विचार/लेख
-विकास कुमार
इजरायल और फिलिस्तीन का संघर्ष लगभग 73 वर्ष पुराना है। आज तक यह विवाद सुलझ नहीं पाया। महाशक्तियां इसमें अपना -अपना राष्ट्रीय हित देखती हैं। जिस कारण से आज पश्चिमी एशियाई देशों में अस्थिरता बनी हुई है। दोनों देशों के मध्य विवाद के चलते तनाव के कारण युद्ध होते रहते हैं। युद्ध किसी भी जाति, समुदाय, वर्ग एवं देश के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानवता के विरुद्ध है। आधुनिकता में युद्ध की रणनीति में भी परिवर्तन हुआ है। तकनीकी और प्रौद्योगिकी के विकसित स्वरूप में एक क्षण में करोड़ों लोगों को मारा जा सकता है। इसे रोकने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समझौते हुए, परंतु महाशक्तियों के एकल रवैया के कारण यह संपन्न नहीं हो सका। युद्ध में कई परिवार बर्बाद हो जाते हैं, बच्चे अनाथ हो जाते हैं, महिलाएं विधवा हो जाती हैं, और राष्ट्रीय विकास और चरित्र निर्माण का स्तर भी कमजोर हो जाता है।
इजरायल और फिलिस्तीन के बीच पिछले कुछ दिनों से ऐसे ही युद्ध चल रहे हैं। दोनों देशों में भयावह स्थिति हैं। बच्चे चीख चिल्ला रहे हैं , लोग बेघर हो गए हैं, घायल और पीड़ित तड़प रहे हैं, दैनिक जीवन से जूझता कामगार वर्ग छिपा बैठा है और कर्मचारी काम छोड़कर अपनी जान बचाने में लगा है। आख़िर यह बर्बादी का रास्ता मानवता को किस ओर ले जा रहा है। हम भविष्य की पीढ़ियों को क्या सीख दे कर जा रहे हैं? यह बातें सभी महत्वकांक्षीयों के समझ के परे हैं। इन देशों के विवाद का मूल कारण येरूशलम (तकरीबन 35 एकड़ क्षेत्र) है। जो ईसाई, यहूदी एवं मुस्लिम तीनों धर्म का पवित्र एवं प्रमुख क्षेत्र माना जाता है।
तीनों धर्म - मतावलंबियों के लिए यह तीर्थ स्थल है। प्रथम विश्व युद्ध (1914 - 1918) एवं द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) मैं यूरोप में अशांति और अस्थिरता के चलते भारी संख्या में यहूदियों ने इस क्षेत्र में आकर बसना प्रारंभ किया। यह क्षेत्र अरब क्षेत्र का भाग था। जब दोनों में संघर्ष चलने लगा, 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रस्ताव -181 पारित किया और फिलिस्तीन तथा इजरायल नामक दो राज्यों की घोषणा कर दी। इस प्रस्ताव से अरब देश नाखुश थे, मिश्र के नेतृत्व में इजरायल पर हमला कर दिया। यह विवाद तभी से बढ़ता चला गया, जो आज तक तनाव की स्थिति में बना हुआ है।
इजरायल के सुप्रीम कोर्ट ने रविवार को फिलिस्तीन परिवारों को सीमा क्षेत्र से बाहर करने का एक प्रस्ताव पारित किया। क्योंकि रमजान के चलते अलअक्सा मस्जिद में नमाज के लिए बहुत लोग एकत्रित हुए थे ,जिन्होंने इस प्रस्ताव का विरोध किया। सूत्रों के मुताबिक इस क्षेत्र में हिंसात्मक हमला भी किया। दूसरे पक्ष में इजरायल प्रत्येक वर्ष 10 मई को येरूशलम दिवस मनाता है, जिसमें हमास की ओर से आक्रमण किया गया। जिसके प्रतिउत्तर में इजरायल ने फिलिस्तीन पर हमला कर दिया। युद्ध अभी भी जारी है, जिसमें 80 से अधिक लोगों की जाने गई और 350 से अधिक लोग घायल हैं। इसमें बच्चे ,महिलाएं एवं बुजुर्ग आदि शामिल हैं।
इजरायल एक तकनीकी संपन्न देश है जिसके तकनीकी मिसाल पूरी दुनिया मानती है। हमास द्वारा छोड़े गए मिसाइल और रॉकेट को इजरायल के 'आयरन डोन' ने हवा में ही मार गिराया। इस युद्ध में अरब देश एवं अन्य मुस्लिम देशों के सम्मिलित होने की संभावना है। तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगान ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान से इस संबंध में बात करते हुए फिलिस्तीन का साथ देने को कहा । जिसमें इस्लामिक सहयोग संगठन (1969) की इमरजेंसी मीटिंग बुलाने के लिए भी कहा गया। उधर लेबनान ने भी इजरायल के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है। तुर्की के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन से बात करते हुए फिलिस्तीन सहयोग की आशा जताई है। ऐसे में एक पक्ष यह बन रहा है कि क्या यह युद्ध दो गुटों में परिवर्तित हो जाएगा? क्योंकि इसमें आशंका नहीं है कि अमेरिका एवं अन्य कई यूरोपीय देश इजरायल के पक्ष में हैं। यही कारण है कि अमेरिकन राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा की युद्ध जल्दी समाप्त होने चाहिए, परंतु इजरायल ने जो आक्रमण किया वह आत्म रक्षा हेतु था। इस संबंध में यही प्रतीत होता है कि आर्मेनिया और अजरबैजान जैसे विवाद की तरह इसमें भी सभी देश अपना हित देख रहे हैं।
इजराइल के राष्ट्रपति बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा कि अभी तो शुरुआत है , हम उसे इतना तबाह कर देंगे कि भविष्य में आक्रमण करना भूल जाएंगे। प्रतिदिन कई मिसाइल और रॉकेट फिलिस्तीन में दागे जा रहे हैं। हमास भी इजराइल में लगातार आक्रमण कर रहा है। परंतु इजरायल तकनीकी एवं सैन्य सामग्री से अधिक संपन्न है। यही कारण रहा कि 1967 में (सिक्स डेज वार )एवं 2005 में लेबनान के विरुद्ध युद्ध में वह जीता। जब 1967 में इजरायल ने फिलिस्तीन की कई एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया। इस जमीन को छोड़ने को तैयार नहीं है और वहां स्थाई बस्तियां भी निर्मित कर दी थी। 1993 में इजरायल एवं 'फिलिस्तीन मुक्त संगठनों' के बीच ओस्लो शांति समझौता हुआ। इस समझौते में यह प्रावधान किया गया कि कब्जा किए गए सभी अवैध क्षेत्र वापस कर दिए जाएंगे। दोनों देश शांति के साथ रह सकेंगे। इसी बीच हमास (1987) संगठन ने इसका विरोध करते हुए इजरायल के विरुद्ध सर्वनाश की जंग छेड़ दी। दोनों के मध्य आपसी संघर्ष चलते रहे।
इजराइल सीमा में बनी फिलिस्तीन बस्तियों पर सैन्य हमला करता रहता है तो हमास इजरायल में। विगत 5 दिनों से इस युद्ध में फिलिस्तीन और इजरायल में भयावह स्थिति बनी हुई है। फिलिस्तीन में लगभग 80 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई है। जिसमें 17 बच्चे शामिल हैं। यह स्थिति कब तक बनी रह सकती है, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया जा सकता। क्योंकि दोनों के मध्य विवाद की जड़ पुरानी है और तनाव की स्थिति अधिक है। इजरायल का मानना है कि 1967 के पहले के प्रावधान को नहीं मानेगा, क्योंकि वर्तमान स्थिति कुछ दूसरी है। उसका यह भी कहना है कि फिलिस्तीन से गए हुए शरणार्थी वापस फिलिस्तीन नहीं आएंगे और नाही भविष्य में वह अपनी सेना रख सकता है। यह मत पूर्णतया कट्टरवादी प्रतीत होता है। इस संबंध में भारत का मत बहुत ही स्पष्ट है।
भारत का कहना है कि दोनों देशों के आपसी शांति और सुलह से यह विवाद का निपटारा हो सकेगा। यही कारण रहा कि 2017 में भारतीय प्रधानमंत्री ने जब इजरायल की यात्रा की तो वहीं 2018 में उन्होंने फिलिस्तीन की यात्रा भी की। फिलिस्तीन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सर्वोच्च सम्मान 'ग्राउंड कलर ऑफ द स्टेट आफ पलेस्टाइन' से सम्मानित किया गया। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और महाशक्तियों को चाहिए कि इसमें निष्पक्ष रूप से न्यायोचित तरीका अपनाकर निर्णय निर्मित करें। सर्वप्रथम तो दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों को युद्ध स्थगित कर देना चाहिए। युद्ध स्थगित के लिए सभी देशों को दबाव डालना चाहिए , क्योंकि इससे निर्दोष लोगों की जानें जा रही हैं। इस समस्या के समाधान का भी व्यावहारिक तरीका ढूंढना चाहिए। कट्टरवाद, हठधर्मिता और गलत रणनीति अपनाकर निपटारा नहीं किया जा सकता। युद्ध जब किसी देश में होते हैं तो आसपास के नागरिक भी इससे प्रभावित होते हैं और वह एक देश से निकाल कर दूसरे देश की ओर जाते हैं। युद्ध और हिंसात्मक तरीका कभी भी सन्मार्ग पर नहीं ले जा सकता।
(रिसर्च स्कॉलर केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक)
-डॉ राजू पाण्डेय
हमारे देश में चल रहे कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम की विसंगतियों को समझने के लिए सरकार और मीडिया द्वारा लगातार दुहराए जाने वाले कुछ कथनों का सच जानना आवश्यक है। आदरणीय प्रधानमंत्री जी अपने संबोधनों में बारंबार दो स्वदेशी वैक्सीन्स का जिक्र करते रहे हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। केवल भारत बॉयोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन को ही स्वदेशी वैक्सीन कहा जा सकता है। कोविशील्ड वैक्सीन तो ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका का भारतीय संस्करण मात्र है। दूसरी बात यह है कि जब हम स्वदेशी वैक्सीन्स का जिक्र करते हैं तो इससे यह ध्वनित होता है कि इन वैक्सीन्स के निर्माता भी भारत सरकार के उपक्रम हैं जिन पर सरकार का प्रत्यक्ष नियंत्रण है। किंतु स्थिति ऐसी नहीं है। अधिक उपयुक्त होता यदि प्रधानमंत्री जी "स्वदेशी पूंजीपतियों की निजी कंपनियों द्वारा निर्मित दो वैक्सीन्स" जैसी किसी अभिव्यक्ति का प्रयोग करते। गांधी जी के युग से स्वदेशी शब्द ने अनेक अर्थ धारण किए हैं और अब मोदी काल में स्वदेशी शब्द कुछ चुनिंदा पूंजीपतियों के औद्योगिक साम्राज्य का पर्यायवाची बनता जा रहा है।
वास्तविकता यह है कि इस भयानक वैश्विक महामारी की विनाशक दूसरी लहर के दौरान हमारे विशाल देश का कोविड-19 टीकाकरण अभियान अब तक दो प्राइवेट निर्माताओं पर आश्रित है। स्वाभाविक रूप से इनकी व्यवसायिक प्राथमिकताएं एवं प्रतिबद्धताएं हैं।
आश्चर्यजनक रूप से वैक्सीन निर्माण से जुड़े भारत सरकार के उपक्रमों को कोविड-19 हेतु वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया से बाहर रखा गया है। हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए इस बात पर घोर आश्चर्य व्यक्त किया था कि एचएलएल बायोटेक लिमिटेड इंटीग्रेटेड वैक्सीन काम्प्लेक्स चेंगलपट्टू तमिलनाडु का उपयोग ऐसी विषम परिस्थिति में भी कोरोना वैक्सीन के निर्माण हेतु क्यों नहीं किया जा रहा है। माननीय न्यायालय ने आश्चर्यपूर्वक कहा- "यह उच्चस्तरीय अत्याधुनिक सुविधाओं वाली केवल वैक्सीन का ही निर्माण करने वाली इकाई है। इस काम्प्लेक्स को राष्ट्रीय महत्व का प्रोजेक्ट माना जाता है। इसकी अनुमानित लागत 594 करोड़ है। बावजूद इन विशेषताओं के पिछले 9 वर्षों से इसे उपयोग में नहीं लाया जा सका है।"
माननीय न्यायालय ने आगे कहा-" एक बात साफ है, सरकार वर्तमान में कोविड वैक्सीन्स निजी निर्माताओं(कोवैक्सीन- भारत बॉयोटेक और कोविशील्ड -सीरम इंस्टीट्यूट) से प्राप्त कर रही है। इसका अर्थ यह है कि भारत सरकार के वैक्सीन निर्माण करने वाले संस्थानों का जरा भी उपयोग नहीं किया गया है।- हमारी पीड़ा यह है कि जब सरकार के पास खुद के वैक्सीन निर्माण संस्थान हैं तब इन मृतप्राय पब्लिक सेक्टर यूनिट्स को पुनर्जीवित कर इनका सार्थक उपयोग किया जाना चाहिए जिससे कि सरकार सभी नागरिकों तक टीका पहुंचा सके।"
एक सहज सवाल जो हम सब के मन में है वह माननीय न्यायालय ने भी पूछा- "यदि कोवैक्सीन को भारत बॉयोटेक ने इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के सहयोग से विकसित किया है तो फिर इसका उत्पादन सरकारी वैक्सीन निर्माण संस्थानों को छोड़कर एकमात्र निजी संस्थान में क्यों हो रहा है?"
ऐसा नहीं है कि राज्यों के मुख्यमंत्री इन सरकारी वैक्सीन इंस्टीट्यूट्स को कोविड-19 वैक्सीन निर्माण में लगाने की मांग नहीं कर रहे हैं। मीडिया में आई खबरों के अनुसार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री जी के साथ 17 मार्च की वीडियो कांफ्रेंस में राज्य के स्वामित्व वाले हॉफकिन इंस्टीट्यूट ऑफ मुम्बई को कोवैक्सीन की टेक्नोलॉजी के स्थानांतरण हेतु अनुरोध किया था किंतु प्रधानमंत्री जी से उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला था।
सरकारी क्षेत्र के अनेक टीका निर्माता संस्थान हमारे देश में हैं। तमिलनाडु में ही बीसीजी वैक्सीन लेबोरेटरी,पॉश्चर इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया जैसे संस्थान भी हैं, जबकि हिमाचल प्रदेश में सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट, उत्तरप्रदेश में भारत इम्युनोलॉजिकल्स एंड बायोलॉजिकल्स कारपोरेशन लिमिटेड एवं तेलंगाना में ह्यूमन बायोलॉजिकल्स इंस्टीट्यूट भी वैक्सीन निर्माण के सरकारी संस्थान हैं।
रिपोर्ट्स के अनुसार अब जाकर 16 अप्रैल 2021 को भारत सरकार ने वैक्सीन निर्माण हेतु तीन पीएसयू को अनुमति देने की योजना बनाई है। किंतु अब भी स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन आने वाली तीन बेहतरीन वैक्सीन निर्माता सरकारी कंपनियां इस सूची से बाहर हैं।
अमेरिका और इंग्लैंड की सरकारें अपने देश में उत्पादित हो रही वैक्सीन्स को केवल घरेलू उपयोग के लिए सुरक्षित रख रही हैं। यूरोपीय संघ भी अपने सदस्य देशों द्वारा उत्पादित वैक्सीन्स को इन देशों के मध्य ही वितरित कर रहा है। चीन ने कोविड वैक्सीन का निर्यात किया है किंतु वह इसका सबसे बड़ा उत्पादक भी है, वहाँ कोविड-19 संक्रमण नियंत्रित है और शायद वह वैक्सीन उपलब्ध करा कर इस वायरस के प्रसार हेतु खुद को उत्तरदायी ठहराए जाने से बिगड़ी छवि को सुधारना भी चाहता है। प्रसंगवश यह उल्लेख भी कि अधिकांश विकसित देश वैक्सीन निर्माता कंपनियों को वैक्सीन के प्री आर्डर 2020 के मध्य में ही दे चुके थे। अनेक विकसित मुल्क तो अपनी आबादी को दो बार वैक्सीनेट करने लायक संख्या में वैक्सीन के आर्डर दे चुके हैं। इन देशों ने कोविड की विनाशक पहली और दूसरी लहर का बारीकी से अध्ययन कर टीकाकरण के महत्व को समझा है।
अपने देश में उत्पादित वैक्सीन को अन्य देशों को उपलब्ध कराने वाला दूसरा देश भारत है। प्रधानमंत्री जी ने 28 जनवरी 2021 को वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में कहा था- "आज भारत, कोविड की वैक्सीन दुनिया के अनेक देशों में भेजकर, वहां पर टीकाकरण से जुड़ी अधोसंरचना को तैयार करके, दूसरे देशों के नागरिकों का भी जीवन बचा रहा हैऔर ये सुनकर वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में सभी को तसल्ली होगी कि अभी तो सिर्फ दो मेड इन इंडिया कोरोना वैक्सीन्स दुनिया में आई हैं, आने वाले समय में कई और वैक्सीन भारत से बनकर आने वाली हैं।ये वैक्सीन्स दुनिया के देशों को और ज्यादा बड़े स्केल पर, ज्यादा स्पीड से मदद करने पूरी तरह सहायता करेंगी।"
विदेश मंत्री जी ने 17 मार्च 2021 को राज्यसभा में और स्वास्थ्य मंत्री जी ने 9 अप्रैल 2021 को कोविड-19 पर हुई मंत्री समूह की बैठक में प्रधानमंत्री जी की दूरदर्शिता और मार्गदर्शन की प्रशंसा करते हुए उनके निर्देश पर चलाई जा रही वैक्सीन मैत्री पहल की प्रगति का विवरण दिया। विदेश मंत्रालय का 22 अप्रैल का आंकड़ा बताता है कि भारत 94 देशों को 6 करोड़ 60 लाख वैक्सीन दे चुका है।
इस विवरण में तारीखों का उल्लेख इसलिए कि यही वह कालखंड था जब कोरोना के नए वैरिएंट्स हमारे देश में अपने पैर पसार रहे थे और कोरोना की दूसरी लहर धीरे धीरे रूपाकार ले रही थी। यदि तब इन वैक्सीन्स का उपयोग हमारे देश में हुआ होता तो शायद दूसरी लहर इतनी भयानक नहीं होती। दूसरे देशों को भेजी गई वैक्सीन्स की यह संख्या हमारे दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों को संक्रमण रोधी कवच पहना सकती थी।
वैसे कहा तो यह भी जा रहा है कि इन 6 करोड़ 60 लाख वैक्सीन में से एक बड़ी संख्या एसआईआई के पिछले कमिटमेंट्स को पूर्ण करने के लिए भेजी गई थी जो उसने कोवैक्स अलायन्स के कॉन्ट्रैक्ट के तहत किए थे। केवल 1 करोड़ 6 लाख 10 हजार वैक्सीन्स ही ग्रांट्स के तहत भेजी गई थीं। प्रदर्शनप्रिय भारतीय सरकार का अन्तरराष्ट्रीयतावाद भी खालिस नहीं था।
भारत को विश्व गुरु बनाना तो नहीं अपितु खुद को विश्व नेता के रूप में प्रस्तुत करना आदरणीय प्रधानमंत्री जी का लक्ष्य रहा है और उन्होंने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को हमारे विकासशील देश पर इस तरह आरोपित कर दिया है कि आज देश जीवनरक्षक वैक्सीन की उपलब्धता के संकट से जूझ रहा है।
शायद प्रधानमंत्री जी को सच बताया नहीं गया। यह भी संभव है कि अब वे सच से परहेज करने लगे हों जिससे उनकी आत्म मुग्धता का रचा आभासी संसार कायम रह सके, सत्य का ताप उसे वाष्पित न कर पाए।
सर्वोच्च अधिकारियों द्वारा सरकार को लगातार गलत परामर्श दिए जाते रहे। दिसंबर 2020 में कोरोना से लड़ाई में सरकार के मजबूत स्तम्भ डॉ वी के पॉल (जो स्वयं एक पीडियाट्रिशियन हैं, न कि महामारी विशेषज्ञ) ने सरकार को बताया था कि हमें केवल 15 करोड़ वैक्सीन्स की जरूरत पड़ेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव श्री राजेश भूषण हाल के दिनों तक कहते रहे हैं कि हम उन्हें ही वैक्सीनेट करेंगे जिन्हें इनकी जरूरत है न कि उन्हें जो वैक्सीन लगाना चाहते हैं। स्थिति के आकलन की यह चूक भयंकर,आश्चर्यजनक और दुुःखद है।
कोविड-19 की वैक्सीन के निर्माण की वर्तमान रणनीति प्रचलित सीजनल इन्फ्लूएंजा वैक्सीन निर्माण क्षमता का त्वरित उपयोग कोविड-19 वैक्सीन के उत्पादन हेतु करने की योग्यता पर आधारित है। भारत में सीजनल इन्फ्लूएंजा वैक्सीन का बाजार बहुत कम है। यह यूरोपीय देशों और अमेरिका में फैला हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2005 में यह अनुभव किया कि वैश्विक महामारी के प्रसार की स्थिति में विश्व में वैक्सीन की कमी पड़ सकती है। यही कारण है कि उसने इन्फ्लुएंजा वायरसेस के लिए ग्लोबल एक्शन प्लान(2006-2016) प्रारंभ किया। इस कारण वैश्विक महामारी हेतु वैक्सीन निर्माण की क्षमता तो बढ़ी किंतु इस वृद्धि से वैक्सीन उत्पादन की असमानता यथावत रही। अभी भी उच्च आय वर्ग वाले विकसित देश लगभग 69 प्रतिशत इन्फ्लूएंजा वैक्सीन का उत्पादन कर रहे हैं जबकि निम्न और मध्यम आय वर्ग के देशों में इस प्रकार की वैक्सीन का उत्पादन 17 प्रतिशत के आसपास है। भारत की तीन कंपनियां इन्फ्लूएंजा वैक्सीन का उत्पादन करती हैं। इनमें से सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया सबसे प्रमुख है। शेष दो जाइडस कैडिला और सीपीएल बायोलॉजिकल्स प्राइवेट लिमिटेड हैं।
यदि मोदी सरकार ने उत्पादन क्षमता और संभावित मांग-आपूर्ति का आकलन किया होता तो उसे यह आसानी से समझ में आ जाता कि हमारी क्षमता अपनी खुद की आबादी को भी वैक्सीनेट करने की नहीं है। जिन दो उत्पादकों पर उसने भरोसा किया है- भारत बॉयोटेक और एसआईआई- वे समूचे देश की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। हमने विदेशी वैक्सीन निर्माताओं को अपने देश में आने नहीं दिया। स्वास्थ्य मंत्री जी ने फाइजर की भारत में वैक्सीन निर्माण की क्षमताओं पर सवाल उठाए।
सरकार के सामने दो विकल्प थे- स्वयं वैक्सीन का उत्पादन करना अथवा अधिकाधिक निजी वैक्सीन निर्माताओं को मैदान में उतारना। वर्तमान सरकार तो पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स को बेचने पर आमादा है, उससे यह कम ही आशा थी कि वह सारी सरकारी टीका कंपनियों को पुनर्जीवित करेगी।
सरकार का निर्णय बताता है कि संकीर्ण राष्ट्रवाद और देशी पूंजीपतियों को संरक्षण देने की प्रवृत्ति साथ साथ चलते हैं। सरकार चाहती तो देश के सम्पन्न लोगों को वैश्विक अर्थव्यवस्था के लाभ मिल सकते थे। विदेशी वैक्सीन निर्माता कंपनियों के प्रवेश के बाद कम कम से आर्थिक रूप से सक्षम लोगों के पास अलग अलग प्रकार की वैक्सीन्स में से चुनने का अवसर उत्पन्न होता, शायद प्रतिस्पर्धा के कारण वैक्सीन की कीमतें भी नियंत्रित होतीं।
इसके साथ साथ यदि सरकारी क्षेत्र के उपक्रम भी टीके का उत्पादन करने लगते तब निजी कंपनियों पर और दबाव बनता तथा कीमतें काबू में रहतीं। यदि ऐसा नहीं भी होता तब भी कम से कम देश के निर्धन वर्ग को समय पर मुफ्त वैक्सीन मिलने की गारंटी होती।
प्रधानमंत्री जी ने अदार पूनावाला के सीरम इंस्टीट्यूट का दौरा कर पता नहीं देश के लोगों को क्या संदेश देने की कोशिश की थी। लेकिन इसके बाद मीडिया ने पूनावाला को एक राष्ट्रभक्त धनकुबेर के रूप में प्रस्तुत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। यदि प्रधानमंत्री जी भी कुछ ऐसा ही जाहिर करना चाहते थे तो बाद के घटनाक्रम ने इस झूठ को उजागर कर दिया। अदार पूनावाला अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं को ऊपर रखते दिखे। सरकार ने उन्हें राज्यों और प्राइवेट अस्पतालों को मनचाही कीमत पर वैक्सीन बेचने का अवसर भी प्रदान किया। वे उस अवसर का आनंद भी लेते किंतु वे यह भूल गए थे कि व्यापारियों का भला इसी में है कि वे राजनीतिज्ञों से दूरी बनाए रखें। वैक्सीन की कमी से बौखलाए राजनेताओं का दबाव उन पर भारी पड़ा और अब वे देश से बाहर हैं।
बहरहाल अभी स्थिति यह है कि देश में टीकाकरण कार्यक्रम विसंगतियों और खामियों सर्वश्रेष्ठ संकलन बना हुआ है। सरकार को शायद डिजिटलीकरण के सरकारी आंकड़ों पर ज्यादा यकीन है न कि जमीनी हकीकत पर। यही कारण है कि वैक्सीनेशन के लिए ऑन लाइन पंजीयन अनिवार्य बनाया जा रहा है। यह ग्रामीण भारत और निर्धन भारत को वैक्सीनेशन से दूर कर सकता है। लेकिन विडंबना तो यह है कि क्रैश होते कोविन पोर्टल पर उस वैक्सीन के रजिस्ट्रेशन की मारामारी है जो स्टॉक में है ही नहीं। वैक्सीन की भारी कमी के बीच प्रधानमंत्री जी की प्रेरणा से हम 11-14 अप्रैल के बीच टीका उत्सव मना चुके हैं और अब जब टीकों का नितांत अभाव है तब हमने 1 मई से 18-44 वर्ष आयु वर्ग के लोगों का टीकाकरण शुरू कर दिया है। यह तय नहीं है कि जो 50 प्रतिशत वैक्सीन सीधे कंपनियों से खरीदी जानी है उसमें राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों की कितने प्रतिशत की हिस्सेदारी होगी। निजी अस्पताल वैक्सीन निर्माताओं को ज्यादा दाम देंगे। कहीं यह स्थिति न बन जाए कि राज्य सरकारों के पास इसलिए टीके न हों क्योंकि टीका निर्माता ने ज्यादा मुनाफा देखकर निजी अस्पतालों को टीके बेच दिए हैं।
अब तो स्थिति यह है कि पंजाब, उड़ीसा जैसे अनेक राज्य कोवैक्स अलायन्स जॉइन करने और ग्लोबल टेंडर करने की बात कर रहे हैं। वैश्विक महामारी के दौर में हमारा देश बंट रहा है।
कुछ बुद्धिजीवी और कानूनविद लगातार यह आपत्ति उठाते रहे हैं कि हमारा टीकाकरण कार्यक्रम जीवन के अधिकार का सम्मान नहीं करता। जीवन का अधिकार एक सार्वभौमिक अधिकार है, हर व्यक्ति को चाहे वह किसी भी जाति,धर्म,सम्प्रदाय या लिंग का हो, चाहे वह निर्धन या धनी हो, उसे यह अधिकार प्राप्त है। हमारा टीकाकरण कार्यक्रम तो अलग अलग लोगों के जीवन की अलग अलग कीमत लगा रहा है। यदि टीके का एक मूल्य भी होता तब भी अलग अलग आर्थिक स्थिति के लोगों पर यह मूल्य पृथक पृथक प्रभाव डालता। इसीलिए मुफ्त टीकाकरण आवश्यक है। यह तभी संभव है जब सरकार टीकों का उत्पादन और वितरण खुद करे।
सरकार चलाने वाले नेता और नौकरशाह बड़ी हिकारत से इन तर्कों को सुन रहे हैं- बीते युग के घिसे पिटे कान पकाऊ तर्क!
इधर लोग हताश हैं, घबराए हुए हैं, मौत का तांडव जारी है। सचमुच इस निर्मम समय में मानव जीवन से सस्ता और महत्वहीन कुछ और नहीं।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
-प्रकाश दुबे
शहाबुद्दीन के समर्थकों ने राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद के बिहार के सिवान में पुतले जलाए। खबर है कि उनका गुस्सा ठंडा करने के लिए राजद नेता तेजस्वी आजकल में सिवान पहुंचेंगे। शहाबुद्दीन ने जवाहर लाल नेहरू विवि के मेधावी अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या करा दी थी। भूपतियों-जमींदारों की शह पर शहाबुद्दीन गुंडई करता था। भूमिहीनों की पक्षधरता के कारण चंद्रशेखर को जान गंवानी पड़ी। जेल और घर के बीच आवाजाही के अभ्यस्त शहाबुद्दीन के इशारे पर दूकान पर कब्जा करने पहुंचे गुंडों का चंदा बाबू के छोटे व्यापारी ने विरोध किया। उसके दो बेटों को तेजाब से नहला कर मारा गया। तीसरे भाई को गोली मारी ताकि वह गवाही न दे सके। जेल में ऐश कर रहे शहाबुद्दीन के प्यादे के कहने पर पत्रकार राजदेव रंजन ने मनपसंद खबर छापी थी। उसकी भी हत्या हुई। शहाबुद्दीन इन दिनों तिहाड़ जेल में था। चंदा बाबू के बेटों की हत्या के मुकदमे में उसे फांसी की सजा सुनाई गई थी। शहाबुद्दीन के खिलाफ करीब तीन दर्जन मामले विचाराधीन हैं। कोरोना संक्रमण के कारण 20 अप्रैल को तिहाड़ जेल से ले जाकर दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल में भर्ती किया गया था। उसकी एक मई 2021 को मौत हुई। सिवान के सुल्तान को अपने गांव प्रतापपुर में दो गज जमीन भी न मिली। दिल्ली में ही कोरोना नियमों का पालन करते हुए दफनाया गया। बरसों बिहार के मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री रहे लालू प्रसाद 19 मार्च 2018 से जेल में थे। चारा घोटाले में सीबीआई अदालत ने उन्हें एक मामले में सजा सुनाई। बाकी मामले अदालत में हैं। 29 अप्रैल को रिहाई के बाद लालू प्रसाद ने कहा-शहाबुद्दीन की मौत मेरी निजी क्षति है। जेल में रहते हुए शहाबुददीन राजद के माननीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजनीतिक लिप्तता का जिक्र कर उनके जन्नतनशीन होने की दुआ की।
शहाबुद्दीन विधायक और कई बार राजद सांसद रहा। मृतक के बारे में बुरा नहीं कहने का रिवाज़ है। सिवान में सुल्तान की सल्तनत कैसे चलती रही? पुलिस महानिदेशक ने उसके दाउद इब्राहीम और आइएसआइ के संपर्कों की रपट दी। राबिनहुड कहे जाने पर वह प्रसन्न होता। लालू प्रसाद के राज में उसका सिवान में ऐसा दबदबा था जो भारत के राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद को नसीब नहीं हुआ। प्रथम राष्ट्रपति सिवान के जीरादेई में पैदा हुए थे। उनकी देश भर में प्रतिमाएं होंगी। सिवान में सुल्तान की मूर्ति उभारने की तैयारी शुरु है। नीतीश-लालू की मिली जुली सरकार में अदालत के आदेश पर शहाबुद्दीन सिवान जेल में था। बिहार सरकार के मंत्री अशोक चौधरी उनसे जेल में मिलने गए। चाय नाश्ता किया। सुल्तान के पिट्टू ने पत्रकारों को मोबाइल पर तस्वीरें भेजीं। तस्वीर के साथ खबर छपने पर रुतबा जगजाहिर होता। दैनिक हिंदुस्तान में पत्रकार राजदेव की खबर छपी। दांव उल्टा पड़ा। हत्या का अपराधी ऐश कर रहा है। राजदेव को धमकाया। बुलाया। डरकर नहीं गया। एक दिन शाम को उसे सिवान में सरेआम गोली मार दी। पत्रकार की मौत ने तूल पकड़ा। भारतीय प्रेस परिषद ने दो सदस्यों की जांच समिति बनाई। समिति ने सिवान पहुंचकर पत्रकारों से बात की। करीब सौ पत्रकार पहुंचे। पुलिस और प्रशासन के लोगों को बाहर कर दिया गया। सबने राजदेव की पत्रकारिता की तारीफ की। उसके परिवार को मुआवजा देने की सिफारिश की। बार बार पूछने के बावजूद हत्यारे और असली सरगना की जानकारी देने का साहस किसी ने नहीं किया।
जांच दल ने कलेक्टर और जिला पुलिस अधीक्षक से बात की। मासूमियत भरा उनका जवाब-मंत्री के जेल दौरे की हमें सूचना नहीं थी। लताड़ पिलाने पर कहा-आप लोग इलाके से वाकिफ नहीं हैं। विधि-व्यवस्था बनाए रखने की हम भरसक कोशिश करते हैं। जांच दल के सदस्यों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलकर जानकारी दी। आश्वासन मिला-कानून का मखौल नहीं उड़ाने दिया जाएगा। प्रेस परिषद की तीखी रपट आने तक कैदी शहाबुद्दीन सिवान से भागलपुर जेल रवाना किया गया। गंगाजल (इस पर फिल्म बनी है) के लिए कुख्यात भागलपुर जेल के नाम से अपराधियों की रूह कांपती है। आधी रात के बाद कड़े बंदोबस्त में कैदी का वाहन गंगा का पुल कर भागलपुर में प्रवेश करने लगा तब स्थानीय विधायक समेत समर्थकों की भीड़ अपने हीरो-राबिनहुड का स्वागत करने मौजूद थी। बमुश्किल पुलिस उसे जेल के अंदर ले गई। राजदेव रंजन की हत्या के सिलसिले में माफिया का दाहिना हाथ लड्डन मियां और पांच अन्य लोग गिरफ्तार हुए। रोहित नाम के अभियुक्त ने स्वीकार किया-मैंने गोली दागी थी। दो फरवरी 2021 को अदालत में नरेन्द्र कुमार की गवाही थी। नरेन्द्र शहाबुद्दीन का निजी सहायक था। जेल का साथी। अदालत में बातचीत का रिकार्ड मय मोबाइल नंबर पेश किया गया। नरेन्द्र मुकर गया। कहा-मुझे नहीं मालूम कि यह किसका (शहाबुद्दीन) का मोबाइल नंबर है। पुलिस पहले भी जेल में शहाबुद्दीन के मोबाइल, हथियार आदि जब्त करती रही है। नरेन्द्र 20 वां गवाह था। उससे पहले दो गवाह मुकर चुके हैं। प्रेस परिषद की जांच समिति के मेरे साथ दूसरे सदस्य अमरनाथ कोसुरी का 20 अप्रैल को कोरोना से हैदराबाद में निधन हुआ। परिषद की रपट, बिहार सरकार का कानून सब अपनी जगह है। बिहार की मिली जुली सरकार ने आतिथ्य स्वीकार करने वाले अशोक चौधरी को दलबदल के बाद विधान परिषद में मनोनीत किया है। और हां,13 मई 2016 को राजदेव की हत्या हुई थी। उसे किसी ने याद नहीं किया। सुल्तान की गाली खाने वाले नेता श्रद्धांजलि देने आतुर हैं।
पत्रकार फिर भी कवि शैलेन्द्र का अमर गीत दोहराएंगे-मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार :डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना के टीके को लेकर भारत में कितनी जबर्दस्त टीका-टिप्पणी चल रही है। नेता लोग सरकारी बंगलों में पड़े-पड़े एक-दूसरे पर बयान-वाणों की वर्षा कर रहे हैं। हमारे दब्बू और डरपोक नेता मैदान में आकर न तो मरीजों की सेवा कर रहे हैं और न ही भूखों को भोजन करवा रहे हैं। हमारे साधु-संत, पंडित-पुरोहित और मौलवी-पादरी जऱा हिम्मत करें तो हमारे लाखों मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरजों, आर्य-भवनों में करोड़ों मरीज़ों के इलाज का इंतजाम हो सकता है।
कितनी शर्म की बात है कि सैकड़ों लाशों के ढेर नदियों में तैर रहे हैं, श्मशानों और कब्रिस्तानों में लाइनें लगी हुई हैं और प्राणवायु के अभाव में दर्जनों लोग अस्पताल में रोज ही दम तोड़ रहे हैं। गैर-सरकारी अस्पताल अपनी चांदी कूट रहे हैं। गरीब और मध्यम-वर्ग के लोग अपनी जमीन, घर और जेवर बेच-बेचकर अपने रिश्तेदारों की जान बचाने की कोशिश कर रहे हैं। सैकड़ों लोग नकली इंजेक्शन, नकली सिलेंडर और नकली दवाइयां धड़ल्ले से बेच रहे हैं। वे कालाबाजारी कर रहे हैं।
वे हत्या के अपराधी हैं लेकिन भारत की शासन-व्यवस्था और न्याय-व्यवस्था उन पर कितनी मेहरबान है कि उन्हें थाने या जेल में बिठाकर मुफ्त में खाना खिला रही है और कोरोना की महामारी से उनकी रक्षा कर रही है। इस निकम्मेपन पर भारतीय जनता, अखबारों और हमारे बकबकी टीवी चैनलों की चुप्पी आश्चर्यजनक है। अभी तक एक भी कालाबाजारी को फांसी पर नहीं लटकाया गया है। यह संतोष का विषय है कि देश की अनेक समाजसेवी संस्थाएं, जातीय संगठन, गुरुद्वारे और कई दरियादिल इंसान जरुरतमंदों की मदद के लिए मैदान में उतर आए हैं।
मेरे कई निजी मित्रों ने अपनी जेब से करोड़ों रु. दान कर दिए हैं, कइयों ने अपने गांवों और शहरों में तात्कालिक अस्पताल खोल दिए हैं और भूखों के लिए भंडारे चला दिए हैं। मेरे कई साथी ऐसे भी हैं, जो दिन-रात मरीजों का इलाज करवाने, उन्हें अस्पतालों में भर्ती करवाने और उनके लिए आक्सीजन का इंतजाम करवाने में जुटे रहते हैं। ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकार और सभी दलों की राज्य सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई हैं। यह ठीक है कि वे सब लापरवाही के लिए जिम्मेदार हैं।
इस वक्त सभी सरकारों के प्रति मोहभंग का माहौल है। प्रधानमंत्री और सारे मुख्यमंत्री मिलकर यह फैसला क्यों नहीं करते कि कोरोना की वेक्सीन कहीं से भी लानी पड़े, वह सबको मुफ्त में मुहय्या करवाई जाएगी। इस वक्त चल रहे सेंट्रल विस्टा जैसे कई खर्चीले काम टाल दिए जाएं और विदेशों से भी वेक्सीन खरीदी जाए। अब तक भारत में 17 करोड़ से ज्यादा लोगों को टीका लग चुका है। इतने टीके अभी तक किसी देश में भी नहीं लगे हैं। इस वक्त जरुरी यह है कि नेतागण आपसी टीका-टिप्पणी बंद करें और टीके पर ध्यान लगाएं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
1857 के जनयुद्ध के वक्त बिहार की धरती से उपजे एक लोकगीत का मुखड़ा था ‘पहिल लड़ाई भई बक्सर में सिमरी के मैदाना।‘ जब जगदीशपुर के शासक अस्सी पार उम्र के कुंवरसिंह के हाथों में तलवार लेने से अंगरेजी सल्तनत को चुनौती देने नौजवानी उन्मत्त और शर्मसार हो रही थी। आज बक्सर शब्द गंगा नदी के किनारे कोरोना महामारी से मारे गए असंख्य, नामालूम, मजलूम और सरकारी हिंसा के शिकार लोगों की लाशों के हुजूम से कलंकित हो गया है। भारत आज तक के इतिहास के सबसे क्रूर, घृणित और राष्ट्रीय बदहाली के दौर में है। दूर दूर तक उम्मीद या ढाढस की रोशनी नज़र नहीं आ रही। कोविड-19 की महामारी ने केन्द्र और राज्य की सरकारों का जनता की निगाह में कचूमर निकाल दिया है। सरकारें जनता की सेवा की प्रतिनिधि संस्थाएं नहीं रह गई हैं। मंत्री, सांसद और विधायक आदि पांच सालाना लोकतांत्रिक चुनावी टेंडर के जरिए जीते हुए सत्ता के ठेकेदार बनकर काबिज होते हैं।
देश जब महामारी की चपेट में आया, तब सबसे पहले राहुल गांधी ने पिछली फरवरी में कहा था इसका सबसे बड़ा थपेड़ा आने वाला है। सत्ता में गाफिल केन्द्र और कई राज्य सरकारें सुनिश्चित करती रहीं कि उन्हें सबका मज़ाक उड़ाते खुद को महामानव बनाना है। जनता के गाढ़े परिश्रम के धन से अखबारों और टीवी चैनलों पर रोज प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की तस्वीर और आवाजें क्यों चिपकती हैं? महामारी में हिन्दू मुस्लिम फिरकापरस्ती का चरित्र नहीं होता। वह कई नेताओं के कारण देश के बड़े वर्ग के खून का नफरत ग्रुप बन गया है।
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी देह भस्मि की मुट्ठी गंगा में और कुछ भारत के खेतों में बिखरा देने की वकालत की थी। आज यही बात हजारों लाखों लाशें कह रही हैं कि हम भी भारत के इतिहास का हिस्सा हैं। सरकारी झूठ बोलने की पक गई आदतें राष्ट्रीय अभिशाप में बदल रही हैं। नेताओं की अय्याशी का आलम है कि हजारों करोड़ खर्च कर नया संसद परिसर, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री निवास सहित संकुल बनेगा। मरते हुए देश के भविष्य में इसकी अब क्या जरूरत है? देश इतनी तेजी से तबाह नहीं होता यदि सुप्रीम कोर्ट में पिछले तीन जजों ने महान संसदीय संस्था की धींगामस्ती के बेखौफ अहंकार के खिलाफ न्यायिक आचरण किया होता।
फिज़ा में खबर यह भी है कि आगामी सितंबर माह तक शायद कोरोना की तीसरी लहर आ सकती है। वह बच्चों के लिए ज्यादा खतरनाक हो सकती है। देश का वर्तमान तो बरबाद हो ही रहा है। क्या उसके भविष्य को बचा पाने में सरकारें काबिल और सफल हो पाएंगी? केन्द्रीय मंत्री अपने संसदीय क्षेत्रों में नहीं जाकर संविधान को ठेंगा दिखाते पश्चिम बंगाल में दो तिहाई हुकूूूमत से जीती सरकार पर तोहमत लगाते रहे। लेकिन कोरोना पर एक शब्द नहीं कहे।
सुप्रीम कोर्ट को सरकारी जिम्मेदारी का आॅक्सीजन वितरण का काम करते और खाने कमाने की कमी से जूझते नागरिकों, श्रमिकों की सुरक्षा के लिए आगे आना पड़ रहा है। वाराणसी के सांसद के इलाके में तो देश के सबसे बड़े कलाकारों और उनके परिवार मौत के मुंह में चले गए। वहां अंतिम संस्कारों के लिए मणिकर्णिका घाट इतना विस्तृत हो गया है कि पूरा देश ही मौतों के सिलसिले में मणिकर्णिका घाट हो रहा है। तब भी टीवी चैनलों और अखबारों में मंत्रियों के मुस्कराते चेहरे कटाक्ष, व्यंग्य, आत्ममुग्धता, अहंकार और परत दर परत पुख्ता हो गए झूठ के ऐलान देखकर कोरोना उनसे गलबहियां करते जनता की जान लेते टर्रा रहा है। सरकार अट्टहास में कह रही है ‘कोरोना तुमको जीने नहीं देगा और हम जनता तुमको कोरोना से बचने नहीं देंगे।‘
मौत का भयानक कोलाहल चलते भी बंगाल के गवर्नर को कोरोना की चिन्ता दरकिनार करके संविधान के प्रावधानों के साथ खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे हैं। कलकत्ता हाईकोर्ट की संविधान पीठ सरकार से संतुष्टि के आकलन के समानान्तर अपनी जिद और जद में हैं कि महामारी पर तो चिंता नहीं है लेकिन बंगाल की सरकार को किस तरह ठिकाने लगाएं। देश के वाचाल अट्टहासी गृहमंत्री खामोश हैं। प्रधानमंत्री आत्ममुग्ध और भक्तपराश्रित हैं। मुख्यमंत्रीगण भी अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकते रहते हैं। कोई अपनी सियासी फितरत से बाज नहीं आ रहा है। देश के स्वास्थ्य मंत्री कोरोना के बावजूद मुस्कराते हुए मटर छीलते, अफसरों के बनाए उत्तर को रिट्वीट करें। सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष छत्तीसगढ़ सरकार पर कटाक्ष करें कि नया रायपुर याने अटलनगर में नई इमारतें क्यों बन रही हैं। सेंट्रल विस्टा के मामले में लेकिन बगले झांकें।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा0 हर्षवर्धन चुटकुलों के मूर्तिमान संस्करण हैं। कोरोना से मरते खपते लाखों भारतीयों को संदेश देते हैं कि डार्क चाॅकलेट खाने से कोरोना से मुकाबला किया जा सकता है। इन मंत्रियों को यह तक नहीं मालूम होता कि कुपोषण में भारत विश्व के चुनिंदा देशों में है। किसी राजकुमारी ने कहा था कि लोगों के पास खाने को रोटी नहीं है तो केक क्यों नहीं खाते। लगता है भारत में राजकुमारी का पुनर्जन्म हो गया है। उनकी ही विचारधारा के कई भक्त कोविड-19 से बचने गोबर में स्नान कर रहे हैं। पूजापाठ कर रहे हैं। इनमें कुछ मंत्री भी शामिल हैं।
कोविड-19 अपनी भयानक मुद्रा लेकर अब आंखों में फैल गया है। फंगस की बीमारी के कारण लोग मर रहे हैं। समझ नहीं पा रहे हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है। कुछ ही दिनों में बारिश का मौसम आएगा। वैसे बेमौसम बरसात भी हो रही है। यमुना तो एक सूखती हुई धरती का नाम है। वह बरसात में ही नदी हो पाती है और फिर गंगा से मिलती है। तब उनके किनारे खड़े होकर शव फूलेंगे, फलेंगे, इतराएंगे, बहकेंगे। देश में वैसे भी अतिसार, मलेरिया, हैज़ा, बुखार, सर्दी खांसी की बीमारियां और लू वगैरह बरसात में होते ही रहते हैं। कोरोना उनके साथ मिलेगा तब कोढ़ में खाज जैसी स्थिति होगी। सरकारें अपनी नाकामी को छिपाने वैक्सीन की दूसरी डोज़ का समय बढ़ाकर दो से तीन माह तक कर रही हैं। पूरी पश्चिमी दुनिया में उसे तीन या चार सप्ताह में दे दिया जाता है। भारत अपनी सरकारों और नेताओं के कारण नर्क में रहने का मांसल अनुभव कर रहा है। वह भी तब तक जब तक कि कोरोना रहेगा। पता नहीं इस भारत का क्या भविष्य है। यह बीमारी तो हटेगी लेकिन तब भी भुखमरी, बेकारी, बेरोजगारी और शिक्षा के बरबाद हो जाने के साथ साथ हमारे नेता इस देश को कहां ले जाएंगे।
-जेके कर
दावा किया जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में कोरोना की दूसरी लहर कम हो रही है. याद रहे कि इस बार की कोरोना लहर अपने साथ आतंक के साये को भी लेकर आई है. ऐसे में सवाल किया जा रहा है कि लॉकडाउन कब तक जारी रहेगा. इसका जवाब हमें खुद ही तलाशना पड़ेगा क्योंकि छत्तीसगढ़ में कोरोना के एक्टिव मरीजों की संख्या में पिछले 12 दिनों में कोई खास कमी नहीं आई है. 1 मई' 2021 को राज्य में एक्टिव मरीजों की संख्या 1 लाख 21 हज़ार 099 की थी जबकि 13 मई'2021 को यह 1 लाख 19 हज़ार 450 है. 1 मई को राज्य में कुल 60,863 टेस्ट हुये थे जिसमें से 15,902 कोरोना पॉजिटिव पाये गये थे. वहीं 13 मई को कुल 67,738 टेस्ट किये गये जिसमें से 9,121कोरोना पॉजिटिव पाये गये हैं.
13 मई'2021 की रात जारी आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ में कुल एक्टिव केसों की संख्या 1 लाख 19 हज़ार 450 है. आज अस्पताल से 1,455 मरीज तथा होम आइसोलेशन से 10,819 मरीज डिस्चार्ज हुये हैं. इस तरह से कुल 12,274 डिस्चार्ज हुये हैं. दूसरी तरफ 9121 कोरोना के नये मामलें सामने आये हैं.
गणितीय गणना के अनुसार यदि डिस्चार्ज होने वालों की संख्या इतनी ही रहती है तो 13 मई को जितने एक्टिव केस थे उन्हें डिस्चार्ज होने में करीब दस दिन (9.73 दिन) लगने वाले हैं. साथ ही साथ 9121 या उससे कम मरीज रोज जुड़ते जायेंगे.
सरकारी दावों के अनुसार 12 मई की स्थिति में राज्य में 318 वेन्टीलेटर बेड, 852 आईसीयू बेड, 750 एचडीयू बेड, 6364 ऑक्सीजन बेड तथा 11,883 अन्य बेड उपलब्ध थे. इस तरह से सरकारी दावों को माने तो 12 मई की स्थिति में 20,167 बिस्तर उपलब्ध हैं. खुद सरकारी विज्ञ्पत्ति में कहा गया है कि 12 दिन पहले मरीजों को खाली बेड नहीं मिल पा रहे थे. जबकि सरकार द्वारा जारी विज्ञ्पत्ति के अनुसार 1 मई' 2021 को राज्य में एक्टिव मरीजों की संख्या 1 लाख 21 हज़ार 099 की थी. गौरतलब है कि 13 मई'2021 को यह 1 लाख 19 हज़ार 450 है. इससे माना जाना चाहिये कि अस्पताल में बिस्तरों की संख्या को पहले की तुलना में बढ़ाया गया है.
यह ठीक है कि छत्तीसगढ़ में पाजिविटी की दर घटकर 13 रह गई है. लेकिन यदि केवल इसे ही पैमाना माना जाये तो हम रणनीतिक तौर पर गलत साबित हो सकते हैं. जाहिरा तौर पर एक्टिव मरीजों का ईलाज़ करना पड़ता है तथा इनमें से कई होम आइसोलेशन में रहते हैं एवं कईयों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ता है. फिर से खतरनाक स्थिति उत्पन्न न हो जाये इसके लिये जरूरी है कि अस्पताल में भर्ती कुल मरीजों की संख्या तथा रोज आने वाले नये कोरोना के मरीजों की संख्या पर ध्यान केन्द्रित किया जाये.
बता दें कि इन होम आइसोलेशन वाले मरीजों में से कुछ को जब 5-7 दिन बाद साइटोकाइन स्टोर्म का सामना करना पड़ता है तो उन्हें अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है या कड़े चिकित्सीय निगरानी में रहना पड़ता है. इस कारण से इन संभावित साइटोकाइन स्टोर्म से पीड़ित मरीजों के लिये स्वास्थ्य सुविधा तैय्यार रहना चाहिये. साइटोकाइन स्टोर्म में शरीर का प्रतिरोधक क्षमता ही शरीर हो नुकसान पहुंचाने लगता है जिसका ईलाज़ घर पर करना असंभव सा है. इस अवस्था में शरीर के कई अंग प्रभावित होने लगते हैं तब चिकित्सीय देखभाल की जरूरत आन पड़ती है.
इसके अलावा जब संक्रमण के कुछ दिनों के बाद फेफड़ों में संक्रमण या निमोनिया हो जाता है तब भी ऑक्सीजन एवं अन्य दवाओं की जरूरत पड़ती है. फेफड़े जब संक्रमित होकर काम करना बंद कर देते हैं तब हृदय को प्रभावित करने लगते हैं. इस कारण से कोरोना के बाद हृदयाघात के मामले भी देखे गये हैं.
उल्लेखनीय है कि कोविड19इंडिया के आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ में मात्र 59 लाख 41 हज़ार 724 कोरोना वैक्सीन के डोज़ लग चुके हैं तथा छत्तीसगढ़ की जनसंख्या 2 करोड़ 87 लाख 24 हज़ार की है. इसी वेबसाइट के अनुसार छत्तीसगढ़ में रिकवरी रेशियो 85.3% है अर्थात् प्रत्येक कोरोना के 100 मरीजों में से 85 स्वस्थ्य हो चुके हैं तथा फैटालिटी रेशियो 1.3% है याने कोरोना के 100 मरीजों में से 1 दुर्भाग्यवश मौत के मुंह में समा गये हैं.
इन कारणों से लॉकडाउन कब तक पर सवाल नहीं करना चाहिये बल्कि जब तक स्वास्थ्य सुविधाओं पर कोरोना के मरीजों का भार पड़ना कम न हो जाये तथा वे इस काबिल न हो जाये कि वे कोरोना के संभावित तीसरे झटके को झेलने लायक नहीं हो जाते हैं तब तक इंतजार करना चाहिये न कि सरकार या सरकारी अधिकारियों पर दबाव डालना चाहिये. लॉकडाउन उठाने का फैसला बगैर चिकित्सा विशेषज्ञों की राय लिये नहीं करना चाहिये अन्यथा लॉकडाउन उठाने में जल्दबाजी फिर से हमें वहां पहुंचा देगा जहां हम राज्य में कुछ दिनों पहले के कोरोना पीक के समय थे.
-रजनीश कुमार
सऊदी अरब और तुर्की की दुश्मनी ऑटोमन साम्राज्य से ही है जबकि दोनों सुन्नी मुस्लिम बहुल देश हैं. कहा जाता है कि दोनों के बीच मुस्लिम वर्ल्ड के नेतृत्व की होड़ भी है.
सऊदी अरब के पास मक्का और मदीना है तो तुर्की के पास विशाल ऑटोमन साम्राज्य की विरासत. इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच जारी टकराव को लेकर सऊदी अरब और तुर्की खुलकर फ़लस्तीनियों के समर्थन में बोल रहे हैं.
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन सऊदी सरकार की तुलना में रोज़ फ़लस्तीनियों के समर्थन में ज़्यादा बोल रहे हैं. वो हर दिन तीन से चार बयान जारी कर रहे हैं और इस मुद्दे को लेकर इस्लामिक देशों के नेताओं से बात कर रहे हैं. राष्ट्रपति अर्दोआन ने बुधवार को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को भी फ़ोन किया और इसराइल को कड़ा सबक सिखाने की बात कही.
प्रथम विश्व युद्ध के पहले फ़लस्तीन ऑटोमन साम्राज्य का एक इलाक़ा था. ऐसे में अर्दोआन के बढ़-चढ़कर बोलने की एक ऐतिहासिक वजह यह भी है.
लेकिन तुर्की की ओर से फ़लस्तीनियों के समर्थन के कुछ विरोधाभास भी हैं. सऊदी अरब का इसराइल के साथ राजनयिक संबंध नहीं है जबकि तुर्की का है. पिछले साल ट्रंप प्रशासन ने खाड़ी के देशों पर इसराइल से राजनयिक संबंध कायम करने का दबाव डाला था.
इसके नतीजे भी सामने आए थे. यूएई और बहरीन ने इसराइल से राजनयिक रिश्ते कायम कर लिए थे. इनके बाद सूडान और मोरक्को ने भी इसराइल से राजनयिक संबंध कायम करने का फ़ैसला किया था. सूडान और मोरक्को भी मु्स्लिम बहुल देश हैं.
ऐसा ही दबाव सऊदी अरब पर भी था. लेकिन सऊदी अरब ने ऐसा नहीं किया और कहा कि जब तक फ़लस्तीन 1967 की सीमा के तहत एक स्वतंत्र मुल्क नहीं बन जाता है तब तक इसराइल से औपचारिक रिश्ता कायम नहीं करेगा. सऊदी अरब पूर्वी यरुशलम को फ़लस्तीन की राजधानी बनाने की भी मांग करता है.
तुर्की यूएई और बहरीन की आलोचना कर रहा था कि इन्होंने इसराइल से राजनयिक संबंध क्यों कायम किए. ऐसा तब है जब तुर्की के राजनयिक संबंध इसराइल से हैं. तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं. तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था.
यहाँ तक कि 2005 में अर्दोआन कारोबारियों के एक बड़े समूह के साथ दो दिवसीय दौरे पर इसराइल गए थे. इस दौरे में उन्होंने तत्कालीन इसराइली पीएम एरिएल शरोन से मुलाक़ात की थी और कहा था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से न केवल इसराइल को ख़तरा है बल्कि पूरी दुनिया को है.
2010 में मावी मरमार वाक़ये के बाद से दोनों देशों के बीच कड़वाहट है. इस घटना में इसराइली कमांडो दस्तों ने तुर्की के पोत में घुसकर उसके 10 लोगों को मार दिया था. लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों के में कारोबारी संबंध हैं. 2019 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 6 अरब डॉलर से ज़्यादा का था.
फ़लस्तीनियों के हथियारबंद इस्लामिक चरमपंथी समूह हमास को अमेरिका और ईयू ने आतंकवादी संगठन के तौर पर लिस्ट किया है जबकि तुर्की इसे राजनीतिक आंदोलन की तरह देखता है. पश्चिम के देश तुर्की को उसकी ज़मीन पर हमास की मौजूदगी को लेकर चेतावनी देते रहे हैं.
सऊदी अरब और हमास के रिश्ते भी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं. 1980 के दशक में हमास के बनने के बाद से सऊदी अरब के साथ उसके सालों तक अच्छे संबंध रहे. 2019 में सऊदी अरब में हमास के कई समर्थकों को गिरफ़्तार किया गया था. इसे लेकर हमास ने बयान जारी कर सऊदी अरब की निंदा की थी. हमास ने अपने समर्थकों को सऊदी में प्रताड़ित करने का भी आरोप लगाया था. 2000 के दशक में हमास की क़रीबी ईरान से बढ़ी.
खाड़ी के देशों में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद कहते हैं कि हमास एक सुन्नी इस्लामिक संगठन है जबकि ईरान शिया मुस्लिम देश लेकिन दोनों की क़रीबी इस्लामिक राजनीति की वजह से है. अहमद कहते हैं कि ईरान के क़रीब होने के बावजूद इससे हमास को कोई फ़ायदा नहीं होता है.
इसराइल के हमले में अपने नेताओं की मौत के बाद हमास का जवाबी हमला
हमास और ईरान की क़रीबी
ईरान से क़रीबी के कारण सऊदी अरब से हमास की दूरी बढ़ना लाज़िम था क्योंकि सऊदी अरब और ईरान के बीच दुश्मनी है. ऐसे में हमास किसी एक का ही क़रीबी रह सकता है.
इसराइल का जितना खुला विरोध ईरान करता है, उतना मध्य-पूर्व में कोई नहीं करता है. ऐसे में हमास और ईरान की क़रीबी स्वाभाविक हो जाती है.
2007 में फ़लस्तीनी प्रशासन के चुनाव में हमास की जीत हुई और इस जीत के बाद उसकी प्रासंगिकता और बढ़ गई थी.
लेकिन हमास और सऊदी अरब के रिश्ते भी स्थिर नहीं रहे. जब 2011 में अरब स्प्रिंग या अरब क्रांति शुरू हुई तो सीरिया में भी बशर अल-असद के ख़िलाफ़ लोग सड़क पर उतरे. ईरान बशर अल-असद के साथ खड़ा था और हमास के लिए यह असहज करने वाला था.
सऊदी अरब मिस्र में चुनी हुई सरकार का विरोध कर रहा था. ऐसे में फिर से हमास की तेहरान से करीबी बढ़ी.
2019 के जुलाई में हमास का प्रतिनिधिमंडल ईरान पहुँचा और उसकी मुलाक़ात ईरान के सर्वोच्च नेता अयतोल्लाह अली ख़ामेनेई से हुई थी. सऊदी अरब में हमास के नेताओं को मुस्लिम ब्रदरहुड से भी जोड़ा जाता है.
इसराइल और हमास के बीच अभी हिंसक संघर्ष चल रहा है और इसमें अब तक 67 लोगों की मौत हुई है, जिनमें 14 बच्चे हैं. इस बीच हमास ने मध्य पूर्व के प्रतिद्वंद्वी देश ईरान और सऊदी से एकता बनाने की अपील की है.
हमास के एक प्रवक्ता ने न्यूज़वीक से कहा है, ''इसराइल ने अल अक़्सा मस्जिद का अपमान किया है. इसलिए हम रॉकेट दाग रहे हैं. वे पूर्वी यरुशलम से फ़लस्तीनी परिवारों को निकालना चाह रहे हैं. अल अक़्सा मुस्लिम जगत के लिए तीसरी सबसे पवित्र जगह है और फ़लस्तीन के लिए सबसे पवित्र जगह. हमें उम्मीद है कि सऊदी अरब और ईरान आपसी मतभेद भुला देंगे. अगर ऐसा होता है तो फ़लस्तीनियों के लिए बहुत अच्छा होगा.''
खाड़ी के कई देशों में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''1967 से पहले फ़लस्तीन और इसराइल समस्या अरब की समस्या थी लेकिन 1967 में अरब-इसराइल युद्ध में इसराइल की जीत के बाद से यह केवल इसराइल और फ़लस्तीन की समस्या रह गई है. अगर इसे कोई हल कर सकता है तो वे इसराइल और फ़लस्तीनी हैं.''
तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''इस्लामिक देशों की प्रतिक्रिया दिखावे भर से ज़्यादा कुछ नहीं है. ज़्यादातर इस्लामिक देश राजशाही वाले हैं और वहां की जनता का ग़ुस्सा जनादेश के रूप में आने का मौक़ा नहीं मिलता है. ऐसे में वहाँ के शासक फ़लस्तीनियों के समर्थन में कुछ बोलकर रस्मअदायगी कर लेते हैं. जहाँ तक तुर्की की बात है तो अर्दोआन ने बाइडन के आने के बाद इसराइल के साथ संबंध सुधारने की कोशिश की. वे राजदूत भेजने को भी तैयार थे लेकिन इसराइल ने कुछ दिलचस्पी नहीं दिखाई. इसराइल के ख़िलाफ़ हाल के दिनों में अर्दोआन ने बहुत ही आक्रामक बयान दिए हैं.''
तलमीज़ अहमद कहते हैं कि तुर्की या सऊदी अरब से इसराइल का कुछ भी नहीं बिगड़ने वाला है और अगर कोई दख़ल दे सकता है तो वो अमेरिका है लेकिन वहाँ की दक्षिणपंथी लॉबी इसराइल के समर्थन में मज़बूती से खड़ी है.
तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''सऊदी अरब के आम लोगों की सहानुभूति फ़लस्तीनियों के साथ बहुत ही मज़बूत है. ऐसे में सऊदी शाही परिवार पर अप्रत्यक्ष रूप से आम लोगों का दबाव रहता है और इसी का नतीजा होता है कि वहाँ का विदेश मंत्रालय एक प्रेस रिलीज जारी कर देता है. ईरान ख़ुद को क्रांतिकारी स्टेट मानता है, इसलिए वो फ़लस्तीनियों के समर्थन में बोलता है और इस्लामिक वजहों से हमास का समर्थन करता है. हालांकि हमास को सारी मदद तुर्की और क़तर से मिलती है.''
फ़लस्तीनियों के समर्थन में इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी ने भी बयान जारी किया है लेकिन कई लोग मानते हैं कि ओआईसी सऊदी अरब के हितों को पूरा करने वाला संगठन है.
तुर्की, पाकिस्तान, ईरान और मलेशिया ने 2019 में इसके समानांतर एक संगठन खड़ा करने की कोशिश भी की थी. ओआईसी के बयान को भी किसी भी वैश्विक या क्षेत्रीय संकट में रस्मअदायगी से ज़्यादा नहीं देखा जाता है.
पाकिस्तान में भी आम लोगों का समर्थन फ़लस्तीवनियों के प्रति होता है ऐसे में कोई सरकार आम लोगों और वहां के इस्लामिक संगठनों को नाराज़ नहीं करना चाहती है. (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कुछ लोगों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका लगाई है कि माहमारी के इस दौर में ‘सेंट्रल विस्टा’ के काम को रोक दिया जाए। क्या है, यह सेंट्रल विस्टा ? इसके नाम से ही आप समझ लीजिए कि इसके पीछे कैसा दिमाग काम कर रहा है। यह वही दिमाग है, जो अंग्रेज का दिमाग था। हम आजाद हो गए लेकिन हमारी दिमागी गुलामी अभी भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।
स्वतंत्र भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भारत के अन्य नागरिकों की तरह रहना चाहिए था लेकिन उन्होंने अपने पुराने मालिकों की जीवन-शैली अपना ली है। वायसराय जहां रहता था, वहां हमारे राष्ट्रपति रहने लगे और ब्रिटिश सेनापति जहां रहता था, उस तीन मूर्ति हाउस में प्रधानमंत्री रहने लगे। नेहरु के बाद दो बार और बदले गए प्रधानमंत्री निवास लेकिन अब जो सेंट्रल विस्टा बन रहा है, उस पर लगभग 23 हजार करोड़ रु. खर्च होंगे। हमारा संसद भवन बड़ा बने और केंद्रीय सचिवालय भवन भी बेहतर हो, यह जरुरी है लेकिन प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति के निवासों पर हम सैकड़ों करोड़ रु. खर्च क्यों करें ?
सच्चाई तो यह है कि इस वक्त भी राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के जो निवास हैं, वे जरुरत से ज्यादा बड़े हैं। उनके रख-रखाव पर लाखों रु. रोज़ खर्च होते हैं। ये रुपए कहां से आते हैं ? ये देश की नंगी-भूखी जनता का पैसा है। गरीब जनता के पैसे पर ये ठाठ-बाट किसलिए किया जाता है ? क्या अपनी हीनता-ग्रंथि से मुक्ति पाने के लिए ? यदि हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री लोग सामान्य घरों में रहें तो क्या उनका सम्मान घट जाएगा ? क्या वे शक्तिहीन हो जाएंगे ? बिल्कुल नहीं।
मैंने कई देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को उनके साधारण घरों में रहते हुए देखा है। मैंने उन्हें बसों और रेल के डिब्बों में यात्रा करते हुए भी देखा है। वशिंगटन डी.सी. में मैंने कई अमेरिकी सांसदों को अपने पासवाले कमरे में किराए पर रहते हुए देखा है। यह ठीक है कि इन जन-सेवकों को पूरी सुविधा और सुरक्षा जरुर मिलनी चाहिए लेकिन उसके नाम पर उनकी बादशाहत पर कानूनी रोक लगनी चाहिए।
इसी रोक की मांग ये याचिकाकर्ता उच्च न्यायालय से कर रहे हैं। सरकार की तरफ से अदालत को जो सफाई दी गई है, उसमें याचिकाकर्ताओं की मन्शा पर शक किया गया है। यह शक ठीक भी हो सकता है कि ऐसे लोग हर मामले में मोदी की टांग खींचना चाहते हैं लेकिन यह भी सत्य है कि माहमारी के इस विकट समय में सेंट्रल विस्टा पर अरबों रु. के खर्च की खबर जले पर नमक छिड़कने के बराबर है। कोरोना ने बता दिया है कि कोई भी कभी भी खिसक सकता है तो अब 2022 में ही सेंट्रल विस्टा का बनना जरुरी है, क्या ? तालाबंदी के इस माहौल में सैकड़ों मजदूरों को इस काम में झोंके रखना ठीक है ? (नया इंडिया की अनुमति से)
14 मई अक्षय तृतीया पर विशेष
विजय मिश्रा ‘अमित’
रचना के साथ ही मनुष्य का अटूट रिश्ता पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों के साथ जुड़ा हुआ है। ऐसी कहावत प्रचलित है कि मुसीबत के समय मनुष्य की परछाई भी उसका साथ छोड़ देती है, किंतु जनमानस में अनेक लोककथायें प्रचलित है, जिनमें पशु-पक्षियों ने प्राण छूटने तक मनुष्य का साथ दिया। ऐसी प्रेरक और मार्मिक कथाओं को जानने सुनने के बावजूद मानव समुदाय, पशु-पक्षियों के प्रति अत्याचार करने से बाज नहीं आता है।
ऐसे ही अत्याचार का एक बड़ा उदाहरण खुबसूरत पक्षियों को पिंजरे में कैद करके रखना भी है। पक्षियों को पिंजरे में कैद करते समय मतिभ्रष्ट मनुष्य भूल जाता है कि खुले आकाश में बिचरते हुए खगवृंद अनेक दृष्टि से मानव समुदाय के लिये बहुपयोगी है।
मानव मित्र ये पक्षी फसलों के कीड़ों को खाकर न केवल फसलों की रक्षा करते हैं, अपितु फूलों के परागकण को एक फूल से दूसरे फूल में पहुंचाने का भी कार्य करते हैं फलस्वरूप फल और बीज का निर्माण होता है। फल खाकर उसके भीतर निहीत बीजो का विकरण दूर-दूर तक बीट के माध्यम से पक्षी ही करते हैं। ऐसे कार्य पक्षियों के बिना संभव नहीं है। मानव समुदाय की जिंदगी को खुशनुमा बनाने में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिये विद्वानों का कहना है कि ‘‘परिंदे जिनके करीब होते हैं, वे बड़े खुशनसीब होते हैं।’’
इन अर्थो में कह सकते हैं कि मनुष्य के तन-मन-धन सब को संवारने में पक्षी परिवार का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसीलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि पक्षियों को पिंजरे में कैद करके रखने के बजाय आंगन में दाना पानी रखना आरंभ करें। साथ ही साथ घर-आंगन आस-पास उगे वृक्षों में सुराही को बांधकर लटका दे। ऐसे लटके हुए सुराही में गौरेया, गिलहरी, उल्लू, पहाड़ी मैना, जैसे अनेक प्राणी बड़ी सहजता से अपना बसेरा बना लेते हैं। ऐसे में बिना कैद किए हुए भी आसपास चहकते हुए पक्षी आपके परिवार के सदस्य बन जाते हैं। धरा को हरा बनाने का संकल्प लेते हुए धरती के आभूषण पशु, पक्षी, पेड़-पौधे की हिफाजत करें।
छत्तीसगढ़ में बैशाख शुक्ल की तृतीया (इस वर्ष 14 मई ) को अक्षय तृतीया (अक्ती) का पर्व मनाया जाता है। इस दिन मिट्टी के घड़े अथवा सुराही दान में देने की प्रथा प्रचलित है। इस पर्व पर मटके, सुराही दान देने का उद्देश्य यही है कि दीन-हीन निर्धनजनों का परिवार ग्रीष्मकाल में सहजता से शीतल जल से प्यास बुझा सके। इस पर्व पर दो चार सुराही पक्षियों के बसेरा बनाने के लिए पेड़-पौधों, घरों की मुंडेर पर लटका दें। गर्मी बीत जाने के बाद प्राय: सुराही मटके को अनुपयोगी मानकर फेक दिया जाता है। इन्हें भी सुरक्षित स्थान पर लटका देने से यह भी पक्षियों का बसेरा बन सकते है। याद रखें ये सभी कार्य किसी ईबादत से कम नहीं है।
घर-आंगन में लटके ऐसे सुराहियों में गौरेया को घर बनाना विशेष पसंद है। बचपन में देखा करता था घर की दीवारों पर लगे फोटो फ्रेम के पीछे बड़ी सहजता-निर्भयता से गौरेया घर बना लेती थी। अब तो ऐसी स्थिति में लोग घर को कचरा और खराब कर रही है, कहते हुए गौरेया को पनाह देने में हिचकते हैं। कई ऐसी घटनाएं भी देखने को मिली है जब घर के अंदर घूमते हुए पंखे से टकराकर गौरेया की जान चली गई है। गांव-शहरों में कटते पेड़, खेतों में कीटनाशक दवाईयों का छिडक़ाव, खेतों को प्लाट में बदलने की कार्यवाही से गॉव शहरों में कांक्रीटों का जाल बिछता चला जा रहा है, जिससे पक्षियों की वंश वृद्धि लगभग रूक सी गई है। अत: कहना होगा कि ‘‘थम गई है पक्षियों की ताल अपने गांव में, बह रहा है कांक्रीटों का जाल अपने गॉव में।’’
पक्षियों से दूर होते इंसान की जिंदगी आज नीरस हो चली है। कोयल, कौआ, फाक्ता, बुलबुल, कबूतर जैसे पक्षियों से बढ़ती दूरी मानव समुदाय के लिए अनेक अर्थों में हानिकारक सिद्ध हो रही है। लुप्त होते पक्षियों को बचाने का उत्तम उपाय यही है कि उन्हें पिजरें में कैद करना तत्काल बंद कर दें और अपने करीब रखने के लिए घर आंगन के पेड़ पौधे, मुंडेर पर सुराही, मटकी बांधने के साथ ही हर सुबह दाना-पानी देना आंरभ करें। इससे बारहों महीना चौबीस घंटे पक्षियों के कलरव से आपका मन आनंदित होगा और पक्षियां भी आपको आशीष देते हुए कहेंगे-समाज उसे ही पूजता है जो अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी जीता है।
-जुबैर अहमद
‘सवाल ये है कि वहां से अब हम यहाँ तक कैसे पहुंच गए?’ ये प्रश्न उठा रहे हैं अनुभवी भारतीय राजनयिक राजीव डोगरा, जिन्होंने भारत की विदेश नीति पर कई किताबें लिखी हैं और कई देशों में भारत के राजदूत रह चुके हैं।
‘वहां से’ उनका मतलब है जब भारत ने घोषणा कर दी थी कि उसे विदेशी सहायता लेना बंद कर दिया है, ‘यहाँ तक’ से उनका अर्थ है अब उस नीति में बदलाव करके महामारी में भारत फिर से विदेशी मदद लेने लगा है।
वो आगे कहते हैं, ‘हम साल 2000 से ये सोचने लगे थे कि क्या हमें विदेशी सहायता लेनी चाहिए, हमारी जो बैठकें होती थीं उनमें ये विचार होता था कि जब हम विश्व को बचा सकते हैं तो हम हाथ क्यों फैला रहे हैं?’
इटली और रोमानिया में भारत के राजदूत रह चुके राजीव डोगरा कहते हैं कि 2004 में आई सुनामी के समय देश ने बाहर से सहायता लेने के बजाय कई देशों की सहायता की।
डोगरा कहते हैं, ‘2004 में जो सुनामी आई उसने कई देशों में तबाही मचाई, हमारे यहाँ भी अंडमान निकोबार और तमिलनाडु में तबाही मची। फिर भी सरकार ने कहा कि हम एक ऐसी मंजि़ल पर पहुँच गए हैं जिसमें हमारा एक इम्तिहान ज़रूर है, पर हम इसे पास कर लेंगे, हम किसी से मांगेंगे नहीं जाएँगे, बल्कि हम देंगे। भारत ने दक्षिण-पूर्वी देशों को तकनीकी सहायता दी, जहाज़ भेजे सुनामी की तबाही से निपटने के लिए और कई तरह की मदद दी और उन देशों के लिए ‘अर्ली वार्निंग सिस्टम’ भी बनाया।’विदेश से मदद लेने पर लोगों की मायूसी की एक झलक विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर के 8 मई के ट्वीट पर दर्ज प्रतिक्रियाओं में देखने को मिली।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची के चार ट्वीट पोस्ट को साझा करके उन्होंने एक ट्वीट किया, ‘अमेरिका से सिंगापुर, जर्मनी से थाईलैंड तक, दुनिया भारत के साथ है’। बागची ने अपने ट्वीट में तस्वीरों के साथ ये जानकारी दी थी कि कोरोना की दूसरी लहर से जूझने के लिए कई देश जो रेमडेसिवीर, ऑक्सीजन सिलिंडर और ऑक्सीजन प्लांट और कॉन्सेंट्रेटर जैसी मदद भेज रहे हैं वो भारत पहुँच रही है।’
डॉक्टर जयशंकर के ट्वीट पर लोग इस बात से नाराज थे कि दूसरे देशों की मदद करने वाला देश भारत, अब विदेश से मदद ले रहा है। दीक्षा नितिन राउत नाम की एक महिला ने विदेश मंत्री के ट्वीट के जवाब में ये ट्वीट किया, ‘अमेरिका से सिंगापुर, जर्मनी से थाईलैंड हमारी मदद कर रहा है क्योंकि हम अपने नागरिकों के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं, यह सम्मान का बिल्ला नहीं है। यह हमें नाकाम बना रहा है। यह आत्मनिर्भरता नहीं नहीं है।’
कई ट्वीट्स में विदेशी मदद लेने की वजह से भारत की गरिमा को ठेस पहुँचने की बात की गई।
मोदी से मायूसी?
नागरिकों में आम धारणा ये थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को आत्मनिर्भर बना दिया है, दो स्वदेशी टीकों के आने के बाद इस धारणा को बल भी मिला। लोग मान रहे थे कि इस संकट का मुकाबला भारत खुद कर लेगा। प्रधानमंत्री ने वैक्सीन मैत्री योजना के बारे में देश को गर्व से बताया कि भारत अब पहले जैसा भारत नहीं है बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय ताकत है, लेकिन महामारी के संकट से निपटने के लिए विदेश से ली गई सहायता ने उनके राष्ट्रीय गौरव को चोट पहुंचाई है।
जनवरी में पीएम मोदी ने विश्व आर्थिक मंच की दावोस सभा में दुनिया को संबोधित करते हुए बुलंद आवाज़ में कहा था कि भारत ने कोरोना महामारी पर काबू पा लिया है और इस तरह से विश्व को एक बड़े संकट से बचा लिया है। उन्होंने ये भी दावा किया था कि उनकी सरकार ने महामारी से निपटने के लिए एक मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली बना ली है। दुनिया ने उनकी बातों पर यक़ीन कर लिया।
प्रधानमंत्री की दावे करने की आदत पर उनकी पहले भी आलोचना हुई है। राजीव डोगरा कहते हैं कि डॉक्टर मनमोहन सिंह अपने कामों का प्रचार कम करते थे। उनके अनुसार ध्यान देने वाली बात ये है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार ने जो भी सहायता की वो ‘भोंपू लगाकर या इश्तेहार करके नहीं की, इसके बावजूद सुनामी के समय विदेश में ये बात फैल गई कि भारत ने कितना अच्छा कदम उठाया है।’
अब विदेशी मीडिया दिखा रहा है कि किस तरह कोरोना महामारी की घातक दूसरी लहर भारत में कहर ढा रही है, जिससे इसकी नाजुक स्वास्थ्य प्रणाली नष्ट होने के कगार पर है। शमशान घाटों में जगह कम पडऩे पर चिताएं मैदान में जलाई जा रही हैं। मरीज ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं, आईसीयू बेड और कई चिकित्सा सहायता के अभाव में मर रहे हैं और शव नदियों में बह रहे हैं।
वो ये भी बता रहे हैं कि मोदी सरकार इस संकट से निपटने में पूरी तरह से नाकाम है। दर्जनों देश चिकित्सा सहायता भेज रहे हैं जिनमें से कई उपहार के रूप में और कुछ वाणिज्यिक लेन-देन के रूप में भेज रहे हैं।
विश्व भर में प्रसिद्ध चिकित्सा पत्रिका लांसेट ने हाल में अपने संपादकीय में प्रधानमंत्री मोदी की कड़ी आलोचना की है। पत्रिका का कहना था कि ‘मोदी सरकार संकट को रोकने पर ध्यान देने के बजाय अपने खिलाफ आलोचना और खुली बहस को दबाने में अधिक समय लगा रही है जो अक्षम्य है।’
मोदी प्रशासन ने विदेशी सहायता को सही ठहराने की कोशिश की है। देश के शीर्ष राजनयिक हर्षवर्धन श्रृंगला ने विदेशी सहायता पर कहा, ‘हमने सहायता दी है और अब हमें मदद मिल रही है।’ उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह भारत की अंतरराष्ट्रीय साख का संकेत है कि देश में कितनी विदेशी सहायता आ रही है।
राजीव डोगरा के मुताबिक हकीकत ये है कि आज के टेक्नोलॉजी के दौर में चीज़ें अधिक समय तक छिप नहीं सकतीं। वो कहते हैं, ‘अगर आपकी नदियों में शव बह रहे हैं, ड्रोन हवा में उड़ते हुए उनकी तस्वीर ले लेते हैं अगर बड़ी संख्या में शव बह रहे हैं तो ये इंडिया की अच्छी छवि तो नहीं दिखाता है न? अगर सामूहिक तौर पर चिताएं जल रही है तो वो भी देश की अच्छी तस्वीर पेश नहीं करता अगर हालत खऱाब नहीं होती तो अस्पतालों पर इतना प्रेशर नहीं होता। इसी कारण दुनिया में भारत की छवि पर फर्क तो पड़ रहा है।’
भारतीय मूल के लोगों में मायूसी?
विदेश में बसे भारतीय मूल के लोग प्रधानमंत्री मोदी के सबसे जबरदस्त समर्थकों में से माने जाते रहे हैं। लेकिन अब उस समुदाय में मोदी की क्षमता पर बहस शुरू हो गई है।
22 सितंबर 2019 को अमेरिका के शहर ह्यूस्टन के एक विशाल स्टेडियम में भारतीय मूल के हज़ारों लोगों ने नरेंद्र मोदी का ज़बरदस्त जोश के साथ स्वागत किया था। तब मोदी का कद आसमान को छू रहा था। उत्साह से भरे न्यूयॉर्क में बसे भारतीय मूल के योगेंद्र शर्मा भी ‘हाउडी मोदी’ समारोह में अपनी गर्लफ्रेंड के साथ गए थे।
शर्मा कहते हैं, ‘उस समय हम सब मोदी के अंधे भक्त थे। हमारा परिवार नोएडा में रहता है, वो भी भारत में बैठे हमें ह्यूस्टन जाने के लिए जोश दिला रहे थे। लेकिन भारत में जो संकट आया है और मोदी के नेतृत्व वाली सरकार जिस तरह से कोरोना से मरने वालों को बचाने में विफल रही है और जिस तरह से हम अब हर देश के आगे मदद के लिए हाथ फैला रहे हैं उससे मोदी और भारत दोनों का क़द छोटा हुआ है।’
उनका कहना था कि भारत में केवल उनके परिवार और परिचित कोरोना से नहीं मरे हैं बल्कि उनके जानने वाले कई दोस्तों के सगे-संबंधी भी अपनी जान गँवा चुके हैं।
‘यहाँ अब मोदी हीरो से जीरो हो चुके हैं।’
तारीफ और आलोचना
अचल मल्होत्रा आर्मीनिया में भारत के राजदूत रह चुके हैं और अब विदेश नीति पर लिखते रहते हैं। वो कहते हैं कि सभी विश्व नेताओं के लिए, प्रशंसा और आलोचना, उनके राजनीतिक करियर का हिस्सा है। ‘पीएम मोदी ने जिस तरह से महामारी के वैश्विक आयामों का अनुमान लगाया और ठोस उपायों के माध्यम से अन्य देशों को सहायता देने के तरीके पर जोर दिया, उस तरीके की व्यापक स्वीकार्यता है। दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में भारत ने पहली लहर को अच्छी तरह से संभाला।’
उनके अनुसार दुनिया के अधिकांश नेताओं को इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा है। उनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय पीएम मोदी को कोरोना संकट के दौरान कथित दुष्प्रचार के बावजूद समग्रता में जज करेगा, जिनमें उनकी पूरी भूमिका और वैश्विक मामलों में उनका योगदान शामिल है।’
दिलचस्प बात ये है कि पीएम मोदी का बचाव चीन के एक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी भी करते हैं। सिचुआन विश्वविद्यालय में द स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर हुआंग युन सॉन्ग बीबीसी से एक बातचीत में कहते हैं, ‘पीएम मोदी संभवत: भारत के अब तक के सबसे मजबूत नेता हैं, ज़्यादा उम्मीद है कि उनकी ये छवि चीनी शिक्षाविदों और पेशेवरों के बीच बनी रहेगी।’
प्रोफ हुआंग युनसॉन्ग के अनुसार संकट के समय में अमेरिका जैसे बड़े और विकसित देश भी विदेशी मदद लेने के लिए मजबूर हो सकते हैं। वो कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं कि यहां हम सबको आश्चर्य हुआ है कि किस तरह से पीएम मोदी ने कॉमन सेंस और वैज्ञानिक दिशानिर्देशों के खिलाफ महामारी से निपटने की कोशिश की और उसके बाद भारत में जो हो रहा है उससे हमें दुख है।’
प्रधानमंत्री को उनकी सलाह ये थी, ‘हमें उम्मीद है कि पीएम मोदी देश और विदेश दोनों जगहों से आलोचना से सबक़ लेंगे, ताकि सुशासन सुनिश्चित करने के लिए अपने राज्य के काम और क्षमता में सुधार कर सकें।’
वैक्सीन मैत्री की मुहिम
अंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषकों के मुताबिक़, इस बात को जाने दें कि कैसे भारत ने 2004 में विदेशी मदद लेनी बंद कर दी थी और अब लेने लगा है। उनके अनुसार कुछ महीने पहले तक भी भारत उन बड़े देशों में शामिल था जो दूसरे जरूरतमंद देशों की सहायता कर रहा था।
भारत ने पिछले साल महामारी से निमटने के लिए 100 से अधिक देशों को दवाएं भेजीं और पड़ोसियों की सहायता के लिए आसान शर्तों पर कर्ज दिए।
भारत उन फ्रंटलाइन देशों में शामिल था जो कोरोना टीके की वैश्विक मुहिम में शामिल था। अप्रैल के शुरू में कोरोना की दूसरी लहर से हो रही तबाही के बाद लोगों को ये समझ में आया कि मोदी सरकार ने इससे निपटने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए थे। पीडि़त लोग मोदी से जवाब मांग रहे हैं कि ‘हम यहाँ तक कैसे पहुंचे कि आज हमें दूसरे देशों से मदद मांगनी पड़ रही है।’
मोदी सरकार ने इस इस वैश्विक टीकाकरण की मुहिम के अंतर्गत जो मदद देनी शुरू की थी उसका नाम ‘वैक्सीन मैत्री’ रखा था। भारत ने दर्जनों देशों को वैक्सीन सप्लाई भी की, लेकिन इस बात का ख्याल नहीं रखा गया कि देश के 135 करोड़ आबादी के लिए वैक्सीन काफी मात्रा में कैसे उपलब्ध हो सकेगा, जैसा कि दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने अपने एक हाल के ट्वीट में कहा, ‘विदेशों में बेचने के लिए केंद्र के पास 6।5 करोड़ वैक्सीन थे, और जब राज्य मांगे तो केवल 3।5 लाख। बीजेपी बताये कि अपने देश के लोगों में को मरता छोडक़र विदेशों में वैक्सीन बेचने की आखिर क्या मजबूरी है?’
पूर्व राजदूत अचल मल्होत्रा कहते हैं कि वैक्सीन मैत्री की मुहिम को अभी के परिपेक्ष में देखना मुनासिब नहीं होगा। वो कहते हैं, ‘मेरा दृढ़ मत है कि अतीत में लिए गए किसी भी निर्णय को उस स्थिति की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए, जो उस समय था, यह एक सही निर्णय था जब इसे घरेलू आवश्यकताओं के लिए और विदेशी खपत के लिए टीके के कैलिब्रेटेड सप्लाई के आकलन के आधार पर लिया गया था।’
लेकिन वो वैक्सीन मैत्री पर उठने वाले सवालों को भी समझते हैं। वो कहते हैं, ‘दूसरी लहर ने अचानक परिदृश्य को बदल दिया है जब टीके की सप्लाई हमारी निरंतर आवश्यकताओं के साथ तालमेल नहीं रख पा रही हैं, इसलिए वैक्सीन मैत्री को लॉन्च करने की बुद्धिमता पर कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं, हालाँकि वैक्सीन मैत्री भारत को लाभ मिला है। वास्तव में वैक्सीन मैत्री से पैदा हुई साख ने विदेशी सहयोगियों से मिलने वाली मदद सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई।’
लेकिन राजीव डोगरा के मुताबिक़ ये भी एक सच है कि दुनिया भर में वैक्सीन फैक्ट्री की भारत की छवि को भी क्षति पहुंची है। दूसरे देशों को वैक्सीन बेचने या भेंट करने वाला देश आज वैक्सीन दूसरों से मांग रहा है।
कितना नुकसान
विशेषज्ञों के अनुसार भारत की पिछले कुछ हफ्तों में बड़ी बदनामी हुई है। प्रधानमंत्री मोदी की क्षमता पर सवाल उठाए गए हैं लेकिन अगर तीसरी लहर के लिए तैयारी अभी से सही ढंग से की गई तो बिगड़ी छवि सुधर सकती है। चीन के प्रोफेसर हुआंग युनसॉन्ग के विचार में देश की शक्ति को वक्ती मजबूरी के चश्मे से नहीं देखना चाहिए।
वो कहते हैं, ‘किसी देश की शक्ति, क्षमता या छवि को उसके विदेशी सहायता स्वीकार करने पर जज करना अनुचित है। जरुरत पडऩे पर आपातकालीन समय में अमेरिका और कई बड़े देश खुद को विदेशों की सहायता लेने की स्थिति में पाते हैं।’
राजीव डोगरा कहते हैं कि मुंबई एक उदाहरण है जिसने पिछले साल धारावी में आए संकट और इस बार के संकट से कितनी अच्छी तरह निबटा है। उनके विचार में अगर मुंबई का फ़ॉर्मूला देश के दूसरे शहरों और राज्यों में अपनाया जाता तो विदेश से आज सहायता लेने की ज़रुरत न पड़ती।
वे कहते हैं, ‘मुंबई ने ये मिसाल क़ायम कर दी कि विकेंद्रीकरण करके, सीमित साधन के साथ महामारी से कैसे निपटा जा सकता है। इसे राष्ट्रीय स्तर पर दोहराना असंभव नहीं था। ये सब देखते हुए अब ऐसी स्थिति में हैं की हर जगह हाथ फैला रहे हैं। हम ऐसी बेबसी के आलम में आ गए हैं कि कई सवाल खड़े होते हैं। हमें खुद से पूछना चाहिए कि एक आत्मविश्वास से भरा देश जो उभरते स्टार की तरह था, जो चीन के साथ मुक़ाबला करना चाहता था, वो अब एक ऐसी स्थिति में आ गया है कि विदेशी मदद ले रहा है।’
दूसरी लहर के कहर से भारत और पीएम मोदी की छवि को कितना नुकसान हुआ है इस पर लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है, लेकिन मोटे तौर पर यह जरूर है कि कोई यह नहीं कह रहा कि मार्च 2020 से मार्च 2021 के बीच भारत ने वो सब किया, जो उसको करना चाहिए था। (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह गनीमत है कि ईद के मौके पर अफगानिस्तान के तालिबान और सरकार ने अगले तीन दिन के लिए युद्ध-विराम की घोषणा कर दी है। पिछली 1 मई से अफगानिस्तान के विभिन्न शहरों में तालिबान ने इतने हमले किए हैं कि जितने उन्होंने पिछले एक साल में भी नहीं किए। पिछले साल फरवरी में तालिबान और अफगानिस्तान की गनी सरकार के बीच जो समझौता हुआ था, वह अब हवा में उड़ गया है।
यह समझौता अमेरिका की पहल पर कतर की राजधानी दोहा में हुआ था। इस समझौते के मुताबिक 1 मई 2021 को अफगानिस्तान से सारी विदेशी फौजों को वापस चले जाना था। यह समझौता ट्रंप-प्रशासन ने करवाया था लेकिन बाइडन-प्रशासन ने इसकी तारीख बदल दी। उसने घोषणा की कि 1 मई को नहीं, अब अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान से 11 सितंबर 2021 को वापस लौटेंगी। यह वह दिन है, जिस दिन तालिबान ने अमेरिका पर हमला किया था।
तालिबान इस तिथि-परिवर्तन से बेहद नाराज़ हैं। इसे वे अपना अपमान मानते हैं। इसलिए 1 मई के बाद तालिबान ने अफगानिस्तान में लगातार हमले बोल रखे हैं। बाइडन-प्रशासन ने गनी-सरकार को भरोसा दिलाया है कि 11 सितंबर के बाद भी अमेरिका अफगानिस्तान का ख्याल रखेगा। उसे वह आतंकवादियों के हवाले नहीं होने देगा। इसका तालिबान यही अर्थ निकाल रहे हैं कि अमेरिका अफगानिस्तान में डटा रहेगा। अफगानिस्तान से फौजी वापसी की इच्छा ओबामा और ट्रंप, दोनों प्रशासनों ने व्यक्त की थी और उसके आधार पर अमेरिकी जनता के वोट भी जुटाए थे लेकिन तालिबान को शक है कि अमेरिका अफगानिस्तान में डटे रहना चाहता है। उसका कारण तो यह है कि परमाणु समस्या पर अभी तक दोनों देश, अमेरिका और ईरान उलझे हुए हैं और रुस के साथ भी अमेरिका की तनातनी चली आ रही है।
चीन के साथ भी अमेरिका की कूटनीतिक मुठभेड़ तो जग-जाहिर है। ऐसी हालत में अफगानिस्तान में टिके रहना उसे अपने राष्ट्रहित की दृष्टि से जरुरी लग रहा है। उसने वियतनाम को खाली करने का नतीजा देख लिया है। उत्तरी वियतनाम को दक्षिण वियतनाम जीम गया है। यद्यपि अफगानिस्तान बहुत ही गहन राष्ट्रवादी देश है लेकिन पाकिस्तान तालिबान के जरिए वहां अपना वर्चस्व कायम करना चाहेगा। पाकिस्तानी वर्चस्व फिलहाल अफगानिस्तान में रुस और चीन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
यह गणित भारतीय विदेश मंत्रालय के दिमाग में भी हो सकता है। इस मौके पर, जबकि तालिबान के लगातार हमले हो रहे हैं, पाक सेनापति और गुप्तचर-प्रमुख की काबुल-यात्रा का अभिप्राय क्या है ? क्या वे तालिबान को चुप कराने के लिए काबुल गए हैं और गनी सरकार का मनोबल बढ़ाने के लिए गए हैं ? यह एक पहेली है। इस मौके पर भारत सरकार का मौन और उदासी अपने आप में एक पहेली है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ग्रेट ब्रिटेन ने 1947 में भारत के दो टुकड़े कर दिए थे। अब उसके भी कम से कम दो टुकड़े होने की नौबत आ गई है। यों तो ब्रिटेन ग्रेट बना है, चार राष्ट्रों को मिलाकर। ब्रिटेन, स्कॉटलैंड, वेल्श और उत्तरी आयरलैंड ! इन चारों राज्यों का कभी अलग-अलग अस्तित्व था। इनकी अपनी सरकारें थीं, अपनी-अपनी भाषा और संस्कृति थी। लेकिन ग्रेट ब्रिटेन बन जाने के बाद इन राष्ट्रों की हैसियत ब्रिटेन के प्रांतों के समान हो गई।
इंग्लैंड की भाषा, संस्कृति, परंपरा का वर्चस्व इन राष्ट्रों पर छा गया लेकिन स्कॉटलैंड के लोग हमेशा अपनी पहचान पर गर्व करते रहे और वे अपनी स्वायत्तता के लिए संघर्ष भी करते रहे। यूरोपीय संघ बनने के बाद या यों कहिए कि द्वितीय महायुद्ध के बाद के वर्षों में स्कॉटलैंड के लोगों ने महसूस किया कि व्यापार और राजनीति के हिसाब से वे लोग अंग्रेजों के मुकाबले नुकसान में रहते हैं। वे स्कॉटलैंड को इंग्लैंड से अलग करना चाहते हैं।
अलगाव की इस मांग को जोरों से गुंजाने वाली पार्टी ‘स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी’ इस बार फिर चुनाव जीत गई है। 2007 से अब तक वह लगातार चौथी बार जीती है, हालांकि 129 सदस्यों की उसकी संसद में उसे 64 सीटें ही मिली हैं लेकिन सरकार उसी की बनेगी, क्योंकि अन्य पार्टियों को बहुत कम-कम सीटें मिली हैं। इसी स्कॉट राष्ट्रवादी पार्टी की पहल पर 2014 में स्कॉटलैंड में जनमत-संग्रह हुआ था कि स्कॉटलैंड को ग्रेट ब्रिटेन से अलग किया जाए या नहीं ?
उस जनमत संग्रह में लगभग 55 प्रतिशत लोगों ने अलगाव का विरोध किया था और 45 प्रतिशत ने आजाद स्कॉटलैंड का समर्थन किया था। लेकिन इस बीच स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी की नेता और स्कॉटलैंड की मुख्यमंत्री निकोला स्टरजियोन ने आजादी के आंदोलन को अधिक प्रबल बनाया है। उनके हाथ मजबूत करने में यूरोपीय संघ से 2016 में ब्रिटेन के बाहर निकलने का विशेष महत्व रहा है।
स्कॉटलैंड यूरोपीय संघ में बने रहना चाहता था, क्योंकि उसके बहिष्कार से उसका अंतरराष्ट्रीय व्यापार सबसे ज्यादा प्रभावित होना था। स्कॉटलैंड के वे लोग जो 2014 में आजादी के पक्ष में नहीं थे, वे भी आजादी का समर्थन करने लगे हैं।
इसीलिए चुनाव परिणाम आते ही निकोला ने जनमत-संग्रह दुबारा कराने की मांग बुलंद कर दी है। प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन ने इस मांग को रद्द कर दिया है। 2016 के ब्रेक्जिट जनमत-संग्रह में ब्रिटेन के 52 प्रतिशत लोगों ने यूरोपीय संघ से बाहर आने का समर्थन किया था जबकि स्कॉटलैंड के 66 प्रतिशत लोगों ने उसमें बने रहने की इच्छा प्रकट की थी।
दूसरे शब्दों में यदि अब दुबारा जनमत-संग्रह हो गया तो ब्रिटेन का टूटना सुनिश्चित है। जाहिर है कि अब ब्रिटेन और स्कॉटलैंड की सरकारों के बीच तलवारें खिंचेंगी। कोई आश्चर्य नहीं कि ग्रेट ब्रिटेन भी विभाजन के उसी दौर से गुजरे, जिससे 1947 में भारत गुजरा था।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
दो नावों की सवारी सबको नहीं सुहाती। वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी बड़ोदरा और वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़े। प्रधानमंत्री मोदी साल 2019 में सिर्फ बनारस से। भाजपा के केरल प्रदेशाध्यक्ष सुरेन्द्रन दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़े। सबरीमाला मुद्दे पर इतना प्रचार करने के बावजूद कोनी विधानसभा क्षेत्र से पटखनी खाई। पुदुचेरी वासी एन रंगासामी ने अपने नाम से अखिल भारतीय एनआर कांग्रेस पार्टी बना रखी है। प्रधानमंत्री तक अपने नाम से उनके जैसी अलग पार्टी नहीं बना सके। अखिल भारतीय क्या? मोहल्ला स्तर तक की नहीं। मोदी जैसी लोकप्रियता साबित करने के जोश में एन रंगासामी दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़े। तीस विधायकों वाले पुदुचेरी में अपनी ऑल इंडिया कांग्रेस और भाजपा की काकटेल सरकार के मुख्यमंत्री तो बन गए। यनम विधानसभा क्षेत्र में निर्दलीय श्रीनिवास अशोक ने बुरी तरह पछाड़ा। पुदुचेरी में दोपहिये पर प्रचार करने वाले रंगासामी ने यनम में पदयात्रा-प्रचार किया था।
आरोपों की खेती
न हमें आपकी याददाश्त की परीक्षा लेना है और न सामान्य ज्ञान की। विधानसभा चुनाव प्रचार के किस्से याद हैं। महामारी याद है। किसान आंदोलन कितने दिन से चल रहा है? याद नहीं। जिन्हें याद रखना चाहिए, वे भी भूल गए कि तीन कृषि विधेयक रद्द कराने की किसानों की मांग की समीक्षा करने मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े ने समिति बनाई थी। रपट आई। बोबड़े सेवानिवृत्त हो चुके हैं। रपट और उस पर सरकारी कार्रवाई का पता नहीं। कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर इन दिनों असम का मुख्यमंत्री तलाश करने में व्यस्त हैं। एक और रपट तैयार होनी थी। गणतंत्र दिवस की हिंसा से पहले और बाद में बार-बार आरोप लगा कि किसानों के आंदोलन के पीछे खालिस्तानी षडय़ंत्र है। बकौल पुलिस आयुक्त एस एन श्रीवास्तव-जांच जारी है। अभी कुछ कहना ठीक नहीं होगा। आरोप लगाने वाली दिल्ली पुलिस बारात की दुलकी घोड़ी की चाल चल रही है। सच सब जानते हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री तो बखूबी वाकिफ हैं।
वोट आयात
बंगाल के चुनाव नतीजों से कुछ लोगों का दिमाग सातवें आसमान पर है। जग जीतने वाली मुद्रा में उछलने वाले इन लोगों को पता नहीं है, कि अगले चुनाव में नतीजे बदल सकते हैं। कैसे? तैयारी शुरू हो चुकी है। राजभक्त नौकरशाह सुनील अरोड़ा मुख्य निर्वाचन आयुक्त के पद से मुक्त होने के पहले बुनियादी काम निबटाकर गए हैं। सुनील-सुशील की जोड़ी यानी पूर्व और वर्तमान मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुशील चंद्रा ने रपट तैयार की। रपट विदेश मंत्रालय पहुंच चुकी है। आयोग ने विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों को भारत में अपने राज्यों में वोट देने का अधिकार देने की सिफारिश की है। दुनिया भर में फैले भारतीय परदेश के वर्तमान घर में बैठे भारत के भाग्य विधाता बन सकेंगे। फिलहाल कोरोना बचाव की सामग्री के आयात पर ध्यान है। आयोग की सिफारिश फुर्सत से विचार होगा। परदेश से जयकारा करना अलग बात है। एक बार फिर ट्रम्प सरकार नारों के बावजूद डोनाल्ड ट्रम्प की फजीहत देख चुके हैं।
आ सूचना आ
अपनों पर नजर रखने के लिए दुनिया का सबसे पुराना खुफिया महकमा है-आइबी। अंगरेजी में पूरा नाम इंटेलिजेंस ब्यूरो।133 बरस पहले अंगरेजों ने हिंदुस्तान के मुक्ति आंदोलन की टोह लेने तथा स्वाधीनता का जोश नेस्तनाबूद करने के लिए इस विभाग को बनाया। छह साल पहले छह महीने के लिए अजीत डोभाल भी यह महकमा संभाल चुके हैं। विधानसभा चुनाव की मतगणना से कुछ पहले आइबी के नाम से विजय अनुमान प्रसारित हुए। आइबी के पैड पर प्रसारित आंकलन में पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के 201 से 205 और भाजपा को 92 से 96 के बीच उम्मीद्वारों की जीत की संभावना जताई गई थी। लैटरहैड पर प्रतीक चिह्न उकेरा हुआ था। पूर्वानुमान सत्य के बहुत करीब रहा। ब्यूरो और साइबर सेल ने आइबी के नाम से अनुमान जारी करने की प्रवीणता हासिल करने वाली शक्ति का स्रोत जानने की कोशिश नहीं की। संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद सदमे में हैं। उनसे पूछने के बजाय दिलचस्प सत्य बताए देते हैं। आईबी को हिंदी में आसूचना ब्यूरो कहते हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-विकास कुमार
कोरोना महामारी के विकराल रूप से सभी प्रकार के वर्ग एवं समुदाय प्रभावित हुआ है । विगत 24 घंटों में लगभग 4 लाख 32 हजार से अधिक नए केस सामने आए हैं। पूरे देश में कोई संपूर्ण लॉकडाउन की मांग कर रहा है तो कोई कह रहा है कि इससे कई प्रकार की अन्य समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी। यह बात सच है कि कोरोना महामारी के दूसरे लहर के चैन को तोड़ने के लिए लॉकडाउन एक विकल्प हो सकता है। परंतु इसके लिए क्या सरकारें सभी प्रकार से तैयार हैं? यह भी प्रश्न सामने खड़ा हो जाता है। आज इस महामारी से सर्वाधिक परेशानी दिहाड़ी मजदूरों को हो रही है, क्योंकि एक ओर इस विकराल प्रकोप से लड़ रहा है, दूसरी ओर भूखमरी, रोजमर्रा की जिंदगी और दैनिक समस्याओं से भी जूझ रहा है। दिहाड़ी मजदूर असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं जिनका प्रतिदिन खाना और प्रतिदिन कमाना होता है। इस श्रेणी में- दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चालक, मोची, नाई, घरों में काम करने वाले, दुकानों में काम करने वाले लोग, ठेला लगाने वाले लोग और पल्लेदारी करने वाले आदि इसी श्रेणी में आते हैं। यह प्रायः अपने गांव या जिले से स्थानांतरण करके दूसरे शहर या प्रदेश में रोजी-रोटी की तलाश में आते हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में ऐसे कामगार वर्गों की आबादी 27 फ़ीसदी यानी 45 करोड़ है। इनमें से कुछ 200 कुछ 400 एवं कुछ 600 प्रतिदिन कमाते हैं। इस पैसे से यह अपना और अपने संपूर्ण परिवार का खर्च चलाते हैं और उनका भरण पोषण करते हैं। किसी परिवार में कमाने वाला केवल एक ही व्यक्ति होता है और वही संपूर्ण परिवार की आवश्यकता की पूर्ति करता है। इस प्रकार की दिहाड़ी मजदूरों की संख्या सबसे अधिक उत्तर प्रदेश एवं बिहार की है। जो महाराष्ट्र, दिल्ली एवं गुजरात में रहकर अपना जीवन यापन करते हैं। महाराष्ट्र सरकार ने पहले ही लॉकडाउन की घोषणा कर दिया। जिसमें भारी संख्या में मजदूरों का पलायन गांव की ओर हुआ। पिछले वर्ष सरकार के अचानक लॉकडाउन कर देने की वजह से कुछ को पैदल, कुछ को बस में एवं कुछ को बीच में ही रुकना पड़ा। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि यह समस्या केवल असंगठित क्षेत्र की है। संगठित क्षेत्र के भी सभी प्रकार के उद्योग-धंधे एवं व्यापार-वाणिज्य बंद हैं। एक देश का दूसरे देश से आयात निर्यात पूर्णतया है बंद है। ऐसे में बड़े-बड़े उद्योग एवं कंपनियां भी बंद पड़ी हुई हैं। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन के अनुसार, भारत में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की संख्या अधिक है इसलिए इनकी समस्याएं भी अधिक हैं। वर्ल्ड बैंक के अनुसार, लॉकडाउन के चलते विश्व में गरीबी रेखा का स्तर बढ़ा है। जिसमें सबसे अधिक भारत का (27%) है। बीते 6 माह में 1 करोड़ 20 लाख लोग प्रत्यक्ष रूप से गरीबी की चपेट में आए हैं। वही 3 करोड़ 50 लाख बीपीएल धारकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। यह दिहाड़ी मजदूर दिन प्रतिदिन काम करके अपना जीवनयापन करते हैं। इनमें से अधिकतम के पास घर नहीं होता, झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहते हैं। एक ही झुग्गी में पूरा परिवार रहता है। ऐसे में ना ही फिजिकल दूरी और ना ही सामाजिक दूरी की आशा की जा सकती है।
आज यह अपनी दैनिक आवश्यकताएं पूरे करने में असमर्थ हैं। मास्क, सैनिटाइजर की उम्मीद ही नहीं की जा सकती। ऐसा नहीं है कि लापरवाही के कारण कर रहे हैं। बहुत से मजदूरों और लोगों में देखा गया है कि वह अपना गमछा (साफी), महिलाएं साड़ी (फाड़ कर बनाया गया छोटा कपड़ा) और बच्चों को घर में पड़े कपड़े का मास्क इत्यादि बनाकर उपयोग कर रहे हैं। इनके पास मास्क और सैनिटाइजर का पैसा आएगा कहां से? संपूर्ण रोजगार के अवसर तो बंद पड़े हैं। काम की तलाश में इधर-उधर भटक भी रहे हैं। जिससे कि अपनी रोजी-रोटी चला सके परंतु काम कैसे मिले? शहर में स्वयं का घर ना होने के कारण झुग्गी और झोपड़ी बनाकर रहते हैं। कई शहरों से इनकी झुग्गी झोपड़ियां खाली करा दी गई। इनका गांव की ओर पलायन हुआ, कुछ गांव ने इनका प्रवेश ही वर्जित कर दिया जिसने प्रवेश दिया भी वहां किसी भी प्रकार की सहायता नहीं दी गई। एक और महामारी का प्रकोप, दूसरी ओर सामाजिक विभेद और रोटी की समस्या, ऐसी स्थिति में क्या करें? इस स्थिति में परिवार का सदस्य बीमार हो जाए तो वह क्या करेगा इसका उल्लेख ही नहीं किया जा सकता?
अधिकतम मजदूर यह बताते हैं कि उनके पास साहूकारों का कर्ज है। यदि वह गांव जाएंगे तो उनसे कर्ज मांगा जाएगा। पिछला कर्ज ना चुका पाने के कारण इस बार पैसा भी नहीं मिल सकेगा। ऐसी स्थिति में विकल्प विहीन मजदूर अपने भाग्य को कोसने और रोने के अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकता है। सरकारों के पास इनके समस्याओं का किसी भी प्रकार का ठोस हल नहीं है। यद्यपि , सरकारों ने राहत पैकेज की घोषणा जरूर की। क्या उसका फायदा सभी वर्गों को मिल पाया है? 'वर्ल्ड इकोनामिक फोरम' के अनुसार पिछले वर्ष के राहत पैकेज से लगभग 13 करोड लोग वंचित रह गए थे। भारत में सभी मजदूरों के पास ना ही लेबर कार्ड, ना ही राशन कार्ड और ना ही बैंक अकाउंट है। ऐसे में सरकार के राहत पैकेज का फायदा कितने लोग उठा पाएंगे।
यह बड़ा प्रश्न है! असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों को ना ही छुट्टी का पैसा मिलता है, ना ही किसी भी प्रकार की सुविधाएं। इनको प्रतिदिन काम के अनुसार पैसा दिया जाता है। सरकार के पास भी करोना कि दूसरी लहर के चेन को तोड़ने के लिए संपूर्ण लॉकडाउन के अतिरिक्त दूसरा विकल्प नहीं है। एक्सपर्ट्स के बयान भी सामने आ रहे हैं जिसमें वह संपूर्ण लॉकडाउन की सलाह दे रहे हैं। इसमें यह भी देखने की जरूरत है की संपूर्ण लॉकडाउन के लिए क्या देश तैयार है? क्या सरकार तैयार है? सभी प्रकार की बुनियादी आवश्यकताएं एवं जरूरतों की पूर्ति वह कर सकेगी? महाराष्ट्र में लॉकडाउन को लेकर ही कुछ इलाकों में धरना प्रदर्शन हुआ। यदि इस महामारी की चेन को तोड़ना है तो लॉकडाउन लगाना चाहिए। उसके लिए ठोस तैयारियां और सभी प्रकार के आवश्यक संसाधनों को भी जुटा लेना चाहिए। जिससे कि आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग किया जा सके। इस साल लॉकडाउन में दिहाड़ी मजदूरों एवं प्रतिदिन काम करने वाले व्यक्तियों की समस्याओं का अत्यंत ध्यान रखना चाहिए।
केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों को चाहिए कि उनके समस्याओं के लिए ठोस कदम उठाएं। विभिन्न प्रकार की योजनाएं और परियोजनाओं को संचालित करना चाहिए जिसका प्रत्यक्ष लाभ उठा सकें। जो भी राहत पैकेज केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा घोषित किया जाता है, शत-प्रतिशत नहीं मिल पाता। सरकार को चाहिए कि इस कार्य हेतु विशिष्ट अधिकारियों को नियुक्त करें। जो अपना काम निष्ठा के साथ करें। बहुत से लोगों के पास पैकेज का लाभ उठाने के लिए प्रमाण पत्रों का अभाव है। जिसमें यह देखना चाहिए की आवश्यक दस्तावेज ना होने के बावजूद भी उनको इसका लाभ दिया जाए।
राशन सामग्री और अधिक दी जाए, क्योंकि यह मूलभूत आवश्यकता है। यदि इन बुनियादी आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया गया तो महामारी से ज्यादा भुखमरी से लोग मरेंगे। इस क्रोना प्रकोप के चलते सरकार को कई प्रकार के भोजनालयों की भी व्यवस्था करनी चाहिए। जिसमें वंचित वर्ग भोजन कर सके। समाज और शेंठ भी आश्रितों की यथासंभव सहायता दे। मजदूरों की बस्तियों में पानी का संकट भी देखा जा रहा है ,क्योंकि लॉकडाउन लगने से सार्वजनिक नलों से पानी भर नहीं पा रहे हैं ।अन्य लोग अपने घरों से पानी दे नहीं रहे हैं। उनको भी कोविड-19 का खतरा लग रहा है। जहां पानी इत्यादि समस्या है वहां टैंकरों की व्यवस्था करनी चाहिए। क्योंकि पानी एक मूलभूत आवश्यकता है। अधिक संख्या में मजदूरों का गांव में पलायन करने के कारण , वहां के हालात भी बिगड़ चुके हैं। गांव में ना ही स्वास्थ्य की उचित सुविधा है और ना ही ज्यादा टेस्टिंग हो रही है। इस बार करो ना कि यह लहर गांव को भी परेशान कर रही है। पिछले वर्ष भारत से अधिक अन्य विकसित देशों की स्थिति गंभीर थी परंतु एक और उन्होंने कोरोनावायरस से लड़ा, दूसरे ओर अपने स्वास्थ्य के ढांचे को विकसित किया। यही कारण रहा कि आज वहां यह महामारी नियंत्रण में है। मजदूरों की समस्याओं के निदान हेतु सरकार और समाज दोनों को प्रयास करना चाहिए। लॉकडाउन से सबसे अधिक परेशानी का सामना उन्हीं को करना पड़ेगा।
(लेखक : इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक के राजनीति विज्ञान विभाग में रिसर्च स्कॉलर हैं)
-डॉ राजू पाण्डेय
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने पुनः कहा है कि नेशनल लॉकडाउन ही कोविड-19 की दूसरी लहर पर काबू पाने का एक मात्र जरिया है। आईएमए का कहना है कि वह पिछले 20 दिनों से पूर्ण और योजनाबद्ध लॉकडाउन की वकालत कर रही है जिसकी घोषणा पर्याप्त समय पूर्व की जानी चाहिए ताकि अफरातफरी न मचे। लॉक डाउन ही कोविड-19 के विनाशक संक्रमण की चेन तोड़ पाएगा। आईएमए का कहना है कि राज्यों द्वारा अलग अलग समयावधि के लिए लगाए जा रहे लॉक डाउन और रात्रि कालीन कर्फ्यू निष्प्रभावी रहे हैं। यही कारण है कि कोविड-19 संक्रमण का आंकड़ा 4 लाख व्यक्ति प्रतिदिन और इससे मृत्यु का आंकड़ा 4000 रोजाना के डरावने स्तर तक पहुंच गया है। आईएमए ने कहा जीवन अर्थव्यवस्था से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। अमेरिका के जाने माने महामारी विशेषज्ञ एंथोनी फाउची भी भारत में संक्रमण की गंभीरता को देखते हुए कुछ हफ़्तों के नेशनल लॉकडाउन का सुझाव दे चुके हैं। मिशिगन विश्विद्यालय के महामारी विशेषज्ञ भ्रमर मुखर्जी का भी यही सुझाव रहा है।
सीआईआई के अध्यक्ष तथा कोटक महिंद्रा बैंक के सीईओ उदय कोटक ने सीआईआई की तरफ से जारी एक बयान में कहा- इस नाजुक मौके पर जब मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है, सीआईआई राष्ट्रीय स्तर पर कठोरतम आर्थिक कदमों की वकालत करती है जिसमें आर्थिक गतिविधियों को सीमित करना भी सम्मिलित है जिससे मानव जीवन की रक्षा हो सके। सीआईआई ने अप्रैल के अपने उस रुख में बदलाव किया है जब उसने एक सर्वेक्षण द्वारा नेशनल लॉक डाउन को अनुचित बताया था। वरिष्ठ कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 7 मई को प्रधानमंत्रीजी को संबोधित अपने पत्र में लिखा-"भारत सरकार की विफलता ने आज राष्ट्रीय स्तर पर एक और विनाशकारी लॉकडाउन को अपरिहार्य बना दिया है। -इन तथ्यों के आलोक में, यह महत्वपूर्ण है कि हमारे लोग ऐसी संभावित परिस्थितियों के लिए तैयार रहें। पिछले साल के लॉकडाउन के कारण होने वाली अथाह तकलीफों की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए, सरकार को सह्रदयतापूर्वक कार्य करते हुए हमारे सबसे कमजोर वर्ग के लोगों को जरूरी वित्तीय और खाद्य सहायता प्रदान करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, उन लोगों के लिए एक परिवहन रणनीति भी तैयार की जानी चाहिए, जिन्हें इसकी आवश्यकता हो सकती है। मुझे पता है कि आप लॉकडाउन के आर्थिक प्रभाव के बारे में चिंतित हैं। इस वायरस को भारत के अंदर और बाहर अपना विनाश जारी रखने की अनुमति देने के त्रासदीपूर्ण परिणाम होंगे और उसकी मानवीय लागत आपके सलाहकारों द्वारा सुझाई गई किसी भी आर्थिक गणना से अधिक होगी।"
इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट की एक त्रिसदस्यीय बेंच भी यही सुझाव दे चुकी है। बेंच ने केंद्र सरकार से कहा- लोगों की भलाई को मद्देनजर रखते हुए कोविड की इस दूसरी लहर में वायरस पर नियंत्रण करने के लिए लॉक डाउन लगाने पर विचार करें। हम लॉक डाउन के सामाजिक आर्थिक प्रभावों से अवगत हैं- विशेष रूप से हाशिए पर जीवन यापन करने वाले समुदायों पर पड़ने वाले असर से। इसलिए यदि लॉक डाउन का उपाय अपनाया जाता है तो इन समुदायों की जरूरतों को पूरा करने हेतु उपाय पहले से ही किए जाने चाहिए।
कोविड-19 की स्थिति पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री जी ने 20 अप्रैल 2021 को कहा - "आज की स्थिति में हमें देश को लॉकडाउन से बचाना है। मैं राज्यों से भी अनुरोध करूंगा कि वो लॉकडाउन को अंतिम विकल्प के रूप में ही इस्तेमाल करें। लॉकडाउन से बचने की भरपूर कोशिश करनी है। और माइक्रो कन्टेनमेंट जोन पर ही ध्यान केंद्रित करना है। हम अपनी अर्थव्यवस्था की सेहत भी सुधारेंगे और देशवासियों की सेहत का भी ध्यान रखेंगे।"
25 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री जी द्वारा जब पहले नेशनल लॉक डाउन की घोषणा की गई थी तब देश में कोविड-19 के कुल 606 मामले थे और 10 लोगों की मृत्यु इसके कारण हुई थी। लॉक डाउन चरणबद्ध रूप से पुनः आगे बढ़ाया गया। 75 दिन की पूर्ण तालाबंदी के बाद जब 8 जून 2020 से अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हुई तब देश में कुल मिलाकर संक्रमण के 2 लाख 50 हजार मामले थे और 7200 लोगों की मृत्यु हो चुकी थी। यदि इसकी तुलना वर्तमान स्थिति से करें तो आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 20 अप्रैल 2021 को कोरोना संक्रमित लोगों की दैनिक संख्या 259160 थी, 9 मई 2021 को यह रोजाना का आंकड़ा बढ़कर 403738 हो गया जबकि मृतकों की दैनिक संख्या 20 अप्रैल के 1761से बढ़कर 9 मई को 4092 पर पहुंच गई।
यह दावा कि पहला राष्ट्रीय लॉक डाउन अनिवार्य था क्योंकि तब हम वायरस के विषय में कुछ जानते नहीं थे और इस 75 दिन की अवधि का उपयोग हमने तैयारी के लिए किया जितना कमजोर है उससे भी ज्यादा नामुमकिन प्रधानमंत्री जी का आज का यह ख्वाब है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था की सेहत भी सुधारेंगे और देशवासियों की सेहत का भी ध्यान रखेंगे। पहले नेशनल लॉक डाउन की घोषणा के पहले न तो संसद को विश्वास में लिया गया था न ही राज्यों को। निष्पक्ष राय रखने वाले वैज्ञानिकों, चिकित्सा विशेषज्ञों और आर्थिक मामलों के जानकारों से यदि कोई परामर्श लिया भी गया था तो उसे माना नहीं गया था। नतीजतन देश के आर्थिक हालात बिगड़ गए।
घटनाक्रम अभी भी कुछ वैसा ही चल रहा है। अभी भी बहुसंख्य वैज्ञानिकों, चिकित्सा विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की राय की अनदेखी की जा रही है। नेशनल लॉक डाउन की मांग करते विरोधी दलों और राज्यों के सुझावों की अब भी उपेक्षा हो रही है। केवल परिणाम में अंतर है- 25 मार्च 2020 को देश पर अविचारित लॉक डाउन थोप दिया गया था और अब जब कोविड-19 की भयावह दूसरी लहर चरम पर है, कमजोर स्वास्थ्य तंत्र अंतिम सांसें ले रहा है, सर्वत्र मौत का तांडव है, हाहाकार मचा हुआ है तब विशेषज्ञों की निरंतर गुहार के बाद भी हम "जान भी ,जहान भी" के पुराने स्लोगन पर अटके पड़े हैं।
प्रधानमंत्री जी नेशनल लॉक डाउन के प्रश्न पर मौन क्यों हैं? 20 अप्रैल 2021 को देशवासियों को संबोधित करते हुए उन्होंने लॉक डाउन लगाने के प्रति जो अनिच्छा व्यक्त की थी क्या अब भी वह कायम है? क्या उनके मन के किसी अप्रकाशित कोने में कहीं यह अपराध बोध छिपा है कि पहला अविचारित लॉक डाउन एक गलती था जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई? क्या प्रधानमंत्री जी इतने दुविधाग्रस्त हो गए हैं कि जब हालात और जानकार चीख चीख कर राष्ट्रीय स्तर पर लॉक डाउन जैसे किसी निर्णय की मांग कर रहे हैं तो उनमें ऐसे किसी सुझाव पर अमल करने का साहस नहीं है? क्या अभी भी उनका व्यवहार देश के प्रधानमंत्री की भांति न होकर एक सत्ता पिपासु कठोर राजनेता जैसा ही है? राज्यों पर लॉक डाउन की जिम्मेदारी डालकर कहीं वे केंद्र-राज्य नामक पुराने खेल को तो बढ़ावा नहीं दे रहे हैं जो इस समय अनावश्यक ही नहीं खतरनाक भी है? क्या वे इस सत्य से अवगत नहीं हैं कि इन बेकाबू हालात में केंद्र और राज्य के पारस्परिक दोषारोपण का यह खेल आत्मघाती सिद्ध होगा? क्या वे नेशनल लॉक डाउन की घोषणा करने हेतु इस कारण अनिच्छुक हैं क्योंकि उन्हें पता है ऐसी किसी घोषणा के साथ गरीबों के लिए आर्थिक राहत पैकेज के ऐलान का नैतिक उत्तरदायित्व अपरिहार्य रूप से जुड़ा है? क्या देश के आर्थिक हालात इतने खराब हैं कि हाशिए पर जीवन यापन कर रहे लोगों को कोई राहत देने की स्थिति में सरकार अब नहीं है? या गरीब अब सरकार की प्राथमिकता में नहीं हैं क्योंकि सरकार सेंट्रल विस्टा जैसे प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए कटिबद्ध नजर आ रही है।
क्या राज्यों द्वारा अलग अलग समय पर पृथक पृथक नियमों के साथ लगाए गए लॉक डाउन के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित नहीं हो रही हैं? क्या टुकड़े टुकड़े में राज्यों द्वारा लगाए गए लॉक डाउन से अर्थव्यवस्था को होने वाला नुकसान एकमुश्त दो या तीन हफ्ते के लिए लगाए गए नेशनल लॉक डाउन के कारण होने वाली हानि से बहुत अधिक नहीं है?
क्या प्रधानमंत्री जी सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के उन आंकड़ों से अवगत नहीं हैं जिनके अनुसार अप्रैल 2021 के दौरान देश में 70 लाख से ज्यादा लोगों को नौकरी गंवानी पड़ी है, इस कारण देश में बेरोजगारी दर मार्च के 6.5 फीसदी से बढ़कर 7.97 फीसदी पर पहुंच गई है? क्या प्रधानमंत्री जी सीएमआईई की भांति यह नहीं मानते कि लॉकडाउन के कारण ठप हुई व्यापारिक गतिविधियों की वजह से ही नौकरियों में गिरावट दर्ज की गई है? क्या प्रधानमंत्री जी प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी के दृश्यों को देख नहीं पा होंगे? क्या वे ट्रेन और बसों में टिकट के लिए मारामारी करते इन प्रवासी मजदूरों की पीड़ा से अवगत नहीं होंगे? कहीं प्रधानमंत्री जी समय बिताने की रणनीति पर तो नहीं चल रहे हैं?महामारी जितने लोगों को प्रभावित कर सकती है वह कर लेगी और धीरे धीरे जीवन पटरी पर लौट आएगा हालांकि तब तक लाखों जिंदगियां नष्ट हो चुकी होंगी। क्या देश के बिगड़ते हुए आर्थिक हालात आंख मूंद लेने से सुधर जाएंगे? क्या बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़ों को अस्वीकार कर देने में ही इसका समाधान निहित है?
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या आदरणीय प्रधानमंत्री जी इतने विनम्र एवं उदार हैं कि वे वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, महामारी विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों एवं विपक्षी राजनेताओं के सकारात्मक सुझावों को स्वीकार करें, उन्हें अमल में लाएं? अथवा क्या देश को प्रधानमंत्री जी के एक और चौंकाने वाले निर्णय के आघात को झेलने के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर लेना चाहिए? आदरणीय प्रधानमंत्री जी की अब तक की कार्य प्रणाली से तो कुछ ऐसा ही लगता है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-कनक तिवारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचनाओं का मैं विरोध करूंगा, 135-137 करोड़ के देश को एक व्यक्ति कैसे संभाल लेगा। लेकिन उनमें हिम्मत देखिए। संभाल रहे हैं। ऐसा प्रधानमंत्री इतिहास में कभी नहीं हुआ। देश में लाखों मर रहे हैं। खप रहे हैं लेकिन उनमें इतना दार्शनिक भाव है कि हम सब को हिम्मत दे रहे हैं कि मृत्यु तो एक क्षण भंगुर चीज है। इसकी परवाह मत करो ।जीवन अमर है और तुम्हारी आत्मा अमर है। हम अमर आत्मा के देश हैं। देह तो हमारी दुश्मन है। उन्होंने पूरे देश में घूम-घूम कर लोगों को लोकतंत्र के बारे में साहस के बारे में बीमारी के बारे में इतना बताया।
अब लोग ही मूर्ख हैं तो प्रधानमंत्रीजी क्या करेंगे! उन्होंने बंगाल में भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति को गवर्नर बनाया है। जो लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए वहां उन जगहों पर भी जाकर घूमेंगे जहां हिंसा नहीं भी हो रही है ।और एक सच्ची रिपोर्ट मौजूदा सरकार के खिलाफ देंगे ताकि देश में प्रधानमंत्री का जलजला कायम रहे।।
विदेशों को एक भारतीय दानवीर की तरह उन्होंने सारी वैक्सीन और सारी दवाइयां पहले ही भेज दीं और थाली और घंटी बजा कर देश को आश्वस्त कर दिया कि हमारे यहां बीमारी नहीं होगी। अब यह चीन की बीमारी धोखा देकर आ गई तो भोले भाले प्रधानमंत्री क्या करेंगे! जिस तरह वह हमारे देश की धरती में चीन घुस गया और जा नहीं रहा है उसी तरह यह बीमारी भी है! एक भोले व्यक्ति को कोई झूठा धोखेबाज तो कभी गुमराह सकता है।
हम अपने प्रधानमंत्री की दयाशीलता के साथ उदारता के साथ भोलेपन के साथ रहेंगे। उन्होंने देश को स्वास्थ्य मंत्री दिया जो कोरोना की भयानक बीमारी के दौरान हमारा मनोबल बढ़ाने के लिए हर भारतीय पुरुषों को मटर छीलने की प्रेरणा भी देता रहा। और हम भी मटर छील रहे हैं। हमने तो बहुत मटर छील कर घर में रख लिए हैं। जब तक कोरोना रहेगा तब तक हम मटर की सब्जी खा सकते हैं। हम हर्षवर्धन जी से अपना हर्ष इतनी मात्रा में वर्धन कर चुके हैं। रविशंकर प्रसाद जैसे अत्यंत वाचाल और तार्किक व्यक्ति को उन्होंने अपना कानून मंत्री बनाया है। ऐसे कानून मंत्री देश में अब तक हुए ही नहीं है। ऐसी चीजें ढूंढ कर लाते हैं जो संविधान और कानून की किसी किताब में नहीं है लेकिन मनुष्य के लिए आदर्श में हैं।
कितनी तारीफ करें ।आपके एक से एक प्रवक्ता हैं। प्रधानमंत्री जी के पक्ष में बोलने वाले संबित पात्रा ने तो इतिहास रच दिया है। महाभारत काल में संजय ने जो धृतराष्ट्र को बताया था वही मुद्रा संजय के नए संस्करण संबित पात्रा की होती है और प्रधानमंत्री को धृतराष्ट्र की भूमिका में समझते हैं कि प्रधानमंत्री का क्या दोष। उनके मंत्री उनके सौ पुत्रों की तरह हैं। अब कोई दुर्योधन की भूमिका करे तो उसका क्या भरोसा है। हम अपने प्रधानमंत्री के साथ रहेंगे। उनका गला खराब हो गया है कि मन की बात भी नहीं कर पा रहे हैं लेकिन मन की बात करने के लिए गला अच्छा हो इसकी क्या जरूरत है। हम तो उनकी बात अपने मन के कानों से सुन रहे हैं। सुनते रहेंगे। वे हैं तो सब कुछ मुमकिन है।
-प्रदीप सूरिन
कोरोना संक्रमण की वजह से हर रोज देश में हजारों लोग मर रहे हैं. सुबह फेसबुक और व्हाट्सएप खोलने पर हर दिन किसी न किसी की मौत की खबर ही आ रही है.
पिछले हफ्ते एक बड़े आईएएस अधिकारी से मेरी बातचीत हो रही थी. बता दूं कि ये अधिकारी पिछले साल देश में लॉकडाउन लगाने के लिए बनी कोर टीम के सदस्य रहे थे. मैने बड़ी मासूमियत से उनसे पूछा कि मोदी जी को देश में लॉकडाउन लगाने की सलाह किसने दी? अफसर ने बताया कि कोर टीम में सिर्फ स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़े अधिकारियों की ही बात मानी गई और देशभर में लॉकडाउन का फैसला लिया गया.
मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि लॉकडाउन का फैसला सही था या गलत. लेकिन एक बात मुझे अभी तक कचोट रही है. भारत जैसा देश जो पूरी दुनिया को दवाईयां और टीके उपलब्ध कराता है, खुद कोरोना महामारी से क्यों नहीं बच पा रहा है? जो देश दूसरे देशों को टीके सप्लाई करता है वहां टीकों की किल्लत कैसे हो सकती है? क्या भारत में दूसरी नेशनल हेल्थ इमरजेंसी आ गई है?
आपको याद होगा टीके तैयार होने से कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी स्वयं सीरम इंस्टिट्यूट में टहल कर आए थे. ऐसा लगा मानो प्रधानसेवक टीकों की तैयारियों का जायजा लेने गए हैं. एक आम नागरिक की नजर से देखें तो आपको इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगेगा. लेकिन मेरे जैसे कि पब्लिक हेल्थ के जानकार के लिए ये घटना झकझोर देने वाली थी. आप भी समझिए इस बात को.
इस घटना का मतलब साफ था कि भारत जैसा बड़ा देश कोरोना टीकों के लिए दो निजी कंपनियों पर निर्भर होने वाला है. सरकारी टीका कंपनियां होने के बावजूद देश के करोड़ों लोगों को कोरोना से बचाने के लिए प्राइवेट टीका कंपनियों पर निर्भर रहना पड़ेगा. यानी देश में एक बार फिर नेशनल हेल्थ इमरजेंसी आएगी.
पहले जानिए कि आखिर नेशनल हेल्थ इमरजेंसी होती क्या है और क्या भारत में पहले भी ऐसे हालात आ चुके हैं? आपको याद होगा कि 2008 में देश की तीन सरकारी टीका कंपनियों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के दबाव में बंद कर दिया गया था. देश के नवजात बच्चों को लगने वाले जीवनरक्षक टीके इन्हीं तीन संस्थानों में बनते थे. सरकारी यूनिट बंद होने से देश के करोड़ों बच्चों की जिंदगी बचाने के लिए निजी टीका कंपनियों पर आश्रित होना पड़ा था.
पूर्व स्वास्थ्य सचिव जावेद चौधरी की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने अपनी जांच में पाया कि सरकारी टीका कंपनियों के बंद होने के बाद निजी कंपनियों ने मनमाने दाम पर टीके बेचे. देश में लोगों की जान बचाने के लिए निजी कंपनियों पर निर्भरता को ही नेशनल हेल्थ इमरजेंसी कहा गया. जांच कमेटी ने सरकार से सिफारिश की थी कि देश के नागरिकों की जान बचाने के लिए कभी भी निजी कंपनियों पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए. दुनिया के कोई भी नियम भारतीयों की जान से ज्यादा अहम नहीं हो सकते.
कुछ लोगों का मानना ये भी हो सकता है कि निजी कंपनियां टीका तैयार करके थोड़ा मुनाफा कमा भी ले तो इसमें बुराई क्या है? दरअसल देश में इस वक्त महामारी एक्ट लागू है. कोरोना संक्रमण की वजह से देश में करोड़ों लोगों के मरने की संभावना है. ऐसे में आप सामान्य नियमों से नहीं चल सकते है.
भारत सरकार ने सीरम इंस्टिट्यूट और भारत बायोटेक को टीका तैयार करने के लिए कई सुविधाएं दी है. कायदे से सरकार को इन दोनों निजी कंपनियों से टीके का फार्मूला लेकर सरकारी कंपनियों को दे देना चाहिए था. ताकि टीके की किल्लत से लोगों की जान न जाए. लेकिन सरकार ने ऐसा किया नहीं. उल्टे इन कंपनियों से 300-400 रुपये में प्रति टीका खरीदा जा रहा है.
सरसरी निगाह में 300-400 रुपये बेहद कम दिखता है. लेकिन जब मामला राष्ट्रीय टीकाकरण को हो तो 1-2 रुपये का फर्क भी बहुत ज्यादा होता है. क्या सरकार को ऐसे हालात में खुद टीके नहीं बनाने चाहिए? आखिर कब तक इतने महंगे दामों में टीका खरीदा जा सकता है?
सरकार के इस अनदेखी के तीन नुकसान है. पहला, निजी कंपनियां मनमाने दाम पर टीका बेच रही हैं. भारत में हजारों लोगों के मरने के बावजूद निजी कंपनियां ज्यादा मुनाफे के लिए दूसरे देशों को टीका सप्लाई कर रही हैं. देश में हेल्थ इमरजेंसी के बावजूद सरकारी टीका कंपनियां चुपचाप बैठी हुई हैं.
और उधर अदार पूनावाला ब्रिटेन में करोड़ो रुपये का अपना नया बिजनेस सेटअप करने में व्यस्त हैं.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे टीवी चैनल और अंग्रेजी अखबार शहरों की दुर्दशा तो हमें काफी मुस्तैदी से बता रहे हैं लेकिन देश के एक-दो प्रमुख राष्ट्रीय स्तर के हिंदी अखबार हमें गांवों की भयंकर हालत से भी परिचित करवा रहे हैं। मैं उन बहादुर संवाददाताओं को प्रणाम करता हूं, जिन्होंने पत्रकारिता का धर्म सच्चे अर्थों में निभाया है। पहली कहानी है- ललितपुर जिले (उप्र) के 13 गांवों की। इन गांवों की आबादी 1 से 7 हजार तक की है। इन सभी गांवों में लोग थोक में बीमार पड़ रहे हैं। 500 आदमियों के गांव में 400 आदमी बीमार हो गए हैं। बड़े गांवों में पहले हफ्ते-दो हफ्ते में एक मौत की खबर आती थी। अब रोज़ ही वहां शवों की लाइन लगी रहती है। अगर आप लोगों से पूछें कि इतने लोगों को क्या हुआ है ? तो वे कहते हैं कि खांसी-बुखार है। पता नहीं यह खांसी-बुखार उनकी जान क्यों ले रहे हैं ?
उनसे पूछो कि आप लोग जांच क्यों नहीं करवाते? तो वे कहते हैं कि यहां गांव में आकर उनकी कौन डाक्टर जांच करेगा ? डाक्टर तो 50-60 किमी दूर कस्बे या शहर में बैठता है। 50-60 किमी दूर मरीज़ को कैसे ले जाया जाए? साइकिल पर वह जा नहीं सकता। इसीलिए गांव में रहकर ही खांसी-बुखार का इलाज करवा रहे हैं। उनसे पूछा कि इलाज किससे करवा रहे हैं तो उनका जवाब है कि जिलों की ओपीडी तो बंद पड़ी हैं। यहां जो झोलाछाप पैदली डाक्टर घूमते रहते हैं, उन्हीं की गोलियां अपने मरीजों को हम दे रहे हैं। वे 10 रु. की पेरासिटामोल 250 रुपए में दे रहे हैं।
कुछ गांवों के सरपंच कहते हैं कि हमारे गावं में कोरोना-फोरोना का क्या काम है ? लोगों को बस खांसी-बुखार है। यदि वह एक आदमी को होता है तो घर में सबको हो जाता है। जब सर्दी-जुकाम की सस्ती दवा की कालाबाजारी गांवों में इतनी बेशर्मी से हो रही है तो कोरोना की जांच और इलाज के लिए हमारे ग्रामीण भाई हजारों-लाखों रु. कहां से लाएंगे ?
ऐसा लगता है कि इस कोरोना-काल में हमारी सरकारों और राजनीतिक दलों को बेहोशी का दौरा पड़ गया है। जनता की लापरवाही इतनी ज्यादा है कि उप्र के पंचायत चुनावों में सैकड़ों चुनावकर्मी कोरोना के शिकार हो गए लेकिन जनता ने कोई सबक नहीं सीखा।
ऐसा ही मामला राजस्थान के सीकर जिले के खेवरा गांव में सामने आया। गुजरात से 21 अप्रैल को एक संक्रमित शव गांव लाया गया। उसे दफनाने के लिए 100 लोग पहुंचे। उन्होंने कोई सावधानी नहीं बरती। उनमें से 21 लोगों की मौत हो गई। ऐसी हालत उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश के कई अन्य गांवों में भी हो रही है लेकिन उसका ठीक से पता नहीं चल रहा है।
देश के गांवों को सिर्फ सरकारों के भरोसे कोरोना से नहीं बचाया जा सकता। न ही उन्हें भगवान भरोसे छोड़ा जा सकता है। देश के सांस्कृतिक, राजनीतिक, समाजसेवी, धार्मिक और जातीय संगठन यदि इस वक्त पहल नहीं करेंगे तो कब करेंगे ?(नया इंडिया की अनुमति से)
- रुचिर गर्ग
कोरोना की तीसरी लहर के खतरों के बीच स्वास्थ्य से जुड़ी विश्व विख्यात पत्रिका लैंसेट ने एक स्वतंत्र वैश्विक स्वास्थ्य अनुसंधान केंद्र के हवाले से चेतावनी दी है कि पहली अगस्त तक भारत में कोरोना से मरने वालों की संख्या दस लाख तक पहुंच जाएगी !!
क्या हम इसके लिए तैयार हैं ?
आज मौत का आंकड़ा करीब 2 लाख 43 हजार के आसपास है तब देश में सिर्फ चिताएं और कब्रें नजर आ रही हैं.
आंकड़ा दस लाख पहुंचा तो ?
दुनिया के बड़े–बड़े अखबार , टीवी चैनल्स भारत के हाल पर चिंता के साथ लिख रहे हैं ,खबरें दिखा रहे हैं पर लैंसेट स्वास्थ्य से जुड़ी विशेषज्ञ पत्रिका है इसलिए इसकी चिंताओं का महत्व अलग है. भारत में कोरोना के हाल पर दो दिन पहले ही प्रकाशित इस पत्रिका के संपादकीय की आज बड़ी चर्चा हो रही है.
इस पत्रिका ने भी कोरोना से निपटने में केंद्र की मोदी सरकार की नाकामियों पर तीखी टिप्पणी ही नहीं की हैं बल्कि कहा है कि मोदी सरकार संक्रमण को नियंत्रित करने की कोशिशों के बजाए ट्विटर पर अपनी आलोचनाओं को नियंत्रित करने में लगी रही.
लैंसेट ने भारत के टीकाकरण अभियान को असफल भी कहा है. इसकी वजह साफ है कि अभी तक टीके के दोनों डोज ले चुके नागरिकों की संख्या 3 फीसदी भी नहीं पहुंची है और सिंगल डोज वाले भी मुश्किल से दस फीसदी के आसपास हैं.
जब देश में टीके की जरूरत थी तो अंतरराष्ट्रीय नेता की छवि हासिल करने के लिए जितने टीके यहां लगे उससे ज्यादा अन्य देशों को भेजे गए. फाइजर की वैक्सीन को श्रीलंका ने हरी झंडी दे दी यहां अब जा कर इसके आने के आसार बन रहे हैं .तमाम विसंगतियां हैं जिनकी खूब चर्चा हो रही है.
लैंसेट ने अपने सुझावों में कहा है कि भारत में टीकाकरण की रफ्तार बढ़ाने के साथ–साथ सिर्फ शहरी ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित गरीब और ग्रामीण तबके का, जो देश की आबादी का 60 फीसदी है, टीकाकरण जरूरी है. छत्तीसगढ़ सरकार ने ऐसी पहल की थी.अभी अदालती आदेश पर नए सिरे से टीकाकरण योजना बनाई गई. ये अलग चर्चा का विषय है.
इस पत्रिका के संपादकीय में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही गई है. संपादकीय कहता है कि कोरोना नियंत्रण के सरकारी प्रयास तभी सफल होंगे जब सरकार अपनी गलतियों को स्वीकार करेगी, पारदर्शिता के साथ एक जिम्मेदार नेतृत्व होगा और एक ऐसी जन स्वास्थ्य पहल होगी जिसके हृदय में विज्ञान होगा .वरना दस लाख मौतें हो गईं तो उस खुद बुलाई गई तबाही की जिम्मेदार मोदी सरकार होगी!
आंकड़े, चेतावनियां, आलोचनाएं और विदेशी मीडिया में मोदी सरकार की धज्जियों से अलग चर्चा इस बात पर कि इस पत्रिका को यह लिखना पड़ा कि एक ऐसी जन स्वास्थ्य पहल हो जिसके हृदय में विज्ञान हो, क्यों ?
क्योंकि दुनिया देख रही थी कि कोरोना को लेकर जितनी अवैज्ञानिकता हिंदुस्तान के ,खासतौर पर बीजेपी से जुड़े सत्ताधीश फैला रहे थे,उससे इस संक्रमण का कितना फैलाव हुआ और कितनी बड़ी तादाद में नागरिकों की जानें गईं !
क्योंकि दुनिया देख रही थी कि जब इस तबाही से निपटने की रणनीति बनानी थी तब वो नफरत और राष्ट्रवाद के उन्मादी नारों में गोते लगा रहे थे!
पहले घंटे,ताली ,थाली,मोमबत्ती, दीया,फिर यह कहना कि कुंभ में मां गंगा की कृपा से कोरोना नहीं फैलेगा , फिर प्रधानमंत्री का खुद ही बड़ी बड़ी चुनावी सभाएं करना और भीड़ देख कर खुश होना,कहीं से गोबर और गौ मूत्र से इलाज के दावे,एक व्यापारी बाबा के नुस्खे , कहीं से किसी और अवैज्ञानिक किस्म के इलाज को प्रोत्साहित करते मंत्री..!पूरा माहौल अवैज्ञानिकता से भरा था.
दरअसल आज जिस निकम्मेपन के लिए लोग मोदी सरकार को कोस रहे हैं वो अचानक कोरोना काल की ही उपज हो ऐसा नहीं है.
ये सतह पर आज तब नजर आ रहा है जब अस्पतालों में बिस्तर नहीं हैं ,जब ऑक्सीजन को तरसते लोग मर रहे हैं ,जब श्मशान से लेकर कब्रिस्तान तक शवों की लाइन लगी है ,जब इंजेक्शन नहीं हैं ,जब कोरोना के इलाज का पूरा तंत्र बेहिसाब मुनाफाखोरी ,कालाबाजारी और जमाखोरी की जकड़न में हो, जब पूरा सिस्टम विफल नजर आ रहा हो और हाहाकार मचा हो ! वरना तो इन्हीं लोगों ने इस संक्रमण के लिए तब्लीगी जमात को जिम्मेदार ठहराने से लेकर भारत में कोरोना के खत्म हो जाने तक का उद्घोष कर डाला था ! लेकिन हम तब हड़बड़ाए जब खतरा हमारी गली पर आ पहुंचा..जागे तो अभी भी शायद नहीं !
हम सरकार के निकम्मेपन पर तो जम कर चर्चा कर सकते हैं लेकिन क्या कभी यह सोचने का अवकाश मिलेगा कि इस हाल के हम खुद कितना जिम्मेदार हैं?
क्या आज कोई यह सवाल करता है कि गो कोरोना गो बोलने से तो कोरोना चला नहीं गया था,और ना उसे जाना ही था, फिर क्यों पूरे देश को ऐसे फूहड़, अवैज्ञानिक उन्माद में धकेला गया ?
क्या आज कोई यह सवाल करता है कि जब देश को समय रहते एक सुविचारित राष्ट्रीय लॉक डाउन की जरूरत थी तब चार घंटे की नोटिस पर लॉक डाउन क्या विशेषज्ञ सलाह पर लगाया गया था?
बहुत पढ़े लिखे तबके ने भी अपने आपको उस नशे में झोंक दिया था जो समझा रहा था कि मोदी है तो मुमकिन है !आज यह तबका भी लाशें देख कर विचलित तो है लेकिन इसे केंद्र सरकार की अपरिपक्वता और अदूरदर्शिता आज भी नजर नहीं आ रही है.
ये तबका भी आज नहीं पूछता कि मोदी ही थे तो भरपूर क्षमता होने के बावजूद देश ऑक्सीजन से क्यों वंचित था, क्यों अस्पताल बिस्तरों से वंचित थे और क्यों राज्यों को घटिया वेंटीलेटर सप्लाई किए गए ? पूछना चाहिए ना कि जितनी ऊर्जा देश का घंटा बजवाने में लगाई उतनी ऊर्जा विशेषज्ञ सलाह से बेहतर रणनीति ,बेहतर योजना में क्यों नहीं लगाई ?
पर हम तो अपनी उस विरासत को भाड़ में झोंकने निकल पड़े थे जो इस आधुनिक भारत के निर्माण की बुनियाद थी. जिसमें तर्क था ,विज्ञान था,योजना थी,आधुनिक दृष्टि थी. जिसने शिक्षा ,स्वास्थ्य ,अनुसंधान के बड़े बड़े केंद्र बनाए.
हमने सोचा ही नहीं कि तर्क और विवेक आज के निजाम को सबसे बड़े दुश्मन क्यों लगते हैं ? और यह अचानक नहीं हुआ था. इसका परीक्षण उस दिन कर लिया गया था जब अचानक पूरे देश में गणेशजी की प्रतिमाएं दूध पीने लगी थीं!हम यह सोचते ही नहीं कि आम हिन्दुस्तानी अवैज्ञानिक रहे, अतार्किक रहे, अविवेकी रहे ये कौन चाहता है? और क्यों ?
जिन पंडित जवाहर लाल नेहरू को कोसने का कोई मौका बीजेपी आरएसएस के लोग नहीं छोड़ते, उनकी नीतियों से कोई असहमत हो सकता है ,उसमें बहस की गुंजाइश हो सकती है, लेकिन नेहरूजी ने योजना ,विज्ञान और तर्कशीलता की जिस बुनियाद पर आधुनिक हिंदुस्तान के निर्माण की राह बनाई उसकी कहानी हर हिंदुस्तानी को जाननी चाहिए.
दुर्भाग्य यह है कि मोदी सरकार ने एक एक कर के इस विरासत पर प्रहार किया और हम नासमझ बने रहे . योजना आयोग का नाम बदल देना भर मकसद नहीं था. आज इस संकट में बदले हुए नाम वाले नीति आयोग की क्या कोई भूमिका नजर आती है? हकीकत तो यह है कि इस पूरे संकट में सब से ज्यादा कोई किनारे था तो वो वैज्ञानिक और विशेषज्ञ ! दुर्भाग्य ही है कि दुनिया यह महसूस कर रही है कि आज भी इस देश के पास कोरोना से निपटने की कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है,क्योंकि योजना के दुश्मन देश की सत्ता पर काबिज हैं.
आज के संकट में हमें बतौर नागरिक अपनी भूमिका को टटोलना ही होगा.
यह तय करना होगा कि राह किस तरफ है? कूपमंडूकता की तरफ या विज्ञान और अनुसंधान की तरफ ? हमें यह सोचना ही होगा कि आखिर लैंसेट जैसी पत्रिका को क्यों यह सीख देना पड़ी कि देश में एक ऐसी जनस्वास्थ्य पहल हो जिसके हृदय में विज्ञान हो.
इस संकट के सबक अगर आज भी नहीं सीखे गए तो कल न जाने कितनी लाशों के बोझ इस देश के कंधे पर होंगे.
अपनों की लाशों के बोझ से कंधे टूट जाते हैं ,देश भी ऐसा बोझ कैसे बर्दाश्त कर पाएगा ?
(रुचिर गर्ग एक भूतपूर्व पत्रकार हैं. अब वे कांग्रेस पार्टी में हैं, और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं. यह लेख उनके फेसबुक-पेज से)
-संजय श्रमण
जो लोग भारत में धर्म और ईश्वर को सब समस्याओं की जड़ मानते हैं वे ध्यान दें। भारत का धर्म समस्याएं पैदा नहीं करता न ही उनके समाधान का रास्ता बताने का दावा करता है। भारत का धर्म केवल एक काम करता है, वह है आपके सुख या दुख का फायदा उठाकर आपके ऊपर अपना प्रभाव बनाए रखना।
इस प्रभाव को बनाए रखना इस धर्म का पहला और सबसे बड़ा लक्ष्य है। ठीक उसी तरह जिस तरह इस धर्म में डूबी राजनीति का पहला लक्ष्य सरकार बनाये और बचाए रखना है। यह धर्म प्रभाव बनाए रखना चाहता है, समस्या नहीं सुलझाना चाहता। इस धर्म की ढपली बजाने वाली सरकार देश में सत्ता में बने रहना चाहती है लेकिन देश के लिए, जनता बेहतरी के लिए काम नहीं करना चाहती।
जो लोग मानते हैं कि भारत का धर्म या इस धर्म के राष्ट्रवाद का झण्डा फहराने वाली सरकार निकम्मी या अकुशल है वे भी अपनी धारणाओं में सुधार करें। असल में भारत का धर्म और इस धर्म से संचालित संगठन एवं सरकारें बहुत कुशल हैं और बहुत दक्ष हैं।
हम इनकी कुशलता और दक्षता को ठीक से देख नहीं पाते हैं। जिन कामों को ये धर्म, संगठन एवं सरकार उचित एवं आवश्यक मानती है उन कार्यों में इनकी कुशलता देखिए। तब आप समझ सकेंगे कि ये लोग निकम्मे या अक्षम नहीं हैं। जिन मुद्दों पर इन्होंने चुनाव लड़ा, जिस मंदिर का मुद्दा बनाया, जिस सबसे बड़ी मूर्ति की बात की, जिस संसद भवन के निर्माण की प्लैनिंग की, जिस तरह का कांग्रेस या मुसलमानों से मुक्त समाज बनाने का वादा किया वह सब काम उन्होंने लगभग पूरा कर डाला है। इस धर्म और इसकी सरकार की कुशलता यहाँ से देखिए।
अगर आप कोरोना के प्रबंधन या रोजगार के निर्माण या समाज में वंचितों महिलाओं के सशक्तिकरण आदि के लिए किये गए काम के संदर्भ में इस सरकार का या इस धर्म का मूल्यांकन करेंगे तो आप गलत काम कर रहे हैं। न तो जनता ने इन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विकास के लिए वोट दिया है न इन सरकारों ने अपने ‘घोषणा पत्र’ (संकल्प पत्र नहीं) में इसका कोई वादा या दावा ही किया है।
अगर आप भारत में धर्म, ईश्वर या सरकार से कोई अपेक्षा करते हैं तो सबसे पहले आपको यह समझना चाहिए कि आप किस धर्म से किस ईश्वर से और किस सरकार से क्या उम्मीद कर रहे हैं। आपकी उम्मीद से पहले ही अगर उस धर्म, ईश्वर या सरकार का अपना कोई एजेंडा है तो वह धर्म, ईश्वर या सरकार पहले अपने प्राथमिकता वाले एजेंडा पर काम करेंगे फिर समय मिला तो आपकी उम्मीद पूरी होगी।
अभी भारतीयों ने जिस धर्म, ईश्वर या सरकार से कोई उम्मीद बांधकर रखी है उस धर्म, ईश्वर और सरकार का अपना अलग ही एजेंडा है जो नागरिकों के जीवन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए ये धर्म, ईश्वर और सरकार जिस मुद्दे को महत्वपूर्ण समझती हैं उसे ये पूरी कुशलता से अंजाम दे रहे हैं। जिस तरह से धार्मिक आयोजन या चुनाव रैलियाँ होते हैं उसमे इनकी कुशलता देखिए। कुल मिलाकर बात ये है कि जिन मुद्दों को यह धर्म, इससे जुड़े संगठन और ये सरकार महत्वपूर्ण मानती है उस पर ये पूरी ताकत और कुशलता से काम कर रहे हैं।
आखिर में असली समस्या ये है कि भारत की जनता ऐसे धर्म और सरकार को नहीं चुन पा रही है जिनके लिए आम जनता का जीवन पहली प्राथमिकता बन सके।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन टीकों पर से पेटेंट का बंधन उठा लेता है तो 100-200 करोड़ टीकों का इंतजाम करना कठिन नहीं है। अमेरिकी, यूरोपीय, रुसी और चीनी कंपनियां चाहें तो भारत को करोड़ों टीके कुछ ही दिनों में भिजवा सकती है।
खुद भारतीय कंपनियां भी इस लायक हैं कि वे हमारी टीकों की जरुरत को पूरा कर सकती हैं। खुशी की बात है कि जर्मनी के अलावा लगभग सभी देश इस मामले में भारत की मदद को तैयार हैं, लेकिन असली सवाल यह है कि यदि टीके मिल जाएं तो भी 140 करोड़ लोगों को वे लगेंगे कैसे? अभी तो हाल यह है कि विदेशों से आ रहे हजारों ऑक्सीजन-यंत्र और लाखों इंजेक्शन मरीजों तक पहुंच ही नहीं पा रहे हैं। वे या तो हवाई अड्डों पर पड़े हुए हैं या नेताओं के घरों में ढेर हो रहे हैं या कालाबाजारियों की जेब गर्म कर रहे हैं। हमारी सरकारें बगलें झांक रही हैं।
कुछ नेता लोग मन की बातें मलोर रहे हैं, उनके विरोधी मुंह की बाते फेंट रहे हैं और काम की बात कोई नहीं कर रहा है। देश की राजनीतिक पार्टियों के लगभग 15 करोड़ सदस्य, अपने-अपने घरों में बैठकर मक्ख्यिां मार रहे हैं। हमारे देश में डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या लगभग 60 लाख है और फौजियों की संख्या 20 लाख है। यदि इन सबको टीका-अभियान में जुटा दिया जाए तो अगले 50-60 दिन में ही हर भारतीय को टीका लग सकता है लेकिन अफसोस है कि हमारे धार्मिक, सांस्कृतिक और समाजसेवी संगठन भी घरों में दुबके बैठे हुए हैं।
उनके कुछ स्थानीय और छुटपुट उत्साही कार्यकर्ता जन-सेवा की पहल जरुर कर रहे हैं लेकिन इंसानियत, राष्ट्रवाद और देशभक्ति का नारा लगानेवाले इन संगठनों को लकवा क्यों मार गया है ? वे राष्ट्रीय पैमाने पर सक्रिय क्यों नहीं हो रहे हैं ? यदि वे ज्यादा कुछ न कर सकते हों और उनके नेता डर के मारे घर में ही दुबके रहना चाहते हों तो कम से कम वे इतना तो करें कि अपने अनुयायियों से कहें कि वे कालाबाजारियों को पकड़ें, उनका मुंह काला करें और उन्हें बाजारों में घुमाएं। अदालतें और सरकारें उनके खिलाफ कोई सख्त कदम उठाने लायक नहीं हैं लेकिन जनता को सीधी कार्रवाई करने से कौन रोक सकता है ? कुछ राज्यों ने टीकाकरण मुफ्त कर दिया है और कुछ ने गरीबी-रेखा के नीचेवालों के पूरे इलाज का भी इंतजाम कर दिया है। हरयाणा की सरकार ने घरों में एकांतवास कर रहे मरीजों को 5 हजार रु. की चिकित्सा-थैली (कोरोना किट) भी भेंट करने की घोषणा की है। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे नेता लोग, जो चुनावों में लगातार भाषण झाड़ते थकते नहीं हैं, वे जनता को कोरोना से सावधान रहने के लिए प्रेरित क्यों नहीं कर रहे हैं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. दिनेश मिश्र
कोरोना से संक्रमित मरीजों में पिछले कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि अनेक मरीज संक्रमण से उबरते-उबरते, हार्टअटैक होने से मृत्यु के शिकार हो गए, जबकि प्रारंभ में संक्रमित व्यक्ति के फेफड़ों में संक्रमण होने से सांस फूलने, ऑक्सीजन की कमी, फेफड़ों के काम न करने के कारण मृत्यु की खबरें आ रही थी, पर बाद में हार्ट फेल होने, हृदयाघात होने से भी संक्रमित मरीजों की जान जाने की खबरें आने लगीं। जो चिंताजनक हैं।
पिछले कुछ समय से कोरोना से संक्रमित मरीजों के अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान, और कुछ में अस्पताल से छुट्टी होने के बाद भी कुछ दिनों के अंदर हार्टअटैक आने और हार्टफेल होने के मामले आए, जिनमें अनेक बड़े-बड़े चिकित्सक, पत्रकार, कलाकार, राजनेता भी थे, जब लगातार ऐसे मामले ज्ञात हुए तब अध्ययनकर्ताओं का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ, और कोरोना के मरीजों में हार्टअटैक के कारणों के अध्ययन भी आरंभ हुए, जिससे अनेक तथ्य सामने आए।
कोरोना वायरस महामारी की शुरुआत से ही ये सवाल सबके मन में था कि आखिर इस खतरनाक बीमारी से दुनिया को छुटकारा कैसे मिलेगा? क्या जो व्यक्ति इस वायरस की चपेट में आएगा, वो ठीक होगा या फिर नहीं? क्या इलाज के लिए अस्पताल जाना अनिवार्य होगा या फिर घर पर भी देखरेख हो सकता है? ऐसे ही न जाने कितने सवाल आम लोगों के मन में थे। बहुत सारी अफवाहें, भ्रम भी लोगों के बीच बढ़ रहे थे, इन सबके बीच कोरोना से संक्रमित हुए अधिकांश लोग ठीक होकर अपने-अपने घर लौटने लगे, और इस वायरस को मात देने लगे। अधिक संक्रमित लोगों की मृत्यु भी हुई, पर ठीक होने वाले मरीजों की संख्या अधिक ही रही, रिकवरी रेट भी अच्छा ही रहा। लेकिन आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि इस बीमारी से ठीक होने के बाद भी इसके संक्रमण का प्रभाव शरीर के कुछ अंगों पर लंबे समय तक दिख सकता है। जिनके संबंध में भी अध्ययन चल रहे हैं।
सन् 2019 से ही कोरोना के मामले विश्व भर में लगतार सामने आ रहे हैं। भारत में कुछ दिनों से तो 3 लाख से अधिक मामले सामने आ रहे है, कोविड के पहले दौर में तो युवा और बच्चों में संक्रमण के मामले नहीं थे पर मौजूदा दौर में छोटे बच्चे, युवा भी संक्रमित हो रहे हैं, तब यह स्थिति और चिंतनीय होने लगी ह।
कोरोना संक्रमण के कारण प्रभावितों में बुखार, खाँसी, दर्द, डायरिया, जैसे लक्षण सामने आ रहे हैं, वहीं अधिकांश मामलों में प्रभाव श्वसन तंत्र और फेफड़ों पर पड़ रहा है, जिससे साँस लेने की तकलीफ, सॉंस फूलना, शारीरिक कमजोरी के लक्षण प्रकट हो रहे हैं।
शरीर के अन्य अंगों में भी विकार तथा असंतुलन कर रहा कोरोना वायरस का संक्रमण, अनेक मामलों में हार्टअटैक और ब्रेन स्ट्रोक का भी कारण बन रहा है।
कोरोना वायरस में म्यूटेशन होने व अलग- अलग स्ट्रेन आने के कारण अलग-अलग लक्षण भी दिखाई दे रहे हैं। यह वायरस फेफड़ों को संक्रमित करने के साथ ही प्रभावित व्यक्ति के खून को गाढ़ा कर रहा है। कोरोना संक्रमितों में डी-डाइमर प्रोटीन तेजी से बढ़ रहा है, इससे खून का थक्का बन रहा है। खून गाढ़ा होने पर बन रहे थक्के, हार्टअटैक, दिल का दौरा पडऩे की बड़ी वजह बन रहे हैं। इससे ब्रेन स्ट्रोक व फेफड़े, हृदय की धमनी में अवरोध के मामले सामने आ रहे हैं।
अनेक मामलों में गंभीर बात यह है कि संक्रमितों के साथ ही संक्रमण से उबर चुके लोगों के खून में भी डी-डाइमर बढ़ा हुआ मिला है। आमतौर पर होम आइसोलेशन में रहने वाले संक्रमित इसको लेकर अनजान होते हैं तथा उनकी खून की जांच नहीं नहीं हो पाती। उन्हें पॉजिटिव रिपोर्ट आने पर बुखार, एंटीबायोटिक, विटामिन आदि की दवा, लक्षणानुसार दे दी जाती हैं, जिससे उनके लक्षण ठीक भी हो जाते हैं और वे वायरस के संक्रमण काल से उबरने लगते हैं, पर ऐसे अनेक मरीजों में निगेटिव होने बाद कुछ दिनों तक उन्हें चिकित्सकीय परामर्श की आवश्यकता होती है, जिस पर उनका ध्यान नहीं जाता। और बाद में कुछ मरीजों में ऑक्सीजन लेवल गिरने, छाती में दर्द होने, घबराहट की तकलीफ होती है।
चिकित्सकों के अनुसार संक्रमण खत्म होते ही ज्यादातर लोग यह मान लेते हैं कि वे पूरी तरह से स्वस्थ हो चुके हैं। यह सही नहीं है। वायरस शरीर में कई दुष्प्रभाव छोड़ता है जिससे खून गाढ़ा होने लगता है। इससे खून में थक्के बनने लगते हैं।
मध्यम या गंभीर रूप से कोरोना संक्रमित होने वाले 20 से 30 फीसद मरीजों में स्वस्थ होने के बाद भी अनेक मरीजों में डी-डाइमर प्रोटीन तय मात्रा से पांच गुना तक ज्यादा मिल रहा है। होम आइसोलेशन में रहने वाले 30 फीसदी संक्रमितों में ऐसा मिल रहा है। पोस्ट कोविड ओपीडी में हर दिन कुछ मरीज इस तरह के आ रहे हैं।
चिकित्सकों के अनुसार कई ऐसे मरीज भी मिल रहे हैं, जिन्हें कोई लक्षण नहीं हैं। फेफड़े का सीटी स्कैन भी सामान्य मिला लेकिन डी-डाइमर तीन से पांच गुना तक बढ़ा रहता है। ज्यादा थकान, मांसपेशियों में दर्द और सांस फूलना डी-डाइमर बढऩे का संकेत हो सकता है। इलाज के लिए खून पतला करने की दवाएं दी जाती हैं।
कोरोना संक्रमितों की संख्या बढऩे के कारण खून पतला करने की दवाओं की मांग भी बढ़ी है। गंभीर रूप से बीमार मरीजों को खून पतला कर सकने के लिए दवाइयों का दिया जाना जरूरी है, पर यह जानकारी भी अनेक मरीजों को उपलब्ध नहीं है।
कोरोना से संक्रमित मरीजों को लेकर एक अध्ययन किया गया है। इसके नतीजों के बाद यह दावा किया गया है कि यह वायरस कोरोना रोगियों के दिल पर भारी पड़ सकता है। अस्पताल में भर्ती होने वाले उन मरीजों में भी हार्ट फेल का खतरा बढ़ सकता है, जिनमें पहले से हृदय संबंधी कोई समस्या नहीं होती है।
अमेरिका के माउंट सिनाई अस्पताल के शोधकर्ताओं के अनुसार, इस तरह के मामले पाए गए हैं, डॉक्टरों को इस तरह की संभावित जटिलताओं के प्रति अवगत रहना चाहिए। अध्ययन की प्रमुख शोधकर्ता और इकान स्कूल ऑफ मेडिसिन की निदेशक ने कहा कि उन कुछ चुनिंदा लोगों में भी हार्ट फेल होने का खतरा पाया गया, जिनमें पहले से इस जोखिम का कोई कारक नहीं था। हमें इस संबंध में और समझने की जरूरत है कि कोरोना वायरस हृदय प्रणाली को कैसे सीधे प्रभावित कर सकता है।
एक जानकारी के अनुसार, अमेरिकन कॉलेज ऑफ कार्डियोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने पिछले साल 27 फरवरी से लेकर 26 जून के दौरान माउंट सिनाई हेल्थ सिस्टम के अस्पतालों में भर्ती रहे 6,439 कोरोना मरीजों पर चिकित्सीय इतिहास पर अध्ययन किया। उन्होंने इनमें से 37 रोगियों में हार्ट फेल के नए केस पाए। इन रोगियों में से आठ में पहले से हृदय संबंधी कोई समस्या नहीं थी। 14 पीडि़त हृदय रोग का पहले सामना कर चुके थे। जबकि 15 हृदय रोग से पीडि़त नहीं थे, लेकिन इनमें हार्टअटैक के खतरे का एक कारक पाया गया था।
एक अन्य अध्ययन के अनुसार कोविड-19 रोगियों को संक्रमण के बाद दिल का दौरा पडऩे पर मौत होने का खतरा हो सकता है। कुछ दिनों पहले प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि इस मामले में महिलाएं विशेष रूप से अधिक संवेदनशील हैं. स्वीडन में किए गए अध्ययन में पाया गया है कि कोविड-19 की चपेट में आईं महिलाओं की दिल का दौरा पडऩे से मौत होने की आशंका पुरुषों के मुकाबलेअपेक्षाकृत अधिक है।
‘यूरोपियन हार्ट’ पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि इसमें 1,946 ऐसे लोगों को शामिल किया गया जिन्हें बीते साल एक जनवरी से 20 जुलाई के बीच अस्पताल के बाहर किसी दूसरे स्थान पर दिल का दौरा पड़ा जबकि 1,080 ऐसे लोग शामिल किये गए जिनके साथ अस्पताल में ऐसा हुआ। स्वीडन के गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं के अनुसार महामारी के दौरान किए गए अध्ययन में अस्पताल में दिल के दौरे का शिकार हुए 10 प्रतिशत लोग कोरोना वायरस से संक्रमित थे जबकि अस्पताल से बाहर ऐसे रोगियों की संख्या 16 प्रतिशत थी।
उन्होंने कहा कि अस्पताल में दिल के दौरे का शिकार हुए लोंगों के तीस दिन के अंदर जान गंवाने का खतरा 3.4 गुणा बढ़ गया था जबकि जिन लोगों के साथ अस्पताल से बाहर ऐसा हुआ उनके समान अवधि में मरने का खतरा 2.3 गुणा अधिक था।
गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय ने कहा, ‘हमारे अध्ययन से साफ पता चलता है कि दिल का दौरा पडऩा और कोरोना वायरस से संक्रमित होना एक घातक संयोजन है।’
इस सम्बंध में दिल्ली के प्रसिद्ध हृदय रोग चिकित्सक डॉक्टर के के अग्रवाल ने कुछ दिनों पहले एक वीडियो जारी कर कहा है, यदि कोरोना के संक्रमण के समाप्त होने के बाद भी यदि किसी व्यक्ति के सीने के बीचों-बीच जलन है, घुटन है, दवाब है, दर्द हो रहा है, पसीना या सांस फूलने जैसे लक्षण दिखें तो तुरंत वॉटर सॉल्युबल ऐस्प्रिन 300 मिली ग्राम की गोली चबा लें। जिससे हृदयाघात की संभावना 22 फीसदी कम हो जाती है। उन्होंने जानकारी दी, कि अगर किसी व्यक्ति की उम्र 30 साल से ऊपर है, कोविड का संक्रमण हुआ है, या उससे अभी उबरे हैं, और अचानक छाती के बीचोंबीच, दबाव, घुटन जैसे लक्षण दिखें तो सबसे पहले ऐस्प्रिन चबा लें। अगर नहीं है तो आप डिस्प्रिन ले सकते हैं। पर चिकित्सक की सलाह तुरन्त लें, इस मामले में तनिक भी लापरवाही न बरतें।
(वरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञ, एवं अध्यक्ष, अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति)
-उमा एस कंभमपति
कोरोना महामारी की दूसरी लहर का भारत पर तबाही और बर्बादी लाने वाला असर दिखने लगा है. पिछले तीन दिनों से भारत में कोरोना संक्रमण के चार लाख से भी ज़्यादा मामले हर रोज़ दर्ज किए जा रहे हैं.
इस महामारी के कारण बीते सात दिनों से हर रोज़ औसतन 3700 से भी ज़्यादा लोगों की मौत हो रही है. महामारी की शुरुआत से इस वायरस से देश में 21 लाख से ज़्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं और दो लाख 38 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है.
विशेषज्ञ इस ओर भी ध्यान दिला रहे हैं कि भारत में संक्रमण और मृत्यु के सरकारी आँकड़े और जमीनी हक़ीक़त में बड़ा फासला है. भारत में महामारी की दूसरी लहर को कई पहलुओं से जोड़कर देखा जा रहा है.
पहला तो ये कि आँकड़े ठीक से इकट्ठा नहीं किए गए और सरकार ने हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ करते हुए उसे ख़ुशी से स्वीकार कर लिया. दूसरी वजह ये रही कोरोना वायरस का एक नया वैरिएंट उम्मीद और सोच से कहीं ज़्यादा घातक रहा.
तीसरी वजह ये थी कि देश में चुनाव का मौसम था, कुंभ आयोजित किया गया और ये सब कुछ कोविड प्रोटोकॉल को किनारे रखते हुए किया गया. अब ये साफ़ है कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा एक मानवीय संकट का सामना कर रहा है.
देश में 1.4 अरब की आबादी रहती है यानी दुनिया का हर छठा आदमी हिंदुस्तानी है. आगे हम कुछ उन बातों को समझने की कोशिश करेंगे जिससे दुनिया की अर्थव्यवस्था भारत के संकट से अछूती नहीं रह सकती है.
1. एक साल जिसे भारत ने खो दिया
भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और विश्व के आर्थिक विकास में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहता है. भारत का आर्थिक विकास तुलनात्मक रूप से चार से आठ फ़ीसदी के बीच रहता आया है. उसके पास दुनिया का एक बहुत बड़ा बाज़ार है.
यहां तक कि महामारी के आने से पहले साल 2020 के शुरू में विश्व मुद्रा कोष ने कहा था कि भारत के योगदान में कमी के कारण ही साल 2018 और 2019 में वैश्विक विकास में सुस्ती देखी गई थी.
साल 2020 के लिए आईएमएफ़ ने भारत की विकास दर को लेकर अपना पूर्वानुमान कम करके 5.8 फीसदी कर दिया था. हालांकि आईएमएफ़ को भारतीय उपमहाद्वीप से ज़्यादा की उम्मीद थी.
अब ऐसा लग रहा है कि साल 2020 में वैश्विक विकास की दर गिरकर चार फ़ीसदी के पास रह गई जबकि भारत के विकास दर में लगभग दस फ़ीसदी की गिरावट हुई है.
साल 2021 के लिए हर किसी को ये उम्मीद थी कि भारत और दुनिया की अर्थव्यवस्था फिर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी लेकिन अब इन अनुमानों पर पानी फिरता हुआ दिख रहा है.
उदाहरण के लिए इन्वेस्टमेंट समूह नोमुरा की चीफ़ इकॉनॉमिस्ट सोनल वर्मा ने अनुमान लगाया है कि भारत का सकल घरेलू उत्पाद मौजूदा तिमाही में 1.5 फीसदी सिकुड़ जाएगा.
ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं भी भारत की तरह ही संकट का सामना कर रही हैं. ऐसे में हम उम्मीद कर सकते हैं कि दुनिया के विकास पर भी इसका असर पड़ेगा.
2. अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां
भारत में महामारी जिस पैमाने पर फैली हुई है, उसे देखते हुए ऐसा लग रहा है कि अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां अभी और लंबे समय तक बनी रहेंगी.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की चीफ़ साइंटिस्ट सौम्या स्वामिनाथन के शब्दों में कहें तो "कोरोना वायरस अंतरराष्ट्रीय सीमाओं, राष्ट्रीयताओं या उम्र या लिंग या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता है."
हालांकि कई विशेषज्ञ ये सवाल उठाते रहे हैं कि भारत जैसे बड़े देश को क्या वाकई में आइसोलेट किया जा सकता है?
हाल ही में नई दिल्ली से हॉन्ग कॉन्ग के लिए रवाना हुई एक फ्लाइट के 52 पैसेंजर कोरोना संक्रमित पाए गए थे. हम ये भी जानते हैं कि कोविड का भारतीय वैरिएंट पहले ही ब्रिटेन पहुंच चुका है. जबकि भारत में ख़ासकर पंजाब में दूसरी लहर के ब्रितानी वैरिएंट को जिम्मेदार ठहराया गया था.
भारत से इस बीमारी को फैलने से रोकने के लिए कड़े क्वारंटीन नियमों और यात्रा पाबंदियों की ज़रूरत है. विमानन सेवा, एटरपोर्ट और इस सेक्टर से जुड़े कारोबार पर निर्भर लोगों के लिए ये बुरी ख़बर है. इसलिए वैश्विक आर्थिक विकास पर इसका गहरा असर होने जा रहा है.
3. फार्मा कंपनियों की समस्याएं
आकार के पैमाने के हिसाब से देखें तो भारत का दवा उद्योग दुनिया की तीसरा सबसे बड़ी फार्मा इंडस्ट्री है. पैसे के हिसाब से ये दुनिया का 11वां सबसे बड़ा उद्योग है. दुनिया भर में जितनी दवाओं का निर्यात किया जाता है, उसमें 3.5 फीसदी हिस्से का योगदान भारत से आता है.
जेनरिक दवाओं के मामले में वैश्विक निर्यात का 20 फ़ीसदी भारत से होता है. अगर भारत के दवा उद्योग के इस निर्यात पर किसी किस्म का संदेह पैदा हुआ तो दुनिया भर की स्वास्थ्य सेवाओं को इसके नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं.
मौजूदा हालात में भारत दुनिया के 70 फ़ीसदी वैक्सीन का उत्पादन करता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोवैक्स प्रोग्राम के तहत भारत की सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया को 64 ग़रीब देशों के लिए ऐस्ट्रा ज़ेनेक वैक्सीन के उत्पादन का अधिकार दिया गया है.
इसके साथ ही सीरम इंस्टिट्यूट को ब्रिटेन के लिए 50 लाख खुराकों के लिए भी उत्पादन करना है. भारत के कोरोना संकट का ये मतलब हुआ कि या तो वैक्सीन के निर्यात को रोक दिया गया है या फिर रद्द कर दिया गया है.
महामारी की नई लहर का सामना कर रहे कई देशों के ये बुरी ख़बर है और उनके यहां आम जिंदगी को फिर से पटरी पर लौटाने की कोशिश में ठहराव आ जाएगा. अगर भारत पूरी दुनिया को वैक्सीन की सप्लाई नहीं कर पाएगा तो हम इसके साइड इफेक्ट्स देखेंगे.
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बार-बार लॉकडाउन लगाए जाएंगे, सोशल डिस्टेंसिंग के प्रोटोकॉल बढ़ जाएंगे और दुनिया भर के देशों में आर्थिक गतिविधियां एक बार सुस्ती का शिकार हो जाएंगी.
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4. सेवाएं जो नहीं मुहैया कराई जा सकेंगी
भारत पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में कई कामों के सपोर्ट स्टाफ़ मुहैया करता है. ख़ासकर वित्तीय और स्वास्थ्य क्षेत्र में. अब महामारी के कारण ये सेवाएं अबाध गति से जारी नहीं रखी जा सकेंगी.
उदाहरण के लिए, इसे देखते हुए अमेरिकी व्यापारिक संगठन यूएस चैंबर ऑफ़ कॉमर्स ने इस बात को लेकर चिंता जाहिर की है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था के कदमों में बेड़ियां डाल सकती हैं.
दूसरा उदाहरण ब्रिटेन का है, जिसके लिए ब्रेग्जिट के बाद भारत से व्यापारिक रिश्ते काफी मायने रखते हैं. ब्रिटेन के लिए भारत की अहमियत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि साल 2021 में ब्रितानी प्रधामंत्री बोरिस जॉनसन दो भारत यात्रा का कार्यक्रम बना चुके हैं लेकिन महामारी के कारण उन्हें आख़िरी लम्हों में इसे स्थगित करना पड़ा.
इन समस्याओं को देखते हुए दुनिया के लिए ये ज़रूरी हो गया है वो भारत की मदद के लिए जल्द से जल्द क़दम उठाए.
हालांकि शुरुआती देरी के बाद दुनिया भर के देशों से अब भारत के लिए मदद पहुंचने लगी है. ब्रिटेन ने वेंटिलेटर्स और ऑक्सीजन कंसंट्रेटर्स भेजे हैं. अमेरिका ने दवाओं और वैक्सीन के लिए कच्चे माल के साथ रैपिड टेस्ट किट्स और वेंटिलेटर्स भेजे हैं.
जर्मनी ने भी मेडिकल हेल्प के अलावा ऑक्सीजन की सप्लाई भेजी है. लेकिन भारत को जो कुछ भी भेजा जा रहा है, वो उसकी ज़रूरतों के लिहाज से समंदर में एक बूंद के बराबर लग रहा है.
लेकिन कम से कम ये बात तो दिख रही है कि दुनिया को भारत की परवाह है.
भारत सरकार भले ही मौजूदा संकट को संभालने में कारगर न रही हो लेकिन दुनिया पर पड़ने वाले इसके असर को न समझना उसे नजरअंदाज करने जैसा ही था.
अगर दुनिया के बड़े देश भारत की मदद कर पाने में नाकाम रहे तो जल्द ही भारत का संकट वैश्विक संकट में बदल सकता है और ऐसा केवल स्वास्थ्य के क्षेत्र में नहीं होगा बल्कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं.
(उमा एस कंभमपति ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर हैं. उनका ये लेख अंग्रेज़ी में द कन्वर्शेशन पर प्रकाशित हुआ था. मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.) (bbc.com)
-विकास बहुगुणा
जब कोई सरकार अपनी फजीहत से बचने के लिए आंकड़े छिपाती है तो वह समस्या को और विकराल और उसके हल को और मुश्किल बना रही होती है
आंकड़े सच को वजन देते हैं। जाहिर है अगर वे सही न हों तो सच की सटीकता जानना मुश्किल होगा। कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बीच भारत में इस महामारी से जुड़े आंकड़ों को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं। आरोप लग रहे हैं कि संक्रमण के मामलों से लेकर मरीजों की मौतों तक हर मोर्चे पर इनमें झोल है।
इसे आंकड़ों से ही समझने की कोशिश करते हैं। देश की राजधानी दिल्ली से सटे फरीदाबाद में बीते 16 अप्रैल को स्वास्थ्य विभाग ने बीते 24 घंटे के दौरान कोरोना संक्रमण से तीन मौतों की पुष्टि की। उधर, शहर में होने वाले अंतिम संस्कारों का हिसाब रखने वाले फरीदाबाद नगर निगम के मुताबिक यह संख्या 10 थी। दिल्ली से सटे गाजियाबाद का हाल भी जुदा नहीं है। 22 अप्रैल को एक परिचर्चा के दौरान वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त का कहना था, ‘जिस शाम मैंने गाजियाबाद में हिंडन किनारे स्थित एक श्मशान घाट पर सिर्फ एक घंटे के दौरान 20 शव देखे, उस पूरे दिन के लिए जिला प्रशासन की तरफ से कुल मौतों की आधिकारिक संख्या आठ बताई गई थी। इससे पहले पूरे अप्रैल के लिए मौतों का आंकड़ा सिर्फ दो था।’
देश के लगभग सभी इलाकों से इस तरह की खबरें आ रही हैं। इनका लब्बोलुआब यह है कि कागजों में उससे कहीं कम मौतें दर्ज की जा रही हैं जितनी असल में हो रही हैं। थोड़ा भावुक होकर यह भी कहा जा सकता है कि मरने के बाद भी कई लोग सरकार के लिए किसी गिनती में नहीं हैं।
जानकारों के मुताबिक भारत में स्वास्थ्य ढांचे का जो हाल है उसमें सामान्य हालात में भी करीब 14 फीसदी मौतें सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हो पातीं। फिर इस समय तो हालात असाधारण हैं। और सामान्य परिस्थितियों में भी जो मौतें पंजीकृत होती हैं उनमें से भी सिर्फ 22 फीसदी ऐसी होती हैं जिनमें मौत का आधिकारिक कारण दर्ज किया जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि भारत में ज्यादातर लोगों की मौत अस्पतालों में नहीं बल्कि घर या किसी दूसरी जगह पर होती है। कोरोना वायरस की दूसरी लहर में ऐसे लोगों की भी एक बड़ी संख्या है जो घर या एंबुलेंस या फिर अस्पताल के बाहर ही इलाज के इंतजार में दम तोड़ रहे हैं। जानकारों के मुताबिक ऐसे में कोरोना वायरस से होने वाली मौतों के सटीक आंकड़े सामने आना बहुत दूर की कौड़ी दिखता है।
संक्रमण के मामलों की संख्या को लेकर भी हालात इसी तरह के दिखते हैं। जैसा कि सीएनएन से बातचीत में नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर डिजीज डायनेमिक्स, इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिसी के निदेशक आर लक्ष्मीनारायण कहते हैं, ‘बीते साल हमारा आकलन था कि अगर करीब 30 लोगों को संक्रमण हो रहा है तो सिर्फ एक ही मामला पकड़ में आ रहा है क्योंकि बाकी की टेस्टिंग नहीं हो पा रही।’
हालांकि पहली के मुकाबले कोरोना वायरस की दूसरी लहर में टेस्टिंग का आंकड़ा काफी बढ़ गया है। मसलन तब अगर रोज पांच लाख लोगों की टेस्टिंग हो रही थी तो आज यह संख्या 20 लाख है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो अब भी यह काफी नहीं है। उसके मुताबिक ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है जो संक्रमित हैं लेकिन टेस्टिंग एक सीमा तक ही हो पा रही है, इसलिए उनके संक्रमण की पुष्टि नहीं हो पा रही। ऊपर से यह महामारी अब गांव-देहात में भी फैल गई है जहां टेस्टिंग की सुविधाओं के मामले में हालात और खराब हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे में संक्रमण के मामलों का असल आंकड़ा उससे 30 गुना तक ज्यादा हो सकता है जितना बताया जा रहा है।
यह मुद्दा अदालतों में भी पहुंच रहा है। बीते महीने ही गुजरात हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को नसीहत दी थी कि कोरोना मरीजों और इस महामारी से हो रही मौतों के मामले में वह पारदर्शिता बरते। अदालत का कहना था, ‘सरकार को चाहिए कि वह सही जानकारियों को सार्वजनिक करने की जिम्मेदारी ले ताकि दूसरों को ऐसी जानकारियां मिर्च-मसाला लगाकर फैलाने और लोगों में डर फैलाने से रोका जा सके।’ हाई कोर्ट ने आगे कहा, ‘सही तस्वीर छिपाकर सरकार को कोई फायदा नहीं होगाज् सही जानकारियां छिपाई जाएंगी तो इससे और भी गंभीर समस्याएं पैदा होंगी जिनमें डर, विश्वास का खत्म होना और जनता में घबराहट फैलना शामिल हैं।’
वैसे यह हाल सिर्फ भारत का नहीं है। बीते साल आरोप लगे थे कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी इस महामारी से जुड़े आंकड़ों को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। ये आरोप तब लगे जब ट्रंप प्रशासन ने आदेश दिया कि अस्पताल कोरोना मरीजों से संबंधित आंकड़े राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसी’ सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ को नहीं बल्कि सीधे व्हाइट हाउस को भेजें। यह भी कहा गया कि संघीय ही नहीं बल्कि प्रांतीय सरकारें भी अपनी किरकिरी से बचने के लिए आंकड़ों को कम करके बता रही हैं।
फ्लोरिडा में तो राज्य के कोरोना वायरस डैशबोर्ड को संभालने वाले एक डेटा साइंटिस्ट को इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया कि उसने सरकार पर आंकड़े छिपाने का आरोप लगाया था। विश्लेषकों के मुताबिक अमेरिका जैसे देश में अगर यह हालत है जहां लोकतांत्रिक संस्थाएं इतनी मजबूत हैं तो भारत में क्या हालात होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है।
कई मानते हैं कि आंकड़ों की यह स्थिति उस रवैय्ये का नतीजा है जो मौजूदा सरकार ने कोरोना संकट को लेकर शुरुआत से ही अपना रखा है। उनके मुताबिक सरकार पहले तो इस महामारी को लेकर नकार की मुद्रा में रही और जब मामला हाथ से निकल गया तो वह आंकड़े छिपाकर अपनी फजीहत से बचना चाहती है।
कुछ विश्लेषकों की मानें तो भारत में आंकड़ों के इस मौजूदा संकट का सिरा एक बड़ी और बुनियादी समस्या से जुड़ता है। वरिष्ठ पत्रकार और डेटा जर्नलिज्म की वेबसाइट इंडियास्पेंड। कॉम के संस्थापक गोविंद एथिराज कहते हैं, ‘ये समस्या है डेटा की सटीकता को लेकर लापरवाही के रवैय्ये की, फिर चाहे वह डेटा जीडीपी का हो या रोजगार या बेरोजगारी या फिर किसी और क्षेत्र का।’ उनके मुताबिक इस वजह से भी कोविड से जुड़ा डेटा विश्वास के लायक नहीं है और इसके देश को गंभीर आर्थिक और सामाजिक दुष्परिणाम भुगतने होंगे।
विशेषज्ञों के मुताबिक ये दुष्परिणाम फौरी भी हैं और दीर्घकालिक भी। जैसा कि गोविंद एथिराज कहते हैं, ‘पहली और तात्कालिक समस्या ये है कि हमें इस संकट की प्रकृति का अंदाजा ही नहीं हो पा रहा, इसलिए हमें ये भी पता नहीं चल पा रहा कि हमें क्या करना है और हम जो कर रहे हैं वो सही है या नहीं।’
दूसरी समस्या और ज्यादा गंभीर और दीर्घकालिक है। गोविंद एथिराज अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘अगर स्वास्थ्य विशेषज्ञों को ये पता न चले कि लोगों की मौत कैसे हो रही है, लोगों की मौत क्यों हो रही है, क्या आयुवर्ग या किसी दूसरे हिसाब से लोगों की मौत का कोई साफ पैटर्न है, क्या मरने वालों को कोई और बीमारी भी थी और थी तो वह क्या थीज् जैसा कि आप जानते हैं कि कई मामलों में पहले से मौजूद किसी बीमारी को मौत के मुख्य कारण के रूप में दर्ज किया जा रहा है, तो क्या होगा? ऐसे में जब विशेषज्ञ आगे के लिए योजना बनाने की कोशिश करेंगे, मान लीजिए (कोरोना की) तीसरी लहर से निपटने के लिए योजना बनानी है, तो आप कैसे बताएंगे कि बुनियादी ढांचा किस पैमाने पर चाहिए या फिर लोगों को क्या करने की जरूरत है और क्या नहीं।’
दूसरे विशेषज्ञ भी मानते हैं कि अगर डेटा सही हो तो तैयारी से लेकर मुकाबले तक हर मोर्चे पर महामारियों से निपटने का काम और भी प्रभावी तरीके से हो सकता है। इस डेटा का अध्ययन करके यह जाना जा सकता है कि कहां चूक हुई और आगे रणनीति में क्या बदलाव करने की जरूरत होगी। जैसा कि सीएनएन से बातचीत में महामारी विशेषज्ञ और अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी में प्रोफसर भ्रमर मुखर्जी कहती हैं, ‘गलत आंकड़े सच को बदलते नहीं बल्कि उसे और भयावह बनाते हैं क्योंकि इनसे नीतियां बनाने वाले जरूरतों का सही-सही आंकलन नहीं कर पाते।’ लेकिन अगर आंकड़े सही हों तो ऐसा न होने की संभावना बढ़ जाती है। गोविंद एथिराज कहते हैं, ‘अगर पिछली लहर में मरे ज्यादातर लोग डायबिटीज या हाइपरटेंशन के भी शिकार थे और अगर आपको उनकी संख्या के बारे में सटीक जानकारी है तो आप डायबिटीज के मरीजों को कह सकते हैं कि वे दूसरे मरीजों की तुलना में 10 गुना ज्यादा सावधान रहें।’
कई जानकारों के मुताबिक कोरोना संकट के दौरान आंकड़ों का यह हाल देश की छवि भी खराब कर रहा है। गोविंद एथिराज कहते हैं, ‘लोग हम पर यकीन नहीं करते। पहले सब कहा कहते थे कि चीन का डेटा फर्जी है और किसी को पता नहीं कि उस देश में असल में क्या हो रहा है। अब हमें भी दुनिया इसी तरह देख रही है।’
इसलिए कई विश्लेषक मानते हैं कि आंकड़े छिपाकर या फिर उनकी सटीकता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी से बचकर सरकार हर तरह से अपने लिए गड्ढ़ा ही खोद रही है। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि अगर आंकड़े सही हों तो सरकार की कार्यकुशलता बढ़ेगी और नतीजतन उस पर लोगों का भरोसा भी बढ़ेगा। लेकिन जानकारों के मुताबिक किरकिरी से बचने के चक्कर में वह इस दीर्घकालिक लाभ पर ध्यान नहीं दे रही। वे यह भी मानते हैं कि अगर भारत में कोरोना की पहली लहर के दौरान इस मोर्चे पर सतर्क रहा जाता तो दूसरी लहर का स्वरूप इतना विकराल न होता।
ऐसे में कोरोना वायरस की तीसरी लहर की आशंका को देखते हुए इस काम में अब और देर नहीं होनी चाहिए। जैसा कि अपनी एक फेसबुक पोस्ट में चर्चित पत्रकार रवीश कुमार लिखते हैं, ‘इस बात का रियल टाइम डेटा होना चाहिए कि अस्पतालों में जितने मरीज़ आ रहे हैं उनमें से कितने लक्षण आने के पांच दिन के भीतर आ रहे हैं, छह दिन के भीतर आ रहे हैं या नौ दिन के भीतर आ रहे हैं। उनकी हालत क्यों बिगड़ी है? उनके आने की वजह क्या है? क्या किसी डाक्टर ने अलग दवा लिखी, क्या किसी डॉक्टर ने जजमेंट ग़लत किया और सही दवा सही समय पर नहीं लिखी या किसी डाक्टर ने पहले ही दिन से पचास दवाएं तो लिख दीं लेकिन जो सबसे ज़रूरी दवा है उसे देने में या तो देरी कर दी या फिर दी ही नहीं? इससे हमें पता चल जाएगा कि क्या नहीं करना है।’ रवीश कुमार यह भी मानते हैं कि इस काम के लिए एक कमांड सेंटर बनना चाहिए।
हालांकि सरकार अब भी सही दिशा में काम करने से ज्यादा अपनी छवि का प्रबंधन करने की कोशिश करती नजर आ रही है। (satyagrah.com)
-गिरीश मालवीय
विदेश से जो मेडिकल मदद आ रही है उसको लेकर मोदी सरकार कितनी लापरवाह है ये भी समझ लीजिए। 25 अप्रैल को मेडिकल हेल्प पहली खेप भारतीय बंदरगाहों पर पुहंच गई थी उसके वितरण के नियम यानि स्ह्रक्क स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2 मई को जारी किए। यानी एक हफ्ते तक आई मेडिकल मदद एयरपोर्ट, बंदरगाहों पर यूं ही पड़ी रही। यानि केंद्र में बैठी मोदी सरकार को इस बारे में स्ह्रक्क बनाने में ही सात दिन लग गए कि इसे कैसे राज्यों और अस्पतालों में वितरण करे जबकि अगर आमद के साथ ही यह राज्यों में पहुंचना शुरू हो जाती तो कई मरीजों की जान बचाई जा सकती थी।
एक और बात है भारत सरकार विदेशों से आ रही मेडिकल मदद रेडक्रॉस सोसायटी के जरिए ले रही है, जो एनजीओ है। मेडिकल सप्लाई राज्यों तक न पहुंच पाने के सवाल पर रेडक्रॉस सोसायटी के प्रबंधन का कहना है कि उसका काम सिर्फ मदद कस्टम क्लीयरेंस से निकाल कर सरकारी कंपनी एचएलएल (॥रुरु) को सौंप देना है। वहीं, ॥रुरु का कहना है कि उसका काम केवल मदद की देखभाल करना है। मदद कैसे बांटी जाएगी, इसका फैसला केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय करेगा। स्वास्थ्य मंत्रालय इस बारे में चुप्पी साधे हुए है।
अभी भाई दिलीप खान की पोस्ट पर पढ़ा कि गुजरात के गांधीधाम के स्श्र्वं में जहा देश के कुल दो तिहाई ऑक्सीजन सिलेंडर बनते हैं वहा पिछले 10 दिनों से स्श्र्वं के सभी प्लांट्स में ताला बंद है। वजह ये है कि सरकार ने औद्योगिक ऑक्सीजन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई थी। लेकिन, आदेश में इन सिलेंडर निर्माता ईकाइयों को भी शामिल कर लिया गया। अभी हालत ये है कि सरकार विदेशों से भीख मांग रही है या फिर दोगुने-चौगुने दाम पर ऑक्सीजन सिलेंडर खरीद रही है। जो अपने कारखाने हैं, वहां ताला जडक़र बैठी हुई है।
मतलब आप सिर पीट लो कि ऐसे क्राइसिस में भी लालफीताशाही किस तरह से हावी है।