विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
खाद्य-पदार्थों और दवाइयों में मिलावट करनेवाले अब जरा डरेंगे, क्योंकि बंगाल, असम और उप्र की तरह अब मध्यप्रदेश भी उन्हें उम्र कैद देने का प्रावधान कर रहा है। अब तक उनके लिए सिर्फ 6 माह की सजा और 1000 रु. के जुर्माने का ही प्रावधान था। इस ढिलाई का नतीजा यह हुआ है कि आज देश में 30 प्रतिशत से भी ज्यादा चीजों में मिलावट होती है। सिर्फ घी, दूध और मसाले ही मिलावटी नहीं होते, अनाजों में भी मिलावट जारी है। सबसे खतरनाक मिलावट दवाइयों में होती है। इसके फलस्वरूप हर साल लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं, करोड़ों बीमार पड़ते हैं और उनकी शारीरिक कमजोरी के नुकसान सारे देश को भुगतने पड़ते हैं। मिलावट-विरोधी कानून पहली बार 1954 में बना था लेकिन आज तक कोई भी कानून सख्ती से लागू नहीं किया गया।
2006 और 2018 में नए कानून भी जुड़े लेकिन उनका पालन उनके उल्लंघन से ही होता है। उसके कई कारण हैं। पहला तो यही कि उस अपराध की सजा बहुत कम है। वह नहीं के बराबर है। मैं तो यह कहूंगा कि वह सजा नहीं, बल्कि मिलावटखोर को दिया जानेवाला इनाम है। यदि उसे 6 माह की जेल और एक हजार रु. जुर्माना होता है तो वह एक हजार रु. याने लगभग डेढ़ सौ रुपए महिने में जेल में मौज मारेगा। उसका खाना-पीना, रहना और दवा-सब मुफ्त!
अपराधी के तौर पर कोई सेठ नहीं, उसका नौकर ही पकड़ा जाता है। अब कानून ऐसा बनना चाहिए कि मिलावट के अपराध में कंपनी या दुकान के शीर्षस्थ मालिक को पकड़ा जाए। उसे पहले सरे-आम कोड़े लगवाए जाएं और फिर उसे सश्रम कारावास दिया जाए। उसकी सारी चल-संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। यदि हर प्रांत में ऐसी एक मिसाल भी पेश कर दी जाए तो देखिए मिलावट जड़ से खत्म होती है कि नहीं। थोड़ी-बहुत सजा मिलावटी समान बेचनेवालों को भी दी जानी चाहिए। इसके अलावा मिलावट की जांच के नतीजे दो-तीन दिन में ही आ जाने चाहिए। मिलावटियों से सांठ-गांठ करनेवाले अफसरों को नौकरी से हमेशा के लिए निकाल दिया जाना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय सभी भाषाओं में विज्ञापन देकर लोगों को यह बताए कि मिलावटी चीजों को कैसे घर में ही जांचा जाए। दवाइयों और खाद्य-पदार्थों में मिलावट करना एक प्रकार का हत्या-जैसा अपराध है। यह हत्या से भी अधिक जघन्य है। यह सामूहिक हत्या है। यह अदृश्य और मौन हत्या है। इस हत्या के विरुद्ध संसद को चाहिए कि वह सारे देश के लिए कठोर कानून पारित करे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा और कांग्रेस के बागी नेताओं के नए तेवर कांग्रेस पार्टी के लिए नई चुनौतियां पैदा कर रहे हैं। प. बंगाल, असम, पुदुचेरी, तमिलनाडु और केरल— इन पांच राज्यों में से अगर किसी एक राज्य में भी कांग्रेस जीत जाए तो उसे मां-बेटा नेतृत्व की बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। केरल और पुदुचेरी में कांग्रेस अपने विरोधियों को तगड़ी टक्कर दे सकती है, इसमें शक नहीं है। वह भी इसलिए कि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व जऱा प्रभावशाली है।
प्रभाव उनका ही होगा लेकिन उसका श्रेय मां-बेटा नेतृत्व को ही मिलेगा और यदि पांचों राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह से पिट गई तो माँ-बेटा नेतृत्व के खिलाफ कांग्रेस में जबर्दस्त लहर उठ खड़ी होगी। उसके संकेत अभी से मिलने लग गए हैं। जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस की दुर्दशा पर पुनर्विचार करने की गुहार पहले लगाई थी, वे अब पहले जम्मू में और फिर कुरूक्षेत्र में बड़े आयोजन करने वाले हैं। जम्मू का आयोजन गुलाम नबी आजाद के सम्मान में किया जा रहा है, क्योंकि मां-बेटा नेतृत्व ने उन्हें राज्यसभा के पार्टी-नेतृत्व से विदा कर दिया है। गुलाम नबी की तारीफ में भाजपा ने प्रशंसा के पुल बांध रखे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि उसके बावजूद वे भाजपा में जानेवाले नहीं हैं।
कांग्रेस के ‘चिंतित नेताओं’ को साथ जोडक़र अब वे नई कांग्रेस घडऩे में लगे हैं। उनके साथ जो वरिष्ठ नेतागण जुड़े हुए हैं, उनमें से कई अत्यंत गुणी, अनुभवी और योग्य भी हैं लेकिन उनमें साहस कितना है, यह तो समय ही बताएगा। उनकी पूरी जिंदगी जी-हुजूरी में कटी है। अब वे बगावत का झंडा कैसे उठाएंगे, यह देखना है। उनकी दुविधा इस शेर में वर्णित है।
इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई ‘मोमिन’
आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे ?
मुझे नरसिंहरावजी के प्रधानमंत्री-काल के वे अनुभव याद आ रहे हैं, जब मेरे पिता की उम्र के कांग्रेसी नेता मेरे सम्मान में तब तक खड़े रहते थे, जब तक कि मैं कुर्सी पर नहीं बैठ जाता था, क्योंकि नरसिंहरावजी मेरे अभिन्न मित्र थे। अब वे दिन गए जब पुरूषोत्तम दास टंडन, आचार्य कृपालानी, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश, महावीर त्यागी जैसे स्वतंत्रचेता लोग कांग्रेस में सक्रिय थे लेकिन फिर भी हमें उम्मीद नहीं छोडऩी चाहिए। कांग्रेस तो दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टियों में से रही है और स्वाधीनता संग्राम में इसने विलक्षण भूमिका निभाई है।
भारतीय लोकतंत्र की उत्तम सेहत के लिए इसका दनदनाते रहना जरूरी है। मार्च-अप्रैल में होने वाले पांच चुनावों का जो भी परिणाम हो, यदि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र किसी तरह स्थापित हो जाए तो कांग्रेस को नया जीवन-दान मिल सकता है। यदि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र सबल होगा तो भाजपा भी भाई-भाई पार्टी बनने से बचेगी।
कई प्रांतीय पार्टियां, जो प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं, उनमें भी कुछ खुलापन आएगा और उनमें नया रक्त-संचार होगा। हमारे भारत की सभी पार्टियां अपना सबक कांग्रेस से ही सीखती हैं। कांग्रेस के सारे दुर्गुण हमारे अन्य राजनीतिक दलों में भी धीरे-धीरे बढ़ते चले जा रहे हैं। यदि कांग्रेस सुधरी तो देश की पूरी राजनीति सुधर जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
राजद्रोह को दंड संहिता से निकाल फेंकने से सुप्रीम कोर्ट ने इंकार कर दिया है। आवेदक केदारनाथ सिंह ने यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंग्रेजों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन गुंडों को गद्दी सौंप दी। लोगों की गलती से गुंडे गद्दी पर बैठ गए हैं। हम अंग्रेजों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आखिर ेप्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है। उसमें उन लोगों को सजा देने की शक्ति होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में’ नामक शब्दांश बहुत व्यापक है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह अपराध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्य द्वारा सक्षम प्रतिबंध के रूप में मुनासिब समझा जा सकता है।
पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक करार दिया, लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाले मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के प्रतिकूल। तो न्यायालय पहली स्थिति के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया। कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई। राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्दों का कचूमर निकल रहा है। धारा 124-क के अनुसार-जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या इशारों द्वारा, या दिखाते हुए अन्यथा कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना पैदा करेगा, या पैदा करने की कोषिष करेगा या मनमुटाव उकसाएगा या उकसाने की कोषिष करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा। राजद्रोह का अपराध राजदंड है। वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर पड़ता है। अंग्रेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं। राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने भी तो खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं।
2010 में कश्मीर के अध्यापक नूर मोहम्मद भट्ट को कश्मीरी असंतोष को प्रश्न पत्र में शामिल करने, टाईम्स ऑफ इंडिया के अहमदाबाद स्थित संपादक भरत देसाई को पुलिस तथा माफिया की सांठगांठ का आरोप लगाने, विद्रोही नामक पत्र के संपादक सुधीर ढवले को कथित माओवादी से कम्प्यूटर प्राप्त करने, डॉक्टर विनायक सेन को माओवादियों तक संदेश पहुंचाने, ओडिशा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी द्वारा माओवादी साहित्य रखने, एमडीएमके के नेता वाइको द्वारा यह कहने कि श्रीलंका में युद्ध नहीं रुका तो भारत एक नहीं रह पाएगा और पर्यावरणविद पीयूष सेठिया द्वारा तमिलनाडु में सलवा-जुडूम का विरोध करने वाले परचे बांटने जैसे कारणों से राजद्रोह का अपराध चस्पा किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के फैसले में सिद्धांत स्थिर किया कि किसी भी कानून में इतनी अस्पष्टता तो हो कि निर्दोष लोगों के खिलाफ यदि इस्तेमाल किया जा सके तो ऐसा कानून असंवैधानिक होगा। राजद्रोह के लिए मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है। इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया वगैरह में भी इस कानून की उपयोगिता अब बची नहीं है। राजद्रोह को आज़ादी कुचलने के सरकारी या पुलिसिया डंडे के रूप में रखे जाने का संवैधानिक औचित्य भी नहीं है। विनोद दुआ ने भी ऐसा कुछ घातक तो नहीं कहा था जिसको लेकर सरकारी तरफदारी करने वाले कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता बवाल मचा गए। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ के प्रकरण में राजद्रोह की संवैधानिकता पर मुहर लगाई है। तब इंग्लैंड में प्रचलित समानान्तर प्रावधानों का सहारा लिया था। इंग्लैंड में संबंधित धारा का विलोप कर दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह की संविधान पीठ में भाषा की केचुल तो उतारी लेकिन राजद्रोह के सांप को फनफनाने का मौका मिला। अंग्रेज जज कहते थे राज्य और सरकार के खिलाफ नफरत और असहयोग तो दूर मन में सरकार के नकार की भावना तक का प्रदर्शन नहीं करना है। (बाकी पेज 8 पर)
धीरे-धीरे उस पर तर्क की इस्तरी चलती चलाते भारतीय जजों ने कहा कि सरकार का मतलब राज्य के नुमाइंदों से नहीं है। सरकार एक भाववाचक संज्ञा है जो व्यक्तियों के जरिए तो उपस्थित है लेकिन वे व्यक्ति सरकार नहीं हैं। इससे कुछ सहूलियत मिली लेकिन आखिर यही तय हुआ कि यदि सरकार के खिलाफ लगभग गांधीवादी जुमले में असहयोग निष्क्रिय प्रतिरोध, सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी कोई करेगा तो उससे एक ऐसी मनोवैज्ञानिकता पसर सकती है कि जनता को सरकार नामक उपस्थिति या तंत्र से कोई लेना देना नहीं है बल्कि सरकार का नकार है। ऐसे में सरकार के माध्यम से कोई हुकूमत कैसे करेगा। दुभागर््य है कि तिलक से लेकर दिशा रवि तक किसी ने भी हथियारों के जरिए किसी राज्य की मान्यता या संस्था को नेस्तनाबूद करने का आह्वान नहीं किया। अब तक यही कहा और ठीक कहा कि हम अंगरेजों के गुलाम नही रहेंगे लेकिन हमारी आजादी देष की सरकार में होगी। आज भी भारतीय नागरिक आजादी का जयघोष हो रहा है कि राज्य हमारा है क्योंकि हम संविधान के निर्माता हैं। हम सरकारें चुनते हैं। उन्हें हटा देने का हक हमारा है। इसलिए हमारे चुने हुए नुमाइंदों के उनके गलतसलत कामों को प्रतिबंधित करने के हमारे संवैधानिक अधिकार को राजद्रोह का कोड़ा फटकारते हमें डरा नहीं सकते। सैकड़ों मुकदमे हैं जिनमें दिशा रवि की तरह पहली फुर्सत में अदालतों को नागरिक आजादी के पैरोकारों के पक्ष में राय दे सकनी थी।
यदि राज्य की हुकूमत जुर्म करे तो संविधान का तीसरा स्तंभ न्यायपालिका के रूप में ही मुनासिब इंसाफ करने में ढिलाई क्यों करेगा? उसकी तपिश का अहसास तिलक और गांधी जैसे महान नेताओं ने अंगरेजी जुर्म से तंग आकर किया था। उन्होंने आजाद भारत के लिए मनुष्य के अधिकारों का अंतरिक्ष फैलाया था।
-रमेश अनुपम
छत्तीसगढ़ और विशेषकर रायपुर का इतिहास लिखा जाए और उस इतिहास में रायबहादुर भूतनाथ डे का उल्लेख न हो, ऐसा संभव नहीं है। रायबहादुर भूतनाथ डे एक ऐसे अनमोल शख्शियत थे जिन्होंने इस शहर को शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं से महरूम किया।
रायपुर शहर को एक नई पहचान दिलाने की कोशिश ही नहीं की अपितु एक नए रायपुर को गढऩे में आगे बढ़ कर रुचि भी दिखाई। सेंट्रल प्रोविनेंस एंड बरार के इस नवविकसित शहर को एक नई पहचान दिलाने में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शिक्षा के विकास में और जनजागृति के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को उन्होंने अंजाम दिया। जिसके फलस्वरूप उन्हें उस समय सी पी एंड बरार का ईश्वरचंद्र विद्यासागर कहा जाता था। जो कार्य बंगाल में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने किया ठीक उसी तरह के नवजागरण का कार्य रायबहादुर भूतनाथ डे ने इस शहर के लिए किया।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बंगाल में नवजागरण के समय कोलकाता में शिक्षा, स्त्री शिक्षा, महिलाओं को आगे बढ़ाने तथा जनजागृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए ठीक उसी तरह के उल्लेखनीय कार्यों को राय बहादुर भूतनाथ डे ने रायपुर में अंजाम दिया।
वे बीस वर्षों तक (सन् 1880 से 1900 तक) रायपुर म्यूनिस्पल के सेक्रेटरी रहे। उस बीच उन्होंने पेयजल के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय कार्य किए। राजनांदगांव के तत्कालीन राजा की आर्थिक सहायता से रायपुर में उन्होंने पेयजल की आपूर्ति को संभव बनाया। वे रायपुर के वकीलों के एक छात्र नेता रहे। सन 1902 में रायपुर के यूनियन क्लब की स्थापना में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही है।
वे दो दशक से भी अधिक समय तक इस शहर के सिरमौर रहे। इस शहर को उन्होंने जिस तरह से प्यार किया, जिस तरह से संवारा वह अद्भुत है। आज के इस दौर में तो यह सब नामुमकिन है। उनके इन कार्यों को देखकर ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर की पदवी से विभूषित किया।
भूतनाथ डे के रायपुर आने की कहानी और उनका पिछला जीवन भी कोई कम दिलचस्प नहीं है। राय बहादुर भूतनाथ डे का जन्म बंगाल के बेहाला के श्रीनाथ देब के परिवार में सन 1850 में हुआ था। बहुत कम उम्र में पिता की मृत्यु हो जाने के पश्चात अपनी विधवा मां के साथ चौबीस परगना के बहड़ गांव के उदार हृदय जमींदार द्वारकानाथ भंज के यहां उन्हें शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा।
भूतनाथ डे ने सन 1869 में एफ. ए. तथा 1872 में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
सन 1874 में एम. ए. तथा 1876 में कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी. एल. की परीक्षा पास की।
बी.एल. की परीक्षा उत्तीर्ण के पश्चात भूतनाथ डे का विवाह चौबीस परगना के उमाचरण मित्र की द्वितीय कन्या एलोकेशी के साथ संपन्न हुआ।
विवाह के पश्चात कोर्ट में प्रैक्टिस करने के लिए उन्होंने उपयुक्त स्थान की खोज करना प्रारंभ किया। खोज करते-करते उन्हें रायपुर के बारे में पता लगा।
सन् 1876 में वे पहली बार रायपुर आए, तब तक इलाहाबाद से नागपुर तक रेल सेवा शुरू हो चुकी थी। कोलकाता से रायपुर आवागमन संभव हो चुका था। सन 1876 में रायपुर आने के बाद उन्होंने रायपुर को ही अपनी कर्मभूमि बनाना उचित समझा।
रायपुर को उन्होंने पूरी तरह से अपना लिया और रायपुर ने उन्हें। दोनों ने एक दूसरे से भरपूर प्यार किया और भरपूर सम्मान भी।
मात्र तिरपन वर्ष की अल्प आयु में 10 जुलाई 1903 को रायपुर में इस महाप्राण ने इस पृथ्वी को छोडक़र महाप्रयाण किया। उस समय कोलकाता से प्रकाशित सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘ञ्जद्धद्ग क्चद्गठ्ठद्दड्डद्यद्गद्ग’ के 15 जुलाई 1903 के पांचवें पृष्ठ में उनके निधन के समाचार को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया गया।
छत्तीसगढ़ और रायपुर का एक चमकता हुआ सितारा सदा-सदा के लिए अस्त हो गया। एक उल्का पिंड जिसकी रोशनी से यह शहर दमक उठा था वह सदा-सदा के लिए पृथ्वी के गर्भ में समा गया।
निधन के पश्चात उनकी स्मृति में कोतवाली से गांधी चौक होकर जाने वाले मार्ग का नाम उनके नाम पर किया गया, पर इसे कितने लोग जानते हैं ?
छत्तीसगढ़ और रायपुर शहर के लिए जिस रायबहादुर भूतनाथ डे ने इतना कुछ किया। उस नगर के लोग ही आज राय बहादुर भूतनाथ डे को पूरी तरह से भूल चुके हैं।
शेष अगले रविवार..
विश्व का महान जीनियस हरिनाथ डे...
- सतीश जायसवाल
माघ पूर्णिमा के साथ छत्तीसगढ़ में ग्रामीण वार्षिक मेलों की शुरुआत हो जाती है। और होली पर्व पर, धूल पँचमी तक इन मेलों की बहार होती है।
पहले के दिनों में छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक-पारंपरिक स्वरूप की एक झलक इन मेलों में मिल जाती थी।अब धीरे-धीरे वह धूमिल पड़ने लगी है। उस पर व्यापारिक और राजनैतिक प्रभाव गहराने लगा है।
यहां के तीन प्रमुख मेलों ने फिर भी इन प्रभावों से अपने को काफी हद तक बचाकर रखा है। और अपने सांस्कृतिक स्वरूप को सहेजा हुआ है। ये मेले हैं -- शिवरीनारायण, सिरपुर और पीथमपुर।
माघ पूर्णिमा के साथ शुरू होने वाले शिवरीनारायण मेला का एक प्रमुख और विशिष्ट आकर्षण यहां के रामनामी समुदाय के लोग होते हैं।
ये लोग, स्त्री-पुरुष और बच्चे तक अपने पूरे शरीर पर राम-राम नाम का गोदना गोदवाते हैं। और सर पर बाँस के बने मोरपंखी मुकुट सर पर धारण करते हैं।
ऐसे में ये लोग और भी दर्शनीय हो जाते हैं। और मेले का एक विशिष्ठ आकर्षण बन जाते हैं।
इन्हें देखने के लिए देश-विदेश के लोग स्वाभविक तौर पर यहां पहुंचते है। मीडियाकर्मी और स्कॉलर्स भी यहां आते हैं।
इस वर्ष माघ पूर्णिमा के पर्व पर रामनामियों के एक समूह ने यहां, महानदी में स्नान किया।और यहां से निकल गए। अब, हो सकता है कि अगले वर्ष इसी अवसर पर फिर दिखें। नहीं भी दिखें। कोई निश्चय नहीं।
-प्रकाश दुबे
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से अश्वमेध यज्ञ आरंभ करने की परंपरा थी। यज्ञ का आयोजन करने वाले ठोंक बजाकर अश्व चुनते हैं। तेलंगाना में रक्तक्रांति रोकने के लिए पहले जवाहर लाल नेहरू और आपात्काल लगाने से पहले और पूरे कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने सत्ता बचाने के लिए आचार्य विनोबा भावे को अश्वमेध के लिए सजाया। कुछ लोगों को यह बात नागवार लग सकती है। पश्चिम बंगाल से पुडुचेरी तक दलबदल शब्द का प्रयोग होता है। समय ही बताएगा कि ये योद्धा थे? विजयी हुए, वीरगति को प्राप्त हुए या किसी चुनावी अश्वमेध के बाद प्रसाद के रूप में वितरित किए गए?
अश्वमेध के घोड़े को अपना अंत पता होता होगा? काजू-किशमिश चबाते समय बकरे को अपनी कुरबानी का पता नहीं होता। उसकी पौष्टिकता स्वाद बनकर दान का गर्व और उत्सव का उल्लास बनकर बिखरती है। महत्वपूर्ण, परंतु काल्पनिक सा सवाल है-घोड़ा क्या सोचता होगा? सज-धज का आनंद। औरों से अलग दिखने का गर्व। पीछे-पीछे भागती श्रद्धालुओं की उत्तेजित भीड़। आरती, पूजा, अभिषेक। उसकी चाल तो बदल जाती है। सोच बदलने में क्षण नहीं लगता। अश्व सोचता होगा-मैं ही शूरवीर। युद्ध विजेता। कागज पर कलम चलाकर राजपाट की रजिस्ट्री करना संभव है। ऐसे प्रसंग से हम आपका मनोरंजन होता है। केन्द्र तथा राज्य की कुलीन सभाओं में प्रवेश मिलता है। धरती को रौंदने वाले अश्व की हिनहिनाहट में विजय का दर्प शामिल है।
रूसी क्रांति की कूंची से दुनिया के दर्जनों देश लाल हो गए। विचार और कर्म के घालमेल की बदौलत लेनिन रूस और बाद में सोवियत संघ के शिखर पद पर विराजमान हुए। लेनिन के देहांत के बाद सेंट पीटरबर्ग का नाम बदल कर सम्मान स्वरूप लेनिनग्राद किया गया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की आंधी में सत्ता, समय और पुराने विचार उखड़ कर ताश के पत्तों की तरह धराशायी हुए। लेनिनग्राद शहर का नाम फिर सेंट पीटरबर्ग हो चुका है। क्रांति का जनक व्लादिमीर इलीयिच उल्यानोव लेनिन अंतिम दिनों में खुश होकर यह कहने में असमर्थ था कि दुनिया के मजदूरों तुम बड़े जल्दी एकजुट होने लगे। लाल सलाम कहना दूर, एक अक्षर उसके मुंह से नहीं निकलता था। साम्यवाद की तुलना दिग्विजय के लिए किए जाने वाले अश्वमेध यज्ञ से करें। अपने सम्राट के नाम की पट्टी के साथ ऐंठकर चलते हुए घोड़े के पीछे पीछे सेनापति और सेना चलती है। घोड़े का तिलक कर अधीनता स्वीकार करो वरना युद्ध करो। घोड़ा सम्राट का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में ऐसे कई अवसर आए जब घोड़े के आगे अनेक शूर सर नवाजे गए।
गांधी के विचार और कर्म से प्रभावित भारत ने महात्मा और बापू जैसा संबोधन दिया। अहिंसक सत्याग्रह का घोड़ा भारत की स्वतंत्रता का अश्व बना। अश्वमेध यज्ञ पूरा होने के बाद घुड़सवारों ने प्राचीन परंपरा निभाई। उन्होंने घोड़े को अज यानी बकरे के साथ खंभे से बांधा। विधिवत पूजा के बाद अश्व की देह के टुकड़े प्रसाद के रूप में विजयी प्रजा में वितरित किए गए। हर अश्वमेध के बाद लगभग उसी तरीके से यह परिपार्टी अपनाई जाती है। अपने घोड़े से असहमत सम्राट याद नहीं रखा जाता। उसका भी अपने अश्व जैसा ही अंत हाने की आशंका बनी रहती है। अनेक बड़े उदाहरण पाठकों के मन को झकझोरते होंगे। एक अल्पज्ञात मिसाल देना उचित होगा।
डॉ. राम मनोहर लोहिया के बाद गैर कांग्रेसवाद के विचार को नंदमूरि तारक रामाराव ने हथियार बनाया। लोकसभा चुनाव में वर्तमान भाजपा से लेकर हर कांग्रेस विरोधी दल के उम्मीदवार को रामाराव ने उम्मीदवार बनाया। सिर्फ माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उनका तोहफा लेने से इंकार किया। विचार का अश्व रेड़ लगाकर लक्ष्य के करीब जा पहुंचा। एनटीआर गोता खा गए। अपने को सम्राट समझने की भूलकर पसंद की महिला से विवाह किया। इस बहाने दामादों, बेटियों और समर्थकों ने एनटीआर को सत्ता से बाहर कर दिया। लेनिन का हश्र सर्वश्रूत है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अपना विचार है। इस विचार की ताकत तब भी थी, जब सत्ता नहीं थी। उस समय कुपु सी सुदर्शन सरसंघचालक थे। उनके निर्देश पर लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा। रथयात्री आडवाणी अश्वमेध के घोड़े साबित हुए। आदेशक सुदर्शन जी अंतिम दिनों में याददाश्त खो बैठे थे। भोपाल में टहलने निकले। अचानक सांस थमी। देर तक लोग पहचान नहीं पाए। उनकी ही तरह प्रतिभाशाली कलमकार चलपति राव का काल से मुकाबला हुआ। नेशनल हेराल्ड का संपादक प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लेख में कतरब्यौंत करता था। प्रधानमंत्री बनी बेटी ने निकाल बाहर किया। एक दिन लावारिस लाश मिली। चलपतिराव का नश्वर शरीर। विचार के अश्वमेध के अश्व और घोड़े को रवाना करने वालों का हश्र सर्वविदित है। इसके बावजूद मेट्रोमेन ई श्रीधरन राजनीतिक यज्ञ में हवि देने आतुर हैं। मुख्यमंत्री बनने की उनकी चाह से चकित न हों। तीन महीने से व्यापक स्तर पर किसान आंदोलन चल रहा है। प्रचार वंचित किसान डटे हुए हैं। उनका संकल्प देखकर अण्णा हजारे जैसे मुनि विश्वामित्र को फिर एक बार प्रचार की अप्सरा मेनका याद आई।
प्रधानमंत्री ने आंदोलनजीवियों की फजीहत की। समय रहते अण्णा हजारे ने अपने आप को संभाला होगा। अचरज इस बात पर हो सकता है कि किसान और कृषि की जानकारी रखने वालों के बीच जाने-पहचाने स्वामीनाथन ने तमिलनाडु के लघु अश्वमेध का घोड़ा बनने की ललक नहीं दिखाई। उन्हें भी तो व्हील चेयर पर बिठाकर मुख्यमंत्री बनाया जा सकता था। याद करिए दिल्ली के चुनाव। किरण बेदी पुलिसिया रोब के साथ सलामी लेने पहुंच गई थीं।
अश्व सोचे या न सोचे। जीत के जयकारे में मस्त, दिग्विजय के लिए अश्व चुनने वाले अश्वमेध के विजयी घोड़ों की वेदना पर विचार करें? उनका काम यज्ञ है। घोड़े सोचते नहीं। घोड़ा बेचकर सोना मुहावरा है। यह तो सब जानते हैं। इसका अर्थ समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-गिरीश मालवीय
एक साधारण सा फिल्म अभिनेता जिसकी कुछ दो चार फिल्म हिट हुई है संभवत: नशे की सही डोज न मिलने के कारण आत्महत्या कर लेता है और भारत का मीडिया उसकी आत्महत्या पर बवाल मचा देता है। लगभग पूरी फिल्म इंडस्ट्री शक के घेरे में आ जाती है। महीने दो महीने तक सुबह-शाम न्यूज चैनलों पर सिर्फ उसी से संबंधित न्यूज चलती है।
लेकिन जब देश के सबसे वरिष्ठ सांसदों में से एक जो सात बार लोकसभा का चुनाव जीतकर आया हो जो पूरे होशोहवास में आत्महत्या करने से पहले एक या दो नहीं, बल्कि 14 पन्नों का एक पत्र, ‘सुसाइड नोट’ के शीर्षक के साथ, वो भी अपने ऑफिशियल लेटरहैड पर लिखकर मुंबई के एक होटल के कमरे में पँखे पर झूल जाता है तो न सांसद की कोई चर्चा करता है न उसके सुसाइड नोट की कोई चर्चा करता है न उन परिस्थितियों की कोई चर्चा करता है जिसमें उलझ कर एक सांसद जैसे अधिकार संपन्न आदमी को अपनी जान देनी पड़ी और न उन नामों पर चर्चा करता है जिनका नाम उस सुसाइड नोट में लिखा है।
तो ऐसा क्यों होता है आपने कभी सोचा?
मीडिया में आज वो ताकत है जो किसी भी भी आलतू-फालतू मुद्दे को हमारे दिमाग में फिट कर दे और जिन जनसरोकार के मुद्दों का हमसे सीधा संबंध है उन्हें हमसे दूर कर दे। यह मीडिया का दानव जिसके वश में है वही हमारे सोचने-समझने की शक्ति को अपने कंट्रोल में किए हुए हैं वही राज कर रहे हैं।
खैर!...जाने दीजिए...यह सब बातें एक न एक दिन आपको समझ में आ ही जाएगी, मैं आपको यहाँ वो बता दूं जो हमारा मीडिया खासतौर पर हिंदी मीडिया बिल्कुल भी नहीं बता रहा है। कल मोहन डेलकर के युवा पुत्र अभिनव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर न्याय की माँग की है। गुजराती में लिखे गए पत्र में अभिनव डेलकर ने लिखा है, ‘मेरे पिता मोहन डेलकर को कुछ समय के लिए मानसिक रूप से तनाव में रखा गया है और इस पत्र को लिखने का उद्देश्य न्याय प्राप्त करना है
अभिनव लिखते हैं ‘मेरे पिता पर बहुत दबाव था। स्थानीय प्रशासन ने उनके और हमारे समर्थकों के लिए चीजों को बहुत कठिन बना दिया था। अभिनव ने कहा कि सांसद होने के बावजूद एक प्रकार असहायता की भावना उनमें आ गई थी वह अपने समर्थकों की मदद करने तक में स्वयं असमर्थ महसूस कर रहे थे।
अभिनव ने कहा कि डेल्कर के कई समर्थकों और आदिवासी श्रमिकों को एक स्थानीय सरकारी स्कूल में नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने जिला परिषद चुनाव में उनका समर्थन किया था। ‘ये लोग मेरे पिता से मदद मांगने आएंगे। लेकिन वह असहाय थे क्योंकि स्थानीय प्रशासन उन्हें या मेरे पिता की उचित सुनवाई के लिए तैयार नहीं था। 27 जून, 2020 को बुलडोजर के साथ हमारे कॉलेज के बाहर 350 से अधिक पुलिस कर्मियों ने बिल्डिंग का ढांचा ढहा दिया था। उन्होंने तभी इस कार्य को तभी रोका जब मेरे पिता अदालत से स्टे लेकर के आए।
अभिनव इस पत्र में बताते हैं कि डेलकर को सरकारी कार्यों के लिए भी आमंत्रित नहीं किया जा रहा था। ‘पिछले कुछ वर्षों में, प्रशासन ने उन्हें भाषण देने से रोक दिया था। जब गृह मंत्री नित्यानंद राय एक अधिकारी के लिए आए थे, तब उन्होंने उन्हें आमंत्रित नहीं किया था। महाराष्ट्र के गृह मंत्री द्वारा दिया गया बयान 24 फरवरी को कहा गया है कि ष्ठहृ॥ प्रशासक सीधे मेरे पिताजी को आत्महत्या के लिए मजबूर करने में शामिल है। हम ष्ठहृ॥ के लोग ऐसे व्यक्ति को स्वीकार नहीं कर सकते। हम आपसे अनुरोध करते हैं कि आप तुरंत ष्ठहृ॥ से प्रशासक प्रफुल्ल पटेल को हटा दें। मुझे मुंबई पुलिस द्वारा की गई जांच पर पूरा भरोसा है। यह एक बेटे की आपसे अपील है।’
उनके बॉडी गार्ड नंदू वानखेड़े का बयान भी सामने आया है जिसमे कहा गया है कि डेलकर पिछले कुछ दिनों से उदास थे। वानखेड़े ने कहा कि एक रात पहले मैं उनके साथ कमरे में था और उसे कुछ लिखते देखा। बाद में उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा क्योंकि उन्होंने कहा कि वह अध्ययन करना चाहते हैं। ड्राइवर अशोक पटेल 1 बजे तक उनके साथ रहे। उन्होंने मुझे बताया कि सर (डेलकर) ने उनके जाने तक लिखना जारी रखा। अब हम मानते हैं कि यह सुसाइड नोट था।
इस सुसाइड नोट में भी इस ‘अन्याय’, ‘अपमान’ और उनके साथ बरते गए पूर्वाग्रह का उल्लेख किया गया है।
58 वर्षीय मोहन डेलकर आदिवासियों के बड़े हितैषी के रूप में गिने जाते थे। सांसद मोहन डेलकर, जो आदिवासी कोटे से चुने गए सांसद थे। बेहद आश्चर्य की बात है कि उनके लिए देश का आदिवासी समाज भी कुछ नही बोल रहा है, बड़े-बड़े आदिवासी नेता भी इस मसले पर खामोश है।
भारतीय राजनीति की यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि एक उच्च शिक्षित साधन संपन्न नेता, जो सात बार सांसद रहा है, उसे ऐसी असहाय अवस्था में अपना जीवन समाप्त करना पड़ रहा है। लेकिन न मीडिया में न सोशल मीडिया में कोई इस बारे में बात तक करने को तैयार नहीं है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और पाकिस्तान को लेकर इधर कुछ ऐसी खबरें आई हैं कि यदि उन पर काम हो गया तो दोनों देशों के रिश्ते काफी सुधर सकते हैं। पहली खबर तो यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में ऐसी बात कह दी है, जो दक्षिण एशिया का नक्शा ही बदल सकती है। दूसरी बात भारत-पाक नियंत्रण-रेखा पर शांति बनाए रखने का समझौता हो गया है। तीसरी बात यह कि सुरक्षा परिषद में सहमति हो गई है कि जब कोई आतंकी हमला किसी देश की जमीन से हो तो उस देश के अंदर घुसकर उन आतंकियों को खत्म करना जायज है। चौथी बात यह कि पाकिस्तान को अब भी अंतराष्ट्रीय वित्तीय टास्क फोर्स ने भूरी सूची में बनाए रखा है।
श्री मोहन भागवत ने हैदराबाद में आज ऐसी बात कह दी है, जो आज तक किसी आरएसएस के मुखिया ने कभी नहीं कही। उन्होंने कहा कि अखंड भारत से सबसे ज्यादा फायदा किसी को होगा तो वह पाकिस्तान को होगा। हम तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान को भारत का अंग ही समझते हैं। वे हमारे हैं। हमारे परिवार के हिस्से हैं। वे चाहें, जिस धर्म को मानें। अखंड भारत का अर्थ यह नहीं कि ये देश भारत के मातहत हो जाएंगे। यह सत्ता नहीं, प्रेम का व्यापार है। यही सनातन धर्म है, जिसे हिंदू धर्म भी कहा जाता है। मोहनजी वास्तव में उसी अवधारणा को प्रतिपादित कर रहे हैं, जो मैं 50-55 साल से अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जाकर अपने भाषणों के दौरान करता रहा हूं। उनकी बात की गहराई को हिंदुत्व और इस्लाम के उग्रवादी समझें, यह बहुत जरूरी है। मैंने कल ही श्रीलंका में दिए गए इमरान के भाषण का स्वागत किया था। अब कितना अच्छा हुआ है कि दोनों देशों के बड़ै फौजी अफसरों ने नियंत्रण-रेखा (778 कि.मी.) और सीमा-रेखा (198 किमी ज.क.) पर शांति बनाए रखने की सहमति जारी की है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों तरफ से हजारों बार उनका उल्लंघन हुआ है और दर्जनों लोग मारे गए हैं। यह असंभव नहीं कि दोनों देश कश्मीर और आतंकी हमलों के बारे में शीघ्र ही बात शुरु कर दें। इसका एक कारण तो अमेरिका के बाइडन प्रशासन का दबाव भी हो सकता है, क्योंकि वह अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए पाकिस्तान की मदद चाहता है और वह पाकिस्तान को चीनी चंगुल से भी बचाना चाहता है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल इस मामले में काफी चतुराई से काम कर रहे हैं। भारत भी चाहेगा कि पाकिस्तान चीन का मोहरा बनने से बचे। इमरान खान को पता चल गया है कि सउदी अरब और यूएई जैसे मुस्लिम देशों का सहयोग भी अब उन्हें आंख मींचकर नहीं मिलनेवाला है। पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का दबाव भी बढ़ गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी आंतकियों के कमर तोडऩे वाले बालाकोट-जैसे हमलों का समर्थन कर दिया है। यदि इन सब परिस्थितियों के चलते भारत-पाक वार्ता शुरू हो जाए तो उसके क्या कहने ?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राकेश दीवान
आखिर दुनियाभर के अधिकांश देशों के मौजूदा राजनेताओं और आधुनिक विज्ञान को ठेंगे पर मारते हुए धार्मिक संगठनों और धर्मगुरुओं को धरती बचाने का जिम्मा दिया जा रहा है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (यूएनओ) के ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यूएनईपी) की पहल पर शुरु की जा रही ‘फेथ फॉर अर्थ’ मुहीम के जरिए दुनियाभर के धार्मिक संगठनों, धर्म-गुरुओं और आध्यात्मिक नेताओं की मार्फत सन् 2030 तक धरती के 30 फीसदी हिस्से को वापस उसके प्राकृतिक गुणों से भरपूर बनाने का लक्ष्य तय किया गया है। कार्यक्रम के निदेशक डॉ. इयाद अबु मोगली का कहना है कि जलवायु-परिवर्तन दुनियाभर के लिए गंभीर खतरा है, लेकिन कोई इसकी अहमियत समझता नहीं दिखता। ‘जलवायु-परिवर्तन को रोकने के तरह-तरह के प्रयासों का अध्ययन करके हम आखिर इस नतीजे पर पहुचे हैं कि सिर्फ धर्म में ही वह ताकत है जो दुनिया को इस संकट से बचा सकती है।‘ विज्ञान आंकडों की मार्फत संकट की गंभीरता तो बता सकता है, लेकिन आस्था ही धरती को बचाने का जुनून पैदा कर सकती है।
विनोबा भावे मानते थे कि आधुनिक समय राजनीति और धर्म की बजाए विज्ञान और आध्यात्म का होगा। इसी तर्ज पर डॉ. इयाद का विश्वास है कि विज्ञान और धार्मिक आस्था में ठीक वैसा ही संबंध है जैसा ‘ज्ञान’ और ‘क्रियान्वय’ में होता है। यानि एक के बिना दूसरा अधूरा है और यही ‘फेथ फॉर अर्थ’ मुहीम शुरु करने के पीछे का विचार है। सन् 2017 में ‘यूएनओ’ के 193 सदस्य देशों की बैठक में – गरीबी हटाने, सबको शिक्षा देने और पर्यावरण बचाने के तीन लक्ष्य रखे गए थे। इस बैठक में ही उजागर हुआ था कि पर्यावरण की रक्षा के लिए धार्मिक संगठनों का अपेक्षित योगदान नहीं मिल पा रहा है। दुनियाभर के करीब 80 फीसदी लोगों के भरोसे पर टिकी और दुनिया की चौथी सबसे बडी अर्थ-व्यवस्था मानी जाने वाली धार्मिक संस्थाएं 60 प्रतिशत स्कूल और 50 प्रतिशत अस्पतालों के अलावा दुनिया की करीब दस प्रतिशत जमीन की मालिक हैं। इस विशाल आकार की धार्मिक संस्थाएं और उनके धर्मगुरु क्या सचमुच दुनिया को बचाए रखने की इस मशक्कत में शामिल हो पाएंगे? और क्या अब तक दुनिया पर राज करने वाले राजनेता इस पहल के नतीजे में नकारा साबित नहीं हो जाएंगे?
कुछ साल पहले अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में राजनेताओं को लेकर एक दिलचस्प अध्ययन हुआ था जिसके नतीजे में पता चला था कि आज के अधिकांश राजनेता ‘क्रेजी’ यानि नीम-पागल हैं। इसे साबित करने के लिए किए गए प्रयोगों से पता चला था कि दुनियाभर के ये राजनेता एक ही बात को, उसकी खामियों को जानने के बावजूद, दोहराते रहते हैं और यह नीम-पागलों का बहुत स्पष्ट लक्षण है। जलवायु-परिवर्तन के सन्दर्भ में देखें तो हमारे राजनेताओं को कहावत की हरियाली की बजाए ‘विकास’ के अन्धत्व में चहुंदिस विकास ही दिखाई देता है। यदि ऐसा नहीं होता तो 2013 में हुई ‘केदारनाथ त्रासदी’ के बाद, ठीक उन्हीं वजहों से हाल में 2021 की ‘चमोली त्रासदी’ नहीं हुई होती। दुर्घटना के बाद हालचाल जानने आए केन्द्र सरकार के एक मंत्री ने इतिहास से न सीखते हुए एक ही बात के दोहराव की बानगी देते हुए कहा था कि उत्तराखंड में जल-विद्युत परियोजनाओं का निर्माण जारी रहेगा।
भूकंम्प प्रभावित चौथे और पांचवें ‘जोन’ में पडने वाले उत्तराखंड के एक गांव रैणी की चार दर्जन महिलाओं ने अपनी बुजुर्ग गौरादेवी की अगुआई में करीब 47 साल पहले जंगल बचाने के लिए ‘चिपको आंदोलन’ चलाया था। उसके बाद तत्कालीन सरकार ने वृक्ष कटाई के अपने आदेश वापस भी ले लिए थे, लेकिन फिर 2007 में विकास की पालकी में सवार होकर जल-विद्युत परियोजनाओं के रूप में जंगल कटान, खनन और निर्माण के समय भारी विस्फोटों की बारात वापस लौटी। सत्तर के दशक में जंगल-कटाई का विरोध करते हुए अनेक वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों ने सरकार और उसके ‘विकास-वादियों’ को समझाने की कोशिश की थी, लेकिन, जैसा कि आमतौर पर होता है, किसी ने उनकी बात पर कान नहीं धरे। इसी का परिणाम था कि 7 फरवरी 2021 को नंदा देवी पर्वत से टूटकर आये ग्लेशियर या एवलांच के भारी मलवे ने सबसे पहले ऋषि गंगा पर बनी जल-विद्युत परियोजना के उस हिस्से को पूरा ध्वस्त किया, जहां नदी को बहने से रोका गया था। इसके आगे ‘विष्णु प्रयाग जल-विद्युत परियोजना’ (420 मेगावाट) के पावर हाउस को ठप करते हुये ‘तपोवन-विष्णु गाड़ परियोजना’ (520 मेगावाट) की टनल और बैराज को क्षतिग्रस्त किया। यहां पर काम कर रहे लगभग 200 से अधिक लोगों की जान गई। मारे गये अधिकतर लोगों के शवों का पता तो नहीं चला, लेकिन कुछ शव और अंगों के हिस्से कर्णप्रयाग, श्रीनगर तक अलकनंदा में मिल रहे हैं।
कहा जा रहा है कि केदारनाथ आपदा के बाद 2014 में उच्चतम न्यायालय ने ऋषिगंगा पर ध्वस्त हुये प्रोजेक्ट के अलावा ‘ऋषिगंगा-1,’ ‘ऋषिगंगा-2’ और ‘लाटा-तपोवन जल-विद्युत परियोजनाओं’ पर रोक न लगाई होती तो इस दुर्घटना में पांच गुनी हानि हो सकती थी। यदि राजनेताओं को अपनी गलती सुधारने की रत्तीभर भी मंशा होती तो वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा, पर्यावरणविद् रवि चोपडा की अगुआई में गठित ‘विशेषज्ञ समिति’ की सिफारिशों को सुनते और इसके बाद सभी निर्मित व निर्माणाधीन बांधों के गेट हमेशा के लिये खोल देते। अनसुनी करने की अपनी गलती को सही साबित करने के लिए राजनेताओं का तर्क है कि ‘चमोली त्रासदी’ प्राकृतिक आपदा है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना क्या बताता है? ग्लेशियरों से आने वाला मलवा और जल-सैलाब जब नदी को रोकने वाले बांध को तोड़कर नीचे की ओर भारी जन-धन को विनाश पहुंचाता है, तो यह मानव-जनित आपदा का रूप लेकर तबाही का कारण बनता है।
सवाल है कि ‘चमोली त्रासदी’ जैसी आपदाओं को, अपनी विकास की हठ में बार-बार खडी करने वाले राजनेताओं से धर्मगुरु किस मायने में भिन्न और बेहतर साबित होंगे? क्या वे अपने पास-पडौस के समाज, वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की कोई बात ध्यान से सुनेंगे? अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि राजनेताओं की तरह धर्मगुरु भी अपनी-अपनी मान्यताओं की जिद के दायरे में सिमटे बैठे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो विशाल हिन्दू आबादी के विश्वविख्यात कुंभ में पवित्र डुबकी लगवाने वाली उज्जैन की क्षिप्रा, हरिद्वार-प्रयागराज की गंगा और नासिक की गोदावरी अब तक साफ-सुथरी बनी रहतीं। ‘इको-योद्धा’ बनाने के ‘यूएनईपी’ के ताजा प्रयास में कैथोलिक धर्मगुरु पोप फ्रांसिस और शिया इस्माइली मुसलमानों के इमाम के साथ भारत के श्रीश्री रविशंकर और सद्गुरु जग्गी वासुदेव का नाम भी लिया जा रहा है। ‘राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण’ (एनजीटी) द्वारा पर्यावरण की शर्तों के उल्लंघन पर जुर्माना भरने के कारण श्रीश्री और तमिलनाडु के आरक्षित वन में निर्माण के अरोप झेल रहे सद्गुरु जलवायु-परिवर्तन से कैसे निपटेंगे? वैसे भी आधुनिक भारत के ये धर्मगुरु आमतौर पर शहरी मध्यमवर्ग को ही आकृष्ट कर पाते हैं। जाहिर है, अपने समाज का असली धर्म-धुरीण इन्हें नहीं जानता, लेकिन जिन लाखों-लाख लोगों को वह जानता है उसका पर्यावरण, जलवायु-परिवर्तन जैसी आधुनिक अवधारणाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। उसके जीवन में तो परंपराएं, आदतें और बुजुर्गों की हिदायतें भर रहती हैं। तो क्या जलवायु-परिवर्तन को बरकाने के लिए उन तक कोई पहुंच पाएगा?
-कृष्ण कांत
कुछ लोग कहते हैं कि सावरकर की तरह कई कांग्रेसी और वामपंथी नेताओं ने भी अंग्रेजों से माफी मांगी थी, लेकिन सावरकर को वामपंथियों ने बदनाम कर दिया।
ऐसे लोग आंख मूंदकर इतिहास पढ़ते हैं। क्या जिन कांग्रेसियों या वामपंथियों ने जेल से छूटने के लिए माफी मांगी, वे सब बाद में अंग्रेजों का साथ देने लगे थे? कुछ सावरकर समर्थक नेहरू और डांगे की माफी का जिक्र करते हैं। क्या जेल से छूटकर नेहरू या डांगे भी अंग्रेजों के लिए रंगरूटों की भर्ती कर रहे थे?
क्या कभी वामपंथियों, समाजवादियों या कांग्रेसियों ने भी अंग्रेजों का साथ दिया? गांधी कभी भी अंग्रेजों की हत्या के पक्ष में नहीं थे तो क्या गांधी को अंग्रेजपरस्त कह दिया जाएगा?
यह सच है कि सावरकर 1910-11 तक क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे और इसके लिए वे सम्मान के पात्र हैं। वे पकड़े गए और 1911 में उन्हें अंडमान की कुख्यात जेल में डाल दिया गया। उन्हें 50 वर्षों की सजा हुई थी, लेकिन सजा शुरू होने के कुछ महीनों में ही उन्होंने अंग्रेज सरकार के समक्ष याचिका डाली कि उन्हें रिहा कर दिया जाए।
इसके बाद उन्होंने कई याचिकाएं लगाईं। अपनी याचिका में उन्होंने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि ‘यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम से ख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिट्रिश सरकार के प्रति अपनी वफादारी निभाउंगा।’ अंडमान जेल से छूटने के बाद उन्होंने यह वादा निभाया भी और कभी किसी क्रांतिकारी गतिविधि में न शामिल हुए, न पकड़े गए। सजा से बचने के लिए माफी एक रणनीति हो सकती है. मसला ये नहीं है कि सावरकर ने जेल से छूटने के लिए माफी मांगी, मसला ये है कि वे जेल से छूटकर अंग्रेजों के साथ और भारत की आजादी आंदोलन के खिलाफ हो गए।
सावरकर को सबसे महान बनाने और गांधी-नेहरू से बड़ा दिखाने की कोशिश करके दक्षिणपंथी उन्हें और नीचा दिखाते हैं। उन्हें ये कोशिश बंद कर देनी चाहिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान पिछले साल नवंबर में अफगानिस्तान गए थे और अब वे श्रीलंका गए हैं। उनका काबुल जाना तो स्वाभाविक था लेकिन उनके कोलंबो जाने पर कुछ पलकें ऊपर उठी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि श्रीलंका की राजपक्ष-सरकार, चीन और पाकिस्तान का दक्षिण एशिया में कोई नया त्रिभुज उभर रहा है?
राजपक्ष-सरकार और भारत के बीच कई वर्षों तक श्रीलंकाई तमिलों की वजह से तनाव चलता रहा है और उस काल के दौरान राजपक्ष बंधुओं ने चीन के साथ घनिष्टता भी काफी बढ़ा ली थी लेकिन इधर दूसरी बार सत्तारूढ़ होने के बाद भारत के प्रति उनकी लिहाजदारी बढ़ गई है। इसीलिए उन्होंने श्रीलंकाई संसद में होनेवाले इमरान के भाषण को स्थगित कर दिया था, क्योंकि इमरान अपने भाषण में कश्मीर का मुद्दा जरूर उठाते। लेकिन इमरान चूके नहीं।
उन्होंने कश्मीर का मुद्दा उठा ही दिया, एक अंतरराष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन में। इस बार इमरान ने कश्मीर पर बहुत ही व्यावहारिक और संतुलित रवैया अपनाया है। उन्होंने कहा कि कश्मीर समस्या भारत और पाकिस्तान को बातचीत से हल करनी चाहिए। यदि जर्मनी और फ्रांस-जैसे, आपस में कई युद्ध लडऩे वाले राष्ट्र प्रेमपूर्वक रह सकते हैं तो भारत और पाक क्यों नहीं रह सकते?
पाक कब्जेवाले कश्मीर के कई ‘‘प्रधानमंत्रियों’’ और खुद पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और कई आतंकवादियों को मैं अपनी मुलाकातों में यही समझाता रहा हूं कि कश्मीर ने पाकिस्तान का जितना नुकसान किया है, उतना नुकसान दो महायुद्धों ने यूरोप का भी नहीं किया है। कश्मीर-विवाद ने पाकिस्तान की नींव को खोखला कर दिया है। जिन्ना के सपनों को चूर-चूर कर दिया है। कश्मीर के कारण पाकिस्तान युद्ध और आतंकवाद पर अरबों रू. खर्च करता है। साधारण पाकिस्तानियों को रोटी, कपड़ा, मकान, दवा और तालीम भी ठीक से नसीब नहीं है। नेताओं और नौकरशाहों पर फौज हावी रहती है।
इमरान खान जैसे स्वाभिमानी नेता को भीख का कटोरा फैलाने के लिए बार-बार मालदार देशों में जाना पड़ता है। पूरे कश्मीर पर कब्जा होने से पाकिस्तान को जितना फायदा मिल सकता था, उससे हजार गुना ज्यादा नुकसान कश्मीर उसका कर चुका है। बेहतर हो कि इमरान खान जनरल मुशर्रफ के जमाने में जो चार-सूत्री योजना थी, उसी को आधर बनाएं और भारत के साथ खुद बात शुरू करें। यदि वे सफल हुए तो कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना के बाद पाकिस्तान के इतिहास में उन्हीं का बड़ा नाम होगा।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-निधि राय
23 जनवरी, 2018 को पहली बार भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024-25 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को पाँच ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचाने की अपने महत्वाकांक्षी सपने को सार्वजनिक किया था.
वे दावोस में वर्ल्ड इकॉनामिक फ़ोरम की बैठक में अंतरराष्ट्रीय नेताओं को संबोधित कर रहे थे.
प्रधानमंत्री के विज़न को ध्यान में रखते हुए 2018-19 का आर्थिक सर्वे तैयार किया गया था, जिसमें उम्मीद जताई गई थी कि 2020-21 से लेकर 2024-25 तक भारत की अर्थव्यवस्था आठ प्रतिशत की रफ़्तार से बढ़ेगी. यह माना गया था कि जीडीपी में औसत वृद्धि दर 12 प्रतिशत के आसपास होगी जबकि महंगाई की दर चार प्रतिशत रहेगी.
मार्च, 2025 में एक डॉलर का मूल्य 75 रुपये तक पहुँचने का अनुमान लगाया गया था. जीडीपी की वृद्धि दर का आकलन सामान और सेवाओं के मौजूदा दर के आकलन के आधार पर होता है. जबकि वास्तविक जीडीपी का आकलन मंहगाई दर को घटा कर आंका जाता है.
यही वजह है कि लंबे समय में वास्तविक जीडीपी के आंकड़े से अर्थव्यवस्था की बेहतर स्थिति का अंदाज़ा होता है. अगर भारत इस लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब होता है तो वह जर्मनी को पछाड़कर अमेरिका, चीन और जापान के बाद चौथे नंबर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा.
मौजूदा समय में भारत की अर्थव्यवस्था 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की है.
लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था इस उम्मीद के मुताबिक़ नहीं बढ़ रही थी और मार्च, 2020 में कोविड संक्रमण का दौर शुरू हो गया.
कोविड से पहले देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर बहुत अच्छी थी, ऐसा भी नहीं था. हमारी अर्थव्यवस्था कोविड संक्रमण का दौर शुरू होने से पहले ही सुस्ती की ओर थी.
अप्रैल से जून, 2020 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में 23.9 प्रतिशत की गिरावट देखी गई जबकि इसके बाद वाली तिमाही में 7.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी.
यह वह दौर था जब देश में कोविड संक्रमण का असर अर्थव्यवस्था पर दिख रहा था और देश भर में लॉकडाउन की स्थिति थी.
अब सबकी नज़रें वित्तीय साल 2021 की तीसरे तिमाही के जीडीपी आंकड़ों पर टिकी है. कई रेटिंग एजेंसियों और अर्थशास्त्रियों ने उम्मीद जताई है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में तीसरे तिमाही में आशंकि वृद्धि देखी जाएगी. इन लोगों का मानना है कि देश में आर्थिक गतिविधियों ने रफ़्तार पकड़ी है और रफ़्तार का दौर बना रहेगा.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने भी उम्मीद जताई है कि 2022-23 में धीमा होकर 6.8 प्रतिशत होने से पहले अगले साल देश की जीडीपी में 11.5 प्रतिशत की विकास दर से बढ़ोत्तरी होगी. आईएमएफ़ की ओर से यह भी कहा गया है कि इन दोनों सालों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनी रहेगी.
'भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी पटरी पर है'
बीबीसी से ईमेल इंटरव्यू के दौरान पूर्व केंद्रीय आर्थिक सलाहकार डॉ. अरविंद विरमानी ने कहा है, "सितंबर, 2019 से ही सरकार घरेलू बाज़ार में प्रतिस्पर्धा और उत्पादकता की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कई प्रावधान किए हैं, इसके चलते भारतीय जीडीपी में 2021-30 के दौरान सात से आठ प्रतिशत के बीच औसत बढ़ोत्तरी होने का अनुमान है."
बीबीसी को एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में भारत के प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ने भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहमति जताते हुए कहा कि हो सकता है कि एक साल का नुक़सान हुआ हो लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी पटरी पर है.
संजीव सान्याल ने कहा, "जैसा कि हम सब लोग जानते हैं कि कोविड संक्रमण का असर देश की प्रत्येक अर्थव्यवस्था पर पड़ा है. कोई भी देश इसका अपवाद नहीं है. हालांकि अब आर्थिक गतिविधियां बढ़ रही हैं और आने वाले वित्तीय साल में, हमारे अनुमान के मुताबिक़ वास्तविक जीडीपी में 11 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी जबकि सामान्य जीडीपी में 15.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी संभव है. इससे हम ठीक वहां पहुँच जाएंगे जहां कोविड संक्रमण की शुरुआत से ठीक पहले थे."
उन्होंने कहा, "हो सकता है कि हमलोगों को एक साल का नुक़सान हुआ हो, लेकिन मेरे ख्याल से भारत दुनिया की उन गिनी चुनी अर्थव्यवस्थाओं में से जो पटरी पर हैं. हो सकता है कि हमें पाँच ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचने में थोड़ा ज़्यादा वक़्त लगे लेकिन कोविड संक्रमण के झटके को देखते हुए यह सराहनीय होगा. मेरा यह भी ख़्याल है कि दुनिया भर में कोविड संक्रमण के असर के बीच में भारतीय अर्थव्यवस्था उससे उबरने में कामयाब रही है."
हालांकि दूसरे अर्थशास्त्री इसको लेकर उतने उत्साहित नहीं हैं. एमके ग्लोबल फ़ाइनेंशियल सर्विसेज़ की लीड इकॉनामिस्ट मेधावी अरोड़ा ने कहा कि पूंजी और लाभ के हिसाब से तो अर्थव्यवस्था में रिकवरी हो रही है लेकिन श्रम और मज़दूरी में ऐसा नहीं हुआ है.
मेधावी ने बीबीसी से कहा, "इस बात को समझना होगा कि भारत ने वायरस के प्रसार को उम्मीद से पहले तोड़ा है जिसके चलते लोगों का आना जाना बढ़ा है. हालांकि हमें इस विकास दर के उत्साह से आगे बढ़ने की ज़रूरत है. कोविड के बाद के दौर में विकास दर का ग्राफ़ मामूली है. यह डराने वाला है और श्रम बाज़ार को भी विभाजित करता है."
पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था को दो साल का नुक़सान हुआ है कि पाँच ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य को 2029-30 तक हासिल कर पाना असंभव दिख रहा है.
उन्होंने कहा, "इस लक्ष्य को पूरा करने में महज़ चार साल का समय बचा है और इसके लिए जीडीपी की वृद्धि दर 18 प्रतिशत की ज़रूरत होगी और यह असामान्य बात लग रही है. अगर आप लक्ष्य को हासिल करने का समय बढ़ाकर 2026-27 कर दें तो भी जीडीपी को 11 प्रतिशत की दर से बढ़ना होगा. अगर इस रफ़्तार से जीडीपी नहीं बढ़ी और इस वक़्त ऐसा होना मुश्किल दिख रहा है तो लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल होगा."
गर्ग के मुताबिक़, "अगर बेहतर मूलभूत नीतियों को लागू किया जाए और तेज़ी की स्थिति लौटे तो इस लक्ष्य को 2029-30 तक हासिल किया जा सकता है. सरकार ने जिस तरह से निजीकरण की घोषणाएं की है, कोयला सेक्टर के नक़्शे और खदानों के निजीकरण की प्रक्रिया को अंत तक लागू किया जाए और सरकार इसे प्रभावी ढंग से लागू करे तो 2023-24 तक एक बार फिर से सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था भारत की होगी."
उन्होंने कहा, "सरकार को निजीकरण के एजेंडे को तेज़ रफ़्तार से लागू करना होगा. इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नॉलॉजी सेक्टर की नीतिगत समस्याओं को दूर करना होगा और उसे प्राइवेट प्लेयरों के लिए दिलचस्प बनाना होगा. सरकार को बैंकों और एमटीएनएल को छोड़कर सार्वजनिक सुविधाओं यानी बेहतर पर्यावरण, सड़क, बांध के क्षेत्र में निवेश करना चाहिए."
उन्होंने कहा, "कोविड के बिना भी अर्थव्यवस्था में बीते दो साल से कोई तेज़ी नहीं थी. कोरोना संक्रमण के चलते गिरावट भी काफ़ी ज़्यादा देखने को मिली, इसलिए इस साल ग्रोथ तो ज़्यादा दिखेगी लेकिन कोरोना संक्रमण से पहले वाली स्थिति तक नहीं पहुँचेंगे.
"मेरे ख्याल से वित्तीय साल 21 की तीसरी तिमाही में भी हमारा ग्रोथ नहीं हो रहा है. सरकारी आंकड़ों में असंगठित क्षेत्र के आंकड़े शामिल नहीं होते हैं जबकि कोविड संकट की सबसे ज़्यादा मार असंगठित क्षेत्र पर ही पड़ा है. सरकार के आंकड़े सही नहीं हैं.
"अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) आंकड़े संग्रह करने वाली कोई स्वतंत्र एजेंसी नहीं है. वह सरकार के आंकड़ों पर भरोसा करती है. वे किसी तरह से घबराहट की स्थिति को भी नहीं पैदा करना चाहते हैं, लिहाज़ा वे गुलाबी तस्वीर ही पेश करते हैं. लेकिन उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. 2024-25 तक पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था तक पहुँचने का अनुमान किसी हाल में पूरा नहीं हो सकता." (bbc.com)
मुंबई के एक ऑटो ड्राइवर ने अपनी पोती की शिक्षा के लिए पूरी जिंदगी खपा दी। अपने दो बेटों की मौत के बाद उसकी पोती ने पूछा था ‘दादाजी क्या मुझे स्कूल छोडऩा पड़ेगा?’ ऑटो ड्राइवर के संकल्प के आगे गम और आंसू बौने पड़ गए।
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
ऑटो ड्राइवर देसराज ज्योतसिंह ने अपनी जिंदगी में बहुत दुख झेले-दो-दो जवान बेटों की मौत और बूढ़े कंधों पर परिवार और पोती-पोते की शिक्षा और बेहतर भविष्य की जिम्मेदारी। वो कहते हैं, ‘मेरा यह मानना है कि तकलीफें चाहें छोटी हों या बड़ी, समंदर की लहरों की तरह होती हैं - आती हैं और जाती हैं। वैसे ही जिन मुसीबतों से हम गुजरते हैं वो हमारी जिंदगी में सदा के लिए नहीं रहती हैं। ‘ 74 साल के ऑटो ड्राइवर देसराज ने इसे जिंदगी का आदर्श वाक्य बना लिया और तकलीफों से पार पाते चले गए। ‘ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे‘ ने देसराज की कहानी सोशल मीडिया पर साझा की और कुछ लोगों ने इस बूढ़े ऑटो ड्राइवर की मदद के लिए क्राउड फंडिंग शुरू की। फंडिंग के जरिए देसराज को 24 लाख रुपये मिल गए।
देसराज की प्रेरणादायक कहानी
‘ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे‘ ने देसराज की कहानी साझा करते हुए बताया, ‘6 साल पहले मेरा बड़ा बेटा घर से गायब हो गया था। एक सप्ताह बाद लोगों ने उसका शव एक ऑटो में पाया, उसकी मृत्यु के बाद एक तरह से मैं भी आधा मर गया। लेकिन मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई। मुझे शोक मनाने का समय भी नहीं मिला। मैं अगले दिन दोबारा सडक़ पर ऑटो चलाने निकल गया।‘ देसराज के जीवन में दोबारा एक मुसीबत उस वक्त आ गई जब दो साल बाद उनके छोटे बेटे की लाश रेलवे ट्रैक पर मिली। वे कहते हैं, ‘दो बेटों की चिताओं को आग दिया है मैंने, इससे बुरी बात एक बाप के लिए क्या हो सकती है?‘
अपनी कहानी बताते हुए देसराज कहते हैं कि मेरी बहू और उसके चार बच्चों की जिम्मेदारी ने मुझे चलते रहने दिया। वे कहते हैं जब अंतिम संस्कार हो गया तो उनकी पोती जो कि 9वीं कक्षा में थी, ने सवाल किया ‘दादाजी, क्या मुझे स्कूल छोडऩा पड़ेगा?’ देसराज कहते हैं, ‘मैंने अपना पूरा साहस जुटाया और उसे आश्वस्त किया कभी नहीं। तुम जितना चाहो पढ़ाई करो।’
इसके बाद देसराज ने कई-कई घंटे काम करना शुरू कर दिया। वह सुबह 6 बजे घर से निकलते और आधी रात तक ऑटो चलाते। वह इतना कमा पाते कि सात लोगों का परिवार किसी तरह से चल पाता जिसमें करीब 6 हजार रुपये स्कूल की फीस भी शामिल है।
पोती की शिक्षा के लिए बेच दिया घर
देसराज की जीतोड़ मेहनत एक दिन रंग लाई। पिछले साल उनकी पोती ने 12वीं के बोर्ड में 80 फीसदी अंक हासिल किए। उसके बाद देसराज की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने उस दिन अपने सभी यात्रियों को मुफ्त में यात्रा कराई। ‘ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे’ ने अपनी पोस्ट में लिखा कि देसराज कि पोती ने उनसे कहा कि वह बीएड करने के लिए दिल्ली जाना चाहती है। इसके बाद देसराज के सामने एक नई चुनौती आ खड़ी हुई लेकिन वह कहते हैं कि उसका सपना सच किसी भी हाल में पूरा करना था इसलिए उन्होंने अपना घर बेच दिया और अपनी पत्नी, बहू और बच्चों को अपने रिश्तेदार के पास गांव भेज दिया।
पिछले एक साल से देसराज बिना छत के मुंबई में दिन और रात काट रहे हैं। उन्होंने ऑटो रिक्शा को ही अपना घर बना लिया है। जब सवारी नहीं होती है तो देसराज ऑटो में ही बैठे रहते हैं। वे बताते हैं कि कभी-कभी उनके पैरों में दर्द हो जाता है लेकिन वह दर्द तब गायब हो जाता है जब उनकी पोती फोन करती है और कहती है वह क्लास में अव्वल आई है।
देसराज को इंतजार है अपनी पोती के टीचर बनने का ताकि वह गर्व से उसे गले से लगा सके। क्राउड फंडिंग से मिले 24 लाख रुपये के बाद देसराज बेहद खुश हैं और उन्होंने लोगों का शुक्रिया अदा किया है। (डायचे वैले)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
मोदोजी ने स्टेडियम को अपने नाम क्या किया, कल से सोशल मीडिया में उनका बचाव करते भक्त कांग्रेस के नेताओं के नामों पर स्थापित संस्थाओं की लिस्ट जारी करने में लग गए हैं। यह भी आरोप दिख रहे हैं कि नेहरूजी और इंदिरा जी ने प्रधानमंत्री रहते स्वयं को भारत रत्न दे दिया था।
भारत में स्थानों/संस्थाओं के साथ नेताओं के नाम चस्पा करने की परम्परा पुरानी रही है। अंग्रेज (क्वीन) विक्टोरिया और राजाओं (किंग जॉर्ज और एडवर्ड जैसे) के नामों का उपयोग करते थे। अब अधिकांश नाम बदल दिये गये हैं वह अलग बात है।
कॉलेज में मेरा दाखिला जबलपुर में हुआ था। वह कॉलेज अब नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज कहलाता है। पहला साल पूरा होते ही स्थानांतरित हो कर मैं भोपाल चला गया। भोपाल विश्वविद्यालय (बाद में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय) उसी वर्ष स्थापित हुआ था और सुभाष स्कूल की बिल्डिंग से संचालित होता था। आगे की मेरी शिक्षा भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज में हुई। जीवन में बहुत कम शहर ऐसे मिले जहां का मुख्य मार्ग महात्मा गांधी (एम.जी. रोड) के नाम पर न हो। करेंसी नोट ने तो गांधी की पहुंच देश के हर व्यक्ति तक पहुंचा दी थी।
गांधी से लेकर दीन दयाल उपाध्याय तक, सभी दलों ने-जिसे जब मौका मिला-नामकरण करने का अवसर लपक कर हथियाया। सभी नामों की लिस्ट बनाना समय की बर्बादी है। आमतौर पर नामकरण एक तरह से नेताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का तरीका रहा है। उन व्यक्तियों के योगदान को रेखांकित करने का तरीका। कलकत्ता को दिल्ली से जोडऩे वाले नेशनल हाईवे क्र. 2 को अंग्रेज ग्रैन्ड ट्रंक (जी.टी.) रोड कहते थे। समय समय पर इसे उत्तरपथ, फौजों के कारण जरनैली सडक़ और सडक़-ए-आजम का नाम भी मिला। एक समय काबुल तक पहुंचाने वाली इस सडक़ को आजादी के बाद इसके निर्माता के नाम पर शेरशाह सूरी मार्ग कर दिया गया था।
बेशक अपवाद भी रहे हैं- हर काल और हर क्षेत्र में, हर राजनैतिक दल के दौर में। दूध का धुला कोई नहीं है।
एक बात अवश्य कॉमन रही- नामकरण नेताओं की स्मृति में किए गए-मरणोपरांत। भारतीय संस्कृति में किसी के जीवनकाल में इस तरह के नामकरण करना (या फोटो पर माला अर्पण करना) अशुभ माना जाता रहा है (या कम से कम अशोभनीय या अवांछित)। पहला चर्चित अपवाद मायावती जी रहीं। दूसरे अब मोदी जी बने हें। बीच में एक कम चर्चित अपवाद और आया था जब छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने हर ग्राम पंचायत में दो-दो लाख की राशि दे कर ‘अटल चौक’ बनवा दिए थे। अटल जी तब तक जीवित और स्वस्थ थे।
भारत रत्न इंदिराजी को पाकिस्तान पर ऐतिहासिक सैन्य विजय प्राप्त करने तथा बांग्लादेश के नाम से एक नये राष्ट्र के निर्माण में उनकी भूमिका की पृष्ठभूमि में 1971 में दिया गया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह पुरस्कार 1955 में दिया गया था। तकनीकी रूप से आरोप लगाया जा सकता हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री के पद का उपयोग कर स्वयं इसे हासिल कर लिया। किन्तु यह सच नहीं होगा।
नेहरू को यह सम्मान स्वतंत्रता आंदोलन तथा उसके बाद देश के नव-निर्माण में उनकी भूमिका के कारण दिया गया था। और वे अकेले नहीं थे। उनके साथ डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, गोविन्द वल्लभ पन्त, डॉ. बिधान चन्द्र रॉय जैसे लोगों को भी भारत रत्न सम्मान दिया गया था।
और ये सारे के सारे उस समय राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, गृह मंत्री, मुख्यमंत्री जैसे पदों पर आसीन थे। सिर्फ नेहरू का उल्लेख करना पूर्वाग्रह-ग्रसित माना जाएगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने एतिहासिक फैसला दे दिया है। उसने संसद को बहाल कर दिया है। दो माह पहले 20 दिसंबर को प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने नेपाली संसद के निम्न सदन को भंग कर दिया था और अप्रैल 2021 में नए चुनावों की घोषणा कर दी थी। ऐसा उन्होंने सिर्फ एक कारण से किया था। सत्तारुढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में उनके खिलाफ बगावत फूट पड़ी थी। पार्टी के सह-अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने मांग की कि पार्टी के सत्तारुढ़ होते समय 2017 में जो समझौता हुआ था, उसे लागू किया जाए।
समझौता यह था कि ढाई साल ओली राज करेंगे और ढाई साल प्रचंड ! लेकिन वे सत्ता छोडऩे को तैयार नहीं थे। पार्टी की कार्यकारिणी में भी उनका बहुमत नहीं था। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रपति विद्यादेवी से संसद भंग करवा दी। नेपाली संविधान में इस तरह संसद भंग करवाने का कोई प्रावधान नहीं है। ओली ने अपनी राष्ट्रवादी छवि चमकाने के लिए कई पैंतरे अपनाए। उन्होंने लिपुलेख-विवाद को लेकर भारत-विरोधी अभियान चला दिया। नेपाली संसद में हिंदी में बोलने और धोती-कुर्त्ता पहनकर आने पर रोक लगवा दी। (लगभग 30 साल पहले लोकसभा-अध्यक्ष दमननाथ ढुंगाना और गजेंद्र बाबू से कहकर इसकी अनुमति मैंने दिलवाई थी।) ओली ने नेपाल का नया नक्शा भी संसद से पास करवा लिया, जिसमें भारतीय क्षेत्रों को नेपाल में दिखा दिया गया था लेकिन अपनी राष्ट्रवादी छवि मजबूत बनाने के बाद ओली ने भारत की खुशामद भी शुरु कर दी।
भारतीय विदेश सचिव और सेनापति का उन्होंने काठमांडो में स्वागत भी किया और चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी से कुछ दूरी भी बनाई। उधर प्रचंड ने भी, जो चीनभक्त समझे जाते हैं, भारतप्रेमी बयान दिए। इसके बावजूद ओली ने यही सोचकर संसद भंग कर दी थी कि अविश्वास प्रस्ताव में हार कर चुनाव लडऩे की बजाय संसद भंग कर देना बेहतर है लेकिन मैंने उस समय भी लिखा था कि सर्वोच्च न्यायालय ओली के इस कदम को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। अब उसने ओली से कहा है कि अगले 13 दिनों में वे संसद का सत्र बुलाएं।
जाहिर है कि तब अविश्वास प्रस्ताव फिर से आएगा। हो सकता है कि ओली लालच और भय का इस्तेमाल करें और अपनी सरकार बचा ले जाएं। वैसे उन्होंने पिछले दो माह में जितनी भी नई नियुक्तियां की हैं, अदालत ने उन्हें भी रद्द कर दिया है। अदालत के इस फैसले से ओली की छवि पर काफी बुरा असर पड़ेगा। फिर भी यदि उनकी सरकार बच गई तो भी उसका चलना काफी मुश्किल होगा। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि नेपाल के इस आंतरिक दंगल का वह दूरदर्शक बना रहे। (नया इंडिया की अनुमति से)
- डॉ. परिवेश मिश्रा
मोदोजी ने स्टेडियम को अपने नाम क्या किया, कल से सोशल मीडिया में उनका बचाव करते भक्त कांग्रेस के नेताओं के नामों पर स्थापित संस्थाओं की लिस्ट जारी करने में लग गए हैं। यह भी आरोप दिख रहे हैं कि नेहरूजी और इंदिरा जी ने प्रधानमंत्री रहते स्वयं को भारत रत्न दे दिया था।
भारत में स्थानों/संस्थाओं के साथ नेताओं के नाम चस्पा करने की परम्परा पुरानी रही है। अंग्रेज (क्वीन) विक्टोरिया और राजाओं (किंग जॉर्ज और एडवर्ड जैसे) के नामों का उपयोग करते थे। अब अधिकांश नाम बदल दिये गये हैं वह अलग बात है।
कॉलेज में मेरा दाखिला जबलपुर में हुआ था। वह कॉलेज अब नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज कहलाता है। पहला साल पूरा होते ही स्थानांतरित हो कर मैं भोपाल चला गया। भोपाल विश्वविद्यालय (बाद में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय) उसी वर्ष स्थापित हुआ था और सुभाष स्कूल की बिल्डिंग से संचालित होता था। आगे की मेरी शिक्षा भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज में हुई। जीवन में बहुत कम शहर ऐसे मिले जहां का मुख्य मार्ग महात्मा गांधी (एम.जी. रोड) के नाम पर न हो। करेंसी नोट ने तो गांधी की पहुंच देश के हर व्यक्ति तक पहुंचा दी थी।
गांधी से लेकर दीन दयाल उपाध्याय तक, सभी दलों ने-जिसे जब मौका मिला-नामकरण करने का अवसर लपक कर हथियाया। सभी नामों की लिस्ट बनाना समय की बर्बादी है। आमतौर पर नामकरण एक तरह से नेताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का तरीका रहा है। उन व्यक्तियों के योगदान को रेखांकित करने का तरीका।कलकत्ता को दिल्ली से जोडऩे वाले नेशनल हाईवे क्र. 2 को अंग्रेज ग्रैन्ड ट्रंक (जी.टी.) रोड कहते थे। समय समय पर इसे उत्तरपथ, फौजों के कारण जरनैली सडक़ और सडक़-ए-आज़म का नाम भी मिला। एक समय काबुल तक पहुंचाने वाली इस सडक़ को आजादी के बाद इसके निर्माता के नाम पर शेरशाह सूरी मार्ग कर दिया गया था।
बेशक अपवाद भी रहे हैं- हर काल और हर क्षेत्र में, हर राजनैतिक दल के दौर में। दूध का धुला कोई नहीं है।
एक बात अवश्य कॉमन रही- नामकरण नेताओं की स्मृति में किए गए-मरणोपरांत। भारतीय संस्कृति में किसी के जीवनकाल में इस तरह के नामकरण करना (या फोटो पर माला अर्पण करना) अशुभ माना जाता रहा है (या कम से कम अशोभनीय या अवांछित)। पहला चर्चित अपवाद मायावती जी रहीं। दूसरे अब मोदी जी बने हें। बीच में एक कम चर्चित अपवाद और आया था जब छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने हर ग्राम पंचायत में दो-दो लाख की राशि दे कर ‘अटल चौक’ बनवा दिए थे। अटल जी तब तक जीवित और स्वस्थ थे।
भारत रत्न इंदिराजी को पाकिस्तान पर ऐतिहासिक सैन्य विजय प्राप्त करने तथा बांग्लादेश के नाम से एक नये राष्ट्र के निर्माण में उनकी भूमिका की पृष्ठभूमि में 1971 में दिया गया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह पुरस्कार 1955 में दिया गया था। तकनीकी रूप से आरोप लगाया जा सकता हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री के पद का उपयोग कर स्वयं इसे हासिल कर लिया। किन्तु यह सच नहीं होगा। नेहरू को यह सम्मान स्वतंत्रता आंदोलन तथा उसके बाद देश के नव-निर्माण में उनकी भूमिका के कारण दिया गया था। और वे अकेले नहीं थे। उनके साथ डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, गोविन्द वल्लभ पन्त, डॉ. बिधान चन्द्र रॉय जैसे लोगों को भी भारत रत्न सम्मान दिया गया था। और ये सारे के सारे उस समय राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, गृह मंत्री, मुख्यमंत्री जैसे पदों पर आसीन थे। सिर्फ नेहरू का उल्लेख करना पूर्वाग्रह-ग्रसित माना जाएगा।
-डॉ राजू पाण्डेय
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में ‘चौरी चौरा’ शताब्दी समारोह के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए सम्बोधन को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के -हाल के दिनों में लोकप्रिय बनाए जा रहे- उस घातक पुनर्पाठ के रूप में देखा जा सकता है जो गांधी और उनकी अहिंसा को पूर्णरूपेण खारिज करता है। संघ परिवार और कट्टर हिंदुत्व की हिमायत करने वाली शक्तियों का गांधी विरोध जगजाहिर रहा है और अनेक बार यह तय करने में कठिनाई होती है कि इस विचारधारा के अनुयायियों को गांधी अधिक अस्वीकार्य हैं या उनकी अहिंसा। मोदी जी की वैचारिक पृष्ठभूमि निश्चित ही गांधी से उन्हें असहमत बनाती होगी। संभव है कि उन्होंने श्री सावरकर द्वारा लिखित गांधी और उनकी अहिंसा का उपहास उड़ाते उन निबंधों को भी पढ़ा हो जो गांधी गोंधळ शीर्षक पुस्तिका में संकलित हैं।
लेकिन हम यह भी विश्वास करते हैं कि गांधी को मुस्लिम परस्त, क्रांतिकारियों से घृणा करने वाले, स्वतंत्रता प्राप्ति में बाधक, ढुलमुल अंग्रेज हितैषी नेता के रूप में प्रस्तुत करने वाली जहरीली सोशल मीडिया पोस्ट्स से बतौर प्रधानमंत्री वे हम सब की तरह आहत अनुभव करते होंगे।
किंतु 4 फरवरी 2022 को पूर्ण होने जा रही चौरी चौरा घटना की शतवार्षिकी से ठीक एक वर्ष पहले सालाना आयोजनों की श्रृंखला का एक शासकीय कार्यक्रम द्वारा शुभारंभ करते देश के प्रधानमंत्री को चौरी चौरा की हिंसा का खुला एवं सार्वजनिक समर्थन करते देखना आश्चर्यजनक था। अब एक वर्ष तक सरकार गांधी पर प्रच्छन्न -और शायद प्रकट रूप से भी- प्रहार कर सकेगी और इन कार्यक्रमों के माध्यम से हिंसा का महिमामंडन हो सकेगा।
प्रधानमंत्री जी ने गांधी और उनकी अहिंसा को खारिज करने के लिए भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के एक ऐसे प्रसंग का चयन किया जिसमें गांधी के निर्णय की व्यापक आलोचना हुई थी। चौरी चौरा में थाने में 23 भारतीय पुलिस कर्मियों को आक्रोशित भीड़ द्वारा जिंदा जलाए जाने के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन रोक दिया था। इस समय अधिकांश नेताओं को यह लग रहा था कि आंदोलन निर्णायक दौर में पहुंच रहा है और स्वाधीनता का लक्ष्य अब अत्यंत निकट है। इसके बाद प्रायः सभी नेताओं ने खुलकर गांधी की आलोचना की थी और अंत में जो सहमति बनी उसके पीछे इन नेताओं का गांधी के प्रति आदरभाव भी था और शायद यह भय भी था कि गांधी की अपार लोकप्रियता के कारण उनसे असहमति इन नेताओं को अप्रासंगिक बना सकती थी।
प्रधानमंत्री जी ने अपने उद्बोधन में कहा- "सौ वर्ष पहले चौरी -चौरा में जो हुआ, वो सिर्फ एक आगजनी की घटना, एक थाने में आग लगा देने की घटना सिर्फ नहीं थी। चौरी–चौरा का संदेश बहुत बड़ा था, बहुत व्यापक था। अनेक वजहों से पहले जब भी चौरी–चौरा की बात हुई, उसे एक मामूली आगजनी के संदर्भ में ही देखा गया। लेकिन आगजनी किन परिस्थितियों में हुई, क्या वजहें थीं, ये भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। आग थाने में नहीं लगी थी, आग जन-जन के दिलों में प्रज्ज्वलित हो चुकी थी। चौरी–चौरा के ऐतिहासिक संग्राम को आज देश के इतिहास में जो स्थान दिया जा रहा है, उससे जुड़ा हर प्रयास बहुत प्रशंसनीय है। मैं, योगी जी और उनकी पूरी टीम को इसके लिए बधाई देता हूं। आज चौरी–चौरा की शताब्दी पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया है। आज से शुरू हो रहे ये कार्यक्रम पूरे साल आयोजित किए जाएंगे। इस दौरान चौरी–चौरा के साथ ही हर गाँव, हर क्षेत्र के वीर बलिदानियों को भी याद किया जाएगा। इस साल जब देश अपनी आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, उस समय ऐसे समारोह का होना, इसे और भी प्रासंगिक बना देता है।
चौरी–चौरा, देश के सामान्य मानवी का स्वतः स्फूर्त संग्राम था।ये दुर्भाग्य है कि चौरी -चौरा के शहीदों की बहुत अधिक चर्चा नहीं हो पाई। इस संग्राम के शहीदों को, क्रांतिकारियों को इतिहास के पन्नों में भले ही प्रमुखता से जगह न दी गई हो लेकिन आज़ादी के लिए उनका खून देश की माटी में जरूर मिला हुआ है जो हमें हमेशा प्रेरणा देता रहता है। अलग अलग गांव, अलग–अलग आयु, अलग अलग सामाजिक पृष्ठभूमि, लेकिन एक साथ मिलकर वो सब माँ भारती की वीर संतान थे। आजादी के आंदोलन में संभवत: ऐसे कम ही वाकये होंगे, ऐसी कम ही घटनाएं होंगी जिसमें किसी एक घटना पर 19 स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी के फंदे से लटका दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत तो सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी देने पर तुली हुई थी। लेकिन बाबा राघवदास और महामना मालवीय जी के प्रयासों की वजह से करीब–करीब 150 लोगों को लोगों को फांसी से बचा लिया गया था। इसलिए आज का दिन विशेष रूप से बाबा राघवदास और महामना मदन मोहन मालवीय जी को भी प्रणाम करने का है, उनका स्मरण करने का है।"
अपने पूरे उद्बोधन में गांधी का नामोल्लेख तक न करते हुए प्रधानमंत्री जी ने मालवीय जी की चर्चा अवश्य की जिन्हें श्री गोलवलकर गांधी से असहमत किंतु श्रद्धावश उनका विरोध न कर पाने वाले राजनेताओं में शुमार करते थे।
चौरी चौरा प्रकरण का एक पाठ इसे किसान विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करता है। वर्तमान में जब देश भर में किसान आंदोलित हैं तब इन साल भर तक चलने वाले समारोहों के माध्यम से उन्हें यह अवश्य बताया जाएगा कि जिन किसान स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत को गांधी और उनके अनुयायियों की कांग्रेस ने अनदेखा कर दिया था उन्हें सौ साल बाद मोदी सरकार ने सम्मान दिया। इसी बहाने यह भी जोड़ दिया जाएगा कि गांधी-नेहरू की जोड़ी द्वारा हाशिए पर डाली गई सरदार पटेल और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसी विभूतियों का उद्धार भी मोदी जी ने ही किया।
चौरी चौरा प्रकरण का एक पाठ और भी है। यह पाठ चौरी चौरा प्रकरण एवं बाद में इतिहास में उसके प्रस्तुतिकरण को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में दलित एवं अल्पसंख्यक वर्ग की भूमिका को गौण बनाने वाले सवर्ण वर्चस्व के आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि चौरी चौरा के उपेक्षित दलित और अल्पसंख्यक स्वाधीनता सेनानियों को सम्मानित कर मोदी-योगी सरकार आज की अपनी अल्पसंख्यक एवं दलित विरोधी दमनात्मक नीतियों से लोगों का ध्यान हटाने में सफलता प्राप्त करे। इसी बहाने यह चर्चा भी जोर पकड़ सकती है कि आंबेडकर को गांधी-नेहरू ने किनारे लगा दिया था किंतु यह मोदी ही थे जिन्होंने आंबेडकर को उनका गौरवपूर्ण स्थान वापस दिलाया।प्रधानमंत्री जी प्रतीकों की राजनीति में निपुण हैं और अपनी असफलताओं एवं वर्तमान समस्याओं से ध्यान हटाकर लोगों को अतीतजीवी बनाए रखने का उनका कौशल अनूठा है।
प्रधानमंत्री जी ने चौरी चौरा प्रसंग के चयन द्वारा वाम दलों और वाम रुझान रखने वाले बुद्धिजीवियों को असमंजस में डाल दिया है। वाम रुझान रखने वाले इतिहासकारों के एक बड़े वर्ग ने गांधी जी को सम्पूर्ण क्रांति के मार्ग में एक बड़े अवरोध के रूप में चित्रित किया है जिन्होंने अपने करिश्मे और लोगों की धर्मभीरुता का उपयोग जमींदारों और पूंजीपतियों के शोषण की रक्षा हेतु किया था। यह इतिहासकार चौरी चौरा प्रकरण को गांधी जी के असली वर्ग चरित्र और उनकी वास्तविक प्राथमिकताओं (जो इन इतिहासकारों के मतानुसार शोषकों के पक्ष में थीं) को उजागर करने वाली प्रतिनिधि घटना मानते हैं।
उत्तरप्रदेश में पैर रखने की जगह तलाशती कांग्रेस तथा अपने पिछड़े-अल्पसंख्यक-दलित वोट बैंक को वापस लाने की कोशिश में लगी सपा-बसपा जैसी पार्टियों से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे गांधी और उनकी अहिंसा के समर्थन में खड़ी होंगी। उत्तरप्रदेश में विधान सभा के चुनाव धीरे धीरे निकट आ रहे हैं और इनमें से कोई भी दल अपने वोटरों को नाराज करने वाला कदम नहीं उठाना चाहेगा।
चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने के गांधी के निर्णय ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम की दिशा तय कर दी थी, यह तय हो गया था कि हमारा स्वाधीनता आंदोलन अहिंसक होगा और नैतिक नियमों के दायरे में होगा। हमने अहिंसक संघर्ष की शक्ति का अनुभव पूरे विश्व को कराया। हमसे प्रेरित हो पूरी दुनिया में अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध होने वाले कितने ही कामयाब आंदोलनों ने अहिंसा की रणनीति अपनाई। किंतु आज ऐसा लगता है कि हम गांधी के उस निर्णय पर शर्मिंदा हैं। हम गांधी की अहिंसा को एक भूल मानते हैं।
प्रधानमंत्री जी का यह भाषण और इस भाषण के बाद बुद्धिजीवी वर्ग में व्याप्त चुप्पी दोनों ही चिंताजनक हैं। हिंसा का आश्रय तो हम पहले से ही लेने लगे थे किंतु क्या अब यह स्थिति भी आ गई है कि हम सार्वजनिक रूप से अहिंसा को खारिज कर गौरवान्वित अनुभव करने लगेंगे? क्या प्रधानमंत्री आंदोलनरत किसानों को यह संदेश देना चाहते हैं कि वे चौरी चौरा की घटना को अपना रोल मॉडल मानें? क्या प्रधानमंत्री संघ प्रमुख मोहन भागवत के फरवरी 2020 के उस वक्तव्य से असहमत हैं जब उन्होंने सीएए विरोधी आंदोलन कारियों को गांधी जी का उदाहरण देते हुए कहा था कि जब असहयोग आंदोलन हिंसक हो गया और आंदोलनकारी कानून और व्यवस्था भंग करने पर आमादा हो गए तो गांधी जी ने प्रायश्चित किया और आंदोलन रोक दिया? क्या संघ प्रमुख और प्रधानमंत्री जी में मतभेद है? या फिर दोनों अपनी सुविधानुसार गांधी का समर्थन और विरोध कर रहे हैं? क्या हमें साम्प्रदायिक हिंसा का विरोध करते गांधी केवल इसलिए स्वीकार हैं क्योंकि यहाँ हमारे विचार मिलते हैं? किंतु हम चौरी चौरा की हिंसा की निंदा करते गांधी को नकार देते हैं क्योंकि हमें लगता है कि यह अत्याचारी शासकों एवं शोषकों के विरुद्ध खूनी क्रांति का प्रारंभ था। क्या हमें मॉब लिंचिंग इसलिए स्वीकार है क्योंकि यह उन लोगों द्वारा की गई है जो हमारी दृष्टि में धर्म रक्षक एवं राष्ट्र भक्त हैं और नक्सल हिंसा इसलिए हमें नागवार गुजरती है कि यह हमारी सत्ता को चुनौती देती है? या हम मॉब लिंचिंग की इसलिए निंदा करते हैं क्योंकि हमारी दृष्टि में यह धार्मिक-साम्प्रदायिक उन्मादियों का पागलपन है और नक्सल हिंसा का इसलिए समर्थन करते हैं कि हमारे मन के किसी गुप्त कोने में हिंसक क्रांति द्वारा व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद शेष है? जब राज्य अपनी नीतियों की समीक्षा एवं समालोचना को षड्यंत्र बताकर असहमत स्वरों को कुचलने के लिए योजनाबद्ध हिंसा और दमन का सहारा लेता है तो क्या इसे न्यायोचित माना जा सकता है? क्या राज्य की हिंसा को राष्ट्र रक्षा के लिए आवश्यक बताना उचित है? क्या हम अच्छी हिंसा और बुरी हिंसा जैसी शब्दावली का अविष्कार कर रहे हैं? क्या हम न्यायोचित हिंसा और अन्यायपूर्ण हिंसा जैसी भाषा में सोचने लगे हैं? क्या हमें हिंसा पसंद है किंतु प्रतिहिंसा नहीं? क्या अब हमें नफरत से भी परहेज नहीं है क्योंकि हिंसा और घृणा तो साथ साथ चलते हैं? क्या लोकतंत्र में अब हिंसा को सरकारी स्वीकृति मिल गई है?
चौरी चौरा प्रकरण से पहले और उसके बाद भी स्थानीय लोग शोषण और दमन के शिकार हुए। इनकी जैसी समझ थी गांधी के विचारों उन्होंने उसी तरह और उतना ही समझा। उसमें इनका दोष नहीं है। हम भी गांधी को समझ नहीं पाते या अपनी तरह व्याख्यायित कर लेते हैं। इन लोगों की राष्ट्रभक्ति पर संदेह करना भी नितांत अनुचित है। निश्चित ही यह देश को स्वतंत्र देखने के लिए हर कुर्बानी देने को तत्पर थे। यह भी गलत था कि स्वाधीनता के बाद भी इन्हें और इनके परिजनों को अपराधियों एवं खलनायकों की भांति देखा गया। स्वतंत्र भारत में हमने क्रांतिकारियों की हिंसा से असहमत होते हुए भी उनके कुर्बानी के जज्बे को हमेशा सराहा है। किंतु हमेशा यह रेखांकित भी किया है कि अहिंसा हमारे स्वाधीनता आंदोलन का मूलाधार थी। यही दृष्टिकोण चौरी चौरा के शहीदों और उनके परिजनों के लिए भी उचित होता।
जवाहरलाल नेहरू ने असहयोग आंदोलन रोकने के गांधी जी के कदम का विश्लेषण करते हुए अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत किया है-" उस समय हमारा आंदोलन बाहर से शक्तिशाली लगने और तमाम जोश के बावजूद बिखर रहा था। संगठन एवं अनुशासन समाप्त हो रहा था। हमारे प्रायः सभी अच्छे लोग कारागार में थे और जनता को तब तक इतना प्रशिक्षण नहीं मिला था कि आंदोलन को स्वयं आगे चला सके। कोई भी अनजान व्यक्ति चाहता तो कांग्रेस की किसी समिति की बागडोर संभाल सकता था। सत्य तो यह है कि ऐसे बहुत से गलत लोग जिनमें अंग्रेजों के एजेंट भी शामिल थे बड़ी संख्या में कांग्रेस और खिलाफत की स्थानीय संस्थाओं में प्रमुख स्थान पा गए थे और उनमें अनेक लोगों ने तो नेतृत्व ही संभाल लिया था। इन लोगों को रोकने का कोई तरीका न था।
लोगों की उत्तेजना एवं उत्साह के पीछे ठोस कुछ भी नहीं था। इसमें कम ही संदेह है कि यदि आंदोलन जारी रहता तो अनेक स्थानों पर हिंसा की छिटपुट वारदातें होती रहतीं। इसे सरकार बड़ी बर्बरता से कुचल देती और भय का ऐसा राज्य कायम हो जाता कि लोगों का मनोबल पूर्णतः टूट जाता।" शायद नेहरू यह कहना चाहते हों कि गांधी की साधन की शुद्धता का आग्रह और अहिंसा की पूजा न केवल नैतिक दृष्टि से सही थी बल्कि रणनीतिक तौर पर भी उचित थी।
यह कहना एकदम अनुचित होगा कि गांधी कभी कोई गलती नहीं कर सकते थे। अपने महापुरुषों के हर आचरण और विचार पर प्रश्न उठाकर, उसे तर्क की कसौटी पर कस कर ही हम इन महापुरुषों की चिंतन प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते हैं और तब ही हम इन्हें आत्मसात भी कर सकते हैं। जिन लोगों ने भी गांधी के जीवन में थोड़ा बहुत प्रवेश किया है वे यह जानते हैं कि अपनी आस्थाओं, विश्वासों और यहां तक कि अपनी मानसिक संरचना की सामाजिक-धार्मिक-नैतिक विशेषताओं को भी गांधी ने तर्क और आचरण की कसौटी पर कसने की कोशिश की थी। फिर भी यह बिल्कुल संभव है कि वे कहीं कहीं स्वयं को प्रकृति, समाज और धर्म द्वारा दिए गए गुण-अवगुणों के मूल्यांकन और परिवर्तन-परिष्कार में नाकामयाब रहे हों। किंतु उनके प्रयास की ईमानदारी और गंभीरता पर संशय नहीं किया जा सकता। इसीलिए चंद फतवों और सामान्यीकरणों द्वारा उनका मूल्यांकन दुःखद और निंदनीय है।
पिछले कुछ वर्षों में हमें हिंसा का अभ्यस्त बनाया जा रहा है, हिंसा का विमर्श तभी जीवित रह पाता है जब चारों ओर संदेह, घृणा और अविश्वास का वातावरण हो, वैमनस्य, कटुता और शत्रुता अपने चरम पर हों। प्रधानमंत्री जी ने चौरी चौरा की हिंसा का समर्थन कर एक तीर से कई शिकार करने का प्रयास किया है-गांधी विरोध, स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसक स्वरूप की आलोचना, कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करना, किसानों की सहानुभूति प्राप्त करना, दलितों एवं अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण, वामपंथी शक्तियों को असमंजस में डालना आदि आदि। किंतु भय यह है कि इस घातक तीर का शिकार हमारी सामाजिक समरसता और बहुलवाद पर आधारित हमारा लोकतंत्र ही न हो जाएं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-गिरीश मालवीय
मुझे लगता है कि भारत में पत्रकारिता मर चुकी है, कल एक खबर का जो हश्र देखा है उसे देखकर बिल्कुल यही महसूस हुआ।
कल मुंबई में एक होटल से वर्तमान लोकसभा के एक सांसद की लाश बरामद हुई है और वो भी संदिग्ध परिस्थितियों में। ‘वो भी कोई साधारण सांसद नही बल्कि वह सांसद सात बार लोकसभा में चुनकर आया है।
हम बात कर रहे हैं, केंद्रशासित प्रदेश दादर नगर हवेली से चुनकर आए निर्दलीय सांसद मोहन डेलकर की पुलिस प्रथम दृष्टया इसे आत्महत्या मान रही है।
अब यह एक बड़ी घटना है लेकिन आप मीडिया में इस घटना की रिपोर्टिंग देखेंगे तो लगेगा कि यह बड़ी साधारण सी घटना है। आप ही बताइए कि पिछले 70 सालों में आखिर अब तक ऐसी कितनी घटनाएं होगी जिसमें निवर्तमान सांसद की संदेहास्पद परिस्थितियों में लाश बरामद हो और उस स्टोरी पर कोई खोजबीन तक न हो!
मैंने कल रात 12 बजे तक सैकड़ों न्यूज़ वेबसाइट खँगाल लिए लेकिन सब में वही मैटर मिला जो एजेंसी ने दिया था। किसी भी पत्रकार ने यह तलाश करने तक करने की कोशिश नहीं की कि आखिरकार उस सांसद ने तथाकथित रूप से आत्महत्या क्यों की होगी?
इसके बदले फिल्म इंडस्ट्री का कोई साधारण सा अभिनेता यदि आत्महत्या कर ले तो आप मीडिया के पत्रकारों की भूमिका को देखिए पूरा नेशन वान्ट्स टू नो हो जाता कि उक्त अभिनेता ने आत्महत्या क्योंकि लेकिन एक सांसद पँखे से लटक गया/लटका दिया पर कोई नहीं पूछ रहा।
जब सांसद मोहन डेलकर से संबंधित खबरों को मैंने गहराई में जाकर खंगालना शुरू किया तो एक वीडियो हाथ लगा यह वीडियो कुछ ही महीने पुराना है यह वीडियो लोकसभा टीवी का था इस वीडियो में सदन में मौजूद स्व. मोहन डेलकर आसन्दी पर बैठे ओम बिरला को संबोधित करके कह रहे हैं कि सर मेरी बात सुन लीजिए। इस सम्बोधन में डेलकर अपने खिलाफ स्थानीय प्रशासन के द्वारा किए जा रहे षडय़ंत्र की जानकारी दे रहे है। इस वीडियो से ही हंगामा मच जाना चाहिए था, लेकिन कुछ नहीं हुआ, बात आई गई कर दी गई।
लोकसभा के इस संबोधन के कुछ समय पहले सिलवासा में उनका एक ओर वीडियो वायरल हुआ था जिसमे उन्होंने यह ऐलान किया था कि मैं अगले लोकसभा सत्र में इस्तीफा दे दूंगा और अपने इस्तीफे के लिए जिम्मेदार सभी लोगों के नामों का खुलासा करूंगा।’ उन्होंने कहा, ‘मैं लोकसभा में बताऊंगा कि मुझे इस्तीफा क्यों देना पड़ा।’ आदिवासी क्षेत्रों में विकास के लिए दिल्ली स्तर पर प्रयास किए गए हैं लेकिन स्थानीय निकायों द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई है। सिलवासा में, विकास के नाम पर लोगों की दुकानों और घरों को ध्वस्त किया जा रहा है। और सरकारी शिक्षकों और अन्य नौकरियों के लिए परेशान किया जा रहा है।
इस वीडियो में मोहन डेलकर ने गंभीर आरोप लगाया कि देश अराजकता की स्थिति में है और एक तानाशाही राजशाही की तरह शासन चल रहा है, उन्होंने कहा कि आदिवासी क्षेत्र का विकास एक ठहराव पर आ गया था क्योंकि स्थानीय स्तर पर प्रशासन ने उनके प्रयासों या विकास कार्यों को मंजूरी देने से इंकार कर दिया था।
उन्होंने इस वीडियो में यह भी कहा था कि मेरे पास स्थानीय अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों के खिलाफ भी सबूत हैं,’ यानी आप देखिए कि, एक निर्वाचित सांसद खुलेआम सदन में स्थानीय प्रशासन के रवैये को लेकर तानाशाही का आरोप लगा रहा है। स्थानीय अधिकारियों की मनमानी की बात कर रहा है और कुछ दिन बाद उसकी लाश मुंबई के एक होटल में पंखे से लटकती पाई जाती है लेकिन कोई इस बात पर चर्चा तक नहीं कर रहा है। तो यह किसका दोष है। यह दोष सीधा भारत की पत्रकारिता का ही है कि वह सही संदर्भों के साथ खबर पेश नहीं करती है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पुदुचेरी में नारायणस्वामी की कांग्रेस सरकार को तो गिरना ही था। सो वह गिर गई लेकिन किरन बेदी को उप-राज्यपाल के पद से अचानक हटा देना सबको आश्चर्यचकित कर गया। उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं था। उन्होंने कोई कानून नहीं तोड़ा। उन्होंने किसी केंद्रीय आदेश का उल्लंघन नहीं किया फिर भी उन्हें जो हटाया गया, उसके पीछे ऐसा लगता है कि भाजपा की लंबी राजनीति है। नारायणस्वामी और किरन बेदी पहले दिन से ही मुठभेड़ की मुद्रा में रहे हैं।
ऐसा कभी लगा ही नहीं कि एक राज्यपाल और दूसरा मुख्यमंत्री हैं। हर मुद्दे पर उनकी टकराहट के समाचार अखबारों में छाए रहते थे। ऐसा लगता था कि ये दोनों दो विरोधी पार्टियों के नेता हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि नारायणस्वामी पुदुचेरी के मतदाताओं की सहानुभूति अर्जित करते गए। भाजपा और विरोधियों को लगा कि कुछ हफ्तों बाद होनेवाले चुनाव में नारायणस्वामी कहीं बाजी न मार ले जाएं। इसीलिए किरन बेदी को अचानक हटा दिया गया। दूसरी तरफ कांग्रेस में भी अंदरूनी बगावत चल रही थी। 2016 में नारायणस्वामी को कांग्रेस ने अचानक पुदुचेरी का मुख्यमंत्री बना दिया था।
कांग्रेस के दिल्ली दरबार में नारायणस्वामी की पकड़ काफी मजबूत थी। उस समय पुदुचेरी के कांग्रेस अध्यक्ष थे ए. नमासिवायम्। वे हाथ मलते रह गए। उन्होंने और उनके साथियों ने बगावत का झंडा खड़ा कर दिया। कांग्रेस के विधायकों ने इस्तीफे दे दिए। सरकार अल्पमत में चली गई। नारायणस्वामी ने भी इस्तीफा दे दिया। चुनाव के तीन माह पहले हुई यह नौटंकी अब क्या गुल खिलाएगी, कुछ नहीं कहा जा सकता है। कांग्रेस की साथी पार्टी द्रमुक के विधायक ने भी इस्तीफा दे दिया है। अकेली कांग्रेस का फिर से लौट पाना मुश्किल ही लगता है। हो सकता है कि कांग्रेस कोई नए नेता का नाम आगे बढ़ा दे। हो सकता है कि पुदुचेरी में पहली बार भाजपा की सरकार बन जाए।
पुदुचेरी भी कर्नाटक के चरण चिन्हों पर चल पड़े। जो भी हो इस वक्त पूरे दक्षिण भारत से कांग्रेस का सूंपड़ा साफ हो गया है। दक्षिण भारत के सभी प्रांतों में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकारें आ गई है। कांग्रेस की अपनी सरकारें सिर्फ तीन प्रांतों में रह गई हैं। राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़। महाराष्ट्र और झारखंड में वह सहकारी है। कांग्रेस नेतृत्व की यह दुर्दशा भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। कांग्रेस की कृपा से भाजपा बिना ब्रेक की मोटर कार बनती जा रही है। भाई-भाई पार्टी को सबसे बड़ा वरदान है, माँ-बेटा पार्टी। जब तक कांग्रेस माँ-बेटा पार्टी बनी रहेगी, भाई-भाई पार्टी का डंका बजता रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
सोशल मीडिया और टेलीविजन पर अलग अलग तरह की खबरों का अंबार है। फिलहाल उन सब पर पूरा भरोसा करना मुनासिब और मुमकिन नहीं हैै। टेलीविजन चैनल तो किराया लेकर ठहराने वाली धर्मशाला या सराय हैं। उनका चरित्र पैसा वसूलने की होटलों जैसा है। कई वर्षों से अधिकांश खबरों में निजाम और कॉरपोरेटी खरबपतियों के अहंकार का अट्टहास ही गूंज रहा है। सोशल मीडिया को लगातार दूषित मनोविकारों को ढोता नाबदान बनाया जा रहा है। उन लोगों का कब्जा साफ-साफ दिखता है जिन्हें व्हाट्सएप विश्वविद्यालय, इंस्टाग्राम इंस्टीट्यूशन और फेसबुक संस्थान के व्यावसायिक जानकार डिग्रियां बांट रहे हैं। कई ऐसे लोग भी हैं जो इस वैचारिक आंधी, तूफान या बाढ़ में बह जाने के डर से भूल जाते हैं कि उन्हें अपने विचारों की ईमानदारी के साथ धरती पर पेड़ की तरह खड़ा रहना चाहिए। वे समाज चिंतक तो हैं लेकिन भावुकता से लबरेज होते रहते हैं। भारत में सदियों की गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद, मजहबी उन्माद जैसी तमाम कमजोरियों से एक माहौल बना गया है। इलेक्ट्रॉनिक यंत्र जोर-जोर से बजते हैं तो जनता वीरता और पौरुष के प्रतिमान तथा कभी कायरता से लकदक महसूस करने लगती है। लोग नहीं समझ पाते कि समाज का अंतिम सच किसके साथ है। दो माह से ज्यादा चले भारत बल्कि संसार के सबसे बड़े किसान आंदोलन में गणतंत्र दिवस के दिन जाहिर तौर पर कुछ अनावश्यक, अवांछित और आकस्मिक हिंसात्मक झड़पें किसानों और पुलिस के बीच हुई हैं। गैरगंभीर स्वयंभू, समाज विचारक उसे किसान आंदोलन के मनोविज्ञान का ही वायरस बनाकर ऐसा झूठा सच परोस रहे हैं, जो सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों में समानान्तर रूप से पसरा ब्यौरा भी होता है।
हिंसा और तशद्दुद की कोई ताईद नहीं करेगा। करना भी नहीं चाहिए। मोटे-मोटे अक्षरों में मीडिया में किसानों द्वारा की गई कथित हिंसा का ब्यौरा छपा और वाचाल भी है। सरकारी विज्ञापन, कॉरपोरेटी मालिकाना नियंत्रण और बरसाती नदी के बहाव की तरह बनाई जा रही अफवाहग्रस्त जनभावना में बहते हुए समाचार अभी तो नहीं लेकिन कभी न कभी वक्त की बांबियों से निकलकर अपनी सही खुली जगह तलाशेंगे। तटस्थ, वस्तुपरक, निरपेक्ष देश में टूट रहा, परेशान दिमाग, अल्पमत वैचारिक बुनियाद पर खड़ा होकर इतिहा सवाल जरूर पूछेगा कि आखिर कहां हिंसा हुई? कितनी हिंसा हुई? हिंसा की परिभाषा क्या है? भारतीय दंड विधान में हिंसा शब्द की परिभाषा नहीं है, लेकिन कई अपराधों की व्याख्या में हिंसा के विवरण के आधार पर मुकदमे होते हैं। दिल्ली की घटनाओं को लेकर पुलिस ने तमाम मुकदमे दर्ज भी अवैध किए हैं।
भारत का यह किसान आंदोलन राष्ट्रीय पर्व की तरह याद रखा जाएगा। वह अवाम के एक प्रतिनिधि अंश का आजादी के बाद सबसे बड़ा जनघोष हुआ है। उसमें डेढ़ सौ से ज्यादा किसानों की मौतें हो चुकी हैं। वह लाखों करोड़ों दिलों का स्पंदन गायन तो बना है। वह ईंट दर ईंट चढ़ते इरादों की मजबूत दीवार की तरह लगा है। पुलिस-किसान भिड़ंत की कुछ हिंसक होती घटनाओं के कारण आंदोलन स्थगित या रद्द हो भी जाए तो अहिंसा की सैद्धांतिकी से भी क्या उसे कोई नया मुकाम मिलेगा? चौरीचौरा की घटनाओं के कारण गांधी ने आंदोलन वापस लिया था। उनकी बहुत किरकिरी की गई थी। 1942 में तो इससे कहीं ज्यादा हिंसा हुई। फिर भी भारत छोड़ो आंदोलन हिंसा की सामाजिकी का इतिहास विवरण अंग्रेज द्वारा भी नहीं कहा जाता। उसमें केन्द्रीय भाव के रूप में अहिंसा ही अहिंसा गूंजती हैै। फिर आज उसके अनुपात में सरकार और मीडिया कैसे कह सकते हैं कि किसान आंदोलन का चरित्र हिंसक हुआ है। रामचरित मानस में क्षेपक कविता का मूल हिस्सा नहीं है।
क्या विवरण है कि किसानों की लाठियों या अन्य हथियारों से पुलिस या नागरिकों की कितनी मौतें हुई हैं? जाहिर है कई पुलिस वालों को काफी चोटें लगी हैं। कई किसानों को भी पुलिसिया दमनात्मक कार्रवाई का शिकार होना पड़ा है। बदनाम पक्ष तो यह है कि जिस व्यक्ति ने कथित रूप से लालकिले की प्राचीर पर चढक़र झंडा फहराया, उसके कई चित्र सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। उनमें वह प्रधानमंत्री, देश के गृहमंत्री तथा अन्य भाजपा नेताओं के साथ खड़ा होकर या बैठकर मुस्करा रहा है। क्या बैठकर कुछ योजनाएं बना रहा होगा और खड़ा होकर उनके मुकम्मिल हो जाने के पूर्वानुमान में मुस्करा भी रहा होगा? कौन जाने!
इस घटना की आड़ में केन्द्रीय निजाम बहुत कड़े और सरकारी प्रतिहिंसा के नए मानक बन रहे सोपानों पर चढक़र किसान आंदोलन को कुचलने की हरचंद कोशिश करेगा। उसने शुरू कर दिया है। उसे किसानों की भूल, महत्वाकांक्षा और उन्माद तथा अपनी भी कोशिशों से यह सुनहरा मौका मिला है। इसी दिन की तो उसे उम्मीद रही होगी। किसानों द्वारा ट्रैक्टर रैली करने के ऐलान को निजाम ने आपदा में अवसर की तरह भुना तो लिया है। इस निजाम ने तो कोरोना महामारी को भी भुनाकर देश की तमाम प्राकृतिक दौलत, जंगल, खनिज अपने मुंहलगे दो तीन खरबपति कॉरपोरेटियों को दहेज की तरह दे दिया है। पुलवामा को भी तो अवसर में बदला जा चुका है। अर्णब गोस्वामी के चैट्स को भी आपदा में अवसर समझकर सरकार विरोधियों को कुछ नहीं करने देगा। इस देश की न्याय व्यवस्था पर पूरी तौर पर भले कब्जा नहीं हो, जुगाड़ कर निजाम ने संजीव भट्ट, लालू यादव, भीमा कोरेगांव के मानव कार्यकर्ताओं और केरल से लेकर के दिल्ली तक के ईमानदार पत्रकारों और छात्रों को जेल से नहीं छूटने देगा या उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट पर टेसुए बहाकर भी उन छात्रों को ढूंढा तो नहीं है। वह दिल्ली दंगों के विदूषकों से खलनायक बनाए गए व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का हुक्म देने वाला हाईकोर्ट के जज का आधी रात को तबादला करा ही चुका है। वह सुप्रीम कोर्ट के भावी चीफ जस्टिस पर अपने साथी दल के आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री के जरिए अवमाननायुक्त खुलकर आरोप लगवा कर चुप्पी साधे बैठा है। मौजूदा चीफ जस्टिस के इजलास से भी अब तक कोई सार्थक और न्याययुक्त कदम उठाया जा सके इसकी संभावना पर भी उसकी नजर रहेगी।
इस सिलसिले में गांधी का नाम बहुत तेजी से उभरा है। कुछ को मलाल है किसान आंदोलन पूरी तौर पर गांधीजी की अहिंसा की बैसाखी पर चढक़र क्यों नहीं किया गया? कुछ का कहना है आंदोलन का भविष्य गांधी की अहिंसा के लिटमस टेस्ट के जरिए ही आंका जा सकता है। कुछ का पूछना है इस पूरे आंदोलन की बुनियादी पृष्ठभूमि और सरकार के भी आचरण में गांधी रहे भी हैं क्या? असल में दुनिया के सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन के जन्मदाता और प्रतीक गांधी मौजूदा निजाम की वैचारिकता द्वारा खारिज और अपमानित कर दिए जाने के बाद भी भले लोगों के लिए टीस या कभी कभी उभरते अहसास और सरकारों के लिए असुविधाजनक परेशान दिमागी बनकर वक्त के बियाबान को भी इतिहास बनाने के लिए अपनी दस्तक देते रहते हैं। मौजूदा निजाम-विचार ने तो उन्हें अपमानित करने की गरज से सफाई और स्वच्छता का रोल मॉडल बनाकर शौचालय के दरवाजे पर चस्पा कर दिया है। गांधी की पार्टी और राजनीतिक वंशज उनका नाम भूल गए। भले ही उनके उपनाम से आज तक अपनी दूकान चला रहे हैं। कभी नहीं कहा था महात्मा ने कि लिजलिजे, पस्तहिम्मत, कायर और हताश लोगों के जरिए अहिंसा का पाठ पढ़ाया जा सकता है। यह भी नहीं कहा था अपने से कमजोर के लिए मन में खूंरेजी, नफरत और हथियारी ताकत लेकर अट्टहास करने वालों के जरिए की जा रही प्रति हिंसा को अहिंसा कह दिया जाए। कुछ किताबी बुद्धिजीवी, समझदार नागरिक और गांधी की तात्विकता को समझने वाले भले लोग नैतिक रूप से सही कह रहे हैं कि किसान आंदोलन की सद्गति गांधी की आत्मा की रोशनी के बिना अपने वांछित मुकाम या हर पड़ाव तक पहुंचने में दिक्कत का अनुभव करेगी। इस सैद्धांतिक सीख की आड़ और समझ के गुणनफल के हासिल के रूप में यह सहानुभूतिपूर्ण समझाईश गूंजी है कि किसानों को संसद के बाहर धरना या प्रदर्शन करने का इरादा स्थगित कर देना चाहिए। (किसानों ने उसे स्थगित कर भी दिया है।) यह भी कि किसान संगठनों को प्रायश्चित और मलाल में लाल किले की प्राचीर पर तिरंगे झंडे के बावजूद अन्य झंडा फहराने के आरोप के कारण उपवास या अनशन करना चाहिए। ईमानदार, उत्साही और अतिरिक्त सुझाव यह भी आया कि फिलहाल आंदोलन को ही स्थगित कर देना चाहिए।
ऊहापोह की ऐसी स्थितियों के संदर्भ और गर्भ में इतिहास की कुलबुलाहट है कि इन सबमें गांधी कहां हैं? ‘जयश्रीराम’ के बदले ‘रामनाम सत्य है’ या ‘हे राम’ का उच्चारण वाले अहिंसाभक्त गांधी की याद करने की क्या मजबूरी है? गांधी के जीवित रहते संविधान सभा और बाद में भी न केवल उनकी अनदेखी बल्कि उन पर अपमानजनक टिप्पणियां की गईं। गांवों पर आधारित गांधी का हिंदुस्तान जाने कब से भरभरा कर गिर पड़ा है। गांवों पर दैत्याकार महानगर उगाए जा रहे हैं और उन्हें अंगरेजी की चाशनी में ‘स्मार्ट सिटी’ का खिताब देकर देश केे किसानों से उनकी तीन फसली जमीनों को भी लूटकर विषेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के नाम पर अंबानी, अडानी, वेदांता, जिंदल, मित्तल और न जाने कितने कॉरपोरेटियों को दहेज या नजराने की तरह तश्तरी पर रखकर हिंदुस्तान को ही दिया जा रहा है। मौजूदा निजाम चतुर वैचारिकता का विश्वविद्यालय है। उसकी विचारधारा के प्रतिनिधि ने गांधी की हत्या करने के बावजूद अपनी कूटनीतिक सयानी बुद्धि में समझ रखा है कि फिलहाल इस अहिंसा दूत को उसके ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ के मुकाबले ‘झूठ के साथ मेरे प्रयोग’ जैसी नई थ्योरी बनाकर धीरे धीरे अपमानित किया जाए। उसे देश और दुनिया की यादों के तहखाने से ही खुरचा जा सके। फिर धीरे-धीरे जनता के स्वायत्त जमीर को दीमकों की तरह चाट लिया जाए। फिर हिंसा के खुले खेल में ‘जयश्रीराम’ को बदहवास नारा बनाते विपरीत विचारधाराओं को रावण के वंश का नस्ली बताया जाए। दल बदल का विष्व कीर्तिमान बनाकर सभी दलों से नर पशुओं को खरीदा जाए। ईवीएम की भी मदद से संदिग्ध चुनावों को लोकतंत्र की महाभारत कहा जाए। सदियों से पीडि़त, जुल्म सहती, अशिक्षित, गरीब, पस्तहिम्मत जनता को कई कूढ़मगज बुद्धिजीवियों, मुस्टंडे लेकिन साधु लगते व्यक्तियों से अनैतिक कर्मों में लिप्त कथित धार्मिकों के प्रभामंडल के जरिए वैचारिक इतिहास की मुख्य सडक़ से धकेलकर अफवाहों के जंगलों या समझ के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए। भारत के अतीत से चले आ रहे राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महावीर, चैतन्य, दादू, कबीर, विवेकानन्द, गांधी, दयानन्द सरस्वती, पेरियार, फुले दंपत्ति, रैदास जैसे असंख्य विचारकों के जनपथ को खोदकर लुटियन की नगरी बताकर अपनी हुकूमत के राजपथ में तब्दील कर दिया जाए। मुगलसराय को दीनदयाल उपाध्याय नगर और औरंगजेब रोड नाम हटाकर या इलाहाबाद को प्रयागराज कहकर सांप्रदायिक नफरत को भारत का नया और पांचवां वेद बना दिया जाए। फिर भी कुछ लोग हैं जो आज गांधी की मरी मरी याद कर रहे हैं।
कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को बिना उत्तेजना के याद रखना जरूरी होता है। गांधी ने भारत की आजादी के लिए जन आंदोलनों की अगुवाई अंग्रेजों के खिलाफ की थी। वह विदेशियों से लड़ता रहा लेकिन प्रतिकूल हमवतनों से भी नहीं। आज आजादी के सत्तर बरस बाद भारत के लाखों करोड़ों किसान अवाम का सैद्धांतिक हरावलदस्ता बनकर निजाम से अपने जायज अधिकारों की पहली बार पुरअसर मांग कर रहे हैं। हमवतन सरकार से अपने संवैधानिक अधिकार लेने का यह एक जानदार मर्दाना उदाहरण तो है। लोहिया कहते थे ‘इतर सभ्यता के लोगों से लडऩा रामायणकालीन उदाहरण है। अपनों से लडऩा महाभारत में कृष्ण की गीता को जन्म देता है।’ आत्मिक हथियारों की वीरता की यह लड़ाई लाखों किसानों के षरीर नहीं लड़ते रहे। वे सरकार से अपनी नैतिक ताकत पर भरोसा करते अधिकारों की भीख नहीं मांग रहे। वे मुकम्मिल सत्याग्रह के रास्ते पर चलकर अधिकार हासिल करना चाहते रहे हैं, जो आखिरकार उनसे संसद के मुखौटे की आड़ में छीने जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकारें कानून बनाकर उन्हें वापस नहीं लेती रही हैं। ऐसा भी नहीं है कि किसानों के पक्ष में देश के बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, सियासती ताकतें और ईमानदार नागरिक नहीं खड़े हैं। बीसियों बार बहस का रिहर्सल करने के बाद भी सरकार अपनी बात समझा पाने में असमर्थ क्यों है? कृषि कानूनों में आश्वस्त प्रामाणिकता होती तो इन दिनों अवाम की उम्मीदों को निराश करता लगने वाला सुप्रीम कोर्ट भी कह देता कि षाहीन बाग की घटनाओं की तरह हटाओ अपने आंदोलन का टंटा। कोर्ट ने भी तो आनन-फानन में सरकारी समर्थकों की ऐसी कमेटी बनाई जो एक सदस्य के इस्तीफा दे देने से चतुर्भुज से त्रिभुज, नहीं नहीं त्रिशंकु की तरह हो गई। वैश्विक समझ में भारतीय सरकार और सुप्रीम कोर्ट के विवेक की संयुक्त पेशबंदी का नायाब उदाहरण किसानों के कारण ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पात:’ हो गया। राजसी मुद्रा में खुश होकर चापलूसों को अंगूठी देने वाली हुकूमतों की पारस्परिक मुद्रा में निजाम ने कहा वह इन कानूनों को डेढ़ साल तक स्थगित रखने को तैयार है। निजाम ने यह नहीं बताया कि अडानी जैसे कॉरपोरेट ने न जाने क्यों सैकड़ों बड़े-बड़े पक्के गोदाम बनवा रखे हैं। वहां किसानों को कृषि कानूनों के चक्रव्यूह में फंसाकर पूरी उपज को लील लेने का षडय़ंत्र किसी बांबी के सांपों की फुफकार की तरह गर्वोन्मत्त होता होगा। कोई जवाब नहीं है सरकार के पास ऐसी नायाब सच्चाइयों के खिलाफ । कैसा देश है जहां सबसे बड़ी अदालत में किसी भी सरकार विरोधी को अहंकार की भाषा में सरकारी वकीलों द्वारा जुमला खखारती भाषा में आतंकी, अर्बन नक्सल, पाकिस्तानी एजेंट, खालिस्तानी, हिंसक देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग का खिताब दिया जाए और शब्दों की बाल की खाल निकालने वाली बल्कि उसके भी रेशे-रेशे छील लेने की कूबत वाले सुप्रीम कोर्ट को ऐसे विशेषणों का कर्णसुख दिया जाए।
लोकतंत्र में क्या प्रधानमंत्री अंतरिक्ष से आता है जो संविधान की एक एक इबारत को सरकार की स्तुति के सियासी पाठ में तब्दील करने को भी आपदा में अवसर बनाना समझता होगा! सरकारों ने महान संविधान में किए गए भविष्य वायदों के परखचे तो लगातार उखाड़े हैं। भोले संविधान ने हवा, पानी, धरती सब पर सरकार को मालिक नहीं ट्रस्टी ही बनाया है। कोरोना महामारी में लाखों लोग संसार के इतिहास की सबसे बड़ी बैगैरत भीड़ बनकर मरते खपते सडक़ों पर चलते टेलीविजन में देखे गए। हां, जनता की कायर अहिंसा अंदर ही अंदर निष्चेष्ट होकर सोचती भर रही कि इसके बावजूद देश के सबसे अमीर आदमी को दुनिया का सबसे अमर आदमी वक्त का फायदा उठाते कैसे बना दिया जा रहा है। एक अपने निहायत अजीज उद्योगपति को इतनी तेज गति से विकसित किया जा रहा है जो गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में अव्वल नंबर पर दर्ज हो जाए। इंग्लैंड में मोम के पुतलों की नुमाईश में संविधान पुरुष का आदम कद दुनिया को दिखे। साथ साथ सडक़ पर रेंगते मरे हुए कुत्ते का मांस खाकर अपनी जिंदगी बचाने की कोशिश करते, नालियों, मोरियों की दुर्गंध अैर सड़ांध में जीते, लाखों गरीब बच्चे, औरतें, यतीम और जिंदगी से परेशान बूढ़े बुजुर्ग मौत मांगते भी निजाम के लिए ‘जय हो, जय हो का नारा लगाना नहीं भूलें। देश में इसलिए भी गांधी एक दुखद अहसास की तरह उभर जा रहे हैं।
किसान आंदोलन में तात्विक या अव्यक्त वैधानिक परिभाषा के अनुकूल कितनी हिंसा हुई है? कितने पुलिसकर्मियों की किसानों या उनके बीच में छुपाए गए सरकारपरस्त व्यक्तियों ने हत्या की गई है? लाखों की भीड़ में अंग्रेजी बुद्धि की मानसिकता की भारतीय पुलिस से झड़प में अगर चोटें नहीं लगतीं तो आंदोलन की प्रकृति को मिलीजुली कुश्ती भी तो तमाशबीन, कायर और गालबजाऊ भाषा में कहा जा सकता था। गांधी तक ने 1942 के जनआंदोलन को जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद और न जाने कितने अहिंसा वीरों के बावजूद हिंसा से बचा पाना अनुभव नहीं किया। किसान आंदोलन की खसूसियत यही है कि उसका कोई एक निर्वाचित या मनोनीत नेता नहीं है। उसने राजनीतिक पार्टियों के बैनर, पोस्टर, झंडों और खुद नेताओं के शामिल होने तक से नीयतन और सावधानीपूर्वक परहेज किया। आंदोलनकर्ताओं को मालूम था कि अन्ना हजारे के आंदोलन में कौन सी ताकतें वेष बदलकर अधनंगे शरीर के जरिए कवायदें सिखाती, दवाएं बेचती भी, सलवार पहनकर भागती भी घुस गई थीं। उनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें कथित नागरिक सेवा के लिए मैगासेसे अवार्ड मिला था। बाद में दिल्ली की मुख्यमंत्री बनाने की मौजूदा निजाम की कोशिश के साथ ही मैगासेसे अवार्ड प्राप्त दूसरे व्यक्ति से चुनाव में पराजित होने पर पुडुचेरी की राज्यपाल बना दिया गया। वह मानसिकता वहां राज्यपाल पद को पुलिस कमिश्नर पद में तब्दील करने की कुलबुलाहट को राष्ट्रवाद समझती रहती है। दो माह तक चले आंदोलन में किसान अपने साथियों की आत्मबलि देते रहे, लेकिन एक चूहा तक नहीं मारा। अचानक उन किसानों में से पंचमांगी निकल आए जिन्होंने उसे सरकार का एक महासंग्राम बनाकर अपनी असली औकात में पुलिसिया राग गाते अहिंसक आंदोलन की रीढ़ को तोडऩे की कोशिश की। भला हो सोषल मीडिया का जिसने प्रधानमंत्री और देश के गृहमंत्री सहित कई महान हस्तियों के साथ उस झंडावीर की तस्वीरें जारी कर दीं जो किसान आंदोलन के चेहरे को बदलने के लिए कान फुंकवा कर आया होगा। अगर पशासनिक व्यवस्था में पूरी तौर पर साहस, निरपेक्षता, न्यायप्रियता और वस्तुपरकता हो तो लाल किले की झंडा घटना को लेकर किसानों के खिलाफ मुकदमा बनाने पर झंडावीर की सारी तस्वीरों में दिख रहे सियासत के मानववीरों को गवाह की सूची में दर्ज भी करना होगा। ऐसा लेकिन कभी नहीं होगा।
जो सरकार अर्णब गोस्वामी को प्रधानमंत्री कार्यालय सहित अन्य सरकारी फाइलों तक पहुंचने से नहीं रोक पाने की असमर्थता के कारण मौन व्रत में है। वही राष्ट्रऋषि तो दो माह से ज्यादा महान किसान आंदोलन चलते रहने पर भी किसानों से खुट्टी किए बैठे रहे। उसके विपरीत उद्योगपतियों, क्रिकेट खिलाडिय़ों, फिल्मी तारिकाओं और न जाने किनसे किनसे दुख-सुख में मिलने या हलो हॉय करने की मानवीय स्थितियों की मुद्रा के प्रचारक हुए। भारतीय किसान आंदोलन का चरित्र पूरी तौर पर अहिंसक रहा है। यह दुनिया के किसी भी जनआंदोलन के मुकाबिल इतिहास की पोथियों में दर्ज किया जााएगा। रूस, वियताम, क्यूबा, मांटगोमरी और सैकड़ों जगहों पर जनआंदोलन हुए हैं। उन सबसे तुलना की जाए। नेताविहीन यह सामूहिक किसान आंदेालन भारत की ओर से विश्व इतिहास का श्रेय बनेगा। हो ची मिन्ह, लेनिन, मार्टिन लूथर किंग, फिदेल कास्त्रो और गांधी जैसा उनका कोई नेता नहीं रहा है। दुनिया के पके हुए आंदोलनों से साहस, सीख और प्रेरणा लेकर भारत के किसानोंं ने इतिहास पर एक नई फसल बोई है। वह अमिट स्याही से लिखी है। वह पानी पर पत्थर की लकीर की तरह लिखी है। वह पीढिय़ों की यादों की आंखोंं में फडक़ती रहेगी। उसे बदनाम करने की हर कोशिश में एक मनुष्य इकाई को दो किलो या मुफ्त में चावल मिल जाने वाले लोगों के वोट को निजाम की ताबेदारी करने का चुनावी आचरण बनाया जाता है। लोग इतिहास पढऩे से डरते हैं। जिनके पूर्वजों ने इतिहास की उजली इबारतों पर काली स्याही फेर दी है। जो गोडसे के मंदिर में पूजास्तवन करते हैं। उनमें दिमागी वायरस होता है। वह पसीना बहाने वाले किसानों के अहिंसा आंदोलन को कॉरपोरेटियों की तिजोरियों, पुलिस की लाठियों, और मंत्रियों की लफ्फाजी में ढूंढना चाहता है।
शेर के शिकार का बचा हुआ हाड़-मांस गीदड़ों द्वारा लजीज भोज्य पदार्थ समझकर जूठन को चाटने की जनकथाएं बहुत सुनी गई हैं। मीडिया का बहुलांष भी क्या ऐसा ही नहीं है? वह कॉरपोरेटी और सरकारी जूठन को छप्पन भोग समझता है। उसके पैरों के नीचे से उसके ही अस्तित्व की धरती खिसक गई है। उसका जमीर बिक गया है। उसकी कलम झूठी तस्वीरें खींचने के हुक्मनामे ढोते कैमरे और जीहुजूरी में तब्दील हो गई है। उसे पांच और सात सितारा होटलों में अय्याषी की आदत हो गई है। वह भारत के इतिहास का नया गुलाम वंष है। उसकी संततियां को आगे चलकर कभी अपने पूर्वजों के कलंकित इतिहास के कारण आईने के सामने खड़े होने में शर्म आएगी। उनमें से किसी को एकाध लाठी पड़ गई। एकाध का कैमरा टूट गया। तो ये कारपोरेटी खिदमतगार महाभारत के युद्ध का संजय बनकर पूरी खीझ के साथ चिल्लाकर दिखा रहे हैं कि देखो किसानों ने हमको कैसे मारा है। ये वही मुंहबोले हैं जो डेढ़ सौ किसानों की मौत पर दरबारियों की तरह चुप थे। मानो उनकी जबान पर फालिज गिर गई थी। वे मुहावरे के नयनसुख बने रहे थे। मानो चलने की कोशिश करते तो उनके मालिकों ने उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी होती। जो जाबांज किसानों की मौत पर एक अक्षर नहीं लिख सकता वह अपने पृष्ठभाग पर किसी किसान द्वारा उत्तेजना के बावजूद सावधानीपूर्वक मध्यम शक्ति की लाठी पडऩे पर ऐसे चिल्ला पड़ा मानो महाभारत के प्रसंग में चीरहरण होने पर आर्तनाद हो रहा हो। इन्हीं दिनों एक बड़ी वाचाल भक्तमंडली का राष्ट्रीय जीवन में आविर्भाव हुआ है। उसे टेस्टट्यूब बेबी भी कहा जा सकता है। उसे इस बात से कोफ्त है कि किसान अमीर क्यों हैं। उनके पास टै्रक्टर क्यों है। वे छह महीने की लड़ाई की घोषणा करके पूरी तैयारी के साथ कैसे आ गए। उनके घरों की महिलाएं, बच्चे, बूढ़े सभी उनके साथ क्यों हैं। वे सभी तरह की तकनीकी जानकारियों और तकनीकी व्यवस्था से लैस क्यों हैं। इन महान बुद्धिशत्रुओं को समझ नहीं है कि किसान तो वे भी हैं जो हर संकट झेलते लाखों की संख्या में लगातार आत्महत्या करने मजबूर रहे हैं। जिन्हें स्वामीनाथन रपट को मानने के आष्वासन के बावजूद सरकारों द्वारा फसल की कीमत देने को लेकर धोखा दिया जा रहा है। जिन्हें लफ्फाज राजनीतिक नेताओं द्वारा नियंत्रित सरकारी बैंकों में अपनी जमीन, महिलाओं के जेवर और पिता की बुढ़़ापे की पेंशन तक गिरवी रखनी पड़ रही है और छुड़ा पाने में असमर्थ हैं। बेटी का ब्याह नहीं कर पा रहे हैं। मां, बाप की दवा नहीं ला पा रहे हैं। अपनी पत्नी की अस्मत और अस्मिता को बुरी नजरों से बचाने मुनासिब वस्त्र तक नहीं खरीद पा रहे हैं। बच्चे हालात की मजबूरी के कारण पढ़ाई छोडक़र या तो मां बाप के खेतों पर काम कर रहे हैं या उन्हें बहला फुसलाकर शोहदे बनाकर लफंगों द्वारा ऐसे अपराध करवाए जा रहे हैं जिनकी पीडि़तों में भारत की निर्भया जैसी बेटियां भी षामिल हैं। लफ्फाज नेता उनसे केवल वोट कबाड़ते हैं।
आर्थिक और नैतिक अधोपतन के कारण वे एक बोतल शराब या कुछ रुपयों में अपना जमीर पांच साल के लिए इन्हीं नेताओं की बेईमानी में बंधक बना देते हैं। ये वही नेता हैं जो रेत की नीलामी में प्रति टन की दर से दलाली खा रहे हैं। देश का कोयला, लोहा, खनिज और धरती बेचकर एक ही मुंह से अडानी, अंबानी, जयश्रीराम, जयहिन्द, मेरा भारत महान और इंकलाब जिंदाबाद कर लेते हैं। शराबखोरी के कैंसर फैलाकर अपनी रातें रंगीन करते दलालों को नगरपिता बना रहे हैं। उनके दोमुंहे सांपों के आचरण को किसान समझता है क्योंकि सांप धरती पर ही तो रेंगते होते हैं। किसान धरती पुत्र ही तो हैं। अजीब लोकतंत्र है! यहां किसानों के बेटे पुलिस की नौकरी में हैं। उनका जमीर लाठी की अनुशासन संहिता से संचालित है। सगे भाई की लाठी सगे किसान भाई की पीठ पर मारी जा रही है। पीठ पर लाठी मारने वाले भाई को किसान भाई का पेट नहीं दिखाया जाता। लोकतंत्र के लिए मुख्यत: नेहरू और अंबेडकर द्वारा लाया गया पुख्ता संविधान नहीं होता तो आज कोई निजाम टर्राता कि पुलिस और सेना के दम पर हर किसान आंदोलन को लाठियों और गोलियों से नेस्तनाबूद कर देगा। जिन इलाकों के किसान आगे बढक़र आंदोलन कर रहे हैं, उनके ही बेटे सबसे ज्यादा संख्या में सेना के नौजवान और शहीद हैं। इतिहास यह भी लिख ले कि इतिहास में मुसलमानों की संख्या आबादी के अनुपात में ज़्यादा है। मुल्क में औसत मनुष्य को तमाशबीन बनाकर सितम ढाया जा रहा है। कई बार अनधिकृत वसूली कर लेने के बाद भी किसानों की तकलीफों और मौतों से जानबूझकर बेखबर बनते राम मंदिर बनाने के नाम पर जबरिया चंदा उगाही की जा रही है। उस आचरण से तो भारतीय दंड संहिता की धारा 384 का आरोप भी बन सकता है। धरती के इतिहास में कभी नहीं हुआ कि लोकख्याति के आधार पर हुए चुनाव का सबसे बड़ा जनप्रतिनिधि अवाम से बात नहीं करने की कॉरपोरेटी गलबहियोंं की जुगाली करता रहे। कहते हैं जहांगीर के दरबार में नामालूम बैल द्वारा घंटा बजा दिए जाने पर भी उसे न्याय मिला था। पिछड़े वर्ग के व्यक्ति ने अपने घर में अपनी बीवी के आचरण को कोसते हुए राजरानी सीता पर कटाक्ष कर दिया गया था। इस बात पर राम ने अपनी गर्भवती पत्नी तक का त्याग कर दिया था। उसी राम का मंदिर बनाने की चंदाखोरी में मशगूल लोग राम के चित्र को महानायक बना दिए गए प्रधानमंत्री की विराट देह की उंगली पकडक़र बच्चा बनकर जाते हुए देखने पर भी ‘जयश्रीराम‘ का नारा महान विपर्यय के रूप में लगाते रहते हैं।
नहीं गए थे किसान भारत की सुप्रीम कोर्ट में कि न्याय करो। किसानों के बेटे मूर्ख नहीं हैं। आलिम फाजिल भी हैं। कइयों के पास अर्थशास्त्र, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी और मानव विज्ञानों की डिग्रियां हैं। वे नोटबंदी, जीएसटी, नागरिकता अधिनियम, कश्मीर, कोरोना पीडि़तों वगैरह के कई मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट का न्याय देख चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा पचास हजार रुपए की हार्ले डेविडसन मोटरबाइक पर बैठ कर फोटो खिंचाने पर कटाक्ष करने वाले जनहित याचिकाकारों के पैरोकार वकील प्रशांत भूषण पर अवमानना का मुकदमा देख चुके हैैं। सुप्रीम कोर्ट के कुछ जज ऐसे मनोरंजक सुभाषित और सूक्तियों का प्रवचन करते रहते हैं कि उन्हें आने वाला न्यायिक इतिहास पढ़ पढक़र सिर धुनते हुए पुलकित होना चाहेगा। कई जज जरूर हैं जिनकी कलम और वाणी से सूझबूझ, निष्कपटता, साहस और न्यायप्रियता से मुनासिब आदेश झरते हैं। कई हाई कोर्ट में भी ऐसे जज हैं। नहीं होते तो न्याय महल भरभरा कर गिर भी जाता। इसलिए गांधी ने अंग्रेजी गर्भ की अदालतों पर भरोसा नहीं किया था। उन्होंने संसद और प्रधानमंत्री पर भी तीक्ष्ण कटाक्ष किए थे। कहा था संसद एक वेश्या है, नर्तकी है। प्रधानमंत्री के इशारे पर नाचती है। गांधी का यह वाक्य कोई संसद अपनी दीवारों पर नहीं लिखवा सकती। वह तो जनता की आत्मा में पत्थर की लकीर की तरह लिख गया है, इसलिए जनता के सबसे बड़े हिस्से किसानों की आत्मा में। किसान ही वह लोहारखाना हैं जहां मनुष्य की नैतिकता के उत्थान के लिए कालजयी हथियार बनते हैं। ये हथियार शोषक नहीं, रक्षक होते हैं। भारतीय किसानों का छिटपुट हिंसक हो चुकी घटनाओं के कारण अपमान करना और उनके किसान होने की अहमियत को मिटाने का कोई कुचक्र बनाए तो कुदरत के कानून पीठ नहीं दिखा सकते।
कहां है देश की संसद? कहां हैं विधानसभाएं? केवल भाजपा नहीं कांग्रेस में भी वही सियासी आचरण है। कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को भाजपाई प्रधानमंत्री की शैली की नकल करने में अच्छा लगता है। एक एक राज्य का भाग्य एक एक खंूटे से बांध दिया गया है। उस खूंटे को मुख्यमंत्री कहते हैं। जनता तो गाय, बैल, भेड़, बकरी वगैरह का रेवड़ है। उनके संगठित पशु समाज को नहीं हैं उन्हें राजनीतिक दलाली के विश्वविद्यालय में दाखिला मिलता है। परिपक्व अक्ल और पूरी ईमानदारी के साथ गैरभाजपाई राज्यों में किसान आंदोलन को उसकी भवितव्यता के रास्ते पर चलाया जा सकता था। गैर भाजपाइयों ने भी बेईमानी की है। केन्द्र सरकार कहती रही चित मैं जीती पट तू हारी। राज्य सरकारें कहती रहीं बार-बार टॉस करो। हम भी जनता से कहेंगे। चित मैं जीती पट तू हारी। भारतीय किसानों के असाधारण आंदोलन को गांधी का नाम जपने वाले सभी लोगों ने भी धोखा दिया है। देष को गांधी की अहिंसा के दार्शनिक, बहुआयामी और समकालीन पाठों के महत्व से कभी रूबरू नहीं कराया गया। अब कांग्रेस की सरकारों में भी किराए के वक्तव्यवीर बुलाकर मुस्कराते हुए भी 30 जनवरी का शहीद दिवस मना लिया जाता है। अब छाती कूटने का क्या मतलब है कि किसानों को गांधी के अहिंसक रास्ते पर चलना चाहिए। 1942 के आंदोलन की सायास और सहसा हिंसा देखकर गांधी ने माना था कि वे पूरी तौर पर अहिंसा को रोक नहीं सके। हालांकि यह भी कहा कि दुनिया के विश्व आंदोलनों में सबसे बड़ी संख्या और परिमाण में भारत ने ही अहिंसा पर अमल किया है। यही तो किसान बंधु आज कर रहे हैं।
कोई समझे, दो माह तक शत-प्रतिशत अहिंसक आंदोलन कोई इसलिए करेगा कि वह गणतंत्र दिवस की परेड में शरीक होकर देश के राजपथ पर मार्च करने पर नैतिक दृष्टि से मजबूर या उदात्त आचरण करे? तब भी तो सत्ताषीन ताकतें जन आंदोलनों में दलालों, एजेंन्टों, अपराधियों का प्रवेश कराने का मुहूर्त किसी पुरोहित, पंडित या गंडाताबीज बांधने वाले से निकलवा लेती हैं। कांग्रेसी केन्द्र सरकार जाहिर कारणों से गांधी की हत्या करने वाले को पहले से पहचान या रोक, पकड़ नहीं सकी थी।
अब तो विपरीत मानसिकता की सरकार व्यापक, नेेताविहीन आंदोलन की भीड़ में (संभवत:) पुलिसिया मदद से (भी) किसी अजूबे झंडावीर को घुसेडक़र मीडिया से अपनी महानता की दुन्दुभी बजाने का मौका कैसे छोड़ती। मीडिया ढिंढोरची भी दो माह से मौन व्रत में थे। महान नेता की शैली अब वाचालता सप्तम स्वर में भैरवी का राग अलापेगी। यह अलग बात है कि दुनिया सिमट गई है। दुनिया के आधे मुल्कों ने दो माह से ज्यादा घटनाओं पर नजऱ रखी है। पहली बार हुआ कि गणतंत्र दिवस की परेड में कोई विदेशी राजनयिक आने को तैयार नहीं मिला। कोरोना का तो बहाना है। भारत में कोरोना के लाए जाने के बाद भी ट्रंप सहित कई विदेशी राजनयिक आए हैं। आगे भी आएंगे। महंगाई के सूचकांक के अनुपात और मुकाबिले में चंदाखोरी और निजाम का प्रशस्तिगायन बढता रहेगा। हर देश में अंधकार का युग आता है। भारत में मिथकों के काल से बार-बार आता रहा है। तभी तो दशावतार की परिकल्पना की गई। हर सत्ता सम्राट को हमारे महान विचारकों ने ही राक्षस कहा है। जिनकी छाती से जनसेवा के लिए देवत्व फूटा, वही समाज उद्धारक बना। यह भारतीय किसानों की छाती है जिससे भविष्य का जनसमर्थक इतिहास कभी न कभी फूटने वाला है। मिथकों के युग के बाद भी पस्त भारतीय जनता ने विदेशी हमले झेले हैं। कुषाण, हूण, पठान, तुर्क, मुसलमान, मुगल, अंग्रेज, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और बाद में चीनी हमले देष ने झेले हैं। सल्तनतों की गुलामी की है। तब जाकर गांधी की अहिंसा और सत्य, अभय, भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद की षहादत और सुभाष बोस के पराक्रम तथा भारत के तमाम संतों और बुद्धिजीवियों द्वारा ‘उठो जागो और मकसद हासिल करो’, ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, ‘जय जवान जय किसान’, ‘दिल्ली चलो’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’, ‘आजादी की घास गुलामी के घी से बेहतर,’ ‘किसानों, मजदूरों, विद्यार्थियों एक हो’, ‘आराम हराम है’ जैसे नारों ने भारत की मर्दानगी का इतिहास लिखा। ये सभी नारे जिन जिस्मों और आत्माओं से फूटे और उनके खून में जो रवानी थी, उसके लिए अनाज किसानों ने अपने खून-पसीने से धरती सींचकर पैदा किया था। किसान आंदोलन दीवाली या अन्य किसी त्यौहार पर फूटने वाला पटाखा या फुलझड़ी नहीं रहा है। यह भारतीय आत्मा की निरंतरता और प्रवाहमयता का पड़ाव रहा है। यह अनथक काल यात्रा तो चलती रहेगी, जब तक किसान जीवित हैं। उनमें जिजीविषा, जिद और जिरह है। मौजूदा किसान आन्दोलन न तो पहली धडक़न है और न ही अंतिम। इसमें हार जीत नहीं है। सरकारों, प्रतिहिंसकों, पुलिस सेना, अंधभक्तों, दलालों, कॉरपोरेटियों और हर तरह की अहंकारी शक्तियों के जमावड़ेे को जनता की आवाज का यह एक प्रतिनिधि ऐलान है। इस आवाज को कुचल दिए जाने के बाद भी इसका फिर आगाज इतिहास में आगे चलकर दर्ज होता रहेगा। नौजवान छात्रों, महिलाओं, दलितों, वंचितों और किसानों द्वारा आजादी का नारा लगाते आंदोलन करना देश की धडक़न को जिलाए रखने का एक प्रोत्साहन है।
गांधी की अहिंसा पर बार बार लौटते कुछ बुनियादी बातों को समझना होगा। गांधी ने कभी नहीं कहा कि अहिंसा उनका अकेला हथियार है। उन्होंने अपनी किताब का नाम अहिंसा के साथ मेरे प्रयोग नहीं लिखा। उसे ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ कहा था। कभी नहीं कहा कि कायरता और अहिंसा जुड़वा बहनें हैं। कहा था सत्य और अहिंसा में अगर छोडऩा पड़े तो सत्य को नहीं छोडंूगा। अहिंसा को छोड़ दूंगा। कहा था अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है। वह आत्मा के बहादुरों का हथियार है। कहा था मैं अंग्रेजी सरकार की जनता विरोधी उन रपटों पर भरोसा नहीं करता जो कहती हैं कि जनता ने हिंसात्मक कारगुजारी की है। कहा था गांधी ने कि जनता खुद जांचेगी कि जनता ने या उसके बीच घुसे हुए सत्ता के एजेंटों ने कितनी और कौन सी हिंसा की है। कहा था कि अगर हर मजबूरी के चलते अहिंसा साथ नहीं दे रही है, तो जनता के हक में जनकल्याणकारी फैसलों के लिए हिंसा का आनुपातिक, यथार्थपरक और वांछितता के साथ सहारा लिया जा सकता है। इसी विचार को भारतीय प्राचीन मनीषा में धर्म के साथ आपद् धर्म कहा गया है। यही विचार है जिसे लेकर विवेकानन्द ने अंग्रेजी सल्तनत के खिलाफ बगावत करने के लिए क्रांतिकारी टुकड़ी का गठन किया था और अमेरिकी षस्त्र निर्माता हेराम मैक्सिम से हथियारों की खरीदी की सहायता की मांग की थी। यही वह शोला है जो भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद में दहका था। भगतसिंह ने कहा था मैं हिंसक नहीं हूं। मैं जनता में अहिंसा लेकिन साहसी इंकलाब का बीज बोना चाहता हूं। यह इतिहास को दुख है कि भगतसिंह की बौद्धिक तीक्ष्णता गांधी संयोगवश पढ़ नहीं पाए। यही वह अग्नि है जो लाखों नाामालूम किसानों और करोड़ों देशवासियों में कहीं न कहीं सुलग तो रही है। भले ही उस पर सफेद राख उसके बुझ जाने का छद्म रच रही हो। जो लोग पंचमांगी, सांप्रदायिक, पूंजीपरस्त, देष के दुश्मन और गरीब के रक्तशोषक हैं, वे नहीं जानते पंजाब की पांचों नदियों में केवल हिमालय का ठंडा पानी नहीं गुरुनानक से लेकर भगतसिंह, ऊधमसिंह, करतार सिंह सराभा और बाद की पीढ़ी का भी गरमागरम लहू बहता रहा है। यह देश गुलामों, पस्तहिम्मतों, बुद्धि-शत्रुओं, नादानों, बहके हुए लोगों और आवारा बनाई जा रही पीढिय़ों का मोहताज नहीं है। बहादुर तो कम ही होते हैं। बुद्धिजीवी भी कम होते हैं। विचारक तो और कम होते हैं। सच्चे साधु-संत और भी कम लेकिन वे ही तो मनुष्यता के विकास के अणु और परमाणु होते हैं। भारत अभी मरा नहीं है। कभी नहीं मरेगा। अमर है। भारत की सदियों में महान संतों और ऋषिमुनियों ने अपनी कुर्बानियों के जरिए मजबूत कालजयी संदेश दिया है। यह अलग बात है कि सत्तामूलक मानसिक बीमारों द्वारा प्रिंट, इलेक्ट्रॅानिक और सोशल मीडिया पर चीन के युवान शहर की तरह की उपजी कोई दूसरी वैचारिक महामारी कोविड 19 की जगह कोविड 21 की तरह कॉरपोरेट और निजाम की ताकत के बल पर फैलाई जा रही है। माहौल और इतिहास को प्रदूषित किया जा रहा है। अतीत को पढऩे की नजर पर भी रंगीन चश्मा चढ़ाया जा रहा है। लोग बहक रहे हैं। डरपोक हो गए लोग सरकारों से डरते हैं। ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह भारत में यूरो अमेरिकी गुलामी का वेस्ट इंडिया बनाने की सरकारी कोशिश है। इसलिए भारतीय नामों के बदले हमें ‘मेक इन इंडिया‘, ‘स्मार्ट इंडिया‘, ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बुलेट टेऊन’, ‘स्टार्ट अप’, ‘अर्बन नक्सल’, ‘टुकड़े टुकड़ै गैंग’ जैसे विस्फोटक ककहरे पढ़ाए जा रहे हैं। कोरोना से लडऩे की अपनी दुर्बुद्धि और नाकामी छिपाने के लिए लोगों से तालियां, थालियां बजवाई जा रही हैं। दिए, मोमबत्ती और टॉर्च जलवाए जा रहे हैं। आसमान से हवाई जहाजों पर बैठकर उन पर भी फूल बरसाए जा रहे हैं जिनके परिवार हुक्मरानों के अत्याचार के कारण तरह तरह से पीडि़त हैं। विज्ञान के दम पर संवैधानिक यात्रा करने वाले देष को बताया जा रहा है कि बादलों में राडार छिप जाते हैं और तब उस पर सर्जिकल स्ट्राइक करने से पडोसी देष को पता तक नहीं चलता। जनता को सच नहीं बताया जाता। नक्षे जारी नहीं होते। गुलाम मीडिया का कैमरा नहीं पहुंचता कि चीन हमारे देश में घुसकर धरती नाप रहा है। गांव बसा चुका है। जनता को बताया जाता है कि चीनी वस्तुओं का इस्तेमाल नहीं करें, लेकिन खुद सरकार इसके बावजूद चीन से करार करती जा रही है। सरकार के कॉरपोरेटी नयनतारे का सरकार के कॉरपोरेटी नयनतारे कॉरपोरेटी चीन के साथ समझौते में हैं। पाकिस्तान के साथ भी हैं जबकि हर देशभक्त भारतीय पर पाकिस्तानी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है। दोहरे आचरण में जिलाया जा रहा भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे अभिशप्त उदाहरण बनाया जा रहा है।
फिर गांधी की याद आती है। कहा था गांधी ने पष्चिमी सभ्यता चूहे की तरह फूंककर काटती है। यह भी कहा था कि पशिचमी सभ्यता तपेदिक की लाली की तरह है जिसके विश्वास में बीमार बहता चला जाता है। आज भी तो यही हो रहा है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के लिए खरीदा गया कोई पांच हजार करोड़ रुपयों के हवाई जहाज क्या भारतीय किसानों के आंदोलन का जवाब हैं? क्या नए संसद भवन को बनाए जाने की जरूरत भी है, उस गांधी के अनुसार जिसकी मुद्रा में बैठकर चरखा पकडक़र फोटो खिंचवाने वाले सदरे रियासत को यह मालूूम नहीं है कि गांधी ने कहा था कि अंगरेज वॉयसराय या प्रधानसेनापति या तमाम अफसरों की कोठियों को अस्पतालों और जनोपयोगी संस्थाओं में बदल दिया जाए? प्रधानमंत्री से लेकर सभी सरकारी सेवक छोटे मकानों में रहें। साठ वर्ष से ऊपर के नेताओं को चुनाव लडऩे की पात्रता नहीं होनी चाहिए। कोई भक्त बताएगा मौजूदा राष्ट्रपति के भवन में कितने कमरे हैं? यह गलती तो 1947 के बाद लगातार सभी सरकारों ने की है। किसी को बख्षा नहीं जा सकता। लेकिन तब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अपने कपड़ों के लिए चरखे पर बैठकर खादी का सूत बुनते थे। वे दस लाख का सूट नहीं पहनते थे। काजू के आटे की रोटी नहीं खाते थे। महंगे मशरूम की सब्जी नहीं खाते थे। वे जनता के खर्च पर विष्व यात्राएं कर सकते थे लेकिन उन्होंने यह सब कुछ मौजूदा प्रधानमंत्री के लिए छोड़ दिया? सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाने का दम्भ करने वाले नहीं बताते अपने समर्थकों को कि गांधी तक की हिम्मत असमंजस में थी।
तब बारदोली के किसान सत्याग्रह के नायक बनकर सरदार पटेल ने भारत को रोमांचित किया था। क्यों नहीं जानते कि राजकुमार शुक्ला जैसा चम्पारन मोतिहारी का नामालूम किसान नहीं होता, तो गांधी तो चम्पारन के नायक के रूप में इतिहास की गुमनामी में जाने कब तक पड़े रहते। उसी बिहार में उत्तर भारत से चलकर आने वाले हजारों लाखों गरीबों, मजलूमों को मरते देखकर भी छाती में करुणा नहीं पिघलती। अपनी जीत का अंदाज होने पर शिव गुफा में बैठकर फोटो खिंचाते दुनिया के सामने नाटक प्रपंच करने पड़ते हैं। किसान अपनी मेहनत के दम पर कपड़े पहनता है। बीवियों के लिए गहने बनवाता है। बच्चों की तालीम, मां बाप के इलाज के लिए विदेश भी भेज सकता है। वह धरती की छाती फोडक़र एक साथ मुल्क में इंसानियत, भाईचारा, अमन चैन और आर्थिक रिश्तों को भी उगाता है। वह दलाली नहीं खाता। वह प्रधानमंत्री कार्यालय में घुसकर पहले से पुलवामा रचने की साजिशों से वाफिक नहीं होता। उसे ही ‘जय जवान जय किसान’ और ‘जय इंसान’ का नारा सार्थक करना है। वह सियासी चौपड़ में साजिषी षतरंज खेलने की ट्रेनिंग अपनी परांपराओं, मान्यताओं और चरित्र से नहीं ले पाया है। कहा था चर्चिल ने पीछे हटने पर कि हम लड़ाई हारे हैं, लेकिन युद्ध नहीं हारे हैं। कहा था गौतम बुद्ध ने बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर यह मेरी सात्विक जिद है कि जब तक परम ज्ञान को प्राप्त नहीं कर लूंगा, यहां से नहीं हटूंगा। कहा था गांधी ने अफ्रीका में पीटर मेरिट्सबर्ग के स्टेशन पर अंग्रेज सार्जेेट द्वारा सामान की तरह फेक दिया जाने पर अपनी आंखों के मौन में कि याद रखना मैं एक दिन दक्षिण अफ्रीका को आजाद करने के वास्ते अहिंसक अणुबम बनाकर दिखाऊंगा और हिंदुस्तान को उसके भविष्य के कैलेण्डर में 15 अगस्त 1947 का दिन टांक कर तोहफा दूंगा। जो लोग हिंदुस्तान के किसान आंदोलन में सेंधमारी कर रहे हैं, वैसा काम तो चूहे और दीमक ज़्यादा अच्छी तरह करते हैं। धरती पर सबसे ज़्यादा आर्थिक नुकसान चूहे करते हैं और वह भी किसान का सबसे ज़्यादा। धरती पर जीवित दीमकों का कुल वजन धरती पर जीवित इंसानों के कुल वजन से ज़्यादा है। कोई विज्ञान वह भी नहीं, (जो कोरोना वैक्सीन बनाने का ऐलान कर रहा, जो कैंसर को हराने की कोशिश कर रहा, वह भी नहीं जिसने गॉड पार्टिकल देखने का दावा किया है) कि वह संसार के सभी दीमकों को मारने की कोई वैक्सीन या जुगत खोज पाया है। हर जन आंदोलन को कुचलने के लिए चूहे और दीमक तो जिंदा रहेंगे। उन्हें चुनौतियों की तरह लेगा होगा। वे मरेंगे नहीं लेकिन बार-बार मारे जाएंगे। पराजित किए जाएंगे। मिथक है कि परशुराम ने कई बार धरती से क्षत्रियों का समूल नाश किया लेकिन क्या हुआ? इसलिए इतिहास और भविष्य गाल बजाने वालों के नहीं होते। वीर मर जाएंगे तो गीत गाने वाले कवि भी मर जाएंगे। ये समाजचेता कवि भी हैं, जो इतिहास में चरित्र और इंसान बनाते हैं। वाल्मीकि नहीं होते, वेदव्यास नहीं होते, कबीरदास नहीं होते तो चरित नायकों के गुण और इंसानियत की फसल के रिश्ते को कौन ठीकठाक बिठाता। किसान आंदोलन का जो भी हश्र हो, वह हौसला कभी नहीं मरेगा। गांधी कभी नहीं मरेगा। इंसानियत कभी नहीं मरेगी। सरकारें रहेंगी। हुक्काम रहेंगे लेकिन उनकी जिंदगी तो समय की किश्तों में चलती है। वे पांच पांच साल तक अपनी अगली जिंदगी मांगने के लिए जिन दहलीजों पर आएंगे। उनमें सबसे ज्यादा संख्या तो किसानों की है। भारत के निजाम देष की सारी नदियां जोडऩा चाहते रहे हैं। रेल की पटरी को कहीं से भी छू लें तो लगता है पूरे भारत से जुड़ गए। यदि पूरे देश के किसान किसी तरह से जुड़े होते। एकजुट होते तो यह आंदोलन इतने दिन चलने की जरूरत नहीं होती। इसलिए किसान को सभी सरकारों द्वारा जानबूझकर बदहाल रखा गया है। किसान को कॉरपोरेट की गुलामी कराने पूंजीवादी षडय़ंत्र रचा गया है। वह साजिश, अट्टहास, बदगुमानी और अहंकार के कानून की इबारत में भी गूंज रहे हैं। किसान ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों के जरिए उसे देख, सुन और सूंघ लिया है। कॉरपोरेट और निजाम के नापाक गठजोड़ को तार तार कर दिया गया है। यही वह दुरभिसंधि है जिसे सुप्रीम कोर्ट को बाबा साहेब अंबेडकर की अगुवाई वाले संविधान द्वारा दी गई असाधारण संविधान षक्तियों की समझ में विस्तारित, व्याख्यायित और व्यक्त करना चाहिए था। कर्तव्यबोध के प्रति उदासीनता भी न्यायपालिका को सालती रहेगी।
-कमलेश
इस दौरे में इमरान ख़ान की श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के साथ बैठक होनी है. इसके अलावा वो निवेशकों के एक सम्मेलन में भी शरीक होंगे.
इमरान ख़ान की ये यात्रा तभी चर्चा में आ गई थी जब श्रीलंका ने इमरान ख़ान के संसद में संबोधन को रद्द कर दिया था.
संबोधन रद्द करने की वजह भारत को भी बताया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इमरान ख़ान श्रीलंका की संसद में कश्मीर का मुद्दा उठा सकते थे और यह दिल्ली को नाराज़ करने के लिए काफ़ी होता. हालांकि, श्रीलंका का कहना है कि ऐसा कोविड-19 के कारण किया गया है.
इमरान ख़ान का भाषण रद्द होने की एक वजह यह भी बताई जा रही है कि वो श्रीलंका की संसद में वहां के मुसलमानों के अधिकारों को लेकर कुछ बोल सकते थे.
किसी दूसरे देश की संसद में संबोधन को सम्मान की बात समझा जाता है. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2015 में श्रीलंका की संसद को संबोधित किया था.
श्रीलंका सरकार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को भी यही सम्मान देने वाली थी जो दोनों देशों के संबंधों की एक झलक दिखाता है.
मौजूदा दौरा इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि भारत और चीन के लिए श्रीलंका रणनीतिक रूप से काफी अहम है. वहीं, चीन और पाकिस्तान की दोस्ती भारत के लिए चुनौती बनी हुई है.
लेकिन, विदेशी यात्राओं से बनने वाले समीकरणों को जानने से पहले देखते हैं कि श्रीलंका-पाकिस्तान के रिश्ते कैसे हैं.
बहुत पुराने और गहरे रिश्ते
सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) क्षेत्र में पाकिस्तान श्रीलंका का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. श्रीलंका पहला ऐसा देश है जिसने पाकिस्तान के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है.
ये समझौता साल 2005 हुआ था जिसके बाद से दोनों देशों के बीच व्यापारिक में और वृद्धि हुई है.
पाकिस्तान में श्रीलंका के वाणिज्य दूतावास के मुताबिक दोनों देशों के बीच साल 2005 में 15 करोड़ 80 लाख डॉलर का व्यापार होता था जो 2018 में बढ़कर 50 करोड़ 80 लाख डॉलर तक पहुंच गया. हालांकि, व्यापार संतुलन की बात करें तो वो हमेशा पाकिस्तान के पक्ष में रहा है. श्रीलंका के मुकाबले पाकिस्तान का निर्यात ज़्यादा रहा है.
श्रीलंका से पाकिस्तान को निर्यात होने वाले सामानों में सूखा नारियल, एमडीएफ बोर्ड, सुपारी, थोक में चाय, कपड़ा, औद्योगिक और सर्जिकल दस्ताने, क्रेप और शीट रबर, डिब्बे, बक्से, बैग, नारियल तेल, बुने हुए कपड़े और पशु चारा शामिल हैं.
इसमें खासतौर पर सुपारी हाल ही में चर्चा में रही है. भारत के साथ टकराव के चलते पाकिस्तान में भारत से सुपारी का निर्यात बाधित हो गया है. पाकिस्तान में सुपारी की आपूर्ति अब श्रीलंका से होती है.
श्रीलंका पाकिस्तान में चाय का निर्यात भी बढ़ाना चाहता है लेकिन पाकिस्तान के चाय बाज़ार में ज़्यादातर केन्या का कब्ज़ा है.
श्रीलंका के वाणिज्य दूतावास की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1984 तक श्रीलंका पाकिस्तान में चाय का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता रहा था लेकिन ये धीरे-धीरे कम हो गया. पाकिस्तान में जिस तरह की चाय इस्तेमाल होती है चीन उस तरह की सिर्फ़ 10 प्रतिशत चाय का ही उत्पादन करता है.
पाकिस्तान से श्रीलंका को निर्यात होने वाले सामानों में पोर्टलैंड सीमेंट, मेडीसिमेंट, आलू, बुने हुए कपड़े, पाइप और ट्यूब, बेड टेबल किचन टॉयलेट लिनन, चावल, डेनिम फैब्रिक, मछली आदि सामान शामिल हैं.
दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय निवेश बहुत मध्यम स्तर पर है. वर्तमान में श्रीलंका में पाकिस्तान के निवेशक केमिकल, रबड़, प्लास्टिक, वस्त्र निर्माण, चमड़ा उत्पाद, खाद्य और पेय पदार्थ आदि क्षेत्रों में कुछ परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं.
सैन्य संबंधों में नज़दीकी
पाकिस्तान और श्रीलंका के सैन्य संबंधों की बात करें तो ये लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (एलटीटीई) से युद्ध के दौरान और मज़बूत हो गए थे. तब एलटीटीई से मुक़ाबले के लिए पाकिस्तान ने श्रीलंका को हथियार उपलब्ध कराए थे.
1971 के दौर में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान में संघर्ष के बीच भारत ने अपने हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था. जब श्रीलंका ने पश्चिमी पाकिस्तान को हवाई क्षेत्र उपलब्ध कराया था.
पाकिस्तान श्रीलंका को छोटे हथियारों का मुख्य आपूर्तिकर्ता भी रहा है. साथ ही दोनों देशों की सेनाएं संयुक्त अभ्यास भी करती रही हैं.
हालांकि, मार्च 2009 में लाहौर में एक टेस्ट मैच के दौरान श्रीलंका की बस पर हुए चरमपंथी हमले के बाद कुछ खिलाड़ियों ने पाकिस्तान में खेलने से मना कर दिया था. क्रिकेट बोर्ड ने पाकिस्तान जाने का फैसला खिलाड़ियों पर ही छोड़ दिया था.
भारत-पाकिस्तान के बीच भूमिका
मुंबई में अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस की राष्ट्रीय संपादक और अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार निरुपमा सुब्रमण्यम बताती हैं कि पाकिस्तान और श्रीलंका के काफी गहरे रिश्ते रहे हैं.
वह कहती हैं, “पाकिस्तान और श्रीलंका के रिश्ते तब से हैं जब से श्रीलंका स्वतंत्र हुआ है. व्यापार, सैन्य, रक्षा और सांस्कृतिक हर स्तर पर अच्छे रिश्ते हैं. सैन्य रिश्ते तो और भी ज़्यादा मजबूत हैं. जैसे भारत और श्रीलंका के बीच रिश्ते हैं वैसे ही श्रीलंका और पाकिस्तान के कह सकते हैं.”
“एलटीटीई के ख़िलाफ़ भी पाकिस्तान ने श्रीलंका की हथियारों से लेकर मदद की थी. भारत की तरह ही पाकिस्तान में श्रीलंका की सेना का प्रशिक्षण होता है.”
हालांकि, निरुपमा सुब्रमण्यम कहती हैं कि भारत के मुक़ाबले ये बात अलग है कि श्रीलंका में आधारभूत ढांचे के विकास में पाकिस्तान की उतनी भूमिका नहीं रहती जितनी भारत की कोशिश रहती है. इस मामले में चीन और भारत आमने-सामने रहते हैं.
अगर पाकिस्तान और श्रीलंका के लोगों के बीच संबंधों की बात करें तो निरुपमा सुब्रमण्यम बताती हैं पाकिस्तान में श्रीलंका के लोगों का खुलकर स्वागत किया जाता है. श्रीलंकाई लोग कहते हैं कि उन्हें बहुत प्यार और सम्मान मिलता है.
भारत के लिए मायने
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का श्रीलंका दौरा सिर्फ़ भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में ही नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान-चीन के संदर्भ में भी देखा जा रहा है.
श्रीलंका के साथ संबंधों को लेकर भारत और चीन में उतार-चढ़ाव की स्थिति बनी रही है. कभी भारत तो कभी चीन के दखल की बातें सामने आती हैं.
इसी बीच चीन से पाकिस्तान की नज़दीकी भी किसी से छुपी नहीं है. ऐसे में इमरान ख़ान का दौरा भारत के लिए क्या नई चुनौती बन सकता है.
जेएनयू में दक्षिण एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर संजय भारद्वाज कहते हैं, “पूरे एशिया में संबंधों का पुनर्निधारण हो रहा है चाहे इस्लामिक दुनिया हो या दक्षिण पूर्वी देश. चीन आर्थिक और रणनीतिक कारणों से दूसरे देशों के साथ अपना समर्थन आधार तैयार कर रहा है. श्रीलंका और पाकिस्तान को भारत के संदर्भ में देखेंगे तो वो छोटे देश हैं और श्रीलंका में पाकिस्तान ऐसी कोई चुनौती भी नहीं है.”
“लेकिन, श्रीलंका में राजपक्षे भाइयों को चीन का करीबी माना जाता है. श्रीलंका के चुनावों से पहले भारत का समर्थन कहीं ना कहीं पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना को था. हाल ही में राजपक्षे सरकार ने ट्रेड यूनियनों के विरोध के बाद भारत के साथ ईस्ट कंटेनर टर्मिनल का करार रद्द कर दिया था.”
प्रोफेसर भारद्वाज बताते हैं कि श्रीलंका में जो भारत विरोधी घटक हैं उसे पाकिस्तान अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है. इसमें चीन भी एक फैक्टर है. चीन उन सब देशों को नज़दीक लेकर आ रहा है जो अमेरिका के करीब रहे हैं. साथ ही भारत की भी चिंताएं बढ़ाने की कोशिश की है ताकि वो पड़ोसी देशों के साथ समस्याएं सुलझाने में ही उलझा रहे और चीन पर आक्रामक ना हो पाए.
हालांकि, श्रीलंका सरकार को भी भारत की ज़रूरत है और इसे लेकर सकारात्मक संकेत भी मिले हैं. महिंदा राजपक्षे भारत यात्रा पर आ चुके हैं और भारतीय विदेश मंत्री राजपक्षे सरकार बनने के अगले ही दिन वहां बधाई देने पहुंच गए थे.
वह कहते हैं कि व्यापारिक और सैन्य संबंधों की बात करें तो वो सामान्य स्तर पर हैं. व्यापार में पाकिस्तान का निर्यात ज़्यादा है. ऐसे में इस यात्रा में व्यापार कोई बड़ा मुद्दा नहीं दिख रहा है.
कुछ मामलों पर चुप्पी
संजय भारद्वाज कहते हैं कि श्रीलंका में चर्च में हुए बम विस्फोट के बाद मुस्लिम समुदाय निशाने पर रहा है और देश में दंगे भी हुए हैं. राजपक्षे सिन्हला बौद्ध राष्ट्रवादी संगठन बोदू बाल सेना का समर्थन करते आए हैं जबकि अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय इसके निशाने पर रहा है. इसलिए मुस्लिम सहित दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय राजपक्षे सरकार में सहज अनुभव नहीं करते हैं.
ऐसे में इस्लाम और मुसलमानों का मुद्दा बार-बार उठकर आता है. इस मसले पर पाकिस्तान और श्रीलंका खुलकर समर्थन या विरोध में सामने नहीं आते. पाकिस्तानी पीएम कभी श्रीलंका में मुस्लिमों की स्थिति पर बयान नहीं देते. लेकिन, पाकिस्तान इसे पूरी तरह नज़रअंदाज भी नहीं कर सकता क्योंकि वो मुस्लिम जगत का नेता दिखना चाहता है और श्रीलंका से चीन जैसा कोई कर्ज़ भी नहीं है. ऐसे में इसे दौरे से कोई ठोस नतीजे आने मुश्किल हैं.
वहीं, निरुपमान सुब्रमण्यम मानती हैं कि इमरान खान का ये दौरा विदेशी संबंधों को बेहतर करने की कोशिश है. जब से वो प्रधानमंत्री बने हैं उन्होंने दूसरे देशों के बहुत कम दौरे किए हैं. बीच में कोविड भी एक बड़ी रुकावट बन गया.
उनके मुताबिक श्रीलंका भारत और पाकिस्तान से संबंधों को संतुलित करना जानता है. वहीं, भारत पाकिस्तान को श्रीलंका में कोई प्रतिस्पर्धी भी नहीं मानता. इसलिए भारत पर इस बात से खास फर्क नहीं पड़ता कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री श्रीलंका की यात्रा पर जा रहे हैं क्योंकि प्रधानमंत्री दूसरे देशों का दौरा करते रहते हैं. (bbc.com)
-महेन्द्र पांडे
यह खबर हमारे देश के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे देश के नेता महिलाओं पर लगातार भद्दे, अश्लील और ओछे वक्तव्य देते रहते हैं, कई तो रेप की धमकी भी देते हैं, पर हमारा समाज किसी भी नेता से इस्तीफा नहीं मांगता और ना ही सरकार कोई कदम उठाती है।
जापान में आयोजित किये जाने वाले टोक्यो ओलंपिक्स को एक के बाद एक झटके लग रहे हैं। सबसे पहले इसे कोविड 19 के कारण एक वर्ष आगे बढ़ाना पड़ा और अभी भी यह पूरी तरीके से निश्चित नहीं है कि यह आयोजन इस वर्ष भी होगा या नहीं। लगभग 80 प्रतिशत जापानी नागरिक कोरोना महामारी के संदर्भ में इसे सुपर-स्प्रेडर इवेंट मानते हैं और इसके आयोजन के पक्ष में नहीं हैं। हाल में रायटर्स द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार जापान की लगभग दो-तिहाई कंपनियां इस वर्ष ओलंपिक खेलों के आयोजन के पक्ष में नहीं हैं और लगभग 88 प्रतिशत कंपनियां मानती हैं कि इन खेलों के आयोजन से जापान की अर्थव्यवस्था को कोई प्रभावी फायदा नहीं होगा।
टोक्यो ओलंपिक्स का आयोजन 2020 में किया जाना था, पर कोविड-19 के कारण यह आयोजन नहीं किया जा सका। ओलंपिक खेलों के 124 वर्षों के इतिहास में पहली बार ओलंपिक खेलों का आयोजन एक साल आगे बढ़ाना पड़ा और अब इस साल भी जापान के लोग इसका आयोजन नहीं कराना चाहते हैं।
पिछले सप्ताह के अंत मे इसकी आयोजन समिति के अध्यक्ष और जापान के भूतपूर्व राष्ट्रपति योशिरो मोरी को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा है। मोरी ने कुछ दिनों पहले ही एक मीटिंग के दौरान वक्तव्य दिया था, ‘महिलायें वाचाल होती हैं और मीटिंग में एक दूसरे से प्रतिद्वंदिता करती हैं। मीटिंग में यदि एक महिला कुछ कहने के लिए खड़ी होती है, तो निश्चय ही सभी महिलाओं को कुछ ना कुछ कहना होता है, इससे मीटिंग का समय बर्बाद होता है।’
मोरी के इस वक्तव्य के बाद उनका चौतरफा विरोध किया जाने लगा था,जिसके चलते पहले तो उन्होंने माफी मांगी पर इस्तीफे की मांग को ठुकरा दिया। बाद में इन्टरनेशनल ओलंपिक कमिटी और जापान सरकार के दबाव के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। योशिरो के वक्तव्य के बाद से विरोध स्वरुप ओलंपिक खेलों के लिए पंजीकृत लगभग 500 वालंटियर्स ने भी अपने नाम वापस ले लिए हैं।
यह खबर हमारे देश के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे देश के नेता महिलाओं पर लगातार भद्दे, अश्लील और ओछे वक्तव्य देते रहते हैं, कई तो रेप की धमकी भी देते हैं, पर हमारा समाज किसी भी नेता से इस्तीफा नहीं मांगता और ना ही सरकार कोई कदम उठाती है। इन भद्दी और हिंसक टिप्पणियों को समाज स्वीकार कर चुका है और महिलाएं अपनी नियति मान बैठी हैं। देश की वर्तमान सरकार के समर्थक तो महिलाओं पर हिंसा और रेप की बात राष्ट्रभाषा जैसा करने लगे हैं। पिछले वर्ष के जेंडर गैप इंडेक्स में कुल 153 देशों में भारत 112वें स्थान पर था। जापान इससे भी नीचे यानी 121वें स्थान पर है। इसके बाद भी जापान में एक अध्यक्ष को केवल इसलिए इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि उसने महिलाओं पर कोई अश्लील टिप्पणी नहीं की थी, बल्कि वाचाल कह दिया था। क्या हमारे देश की जनता और सरकार महिलाओं की इतनी इज्जत कर पाएगी?
जापान में योशिरो मोरी, टोक्यो ओलंपिक के लिए स्थापित ओलंपिक आयोजन समिति के आरंभ से अब तक अध्यक्ष रह थे और अब तक यही माना जा रहा था कि यदि उन्होंने अपना पद छोड़ा तो नए अध्यक्ष के लिए यह आयोजन सुचारू तरीके से करना कठिन होगा, फिर भी उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। जापान सरकार मोरी के बयान के बाद वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता के क्षेत्र में बदनामी से बचने के लिए किसी महिला को अगला अध्यक्ष पद देना चाहती थी।
इसी कड़ी में जापान की ओलंपिक मंत्री और भूतपूर्व ओलंपियन सिको हाशिमोतो को टोक्यो ओलंपिक आयोजन समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। हाशिमोतो स्पीड स्केटर के तौर पर चार शीत ओलंपिक खेलों में हिस्सा ले चुकी हैं और एक कांस्य पदक भी जीता है। उन्होंने ट्रैक साइक्लिस्ट की हैसियत से तीन ग्रीष्म ओलंपिक में भी हिस्सा लिया है। वे प्रधानमंत्री योशिहिदा सुगा के मंत्रिमंडल की मात्र दो महिला मंत्रियों में से एक हैं।
टेनिस के ग्रैंड स्लैम, ऑस्ट्रेलियन ओपन में सेरेना विलियम्स को सेमीफाइनल में हराने के बाद जापानी टेनिस स्टार नाओमी ओसाका ने सिको हाशिमोतो को ओलंपिक कमेटी का अध्यक्ष बनाने पर कहा की यह सही में बहुत खुशी की बात है और लैंगिक समानता का उदाहरण भी। ओसाका ने आगे कहा की महिलाओं को लगभग हरेक क्षेत्र में बहुत युद्ध केवल मर्दों से बराबरी के लिए लडऩे पड़ते हैं, यह एक जीत है पर बहुत सारे क्षेत्रों में अभी भी समानता बहुत दूर है। सिको हाशिमोतो को अध्यक्ष नियुक्त करने के बाद कमेटी ने कहा की उन्हें उम्मीद है की लैंगिक समानता और विविधता के आदर्शों को इन खेलों में पूरी तरह से अपनाया जाएगा। इन्टरनेशनल ओलंपिक कमेटी के चेयरमैन थॉमस बाश ने भी इस खबर पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि लैंगिक समानता का यह एक आदर्श उदाहरण है।
योशिरो मोरी ने यह कारनामा ऐसे समय किया, जब टोक्यो ओलंपिक में लैंगिक समानता और विकलांग खिलाडिय़ों के प्रोत्साहन की बात की जा रही थी और इससे जुड़ी हरेक कमेटी में महिलाओं की संख्या बढाने पर जोर दिया जा रहा था। इस समय टोक्यो ओलंपिक्स आयोजन समिति के कुल 25 सदस्यों में से मात्र 7 सदस्य महिलाएं हैं। जापान के विपक्षी सांसद रेन्हो ने मोरी के वक्तव्य पर कहा कि उनका वक्तव्य ओलंपिक की विचारधारा के ठीक उल्टा है, क्योंकि इन खेलों में लगातार बराबरी और एकता की बात की जाती है। आयोजन समिति की एक सदस्य, कोरी यामागुची ने भी अपने अध्यक्ष के वक्तव्य की भत्र्सना करते हुए कहा था कि अध्यक्ष का यह वक्तव्य दुर्भाग्यपूर्ण है।
मोरी के वक्तव्य के बाद से जापान में ट्विटर पर ‘मोरी प्लीज रिजाइन’ ट्रेंड करने लगा था। जुडो की चैम्पियन नोरिको मिज़ोगुची ने कहा कि ओलंपिक खेलों में महिलाओं के विरोध के किसी भी वक्तव्य का कोई स्थान नहीं है और इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए। युरिको कोइके, टोक्यो की गवर्नर हैं और वह पहली महिला गवर्नर भी हैं। इस वक्तव्य के बाद से और मोरी के इस्तीफा देने के बीच उन्होंने ओलंपिक खेलों के आयोजन से संबंधित सभी बैठकों का बहिष्कार किया था और कहा था कि मोरी का वक्तव्य जापान की सभी महिलाओं का अपमान है। इस वक्तव्य के बाद जापान के क्योदो न्यूज़ एजेंसी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में 60 प्रतिशत लोगों ने मोरी को अध्यक्ष पद के लिए अयोग्य करार दिया था। टेनिस खिलाड़ी नाओमी ओसाका ने मोरी के वक्तव्य पर कहा था कि यह उनकी अज्ञानता को दर्शाता है।
मोरी के वक्तव्य के बाद से जापान सरकार अपने देश में लैंगिक समानता का जोर-शोर से दिखावा करने लगी है, जो फूहड़ और हास्यास्पद भी है। वर्ष 1955 से अब तक लगभग लगातार सत्ता में रही लिबरल डेमोक्रेटिक फ्रंट के जनरल सेक्रेटरी तोशिहिरो निकाई ने हाल में ही एक अजीबो-गरीब फरमान जारी किया है- पार्टी से संबंधित सभी बैठकों में कम से कम 5 महिलाओं को अवश्य शामिल किया जाए, ये महिलाएं फोटो-सेशन में जरूर शामिल की जाएं, पर इन महिलाओं को बैठक में बोलने का अधिकार नहीं होगा।
हास्यास्पद यह है कि प्रधानमंत्री योशिहिदा सुगा ने भी इस वक्तव्य का बचाव करते हुए कहा है की महिलाएं बैठक में नहीं बोलेंगीं, पर अपनी बात बैठक के आयोजकों को लिखित तौर पर दे सकती हैं। जापान की आधी आबादी महिलाओं की है और सत्ताधारी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के प्राथमिक सदस्यों में लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं हैं,
पर संसद में महिला सदस्यों की संख्या महज 9.9 प्रतिशत है। विश्व में संसद में महिला सदस्यों की औसत संख्या 25.1 प्रतिशत है। जापान की सरकार में महज दो मंत्री महिलाएं थीं, पर सिको हाशिमोतो के ओलंपिक कमेटी का अध्यक्ष बनने पर उन्हें मंत्री पद छोडऩा पड़ा और अब पूरे मंत्रिमंडल में केवल एक महिला मंत्री हैं।
मोरी को महिलाओं पर दिए गए एक वक्तव्य पर इस्तीफा देना पड़ा, पर क्या भारत में जहां महिलाओं को देवी भी माना जाता है, किसी नेता को महिलाओं पर भद्दी टिप्पणी के कारण कभी इस्तीफा देने की नौबत आएगी? (navjivanindia.com)
-मनोज खरे
हिंदू धर्म और हिंदुओं को लंबे समय से खतरे में बताया जा रहा है। तो जरूरी है कि हम पहले इस बात की पड़ताल करें कि हिंदुओं को असली नुकसान पहुंचाने वाले ऐसे आंतरिक कारक कौन से जिन्होंने हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज को लगातार नुकसान पहुंचाया है और कमजोर किया है। ऐसे तमाम कारक हमारे अंदर मौजूद हैं जिनमें से चार सबसे प्रमुख हैं।
पहला कारक जो सभी अच्छी तरह से जानते हैं जाति प्रथा है। जाति प्रथा समाज की एकता और समरसता में स्मरणातीत काल से बड़ी बाधा बनी हुई है। समाज के बड़े हिस्से पर यह कैसे अमानवीय और अत्याचार का कारण रही है, यह बताने की जरूरत नहीं है। इसके कारण अधिकाधिक लोग हिन्दू धर्म छोड़ कर दूसरे धर्म अपनाने के लिए प्रेरित हुए। प्रारम्भ में अपनी आर्थिक संपन्नता के बावजूद सामाजिक स्थिति से असंतुष्ट वणिक समुदाय बौद्ध और जैन धर्म अपनाने को आकृष्ट हुआ। इस्लाम आने के बाद हिंदुओं के मिस्त्री, कारीगर और बुनकर वर्ग की जातियों ने बड़ी संख्या ने इस्लाम धर्म में धर्मांतरण किया। इसी तरह ईसाई धर्म को अपनाने वालों में भी हिन्दू धर्म की दबाई-कुचली जातियों, दलित और आदिवासी की बड़ी संख्या रही। जाति प्रथा के कारण राज्य की रक्षा का भार क्षत्रिय जाति के कंधे पर रहा जिसके कारण विदेशी हमलों का सामना समाज एकजुट होकर नहीं कर पाया। लोकतंत्र में वोटों की राजनीति में भी जाति प्रथा आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के रूप एक अलोकतांत्रिक उपकरण बन गई है।
दूसरा कारक, जिसने हिंदुओं को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया, पुनर्जन्म का सिद्धांत है। पुनर्जन्म में विश्वास ने समाज को असाधारण रूप से संघर्षहीन, समझौतापरस्त, भाग्यवादी और सहनशील बनाकर रखा है। लोग हर तरह के अन्याय, अत्याचार और दुश्वारियों को पिछले जन्म के कर्मों का फल मानकर भुगतते रहे। एक समाज के रूप में अन्याय से लडऩे की प्रवृत्ति बहुत कमजोर रही। 'कोऊ नृप होय, हमें का हानि' जैसी भावना का उदय भी समाज में इसी का प्रतिफल था। आज इसी का परिणाम है कि दुनिया में जैसा भाग्यवाद भारत में विद्यमान है शायद ही दुनिया में कहीं और हो।
तीसरा कारक है अवतारवाद। जब दुनिया में अनर्थ-अत्याचार बढ़ता जाएगा तो एकदिन कोई अवतारी पुरुष आएगा सब अत्याचार-अन्याय खत्म कर देगा। इस विश्वास में लोग अकर्मण्य हो अवतार, त्राता या तारणहार की प्रतीक्षा में ही बैठे रहते हैं। इसी चक्कर में बहुतेरे बाबा और नेता मसीहा का रूप धर जनता को उल्लू बना कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने का मौका पाते हैं। राजनीति में व्यक्तिपूजा के पीछे भी कहीं न कहीं यही धारणा काम करती है।
चौथा कारक सत्यनारायण व्रत कथा जैसी कहानियां हैं जिन्होंने हिंदू धर्म में ईश्वर की एक ऐसी अवधारणा विकसित की जो छोटी-छोटी बातों में नाराज हो जाता है और अपने भक्तों को दंड देने लगता है। क्षणे रुष्ट: क्षणे तुष्ट:। सत्यनारायण को प्रतिशोधनारायण बना दिया। भक्ति काल में हिन्दू ईश्वर प्रेम का स्वरूप था। भक्त और ईश्वर का सम्बंध प्रेमी-प्रेमिका जैसा था। पर आधुनिक युग तक आते-आते हमारे धार्मिक साहित्य ने ईश्वर का एक ऐसा रूप गढ़ दिया जो हमेशा अपने भक्त पर आंख गड़ाए यह देखता रहता है कि उसकी समुचित पूजा हो रही है या नहीं, लोग अपने बोल-बदना पूरे कर रहे हैं या नहीं। अगर नहीं तो ईश्वर परदेस से कमा कर लाए धन को 'लत्रं-पत्रं' में बदलने, शारीरिक व्याधि या काम-धंधा नष्ट करने जैसे दंड देने को तत्पर बैठा है। ईश्वर की ऐसी 'दंडाधिकारी' या दारोगा वाली अवधारणा ने हिंदुओं को अत्यंत धर्मभीरु समाज में बदल डाला जो दिनरात भगवान से डरा रहता है। हर काम करते वक्त वह सशंकित रहता है कहीं उसका काम ईश्वर को नाराज न कर दे।
ऐसे और भी कारक हो सकते हैं। पर ये चार मुख्य नजर आते हैं जो हिन्दू समाज की प्रगति में बाधक हैं। आधुनिक समाज में हिन्दू धर्म को इन्हीं आंतरिक तत्वों से ज्यादा खतरा है। तो लडऩा है तो हिन्दू धर्म के अंदर बैठे इन शत्रुओं से लडिय़े। इनमें जरूरी सुधार-परिष्कार करिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला अभी-अभी मास्को होकर आए हैं। कोविड के इस भयंकर माहौल में हमारे रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और विदेश सचिव को बार-बार रूस जाने की जरूरत क्यों पड़ रही है? ऐसा नहीं है कि किसी खास मसले को लेकर भारत और रूस के बीच कोई तनाव पैदा हो गया है या भारत-रूस व्यापार में कोई गंभीर उतार आ गया है। लेकिन ऐसे कई मुद्दे हैं, जिनकी वजह से दोनों मित्र-राष्ट्रों के बीच सतत संवाद जरूरी हो गया है। सबसे पहला मुद्दा तो यह है कि रूस से भारत जो एस—400 मिसाइल 5 बिलियन डॉलर में खरीद रहा है, उसे लेकर अमेरिका कोई प्रतिबंध तो नहीं लगा देगा। ट्रंप-प्रशासन के दौरान यह खतरा जरूर था लेकिन अब इसकी संभावना कम ही है। ये रूसी मिसाइल इस वक्त दुनिया के सबसे तेज मिसाइल हैं। दूसरा, कोरोना महामारी से निपटने में दोनों राष्ट्र परस्पर खूब सहयोग कर रहे हैं।
यों भी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन और मोदी अब तक 19 बार मिल चुके हैं। कोराना-काल में पिछले साल उनकी चार बार बात भी हुई है। तीसरा, मुद्दा है-भारत-प्रशांत का याने रूस को यह चिंता है कि प्रशांत महासागर क्षेत्र में भारत कहीं अमेरिका का मोहरा बनकर चीन और रूस के विरूद्ध मोर्चाबंदी तो नहीं कर रहा है ? इसके जवाब में श्रृंगला ने कहा है कि भारत किसी भी देश के विरुद्ध नहीं है। वह चेन्नई से व्लादिवस्तोक तक समुद्री गलियारा बनाने की भी तैयारी कर रहा है।चौथा, अफगानिस्तान के सवाल पर श्रृंगला ने कहा कि भारत को इस बात से कोई एतराज नहीं है कि रूस और पाकिस्तान के बीच सीधा संवाद चल रहा है। यदि यह संवाद अफगानिस्तान में शांति लाता है तो भारत इसका स्वागत करेगा लेकिन अफगानिस्तान पर वह किसी राष्ट्र के कब्जे को बर्दाश्त नहीं करेगा।
इधर भारत की चिंता यह है कि अफगानिस्तान के बहाने रूस-पाक फौजी-सहकार जोरों से बढ़ रहा है। अभी-अभी अफगानिस्तान पर रूस के विशेष दूत जमीर काबुलोव ने इस्लामाबाद-यात्रा की है। दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई तो यह है कि अफगान-समस्या को हल करने में भारत की भूमिका नगण्य है। भारत सरकार और भाजपा में ऐसा कोई नहीं है, जो अफगान-स्थिति को ठीक से जानता-समझता हो। वैसे भी हमारी सर्वज्ञ सरकार अपने बयानों की नौटंकी से ही खुश होती रहती है। दक्षिण एशिया के सबसे बड़े देश होने के नाते हमारी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है लेकिन अफगान-मामले में हम हाशिए में पड़े हुए हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्राण चड्ढा
बेमेतरा के गिधवा डेम के बाद बिलासपुर जिले के कोपरा डेम के किनारे पक्षी उत्सव का आयोजन किया गया। 21 फरवरी को जब कोपरा पक्षी उत्सव का आयोजन किया गया। उसके पहले प्रवासी पक्षी रुखसत हो चुके थे। वैसे भी इस के आसपास जो कुछ पारिस्थतिकी से खिलवाड़ हो रहा है, उस सब वजह कोपरा जलाशय के बजाय प्रवासी पक्षियों ने कोपरा के बजाय वहां से कोई सात किमी दूर गांव सकर्रा के करीब ‘वेटलैंड’ में पड़ाव डाला जिसे कुछ पक्षी प्रेमी ही जानते थे।
वन विभाग का ‘पक्षी प्रेम’ अब तक ‘उत्सव’ तक सिमटा नजर आया है। पक्षी विहार की स्थापना छतीसगढ़ में राज्योदय के बाद वाइल्ड लाइफ बोर्ड के मेंबर व देशबंधु रायपुर परिवार के प्रमुख ललित सुरजन ने की थी। पर कोई पक्षी विहार कैसे बनेगा या क्या जरूरी है। इसका ‘टूलकिट’ वन विभाग के कदाचित अब तक कोई ठोस काम नहीं किया, अगर किया होता तो ऐसे उत्सवों में धन का अपव्यय नहीं होता और कोई जमीनी काम दिखता।
पिछले कुछ साल के दौरान छत्तीसगढ़ के पक्षी प्रेमी फोटोग्राफरों ने प्रवासी परिन्दों के जो डॉक्यूमेंटेशन अपनी लगन वह मेहनत से किया उसके नतीजे से यह प्रतीत होता है कि छत्तीसगढ़ राज्य से पक्षियों का लगाव है। मगर उनकी आवश्कताओं को समझकर तालमेल से कोई काम नहीं हो रहा इसलिए वो बिखरे और डिस्टर्ब चल रहे हैं। यदि उनकी आवास स्थली और आसपास, मानव की दखलंदाजी बंद कर दी जाए तो और पक्षी यहां खुद उडक़र आएं।
पक्षियों के लिए उत्सव की जरूरत से अधिक उनका संरक्षण और वाइल्ड लाइफ एक्ट के तहत पोचर्स को दंडित करना है। इसके लिए जशपुर से राजनादगांव और ‘कोरिया से बस्तर’ तक पक्षियों के ठिकाने और वेटलैंड में पिछले पांच से दस साल में हर बरस आने वाले देसी विदेशी पक्षियों की संख्या उनकी सुरक्षा बन्दोबस्त जैसे इंतजाम और प्रबंधन की योजना बनानी होगी।
जैसे कोपरा जलाशय में पक्षियों की सुरक्षा प्रबंधन का काम कानन पेंडारी बिलासपुर के स्टाफ का हो, चाहे डेम सिंचाई विभाग का हो। इसी तरह बिलासपुर के घोंघा जलाशय की सुरक्षा व्यवस्था अचानकमार्ग टाइगर रिजर्व के बफर जोन का स्टाफ देखे। पूरे प्रदेश में पक्षियों की सुरक्षा, रहवास और उनके लिए मौसमी चारा उपलब्ध हो इसके लिए संभावित स्थलों में उनकी दीगर आवश्यकता के अनुरूप काम करना होगा।
पक्षियों के काम जानकर और ईमानदार जुनूनी स्टाफ की जरूरत होगी, जो लगन और मेहनत से सौंपे गए काम को अंजाम तक पहुंचा सके। यह दफ्तर के ऐसी चेंबर में ड्यूटी देने वाले अफसर के बूते का नहीं। इसके लिए देश के कुछ प्रख्यात पक्षी विहार और नेशनल पार्क का अध्य्यन किये जानकर को विभाग पदस्थ करें न कि नए ठेकेदारों की जमात को काम सौप देवें अथवा भाड़े का सलाहकार रख लेवें। सदा ध्यान में रहे कि हर सरकारी योजनाओं में लगने वाला धन जनता के खून-पसीने की पैदावार है। इसकी बन्दरबांट या उत्सव में फिजूल खर्च नहीं हो।