विचार / लेख
-चैतन्य नागर
भारत की आध्यात्मिक परंपरा में अक्सर दाढ़ी की लंबाई और लंबे चोंगे के साथ ज्ञान की गहराई का संबंध जोडक़र देखा जाता है। लंबे बेतरतीब बाल भी किसी आध्यात्मिक बाबा के ‘पहुंचे’ हुए होने लक्षणों में शामिल होते हैं।
आम तौर पर यह मत बहुत गहरा है कि दाढ़ी एक घोंसला है जिसमे विशेष तरह के ज्ञान की चिडिय़ा फुदकती रहती है. वैसे कुछ सम्प्रदायों और धर्मों ने चेहरे पर और सर पर उगे केश से पूर्ण मुक्ति को भी ज्ञान का सर्वोच्च प्रतीक मान रखा है।
या तो बाल-बाल ही बचे रहें, या बाल की खाल भी न रहे। ये दोनों बातें अलग-अलग मतों और सम्प्रदायों में प्रचलित हैं।
कुल मिला कर बाकी लोगों से अलग दिखना, ‘सांसारिक मोह-माया’, सजने-सँवरने जैसी तुच्छ चीजों से दूर रहने पर जोर देना ही इसका उद्देश्य होगा. नहीं क्या?
जिद्दू कृष्णमूर्ति को दुर्भाग्य से कुछ लोग आध्यात्मिक बाबा भी मान लेते हैं. भारत में तो ऐसा होगा ही, इस बात से पहले से ही सजग थे। ऐसे में उन्हीने क्लीन शेवन रहना ही पसन्द किया, नार्मल जीन्स, टी-शर्ट, जैकेट, या फिर भारत में पायजामे कुर्ते में दिखाई देते थे। अपने कपड़ों और रंग रूप के मामले में भी उन्होंने किसी परंपरा को नहीं माना। संगठित धर्मों को लेकर जो आंतरिक विद्रोह था वह वेश भूषा और चेहरे पर भी व्यक्त हुआ।
वैसे वह न्यू एज गुरु कहलाना भी पसन्द नहीं करते थे।
गुरु शब्द कृष्णमूर्ति के लिए वैसा ही था जैसा सांड के लिए लाल कपड़ा!