं, 27 बाकी हैं। देख ले आजु-बाजू, कितने मुर्दे पड़े हैं?’
‘कितना बुरा हाल हो गया है देश का?", पहला मुर्दा सुबकने लगा!
‘दिख गया देश का हाल? अब मुर्दों के जलने की लपटें देख और ऊँचाई नाप मुल्क की तरक्की की!’
‘सुनो!’
‘बोलो!’
‘हमारे बच्चे इस देश में कैसे रहेंगे? हर तरफ महामारी और नफरत फैल चुकी है।’
‘हाँ, हमने क्या योगदान दिया कि नफरत न फैले?’
‘सच में कुछ भी नहीं!’
‘तो एक काम करते हैं। खुद को लानत भेजते हैं और फिर से मर जाते हैं।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना महामारी के इस दौर में हमारी अदालतें, सरकार और पुलिस कई ऐसे काम कर रही हैं, जो उन्हें नहीं करने चाहिए और कई ऐसे काम बिल्कुल नहीं कर रही हैं, जो उन्हें एकदम करने चाहिए। जैसे वह ऑक्सीजन, इंजेक्शन और दवाइयों के कालाबाजारियों को फांसी पर लटकाने की बजाय उन्हें पुलिस थानों और जेल में बिठाकर मुफ्त का खाना खिला रही है और जो लोग मुफ्त में दवाइयाँ बांट रहे हैं, मरीज़ों को पलंग दिलवा रहे हैं, अपनी एंबूलेंस में अस्पताल पहुंचा रहे हैं, उन पर मुकदमे चला रही है।
उनके खिलाफ कार्रवाई इसलिए हो रही है कि वे विरोधी दलों के हैं। यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष श्रीनिवास के खिलाफ इसीलिए जांच बिठा दी गई थी। जांच में मालूम पड़ा कि वे और उनका संगठन शुद्ध परोपकार और जन-सेवा में लगे हुए थे। अदालतों में बैठे न्यायाधीश आजकल ऐसे-ऐसे फैसले दे रहे हैं और इतनी आपत्तिजनक टिप्पणियां कर रहे हैं, जो निश्चित रुप से संविधान की मर्यादा के अनुकूल नहीं हैं लेकिन उनमें इतना दम नहीं है कि इस वक्त के कालाबाजारी हत्यारों को वे फांसी पर लटकवाएं ताकि ठगी करनेवाले इन हजारों हत्यारों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाए।
अब दिल्ली की पुलिस का एक कारनामा और देखिए। उसने दिल्ली में 27 ऐसे लोगों को गिरफ्तार कर लिया है, जो दीवालों पर पोस्टर चिपका रहे थे। उन पोस्टरों में ऐसा क्या छपा था, जिससे दंगे भडक़ सकते थे ? उनमें ऐसा क्या लिखा था, जो घोर अश्लील या अशोभनीय था ? उन पोस्टरों में क्या लोगों को अराजकता फैलाने के लिए उकसाया गया था ? हीं, उनमें ऐसा कुछ नहीं लिखा था। उनमें सिर्फ यह लिखा था ‘‘मोदीजी, हमारे बच्चों की वेक्सीन विदेश क्यों भेज दी ?’’
यह सवाल पोस्टर चिपकाने वाले आप पार्टी और कांग्रेस के लोग ही नहीं कर रहे हैं बल्कि कई साधारण लोग भी कर रहे हैं। अब वेक्सीन की कमी भुगत रहे लोग यह सवाल करें, यह स्वाभाविक है। इससे नाराज होने की बजाय उनके सामने अपनी तर्कपूर्ण सफाई पेश की जानी चाहिए लेकिन जी हजूर पुलिसवालों ने या तो सत्तारुढ़ और मूढ़ नेताओं के इशारे पर उनके खिलाफ कार्रवाई कर दी या उनकी खुशामदबाजी के खातिर पोस्टरबाजों को गिरफ्तार कर लिया।
यदि गिरफ्तार ही करना था तो उन नेताओं को गिरफ्तार क्यों नहीं किया, जिन्होंने ये पोस्टर लगवाए थे या जो इनका समर्थन कर रहे हैं ? वास्तव में 6 करोड़ टीके सरकार ने उस समय दूसरे देशों को भेंट किए थे या बेचे थे, जब कोरोना की लहर भारत में एकदम उतरी हुई लग रही थी। उस समय तो किसी विरोधी नेता ने मुंह तक नहीं खोला था।अब जबकि भारत में विदेशों से करोड़ों टीके आ रहे हैं, हम अपने टीका-दान की निंदा कैसे कर सकते हैं ? लेकिन जो लोग हमारे टीका-दान पर सवाल खड़े कर रहे हैं, उन्हें गिरफ्तार करना तो बिल्कुल अनुचित है। दिल्ली पुलिस की यह सफाई हास्यास्पद है कि पोस्टरबाजों की गिरफ्तारी इसलिए की गई है कि वे तालाबंदी का उल्लंघन कर रहे थे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
अनुच्छेद 153:-प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा। अनुच्छेद: 154:- ‘‘राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा। (2) इस अनुच्छेद की कोई बात-(क) किसी विद्यमान विधि द्वारा किसी अन्य प्राधिकारी को प्रदान किए गए कृत्य राज्यपाल को अंतरित करने वाली नहीं समझी जाएगी; या (ख) राज्यपाल के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी को विधि द्वारा कृत्य प्रदान करने से संसद या राज्य के विधान-मंडल को निवारित नहीं करेगी।’’ मशहूर बौद्धिक चिंतक और समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने संविधान में राज्यपाल पद की स्थिति को देखते हुए कड़ी टिप्पणी की थी कि इन लाट साहबों की ज़रूरत ही क्या है?
ऐसे राजनेता भी राज्यपाल नियुक्त होते रहे हैं जिन्होंने सियासी हाराकिरी करने में कंजूसी नहीं बरती। आंध्रप्रदेश के राज्यपाल रामलाल ने एन.टी. रामाराव सरकार को बर्खास्त करने में हड़बड़ी और असंवैधानिकता दिखाई। केन्द्र की कांग्रेसी सरकार की जगहंसाई हुई। कर्नाटक के पी. वेंकटसुबैया ने राज्य विधानपरिषद में मनोनयन के तीन सदस्यों की राज्य सरकार का प्रस्ताव तीन महीने ठंडे बस्ते में डाले रखा। केरल की रामदुलारी सिन्हा ने कालिकट विश्वविद्यालय संबंधी राज्य शासन का अध्यादेश महीनों तक पढऩे की जहमत तक नहीं उठाई और बिना मंजूर किए वापस किया। रोमेश भंडारी ने त्रिपुरा के असाधारण पक्षपात, अदूरदर्शिता और गैरबुद्धिमत्ता की मिसाल कायम की। 1966 में केरल के तत्कालीन राज्यपाल अजित प्रसाद जैन के खुले आम इंदिरा गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता बनाने के लिए प्रचार करने से अपनी कुर्सी छोडऩी पड़ी।
शीला कौल और कुमुद बेन जोशी ने संवैधानिक कदाचार करने में पुरुषों को पीछे छोड़ दिया। शीला कौल के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों कुलदीप सिंह और फैजानुद्दीन की बेंच ने कहा उन्हें पदावनत हो जाना चाहिए। कुमुद बेन जोशी ने आंध्रप्रदेश के लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर पद की गरिमा की काफी छीछालेदर की। संतोषमोहन देव और कल्पनाथ राय के सर्वख्यात उदाहरण हैं। पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सावधानी, दूरदर्षिता और भविष्य दृष्टि का नायाब उदाहरण पेश करते अपने दोस्त तथा बंबई के गवर्नर श्रीप्रकाश को समझाईश दी कि वे रफी अहमद किदवई स्मृति स्मारक कोष से खुद को अलग रखें। उन्होंने आंध्रप्रदेश के गवर्नर वी.वी. गिरि को भी पत्र लिखा कि बहुत लंबी छुट्टियां नहीं लिया करें। ऐसा ही पत्र मध्यप्रदेश के गवर्नर एच.वी. पाटस्कर को भी लिखा। पंजाब के गवर्नर एन.वी. गाडगिल को भी डॉ. प्रसाद ने चेतावनी दी थी कि सार्वजनिक रूप से विवादग्रस्त राजनीतिक विषयों पर कोई बात नहीं कहें।
केरल के राज्यपाल वी. विश्वनाथन ने तो राज्य मंत्रिपरिषद द्वारा प्रस्तावित राज्यपाल के अभिभाषण का टेक्स्ट ही बदल दिया था। तमिलनाडु गवर्नर सुरजीत सिंह बरनाला ने अपना तबादला बिहार किया जाने पर ऐतराज किया। तो उनकी जगह कांग्रेस नेता भीष्मनारायण सिंह को राज्यपाल बना दिया गया। बिहार के राज्यपाल मोहम्मद यूनुस सलीम ने तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के कहने पर बिहार की लालू प्रसाद यादव सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश करने से मना कर दिया था। जनता दल सरकार में भी कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागू करने राज्यपाल भानुप्रताप सिंह का उपयोग किया गया। हरियाणा के गवर्नर जी.डी. तपासे ने देवीलाल को बहुमत सिद्ध करने के लिए विधायकों को लाने का निर्देश दिया लेकिन बिना प्रक्रिया पूरी हुए भजनलाल को मुख्यमंत्री बना दिया। जम्मू कश्मीर में जगमोहन का अलग अलग समय पर लगातार राजनीतिक इस्तेमाल होता ही रहा है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर ने अजय मुखर्जी मंत्रिपरिषद द्वारा तैयार राज्यपाल का अभिभाषण पढऩे से इसलिए इंकार कर दिया था क्योंकि उसमें केन्द्र की आलोचना के अतिरिक्त खुद धर्मवीर की उलाहना थी। यह बात उन्होंने अपने संस्मरणों की किताब में दर्ज की है।
राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल नियुक्त करने के लिए अनुच्छेद 74 के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह मानना आवश्यक है। लेकिन राज्यपाल को केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि, नुमाइंदा एजेन्ट या सेवक संविधान के अनुसार नहीं समझा जा सकता। उसकी संवैधानिक जवाबदेही संविधान की प्रतिज्ञा के अनुसार है, राष्ट्रपति या केन्द्रीय मंत्रिपरिषद के प्रति नहीं। केन्द्र की राजनीतिक विचारधारा, आदर्श आदि से सामंजस्य नहीं होने के आरोप पर पद से नहीं हटाया जा सकता। किसी मुद्दे पर केन्द्र और राज्य शासन की दृष्टियों में फर्क हो तो संवैधानिक मीमांसाओं को छोडक़र अन्य विवादास्पद मुद्दों पर राज्यपाल के लिए लाजि़मी होगा कि राज्य मंत्रिपरिषद की राय को तरज़ीह दे। राज्यपाल के द्वारा चलाए जा रहे प्रशासन में सहयोग और सहायता के लिए मंत्रिपरिषद होती है। राज्यपाल की मंजूरी के बिना विधानसभा कोई विधायन प्रभावशील नहीं कर सकती। आवश्यक होने पर वह पारित अधिनियमों को भी दुबारा विचार के लिए वापस कर सकता है। राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता के बिना भी राज्यपाल पर कई संवैधानिक जिम्मेदारियों का पालन करने का दायित्व है। सरकारिया आयोग ने राजनीतिज्ञों को यथासंभव राज्यपाल नहीं बनाए जाने की सिफारिशें की हैं।
राज्यपाल के विवेक पर एक विवादास्पद सवाल उत्तराखंड प्रदेश से आया था। कांग्रेस के नौ दागी विधायक ‘चौबे जी छब्बे बनते बनते दुबे बन गए।‘ अपील पर सुप्रीम कोर्ट टस से मस नहीं हुआ। कोर्ट की भृकुटि से लगा कि उत्तराखंड में राज्यपाल के कहने पर राष्ट्रपति शासन लगाना उसे गवारा नहीं था। महाराष्ट्र में विवाद था कि रांकापा के अजित पवार द्वारा 54 विधायकों के समर्थन की कथित चि_ी के कारण आनन फानन में राज्यपाल कोश्यारी ने मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस और उपमुख्यमंत्री अजित पवार को शपथ दिला दी।
न्यायमूर्तियों रमन्ना, अशोक भूषण और संदीप खन्ना की सुप्रीम कोर्ट के खुद के न्यायिक आचरण के पूर्व उदाहरणों से अलग हटने पर नहीं हो सकती थी। बहरहाल इस वजह से महाराष्ट्र की राजनीति की धुंध चौबीस घंटे में ही साफ हो गई। दिल्ली के लिए संशोधित अनुच्छेद 239-क क के संदर्भ में भी जस्टिस चंद्रचूड़ ने बेहतर लिखा कि राज्य मंत्रिपरिषद की शक्ति और दिल्ली विधानसभा की कार्यपालिका शक्ति को एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता।
अमित शाह तब गुजरात के मंत्री थे। उनको लेकर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सदाशिवन ने फैसला दिया जिससे अमित शाह षडय़ंत्र के आरोप से बरी हो गए। इसके तत्काल बाद उन्हें केरल का राज्यपाल बना दिया गया। अमित शाह ने केरल की कानूनसम्मत सरकार को धमकी दी वह गिरफ्तारियों को लेकर परहेज और नियंत्रण करे, वरना भाजपा कार्यकर्ता केरल की सरकार की ईंट से ईंट बजा देंगे। राजनीतिक पार्टी के द्वारा सरकार को उखाड़ फेंकने की धमकी देना कैसे संविधानसम्मत है? राज्यपाल सदाशिवन फिर भी चुप रहे।
संविधान में यही प्रावधान है कि राज्यपाल अपनी सरकार की कार्यवाहियों में किए जा रहे विलोप को राष्ट्रपति को सूचित करते रहेंगे। इस लिहाज से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संवैधानिक कर्तव्यों से स्वयमेव संबद्ध हो जाते हैं। वे फिर भी चुप हैं। राज्यपाल धनकड़ कलकत्ता हाईकोर्ट की संविधान पीठ के सामने बंगाल की चुनावी हिंसा के मामले की सुनवाई और टिप्पणी के बावजूद बंगाल के क्षेत्राधिकार के बाहर असम का दौरा क्यों कर रहे हैं? लगता है बंगाल को संवैधानिक युद्ध का कुरुक्षेत्र बनाया जा रहा है। जो संविधान के आड़े आएगा, संविधानविरोधी आचरण करता कहलाएगा। संविधान और उसकी मर्यादाओं की रक्षा करना राज्यपाल का पदेन कर्तव्य है। अन्यथा पद पर बने क्यों रहें? संविधान संलिष्ट, विरोधाभासी और अंतर्संबंध प्रावधानों का कुतुबनुमा है। मुख्यधारा से रिटायर राजनीतिज्ञों को डॉ. लोहिया के जुमले में लाट साहबी की आसंदी सौंपने की फितरतें होती ही रहती हैं। ‘नागनाथ गए तो सांपनाथ आए,‘ या ‘गुड़ खाएं, गुलगुले से परहेज़ करें‘ जैसी कहावतों का बाज़ार गर्म होता रहता है। केन्द्र सरकार के पास जादू की पुडिय़ा और अदृश्य छड़ी होती है। मंत्रिपरिषदों को राज्यपालों से भिड़ा दिया जाता है। मीडिया प्रबंधन तो मोदी युग की सबसे बड़ी उपलब्धि है ही।