विचार/लेख
-टिफ़नी टर्नबुल
ऑस्ट्रेलिया में नई जनगणना के आँकड़ों से पता चलता है कि देश की आबादी में कुछ बड़े बदलाव हो रहे हैं. इनमें हिंदू धर्म और वहाँ रह रहे भारतीयों की स्थिति को लेकर भी नई जानकारियाँ सामने आई हैं.
ऑस्ट्रेलिया में हर पाँच साल पर जनगणना होती है. ताज़ा जनगणना 2021 में हुई जिसके आँकड़े पिछले सप्ताह जारी किए गए.
नई जनगणना के अनुसार ऑस्ट्रेलिया की आबादी ढाई करोड़ से ज़्यादा हो गई है. वहाँ की आबादी अब दो करोड़ 55 लाख हो गई है, जो 2016 में दो करोड़ 34 लाख थी.
यानी पिछले पाँच सालों में वहाँ की आबादी में 21 लाख की वृद्धि हुई है. वहीं देश की औसत आमदनी भी थोड़ी बढ़ी है.
जनगणना के आँकड़ों से आने वाले वक़्त में देश को आकार देने में मदद करने वाली प्रवृत्तियों का भी पता चलता है. ऐसे पाँच बदलाव इस तरह हैं:
1. हिंदू और इस्लाम सबसे तेज़ी से बढ़ता धर्म
ऑस्ट्रेलिया में पहली बार ऐसा हुआ है कि देश में ख़ुद को ईसाई बताने वालों की संख्या 50 फ़ीसदी से कम हो गई है.
ऑस्ट्रेलिया ब्यूरो ऑफ़ स्टैटिस्टिक्स (एबीएस) के अनुसार, अब ऑस्ट्रेलिया में केवल 44 फ़ीसदी ईसाई रह गए हैं.
वहीं लगभग 50 साल पहले ईसाइयों की आबादी क़रीब 90 फ़ीसदी थी.
हालांकि देश में ईसाई धर्म को मानने वालों की तादाद अभी भी सबसे ज़्यादा है, लेकिन उसके बाद दूसरे नंबर पर ऐसे लोगों की संख्या है जो किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं.
देश में किसी भी धर्म को नहीं मानने वाले लोगों की संख्या बढ़कर अब 39 फ़ीसदी हो गई है और इस तरह "नो रिलीजन" वाले लोगों की तादाद में 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
हिंदू और इस्लाम अब ऑस्ट्रेलिया के सबसे तेज़ी से बढ़ते धर्म हैं.
हालांकि इन दोनों धर्मों को मानने वाले लोगों की संख्या 3-3 ही प्रतिशत है.
मगर पिछली बार की जनगणना से तुलना करने पर पता चलता है कि दोनों धर्मों के लोगों की संख्या बढ़ रही है.
2016 में ऑस्ट्रेलिया में हिंदू आबादी (1.9%) और मुस्लिम आबादी (2.6%) थी.
2. बढ़ रही है देश की विविधता
ऑस्ट्रेलिया अब पहले से कहीं ज़्यादा विविध बन रहा है. आधुनिक ऑस्ट्रेलिया का निर्माण आप्रवासन (बाहर से आकर बसना) से हुआ है. हालांकि इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि देश की आधी से ज़्यादा आबादी या तो विदेशों में पैदा हुई है या उनके माता पिता विदेशों में पैदा हुए हैं.
कोरोना महामारी के दौरान आप्रवासन की दर धीमी हुई, लेकिन पिछले पांच सालों के दौरान देश में 10 लाख से ज़्यादा लोग दूसरे देशों से आ चुके हैं. इनमें से क़रीब एक चौथाई लोग भारत से वहां पहुंचे हैं.
नई जनसंख्या में वहाँ रहनेवाले ऐसे लोग जिनका जन्म किसी और देश में हुआ है, वहाँ भारत के लोगों ने चीन और न्यूज़ीलैंड को पीछे छोड़ दिया है. भारत वहाँ तीसरे नंबर पर है.
ऑस्ट्रेलिया में अभी सबसे ज़्यादा संख्या ऐसे लोगों की है जिनका जन्म ऑस्ट्रेलिया में ही हुआ है, उसके बाद ऐसे लोग हैं जिनका जन्म इंग्लैंड में हुआ है. इन दोनों देशों के बाद तीसरा नंबर ऐसे लोगों का है जिनका जन्म भारत में हुआ है.
ऑस्ट्रेलिया में 20 फ़ीसदी से ज़्यादा लोग अपने घरों में अंग्रेज़ी से इतर कोई और भाषा बोलते हैं. 2016 से ऐसे लोगों की तादाद में क़रीब 8 लाख की वृद्धि हुई है. अंग्रेज़ी के इतर बोली जाने वाली भाषाओं में सबसे प्रचलित चीनी या अरबी है.
3. मूल निवासियों की आबादी भी तेज़ी से बढ़ी
ऑस्ट्रेलिया में ख़ुद को देसी या टोरेस स्ट्रेट आइलैंड के वासी बताने वालों की संख्या पिछली जनगणना के मुक़ाबले क़रीब एक चौथाई बढ़ी है.
एबीएस के अनुसार, इसकी वजह न केवल नए लोगों का पैदा होना है, बल्कि इस समुदाय के लोग ख़ुद की देसी पहचान ज़ाहिर करने में अब पहले से ज़्यादा सहज हो रहे हैं.
अब देश के देसी लोगों की संख्या बढ़कर 8,12,728 हो गई है, जो देश की कुल जनसंख्या का 3.2 प्रतिशत है.
आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि देसी या टोरेस स्ट्रेट आइलैंड के बाशिंदों द्वारा बोली जाने वाली सक्रिय भाषाएं 167 हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या पूरे देश में 78 हज़ार से अधिक है.
1788 में यूरोपीय लोगों के आने के पहले देश में मूल निवासियों की तादाद 3.15 लाख से 10 लाख के बीच होने का अंदाज़ा था.
लेकिन बीमारी, हिंसा, स्थानांतरण और बेदख़ल किए जाने के चलते मूल निवासियों की संख्या में तेज़ी से कमी दर्ज की गई.
4. मिलेनियल ने बेबी बूमर्स को छोड़ा पीछे
जनगणना के ताज़ा आंकड़ों की एक और ख़ासियत है कि देश की पीढ़ी अब बदल गई है.
ऑस्ट्रेलिया में अभी तक 'बेबी बूमर्स' (1946 से 65 के बीच पैदा हुए लोग) की संख्या सबसे अधिक थी.
लेकिन अब 'मिलेनियल' (1981 से 95 के बीच पैदा हुए लोग) की तादाद इनसे थोड़ी ज़्यादा हो चुकी है.
देश की आबादी में इन दोनों ही समूहों का हिस्सा 21.5 प्रतिशत है.
जानकारों का मानना है कि सरकार को अब आवास और बूढ़े लोगों के रहने की सुविधा पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत होगी.
5. घर ख़रीदना हुआ मुश्किल
25 साल पहले ऑस्ट्रेलिया में क़रीब एक चौथाई लोग घर ख़रीदते थे, लेकिन अब यहां अपना घर ख़रीदना आसान नहीं रह गया है.
तेज़ी से बहुत महंगा होने के चलते 1996 से अब तक बंधक रखी गई प्रॉपर्टी का हिस्सा बढ़कर दोगुना हो गया है.
2022 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, घर ख़रीदने के लिहाज से अब ऑस्ट्रेलिया के शहर पूरी दुनिया में सबसे ख़राब रैंकिंग में आते हैं.
लेकिन जनगणना के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि अब लोग रहने के दूसरे विकल्पों का रुख़ कर रहे हैं.
अब देश में कैरावैन रखने वालों की संख्या क़रीब 150 फ़ीसदी बढ़ चुकी है. देश के पर्यटकों के बीच घूमने के लिए कैरावैन बहुत लोकप्रिय है.
अब देश में इसकी संख्या क़रीब 60 हज़ार हो गई है. वहीं हाउस बोट भी लगभग 30 हज़ार हो गए हैं. (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नुपुर शर्मा के मामले में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों ने बहस के दौरान जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें लेकर देश में काफी बहस छिड़ गई है। अनेक लोग उनकी टिप्पणियों पर सख्त नाराजी जाहिर कर रहे हैं। वे पूछ रहे हैं कि उदयपुर में कन्हैयालाल की हत्या के लिए नुपुर को जिम्मेदार ठहराने वाले जजों से कोई पूछे कि उनकी नुपुर-विरोधी टिप्पणियों के कारण यदि नुपुर या किसी अन्य व्यक्ति की हत्या हो जाए तो क्या इन सम्मानीय जजों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
यह तो सबको पता है कि जजों की टिप्पणियां उनके फैसले का अंग नहीं हैं, इसलिए उनका कोई कानूनी महत्व नहीं है। उन्हें अनदेखा किया जा सकता है और उस याचिका की भी जरुरत दिखाई नहीं पड़ती कि ये जज अपने टिप्पणियां वापिस लें।
इन जजों का यह प्रश्न भी ध्यान देने लायक है कि पत्रकार तो वैसी टिप्पणी कर सकता है लेकिन किसी पार्टी-प्रवक्ता को उत्तेजित होकर वैसी टिप्पणी करनी चाहिए क्या? हमारे राजनीतिक नेता और उनके प्रवक्ता खास तौर से टीवी चैनलों पर काफी निरंकुश टिप्पणियां कर देते हैं। उनको उसका करारा जवाब विरोधी लोग दिए बिना मानते नहीं हैं।
टीवी मालिक तो यही चाहते हैं। यदि तू-तू मैं-मैं जमकर चले तो उनकी दर्शक-संख्या बढ़ेगी लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इससे देश का कितना नुकसान हो सकता है। ऐसी बहसों को रोकने के लिए टीवी चैनलों पर भी अंकुश लगाया जाना जरुरी है। बेहतर तो यही हो कि इस तरह के विवादास्पद मुद्दों पर जो भी बहस हो, उसे पहले से रेकार्ड और संपादित करके ही जारी किया जाए। वरना जो कुछ उदयपुर और अमरावती में हुआ है, वह बड़े पैमाने पर भी हो सकता है।
स्वतंत्र भारत के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन ने अपने दिल का दर्द कल अमेरिका के भारतीय प्रवासियों को संबोधित करते हुए सार्वजनिक कर ही दिया। उन्होंने कहा कि सत्तारुढ़ और विपक्षी नेता, दोनों ही चाहते हैं कि न्यायपालिका उनकी तरफ झुके लेकिन उसका धर्म उसके निष्पक्ष रहने से ही सुरक्षित रह सकता है।
बहुत दुख की बात है कि हमारे प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता अपनी-अपनी रोटियां सेंकने से अब भी बाज नहीं आ रहे हैं। क्या उन्हें इस बात का जऱा भी अंदाज नहीं है कि उनकी कारगुजारियों के चलते यह धर्म-निरपेक्ष भारत धर्मयुद्ध का स्थल बन सकता है? (नया इंडिया की अनुमति से)
पंकज चतुर्वेदी
हिंदू बुजुर्ग की अर्थी को मुसलमान परिवार ने कंधा दिया। राम नाम सत्य है का उच्चारण भी किया। पूरे विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। पटना के राजाबाजार में हर कोई देखता रह गया।
आजकल देश में जो माहौल है, उसकी वजह से लोगों को आश्चर्य लग रहा था।
मुस्लिम परिवार ने बजाप्ता अर्थी सजा कर हिंदू शख्स को अंतिम संस्कार के लिए राम नाम सत्य बोलते हुए पटना के गंगा घाट तक ले गए।
पटना की यह तस्वीर बताती है कि आम आदमी के दुख-दर्द एक जैसे हैं और इसमें साझीदार केवल अपने लोग ही हैं।
यहां एक मुस्लिम परिवार ने 20 साल से अपनी दुकान में परिवार के सदस्य की तरह नौकरी कर रहे एक हिन्दू शख्स रामदेव की मौत के बाद शव का सनातन पद्धति से अंतिम संस्कार किया।
पटना के समनपुरा इलाके में रहने वाले मुस्लिम परिवार के सदस्य अर्थी पर शव रख अंतिम संस्कार के लिए राम नाम सत्य बोलते हुए गंगा किनारे पटना के गुलबी घाट तक ले गए।
रामदेव, राजा बाजार के समनपुरा में रहने वाले मोहम्मद अरमान की दुकान में 20 साल से अकाउंटेंट थे। वह भटकते हुए राजा बाजार आए थे, काफी भूखे थे। तब उन्हें स्थानीय लोगों ने भोजन कराया था।
बातचीत में उनके पढ़े-लिखे होने का पता चला तो अरमान ने अपनी दुकान में अकाउंटेंट के रूप में रख लिया। तब से वे लगातार उन्हीं के यहां काम कर रहे थे।
शुक्रवार को किराए के घर में अचानक सोये में उनकी मृत्यु हो गई। तब मकान मालिक ने यह जानकारी मो. अरमान व उनके भाई को दी। अर्थी को मो. रिजवान, मो. अरमान, मो. राशिद और मो. इजहार ने कंधा दिया।
नफरतों की काली साजिशों के बीच ऐसे समाचार आशा, उम्मीद और भरोसा जताते हैं। पटना के साथी इन लोगों का जा कर अभिनन्दन जरूर करें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्लास्टिक पर एक जुलाई से सरकार ने प्रतिबंध तो लागू कर दिया है लेकिन उसका असर कितना है? फिलहाल तो वह नाम मात्र का ही है। वह भी इसके बावजूद कि 19 तरह की प्लास्टिक की चीजों में से यदि किसी के पास एक भी पकड़ी गई तो उस पर एक लाख रु. का जुर्माना और पांच साल की सजा हो सकती है। इतनी सख्त धमकी का कोई ठोस असर दिल्ली के बाजारों में कहीं दिखाई नहीं पड़ा है।
अब भी छोटे-मोटे दुकानदार प्लास्टिक की थैलियां, गिलास, चम्मच, काडिय़ा, तश्तरियां आदि हमेशा की तरह बेच रहे हैं। ये सब चीजें खुले-आम खरीदी जा रही हैं। इसका कारण क्या है? यही है कि लोगों को अभी तक पता ही नहीं है कि प्रतिबंध की घोषणा हो चुकी है। सारे नेता लोग अपने राजनीतिक विज्ञापनों पर करोड़ों रुपया रोज खर्च करते हैं। सारे अखबार और टीवी चैनल हमारे इन जन-सेवकों को महानायक बनाकर पेश करने में संकोच नहीं करते लेकिन प्लास्टिक जैसी जानलेवा चीज़ पर प्रतिबंध का प्रचार उन्हें महत्वपूर्ण ही नहीं लगता।
नेताओं ने कानून बनाया, यह तो बहुत अच्छा किया लेकिन ऐसे सैकड़ों कानून ताक पर रखे रह जाते हैं। उन कानूनों की उपयोगिता का भली-भांति प्रचार करने की जिम्मेदारी जितनी सरकार की है, उससे ज्यादा हमारे राजनीतिक दलों और समाजसेवी संगठनों की है। हमारे साधु-संत, मौलाना, पादरी वगैरह भी यदि मुखर हो जाएं तो करोड़ों लोग उनकी बात को कानून से भी ज्यादा मानेंगे।
प्लास्टिक का इस्तेमाल एक ऐसा अपराध है, जिसे हम ‘सामूहिक हत्या’ की संज्ञा दे सकते हैं। इसे रोकना आज कठिन जरुर है लेकिन असंभव नहीं है। सरकार को चाहिए था कि इस प्रतिबंध का प्रचार वह जमकर करती और प्रतिबंध-दिवस के दो-तीन माह पहले से ही 19 प्रकार के प्रतिबंधित प्लास्टिक बनानेवाले कारखानों को बंद करवा देती। उन्हें कुछ विकल्प भी सुझाती ताकि बेकारी नहीं फैलती। ऐसा नहीं है कि लोग प्लास्टिक के बिना नहीं रह पाएंगे। अब से 70-75 साल पहले तक प्लास्टिक की जगह कागज, पत्ते, कपड़े, लकड़ी और मिट्टी के बने सामान सभी लोग इस्तेमाल करते थे।
पत्तों और कागजी चीज़ों के अलावा सभी चीजों का इस्तेमाल बार-बार और लंबे समय तक किया जा सकता है। ये चीजें सस्ती और सुलभ होती हैं और स्वास्थ्य पर इनका उल्टा असर भी नहीं पड़ता है। लेकिन स्वतंत्र भारत में चलनेवाली पश्चिम की अंधी नकल को अब रोकना बहुत जरुरी है। भारत चाहे तो अपने बृहद अभियान के जरिए सारे विश्व को रास्ता दिखा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र की राजनीति भारत के लिए कुछ महासबक दे रही है। सबसे पहला सबक तो यही है कि परिवारवाद की राजनीति पर जो पार्टी टिकी हुई है, वह खुद के लिए और भारतीय लोकतंत्र के लिए भी खतरा है। खुद के लिए वह खतरा है, यह उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने सिद्ध कर दिया है। अब जो शिवसेना उद्धव ठाकरे के पास बची हुई है, वह कब तक बची रहेगी या बचेगी या नहीं बचेगी, कुछ पता नहीं।
उसके दो टुकड़े पहले ही हो चुके थे जैसे लालू और मुलायमसिंह की पार्टियों के हुए हैं। ये पार्टियां परिवार के अलग-अलग खंभों पर टिकी होती हैं। कोई पार्टी मां-बेटा पार्टी है तो कोई बाप-बेटा पार्टी है। कोई चाचा-भतीजा पार्टी है तो कोई बुआ-भतीजा पार्टी है। बिहार में तो पति-पत्नी पार्टी भी रही है। अब जैसे कांग्रेस भाई-बहन पार्टी बनती जा रही है, वैसे ही पाकिस्तान में भाई-भाई पार्टी, पति-पत्नी पार्टी और बाप-बेटा पार्टी है।
ये सब पार्टियां अब पार्टियां रहने की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बनती जा रही हैं। न तो इनमें आतंरिक लोकतंत्र होता है, न इनमें आमदनी और खर्च का कोई हिसाब होता है और न ही इनकी कोई विचारधारा होती है। इनका एकमात्र लक्ष्य होता है— सत्ता-प्राप्ति! यदि सेवा से सत्ता मिले और सत्ता से सेवा की जाए तो उसका कोई मुकाबला नहीं लेकिन अब तो सारा खेल सत्ता और पत्ता में सिमट कर रह गया है। सत्ता हथियाओ ताकि नोटों के पत्ते बरसने लगें।
सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता— यही हमारे लोकतंत्र की पहचान बन गई है। राजनीति में भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है। हमारी राजनीति में आदर्श और विचारधारा अब अंतिम सांसें गिन रही हैं। भारतीय राजनीति के शुद्धिकरण के लिए यह जरुरी है कि सभी पार्टियों में परिवारवाद पर रोक लगाने की कुछ संवैधानिक तजवीज की जाए। महाराष्ट्र की राजनीति का दूसरा सबक यह है कि परिवारवाद उसके नेता को अहंकारी बना देता है। वह अपने पद को अपने बाप की जागीर समझने लगता है। एक बार उस पर बैठ गया तो जिंदगी भर के लिए जम गया।
पार्टी में नेता जो तानाशाही चलाता है, उसे वह सरकार में भी चलाना चाहता है। कभी-कभी ऐसे लोग सरकारों को बहुत प्रभावशाली और नाटकीय ढंग से चलाते हुए दिखाई पड़ते हैं लेकिन जब पाप का घड़ा फूटने को होता है तो उस वक्त आपात्काल थोपना पड़ता है। यदि भारत को हमें लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाए रखना है और उसे आपात्कालों से बचाना है तो पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए कुछ संवैधानिक प्रावधान करने होंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
ऐसी खबर, जो आपकी नजर से संभवत: नहीं गुजरी होगी। बेलगांव-कर्नाटक के लिए बेलगांवी जिले के सुप्रित ईश्वर दिवटे को पुलिस ने हथकड़ी लगाकर अदालत में पेश किया। बेकसूरी के साथ आरोप लगाया कि पुलिस ने हथकड़ी लगाकर प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई। यदुर गांव के निवासी दिवटे को कर्नाटक उच्च न्यायालय की धारवाड़ खंडपीठ ने दो लाख रुपए मुआवजा देने का आदेश दिया। 5 नवम्बर 2019 को दिवटे को गिरफ्तार किया गया। प्रधानमंत्री ने आपातकाल को याद करते हुए इसी सप्ताह नागरिक स्वतंत्रता सीमित करने की आलोचना की थी। अदालतें कहती हैं कि अभियुक्त को बेडिय़ां पहनाना अनुचित है। निर्देश की बार-बार अनदेखी होती है। कर्नाटक खंडपीठ के न्यायमूर्ति सूरज गोविंदराज ने अदालतों और न्यायाधीशों को भी सजग रहने का संदेश दिया। कहा-अदालतों को अभियुक्त से पूछना चाहिए कि बेडिय़ां तो नहीं पहनाई गई थीं। यदि वह हामी भरता है तब पुलिस से कारण की पूछताछ की जाए ताकि औचित्यका पता लगे। विचाराधीन मामलों के बारे में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाए। वाजिब कारण और अनुमति के बगैर हथकड़ी पहनाना पुलिसकर्मी का गैरकानूनी काम है। न्यायाधीश ने कहा-जिम्मेदार पुलिसकर्मी से शासन मुआवजे की राशि वसूल कर सकता है।
मानवाधिकार के नाम पर हर ऐरे गैरे को हथकड़ी से छूट देना? कुछ पुलिसकर्मी इसे अव्यावहारिक मान सकते हैं। पुरानी किसी शिकायत में खोट पाने का अदालत में उल्लेख होते ही पुलिस इन दिनों दूसरे राज्य से व्यक्तियों को पकड़ लाती है। अपने ही सेवानिवृत्त अधिकारी को हिरासत में लेती है। पुलिस के सामने अच्छे अच्छों की नहीं चलती। गाजियाबाद में वकील संजय सिंह के परिवार में शादी की तैयारी के दौरान पुलिस संरक्षण में आए दस्ते ने घर का मुख्य द्वार तोड़ा। पड़ोसी का बेटा हैदराबाद के सरदार वल्लभ भाई पटेल अकादमी में प्रशिक्षु है। वकील ने गाजियाबाद के पुलिस अधिकारी, नगरनिगम आदि से शिकायत की। जाति और वर्तमान सत्ता से निकटता का हवाला दिया। पुलिस अकादमी में प्रशिक्षु अधिकारी की मनमानी की शिकायत की पहुंच तक नहीं मिली। स्थानीय विधायक राज्य में सर्वाधिक वोट से जीता। टूटे गेट को न्याय नहीं मिला। उत्तर प्रदेश में पत्रकार कप्पन सहित अनेक व्यक्तियों की गिरफ्तारी के बाद अब तक जमानत पर रिहाई तक संभव नहीं हुई। पश्चिम बंगाल, बिहार पुलिस के कारनामे सर्वविदित हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला ने बरसों पहले पुलिस को अपराधियों का संगठित गिरोह कहा था।
महाराष्ट्र के दर्जनों पल्टीमार विधायकों के पलायन की महाराष्ट्र की खुफिया एजेंसियों को भनक नहीं लगी। पड़ोसी राज्य में होटल से लेकर हवाई अड्डे तक पुलिस मुस्तैद थी।इन दिनों महाराष्ट्र सरकार ही डावांडोल है। महानिदेशक स्तर के संबंधित अधिकारी से पूछताछ कौन करे? वैसे भी संबंधित अधिकारी गृहमंत्री के विधानसभा क्षेत्र के निवासी बताए जाते हैं। कुशलतम प्रशासकों में शामिल दिलीप वलसे पाटील को भी अपनी इस नायाब पसंद पर घोर अफसोस हुआ होगा। बहरहाल इस नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाजी न करें कि अधिकारी जानकारी पाने में अक्षम रहा। संभव है अपने वर्तमान से अधिक चमकीले भविष्य की संभावना ने उसका असमंजस तोड़ा हो। अतीत के उदाहरण उठाकर देखिए। अधिकांश ऐसे अफसर जो पुलिस या इससे मिलती जुलती जांच एजेंसियों में जांच, अनुशासन की कार्रवाई या उपेक्षा की आशंका से हैरान थे, उन्होंने नए निजाम से समीकरण बिठाया। पुराने आकाओं को हिरासत में लेने, जांच के नाम पर अदालत की परिक्रमा कराने और बदनाम करने में उत्साह दिखाया। कुछ तो पुरस्कृत होकर निर्वाचित सदनों के आसन की शोभा बढ़ा रहे हैं।
अजीत पवार ने तडक़े शपथ ली, तब भी कानोंकान खबर नहीं लगी। खुफिया पुलिस की कर्णधार रहीं रश्मि शुक्लाने सांसद-विधायकों के फोन टेप किए थे। आजकल वे पुलिस अकादमी में आसीन हैं। रिबैरो और अरविंद इनामदार वाली महाराष्ट्र पुलिस कहीं है? जांच और कार्रवाई के बजाय पुलिस को अब कभी कभार राजनीतिक कारणों में सहभागी होने या न होने के लिए अभय मिलता है। यह धारणा खतरनाक है। पुलिस दल की समस्या पर ध्यान दें। जिनकी वे जांच करते हैं, अकस्मात उनकी सुरक्षा और आदेश पालन की नौबत आ जाती है। क्षेत्रीयता, सत्ता से निकटता जैसे विचार में बंटते पुलिसकर्मी आपसे में भिड़ते हैं। सीबीआई की खींचतान, पंजाब-दिल्ली-हरियाणा पुलिस के आपस में टकराव और अखिल भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की नियुक्ति में केन्द्र और राज्यों की खींचतान इसी की देन है। प्रधानमंत्री ने राजनीतिक शतरंज के हिसाब से गृह मंत्रालय में मोहरे बिठाए थे। वे तो उत्तर प्रदेश, बिहार,पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पार्टी की मजबूती के हिसाब से विचार कर रहे थे। लखीमपुर खीरी में किसानों और पत्रकार को कुचलने के बाद राज्य पुलिस को जिस तरह अपनी बदनामी की कीमत पर उठापटक करनी पड़ी, वह अच्छा संकेत नहीं रहा। यह बात और है कि चुनाव में उनके दल को इससे नुकसान नहीं हुआ परंतु दागदार छवि भी सत्ता के प्रभाव को कम करने का कारण बनती है। प्रधानमंत्री को कोई पूर्वाभास नहीं रहा होगा कि दो राज्यमंत्री उनके आभामंडल में इतने छिद्र कर देंगे। इस तरह की स्थिति सिर्फ भाजपा में ही नहीं है। अन्य कई दलों और नेताओं ने जानबूझकर ऐसी परेशानियां आमंत्रित की हैं। कई राज्यों के उदाहरण हैं। निर्वाचित प्रतिनिधियों को पद सौंपकर पुलिस बल को यही संकेत दिया जाता है कि अब तुम्हें पुरातन काल की विवाहिता की तरह परमेश्वर-प्रतिनिधि की सेवा करना है। ऐसे मसले अदालत तक जाते हैं। कुछ ईमानदार अधिकारी न्यायपालिका से उम्मीद रखते हैं। कुछ हताश होने के बाद त्यागपत्र देकर अलग हो जाते हैं। एक दो अपवाद छोडक़र अदालतें इन पचड़ों पर दो टूक निर्णय करना टालती हैं।
समस्या समझने के लिए जांच आयोग बिठाने की जरूरत नहीं है। पुरानी कहावत के मुताबिक (पुलिस का) घोड़ा कमजोर सवार को पटकता है। घोड़ा बाजार में जब दुलत्तीमार बैसाखनंदन बिकने लगते हैं तब उनके घुड़सवार बनने की संभावना प्रबल हो जाती है। यही हो रहा है। आप अवाक होकर मुंह खोले या तो तमाशा देखें या विचार करें। नागरिक होने के नाते अंतत: झेलना आपको है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-सुदीप श्रीवास्तव
कल दोपहर बाद महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में जो कुछ घटा उसने सारे राजनीतिक पंडितों और खबरनवीसों को हतप्रभ कर दिया। 2019 में शिवसेना एवं भाजपा का चुनाव पूर्व गठबंधन महाराष्ट्र विधानसभा में बहुमत लेकर विजयी हुआ था परन्तु सरकार बनाने के समय यह गठबंधन केवल इसी बात पर टूट गया था कि शिवसेना ने पहले ढाई साल अपना मुख्यमंत्री बनाने के जिद की थी। भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व इस बात के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था और इस लड़ाई में यह गठबंधन उस वक्त पूरी तरह टूट गया जब देवेन्द्र फडणवीस ने एनसीपी के अजित पवार को साथ लेकर मुख्यमंत्री की शपथ ले ली थी।
बहुत कम लोगों को इस बात का ध्यान है कि 2014 का लोकसभा चुनाव साथ लड़ने के बावजूद 2014 का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव शिव सेना और भाजपा ने अलग-अलग लड़ा था। उस वक्त अगर एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़ते तो शायद उन्हीं का बहुमत आता परन्तु एनसीपी और कांग्रेस के भी अलग-अलग चुनाव लडऩे से बहुकोणीय संघर्ष हुआ और भाजपा 110 से अधिक सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। शिवसेना ने भी 70 सीटें जीतने में सफलता पाई जबकि राज ठाकरे के द्वारा अपनी पार्टी को चुनाव में उतार कर शिवसेना और उद्धव ठाकरे को कमजोर करने की कोशिश की थी। इस सफलता ने बाला साहब ठाकरे की विरासत पूरी तरह उद्धव ठाकरे के पक्ष में साबित कर दी थी।
2014 में सरकार बनाने के लिये लम्बा विचार विमर्श और समय लगा तब भी शिवसेना महाराष्ट्र में गठबंधन का नेतृत्व और मुख्यमंत्री पद मांग रही थी परन्तु अंतत: देवेन्द्र फडणवीस के नेतृत्व में भाजपा-सेना की गठबंधन की सरकार बनी। यह बात उद्धव ठाकरे को लगातार सालती रही और ढाई साल होने के बाद भाजपा नेतृत्व से बात कर सेना का मुख्यमंत्री बनाने की बात भी की गई। जाहिर है कोई नतीजा न निकलने पर उद्धव ठाकरे ने उस वक्त चुप रहना बेहतर समझा। धीरे-धीरे 2019 का लोकसभा चुनाव जब नजदीक आया उस वक्त उद्धव ठाकरे ने गठबंधन बनाये रखने के लिए यह शर्त रख दी कि 2019 विधानसभा चुनाव के बाद ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री होगा और पहला मौका शिवसेना को दिया जायेगा।
गठबंधन में तनाव की खबरों के बीच गृहमंत्री अमित शाह ने मुंबई का दौरा किया था उद्धव ठाकरे से एक मुलाकात की जिसमें काफी समय दोनों के सिवा कोई नहीं था। कहा जाता है कि इस मुलाकात में उद्धव ठाकरे के द्वारा शिवसेना को मुख्यमंत्री पद का मौका दिया जाने की शर्त रखी थी और उस पर अमित शाह के सहमति के बाद भी गठबंधन में चुनाव लड़ना स्वीकार किया था। यह वो समय था जब भाजपा का शीर्ष नेतृत्व 5 साल के कार्यकाल के दौरान उठाये गए मुद्दों के मद्देनजर लोकसभा चुनाव में बहुमत खोने का कोई मौका नहीं देना चाहता था अत: उसके लिये लोकसभा में शिवसेना से गठबंधन जरूरी था। खासकर यह देखते हुए की एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन में ही चुनाव लडऩे वाली थी। जाहिर है उद्धव ठाकरे के द्वारा की गई दबाव की राजनीति को भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने अच्छे से नहीं लिया था। यही कारण है कि 2019 विधानसभा साथ में लडक़र जीतने के बाद भी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह इस बात पर अड़ गये थे कि मुख्यमंत्री भाजपा का ही होगा और शिव सेना को दर किनार कर अजीत पवार को साथ लेकर भाजपा एनसीपी सरकार भी बना ली गई।
शिवसेना और उद्धव ठाकरे को इस बात ने और अधिक उग्र कर दिया तथा कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर देवेन्द्र फडणवीस की यह सरकार 3 दिन भी नहीं चलने दी। एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने भी अपने भतीजे समेत सभी विधायकों को एकजुट रखा। इस घटना के कुछ दिन बाद भी उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में कांग्रेस और एनसीपी के साथ शिवसेना ने महाराष्ट्र में सरकार बना ली। यह पूरा घटनाक्रम भाजपा, केन्द्र सरकार और नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को गहरे तक आहत कर गया। पिछले ढाई सालो में कई मामलों में केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगे और कहा गया कि केन्द्र सरकार महाराष्ट्र सरकार को गिराने का षडय़ंत्र रच रही है। एनसीपी को कमजोर कड़ी मानकर सबसे अधिक कार्यवाही इसी के नेताओं के विरूद्ध देखने में आई फिर भी किसी भी तरह यह सरकार चलती रही।
2022 के राज्य सभा चुनावों और विधान परिषद चुनाव में मामूली संख्या को छोडक़र शिव सेना के बहुसंख्य विधायकों ने उद्धव ठाकरे द्वारा नामित किए गए प्रत्याशियों को ही वोट किया। परन्तु इसके तुरंत बाद 11 विधायकों का एकनाथ शिंदे के साथ सूरत पहुंचना और वहां से गोहाटी चले जाना सभी के लिये एक आश्चर्यजनक खबर थी। उद्धव ठाकरे के कार्य करने के तरीके से शिव सेना विधायक खुश नहीं है यह तो अंदाजा था पर इतने बड़े विद्रोह की कल्पना किसी ने नहीं की थी। गुवाहाटी पहुंचने के बाद एक ही दिन में बागी विधायकों की संख्या 30 के आसपास पहुंच गई और उन पर उद्धव ठाकरे के द्वारा एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना देने के प्रस्ताव का भी कोई असर नहीं हुआ। बल्कि दिन प्रतिदिन बागी विधायकों की संख्या बढ़ती गई।
आखिर क्या ऐसी बात थी जिसके कारण एकनाथ शिंदे पीछे हटने तैयार नहीं हो रहे थे यह बात भाजपा के द्वारा उनके नेतृत्व में महाराष्ट्र की सरकार बनाने के बाद समझ में आती है। जून के महीने में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुंबई के यात्रा पर गये थे और एक कार्यक्रम में उनकी मुलाकात मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से हुई थी। बहुत सम्भव है कि उस मुलाकात में भी नरेन्द्र मोदी ने उद्धव ठाकरे को एनडीए में वापस आने का कोई न कोई इशारा दिया होगा, जिसे उद्धव ठाकरे ने नहीं माना होगा। इस मुलाकात के बाद भी घटना बहुत तेजी से चला है, 2019 में जो भाजपा शिवसेना को मुख्यमंत्री पद न देने पर अड़ी थी उसी भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया वह भी तब जब उसके 106 विधायकों का बहुमत देवेन्द्र फडणवीस को ही मुख्यमंत्री देखना चाहता था। उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री से हटाने की चाहत इतनी बड़ी थी कि उसके लिये भाजपा ने विशेषकर मोदी-शाह ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार कर लिया। 2014 में जब फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया गया था तब यह कहा गया था कि एक ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाना राजनीतिक भूल है परन्तु 2019 में फिर से 100 से अधिक सीटें जीतकर फडणवीस ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली और वो एक बड़े नेता के रूप में स्थापित हो गये। इसके बावजूद इस बार उनको दरकिनार कर शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे मोदी-शाह की रणनीति साफ दिखाई देती है। पहली बात तो यह है कि वे शिवसेना को एक परिवार की पार्टी नहीं रहने देना चाहती और उसका नेतृत्व किसी और के हाथ देना उनका मकसद है। इस एक काम से ठाकरे परिवार और उसके राजनीतिक वजूद को नुकसान पहुंचाना भी बड़ा उद्देश्य है। एकनाथ शिंदे मराठा हैं जो एनसीपी के प्रभाव को भी कम करने में भी उपयोगी हो सकते हंै। यही कारण है कि उनको नेतृत्व देकर एक सोची समझी राजनीतिक चाल भाजपा ने चली है।
2024 का चुनाव भारतीय जनता पार्टी परिवारवाद को केन्द्र में रखकर लड़ना चाह रही है। उसके सभी प्रमुख प्रतिद्वंदी राजनीतिक पार्टियों पर परिवारवाद की छाप है। यही कारण है कि भाजपा इन सबसे अपने को दूर कर रही है। तेलंगाना में टीआरएस के साथ उसके संबंध बेहतर थे परन्तु भाजपा ने स्वयं उसे निशाने पर ले लिया है। तमिलनाडु में एआईएडीएमके को जयललिता परिवार से दूर करना इसी रणनीति का हिस्सा है। महाराष्ट्र में भाजपा को शिवसेना का साथ तो चाहिए परन्तु वह ठाकरे परिवार को अलग करना चाहती थी। इस हिसाब से देखा जाये तो महाराष्ट्र में पिछले 15 दिन में जो हुआ है उसकी पटकथा पहले ही तैयार कर ली गयी थी। यह अलग बात है कि इसकी भनक कम से कम 2 दिन पहले तक खुद देवेन्द्र फडणवीस समेत महाराष्ट्र के नेताओं को नहीं थी। जबकि एकनाथ शिंदे सूरत से ही इस बात पर आश्वस्त थे कि उनकी स्थिति इतनी मजबूत होने वाली है कि वे शिवसेना से ठाकरे परिवार को बेदखल कर काबिज हो सकते है। यदि शिंदे को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता तो उनके सांसद पुत्र पराग शिंदे को केन्द्र में मंत्री बनाने का दबाव रहता, ऐसी स्थिति में परिवारवाद की राजनीति से दूरी बनाने का मोदी और शाह का उद्देश्य पूरा नहीं होता। देवेन्द्र फडणवीस को उनकी इच्छा के विरूद्ध उपमुख्यमंत्री बनाकर नरेन्द्र मोदी ने यह भी संदेश दिया है कि वे पार्टी में एकमात्र निर्णय करने का अधिकार रखते हंै। यही कारण है कि पुष्कर सिंह धामी को चुनाव हारने के बावजूद मुख्यमंत्री बना दिया जाता है और महाराष्ट्र में भाजपा को 100 से अधिक सीटें जिताने के बाद भी फडणवीस पिछड़ जाते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उदयपुर में एक हिंदू दर्जी की हत्या करने वाले दो मुसलमानों के खिलाफ पूरे देश में भयंकर गुस्सा फैला हुआ है। लेकिन भारत की जनता को सलाम कि उसने प्रतिहिंसा का रास्ता अख्तियार नहीं किया है। अनेक प्रमुख हिंदू और मुसलमान नेताओं ने कड़े शब्दों में इस हत्याकांड की भत्र्सना की है। कई आतिवादी समझे जाने वाले मुस्लिम नेताओं ने उन दोनों हत्यारों को कठोरतम दंड देने की मांग की है। उन दोनों हत्यारों को उन्होंने इंसान नहीं, शैतान बताया है।
यह भी ध्यातव्य है कि अनेक उग्र हिंदूवादी नेताओं ने भी इस मौके पर विलक्षण संयम का परिचय दिया है। इस हत्याकांड ने सारी दुनिया में इस्लाम को तो कलंकित कर दिया है लेकिन भारत की सहनशीलता की छवि सबके हृदय पर अंकित कर दी है। अनेक पश्चिमी और पूर्वी दुनिया के देशों से मेरे मित्रों के फोन आए। उनमें हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध और यहूदी सभी शामिल हैं। सब ने एक स्वर में इस हत्याकांड की निंदा की है। अरब देशों के कुछ मुस्लिम मित्रों ने मुझे बताया कि जो घृणित काम उदयपुर में हुआ है, उसकी अनुमति किसी मुस्लिम देश में भी नहीं है।
इस्लाम में इस तरह का जघन्य अपराध करने की इजाजत किसी भी शख्स को नहीं है। इन दोनों हत्यारों का संबंध सउदी अरब और पाकिस्तान से भी बताया जा रहा है। ये दोनों हत्यारे इन देशों में जाकर रहे हैं और वहां उन्होंने दावते-इस्लाम और तहरीके-लबायक जैसे उग्रवादी संगठनों से भी सांठ-गांठ की है। इस मामले में सच्चाई क्या है, यह तो जांच से आगे-आगे पता चलेगा, लेकिन इस घटना से भारत और सभी मुस्लिम देशों को यह सबक क्यों नहीं लेना चाहिए कि उन सब संस्थाओं और संगठनों से अपने देशों को मुक्त करें, जो मजहब के नाम पर इतने जघन्य अपराधों के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं।
इसी संदर्भ में सभी मदरसों पर भी प्रबुद्ध मुसलमानो को कड़ा नियंत्रण रखना होगा। सभी धर्मों के सर्वोच्च अधिकारियों को या तो अपने-अपने धर्मग्रंथों की ऐसी बातों को छांट देना चाहिए, जो देश और काल के विपरीत हो गई हैं या उनकी व्याख्या इस तरह से करनी चाहिए कि जो देश और काल के अनुकूल हो। जहां तक हमारे राजनीतिक नेताओं का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया तो बहुत ही दुखद है। हत्या-पीडि़त परिवार के लिए सहानुभूति व्यक्त करना तो उचित है लेकिन इस हत्याकांड को लेकर नेतागण एक-दूसरे पर जो कीचड़ उछाल रहे हैं, वह बिल्कुल भी उचित नहीं है।
हमारे नेता इस घटिया राजनीति का सहारा लेने की बजाय यदि भारत की जनता में धार्मिक, सांप्रदायिक और जातीय सहिष्णुता का भाव प्रोत्साहित करें ताकि ऐसे हत्याकांडों की पुनरावृत्ति भारत में कभी हो ही नहीं। सभी दलों के नेताओं को ऐसा प्रयत्न क्यों नहीं करना चाहिए कि इस तरह के हत्यारों को, जो अपने कुकर्म के खुद गवाह हैं, और जिन्होंने अपना वीडियो खुद बनाया है, उन्हें हफ्ते-दो-हफ्ते में ही ऐसी सजा दी जाए कि जिसे देखकर भावी अपराधियों के रोंगटे खड़े हो जाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
महाराष्ट्र में चल रहे राजनीतिक उठापटक के दृश्य जाने पहचाने से लग रहे हैं. विधायकों का दल बदलना, रिसॉर्ट प्रवास, राज्यपाल की भूमिका पर सवाल और फिर सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाना - भारत में यह सब अब दस्तूर बन गया है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
यूं तो विधायकों का दल बदलना भारत में कोई नई बात नहीं है. बल्कि इस समस्या से निपटने के लिए देश में दल-बदल विरोधी कानून 1985 में ही लाया गया था. उससे भी पहले 1967 में हरियाणा में गया लाल नाम के विधायक ने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदल कर "आया राम गया राम" के मुहावरे को जन्म दिया था.
रिसर्च संस्था पीआरएस के मुताबिक 1967 से 71 के बीच 142 बार सांसदों ने और 1,969 बार अलग अलग विधान सभाओं में विधायकों ने दल बदले. महज इन चार सालों में 32 सरकारें गिरीं. यानी दल बदल कर विधायिकाओं में संवैधानिक संकट पैदा करने की परिपाटी दशकों पुरानी है.
लेकिन अब इस तरह की घटनाओं की आवृत्ति बढ़ गई है. मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने से ठीक पहले भी सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाए गए थे. वजह थी कांग्रेस के विधायकों का अपनी ही पार्टी के खिलाफ बागी हो जाना.
पार्टी क्यों बदलते हैं विधायक
उससे पहले नवंबर 2019 में कर्नाटक में भी कांग्रेस के विधायकों की ही बगावत के बाद फिर से सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की जरूरत पड़ी और बाद में कांग्रेस की सरकार गिर ही गई.
जुलाई 2020 में राजस्थान में भी ऐसी ही उठापटक देखने को मिली, लेकिन कांग्रेस किसी तरह बागी विधायकों को वापस ले आई और राज्य में अपनी सरकार को गिरने से बचा लिया. उस प्रकरण में भी राजस्थान हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों को हस्तक्षेप करना पड़ा था.
बार बार इस तरह विधायकों का दल बदलना उनका लोभ और पार्टियों में सत्ता का लालच दिखाता है. हालांकि कोई भी विधायक लोभ के आरोप को स्वीकार नहीं करता है. आप अक्सर विधायकों को कहते हुए पाएंगे कि वो अपनी पार्टी का दामन छोड़ दूसरी पार्टी में शामिल इसलिए हो गए क्योंकि उनके हिसाब से उनकी पुरानी पार्टी अपने लक्ष्यों से भटक गई थी. दोनों पार्टियों की बिलकुल विपरीत विचारधारा की विसंगति पर कोई विधायक प्रकाश नहीं डालता.
दल बदल के इस नए दौर के संभवतः यही मायने हैं कि भारत में राजनीति में विचारधारा नेपथ्य में चली गई है. राजनेताओं के लिए पार्टियों के बीच की सीमा लांघना कोई दुविधा का विषय नहीं रह गया है. कोई भी नेता किसी भी दिन किसी भी पार्टी में जा सकता है, कोई भी पार्टी किसी भी दिन किसी भी दूसरी पार्टी के साथ गठबंधन जोड़ सकती है और तोड़ भी सकती है.
लोकतंत्र पर सवाल
विचारधारा की राजनीति के कमजोर होने का समाज पर क्या असर पड़ा है, यह तो राजनीतिशास्त्रियों और सामजशास्त्रियों के लिए अध्ययन का विषय है, लेकिन लोकतंत्र के लिए इसके मायने स्पष्ट हैं. याद कीजिए आपने पिछली बार कब मतदान किया था. अपना वोट किसको देना है ये किसी न किसी आधार पर तो तय किया होगा.
या आपको वो उम्मीदवार पसंद होगा, या उसकी पार्टी पसंद होगी. चुनाव जीतने के बाद अगर उम्मीदवार की सोच में बदलाव आ जाए और वो उन सब बातों से मुकर जाए जिन से संतुष्ट हो कर आपने उसे वोट दिया था तो आपको कैसा लगेगा. विशेष रूप से चुनाव जीतने के बाद पार्टी बदलना एक तरह की ठगी है, मतदाता के साथ धोखाधड़ी है.
इसी पर लगाम लगाने के लिए दल बदल विरोधी कानून लाया गया था. लेकिन स्पष्ट है कि वह कानून बुरी तरह से असफल हो चुका है. ऐसे में कैसे यह परिपाटी रुकेगी और कैसे चुनावी लोकतंत्र की शुचिता बढ़ेगी, इस सवाल का जवाब खोजने की जरूरत है.
(dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल उदयपुर में जिस तरह एक हिंदू दर्जी कन्हैया की दो मुसलमानों ने हत्या की है, उससे अधिक लोमहर्षक घटना क्या हो सकती है? इस घटना की खबर टीवी चैनलों पर देखकर सारे देश के रोंगटे खड़े हो गए। इसके पहले भी सांप्रदायिक मूढ़ता के चलते कई इसी तरह की छोटी-मोटी घटनाएं कई मजहबी लोग एक-दूसरे के खिलाफ करते रहे हैं लेकिन यहां असली सवाल यही है कि ऐसा घृणित काम करके ये लोग क्या अपने धर्म या मजहब या संप्रदाय की इज्जत बढ़ाते हैं?
बिल्कुल नहीं। ये लोग अपने कुकृत्य के कारण अपने धर्म और अपने धार्मिक महापुरुषों को कलंकित करते हैं। जिन दो मुसलमान युवकों ने उदयपुर के उस निहत्थे हिंदू दर्जी की हत्या की है, वे इस्लाम और पैगंबर मोहम्मद के भक्त नहीं, पक्के दुश्मन हैं। दर्जी का दोष यही है कि उसने भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान का समर्थन कर दिया था। अभी तक लोगों को यह पता नहीं है कि प्रवक्ता ने वह बयान क्यों दिया था और उसमें किन शब्दों का प्रयोग किया गया था?
सिर्फ कुप्रचार और अफवाहों पर भरोसा करके कोई हत्या-जैसा संगीन अपराध कर दे, इससे क्या संकेत मिलता है? यदि किसी व्यक्ति ने किसी मजहब या उसके महापुरुष पर उंगली उठाई है तो भी क्या उस व्यक्ति की हत्या उसका सही जवाब है? नहीं। इसका उल्टा है। यदि उस व्यक्ति के गलत तथ्यों को मजबूत तर्कों से काटा जाता तो वह सही जवाब होता। उसकी हत्या करके तो आप उसके द्वारा बोली गई अनर्गल बात को करोड़ों लोगों तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं। यह संतोष का विषय है कि अनेक मुस्लिम संगठनों और मुस्लिम नेताओं ने कन्हैया के हत्यारों की दो-टूक भर्त्सना की है और उन्हे कठोरतम दंड देने की अपील की है।
इन हत्यारों को हफ्ते-दो-हफ्ते में ऐसी भयंकर सजा मिलनी चाहिए कि जो सारी दुनिया के लिए सबक बन जाए। यदि कन्हैया को राजस्थान पुलिस की सुरक्षा कुछ दिन और मिली होती तो इस भयानक हादसे से शायद बचा जा सकता था लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने हत्यारों को तुरंत पकडऩे और शांति बनाए रखने के लिए काफी मुस्तैदी दिखाई है। क्या संयोग है कि इधर कन्हैया की हत्या हुई और उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा पर पहुंचे। मु
झे आश्चर्य है कि जिन अरब देशों ने भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान को लेकर तूफान खड़ा किया था, अभी तक इस हत्याकांड पर उनकी कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं आई? यह संतोष का विषय है कि इस हत्याकांड को लेकर भारत का हिंदू समुदाय भयंकर दुखी तो है लेकिन उसने अभी तक कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं की है। देश के लगभग सभी मुसलमान इस क्रूर हत्याकांड को निदंनीय मानते हैं।
यह ऐसा नाजुक मौका है, जब भारत के सभी लोगों को सैकड़ों-हजारों वर्ष पहले उनके धर्मग्रंथों में कही गई पोगापंथी बातों की उपेक्षा करनी चाहिए और अपने सार्वजनिक जीवन में भारतीय संविधान को सर्वोपरि मानना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दुनिया के सात समृद्ध देशों के संगठन जी-7 के शिखर सम्मेलन में भारत को भी आमंत्रित किया गया था, हालांकि भारत इसका बाकायदा सदस्य नहीं है। इसका अर्थ यही है कि भारत इन्हीं समृद्ध राष्ट्रों की श्रेणी में पहुंचने की पर्याप्त संभावना रखता है। जर्मनी में संपन्न हुए इस सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाग लेकर सभी नेताओं से गर्मजोशी से मुलाकात की, भारत की उपलब्धियों का जिक्र किया और इस संगठन के सामने कुछ नए लक्ष्य भी रखे।
मोदी ने यह तथ्य भी बेझिझक प्रकट कर दिया कि भारत की आबादी दुनिया की 17 प्रतिशत है लेकिन वह प्रदूषण सिर्फ 5 प्रतिशत ही कर रहा है। दूसरे शब्दों में उन्होंने समृद्ध राष्ट्रों को अपने प्रदूषण को नियंत्रित करने का भी संकते दे दिया। इसके अलावा उन्होंने समृद्ध राष्ट्रों से अपील की कि वे विकासमान राष्ट्रों की भरपूर मदद करें। संसार के देशों में बढ़ती जा रही विषमता को वे दूर करें। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन तथा अन्य नेताओं ने इस अवसर पर घोषणा की कि वे अगले पांच वर्षों में 600 बिलियन डॉलर का विनियोग दुनिया भर में करेंगे ताकि सभी देशों में निर्माण-कार्य हो सकें और आम आदमियों का जीवन-स्तर सुधर सके।
जाहिर है कि इतने बड़े वित्तीय निवेश की कल्पना इन समृद्ध देशों में चीन के कारण ही जन्मी है। चीन ने 2013 में ‘बेल्ट एंड रोड एनीशिएटिव’ (बीआरडी) शुरु करके दुनिया के लगभग 40 देशों को अपने कर्ज से लाद दिया है। श्रीलंका और पाकिस्तान तो उसके शिकार हो ही चुके हैं। भारत के लगभग सभी पड़ौसी देशों की संप्रभुता को गिरवी रखने में चीन ने कोई संकोच नहीं किया है लेकिन जो बाइडन ने चीनी योजना का नाम लिये बिना कहा है कि जी-7 की यह योजना न तो कोई धर्मादा है और न ही यह राष्ट्रों की मदद के नाम पर बिछाया गया कोई जाल है।
यह शुद्ध विनियोग है। इससे संबंधित राष्ट्रों को तो प्रचुर लाभ होगा ही, अमेरिका भी फायदे में रहेगा। यह विकासमान राष्ट्रों को सडक़ें, पुल, बंदरगाह आदि बनाने के लिए पैसा मुहय्या करवाएगा। इस योजना के क्रियान्वित होने पर लोगों को सीधा फायदा मिलेगा, उनकी गरीबी दूर होगी, उनका रोजगार बढ़ेगा और लोकतंत्र के प्रति उनकी आस्था मजबूत होगी। संबंधित देशों के बीच आपसी व्यापार और आर्थिक सहयोग को बढ़ाने में भी इस योजना का उल्लेखनीय योगदान होगा।
यह भी संभव है कि इस योजना में जुटनेवाले देशों के बीच मुक्त-व्यापार समझौते होने लगें। यदि ऐसा हुआ तो न सिर्फ विश्व-व्यापार बढ़ेगा बल्कि संबंधित देशों में आम लोगों को चीजें सस्ते में उपलब्ध होने लगेंगी। उनकी जीवन-स्तर भी सुधरेगा। बाइडन और अन्य जी-7 नेताओं का यह सोच सराहनीय है लेकिन लंबे समय से डॉलर के बारे में कहा जाता है कि यह जहां भी जाता है, वहां से कई गुना बढक़र ही लौटता है। देखें चीनी युआन के मुकाबले यह कितनी कम ठगाई करता है? (नया इंडिया की अनुमति से)
सोशल मीडिया पर यूपी के एक विधायक का वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें वह इंजीनियरिंग कॉलेज की दीवार को धक्का देते हैं और वह गिर जाती है. निर्माण में भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाले विधायक के खिलाफ ही अब एफआईआर हो गई है.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र की रिपोर्ट-
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में समाजवादी पार्टी के विधायक डॉक्टर आरके वर्मा अपने क्षेत्र रानीगंज में बन रहे सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज का निरीक्षण करने पहुंचे थे. उन्हें शिकायत मिली थी कि निर्माण कार्य में खराब गुणवत्ता वाली चीजों का उपयोग हो रहा है. विधायक ने देखा तो यह शिकायत सही निकली. नवनिर्मित दीवार को जब उन्होंने छूकर देखा तो वो हिलने लगी और थोड़ा धक्का दिया तो भरभराकर गिर गई.
विधायक का यह वीडियो सोशल मीडिया में वायरल होने लगा लेकिन कुछ ही देर बाद इंजीनियरिंग कॉलेज का निर्माण करा रही कंपनी की ओर से विधायक आरके वर्मा और उनके भाई समेत छह लोगों के खिलाफ नामजद और पचास अज्ञात लोगों के खिलाफ कंधई थाने में एफआईआर दर्ज करा दी गई.
यह एफआईआर अमरोन्ट्रास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के प्रोजेक्ट मैनेजर इरशाद अहमद की शिकायत पर दर्ज कराई गई है जिसमें सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने समेत कई आरोप लगाए गए हैं.
मेरा क्षेत्र, मेरी जिम्मेदारी...
मुकदमा दर्ज होने के बाद विधायक आरके वर्मा का कहना था कि वह इलाके के जनप्रतिनिधि हैं और यह उनकी नैतिक जिम्मेदारी है कि विकास कार्यों का निरीक्षण करें. डीडब्ल्यू से बातचीत में विधायक आरके वर्मा ने कहा, "करीब पांच साल से यह कॉलेज बन रहा है और निर्माण कार्य में लगातार शिकायतें मिल रही हैं. यह मेरा दायित्व है कि देखूं कि मेरे इलाके में जो भी सरकारी निर्माण हो रहा है, उसमें जनता के पैसों का सदुपयोग हो रहा है या नहीं."
उन्होंने कहा, "इस भवन में इस्तेमाल हो रहे सामान को जांच के लिए भेजा गया है. रिपोर्ट आने के बाद मैं सड़क से सदन तक इसकी लड़ाई लड़ूंगा. सभी लोगों ने देखा है कि मैंने सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया है या फिर निर्माण करने वाले लोग सरकार के पैसों का दुरुपयोग कर रहे थे.”
वहीं अमरोन्ट्रास कंपनी के प्रोजेक्ट मैनेजर इरशाद अहमद का आरोप है कि विधायक अपने दर्जनों साथियों के साथ वहां आए और उन्होंने वहां काम कर रहे कर्मचारियों के साथ गाली-गलौच की. इरशाद अहमद का कहना था, "पहले विधायक और उनके सात-आठ साथियों ने दीवार को हिलाया और फिर अकेले विधायक ने उसे धक्का देकर वीडियो बनवा लिया. दीवार की चिनाई उसी दिन हुई थी और वो गिर गई.”
होगी जांच
इरशाद अहमद यह आरोप भले ही लगा रहे हों लेकिन घटनास्थल पर मौजूद पत्रकारों ने भी वहां कई वीडियो बनाए और दीवार की चिनाई में लगी सामग्री साफ दिख रही है कि उसमें सीमेंट की बजाय बालू की मात्रा कहीं ज्यादा है.
घटनास्थल पर मौजूद एक पत्रकार मनोज मिश्र का कहना था कि दीवार भले ही उसी दिन बनी थी लेकिन यदि उसमें अच्छी सामग्री लगी होती तो इतने हल्के धक्के से न गिर जाती. इस बारे में ग्रामीण अभियंत्रण सेवा के अधिकारियों का कहना है कि निर्माण कार्यों में इस्तेमाल हो रही सामग्री के नमूनों को जांच के लिए भेजा गया है, रिपोर्ट आने पर जो भी दोषी होंगे उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी.
विधायक आरके वर्मा ने आरोप लगाया है कि इंजीनियरिंग कॉलेज के नाम पर घटिया सामग्री का उपयोग तो हो ही रहा है छात्रों के भविष्य और जीवन से भी खिलवाड़ किया जा रहा है. उनका कहना था, "ऐसे घटिया निर्माण कार्य से सरकार युवाओं का भविष्य नहीं, बल्कि उनकी मौत का इंतजाम हो रहा है. भ्रष्ट तंत्र का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है.”
सूचना देने वालों पर हमले
उत्तर प्रदेश में सरकार यूं तो भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की बात करती है लेकिन ऐसे कई मौके आए हैं जब भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले ही कठघरे में खड़े कर दिए जाते हैं और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करके उन्हें जेल तक भेज दिया जाता है. कई बार पत्रकारों को भी इस व्यवस्था का शिकार होना पड़ा है.
इसी साल अप्रैल में बोर्ड परीक्षा के पेपर लीक होने संबंधी खबर छापने के मामले में तीन पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. कई दिनों बाद जमानत मिलने पर ये लोग जेल से छूटे. हालांकि बाद में उन अफसरों के खिलाफ भी कार्रवाई हुई, जिनकी पेपर लीक कराने में भूमिका संदिग्ध थी या फिर पेपर को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी थी. इनमें से दो अभियुक्तों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून यानी रासुका भी लगाई गई लेकिन अखबार में पेपर लीक की खबर छापना कैसे अपराध हो गया, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था.
कमेटी अगेंस्ट असॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट्स की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2017 में यूपी में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी सरकार बनने के बाद उनके पांच साल के कार्यकाल के दौरान राज्य भर में 48 पत्रकारों पर शारीरिक हमले हुए, 66 के खिलाफ केस दर्ज हुए और उनकी गिरफ्तारी हुई. कोविड महामारी के दौरान भी कई पत्रकारों के खिलाफ केस दर्ज किए गए.
रेत माफिया और खनन माफिया के खिलाफ खबर लिखने वाले कई पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आए दिन धमकियां मिलती रहती हैं, उनके खिलाफ न सिर्फ माफिया की ओर से केस दर्ज कराए जाते हैं बल्कि कई बार सरकारी अफसरों की ओर से भी केस दर्ज किए जाते हैं. उन्नाव में शुभम मणि त्रिपाठी की खनन माफिया के खिलाफ खबरें लिखऩे के कारण हत्या कर दी गई जबकि प्रतापगढ़ में पत्रकार सौरभ श्रीवास्तव की शराब माफिया के खिलाफ खबर लिखने के कारण हत्या कर दी गई थी. इन दोनों लोगों ने अपनी हत्या की आशंका पहले ही जताई थी.
कमेटी अगेंस्ट असॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट्स की रिपोर्ट कहती है कि पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले राज्य और प्रशासन की ओर से किए गए हैं. ये हमले कानूनी नोटिस, एफआईआर, गिरफ्तारी, हिरासत, जासूसी, धमकी और हिंसा के रूप में सामने आए हैं. सबसे ज्यादा मामले पुलिस उत्पीड़न के सामने आए हैं और यह सिलसिला 2022 में भी जारी हैं. (dw.com)
-प्रकाश दुबे
औषधि और सौंदर्य प्रसाधन उत्पादन के साथ योग का योग साधने वाले रामदेव भी योग की शक्ति के बारे में प्रधानमंत्री से अधिक जानकारी का दावा करने में सकपका जाएंगे। चाहें तो, प्रधानमंत्री के परम विश्वासपात्रों में शामिल येदियुरप्पा से पूछ सकते हैं। जिनके आगे नीति, नियम, कानून झुककर लचीले हो जाते हैं। बेटे को कर्नाटक के मुख्यमंत्री की कुर्सी या केन्द्र सरकार में अब तक जगह दिलाने में भले येदियुरप्पा सफल नहीं रहे। योग दिवस महोत्सव में शामिल होने के लिए प्रधानमंत्री ने मैसुरु शहर को पसंद किया। बंगलूरु की धरती पर कदम रखते ही चेहरे की मुस्कान ने सब कह दिया। प्रधानमंत्री के प्रथम विश्वासपात्र कन्नड़ नागरिक और उनके भक्तजनों के चेहरे दमक रहे थे। अकूत संपत्ति के आरोपों की जांच करने वाली विशेष अदालत ने येदियुरप्पा को तुरंत जमानत दी। बरसों से घिसट रहे आय से अधिक संपत्ति के मुकदमे से येदियुरप्पा के चेहरे पर वैसे भी शिकन नहीं थी। मुख्यमंत्री ने भी राहत की सांस ली। योग का ऐसा संयोग दुर्लभ होता है।
सर्वोच्च सेनापति
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को विदेश यात्रा के साथ रोम में पोप और खाड़ी देश में भारतीयों से मिलने की अनुमति भी है। वेटिकन जाकर पोप को नमस्कार करने का अब तक एकाधिकार प्रधानमंत्री के पास था। प्रधानमंत्री और नवीन बाबू की उदारता का रिश्ता बहुत गहरा है। प्रधानमंत्री ने कहा-अश्विन वैष्णव अच्छा बाबू है। हमें चाहिए। नवीन बाबू ने वरिष्ठ नौकरशाह सौंपा। भाजपा में शामिल होकर वैष्णव मंत्री हैं। जबकि प्रधानमंत्री के भेजे अधिकारी शर्मा को योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में हाशिए पर बिठा रखा था। द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाने की घोषणा भले अब की गई। नवीन पटनायक का समर्थन बहुत पहले हासिल हो चुका था। पटनायक ने विदेश से मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा की। मुर्मू उनकी सरकार में मंत्री रह चुकी हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सिंगापुर यात्रा की फाइल उपराज्यपाल के पास अटकी है। ममता बनर्जी को विदेश जाने से रोका जा चुका है। क्षेत्रीय सेनाओं के असली कमांडर नवीन हैं। और उद्धव ठाकरे? उनकी सेना का हाल देखकर मुंह से निकलता है-शिव शिव।
नियुक्ति का अधिकार
राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल होना छोटी बात नहीं है। अनुसूया उईके ने इसके लिए प्रचार का सहारा नहीं लिया। तेलंगाना की राज्यपाल तमिलसई सुंदरराजन ने हैदराबाद के राजभवन में देह शोषण और अत्याचार की शिकार महिलाओं की बैठक बुलाई। जमकर ढिंढोरा पीटा गया। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव इन दिनों केन्द्र सरकार से नाराज़ हैं। लड़ाकू छवि से दिल्ली दरबार को प्रभावित करने का तरीका हमेशा कामयाब नहीं होता। तमिलसई का पूरा परिवार कांग्रेस और जनता पार्टी में रहा है। मोदी की चाय पर चर्चा की नकल पर तमिलसई ने चेन्नई में चिकन बेचा। चुनाव में तब लाभ नहीं मिला। पुदुचेरी में भाजपा को सत्ता में लाने में तमिलसई का महत्वपूर्ण योगदान रहा। बहरहाल दिल्ली वालों की राज्यपाल तमिलसई के बजाय मैदानी खुराफाती की तलाश पूरी होती दिखाई दे रही है। आंध्र प्रदेश में जगन्मोहन रेड्डी दिल्ली के सहयोग से राज्य करें। बहन शर्मिला वायएसआर तेलंगाना के परचम पर अल्पसंख्यक मतों को ललचाती विधानसभा चुनाव लड़ेंगी। राव को बाहर से चुनौती देने का प्रेम पड़ा अलिखित नियुक्ति पत्र।
आपातकाल में दिया जलाओ
पीयूष गोयल को राज्यसभा में नेता पद तो मेडल की तरह है। उनका असली काम पार्टी और सरकार की माली हालत का ध्यान रखना है। गृहराज्य महाराष्ट्र में उठापटक, राज्यसभा चुनाव आदि के झमेलों से कई महकमों के मंत्री पीयूष किंचित मात्र परेशान नहीं हुए। उनका ध्यान अन्यत्र केन्द्रित था। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के चुनाव या महाराष्ट्र, राजस्थान में विधायकों की मेंढक दौड़ कराने के लिए विशेषज्ञ मौजूद हैं। अपना पीयूष भाई एक ही बात पर ध्यान दे रहा है। इस मर्तबा दीपावली मनाते समय भारत के कारोबारी इंग्लैंड से मनचाहे तरीके से कारोबार कर सकें। सरकारी भाषा में कहा जाए तो भारत मुक्त व्यापार का करार हो जाए। प्रधानमंत्री मोदी और इंग्लैंड के बोरिस जान्सन की बात हो चुकी है। वाणिज्य मंत्री की सूची में कई देश दर्ज हैं। उनका वश चले तो अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया जैसे कई देशों से मुक्त व्यापार का करार करा दें। ताकि आजादी का असली अमृत महोत्सव मनाया जा सके।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात के शिक्षामंत्री से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं ने अनुरोध किया है कि वे अपने प्रदेश में संस्कृत की अनिवार्य पढ़ाई शुरु करवाएं। यह मांग सिर्फ संघ के स्वयंसेवक ही क्यों कर रहे हैं और सिर्फ गुजरात के लिए ही क्यों कर रहे हैं? भारत के हर तर्कशील नागरिक को सारे भारत के लिए यह मांग करनी चाहिए, क्योंकि दुनिया में संस्कृत जैसी वैज्ञानिक, व्याकरणसम्मत और समृद्ध भाषा कोई और नहीं है। यह दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा तो है ही, शब्द भंडार इतना बड़ा है कि उसके मुकाबले दुनिया की समस्त भाषाओं का संपूर्ण शब्द-भंडार भी छोटा है।
अमेरिकी संस्था ‘नासा’ के एक अनुमान के अनुसार संस्कृत चाहे तो 102 अरब से भी ज्यादा शब्दों का शब्दकोश जारी कर सकती है, क्योंकि उसकी धातुओं, लकार, कृदंत और पर्यायवाची शब्दों से लाखों नए शब्दों का निर्माण हो सकता है। संस्कृत की बड़ी खूबी यह भी है कि उसकी लिपि अत्यंत वैज्ञानिक और गणित के सूत्रों की तरह है। जैसा बोलना, वैसा लिखना और जैसा लिखना, वैसा बोलना। अंग्रेजी और फ्रेंच की तरह संस्कृत हवा में ल_ नहीं घुमाती है।
‘नासा’ ने अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों और कंप्यूटर के लिए संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ भाषा बताया है। संस्कृत सचमुच में विश्व भाषा है। इसने दर्जनों एशियाई और यूरोपीय भाषाओं को समृद्ध किया है। संस्कृत को किसी धर्म-विशेष से जोडऩा भी गलत है। संस्कृत जब प्रचलित हुई, तब पृथ्वी पर न तो हिंदू, न ईसाई और न ही इस्लाम धर्म का उदय हुआ था। संस्कृत भाषा किसी जाति-विशेष की जागीर नहीं है। क्या उपनिषदों का गाड़ीवान रैक्व ब्राह्मण था? संस्कृत को पढऩे का अधिकार हर मनुष्य को है।
औरंगजेब के भाई दाराशिकोह क्या हिंदू और ब्राह्मण थे? उन्होंने 50 उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद ‘सिर्रे अकबर’ के नाम से किया था। अब्दुल रहीम खानखाना ने ‘खटकौतुकम’ नामक ग्रंथ संस्कृत में लिखा था। तेहरान विश्वविद्यालय में मेरे एक साथी प्रोफेसर कुरान-शरीफ का अनुवाद संस्कृत में करने लगे थे। कुछ ईसाई विद्वानों ने संस्कृत ‘ख्रीस्त गीता’ और ‘ख्रीस्त भागवत’ भी लिखी है। कुछ अंग्रेज विद्वानों ने अब से लगभग पौने 200 साल पहले बाइबिल का संस्कृत अनुवाद ‘नूतनधर्म्मनियमस्य ग्रंथसंग्रह:’ के नाम से प्रकाशित कर दिया था।
लगभग 40 साल पहले पाकिस्तान में मुझे एक पुणे के मुसलमान विद्वान मिले। मैं उनके घर गया। वे मुझसे लगातार संस्कृत में ही बात करते रहे। भारत में पंडित गुलाम दस्तगीर और डा. हनीफ खान जैसे संस्कृत के विद्वानों से मेरी पत्नी डॉ. वेदवती का सतत संपर्क बना रहा। अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. की संस्कृत पंडिता डॉ. सलमा महफूज ने ही दाराशिकोह के ‘सिर्रे अकबर’ का हिंदी अनुवाद किया है। अभी भी मेरे कई परिचित मुसलमान मित्र विभिन्न विश्वविद्यालयों में संस्कृत के आचार्य हैं।
इसीलिए मेरा निवेदन है कि संस्कृत को किसी मजहब या जाति की बपौती न बनाएं। जरुरी यह है कि भारत के बच्चों को संस्कृत, उनकी उनकी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी 11वीं कक्षा तक अवश्य पढ़ाई जाए और फिर अगले तीन साल बी.ए. में उन्हें छूट हो कि वे अंग्रेजी या अन्य कोई विदेशी भाषा पढ़ें। कोई भी विदेशी भाषा सीखने के लिए तीन साल बहुत होते हैं। उसके कारण हमारे बच्चों को संस्कृत के महान वरदान से वंचित क्यों किया जाए? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका में इधर दो बड़े फैसलों ने हडक़ंप मचा रखा है। एक तो बंदूक रखने पर कुछ नई पाबंदियों के कारण और दूसरा गर्भपात पर प्रतिबंध के कारण। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के इन दोनों फैसलों को लेकर वहां कई प्रांतों में प्रदर्शन हो रहे हैं और उनका डटकर विरोध या समर्थन हो रहा है। बंदूक पर प्रतिबंधों का उतना विरोध नहीं हो रहा है, जितना गर्भपात पर प्रतिबंध का हो रहा है।
1973 में गर्भपात की अनुमति का जो फैसला अमेरिका सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने उलट दिया है। 6 और 3 जजों की इस फैसले के पीछे पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा नियुक्त रूढि़वादी जजों का बहुमत में होना है। अब अमेरिका में जो भी राज्य रूढि़वादी या रिपब्लिकन या ट्रंप-समर्थक हैं, वे इस कानून को तुरंत लागू कर देंगे।
इसका नतीजा यह होगा कि महिलाओं को अपने शरीर के बारे में ही कोई मौलिक अधिकार नहीं होगा। लगभग एक दर्जन राज्यों ने गर्भपात पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी है। कोई भी महिला 15 हफ्तों से ज्यादा के गर्भ को नहीं गिरवा सकती है। अदालत के इस फैसले को राष्ट्रपति जो बाइडन ने तो भयंकर बताया ही है, सारे अमेरिका में इसके विरुद्ध विक्षोभ फैल गया है। यूरोपीय राष्ट्रों के प्रमुख नेताओं ने इस फैसले की कड़ी निंदा की है। अमेरिका की नामी-गिरामी कंपनियों ने उनके यहां कार्यरत महिलाओं से कहा है कि वे गर्भपात के लिए जब भी किसी अन्य अमेरिकी राज्य में जाना चाहें, उन्हें उसकी पूर्ण सुविधाएं दी जाएंगी।
अमेरिका के 13 राज्यों में गर्भपात की अनुमति आज भी है। अमेरिका में संघीय व्यवस्था है। इसीलिए उसके राज्य केंद्रीय कानून को मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन अमेरिका के केथोलिक संप्रदाय के पादरी इस गर्भपात पर प्रतिबंध का स्वागत कर रहे हैं। वैसे भी आजकल यूरोप और अमेरिका में स्त्री-पुरुषों के बीच अवैध शारीरिक संबंधों का चलन इतना बढ़ गया है कि गर्भपात की सुविधा के बिना उनका जीना दूभर हो सकता है।
इसके अलावा गर्भपात की सुविधा की मांग इसलिए भी बढ़ गई है कि चोरी-छिपे गर्भपात करवाने पर गर्भवती महिलाओं की मौत हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के अनुसार हर साल 2.5 करोड़ असुरक्षित गर्भपात होते हैं, जिनमें 37000 महिलाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है।
अब गर्भपात पर प्रतिबंध लगने से इस संख्या में वृद्धि ही होगी। यूरोप के कई देश गर्भपात के अधिकार को कानूनी रूप देने के लिए तत्पर हो रहे हैं। भारत में 24 हफ्ते या उसके भी बाद के गर्भ को गिराने की कानूनी अनुमति है बशर्ते कि गर्भवती के स्वास्थ्य के लिए वह जरुरी हो। भारतीय कानून अधिक व्यावहारिक है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-मृणाल पाण्डे
अपने यहां कहा जाता है कि एक समय ऐसा था जब सारी धरती जल में डूबी हुई थी, तब विष्णु ने ‘जलौघमग्ना’ धरा का वाराह अवतार में आकर जल और फिर कीचड़ से उद्धार किया और मानव जाति को दोबारा इस पर बसाया।
अपने यहां कहा जाता है कि एक समय ऐसा था जब सारी धरती जल में डूबी हुई थी, तब विष्णु ने ‘जलौघमग्ना’ धरा का वाराह अवतार में आकर जल और फिर कीचड़ से उद्धार किया और मानव जाति को दोबारा इस पर बसाया। उधर, पश्चिमी धर्मग्रंथ बाइबिल का पुराना टेस्टामेंट भी कहता है कि पृथ्वी पर एक बार भीषण बाढ़ आई और सब कुछ डूब गया। तब दैवी प्रेरणा से सिर्फ नोआ नामक एक भला आदमी (जिनको इस्लामी ग्रंथ हजरत नूह भी कहते हैं) बच सका। इससे पहले उसने पूर्वसूचना पाकर अपनी बड़ी-सी नाव में जतन से तमाम तरह के बीज और जीवों की जोडिय़ां लादीं जो बाढ़ के बीच भी सलामत रहीं। जब बाढ़ उतरी, तो इन्हीं बचे-खुचे जीवों और बीजों के जहूरे से दुनिया में फिर आदम की संतानें और तरह-तरह के पशु-पक्षी आबाद हुए तथा अन्न-धन पैदा होने लगा। कहानी और आगे जाती है कि किस तरह होश में आकर मनुष्यों ने तय किया कि एक बहुत बड़ी मीनार बनाएं जिसमें हर जाति, धर्म और भाषा बोलने वाले अलग-अलग तल्लों पर रहें। टावर ऑफ बेबल नाम की एक मीनार बनी, पर मीनार बनते ही उसमें भाषा और धर्म पर विभिन्न मंजिलों के बीच झगड़े शुरू हो गए। ईश्वर को उससे उठते हो-हल्ले से बहुत परेशानी होने लगी। आखिरकार तंग आकर उन्होंने तय किया कि यह मीनार ढहा दी जाए ताकि उसमें बसे अलग-अलग भाषा बोलने वाले दुनिया भर में बिखर जाएं और फिर उनको एक-दूसरे की भाषा समझ ही न आए। न रहेंगे भाषा-धर्म के बांस, न बजेंगी बांसुरियां।
90 के दशक में जब इंटरनेट आया, तो अलग-अलग देशों-सूबों में बिखरी दुनिया ने अंतर्जाल की मार्फत चैट रूम्स, ब्लॉग्स और कई तरह के बोर्ड एकसार करके अपने लिए एक नई तरह का टॉॅवर ऑफ बेबल रचना शुरू किया। फिर 2000-2009 के बीच गूगल जैसे सर्च इंजन, फेसबुक, ट्विटर, माय स्पेस जैसे सूक्ष्म कमेंट मंच बने और जिनकी मार्फत नए टावर ऑफ बेबल में हर कोई बंदा, पात्रता हो या न हो, बिना किसी प्रमाण पत्र या क्लियरेंस के, अपने विचार व्यक्त करने के लिए इस आभासी दुनिया में जगह पाता चला गया। 2011 में गूगल ने अनुवाद की सुविधा दी, तब से तो हो-हल्ला इस कदर बढ़ा है कि क्षण भर में किसी भी भाषा का कमेंट अनूदित होकर दुनिया की हर भाषा में वायरल होने लगा है।
पर इसी के साथ हम देख रहे हैं कि मनुष्य की फितरत है कि अगर सूचना और अभिव्यक्ति की दुनिया इतनी विस्फोटक बन जाए, तो लंबा और तर्क पर आधारित सोच-विचार फैलने की बजाय सिकुडऩे लगता है और उसकी जगह छिटपुट फब्तियां और फतवे लेने लगते हैं। यह होना बहुत खतरनाक है। एक आम आदमी किसलिए जीता-मरता है? साख के लिए। पर अगर बरसों की मेहनत से कमाई साख क्षण भर में किसी फेक न्यूज और फिर उस पर बिन पूरा मसला समझे उमड़ पड़े, सैकड़ों लाइक्स या जहरीले कमेंट्स की बाढ़ टूट पड़े, तो वह तुरंत मिट सकती है। कंगाली में इस आटे को और गीला होना था। जो टॉवर बना था जनहितकारी सूचना और लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए, आज उसमें दुनिया भर में राजनीतिक दलों के स्वार्थ के तहत काम करने वाले हैकर्स तथा ट्रोल्स दीमकों की तरह पैठा दिए गए हैं। कुछ सरकारों द्वारा ऐसी नई तकनीक खरीदने की भी सूचना है जिसकी मदद से आप देश के किसी भी जन के कम्प्यूटर में घुसकर जानकारी ही नहीं चुरा सकते, उसमें कई तरह की आपत्तिजनक सामग्री भी प्लांट कर सकते हैं। ऐसे लोगों को बाद को अकारण जेल की हवा खिलवाई जा रही है। उदाहरण साफ है और उनको यहां गिनाने की जरूरत नहीं।
कुल मिलाकर कभी अरब स्प्रिंग, यानी लोकतांत्रिक जागृति की आवाज बना हुआ सोशल मीडिया 2022 में सामाजिक सहभागिता के मंच की बजाय बाजार का वह कोलाहलमय चौराहा बन गया है जहां झूठी खबरों, वीडियोज और छिछोरेपन से भरपूर बिना पृष्ठभूमि दिखाए आंशिक झलक के बूते लगाए आक्षेप गंदे कपड़ों की तरह दिन-रात फींचे जा रहे हैं। नतीजा यह कि जनता को किसी पर भरोसा नहीं रहा। न सरकार पर, न विपक्ष पर, न ही मीडिया, कार्यपालिका या न्यायपालिका पर। अब ऐसी सार्वजनिकता का तोड़ क्या हो जो लोकतंत्रों में दंगे और शैतानी राजनीतिक झूठ और अधिनायकवाद न्योतती है और जनता को लगातार धड़ेबंद, शंकालु, भ्रमित और मूक बना रही है?
आज का सच तो यह है कि डिजिटल क्रांति जो कभी दुनिया को सचाई का शीशा दिखाती थी, राजनीतिक और कॉरपोरेट हितस्वार्थियों के टकराव से किरचों में बिखर चुकी है। हर कोई एक किरच उठाकर उसमें झलकती आंशिक सचाई को ही अपने हित पोसने के लिए सही पिक्चर मानने-मनवाने पर उतारू है। यह अनायास नहीं कि दुनिया के इतने तमाम देशों में हमको सोशल मीडिया अधिनायकवाद और नस्ली हिंसा के उफान को खाद-पानी देता मिल रहा है।
जब कोविड आया, तो उम्मीद बनी थी कि महामारी से विकल दुनिया में सोशल मीडिया जानकारी और ज्ञान का सार्वजनिक मंच बनेगा और घर में बंद लोगों के पास इतना समय होगा कि वे इसकी मार्फत मानव जीवन और लोकतंत्र की बुनियादी सच्चाइयों पर पीड़ाजनक और ईमानदार तरीके से समवेत सोच-विचार करेंगे। पर बड़ों की दुनिया तो नहीं बदली लेकिन इसका बेहद बुरा असर उन बच्चों और किशोरों पर पड़ रहा है जो कोविड पीरियड में घर कैद झेलते हुए इस आभासी दुनिया में कैद हो गए। आज घर-घर में ऐसे किशोर हैं जो अंतर्मुखी, कुंठित और समाज से पूरी तरह कटे हुए हैं। राजनीति हो कि अर्थनीति, बतौर नागरिक मतदाता उनकी मनोवृति ‘कोऊ नृप होय हमें का हानी’ की दिखाई देती है। सीमाहीन नेट पहुंच मिलती रहे, ओटीटी प्लेटफॉर्म और वीडियो गेम्स मिलते रहें, फिर किसका परिवार, कैसा राज-समाज? यह नशा मादक पदार्थों से कम खतरनाक नहीं। हाल में एकाधिक मामलों में पबजी या ऐसे ही गेम्स के लती बच्चों ने टोके जाने पर अभिभावक को मार डाला। क्या ऐसी जमात वक्त रहते हालात न सुधारे गए, तो एक सबको साथ लेकर चलनेवाले राज-समाज, एक जिम्मेदार लोकतंत्र का निर्माण कर पाएगी?
अमृत वर्ष में नाना तरह के पॉजिटिव ब्योयरों का अमृत बरसाया जा रहा है। गिनाने को बहुत कुछ हुआ है। जीवन बीमा निगम से इंडियन एयरलाइंस तक सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण हो चुका है। करोड़ों को मुफ्फ राशन मिलेगा। हर घर में नल लग गया है। (जल नहीं, यह दूसरी बात है) सडक़ों का विस्तार हुआ है। पर्यटन में नई जान आई है आदि। नेता विदेश जाकर तेल उत्पादक देशों से हाथ मिलाकर उनकी झिडक़ी सुनकर भी कान पकडक़र वादा कर आए हैं कि हां, हम पर्यावरण और अल्पसंख्यकों की रक्षा करेंगे। हां, हम टीवी, सोशल मीडिया पर बकवास पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे और दोषियों को तुरत दंड दिया जाएगा। पर घर भीतर फिर वही बुलडोजर, वही भद्दी नारेबाजी जबकि पर्यावरण क्षरण के सूचकांक रसातल को जा रहे हैं और पानी छीजने से करोड़ों लोग जैसे-तैसे जान हथेली पर रखकर लाए गए एक कनस्तर जल पर जिंदा हैं।
सवाल आज और अधिक नेट तक पहुंच या और ज्यादा राजनीतिक सत्ता का नहीं, नेट के दिए मंचों और उनके कुहासे में रची गई सत्ता के स्वरूप का है। सारे लोग सहमत हैं कि आज सरकार के हाथों में और दोनों सदनों में भी जितनी सत्ता है, उतनी नेहरू या इंदिरा काल में भी नहीं थी। सरकारी नुमाइंदों के वक्तवयों में गर्व साफ झलकता है कि उनमें वह निर्ममता है जिसकी कमी से नेहरू ने कश्मीर का एक भाग गंवा दिया और इंदिरा जी शिमला में टेंटुआ दबाकर वह जनाब भुट्टो से वापिस नहीं करवा सकीं। लेकिन इतनी निर्ममता सत्ता के बीच विश्व के लोकतांत्रिक देशों के बीच भारत इतना एकाकी और असहाय क्यों नजर आ रहा है? वह रूस की भी जै-जै, अमीरात, कुवैत, ओमान अमेरिका सब को विनम्र जै-जै करता नजर आता है। चीन लगातार जो सीमा पर सडक़ें, पुल बना रहा है, गांव बसा रहा है, उस पर और तमाम सूबों में हुए सांप्रदायिक दंगे एक जबर्दस्त संदेश से रुकवाने की बजाय खामोश है।
लोकतंत्र जागने के मौके देता है, जागे हुओं को सत्ता के शेयर दे देता है (हमारा श्रेष्ठिवर्ग ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी फूलता रहा है), पर हमारे यहां लोकतंत्र की सीमित वैरायटी है जो 75 सालों से सत्ता जगाने का हल्ला भले करे, जनता को चुसनियां देती रहती है, सचमुच जगाती नहीं। कई बार तो प्रिवी पर्स निरस्तीकरण या नेट के बॉलीवुड मार्का राष्ट्रभक्त फिल्मों के करमुक्त सार्वजनकि प्रदर्शन से ऊंघते लोगों को अफीम चटाकर और गहरी नींद सुला देती है। हमारे नेट की विकृतियां भी इसी ऊंधती सतत दुविधामयी की देन हैं। अधिकतर लोग सोशल मीडिया पर बर्ताव ऐसा करते हैं जैसे वे खाते-पीते मध्यवर्ग के नहीं, सर्वहारा जन के बीच खड़े हों। जब दवा और रोग, थीसिस और एंटीथीसिस के बीच समझौते अलग-अलग पिछवाड़ों में मिलकर होने लगें, तो लगता है इस टॉवर ऑफ बेबल में पलीता लगाने पर गंभीरता से विचार करने का क्षण आ रहा है। वरना पर्यावरणविदों की मानें, तो महाविनाशक बाढ़ बस कोने तक पहुंच ही चुकी है। तब तक इस नेट को ही नोआ की किश्ती समझकर सवारी करें और टंच रहें। (नवजीवनइंडिया)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
26 जून 1975 का काला दिन आज 46 साल बाद मुझे फिर याद आया। 25 जून 1975 की मध्य रात्रि को राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा पर आंख मींचकर हस्ताक्षर कर दिए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीहुजूरों ने दिल्ली के कई बड़े अखबारों की बिजली कटवा दी थी और देश के जो अखबार जल्दी छपते थे, उनमें वह खबर ही नहीं छपी। उस दिन मैं इंदौर में था। मैं सुबह-सुबह मेरे घनिष्ट मित्र और आर.एस.एस. के प्रचारक कुप्प सी. सुदर्शनजी से मिलने गया।
वे जवाहर मार्ग के एक अस्पताल में पांव की हड्डी का इलाज करवा रहे थे। सुबह 8 बजे जैसे ही उन्होंने अपना ट्रांजिस्टर खोला, पहली खबर थी कि देश में आपातकाल की घोषणा हो गई है। मैं तुरंत वहीं से हिंदी के तत्कालीन श्रेष्ठ अखबार ‘नई दुनिया’ के दफ्तर पहुंचा। मैं छोटी उम्र से ही उसमें लिखने लगा था। उस समय माना जाता था कि वह एक कांग्रेसी अखबार है। उसके मालिक लाभचंदजी छजलानी, प्रधान संपादक राहुल बारपुते और संपादक अभय छजलानी समेत सभी प्रमुख लोग दफ्तर में उपस्थित थे।
मेरे सुझाव पर यह तय हुआ कि संपादकीय की जगह को खाली छोड़ देना विरोध का सर्वोत्तम उपाय है, क्योंकि आपातकाल के विरोध पर भी प्रतिबंध की घोषणा हो चुकी थी। मैं दोपहर की रेल पकडक़र दिल्ली आ गया। मैं उस समय ‘नवभारत टाइम्स’ (देश के सबसे बड़े अखबार) का सह-संपादक था। संपादक श्री अक्षयकुमार जैन ने सभी पत्रकारों की सभा बुलाई और आपातकाल का विरोध नहीं करने की सख्त हिदायत दी। सभा के बाद मैंने अक्षयजी से कहा कि मैं इस्तीफा दे देता हूं। मैं सरकार की खुशामद में एक शब्द भी नहीं लिखूंगा।
उन्होंने कहा कि आप विदेशी मामलों के विशेषज्ञ हैं। मैं आपसे राष्ट्रीय राजनीति पर कोई संपादकीय ही नहीं लिखवाऊंगा। दूसरे दिन प्रेस क्लब में कुलदीप नय्यर ने आपातकाल के विरोध में दिल्ली के पत्रकारों की एक सभा बुलाई। पहले उनका भाषण हुआ, दूसरा मेरा। मैंने सारे उपस्थित पत्रकारों से कहा कि वे सब आपातकाल के विरोध-पत्र पर दस्तखत करें। दो-तीन मिनिट में ही सारा हाल खाली हो गया।
उन दिनों हम जो भी संपादकीय या लेख लिखते थे, उसे चपरासी के हाथों शास्त्री भवन में बैठे एक मलयाली अफसर के पास भिजवाना पड़ता था। उसकी हां होने पर ही वह छपता था। जून 1976 में मेरे द्वारा संपादित महाग्रंथ ‘हिंदी पत्रकारिता: विविध आयाम’ का राष्ट्रपति भवन में विमोचन हुआ। उप-राष्ट्रपति ब.दा. जत्ती सहित कई वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री और सैकड़ों पत्रकार देश भर से उपस्थित थे। लैकिन मैंने प्रधानमंत्री इंदिराजी को उसमें निमंत्रित नहीं किया था।
अक्षयजी को मैंने बता दिया था कि यदि आप उन्हें निमंत्रित करेंगे तो मैं उनके साथ मंच पर नहीं बैठूंगा, हालांकि इंदिराजी मुझे खूब जानती थीं और मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान भी था लेकिन आपातकाल के दौरान मेरे पिताजी (इंदौर) में और जयप्रकाशजी, चंद्रशेखरजी, अटलजी, मोरारजी भाई और ढेरों समाजवादी और जनसंघी मित्र लोग जेल में बंद थे।
आपातकाल के दौरान मधु लिमये, जार्ज फर्नाडीज़, कमलेश शुक्ल, स्वामी अग्निवेश आदि मित्रगण से जैसे-तैसे संपर्क बना हुआ था। कई समाजवादी, जनसंघी और पूर्व कांग्रेसी नेता सफदरजंग एनक्लेव के मेरे उस घर में लुक-छिपकर रहा भी करते थे। उन दिनों जहां भी मेरे भाषण हुए, मैंने आपातकाल की आलोचना की, एक बार सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल की उपस्थिति में जबलपुर विश्वविद्यालय के एक समारोह में भी। अन्य कई संस्मरण फिर कभी! (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
‘ब्रिक्स’ याने ब्राजील, एशिया, इंडिया, चाइना और साउथ अफ्रीका! इन देशों के नाम के पहले अक्षरों को जोडक़र इस अंतरराष्ट्रीय संगठन का नाम रखा गया है। इसका 14 वाँ शिखर सम्मेलन इस बार पेइचिंग में हुआ, क्योंकि आजकल चीन इसका अध्यक्ष है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन नहीं गए लेकिन इसमें उन्होंने दिल्ली में बैठे-बैठे ही भाग लिया। उनके चीन नहीं जाने का कारण बताने की जरुरत नहीं है, हालांकि गलवान-विवाद के बावजूद चीन-भारत व्यापार में इधर काफी वृद्धि हुई है।
ब्रिक्स के इस संगठन में भारत अकेला ऐसा राष्ट्र है, जो दोनों महाशक्तियों के नए गठबंधनों का सदस्य हैं। भारत उस चौगुटे का सदस्य है, जिसमें अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया भी सम्मिलत हैं और उस नए चौगुटे का भी सदस्य है, जिसमें अमेरिका, इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात (यू.ए.ई.) सदस्य हैं। चीन खुले-आम कहता है कि ये दोनों गुट शीतयुद्ध-मानसिकता के प्रतीक हैं। ये अमेरिका ने इसलिए बनाए हैं कि उसे चीन और रूस के खिलाफ जगह-जगह मोर्चे खड़े करने हैं।
यह बात चीनी नेता शी चिन फिंग ने ब्रिक्स के इस शिखर सम्मेलन में भी दोहराई है लेकिन भारत का रवैया बिल्कुल मध्यममार्गी है। वह न तो यूक्रेन के सवाल पर रूस और चीन का पक्ष लेता है और न ही अमेरिका का! इस शिखर सम्मेलन में भी उसने रूस और यूक्रेन में संवाद के द्वारा सारे विवाद को हल करने की बात कही है, जिसे संयुक्त वक्तव्य में भी उचित स्थान मिला है। इसी तरह मोदी ने ब्रिक्स राष्ट्रों के बीच बढ़ते हुए पारस्परिक सहयोग की नई पहलों का स्वागत किया है। उन्होंने जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया है, वह है— इन राष्ट्रों की जनता का जनता से सीधा संबंध!
इस मामले में भारत के पड़ौसी दक्षेस (सार्क) के देशों का ही कोई प्रभावशाली स्वायत्त संगठन नहीं है तो ब्रिक्स और चौगुटे देशों की जनता के सीधे संपर्कों का क्या कहना? मेरी कोशिश है कि शीघ्र ही भारत के 16 पड़ौसी राष्ट्रों का संगठन ‘जन-दक्षेस’ (पीपल्स सार्क) के नाम से खड़ा किया जा सके। ब्रिक्स के संयुक्त वक्तव्य में आतंकवाद का विरोध भी स्पष्ट शब्दों में किया गया है और अफगानिस्तान की मदद का भी आह्वान किया गया है। किसी अन्य देश द्वारा वहां आतंकवाद को पनपाना भी अनुचित बताया गया है।
चीन ने इस पाकिस्तान-विरोधी विचार को संयुक्त वक्तव्य में जाने दिया है, यह भारत की सफलता है। ब्रिक्स के सदस्यों में कई मतभेद हैं लेकिन उन्हें संयुक्त वक्तव्य में कोई स्थान नहीं मिला है। ब्रिक्स में कुछ नए राष्ट्र भी जुडऩा चाहते हैं। यदि ब्रिक्स की सदस्यता के कारण चीन और भारत के विवाद सुलझ सकें तो यह दुनिया का बड़ा ताकतवर संगठन बन सकता है, क्योंकि इसमें दुनिया के 41 प्रतिशत लोग रहते हैं, इसकी कुल जीडीपी 24 प्रतिशत है और दुनिया का 16 प्रतिशत व्यापार भी इन राष्ट्रों के द्वारा होता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-बादल सरोज
कोलम्बिया नाम के देश की राजधानी बोगोटा हमसे 8246 मील यानी 13271 किलोमीटर की दूरी पर है। इसे तय करने में बिना स्टॉपेज के लगातार हवाई यात्रा से 20 घंटे लगते हैं। भारत की प्रचलित लोक भाषा में कहें तो भारत के लिए पाताल लोक है-तकरीबन ठीक हमारे नीचे। इतनी दूरी पर बसे देश के बारे में इन पंक्तियों को लिखते हुये और इससे कुछ अधिक दूरी पर बैठे आपके द्वारा पढ़ते हुए पहला सवाल यही कौंधा कि इत्ती दूर हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों पर हमें क्यों खुश होना चाहिए? कहने की जरूरत नहीं कि अंतरराष्ट्रीयतावाद की वैचारिक परवरिश और वसुधैव कुटुम्बकम मानने वाले देश भारत में पैदाइश इस प्रश्न को निरर्थक बनाती है। फिर भी सवाल उठा है टी इसकी वजहें ढूंढने चाहिए।
इसकी अनेक वजहें हैं -
हालांकि हमारे लिए तो इसकी एक ही वजह काफी है कि यह हमारे सर्वकालिक प्रिय लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्कवेज का देश है। अपनी जादुई यथार्थवादी शैली के लिए विख्यात मार्केज(6 मार्च 1927-17 अप्रैल 2014) -इन्हें मार्खेज भी उच्चारित करते हैं-स्पेनिश भाषा के उपन्यास लेखक और कथाकार थे। 70-80 के दशक से उनकी अंगरेजी और हिंदी में अनूदित लगभग हर किताब ढूंढकर और उस जमाने में खरीद कर पढ़ी है जब पॉकेट मनी के नाम पर मात्र अठन्नी मिला करती थी! उनकी नोबल सम्मानित हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड (एकांत के सौ बरस) कृति एक असाधारण उपन्यास है। इसे पढ़ा जाना चाहिए।
यूं तो उनका लिखा हर शब्द पठनीय है मगर फिर भी जिन्हे बिना इतिहास पढ़े, लैटिन अमेरिका और उसके मिजाज के बारे में जानना है उन्हें उनकी एक किताब और पढऩी चाहिए; दि जनरल इन हिज लैब्रिंथ। इसी के साथ फिदेल कास्त्रो के 17 घंटे लंबे इंटरव्यू के साथ लिखी उनकी भूमिका ‘पर्सनल पोर्टेट ऑफ फिदेल’ तथा ‘फिदेल कास्त्रो; माय अर्ली इयर्स’ निबंध भी पढ़े जा सकते हैं।
(टेंशन नहीं लेने का; धीरज से खंगालेंगे तो सब कुछ इंटरनेट पर मिल जाएगा। छपे रूप में बहुत कुछ लेफ्टवर्ड और वाम प्रकाशन पर भी है।)
बहरहाल इस निजी कारण को छोड़ दें तब भी हमे इसलिए खुश होना चाहिए ;
कि कोलंबिया ने अपने 212 वर्षों के इतिहास में पहली बार कोई वामपंथी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुना है। दूसरे दौर तक गए मुकाबले में गुजरे रविवार 19 फरवरी को वामपंथी गठबंधन के उम्मीदवार गुस्ताव पेट्रो ने 50.48 फीसदी वोट पाकर निर्णायक जीत हासिल की। दक्षिणपंथी प्रत्याशी को 47.26 फीसदी वोट मिले। उपराष्ट्रपति के लिए दूसरों के घरों में काम करने वाली मेड वामपंथी उम्मीदवार मिस फ्राँसिया मार्केज जीती; वे मजदूरिन के साथ साथ पहली काली महिला है जो इस पद पर पहुंची हैं।
कि पिछली 20-25 वर्षों से दक्षिण अमरीका के 12 संप्रभु देशों में से 11 में वाम या वामोन्मुखी राष्ट्रपति और सरकारें बनी हैं, बनती रही हैं, सिर्फ यही दूसरा बड़ा देश कोलम्बिया इस बदलाव से बचा रहा था- अब वहां भी वामपंथ की जीत एक बड़ी राजनीतिक घटना है। यह सिर्फ दुनिया के स्वयंभू दरोगा-सह-लुटेरे संयुक्त राज्य अमरीका के गाल पर तमाचा भर नहीं है ; यह साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ जनादेश भी है, उनके विरुद्ध वर्गसंघर्ष का उच्चतर स्थिति में पहुंचना है। ध्यान रहे कि नवउदार नीतियों का पहला कसाईखाना इसी दक्षिण अमरीका के देशों को बनाया गया था। यूं साम्राज्यबवादी लूट का भी शुरुआती निशाना यही था; कम्बखत क्रिस्टोफर कोलम्बस अपनी तीसरी यात्रा में इसी के पड़ोस वेनेजुएला में पहुंचा था।
कि इस महाद्वीप को इस कदर रौंदा गया कि बाकी सब तो छोडिय़े इनकी भाषाएँ-जो कई हजार थीं, जी कई हजार-भी मिटा दी गईं। आज इस महाद्वीप में बोली जानेवाली पांचो प्रमुख भाषाएँ स्पेनिश, पुर्तगाली, जर्मन, डच, इटैलियन और अंगरेजी है, जो हजारों किलोमीटर दूर से आये लुटेरों की भाषा हैं, यहां के बाशिंदों की नहीं हैं।
कि इस ‘अँधेरे के महाद्वीप’ में कोलंबिया अमरीकी साम्राज्यवाद का आखिरी विकेट था। क्यूबा में पिछले 6 दशक से भी ज्यादा समय से कम्युनिस्ट हुकूमत है। ह्यूगो शावेज के बाद से अब बस ड्राइवर निकोलस मादुरो तक वेनेजुएला में वामपंथ अडिग है। बोलीविया में इवो मोरालेस से शुरू हुआ वामपंथी दौर लुइस आर्क के राष्ट्रपति बनने तक जारी है। पिछली साल ही चिली, पेरू और होंडुरास नाम के देशों में वामपंथी राष्ट्रपति जीते हैं। ब्राजील भी कुछ महीनों में जुझारू वाम नेता लूला डी सिल्वा को फिर से चुनने जा रहा है।
गरज ये कि संयुक्त राज्य अमरीका-यूएसए-का पिछवाड़ा कहे जाने वाले महाद्वीप ने साम्राज्यवाद के पिछवाड़े पर लात मारकर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया है।
कि कोलम्बिया सामान्य देश नहीं है। यह मु_ी भर धनपिशाचों-ओलिगार्क-की जकडऩ में जकड़ा यातनागृह है। यह दुनिया की नशे की राजधानी-ड्रग कैपिटल-है, जहाँ बर्बर ड्रग तस्करों की तूती बोलती है। कभी ‘दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी’ कहा जाने वाला पाब्लो एस्कोबार, कोकीन का अब तक का सबसे चालबाज सौदागर यहीं का था। आज भी सबसे ज्यादा कोकीन का निर्यात यहीं से होता है। इस ड्रग माफिया का सरकार के हर तंत्र पर कब्जा है।
कि इनके विरोध में जो भी बोलता है उनकी ह्त्या करवा देना आम बात है। पिछले समय में राष्ट्रपति पद के जिन जिन उम्मीदवारों ने इस ओलिगार्की के खिलाफ आवाज उठाई वे दिनदहाड़े मार डाले गए। इनमें जॉन एलीसर गैटन, जैमे पार्दो लील, बरनार्डो जरामीलो, कार्लोस पिजारो, लुइस कार्लोस गलन शामिल हैं।
कि यहां जब जब वामपंथ ने एक राजनीतिक पार्टी के रूप में खुद को संगठित करने की कोशिश की, उनका कत्लेआम जैसा कर दिया गया। पेट्रियोटिक यूनियन इसकी मिसाल है। पिछली 8 वर्षों में इस पार्टी के 1163 नेता मार डाले गए। इनमें राष्ट्रपति पद के 2 उम्मीदवार, 13 सांसद और 11 महापौर शामिल हैं। इस लिहाज से यह जीत निस्संदेह और असाधारण हो जाती है।
कि इन सब कठिन और जानलेवा हालात में कोलम्बियन कम्युनिस्ट पार्टी, कोलम्बिया ह्यूमाना सहित सारी वामपंथी पार्टियों ने एक जन गठबंधन-मॉस कोलिशन-बनाकर चुनाव लड़ा; पूर्व गुरिल्ला फाइटर पेट्रो को राष्ट्रपति तथा जुझारू आंदोलनकारी सुश्री फ्रांसिया मार्केज को उपराष्ट्रपति के लिए जिताया।
कि यह लंबे समय से कोलम्बिया अशांत है। आंतरिक कलह और टकरावों के कोई ढाई लाख लोग मारे जा चुके हैं, 25 हजार गायब किए हैं, 60 लाख अपने इलाकों से विस्थापित कर शरणार्थी बने हुए हैं। यह चुनाव परिणाम इन नागरिकों के लिए शांति की बहाली की उम्मीद लेकर आया है।
कि यह वह कोलम्बिया है ;
जहाँ 34 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, 1 करोड़ 27 लाख कोलम्बियन्स मात्र 2 डॉलर प्रति दिन की आमदनी पर गुजारा करने के लिए अभिशप्त हैं।
जहाँ ऊपर के 10 प्रतिशत आबादी की प्रतिव्यक्ति आय नीचे के 10 प्रतिशत की तुलना में 46 गुना ज्यादा है।
जहां आबादी का 17 फीसद से अधिक बेरोजगार है और बेरोजगारी की दर पूरी लैटिन अमरीका में सबसे ज्यादा है।
जहां करीब 30 प्रतिशत नागरिकों के पास समुचित आवास नहीं है-इनके अलावा 662146 परिवार यानी आबादी का कोई 5 प्रतिशत बेघर हैं।
जहाँ गरीब ग्रामीण घरों में 81 प्रतिशत ऐसे हैं जिनके पास नल के पानी की सुविधा नहीं है।
जहाँ करीब 68 प्रतिशत आबादी भीड़-भड़क्के वाले घरों में रहने को मजबूर है।
जहाँ शहरों की आधी और गाँवों की 80 प्रतिशत श्रम शक्ति असंगठित क्षेत्र-इसे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था कहा जाता है-में काम करते हैं। इनमें बहुतायत खेत मजदूर, टैक्सी ड्राइवर्स, ठेला-खोमचा लगाने वाले श्रमिक हैं जिन्हें पेंशन या किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है; 2014 में कुल श्रम शक्ति का दो तिहाई असंगठित क्षेत्र में था, अब यह और बढ़ गया है।
कि यह जीत सिर्फ असंतोष और खीज का नतीजा नहीं है, यह उन शानदार संघर्षों का फल है जो हाल के समय में कोलम्बिया के मेहनतकशों ने किए। अप्रैल, मई और जून 2021 में हर महीने राष्ट्रीय स्तर की हड़तालें हुईं, इन हड़तालों के नतीजों में सरकार को अनेक राहतें देने, सब्सिडी बढ़ाने की घोषणायें करनी पड़ी। यह संघर्ष उस दौर में हुए जब आंदोलनकारियों पर पुलिस ने बेइंतहा जुल्म ढाये, हत्याओं की पूरी श्रृंखला सी चली, बर्खास्तगियों और दमन की सारी सीमाएं लांघ दी गयीं।
वह भी उस समय
जब समझदार और ईमानदार बुद्धिजीवी कहते हैं कि यह समय दुनिया में दक्षिणपंथ के उभार का समय है। फ्रैंकली कहें तो हमे यह अधूरी बात लगती है ।
क्यों ?
इसलिए कि हम जिस विचार को मानते हैं उसका कहना है कि ‘अब तक जितने भी दर्शन हुए हैं उन्होंने बताया है कि ये दुनिया क्या है, मगर सवाल यह है कि इसे बदला कैसे जा सकता है।’
उसी दर्शन ने यह भी कहा है कि ‘परिस्थितियां अपनी इच्छा के मुताबिक नहीं होती हैं । वे ‘होती’ हैं-बदलाव के लिए काम करने वालों को उन्हीं परिस्थितियों में परिवर्तन करने के रास्ते खोजने होते हैं। हमें इसलिए खुश होना चाहिए कि कोलम्बिया ने उस रास्ते की तलाश की है ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह मानकर चला जा सकता है कि महाराष्ट्र की गठबंधन-सरकार का सूर्य अस्त हो चुका है। यदि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अपने बाकी नेता एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री पद देने को भी तैयार हों तो भी यह गठबंधन की सरकार चलने वाली नहीं है, क्योंकि शिंदे उस नीति के बिल्कुल खिलाफ हैं, जो कांग्रेस और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के प्रति ठाकरे की रही है।
शिवसेना के बागी विधायकों की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि ठाकरे ने अपनी कुर्सी के खातिर कांग्रेस और एनसीपी को न सिर्फ महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंप दिए हैं बल्कि शिवसेना के विधायकों की वे जऱा भी परवाह नहीं करते हैं। इसके अलावा ठाकरे के खिलाफ लगभग सभी शिवसेना के विधायकों की गंभीर शिकायत यह है कि मुख्यमंत्री अपने विधायकों को भी मिलने का समय नहीं देते हैं। विधायक अपने निर्वाचकों की शिकायतें दूर करने के लिए आखिर किसके पास जाएं?
शिवसेना में बरसों से निष्ठापूर्वक सक्रिय नेताओं को इस बात पर भी नाराजी है कि शिवसेना ने हिंदुत्ववादी भाजपा का साथ छोड़ दिया और जिस कांग्रेस के खिलाफ बालासाहब ठाकरे ने शिवसेना बनाई थी, उद्धव ठाकरे उसी की गोद में बैठ गए। उद्धव ने किसी वैचारिक मतभेद के कारण नहीं, बल्कि व्यक्तिगत राग-द्वेष और आरोपों-प्रत्यारोपों के कारण भाजपा से वर्षों पुराना संबंध तोड़ लिया। शिवसेना को वे एक राजनीतिक पार्टी की तरह नहीं, बल्कि किसी सेना की तरह चलाते हैं।
हर शिव सैनिक अपने कमांडर की हां में हां मिलाने के लिए मजबूर है। सेना से भी ज्यादा यह पार्टी एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गईं है। जैसे बालासाहब की कुर्सी पर उद्धव जा जमे हैं, वैसे ही वे अपने बेटे आदित्य को अपनी कुर्सी पर जमाने के लिए उद्यत हैं। शिवसेना के अन्य नेताओं के मन में पल रही ये ही चिंगारियां आज ज्वाला के रूप में प्रकट हो रही हैं। शिंदे के पास 2/3 बहुमत की बात सुनते ही उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री निवास छोड़ दिया है। वे ऐसे बयान दे रहे हैं, जैसे उन्हें मुख्यमंत्री पद की कोई परवाह ही नहीं है।
वे कह रहे हैं कि सरकार रहे या जाए, शिवसेना के लाखों कार्यकर्त्ता उनके साथ हैं। लेकिन इस सरकार के गिरने के बाद शिवसेना के ये कार्यकर्ता पता नहीं किधर जाएंगे? वे शिंदे को अपना नेता मानेंगे या उद्धव ठाकरे को? जाहिर है कि शिंदे अब कांग्रेस और शरद पवार से हाथ नहीं मिलाएंगे। उनकी गठबंधन सरकार अब भाजपा के साथ ही बनेगी।
भाजपा उन्हें खुशी-खुशी उप-मुख्यमंत्री का पद देना चाहेगी। उद्धव ठाकरे को सबक सिखाने के लिए शिंदे को भाजपा मुख्यमंत्री पद भी दे सकती है। यह घटना-क्रम देश के सभी नेताओं के लिए बड़ा सबक सिद्ध हो सकता है। एक तो राजनीतिक पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी न बनने दिया जाए और दूसरा पदारुढ़ नेता लोग अहंकारग्रस्त न हों। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्राण चड्ढा
कहने वालों ने कभी सच ही कहा है एक जंगल में दो टाइगर नहीं रह सकते। आज यह प्रमाणित हो चुका है।
टाइगर एक जंगल से दूसरे जंगल प्रवास करते हैं। जिसके कारण भी है।
टाइगर अपने शिकार, पानी, और प्रजनन लिए एरिया बदलते हैं इसके अलावा सुरक्षागत कारणों से जंगल छोड़ दूसरे जंगल में चले जाते हैं। टाइगर रात में मीलों चल सकता है और बहुत लंबी दूरी तय कर प्रवास कॉल बाद वापस भी आ सकता है। बान्धवगढ़ टाइगर रिजर्व की एक साल में दो टाइगर के अचानकमार टाइगर रिजर्व में मिलने की पुष्टि हुई है।
किसी एरिया में आम तौर एक प्रभावी टाइगर रहता है, दूसरे को वह खदेड़ देता है। प्रत्येक टाइगर अपने एरिया की हदबन्दी पेड़ों पर नाखून से निशान बनाकर अथवा मूत्र गन्ध का छिडक़ाव कर करता है। लेकिन उसके इस इलाके में एक से अधिक टाइग्रेस रह संगनी बन कर अलग-अलग रह सकती हैं। टाइगर निरन्तर अपने इलाके की गश्त करते रहता है और अपने इलाके में किसी प्रतिद्वंदी को फटकने नहीं देता। पर जब वह उम्रदराज, अशक्त हो जाए तो कोई युवा और शक्तिशाली टाइगर से जान बचाने अपना एरिया छोड़ कर दूसरे एरिया जाना पड़ता है जहाँ उसको जीवन के चौथे पड़ाव पर शिकार मिल सके और अन्य किसी टाइगर का खतरा भी नहीं हो।
वन्य जीवों में इनब्रीडिंग से बचाने के प्राकृतिक तरीका है। शाकाहारी वन्य जीवों में प्रजनन योग्य नर को झुंड से बाहर कर दिया जाता है वो साथ-साथ रहते हैं और बाद मजबूत होने पर किसी दूसरे झुंड के नर को परास्त करके उसके हरम पर काबिज हो जाते हैं। मगर नर टाइगर की बात अलग है वह अकेला रहता है और वक्त आने पर कमजोर हो रहे किसी दूसरे नर का एरिया उसे हरा के अपना बना लेता है। इस तरह इनब्रीडिंग से टाइगर परिवार बचा चला आ रहा है।
शिकार ही नहीं पानी का संकट और उसकी खुराक श्रंगधारी जीवों की कमी की वजह टाइगर एक से दूसरे जंगल जाना पड़ता है। टाइगर गर्मी में नहाता है और अच्छा तैराक भी होता है, सुंदरवन में टाइगर को लम्बी दूरी तैर के तय करते देखा जाता है।
कभी-कभी मानव की करतूतों से परेशान टाइगर एक जंगल छोड़ दूसरी जगह चला जाता है, जैसे उसके रहवास में पेड़ कटाई, खान-कर्म या फिर मानव की आवाजाही वृद्धि। शिकारी या जाल के खौफ को भी टाइगर समझता है जिस वजह वह पलायन कर जाता है। यह भी जांच या शोध का विषय हो सकता है कि बाँधवगढ़ में उड़ीसा के लिए ‘सुंदरी’ को पकड़े जाने के बाद झुमरी ने किसी भय से अचानकमार टाइगर रिजर्व में पनाह तो नहीं ली।
टाइग्रेस भी शावकों की सुरक्षा के मद्देनजऱ पलायन करतीं है। जहां टाइगर अधिक होते हैं वहाँ पिता को छोड़ अन्य टाइगर के द्वारा उसके शावकों को मारे जाने का खतरा होता है। कहा तो यह भी जाता है कि इस खतरे से बचने के टाइग्रेस, आसपास के इलाके के एक से अधिक टाइगर के सम्पर्क में आती है जिससे उसके शावकों को सभी टाइगर अपना शावक समझे और उनकी हत्या कोई नहीं करें। इस संदर्भ में वह गर्भकाल में प्रवास कर अन्यत्र भी बच्चे देती है जहाँ टाइगर कम हो। जैसे कि अचानकमार का जंगल, यहां चीतल सांभर कम है। लेकिन गाय और भैंसे यहां इफराद जो कम मेहनत में मदर टाइग्रेस की शिकार बन जाते हैं। यहां वह शावकों को कम भागदौड़ कर शिकार करने का हुनर सीखा सकतीं हैं।
-दिलनवाज पाशा
एकनाथ शिंदे की बागी चाल में फंसे और सरकार बचाने की चुनौती का सामना कर रहे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने बुधवार शाम एक लाइव भाषण में शिव सेना के विधायकों से कहा कि ‘अगर एक भी विधायक मुझे पद से हटाना चाहता है तो मैं पद छोड़ दूंगा, मेरा इस्तीफा तैयार है।’
उद्धव ठाकरे ने स्पष्ट किया कि गठबंधन सहयोगी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का समर्थन तो उन्हें प्राप्त है लेकिन अपनी ही पार्टी शिव सेना का नहीं।
सियासी रूप से कमज़ोर पड़ चुके उद्धव ठाकरे ने पद छोडऩे से पहले ही सरकारी आवास ‘वर्षा’ छोड़ दिया और वो अपना सामान समेट कर मातोश्री पहुँच गए।
28 नवंबर 2019 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीति में ख़ास असर रखने वाले ठाकरे परिवार के संवैधानिक पद पर बैठने वाले पहले व्यक्ति बने थे।
ठाकरे का मुख्यमंत्री बनना महाराष्ट्र की राजनीति की ऐतिहासिक घटना थी। विचारधारा के दो विपरीत छोर पर खड़ी पार्टियां सियासी मजबूरियों की वजह से साथ आईं और महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन बना।
मुख्यमंत्री बनने के लिए उद्धव ठाकरे ने भाजपा के साथ दशकों चला गठबंधन तोड़ा।
शिव सेना और बीजेपी 1984 में करीब आईं और 1989 लोकसभा चुनावों से पहले दोनों दलों का गठबंधन हो गया। बीच में 2014 में कुछ समय के लिए इस गठबंधन में दरार आई।
हिंदुत्व ने शिव सेना और बीजेपी को जोड़े रखा और 2019 विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने मिलकर लड़ा। लेकिन सरकार गठन से ठीक पहले उद्धव ठाकरे बीजेपी से अलग हो गए और विपरीत विचारधारा वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई।
उद्धव ठाकरे की सरकार ने कई उतार-चढ़ावों से गुजरते हुए ढाई साल पूरे किए और अब एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी विधायकों की बगावत के बाद उनकी सरकार संकट में है।
अब उद्धव ठाकरे के सामने सिर्फ सरकार ही नहीं अपनी पार्टी बचाने की भी चुनौती है क्योंकि बागी एकनाथ शिंदे ने शिव सेना पर ही दावा ठोक दिया है।
महाराष्ट्र के मौजूदा सियासी घमासान में का एक नतीजा ये भी हो सकता है कि एकनाथ शिंदे बागी शिव सेना विधायकों के साथ बीजेपी से हाथ मिले लें और राज्य में सत्ता बदल जाए। इसी के साथ उद्धव ठाकरे के लगभग ढाई साल के कार्यकाल का भी अंत हो जाएगा।
शिवसेना ने भले ही धर्मनिरपेक्ष दलों से गठबंधन किया लेकिन वो हमेशा ये दावा करती रही कि उसकी विचारधारा हिंदुत्व ही है
शिवसेना ने भले ही धर्मनिरपेक्ष दलों से गठबंधन किया लेकिन वो हमेशा ये दावा करती रही कि उसकी विचारधारा हिंदुत्व ही है
उद्धव ठाकरे जब मुख्यमंत्री बने थे तो लोगों की दिलचस्पी उनमें थी। पहली बार ठाकरे परिवार का कोई व्यक्ति संवैधानिक पद पर बैठा था। इससे पहले ठाकरे परिवार के किसी सदस्य ने कभी ना ही कोई चुनाव लड़ा था और ना ही कभी कोई संवैधानिक पद संभाला था।
उद्धव ठाकरे जब सत्ता में आए थे तब उनकी छवि बेदाग थी। उन पर कभी किसी तरह के भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा था।
उद्धव ठाकरे के कार्यकाल को देखा जाए तो उस पर कोविड महामारी हावी नजऱ आती है। विश्लेषक मानते हैं कि इन ढाई सालों में उद्धव ठाकरे ने कोविड के ख़िलाफ़ तो जमकर काम किया लेकिन इसके अलावा वो कुछ और उल्लेखनीय नहीं कर पाए।
कोविड में हीरो
उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बने हुए चार महीने भी नहीं हुए थे कि महाराष्ट्र में कोविड के पहले मामले की पुष्टि हो गई थी। भारत में महाराष्ट्र कोविड से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में से एक था।
कोविड महामारी के दौरान उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री के रूप में सोशल मीडिया पर सुपर एक्टिव थे और जनता से सीधा संवाद कर रहे थे। महामारी के दौरान हुए एक सर्वे में उन्हें देश के सर्वश्रेष्ठ पाँच मुख्यमंत्रियों में शामिल किया गया था।
लोकमत अखबार के वरिष्ठ सहायक संपादक संदीप प्रधान कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे ने सबसे अच्छा काम कोरोना के समय किया। मुंबई के धारावी जैसी झुग्गी बस्ती में कोरोना को नियंत्रित करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। उद्धव ठाकरे ने इन मुश्किल हालात को सही से संभाला।’
बीबीसी मराठी के संपादक आशीष दीक्षित भी मानते हैं कि कोविड के दौरान उद्धव ठाकरे ने फ्रंटफुट पर आकर काम किया। दीक्षित कहते हैं, ‘महाराष्ट्र कोविड से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में था। जब कोविड के आंकड़े बढ़ रहे थे तब उद्धव ठाकरे ने सोशल मीडिया के माध्यम से जनता से सीधा संवाद स्थापित किया और सरकार की बात लोगों तक पहुंचाई।’
दीक्षित कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि कोविड के दौरान उद्धव सक्रिय दिखे और उन्होंने संवाद बनाए रखा। उस समय लोगों को उद्धव ठाकरे को बहुत अच्छे लग रहे थे क्योंकि उनका बात करने का तरीका बिल्कुल सामान्य था। वो लोगों से ऐसे बात करते थे जैसे दोस्त आपस में बैठकर बात करते हैं। लोगों को लग रहा था कि ये हमारे बीच का ही कोई है जो हमसे बात कर रहा है। उद्धव ठाकरे भले ही एकतरफा संवाद कर रहे थे लेकिन लोगों को ये अच्छा लग रहा था।’
कोविड के दौरान उद्धव सरकार ने जंबो कोविड सेंटर शुरू किए। दूसरी लहर के दौरान जब दिल्ली-लखनऊ जैसे शहरों में ऑक्सीजन नहीं मिल रही थी, मुंबई में स्थिति नियंत्रण में थी। शिव सेना ये दावा करती रही है कि कोविड महामारी के दौरान उसने मुंबई जैसे बड़ी आबादी वाले शहर में हालात नियंत्रण में रखे।
उद्धव ठाकरे ने अपने आप को घर तक ही सीमित रखा और वो बहुत कम बाहर निकले। उद्धव दिल के मरीज़ हैं और 2012 में सर्जरी के बाद उन्हें 8 स्टेंट भी लग चुके हैं। नवंबर 2021 में उद्धव अस्पताल में भर्ती हुए थे और उनकी रीढ़ की सर्जरी की गई थी।
उद्धव ठाकरे ने अधिकतर कैबिनेट बैठकें वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए ही कीं। वो बहुत कम बार मंत्रालय गए। सरकारी आवास वर्षा, जहाँ से सरकार चलती है, वहाँ भी वो कम ही रहे और अपने निजी बंगले में ही अधिक रहे।
आशीष दीक्षित कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे वर्चुअली तो लोगों को दिख रहे थे लेकिन उनकी फिजिकल विजीबिलिटी नहीं थी। वो एक तरह से नदारद थे। मुख्यमंत्री हमेशा प्रदेश का दौरा करता रहता है, जिलों में होता है, लेकिन उद्धव ठाकरे मुंबई से बाहर एक-दो बार ही निकले। वास्तव में वो अपने घर से बाहर भी नहीं निकले।’
दीक्षित कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे कई बार विधानसभा सत्रों में भी नहीं गए। ये चर्चाएं होती थीं कि उद्धव सदन में आएंगे या नहीं।’
वहीं संदीप प्रधान मानते हैं कि उद्धव के बहुत अधिक लोगों के बीच में ना जानें की वजह उनका स्वास्थ्य और स्वभाव है।
संदीप प्रधान कहते हैं, ‘उद्धव जब पार्टी के अध्यक्ष थे तब भी अपनी शर्तों पर ही लोगों से मिलते थे। वो बहुत घुलते मिलते नहीं है और आमतौर पर लोगों के बीच नहीं जाते हैं।’
उद्धव ठाकरे स्वास्थ्य की वजह से भी अपने आप को सीमित रखते हैं। हालांकि महाराष्ट्र में ही शरद पवार जैसे बुज़ुर्ग नेता हैं जो बहुत सक्रिय रहते हैं और आमतौर पर दौरे करते रहते हैं।
संदीप प्रधान कहते हैं, ‘शरद पवार अलग-अलग जिलों में घूमते रहते हैं। लेकिन उनकी तुलना में उद्धव ठाकरे कभी सक्रिय नजर नहीं आए। इसकी एक ही साफ वजह दिखती है कि वो अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित रहते हैं।’
संदीप प्रधान कहते हैं, ‘गवर्नेंस (शासन) के मामले में उद्धव बहुत प्रभावी नहीं रहे। उनकी सरकार में फाइलें लंबित पड़ी रहीं। मंत्रियों और विधायकों से संवाद कमजोर रहा। संवाद ना होना ही मौजूदा राजनीतिक संकट की जड़ में है।’
उद्धव ठाकरे तीन पार्टियों के गठबंधन की सरकार चला रहे थे। उनके पास अपना पूर्ण बहुमत नहीं था। विश्लेषक ये भी मानते हैं कि जिस तरह का नियंत्रण एक गठबंधन सरकार पर मुख्यमंत्री का होना चाहिए था वैसा वो बना नहीं पाए थे।
संदीप प्रधान कहते हैं, ‘अलग-अलग विचारों की पार्टियों का गठबंधन है। उन पर नियंत्रण करने के लिए जो अथॉरिटी चाहिए वो उद्धव के पास नहीं रहा। उद्धव के पास प्रशासन या सरकार चलाने का बहुत अनुभव भी नहीं था।’
कोई ऐसा काम नहीं जिस पर उद्धव की छाप हो
उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री कार्यकाल के अधिकतर समय कोविड हावी रहा। कोविड के दौरान भले ही उन्होंने वाहवाही लूटी हो लेकिन इसके अलावा ऐसा कोई उल्लेखनीय काम महाराष्ट्र सरकार का नजऱ नहीं आता जिस पर उद्धव ठाकरे की छाप हो।
आशीष दीक्षित कहते हैं, ‘कोविड छोडक़र अगर दूसरे कामों की बात करें तो शायद ही ऐसा कोई बड़ा काम हो जो महाराष्ट्र सरकार ने उद्धव के शासन काल में किया हो। जो पहले से बड़े प्रोजेक्ट चल रहे थे, जैसे नागपुर-मुंबई समृद्धि महामार्ग, ये बड़ा प्रोजेक्ट पिछली सरकार ने शुरू किया था और उद्धव सरकार ने इसे आगे बढ़ाया। पुणे और मुंबई मेट्रो का काम भी चल रहा है। ये भी पिछली सरकारों के शुरू किए प्रोजेक्ट हैं। उद्धव सरकार का ऐसा कोई बड़ा काम या प्रोजेक्ट नजर नहीं आता जिसमें उनका विजऩ या सोच दिखाई दे।’
कई मोर्चों पर नाकाम
उद्धव ठाकरे के शासन काल में महाराष्ट्र में स्टेट ट्रांसपोर्ट की बसों की सबसे लंबी हड़ताल हुई। छह महीनों से अधिक समय तक बसें हड़ताल पर रहीं और उद्धव सरकार इस संकट का समाधान नहीं कर पाई। ये हड़ताल लंबी होती गई और सरकार स्थिति को संभाल नहीं पाई।
महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड की परिक्षाओं को लेकर भी असमंजस की स्थिति बनीं रही। परिक्षाओं की तारीख़ें बदलती रहीं। बेसब्र होकर छात्रों को सडक़ पर उतरना पड़ा और ये एक बड़ा मुद्दा बन गया।
आशीष दीक्षित मानते हैं कि उद्धव ठाकरे को काम करने के लिए बहुत अधिक समय भी नहीं मिल पाया। दीक्षित कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे के कार्यकाल के ढाई साल में से लगभग दो साल कोविड में ही चले गए। सरकार का बहुत अधिक पैसा कोविड प्रबंधन में भी ख़र्च हुआ। दूसरे कामों के लिए सरकार के पास बहुत कम पैसा बचा।’
केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर
उद्धव ठाकरे ने केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी से नाता तोडक़र विपक्षी दलों के साथ गठबंधन सरकार बनाई थी।
विश्लेषक मानते हैं कि इसी वजह से उनकी सरकार केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर भी रही।
‘केंद्रीय एजेंसियां महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी को खासतौर पर निशाना बना रहीं थीं। पिछले लगभग 6-7 महीनों से शिवसेना के विधायक केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर हैं। हर सप्ताह किसी ना किसी विधायक या मंत्री के घर या दफ्तर पर छापा पड़ता है। कई आयकर विभाग, कभी नार्कोटिक्स तो कभी प्रवर्तन निदेशालय। किसी राजनेता की पत्नी तो किसी के रिश्तेदारों से पूछताछ की जाती है।’
उद्धव ठाकरे सरकार के दो मंत्री (दोनों ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से) नवाब मलिक और अनिल देशमुख गिरफ़्तार हो चुके हैं। अनिल देशमुख गृहमंत्री थे और इस्तीफ़ा दे चुके हैं। नवाब मलिक अभी भी मंत्री हैं और जेल में हैं।
विश्लेषक मानते हैं कि केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाइयों ने भी उद्धव ठाकरे सरकार को तनाव में रखा।
मंगलवार को जब महाराष्ट्र में सियासी ड्रामा चल रहा था और शिवसेना संकट में थी तब उद्धव ठाकरे के सबसे भरोसमंद लोगों में से एक अनिल परब ईडी के दफ्तर में सवालों के जवाब दे रहे थे। अनिल परब उद्धव ठाकरे सरकार में ट्रांसपोर्ट मंत्री हैं। प्रवर्तन निदेशालय उन्हें गिरफ्तार भी कर सकता है।
आशीष कहते हैं, ‘केंद्रीय एजेंसियां महाराष्ट्र में कुछ अधिक ही सक्रिय थीं। इससे उद्धव ना सिर्फ तनाव में थे बल्कि कहीं और ध्यान भी नहीं दे पा रहे थे।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मालदीव की राजधानी माले में एक अजीब-सा हादसा हुआ। 21 जून को योग-दिवस मनाते हुए लोगों पर हमला हो गया। काफी तोड़-फोड़ हो गई। कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। मालदीव में यह योग-दिवस पहली बार नहीं मनाया गया था। 2015 से वहां बराबर योग-दिवस मनाया जाता है। उसमें विदेशी कूटनीतिज्ञ, स्थानीय नेतागण और जन-सामान्य लोग होते हैं। इन योग-शिविरों में देसी-विदेशी या हिंदू-मुसलमान का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता है। इसके दरवाजे सभी के लिए खुले होते हैं।
यह योग-दिवस सिर्फ भारत में ही नहीं मनाया जाता है। यह दुनिया के सभी देशों में प्रचलित है, क्योंकि संयुक्तराष्ट्र संघ ने इस योग-दिवस को मान्यता दी है। मालदीव में इसका विरोध कट्टर इस्लामी तत्वों ने किया है। उनका कहना है कि योग इस्लाम-विरोधी है। उनका यह कहना यदि ठीक होता तो संयुक्तराष्ट्र संघ के दर्जनों इस्लामी देशों ने इस पर अपनी मोहर क्यों लगाई है? उन्होंने इसका विरोध क्यों नहीं किया?
क्या मालदीव के कुछ उग्रवादी इस्लामी लोग सारी इस्लामी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं? सच्चाई तो यह है कि मालदीव के ये विघ्नसंतोषी लोग इस्लाम को बदनाम करने का काम कर रहे हैं। इस्लाम का योग से क्या विरोध हो सकता है? क्या योग बुतपरस्ती सिखाता है? क्या योगाभ्यास करने वालों से यह कहा जाता है कि तुम नमाज़ मत पढ़ा करो या रोजे मत रखा करो?
वास्तव में नमाज और रोज़े, एक तरह से योगासन के ही सरल रूप हैं। यह ठीक है कि योगासन करने वालों से यह कहा जाता है कि वे शाकाहारी बनें। शाकाहारी होने का अर्थ हिंदू या काफिर होना नहीं है। कुरान शरीफ की कौनसी आयत कहती है कि जो शाकाहारी होंगे, वे घटिया मुसलमान माने जाएंगे? जो कोई मांसाहार नहीं छोड़ सकता है, उसके लिए भी योगासन के द्वार खुले हुए हैं। योग का ताल्लुक किसी मजहब से नहीं है। यह तो उत्तम प्रकार की मानसिक और शारीरिक जीवन और चिकित्सा पद्धति है, जिसे कोई भी मनुष्य अपना सकता है।
क्या मुसलमानों के लिए सिर्फ वही यूनानी चिकित्सा काफी है, जो डेढ़-दो हजार साल पहले अरब देशों में चलती थी? क्या उन्हें एलोपेथी, होमियोपेथी और नेचरोपेथी का बहिष्कार कर देना चाहिए? बिल्कुल नहीं! आधुनिक मनुष्य को सभी नई और पुरानी पेथियों को अपनाने में कोई एतराज क्यों होना चाहिए? इसीलिए यूरोप और अमेरिका में एलोपेथी चिकित्सा इतनी विकसित होने के बावजूद वहां के लोग बड़े पैमाने पर योग सीख रहे हैं, क्योंकि योग सिर्फ चिकित्सा ही नहीं है, यह शारीरिक और मानसिक रोगों के लिए चीन की दीवार की तरह सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम भी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अग्निपथ को हमारे नेताओं ने कीचड़पथ बना दिया है। सरकार की अग्निपथ योजना पर पक्ष-विपक्ष के नेता कोई गंभीर बहस चलाते, उसमें सुधार के सुझाव देते और उसकी कमजोरियों को दूर करने के उपाय बताते तो माना जाता कि वे अपने नेता होने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं लेकिन सत्तारुढ़ भाजपा के नेता आंख मींचकर अग्निपथ का समर्थन कर रहे हैं और सारे विपक्षी नेता उस पर कीचड़ उछाल रहे हैं।
सरकार और फौज अपनी मूल योजना पर रोज ही कुछ न कुछ रियायतों की घोषणा कर रही है ताकि हमारे भावी फौजियों की निराशा दूर हो और उनमें थोड़े उत्साह का संचार हो लेकिन लगभग सभी विपक्षी दलों को यह एक ऐसा मुद्दा मिल गया है, जिसे भुनाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। यह तथ्य है कि अग्निपथ योजना के खिलाफ जो जबर्दस्त तोड़-फोड़ देश में हुई है, उसकी पहल स्वत: स्फूर्त थी। उसके पीछे किसी विपक्षी नेता या दल का हाथ नहीं था लेकिन अब आप टीवी चैनलों पर देख सकते हैं कि विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्त्ता और नेता हाथ में अपने झंडे लिए हुए नारे लगाते घूम रहे हैं।
ये वे लोग हैं, जिन्हें न तो खुद फौज में भर्ती होना है और न ही इनके बच्चों को फौजी नौकरी पाना है। जिन नौजवानों को फौजी नौकरी पाना है, उनका गुस्सा स्वाभाविक था। हर आदमी अपने जीवन में स्थायी सुरक्षा और सुविधा की कामना करता है। कोई भी नौजवान चार साल फौज में बिताने के बाद क्या करेगा, यह प्रश्न उसे विचलित किए बिना नहीं रहेगा। फौज में जाने को ग्रामीण, गरीब और अल्पशिक्षित नौजवान इसलिए भी प्राथमिकता देते हैं कि उन्हें युद्ध तो यदा-कदा लडऩा पड़ता है लेकिन उनका शेष समय पूरी सुविधाओं और सुरक्षा में बीतता है और सेवा-निवृत्त होने पर 30-40 साल तक पेंशन और मुफ्त इलाज आदि की सुविधाएं भी मिलती रहती हैं और वे चाहें तो दूसरी नौकरी भी कर सकते हैं।
लेकिन यह परंपरागत व्यवस्था दुनिया के सभी प्रमुख देशों में बदल रही है, क्योंकि फौज में कम उम्र के नौजवानों की ज्यादा जरुरत है। सारी फौज के शस्त्रास्त्रों की खरीद पर जितना पैसा खर्च होता है, उससे ज्यादा पेंशन पर हो जाता है। फौज का आधुनिकीकरण बेहद जरुरी है। सरकार के ये तर्क तो समझ में आते हैं लेकिन कितना अच्छा होता कि अग्निपथ की ज्वाला अचानक भडक़ाने की बजाय वह इस मुद्दे पर संसद और खबरपालिका में पहले सर्वांगीण बहस करवा देती।
अब उसकी इस घोषणा का असर जरुर पड़ेगा कि इस आंदोलन में भाग लेनेवाले जवानों को अग्निपथ की नौकरी नहीं मिलेगी। यह आंदोलन ठप्प भी हो सकता है। लेकिर बेहतर तो यह होता कि फौजी अफसर इस योजना को तुरंत लागू करने की घोषणा करने की बजाय इस पर सांगोपांग बहस होने देते और जो भी उत्तम सुझाव आते, उन्हें स्वीकार कर लिया जाता। अग्निपथ को कीचड़पथ होने से बचाना बहुत जरुरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
करीब चालीस अरब डॉलर का है योग उद्योग। योग से मिली उर्जा का उपयोग पूंजीवादी अच्छी तरह करते हैं। योग से कर्मचारी ज्यादा उर्जावान महसूस करेंगे और ज्यादा काम करने में सक्षम होंगें। काम से होने वाले तनाव को भी योग कम करेगा। कम तनाव यानी ज्यादा लगन से काम करने की क्षमता। अमेरिका में ध्यान और योगाभ्यास कॉर्पोरेट संस्कृति का जरूरी हिस्सा बनते जा रहे हैं। यह संस्कृति कहती है कि बड़ी कंपनियों में काम करने वालों का ‘ख्याल’ रखना जरूरी है। उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल करना बहुत ही जरूरी है। सतही तौर पर देखने पर यह बात ठीक लगती है, पर इसका वास्तविक उद्देश्य तो यही है कि कर्मचारी अच्छी मशीन में तब्दील हो सकें और बगैर किसी गिले-शिकवे के फिट रहकर काम कर सकें। मन शांत रहें उनके, तनाव से दूर रहें, और ‘मोह माया’ से दूर बस अपने काम पर एकाग्रचित्त रहें।
भोग के लिए भी योग का इस्तेमाल हो रहा है। योग के जरिये सेक्स का ज्यादा आनंद उठायें, अपने पार्टनर को ज्यादा खुश रखें, इस तरह के फायदे योग को ज्यादा लुभावना बनाते हैं। योग को सेक्स के साथ जोडक़र उसे एक बढिय़ा बिकाऊ बेस्टसेलर सामान में तब्दील कर दिया गया है और यह खास किस्म की दुकान खूब चल निकली है। ओशो इस कला में माहिर थे और ‘सम्भोग से समाधि तक’ नाम की पुस्तक लिख कर उन्होंने योग और भोग की मिली जुली रेसिपी पेश करके दुनिया में एक विस्फोट-सा किया था।
योग को लेकर भारत की एक बड़ी ही गलत छवि फैलने का खतरा है। भारत तो एक आध्यात्मिक देश के रूप में लोग पहचानते हैं, जबकि सच्चाई यह है अक्सर जब एक आम विदेशी पर्यटक भारत आता है तो उसे कुछ और ही देखने को मिलता है। हर तीर्थ स्थान पर ‘योगा’ के नाम पर विदेशियों को मूडऩे वाले जोगी आपको दिखेंगे जो तथाकथित ध्यान के तरीके सिखा कर उन्हें बेवकूफ बनाते हैं। तीर्थ स्थानों पर ऐसे कई ठग और ठगे गए पर्यटक मिलेंगे।
योग कोई सरकारी संस्कार नहीं। असंख्य साधकों-मनीषियों ने सदियों के शोध और अभ्यास से इसे स्थापित किया है। सबसे बड़ी बात यह कि योग का कोई अंतिम या रूढ़ रूप नहीं है। वह अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रूपों में विकसित हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसके प्रसारकों का आग्रह तत्व पर था, रूप पर नहीं। लेकिन अभी जो कुछ किया जा रहा है, उसके बाद योग की अविरल धारा अपने स्वाभाविक स्वरूप में बहती रहेगी, इसमें संदेह है। जिन्होंने वास्तव में इस क्षेत्र में गंभीर काम किया वे आम तौर पर गुमनामी में ही रहे। इनमे से एक थे दक्षिण भारत के योग गुरु आयंगर जिनको शायद ही किसी ने कभी टीवी पर देखा हो। अब वह नहीं रहे पर उनकी योग पर लिखी पुस्तकें ‘लाइट ऑन योग’ और ‘लाइट ऑन प्राणायम’ योग की दुनिया में बहुत ही ऊंचा स्थान रखती हैं।
योग के बारे में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जब योगाभ्यास और मानव देह पर उसके अच्छे प्रभावों की बात शुरू हुई, उस समय वातावरण कुछ और ही था। प्रदूषण नहीं था, हवा-पानी स्वच्छ थे और देह इतनी असंवेदनशील नहीं हुई थी। अब तो हर सांस के साथ कितना ज़हर अन्दर जा रहा है, इसका कोई हिसाब ही नहीं। ख़ास कर शहरों में। इस जहरीली हवा में कोई योग-प्राणायाम करे तो फेफड़ों का क्या हाल होगा यह फेफड़े ही जानेंगे। योग पर इतनी तरह के लोग, इतने तरीकों से टूट पड़े हैं कि कुल मिलाकर जीवन की समग्र समझ को बचाने के लिए विकसित की गई एक कला धीरे-धीरे एक बेस्टसेलिंग आइटम में तब्दील होती जा रही है। एक अच्छी खासी विधि को हम लोगों ने बाजारू बना डाला है।