विचार / लेख
-मृगेन्द्र सिंह
गलवान घाटी में देश के 20 जवान शहीद हो गए। उनमें से एक जवान दीपक सिंह गहरवार रीवा जिले के फरेंदा गांव के रहने वाले थे। दीपक के बड़े भाई प्रकाश सिंह भी फौज में हैं। पिता गजराज सिंह किसान हैं। किसानी भी नाममात्र की महज एक एकड़ के लगभग ज़मीन है। पहले सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते थे और बाद में जब बड़े बेटे ने आर्मी ज्वाइन किया, उन्होंने गार्ड की नौकरी छोड़ दी। पूरे परिवार का काफ़ी संघर्षों में जीवन गुजरा। गजराज सिंह के दोनों बेटों ने खूब मेहनत की और आर्मी में चले गए। दीपक जब 6 माह के थे तभी मां छोड़ गयीं और दादी व पिता ने ही पालन पोषण किया। पिता ने बेटों के लिए जीवन समर्पित कर दिया और बेटे भी पिताजी के समर्पण पर समर्पित भाव से आगे बढ़ते गये।
कर्जा-कुर्जा पटा के अभी दो साल पहले पक्का मकान बना। मकान का काम अभी बाकी है जैसे सामने की छोड़कर बाहर की दीवारों की छपाई नहीं हुई है। घर के सामने कीचड़ था, लेकिन शहीद के घर मुख्यमंत्री को आना था इसलिए प्रशासन ने मिट्टी, मुरुम डलवाकर पाट दिया।
6 महीने पहले ही दीपक की शादी हुई थी। गरीब किसान गजराज सिंह के घर में जबको खुशहाली आना शुरू ही हुई थी कि बेटा मात्रभूमि की रक्षा में बलिदान हो गया। यह किसी बाप के लिए गर्व की बात है, पर बाप के कांधे पर बेटे का शव दु:ख के पहाड़ से कम नहीं है। जब से दीपक के शहीद होने की खबर लगी, उनके न आंसू छिप पाये न दु:ख। वह किसी से कुछ बात भी नहीं कर रहे थे। शुक्रवार को जब सेना के बड़े अफसर उनसे मिले तो वह सिर्फ हाथ जोड़कर खड़े रहे और सिर हिलाते रहे बस। ताबूत को जब खोला गया तो एक बाप जो मौन था वह बच्चों की तरह चीखकर फफक-फफक कर रोने लगा। उनको देखकर जो भी था सबकी आंखें नम हो गईं। परिवार का मुखिया ही बेसुध होकर इस तरह दु:ख में डूब जाये तब उस दु:ख की कल्पना नहीं की जा सकती।
लोगों से बात करने पर कोई सरकार से बदले की बात करता, कोई शहीद की मूर्ति या स्मारक, कोई शहीद के नाम पर अस्पताल या भवन की बात करता। लेकिन शहीद के पिता व भाई ने कुछ नहीं कहा। किसी और से कहा हो पता नहीं, पर उनके दु:ख देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक पिता को बेटा और एक भाई को भाई चाहिए। बूढ़ी दादी को पोता व पत्नी को पति।
खैर मुख्यमंत्री ने शहीद के परिजनों के लिए घोषणा की और घर पहुंचकर ढाढ़स भी बंधाया। गौर करने वाली बात यह है कि शहीद का पार्थिव शरीर रात में ही इलाहाबाद पहुंच गया था। इलाहाबाद से शहीद के गांव की दूरी लगभग अस्सी-नब्बे किमी के आसपास होगी। इसके बावजूद दोपहर ढाई बजे के बाद पार्थिव शरीर घर पहुंचा। लोग कह रहे थे मुख्यमंत्री जी आ रहे हैं इसलिए देरी हो रही है। पिछले दो दिनों से जैसे ही ख़बर लगी शहीद के घर परिवार वाले व रिश्तेदार भूखे-प्यासे जवान बेटे के अंतिम दर्शन के लिए व्याकुल हैं। रो रोकर बुरा हाल है। हजारों की तादाद में लोग सुबह से इक_ा हैं, सबको यही मालूम है आ रहे हैं।
सही समय सिर्फ प्रशासन को मालूम था कि मुख्यमंत्री भोपाल में इतने बजे राज्यसभा चुनाव से निपटेंगे और फिर चलेंगे। इसी हिसाब से शहीद का शव घर पहुंचना चाहिए कि मुख्यमंत्री अंतिम समय में अर्थी को कंधा दे सकें। जनता को इतना लंबा इंतजार मात्र सियासत के मद्देनजर। मुख्यमंत्री के पास समय नहीं है तो क्या वह बाद में शहीद के घर नहीं जा सकता। बाद में जाने से उसे यह भी पता चलेगा कि उसकी घोषणाओं की पूर्ति हुई कि नहीं।
बहरहाल प्रधानमंत्री का इस तरह कहना कि न हमारी सीमाओं पर कोई घुसा था और न घुसा है। एक तरह से चीन को क्लीन चिट देते हुए शहीद जवानों की शहादत पर सवाल खड़े करना है कि जब चीनी सैनिकों ने कुछ किया ही नहीं तो ये निहत्थे जवान चीनी सैनिकों को समझाने क्यों गये थे? एक तरफ टीवी चैनलों पर चीन को धूल चटाने का शोर, दूसरी तरफ प्रधानमंत्री का बयान और शहीद के पिता का चेहरा। तीनों की तुलना करने पर पता चल जाएगा कि किसने क्या खोया व पाया है और क्या होना चाहिए।
नोट-चित्र में चेहरे पर हरा मास्क लगाये हुए शहीद के पिता हैं। जय हिन्द