विचार / लेख

कोरोनाकाल में जाति का तांडव : डॉ. गोल्डी एम. जॉर्ज
22-Jun-2020 7:30 PM
कोरोनाकाल में जाति का तांडव : डॉ. गोल्डी एम. जॉर्ज

समाजशास्त्रियों का ऐसे मानना है कि महामारी के समय में दुनिया एकजुट होगी; जातिवाद, वर्ग संघर्ष और नस्लवाद का असर कुछ कम होगा। परंतु आज कोविड-19 के दौर में पूरी दुनिया में इसके ठीक विपरीत घटनायें हो रही है। इस संकट की घड़ी में भी भारतीय समाज और राष्ट्र ने अपने कई रंग दिखाए हैं।

अमेरिका के मिनियापोलिस में इसी दरमियान एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की मौत श्वेत पुलिस ऑफिसर डेरिक शॉविन के हाथों हुआ। शॉविन ने दिनदहाड़े भरी सडक़ में फ्लॉयड के गर्दन पर अपने घुटने आठ मिनट से अधिक समय तक दबाये रखा, जिससे दम घुटकर फ्लॉयड की मौत हुई। इस आधार पर अमेरिका से लेकर पूरे दुनिया में ब्लैक लाईव्स मैटर्स के नारे लगाते हुए रंग भेद के खिलाफ आंदोलन हो रहा है। इसपर गंभीर वैचारिक और बौद्धिक विमर्श टीवी व समाचार आदि के माध्यम से चल रहा है। इसे ब्लैक वर्ग के लोग रंगभेद के खिलाफ हक-अधिकार के निर्णायक और अंतिम लड़ाई मान रहे हैं। इस पर अभी टीका टिप्पणी करना संभव नहीं है, क्योंकि यह तो समय ही बताएगा की यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में क्या बुनियादी परिवर्तन लाता है। पर यह तो सच है कि इतनी बड़ी महामारी के काल में भी अश्वेत लोगों ने अपने ताकत और धर्य का इम्तिहान दिया।

इसी दरमियान भारत में देखे तो इससे भी भयानक कई घटनाएं हमारे सामने आयी। कोरोना महामारी जैसे संकटकाल में जब पूरे देश में लॉकडाउन रहा, तब जातिगत उत्पीडऩ कम होने की उम्मीद थी, लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत और सभी समाजशास्त्रीय भ्रम भी टूट गया। भारतीय समाज की नस-नस में फैला हुआ जातिवाद का जहर इस दौरान पहले से भी अधिक शक्ति से अपने रंग रूप दिखाती रही। भेदभाव, जातिवाद, छुआछुत की कई पुरानी पद्धतियों के अलावा नये आधुनिक स्वरूप भी देखने को मिला।

देश भर में कई जगह दलितों की हत्या, बलात्कार, मारपीट, भेदभाव आदि लॉकडाउन के पहले से अधिक तेवर के साथ इस दौरान उभरकर आया। कुछेक भेदभाव के स्वरुप तो अब समाज में एकदम नॉर्मल यानी बहुत सामान्य हो चुके हैं। उदाहरण से गांव में जाति आधारित पारा-मोहल्ला का सीमांकन, जातिगत गाली-गलौज, सिंचाई के पानी का पहला हक़, हैण्डपंप का पहला हक़, तालाबों में नहाने के अलग-अलग घाट, उच्च जाति के लोगों के गली-मोहल्ले में दलितों का नहीं जाना, दलित महिलाओं के साथ छेडख़ानी, आदि नॉर्मल दिनचर्या बन चुका है। इस पर गांव के दलितों को भी कुछ असामान्य सा महसूस नहीं होता है। कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति यदि ऐसे जातिगत प्रवित्तियों पर सवाल उठाये तो पूरा समाज मिलकर उसे ही जातिवादी घोषित कर देती है।

बाबासाहेब आंबेडकर ने जाति के विनाश में ठीक ही कहा है कि जाति एक धारणा है, यह मन की स्थिति है। जाति का विनाश आंबेडकर का सर्वाधिक चर्चित ऐतिहासिक व्याख्यान है, जो उनके द्वारा लाहौर के जातपात तोडक़ मंडल के 1936 के अधिवेशन के लिए अध्यक्षीय भाषण के रूप में लिखा गया था, पर विचारों से असहमति के कारण अधिवेशन ही निरस्त हो गया। यह व्याख्यान आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि जाति का सवाल भारतीय समाज का आज भी सबसे ज्वलंत प्रश्न है। डॉ. आंबेडकर पहले भारतीय समाजशास्त्री थे, जिन्होंने हिन्दू समाज में जाति के उद्भव और विकास का वैज्ञानिक अध्ययन किया था।

कोरोना लॉकडाउन के दरमियान यही भारतीय मन की स्थिति बार-बार सामने आती रही। वैसे इस प्रकार की खबरें एक समाचार से बढक़र बौधिक, वैचारिक या नीतिगत बहस नहीं बन पाती। हाल की कुछ घटनाओं में से कुछेक का जिक्र इस बिंदु को समझने हेतु रख रहा हूं। मई के महीने में नागपुर के एक दलित युवक की हत्या हुई, वहीं ओडिशा के कालाहांडी में इस दौरान एक दलित युवती की बलात्कार और हत्या का मामला प्रकाश में आया।

कुछ दिन पहले मीडिया में खबर आई थी कि नैनीताल जिले के ओखलकांडा ब्लॉक के भुमका गांव में हिमाचल प्रदेश और हल्द्वानी से आए चाचा-भतीजे को स्कूल में बने क्वारंटाइन सेंटर में रखा गया था। सेंटर में भोजन बनाने की जिम्मेदारी स्कूल की भोजनमाता को दी गई, जो एक दलित समुदाय से है। क्वारंटाइन के दौरान दोनों चाचा-भतीजे ने इस महिला के हाथों से बना हुआ खाना खाने से इंकार कर दिया। साथ ही उन्होंने महिला को अभद्र जातिगत गली-गलौज कर डेस्क को महिला के पैरों में उल्टा दिया। इस घटना के उपरांत, ये दोनों क्वारंटाइन सेंटर में अपने घर से खाना बनवाकर मंगाए और खाए।

इस बीच इसी तरह की घटनाएं उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान से भी मीडिया में आती रही। मध्यप्रदेश में तो एक दलित दंपत्ति को शौचालय में क्वारेंटाइन किया गया और भोजन भी वहीं दिया गया। मीडिया से खबर सामने आने के बाद उन्हें स्कूल भवन ले जाया गया। बिहार में सवर्ण जाति की लडक़ी से शादी करने वाले विक्रम की संदिग्ध परिस्थितयों में मौत होती है। उसकी मौत की जांच की मांग करने वाले संतोष को पुलिस के मार-पीट का सामना करना पड़ता है।

समाचार पत्रों के मुताबिक दक्षिण भारत के तमिलनाडु में कोविड-19 लॉकडाउन के बीच राज्य में सामान्य से अधिक दलित अत्याचार की रिपोर्टिंग हुई। आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा जिले की पहाड़ी इलाकों में पडऩे वाला एक गांव का टोला, जिसमें दलित समुदाय के 57 परिवार निवासरत हैं। उन पर नीचे मैदानी इलाकों में रहने वाले ऊंचे जातियों ने पहाड़ से उतरने पर रोक लगा रखी है। इन दबंग जातियों के अनुसार दलित समुदाय के लोग कचरा चुनते हैं, जिनकी वजह से गांव में बीमारी फैल सकती है।

लॉकडाउन के बहाने उन पर ऐसी सख्तियां लगा दी गई जो बाकी गांव वाले खुद पर लागू नहीं करते हैं। उन्हें कोई सामान तक लेने नहीं दिया गया। सामाजिक संगठनों के माध्यम से जब यह मामला उजागर हुआ, तब लोगों को सरकार ने कुछ राहत उपलब्ध करवाया। कर्नाटक में भी कई तरह के भेदभाव और छुआछुत के अनेक मामले सामने आए हैं। हैदराबाद के एक तेलुगु गीतकार ने कोरोना लॉकडाउन पर जाति व्यवस्था को सही ठहराते हुए एक गीत भी लिखकर सोशल मीडिया में प्रसारित किया। और इसी दौरान दलित लेखक एवं बुद्धिजीवी आनंद तेलतुंबडे की गिरफ्तारी भी हुई।

यह एक सत्य है कि संकटकाल में व्यक्ति, समाज और देश की सबसे बड़ी सामाजिक एवं राजनीतिक विरोधाभास उभरकर सामने आती है और इस दौरान वे दरारें और चौड़ी हो जाती हैं जो पहले से मौजूद होती है। कोरोना के बहाने जातिवादी सामंती तत्व लगातार दलितों पर हमला कर रहे हैं और ऐसे समय में सरकार का अपराधियों को अप्रत्यक्ष संरक्षण देना और ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है।

डॉ आंबेडकर ने सही ठहराया था कि जाति के जहर इंसानों को इतना घिनौना बना देती है कि वह स्वनिर्मित गुलामगिरी की भंवर में फंस जाता है, जहां से निकलना ना केवल असंभव सा है, बल्कि नामुमकिन जैसा है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक संरक्षण के बावजूद दलित समुदाय के लोग आज तक स्वयं को एक संपूर्ण स्वतंत्र, समतामूलक नागरिक के रूप में न ही समझ पाए और न ही स्थापित कर पाए। यही वजह है कि कोरोनाकाल में भी अमेरिका से कई अधिक घटनायें होने के बावजूद ब्लैक लाईव्स मैटर्स की तजऱ् में दलित लाईव्स मैटर्स पर कोई आवाज नहीं उठ पाया।

(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है)

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