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बाइसेक्शुअल बताते ही क्यों बढ़ जाती है लड़कियों की मुश्किलें?
24-Jun-2020 6:55 PM
बाइसेक्शुअल बताते ही क्यों बढ़ जाती है लड़कियों की मुश्किलें?

-सिन्धुवासिनी

आइसलैंड की मशहूर पॉप गायिका बियर्क ने एक बार कहा था, “मुझे लगता है कि पुरुष और महिला में से एक को चुनना केक और आइसक्रीम में से किसी एक को चुनने जैसा है. इनके इतने अलग-अलग तरह के फ़्लेवर उपलब्ध होने के बावजूद सबको न आज़माना बेवकूफ़ी होगी.
बियर्क ने जो कहा वो कुछ लोगों के लिए थोड़ा 'बेमतलब' हो सकता है लेकिन यहां उनका इशारा ‘बाइसेक्शुअलिटी’ की तरफ था.
जो लोग पुरुषों और महिलाओं दोनों से यौन आकर्षण महसूस करते हैं उन्हें बाइसेक्शुअल कहा जाता है.
जब हम एलजीबीटीक्यूआई समुदाय की बात करते हैं तो इसमें शामिल ‘बी’ का मतलब बाइसेक्शुअल होता है.
एक लड़की का बाइसेक्शुअल होना
दिल्ली में रहने वाली 26 साल की गरिमा भी ख़ुद को बाइसेक्शुअल मानती हैं. वो लड़कियों और लड़कों से समान यौन आकर्षण महसूस करती हैं और दोनों को डेट कर चुकी हैं.
गरिमा बताती हैं, 'जब मैंने पहली बार एक लड़की को किस किया तो मुझे वो लम्हा उतना ही ख़ूबसूरत लगा जितना पहली बार लड़के को किस करने पर लगा था. मैंने सोचा कि अगर ये इतना सहज है तो लोग इसे अप्राकृतिक क्यों कहते हैं!'
गरिमा ने ख़ुद को तो बड़ी आसानी और निडरता के साथ स्वीकार कर लिया था लेकिन इसे दूसरों को समझाना उनके लिए उतना ही मुश्किल था.
वो कहती हैं, “हमारे समाज में लड़कियों का अपनी सेक्शुअलिटी ज़ाहिर करना अपने-आप में ही काफ़ी मुश्किल होता है. आपसे ऐसे बर्ताव करने की उम्मीद की जाती है, जैसे आपमें यौन इच्छाएं ही नहीं हैं. ऐसे में आपके लड़के और लड़की दोनों को पसंद करने की बात तो लोग बिल्कुल स्वीकार नहीं कर पाते.”
गरिमा को लड़कियां किशोरावस्था से ही अच्छी लगती थीं लेकिन वो कभी इस बारे में ज़्यादा सोच नहीं पाईं.
वो कहती हैं, 'हमारे आस-पास के माहौल में किसी और सेक्शुअलिटी का न तो कोई ज़िक्र होता है और न कोई चित्रण. फ़िल्मों और कहानियों से लेकर विज्ञापनों तक, हर जगह सिर्फ़ एक महिला और पुरुष को ही साथ दिखाया जाता है. ऐसे में हम ये मान लेते हैं कि सिर्फ़ वही सही है और सिर्फ़ वही नॉर्मल.”
कॉलेज के फ़र्स्ट इयर में आते-आते गरिमा एलजीबीटीक्यू समुदाय के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ और समझ चुकी थीं. उन्हें ये भी पता चल चुका था कि लड़कों और लड़कियों दोनों से आकर्षित होना नॉर्मल है. इसी बीच अपने पहले बॉयफ़्रेंड से ब्रेकअप होने के बाद उन्होंने एक लड़की को डेट करना शुरू किया और तब जाकर वो अपनी सेक्शुअलिटी को स्वीकार कर पाईं.
मगर गरिमा फिर दुहराती हैं कि एक संकुचित समाज में किसी लड़की का बाइसेक्शुअल पहचान के साथ जीना आसान नहीं है.
बाहरी दुनिया तो दूर, ख़ुद एलजीबीटी समुदाय के भीतर बाइसेक्शुअल लोगों को लेकर कई तरह की शंकाएं और ग़लत अवधारणाएं हैं. नतीजन, उन्हें समुदाय के भीतर भी कई तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है.

वफ़ादारी और चरित्र पर सवाल
गरिमा कहती हैं कि एलजीबीटी समुदाय के बहुत से लोगों को भी ये लगता है कि बाइसेक्शुअल लोग रिश्ते में वफ़ादार नहीं होते. लोग मानते हैं कि बाइसेक्शुअल लोगों को पुरुषों और महिलाओं दोनों से आकर्षण होता है इसलिए वो अपनी सुविधा के हिसाब से रिश्ते तय करते हैं.
उन्होंने बताया, 'आम तौर पर लेस्बियन लड़की किसी बाइसेक्शुअल लड़की के साथ रिश्ते में नहीं आना चाहती क्योंकि उसे लगता है कि बाइसेक्शुअल लड़की उसे डेट ज़रूर करेगी लेकिन जब शादी करने या ज़िंदगी भर साथ निभाने की बात आएगी तो वो अपनी सुविधा और समाज के उसूलों के मुताबिक़ किसी लड़के का हाथ थाम लेगी. ऐसा ही कुछ बाइसेक्शुअल लड़कों के बारे में भी सोचा जाता है.”
इतना ही नहीं, बाइसेक्शुअल लोगों को कई बार ‘लालची’ और ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है जो रिश्ते में कमिटमेंट नहीं करना चाहते, किसी एक जगह टिकना नहीं चाहते लेकिन डेट सबको करना चाहते हैं.
गरिमा कहती हैं, 'हमसे ये भी कहा जाता है कि हम अपनी सेक्शुअलिटी के लेकर भ्रमित हैं और ये महज एक दौर है जो बीत जाएगा. हम जैसे हैं, हमें वैसे स्वीकार नहीं किया जाता बल्कि हमेशा शक़ भरी निगाहों से देखा जाता है.'
बाइसेक्शुअल लड़कियों को पुरुष वर्ग कई बार महज सेक्शुअल फ़ैंटेसी से जोड़कर देखता है.
गरिमा बताती हैं, 'मैं अपनी सेक्शुअलिटी के बारे में खुलकर बात करती हूं और इसी वजह से लोग मेरे बारे में कई धारणाएं गढ़ लेते हैं. लड़के मुझे सोशल मीडिया पर भद्दे मैसेज भेजते हैं. शायद उन्हें लगता है कि बाइसेक्शुअल लड़की किसी के भी साथ सोने को तैयार हो जाएगा. वो सहमति और पसंद-नापसंद के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते.'

सोनल ज्ञानी
फ़िल्ममेकर और एलजीबीटी राइट्स एक्टिविस्ट सोनल ज्ञानी (32 साल) का मानना है कि एलजीबीटी समुदाय के भीतर लोगों पर किसी न किसी रूप में ये दबाव होता है कि या तो वो ख़ुद को गे मानें या लेस्बियन.
सोनल कहती हैं कि बाइसेक्शुअलिटी के बारे में बात करने में लोग बहुत ज़्यादा सहज नहीं होते. इसीलिए कई बार बाइसेक्शुअल लोग दबाव के कारण ख़ुद को गे या लेस्बियन बताते हैं.
समुदाय के भीतर बाइसेक्शुअलिटी को यूं जानबूझकर नज़रअंदाज़ करने को जेंडर स्टडी की भाषा में बाइसेक्शुअल इरेज़र (Bisexual erasure) कहते हैं.
ख़ुद को बाइसेक्शुअल मानने वाली सोनल कहती हैं कि एलजीबीटी समुदाय के लोग भी इसी समाज का हिस्सा हैं और वो भी भेदभाव की भावना से मुक्त नहीं हैं.
वो कहती हैं, 'मीडिया और पॉपुलर कल्चर में बाइसेक्शुअलिटी को ना के बराबर जगह मिलती है. समलैंगिकता के मुद्दे पर अब धीरे-धीरे फ़िल्में और वेबसिरीज़ बनने लगी हैं लेकिन बाइसेक्शुअलिटी अभी इस चर्चा से बहुत दूर है.'
सोनल अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि कैसे बहुत बार उन्हें अपनी महिला पार्टनर के साथ देखकर लेस्बियन बता दिया गया जबकि वो खुले तौर पर ख़ुद को बाइसेक्शुअल बताती हैं.
वो कहती हूं, 'कई अख़बारों और चैनलों ने मुझे लेस्बियन लिखा जबकि मैंने उन्हें बार-बार बताया कि मैं बाइसेक्शुअल हूं. अगर मैं किसी पुरुष के साथ दिखूंगी तो वो मुझे स्ट्रेट समझेंगे और महिला के साथ नज़र आने पर मुझे लेस्बियन कहा जाएगा. मेरी बाइसेक्शुअलिटी को कहीं न कहीं नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.'
बाइसेक्शुअल मतलब पॉर्न और फ़ैटेंसी नहीं
सोनल का मानना है किसी लड़की के लिए ख़ुद की बाइसेक्शुअल पहचान को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना बहुत साहस भरा कदम होता है.
वो कहती हैं, “कई बार लोग बाइसेक्शुअल लड़कियों को पॉर्न से जोड़कर देखते हैं और उनके चरित्र पर सवाल उठाते हैं. ऐसे में ये लड़कियों की सुरक्षा से जुड़ा मसला भी बन जाता है. यही वजह है कि बाइसेक्शुअल लड़कियां अब भी खुलकर सामने नहीं आ पातीं.''
युवा क्वियर एक्टिविस्ट धर्मेश चौबे एक और महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाते हैं.
वो मानते हैं कि समाज बड़ी चतुराई से बाइसेक्शुअल पुरुषों और महिलाओं की यौनिकता को अपनी सुविधा के हिसाब से और अलग-अलग दलीलें देकर ख़ारिज करने की कोशिश करता है.
धर्मेश कहते हैं, “बाइसेक्शुअल लड़कियों के बारे में ये माना जाता है कि वो स्ट्रेट ही हैं, बस थोड़ा ‘सेक्शुअल एडवेंचर’ कर रही हैं. वहीं, बाइसेक्शुअल पुरुषों के बारे में माना जाता है कि वो गे हैं लेकिन अपनी समलैंगिकता छिपाने के लिए बाइसेक्शुअल होने के बहाना कर रहे हैं. इसका मतलब ये हुआ कि पितृसत्तात्मक समाज में औरतों की यौनिकता कुछ ख़ास मायने नहीं रखती. कुल मिलाकर उनसे यही उम्मीद की जाती है कि वो पुरुषों की इच्छाओं का ख़याल रखें.'
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‘टेक मी ऐज़ आई एम’
इतनी मुश्किलों के बाद भी भारत में बाइसेक्शुअल लड़कियां धीरे-धीरे ही सही मगर खुलकर बाहर आने लगी हैं. ख़ासकर, जून के इस महीने (प्राइड मंथ) में कई लड़कियों ने सोशल मीडिया पर बेहिचक अपनी सेक्शुअलिटी को कबूला है.
जून महीने को एलजीबीटी समुदाय ‘प्राइड मंथ’ के तौर पर मनाता है. इस दौरान वो अपने संघर्षों, इच्छाओं और उपलब्धियों के बारे में बात करते हैं.
यही वजह है कि इस समय युवा बाइसेक्शुअल लड़कियां भी कई सामाजिक बेड़ियों को तोड़ती हुई नज़र आ रही हैं. वो मांग कर रही हैं कि उनकी बाइसेक्शुअलिटी को स्वीकार किया जाए, वो जैसी हैं, उन्हें वैसे ही स्वीकार किया जाए.
सितंबर, 2018 में जब भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध ठहराने वाली आईपीसी की धारा 377 को निरस्त कर दिया था. तब तत्कालीन सीजेआई जस्टिस दीपक मिश्रा ने अदालत का फ़ैसला पढ़ते हुए जर्मन लेखक योहन वॉफ़गैंग को याद किया था. जस्टिस मिश्रा ने कहा था-आई एम वॉट आई एम, सो टेक मी ऐज़ आई एम (I am what I am, so take me as I am). (bbc.com/hindi)

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