विचार/लेख
-गौरव गुलमोहर
बात ज्यादा नहीं दो साल पुरानी है। गांव के बगल से लखनऊ-बनारस को जोडऩे वाली एक फोर लेन सडक़ गुजर रही थी। फोर लेन सडक़ गुजरने से सरल होने वाले यातायात का उत्साह उतना नहीं था जितना फोर लेन में खेत जाने से मिलने वाले पैसे का था।
दिलचस्प बात यह थी कि सडक़ बनने से पहले रोज सुबह चाय की दुकानों से एक अफवाह उठती, जिसमें गांव का कोई नेता टाइप आदमी पीडब्ल्यूडी में अपने सम्पर्क के माध्यम से बताता कि सडक़ लम्भुआ बाजार से दो किलोमीटर उत्तर दिशा से होकर गुजरेगी। अगले दिन कोई दूसरा नेता मंत्रालय में चल रही वार्ता के मध्यम से बताता कि सडक़ बाजार से तीन किलोमीटर उत्तर दिशा से होकर गुजरेगी।
इसी तरह लम्भुआ बाजार की उत्तर दिशा में बसने वाले लगभग दसियों गांव नोटों की गड्डियों के कल्पना लोक में विचरण करने लगे। गांव के लोगों को चाय की दुकानों से ही पता चला कि सरकार जमीन का दोगुना रेट दे रही है और अगर चार बीघा खेत भी सडक़ में गया तो एक झटके में आदमी करोड़पति बन जाएगा।
गांव में चर्चा तब और गर्म हो गई जब बिजली के तार को ले जाने के लिए ड्रोन कैमरे की मदद से सर्वे होने लगा। गांव में ख़बर पहुंच गई कि हेलीकॉप्टर से सडक़ जाने के लिए खेतों का फोटो खींचा जा रहा है। देखते ही देखते पूरा गांव नहर के किनारे पहुंच गया। जिनके खेतों के ऊपर से हेलीकॉप्टर (ड्रोन) गुजरता वो अंदर ही अंदर खुशी से फुट पड़ते और जिनके खेतों से ड्रोन नहीं गुजर रहा था वो भगवान भोलेनाथ से मन्नत मान रहे थे कि उनके खेत का भी फ़ोटो खींच लिया जाय।
गांव के लोगों के बीच गणित विषय अचानक वार्ता के केंद्र में आ गया। गांव में स्टेशनरी की एक दो दुकानें ही थीं जो टूटी-फूटी हालत में चल रही थीं। दिनभर में दो चार बच्चे पेंसिल, रबर, कटर और एक-दो कॉपियां लेने आ जाएं वही बहुत था। लेकिन सडक़ में खेत जाने की चर्चा के बाद से पूरा गांव कैपिटल कॉपी खरीदने पर टूट पड़ा। दुकानदार सुबह कॉपियों का एक बंडल लाता शाम तक कापियां गायब। गांव की जनता कैपिटल कापियों पर बिस्वा, धुर, बीघा, बाग, तालाब, बैनामा, हिस्सेदारी के हिसाब से जोड़ घटाव करने लगी।
यह सिलसिला लगभग छ: महीने तक चला। कोई मुम्बई से फोन कर खबर लेता कोई दिल्ली से और कोई कलकत्ता से। हर आदमी इस उम्मीद में था कि उसका खेत जाएगा तो वह पहले एक बोलेरो लेगा, फिर एक ट्रैक्टर और दो तल्ला घर बनवायेगा। जो थोड़े पढ़े-लिखे बेरोजगार थे वो सडक़ में खेत जाने के बाद मिलने वाले पैसे से एक स्कूल खोलने का प्लान करते क्योंकि इस समय स्कूल से अच्छा कोई दूसरा धंधा नहीं माना जाता है।
अंतत: हुआ यह कि जिन्होंने जोड़-घटाव, गुणा-भाग करके ज्यादा कैपिटल कापियां भरी थीं उनका खेत नहीं गया बल्कि पहले से तय जगह से फोर लेन सडक़ गुजरी और जिधर से फोर लेन गुजरी उधर के लोगों के हाथ में अचानक दस लाख से लेकर पचास लाख, एक करोड़ तक रुपये मिले। कई परिवार ऐसे थे रुपयों का हिसाब रखना उनके बस के बाहर की बात हो गई थी। कुछ ने बोलेरो निकलवाया, कुछ ने मारुति, कुछ ने ट्रैक्टर और कुछ ने घर बनवाया।
दो साल गुजरते-गुजरते जो दस बीस पचास लाख रुपये वाले लोग थे वो दोबारा वहीं आकर खड़े हो गए जहां पहले खड़े थे। उनके लिए एक मुश्त दस-बीस लाख रुपये बहुत थे लेकिन जब वे उससे अपना जीवन स्तर उठाना चाहे वहीं आकर खड़े हो गए जहां पहले खड़े थे। आज पचास लाख पाने वाले सैकड़ों लोग गांव में माछी मार रहे हैं। लाख रुपये भी खाते में नहीं बचे हैं। घर पर खड़ी बोलेरो बिकने का इंतजार कर रही है।
सरकार जिन नौजवानों को अग्निपथ योजना के तहत चार साल बाद बारह लाख रुपये देने की बात कर रही है वो क्या कर पाएंगे? एक टॉप मॉडल बोलेरो की कीमत आज लगभग बारह लाख रुपये है। एक बोलेरो खरीदते ही बारह लाख पाने वाला नौजवान की हालत फोर लेन सडक़ में गई जमीन के बाद कंगाल हुए किसान की हो जाएगी। रिटायर्ड अग्निवीर अपने परिवार का खर्चा, बच्चों की पढ़ाई, मां-बाप का इलाज, बहन-बेटी की शादी के लिए पैसे कहाँ से लाएगा?
-प्रकाश दुबे
ताजिंदगी साला मैं तो फौजी अफसर बन गया, गाने वाले लाल बत्ती की चकाचौंध में बौराकर कलमीजीवी को अपमानित करने अंगरेजी झाड़ते हैं। प्रेस को प्रेस्टीट्यूट कहते वक्त तनिक नहीं सोचा कि वर्दी से लेकर नीयत तक किस किस चीज की बोली लगाकर संसद की देहरी चढ़ पाए? भूत हो चुके प्रेस परिषद के एक अध्यक्ष कुर्सी के नशे में धुत्त होकर पत्रकारों को अनपढ़ कहकर मुदित होते थे। अपने-पराए के भेद से न्याय व्यवस्था अछ़ूती नहीं है। ऐसे दौर में न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई ने सबकी सहमति से भारतीय प्रेस परिषद की कप्तानी स्वीकारी। पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद ने न्यायमूर्ति रंजना के चयन को बहुत अच्छा निर्णय बताया। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश आफताब आलम ने न्या देसाई को सदा धैर्य बंधाया। बरसों पहले क्षुद्र गुटबाजी के कारण रंजना सहायक महाधिवक्ता के पद से त्यागपत्र देने लगीं। महाराष्ट्र के तत्कालीन महाधिवक्ता एडवोकेट वी आर मनोहर के समझाने बुझाने पर मानी। उसके बाद पीछे मुडक़र नहीं देखा।
दे दाता के नाम
कहते हैं, उन्हें महाराज। ज्ञानी और विनयशील। दादा गुलाब सिंह की दो सौं वीं जयंती पर पोता अकिंचन की तरह याचना कर रहा था-दे दाता के नाम, तुझको-आगे वाला शब्द आप समझें। इन दिनों शब्द भी आतंकवादी होने लगे हैं। हम असली कहानी की ओर मुड़ें। जम्मू के हरि निवास में डोगरा राजा की जयंती मनाई गई। संविधान के अनुुच्छेद-370 को हटाने के बाद के फायदे गिनाने की केन्द्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा में होड़ लगी थी। डा कर्णसिंह से महाराजा और सदरे रियासत का ओहदा छिन गया। डाक्टर का पद शिक्षा अर्जित है। भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा-कश्मीर को भारतमाता के भाल का मुकुट कहते थे। देश के सबसे बड़े सूबों में शामिल था। केन्द्रशासित इकाई बनने के बाद अब जम्मू कश्मीर की हरियाणा और हिमाचल से कम औकात रह गई। विवश पूर्व सदरे रियासत ने रक्षा मंत्री या उपराज्यपाल से यह मांग नहीं की। जम्मू विश्वविद्यालय में महाराजा गुलाब सिंह की विरासत पर आयोजित संगोष्ठी में बोल रहे थे। डा सिंह की नाखुशी और याचना विद्यार्थियों ने सुनी।
कैफे काफी डे
यूं तो कन्नड़, उडुपी, मंगलोरियन काफी हाउसों की दिल्ली में कमी नहीं है। तीन तीन कर्नाटक भवन और कन्नड़ नागरिकों के संगठन हैं। सांसद, मंत्री और दर्जनों नौकरशाह हैं। कैफे काफी डे के वी जी सिद्धार्थ का कर्नाटक मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा से संबंध था। दोनों इस दुनिया में नहीं हैं। मुख्यमंत्री बसवराज पाटील को दिल्ली में काफी पीने के लिए अनोखी जगह तलाश करनी पड़ी। बसवराज उन बदकिस्मत मुख्यमंत्रियों में से हैं जिन्हें दिल्ली परिक्रमा के दौरान नेताओं से मुलाकात का समय नहीं मिलता। मंत्रिमंडल विस्तार की अर्जी पलटकर देखना और बात करना बहुत दूर की बात है। अपनी और औरों की पार्टी के नेता एक ही सवाल पूछ कर डराते हैं-मुख्यमंत्री बदलने की चर्चा तेजी पकड़ रही है। मुख्यमंत्री बोम्मई ने दिल्ली के भवनों या अन्य सार्वजनिक काफी हाउसों में जाना बंद कर दिया। प्रदेश के नेताओं से मुलाकात से बचते हैं। अधिकांश समय जोशी कैफे में बिताते हैं। वहां काफी और सलाह दोनों मुफ्त मिलते हैं। कन्नड़ पत्रकार के अनुसार केन्द्रीय संसदीय कार्य और कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी पर बोम्मई का भरोसा कायम है।
बड़ो बड़ो प्रधान
दिल्ली का जाना पहचाना ठिकाना है-तीन मूर्ति। पढऩे लिखने वाले ग्रंथालय और दस्तावेज पलटते। चटपटे चटखारे लेने वाले मथाई नुमा लेखकों की किताबों के सही गलत किस्से सुनाया करते थे। पहले प्रधानमंत्री ने किस पेड़ के नीचे सिगरेट फूंकी? किस विदेशी महिलाओं के अधरों पर अधर रखे, किस प्रधानमंत्री की कितने बजे किससे अंतरंग मुलाकात होती थी? कहानियों और परियों के पंख घटते बढ़ते रहते हैं। उसी हिसाब से किस्से अदृश्य आत्माओं की तरह घूमते रहते हैं। जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी लंबे समय तक रहे। पिछले छह साल में उनके किस्सों को देशभक्ति के खास रंग में रंगा गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आदेश पर तहत मूर्ति भवन का नया रूप प्रधानमंत्री संग्रहालय तैयार है। दिल्ली में राहुल गांधी ईडी की देहरी पर हाजिरी दे रहे थे, कांग्रेसजन धरना और नारेबाजी में व्यस्त रहकर राज्यसभा चुनाव की पराजय पर मरहम लग रहे थे, उस दिन उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू सपत्नीक प्रधानमंत्री संग्रहालय पहुंचे। देर तक मुआयना करते रहे। प्रसन्न हुए। चटखारे लेने वाले भक्त प्रसन्न हैं या दुखी? वर्तमान प्रधानमंत्री निवास में मात्र चार बड़ी कोठियां समा चुकी हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काबुल के कार्ते-परवान में गुरुद्वारे पर हुए हमले ने अफगान सिखों को हिलाकर रख दिया है। जिस अफगानिस्तान के शहरों और गांवों में लाखों सिख रहा करते थे, वहां अब मुश्किल से डेढ़-दो सौ परिवार बचे हुए हैं। उनमें से भी 111 सिखों को भारत सरकार ने इस हमले के बाद तुरंत वीजा दे दिया है। अब से 50-55 साल पहले जब मैं काबुल विश्वविद्यालय में अपना शोधकार्य किया करता था, तब मैं देखता था कि काबुल, कंधार, हेरात और जलालाबाद के सिख सिर्फ मालदार व्यापारी ही नहीं हुआ करते थे, काफी शानदार और सुरक्षित जीवन बिताया करते थे।
औसत पठान, ताजिक, उजबेक और हजारा लोग सिखों को बहुत ही सम्मान की नजर से देखते थे। सिखों को भी अपने अफगान होने पर बड़ा नाज़ हुआ करता था। गजऩी में एक वयोवृद्ध सिख से मैंने पूछा था कि आप कब से यहां रहते हैं तो उन्होंने तपाक से कहा कि जब से अफगानिस्तान बना, तभी से! ऐसे देशभक्त सिखों को अफगानिस्तान से भागना पड़ गया है, यह क्या शर्म की बात नहीं है? लेकिन यह संतोष और आश्चर्य का विषय है कि जिन तालिबान को अत्यंत कट्टरपंथी माना जाता है, उनकी पुलिस तो उस गुरुद्वारे की रक्षा कर रही थी लेकिन खुरासानी इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी गुरुद्वारे पर हमला कर रहे थे।
हमले में एक सिख और एक तालिबान सिपाही मारा गया। इसके पहले जलालाबाद और हर राई साहब के गुरुद्वारों पर हुए हमलों में दर्जनों लोग मारे गए थे। तालिबान सरकार ने उक्त हमले में मृतकों के परिवारों को एक-एक लाख रु. और गुरुद्वारे के पुनरोद्धार के लिए डेढ़ लाख रु. दिए हैं। ये तथ्य बहुत ही गौर करने लायक हैं। क्या पाकिस्तान और बांग्लादेश की सरकारों को भी यही नहीं करना चाहिए? इससे यह भी जाहिर होता है कि भारत के प्रति तालिबान शासन के मन में कितनी सदभावना है।
भारत सरकार ने भी तालिबान शासन के दौरान अफगान जनता की मदद के लिए हजारों टन गेहूं और दवाइयां काबुल भिजवाईं। भारत सरकार ने अपना एक प्रतिनिधि मंडल विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जेपी सिंह के नेतृत्व में काबुल भेजा था ताकि अन्य 13 राष्ट्रों के राजदूतावासों की तरह हमारा राजदूतावास भी दुबारा सक्रिय हो सके लेकिन अब इस दुर्घटना के बाद भारत को जऱा ज्यादा सतर्क होना पड़ेगा।
गुरुद्वारे पर यह जो हमला हुआ है, वह भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान के बहाने हुआ है लेकिन 2018 और 2020 के हमलों के वक्त तो ऐसा कुछ नहीं था। इसके पहले भी काबुल के शहरे-नव में स्थित हमारे राजदूतावास और जरंज-दिलाराम सडक़ पर काम कर रहे हमारे मजदूरों पर जानलेवा हमले हुए हैं।
इन हमलों के पीछे असली गुनाहगार कौन है, यह हमें पाकिस्तान ही बता सकता है और वह ही इन्हें रोक भी सकता है। ये हमलावर इस्लाम को कलंकित कर रहे हैं। ये हमलावर भारत और तालिबान के बीच संबंधों के सहज होने से शायद घबरा गए हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जैसा कि मैंने परसों लिखा था, अग्निपथ योजना के विरुद्ध चला आंदोलन पिछले सभी आंदोलन से भयंकर सिद्ध होगा। वही अब सारे देश में हो रहा है। पहले उत्तर भारत के कुछ शहरों में हुए प्रदर्शनों में नौजवानों ने थोड़ी-बहुत तोड़-फोड़ की थी लेकिन अब पिछले दो दिनों में हम जो दृश्य देख रहे हैं, वैसे भयानक दृश्य मेरी याददाश्त में पहले कभी नहीं देखे गए। दर्जनों रेलगाडिय़ों, स्टेशनों और पेट्रोल पंपों में आग लगा दी गई, कई बाजार लूट लिये गए, कई कारों, बसों और अन्य वाहनों को जला दिया गया और घरों व सरकारी दफ्तरों को भी नहीं छोड़ा गया। अभी तक पुलिस इन प्रदर्शनकारियों का मुकाबला बंदूकों से नहीं कर रही है लेकिन यही हिंसा विकराल होती गई तो पुलिस ही नहीं, सेना को भी बुलाना पड़ जाएगा।
कोई आश्चर्य नहीं कि अगर सरकार का पारा गर्म हो गया तो भारत में चीन के त्येन आन मान स्कवेयर की तरह भयंकर हत्याकांड शुरु हो सकता है। मुझे विश्वास है कि मोदी सरकार इस तरह का कोई बर्बर और हिंसक कदम नहीं उठाएगी। ऐसा कदम उठाते समय हो सकता है कि छात्रों और नौजवानों को भडक़ाने का दोष विपक्षी नेताओं के मत्थे मढ़ा जाए लेकिन मैं पहले ही कह चुका हूं कि नौजवानों का यह आंदोलन स्वत: स्फूर्त है। इसका कोई नेता नहीं है। यह किसी के उकसाने पर शुरु नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि विरोधी दल अब इस आंदोलन का फायदा उठाने के लिए इसका डटकर समर्थन करने लगें, जैसा कि उन्होंने करना शुरु कर दिया है। इस आंदोलन से डरकर सरकार ने कई नई रियायतों की घोषणाएं जरुर की हैं और वे अच्छी हैं। रक्षामंत्री राजनाथसिंह का रवैया काफी रचनात्मक है और भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने तो यहां तक कह दिया है कि चार साल तक फौज में रहनेवाले जवान को वे अपने दफ्तर में सबसे पहले मौका देंगे।
चार साल का फौजी अनुभव रखनवाले जवानों को कहीं भी उपयुक्त रोजगार मिलना ज्यादा आसान होगा। इसके अलावा इस अग्निपथ योजना का लक्ष्य भारतीय सेना को आधुनिक और शक्तिशाली बनाना है और पेंशन पर खर्च होनेवाले पैसे को बचाकर उसे आधुनिक शास्त्रास्त्रों की खरीद में लगाना है। अमेरिका, इस्राइल तथा कई अन्य शक्तिशाली देशों में भी कमोबेश इसी प्रणाली को लागू किया जा रहा है लेकिन मोदी सरकार की यह स्थायी कमजोरी बन गई है कि वह कोई भी बड़ा देशहितकारी कदम उठाने के पहले उससे सीधे प्रभावित होनेवाले लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश नहीं करती। जो गलती उसने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने, नोटबंदी करने और नागरिकता कानून लागू करते वक्त की वही गलती उसने अग्निपथ पर चलने की कर दी! यह सैन्य-पथ स्वयं सरकार का अग्निपथ बन गया है। अब वह भावी फौजियों के लिए कितनी ही रियायतें घोषित करती रहे, इस आंदोलन के रूकने के आसार दिखाई नहीं पड़ते। यह अत्यंत दुखद है कि जो नौजवान फौज में अपने लिए लंबी नौकरी चाहते हैं, उनके व्यवहार में आज हम घोर अनुशासनहीनता और अराजकता देख रहे हैं। क्या ये लोग फौज में भर्ती होकर भारत के लिए यश अर्जित कर सकेंगे? सच्चाई तो यह है कि हमारी सरकार और ये नौजवान, दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा का पालन नहीं कर रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन होने वाला है, जिसमें चीन और भारत के नेता आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त रणनीति बनाएंगे और उधर चीन ने पाकिस्तान के आतंकवादी अब्दुल रहमान मक्की को बड़ी राहत दिला दी है। अमेरिका और भारत ने मिलकर मक्की का नाम आतंकवादियों की विश्व सूची में डलवाने का प्रस्ताव किया था लेकिन चीन ने सुरक्षा परिषद के सदस्य होने के नाते अपना अड़ंगा लगा दिया। अब यह काम अगले छह माह तक के लिए टल गया है।
यदि चीन अड़ंगा नहीं लगाता तो मक्की पर भी वैसे ही अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लग जाते, जैसे कि जैश-ए-मुहम्मद के मुखिया मसूद अजहर पर लगे हैं। उसके मामले में भी चीन ने अड़ंगा लगाने की कोशिश की थी। समझ में नहीं आता कि एक तरफ तो चीन आतंकवाद को जड़मूल से उखाडऩे की घोषणा करता रहता है लेकिन दूसरी तरफ वह आतंकवादियों की पीठ ठोकता रहता है। जिन आतंकवादियों के खिलाफ पाकिस्तान सरकार ने काफी सख्त कदम उठाए हैं, उनकी हिमायत चीन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर क्यों करना चाहता है?
क्या इसे वह पाकिस्तान के साथ अपनी ‘इस्पाती दोस्ती’ का प्रमाण मानता है? खुद पाकिस्तान की सरकारें इन आतंकवादियों से तंग आ चुकी हैं। इन्होंने पाकिस्तान के आम नागरिकों की जिंदगी तबाह कर रखी है। ये डंडे के जोर पर पैसे उगाते हैं। ये कानून कायदों की परवाह नहीं करते हैं। पाकिस्तान की सरकारें इन्हें सींखचों के पीछे भी डाल देती हैं लेकिन फिर भी चीन इनकी तरफदारी क्यों करता है? इससे चीन को क्या फायदा है? चीन को बस यही फायदा है कि ये आतंकवादी भारत को नुकसान पहुंचाते हैं।
याने भारत का नुकसान ही चीन का फायदा है। चीन का यह सोच किसी दिन उसके लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकता है। उसे इस बात का शायद अंदाज नहीं है कि ये आतंकवादी किसी के सगे नहीं होते। ये कभी भी चीन के उइगर मुसलमानों की पीठ ठोककर चीन की छाती पर सवार हो सकते हैं। यदि चीन पाकिस्तान के आतंकवादियों की तरफदारी इसलिए करता है कि वे भारत में आतंकवाद फैलाते हैं तो उसे यह पता होना चाहिए कि इन आतंकवादियों के चलते पाकिस्तान की छवि सारी दुनिया में चौपट हो गई है।
पाकिस्तान के सभ्य और सज्जन नागरिकों को भी सारी दुनिया में संदेह की नजर से देखा जाने लगा है। पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय ‘द फिनांशियल एक्शन टास्क फोर्स’ ने जो प्रतिबंध लगाए थे, उन्हें हटाने की जो शर्तें थीं, वे पाकिस्तान ने लगभग पूरी कर ली हैं लेकिन फिर भी टास्क फोर्स को उस पर विश्वास नहीं है।
पाकिस्तान को हरी झंडी तब तक नहीं मिलेगी, जब तक कि टास्क फोर्स के पर्यवेक्षक खुद पाकिस्तान आकर सच्चाई को परख नहीं लेंगे। पाकिस्तान को चाहिए कि वह यदि इन आतंकवादियों को खुद काबू नहीं कर सके तो उन्हें वह अंतरराष्ट्रीय दंडालयों के हवाले कर दे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक पांडे
सच कहूँ तो खुद को असफल मानता हूँ लगातार। व्यक्ति ही नहीं पीढ़ी के रूप में असफल। 16-17 की उम्र में निजीकरण के खिलाफ शहर की गली-गली में प्रचार कर रहे थे। असफल हुए। साम्प्रदायिकता के खिलाफ तीसेक साल से लड़ रहे हैं, असफल हुए। परिवार के मोर्चे पर तो खैर बुरी तरह असफल हुए। नौकरी की, बस की। असफल हुए और बाहर निकल आए।
जब देश अन्ना आंदोलन के पीछे पागल था लगभग अकेले हम कुछ लोग बता रहे थे कि इसके पीछे बहुत बड़ी चाल है। लोगों को समझा पाने में असफल हुए। जब देश गुजरात मॉडल के पीछे लहालोट था, हम उसकी बखिया उधेड़ रहे थे लेकिन समझा पाने में असफल हुए। मजेदार यह कि उस दौर में अन्ना आंदोलन की जय करने वाले और गुजरात मॉडल का प्रचार करने वाले लोगों में से कुछ अचानक विरोधी बन गए और अब वही विरोध के प्रतिनिधि माने जाते हैं-हमें असफल होना था, असफल हुए!
अब भी क्या कर रहे हैं? दिन रात इतिहास से वर्तमान पर तथ्य-तर्क बताने की कोशिश कर रहे हैं, असफल हैं। कश्मीर पर बोलता-लिखता हूँ तो दोस्त चिंतित हो जाते हैं, पर लिखने-बोलने का असर कितना है? घृणा के पाँच लाख ग्राहक हैं तो तथ्य के पाँच हजार भी मुश्किल से।
बाकी लेखन वगैरह की सफलता-असफलता पर बात करना ही बेकार है। लेखन अपने आप में एक असफल विधा है। तारीफ वगैरह मिल जाती है पर जो ख्वाब देखा था वह नजर से दूर होता जाता है।
दाल-रोटी का जुगाड़ एक सतत संघर्ष है ही। दो वक्त खाने का अब तक चैन से मिल रहा है उसे सफलता मानकर ख़ुश हो लेने के अलावा चारा क्या है?
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
उन दिनों संचार के साधन बहुत कम थे, पत्रों के माध्यम से जानकारियाँ दूर-सुदूर आती-जाती थी। भारतीय डाक सेवा का जाल पूरे देश में फैला था, असंख्य डाक कार्यकर्ता चि_ियों को एक से दूसरे स्थान पर ले जाते थे और खाकी पोशाक में लाखों डाकिए राह तकती अंखियों तक उनके स3देश पत्र पहुँचाते थे। डाकिया के समय से तनिक देर हो जाए तो लोगों में बेचैनी सी होने लगती- ‘क्या बात है ? अभी तक डाकिया नहीं आया!’
महानगर, नगर, कस्बा हो या गाँव, पोस्ट ऑफिस सबका सहारा हुआ करता था। मनीआर्डर के सहारे लाखों लोगों का भरण-पोषण जुड़ा हुआ था, तार के जरिए अति महत्व के सन्देश शीघ्रता से मिल जाते थे, वैसे, तार आना अक्सर किसी अप्रिय घटना के समाचार की संभावना से भी जुड़ा रहता था। तार आने पर लोगों के मन में सबसे पहले यह भाव आता- ‘तार आया, न जाने क्या हो गया?’
लिफाफा पच्चीस पैसे में, अंतर्देशीय पत्र पन्द्रह पैसे में और पोस्टकार्ड पांच पैसे में मिलता था। परिवारों के रिश्ते, दु:ख-सुख के समाचार, पति-पत्नी के उलाहने, प्रेमियों के दर्द, कवियों की कविताएँ, लेखकों के लेख, सरकारी आदेश और व्यापारिक प्रपत्र उन्हीं लिफाफों की मदद से हस्तांतरित होते थे। लिफाफे का उपयोग आवश्यक होने पर ही किया जाता था क्योंकि वह महँगा था, आम तौर पर सस्ते होने के कारण कार्ड सबसे अधिक लोकप्रिय थे। पोस्टकार्ड का बहुआयामी उपयोग होता था, जैसे, सामान्य सूचनाओं का आदान-प्रदान, व्यापारिक कामकाज एवं भाव-ताव, विवाह संबंध की बातचीत, आवागमन की सूचना, साहित्यकारों की रचनाओं की स्वीकृति, अस्वीकृत रचनाओं की बुरी खबर, लाल स्याही से भरपूर राम राम राम राम का लिखित जप, पत्रप्रेषण से देवी-देवताओं की कृपा के आगमन की सूचना और वैसे ही पत्र अपने परिचितों को लिखकर न भेजने पर भीषण आर्थिक हानि और पुत्रशोक होने की धमकी, शोक संदेश जिसके कार्ड का एक कोना फटा रहता था, आदि-आदि।
पत्र लिखना अब इतिहास की बात हो गई, मोबाइल फोन ने उस अद्भुत विधा को एक किनारे लगा दिया। याद है आपको वे मधुर गीत- ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है, प्रियतम मेरे मुझको लिखना, क्या ये तुम्हारे काबिल है ?‘ इस गीत की मधुरता में आप खो सकते हैं परन्तु इसे ‘फील’ केवल वे कर सकते हैं जिन्होंने अपनी किशोरावस्था में ऐसे पत्र किसी को लिखे हों।
गाँव-खेड़े में अनपढ़ लोग पोस्टमेन से आग्रह करके पत्र लिखवाते थे, सदाशयी पोस्टमैन उनकी मदद करते थे और स्वयं उस पत्र को पोस्ट भी कर देते थे। एक मधुर गीत की आपको याद दिलाता हूँ, जरा विरहिणी की पीड़ा को महसूस करिए-
‘खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू
कोरे कागज पे लिख दे सलाम बाबू
वे जान जाएंगे पहचान जाएंगे।
कैसे होती है सुबह से शाम बाबू
वे जान जाएंगे पहचान जाएंगे।
लिख दे...न !’
अब जिक्र निकल गया है तो पत्र लिखने और पढऩे की ‘फीलिंग’ से जुड़ा हसरत जयपुरी का लिखा यह मर्मस्पर्शी गीत आपको याद दिला दूँ-
‘मेहरबां लिखूँ , हसीना लिखूँ या दिलरुबा लिखूँ , हैरान हूँ कि आपको इस खत में क्या लिखूँ ?’
(आत्मकथा का एक अंश है यह)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
सन् 1882 में नागपुर से राजनांदगांव के बीच जब मीटर गेज रेल लाईन बिछाने का काम शुरू हुआ तब बीच का इलाका घने जंगलों और नदी नालों वाला, किन्तु आमतौर पर सपाट था। लाईन आसानी से बिछ गई। सिर्फ एक हिस्सा छूट रहा था। गोंदिया के पास जहां मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सीमाएं मिलती हैं, वहां पहाड़ था और बिना सुरंग (बोगदा) बने लाइन नहीं जा सकती थी।
प्रचलित कहानी के अनुसार बड़े इंजीनियर ने दीवार पर टंगे नक्शे पर निशान लगाते कर कहा था यहां से पहाड़ खोदना शुरू करो। किन्तु युवा अंग्रेज इंजीनियर अनुभवहीन था और काम शुरू करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उसे किसी जबर्दस्त मोटिवेशन की आवश्यकता थी। सो बड़े ने सुझाव दिया- कल्पना करो कि पहाड़ के उस पार तुम्हारी पत्नी खड़ी है। तुम्हें वहां पहुंचना है और उसे ‘किस’ करना है। लेकिन इंजीनियर के लिए हिम्मत जुटाना आसान नहीं था। काम शुरू करने से पहले मजदूरों ने अपने साहब को दसियों बार बड़बड़ाते सुना- ‘शैल आय किस हर?’ ‘शैल आय किस हर?’ (मैं उस छोर को ‘किस’ कर पाऊंगा?)। युवा इंजीनियर के तमाम अविश्वास और शंकाओं के बावजूद काम शुरू हुआ। तब तक यह वाक्य, मजदूरों की अपनी जुबान में, उनके उच्चारण में, उनका नारा बन गया था।
और एक दिन मजदूरों ने वह पत्थर हटाया जिसके दूसरी ओर रौशनी थी, सिरा मिल गया था। युवा इंजीनियर खुशी के मारे चीख उठा -‘देयर आय किस हर’ (मैंने सही सिरा चूम ही लिया)। खुश मजदूर भी थे। उनके बीच भी नारा उठा, उनकी जुबान में- ‘देअर आय किस हर’। पहले छोर की तरह यहां भी मजदूरों की दूसरी बस्ती बसी। दोनों बस्तियों के स्थान पर-सुरंग के दोनों सिरों पर-स्टेशन बने। इनके नाम मजदूरों ने पहले ही तय कर दिये थे। सलेकसा (शैल आय किस हर) और दरेकसा (देअर आय किस हर)।
नागपुर-राजनांदगांव सेक्शन शुरू होते ही छत्तीसगढ़ को अपना घर बनाने वाले गुजरातियों के आगमन का मार्ग खुल गया।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध का समय, विशेषकर 1870 के बाद का, गुजरातियों के लिए बहुत कष्ट का दौर था। सूखे और अकाल के इन वर्षों में अंग्रेजों के व्यावसायिक लालच का दुष्परिणाम कृषि पर दिखने लगा था। आमदनी के स्रोत घटने पर राज्य ने भूमि, नमक और शराब पर टैक्स अनाप-शनाप बढ़ा दिये थे। गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से लड़ाई हारते हजारों परिवार गुजरात छोडऩे के लिए मजबूर हुए। उन्नीसवीं सदी के ‘द ग्रेट इंडियन माईग्रेशन’ में बड़ी संख्या में गुजराती समुद्र पार गए। लेकिन उतनी ही संख्या में लोगों ने देश के भीतर पूर्व की दिशा में बंगाल और बर्मा तक पलायन किया। ऐसे लोगों का बड़ा हिस्सा अंग्रेजों के सेन्ट्रल प्रॉविन्सेज (सी.पी.) में आया।
सन् 1870 में जब नागपुर और मुम्बई के बीच रेलमार्ग बनना शुरू हुआ, तब तक नागपुर से आगे छत्तीसगढ़ की ओर रेल लाईन लाने का अंग्रेजों का कोई ठोस इरादा नहीं बन पाया था। लेकिन यहां लाईन जनता की मांग के कारण नहीं बल्कि अंग्रेजों की मजबूरी और उनके स्वार्थ के चलते आई। मध्य प्रान्त में रेल लाना अपरिहार्य हो गया था।
दो रेल पटरियों को जोडऩे के लिए बीच में बिछाई जाने वाली पट्टी-रेलवे स्लीपर-जो अब कांक्रीट की होती हैं, कुछ समय पहले तक लोहे की और उससे भी पहले शुरुआती दौर में लकड़ी की बनी होती थी। वनों को काटकर बड़े वृक्षों से स्लीपर बनाये जाते थे। भारत भर में इनकी भारी मांग थी और अधिकांश जंगल मध्य भारत में थे। इंजिन भाप से चलते थे और इसी इलाके में कोयला के भंडार भी थे।
छत्तीसगढ के महानदी कछार में, विशेषकर धमतरी-राजिम-कुरुद इलाके में सरप्लस धान पैदा हो रहा था। इसे गुजरात जैसे उन इलाकों में भेजा जा सकता था जहां के खेत अफीम, कपास, तम्बाखू और नील से पाट दिये गये थे और जहां खाने के लिए अनाज नहीं था। साथ ही यहां की वनोपजों का तब तक व्यापारिक दोहन शुरू नहीं हुआ था लेकिन इसकी असीम संभावनाएं जगजाहिर थी। प्रमुख था तेन्दूपत्ता जिससे बीड़ी बनती थी।
इस पृष्ठभूमि में नागपुर और राजनांदगांव के बीच रेल लाइन की शुरुआत हुई थी। बनाने की जिम्मेदारी दी गयी सी.पी. सरकार की छत्तीसगढ़ स्टेट रेलवे को (1888 में बंगाल-नागपुर रेलवे ने इसे खरीदकर ब्रॉडगेज में बदला और हावड़ा से जोड़ा)।
गुजरातियों की कहानी रेल लाइन, वनोपज, चावल मिलों और बीड़ी के बिना बताना संभव नहीं है।
यहां ‘गुजराती’ शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त है जिनकी भाषा, बोली, खान-पान की पद्धतियां, जीवन-शैली आदि समान थीं। लेकिन एक और समानता इन्हे आपस में बांधती थी। ये सारे परिस्थितियों के मारे, मजबूरी में, अपनी जड़ों से उखडक़र आजीविका की तलाश में यहां आये थे। सब ने गरीबी देखी थी। कुछ ने भुखमरी की हद तक। अनेक के पास हुनर और सब के पास भविष्य के लिए सपने और विश्वास था। इन गुजरातियों में जैन, वैष्णव हिन्दू, पाटीदार, कच्छी मेमन, खोजा, पारसी और दाऊदी बोहरा परिवार शामिल हैं। केवल एक समुदाय था जो आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत खुशहाल था। फिर भी बेहतर भविष्य की तलाश में बाहर निकला था। यही वह समाज था जो बाकी गुजरातियों की उंगली पकड़ उन्हे रास्ता दिखाते इस इलाके में लाया था। यह समुदाय था ‘कच्छी गुर्जर क्षत्रिय’ समुदाय।
गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र इलाके में बसे कच्छी-गुर्जर-क्षत्रिय समाज को निर्माण (कंस्ट्रक्शन) और माईनिंग के क्षेत्र में पुश्तैनी महारत हासिल थी। जिन दिनों भारत में इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं खुले थे, इस समाज के बच्चे पैदा होते ही, पिता, भाई और समुदाय के अन्य लोगों के साथ सिविल इंजीनियरिंग का काम सीखने में जुट जाते थे। और यह परम्परा सदियों से चली आ रही थी। कच्छ और सौराष्ट्र में महलों, किलों, नहरों आदि का निर्माण यही समाज करता आया था। समय के साथ देश में इनकी ख्याति आर्किटेक्ट और निर्माण-ठेकेदार के रूप में स्थापित हो गई थी। स्थानीय लोग इन्हे ‘मिस्त्री’ या ‘ठेकेदार’ के रूप में संबोधित करते थे। कच्छ के राजा साहब के दिये धनोटी, कुम्भारिया, लोवारिया, मालपार, मेघपार, जैसे अठारह गांवों में बसा यह समुदाय राठौड़, सोलंकी, परमार, चौहान, सावरिया जैसी उपजातियों में बंटा रहा है। सरनेम का चलन आने पर अनेक लोग ‘मिस्त्री’ शब्द का प्रयोग भी करते हैं।
उन्नीसवीं सदी में गुजरात के दूसरे लोगों की तरह यह समुदाय भी बेहतर जीवन की संभावनाएं कच्छ के बाहर तलाश रहा था। 1850 के दशक में जब अंग्रेज़ों ने रेल निर्माण का फैसला किया तो इस समुदाय ने लपक कर इस अवसर को जकड़ लिया और समय के साथ रेलमार्गों पर अपना लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया। सिन्ध और रावलपिंडी से लेकर असम और चेन्नई तक इन्होने रेल लाइनों में और झारखण्ड की कोयला खदानों तक में इन्होने ठेकेदारी की। किन्तु लेख की बढ़ती लंबाई मुझे विवश करती है मैं फोकस छत्तीसगढ़ और मध्य प्रान्त पर रखूं।
रेल से पहुंचे गुजरातियों के शुरुआती जत्थे में अनेक मिस्त्री ठेकेदार परिवार थे। इनमें कुम्भरिया (कच्छ) के गंगानी परिवार के सात भाईयों का समूह भी था, जिनमें से एक भाई जगमल गांगजी सावरिया ने जयराम मंदान के साथ मिलकर 1890 में बिलासपुर का स्टेशन बनाया। इनमें वालजी रतनजी चौहान भी थे। जगमल सावरिया के बेटे मूलजी सावरिया के साथ साथ वालजी के बेटे जयराम वालजी चौहान को आगे चलकर अंग्रेजों ने ‘राय साहब’ के खिताब से नवाजा। रेल्वे ने अपने ठेकेदार के सम्मान में बम्बई-हावड़ा लाइन पर बिलासपुर के पास एक स्टेशन पाराघाट का नाम बदलकर जयरामनगर रखा। टाटानगर के अलावा संभवत: यह एकमात्र स्टेशन है जिसका नाम अंग्रेजों ने किसी भारतीय पर रखा। सावरिया भाईयों में वालजी मेघजी सावरिया ने रायपुर का रेलवे-स्टेशन बनाया और वहीं बसे, श्यामजी गांगजी सावरिया ने रायगढ़ का स्टेशन बनाया और वहीं बसे और वस्ता गांगजी सावरिया ने खरसिया का स्टेशन बनाया। सिंगूरा गांव के रघु पान्चा टांक ने राजनांदगांव स्टेशन बनाया। बहुत लंबी लिस्ट हैं मिस्त्री समाज के लोगों की उपलब्धियों की।
गैर-मिस्त्री परिवार आमतौर पर धान/चावल और वनोपज (हर्रा, बहेरा, चिरौंजी, शहद आदि के अलावा मुख्य रूप से तेन्दू पत्ता) के व्यापार में रहे। ऐसे अधिकांश गुजराती कच्छ और सौराष्ट्र जैसी पृष्ठभूमि से आये थे और छत्तीसगढ़ के राजे-रजवाड़ों के माहौल में घुल-मिल जाने में उन्हे परेशानी नहीं हुई। कुछ मदद अंग्रेजों ने भी की।
जैसे सौराष्ट्र के राजकोट के पास उपलेटा से निकलकर आये हाजी अब्बा हुसैन हाजी मोहम्मद दल्ला जिन्होंने शुरुआत सुहेला में की थी, वनोपज और चावल के व्यापार के साथ। पड़ोसी राज्य फुलझर के राजा साहब लाल बहादुर सिंहजी से परिचय कराकर उन्हे राज्य मुख्यालय सरायपाली में बसाने में अंग्रेज मददगार रहे। बाद में इनका और राजा साहब का संबंध घनिष्ठ हुआ और हाजी अब्बा हुसैन के पुत्र हाजी अब्दुल सत्तार दल्ला बसना में स्थापित हुए। हाजी अब्दुल सत्तार के पुत्र डॉ. अब्दुल रज्जाक (ऐ.आर.) दल्ला छत्तीसगढ़ के ख्यातनाम वरिष्ठ सर्जन हैं। अपनी पत्नी डॉ. नूरबानो दल्ला तथा बहू डॉ. तबस्सुम दल्ला के साथ रायपुर में जुबेस्ता अस्पताल का संचालन करते हैं। सिकल-सेल बीमारी पर इनके किये काम की देश भर में प्रशंसा हुई है।
युवा गुजराती गोरधनदास भगवानदास दोशी जी ने हर्रा का व्यवसाय करने के इरादे से धमतरी से जगदलपुर पहुंच कर बस्तर राजा साहब से जंगल ठेके पर ले लिया। किन्तु अनुभव न होने के कारण पहले ही साल गहरे नुकसान में चले गये। तब राजा साहब के सामने वकालत करने अंग्रेज अधिकारी ही आया। उसने समझाया कि यदि इस युवा को हतोत्साहित होने दिया गया तो आगे और कोई इतनी दूर जंगल में आये, इसकी संभावना कम ही है। गोरधनदास जी के लिये अगले दो साल तक जंगल टैक्स-फ्री कर दिया गया। उनका व्यवसाय चल निकला। गोरधनदास जी के बेटे किरीट दोषी (श्री भुजीत दोषी के पिता) प्रख्यात पत्रकार रहे। इस परिवार की श्रीमती जयाबेन धमतरी से विधायक रहीं।
गुजरात के मेहसाणा इलाके से निकलकर खरसिया के पास बंजारी गांव में आकर बसे छन्नालाल मेहता के परिवार ने बिलासपुर से आगे की यात्रा बैलगाड़ी पर की थी। रायगढ़ के श्री यतीश गांधी की दादी श्रीमती समरत बेन और खरसिया के श्री हितेंद्र मोदी की दादी श्रीमती तारा बेन छन्नालाल मेहता जी की बेटियां थीं।
हंसराज राकुण्डला जी के परिवार की बैलगाड़ी यात्रा रायपुर तक रेल पहुंचने के बाद हुई थी। वे रायपुर से कोई तेरह मील पर रसनी गांव में बसे। कुछ वर्षों के बाद सन् 1901 में रायपुर से धमतरी तक रेल लाईन बनी और धान की पैदावार बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने घमतरी के पास नदी पर एक बांध भी बना दिया। उद्घाटन करने पहुंचे सी.पी. के गवर्नर सर फ्रैंक जॉर्ज स्ली। इंजीनियर ने सुझाव दिया नये बांध का नाम गवर्नर की पत्नी-मैडम स्ली के नाम पर रखा जाये। सबने हामी भरी। और ‘मैडम स्ली’ बांध उद्धाटित हो गया। समय के साथ ‘मैडम’ और ‘स्ली’ का स्थानीयकरण हुआ। अब यह बांध ‘माड़म सिल्ली’ के नाम से जाना जाता है। खेती बढ़ी तो किसान मेढ़ों पर दाल उगाने लगे और राकुण्डला परिवार ने रसनी से वहां पहुंच कर पहली दाल मिल स्थापित कर दी।
इन गुजरातियों ने छत्तीसगढ़ में चावल मिलों की स्थापना में भी अगुवाई की। सरायपाली-बसना की पहली मिल दल्ला परिवार ने, रायगढ़ के खरसिया के पास पहली मिल छन्नालाल मेहता के परिवार ने और सारंगढ़ की पहली चावल मिल पारसी खुदादाद डूंगाजी ने स्थापित की।
गोंदिया से नैनपुर और वहां से जबलपुर जुड़ते ही तब तक गोंदिया पहुंचे गुजरातियों के लिए जबलपुर के साथ साथ आगे दमोह और सागर जैसे तेन्दूपत्ता से समृद्ध वनाच्छादित इलाकों में पहुंचने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
1919 में गुजरात के खैरा (नादियाड) जि़ले से छोटाभाई पटेल अपने बेटे जेठाभाई के साथ व्यवसाय करने गोंदिया पहुंचे। गुजरात में खैरा, वदोडरा और आणन्द जिलों में ही तम्बाखू ही मुख्य पैदावार होती रही है। कर्नाटक जैसे अन्य इलाकों की तम्बाखू जहां सिगरेट के लिए उपयुक्त माना जाता है, वहीं गुजरात की तम्बाखू बीड़ी के लिए प्रयुक्त होती रही है। अधिकांश तम्बाखू उत्पादक पाटीदार हैं। इन्होंने अपने फर्म की एक शाखा मध्यप्रदेश के सागर में खोली और उसे अपना मुख्यालय बना लिया। लगभग एक दशक के बाद छोटाभाई के भतीजे मनोहरभाई भी गुजरात से आ गए और गोंदिया का काम भतीजे ने संभाल लिया। तम्बाखू गुजरात से मंगा कर यहीं बीड़ी बनाने और बेचने का क्षेत्र और काम बढ़ गया। एक समय इनकी 27 नम्बर (और बंदर छाप) बीड़ी देश की दूसरी सबसे अधिक बिकने वाली बीड़ी थी। मनोहरभाई ने कम समय में बहुत सफलताएं पायीं। एक समय चालीस से अधिक फैक्ट्रियों में पांच से छह करोड़ बीडिय़ां रोज बनती थीं। उनका अपना ‘सेसना’ विमान और अपनी हवाई पट्टी भी थी। समय के साथ बीड़ी का चलन कम होता गया और छोटाभाई जेठाभाई के नाम पर शुरू हुए सीजे ग्रुप का कारोबार अब बीड़ी से हट कर दवा-उत्पादन, रियल एस्टेट, पैकेजिंग, फायनेन्स, और तेल के क्षेत्रों में फैल चुका है। लगभग साठ हजार लोग अब भी रोजगार पा रहे हैं। मनोहरभाई के बेटे हैं सांसद श्री प्रफुल्ल पटेल जो विदर्भ (महाराष्ट्र) के बीड़ी-किंग कहलाते हैं।
सागर की फर्म छोटाभाई जेठाभाई ही कहलाई। हालांकि बाद में परिवार के मुखिया मणिभाई पटेल हुए किन्तु उनके परिवार के वि_ल भाई पटेल को फिल्म गीतकार के रूप में अधिक प्रसिद्धि मिली। वे बॉबी फिल्म में ‘झूठ बोले कौवा काटे’ के अलावा अनेक गानों के रचयिता के रूप में याद किये जाते हैं।
श्री मोहनलाल जबलपुर में सडक़ के किनारे बैठकर बीड़ी बनाया करते थे। यह सन् 1902 की बात है। और फिर उन्होने अपनी बीड़ी को ‘शेर’ ब्रांड के साथ बेचना शुरू किया। मेहनत रंग लायी और ‘मोहनलाल हरगोविंद दास’ देश की ‘नम्बर वन’ बीड़ी उत्पादक फर्म बनी। मोहनलाल ने अपना कारोबार दत्तक पुत्र परमानन्द भाई को सौंपा। उनके बाद पुत्र श्रवण पटेल ने कमान सम्भाली।
1930 के आसपास जिन दिनों मोहनलाल हरगोविंद दास फ़र्म अपना कारोबार बढ़ा रही थी, प्रभुदास भाई फ़र्म में मुनीम थे। उन्होने काम छोड़ अपना कारोबार शुरू किया। बेटों जसवन्तलाल और प्रह्लाद भाई ने कुछ समय पिता के साथ काम करने के बाद दमोह में एक बीड़ी फैक्टरी स्थापित की। एक समय ऐसा आया जब इनके ‘टेलीफोन’ छाप की प्रतिदिन दस करोड़ बीडिय़ां बनने लगीं और फर्म लगभग चार लाख रुपये प्रतिदिन एक्साइज ड्यूटी के रूप में पटाने लगी।
रायपुर में डी.एम. ग्रुप रियल एस्टेट सेक्टर में बहुत बड़ा नाम है। डायालाल मेघजी भाई के नाम से स्थापित यह कम्पनी किसी समय अपनी मशहूर बादशाही बीड़ी के लिए जानी जाती थी। धमतरी के मीरानी परिवार की गोला बीड़ी हो या रायगढ़ के पास भूपदेवपुर की बाबूलाल बीड़ी, अनेक गुजराती परिवार बीड़ी उद्योग से जुड़े और सफल हुए। इनमें गैर-पाटीदार भी शामिल हैं।
बीड़ी व्यवसाय में उतरे गुजरातियों में से अनेक मध्य प्रान्त की राजनीति में भी आये। आर्थिक सम्पन्नता के साथ साथ हज़ारों की संख्या में रोजगार के लिये बीड़ी पर आश्रित ग्रामीण आमतौर पर इनके राजनीतिक करियर का आधार बने। उदाहरण अनेक हैं (पर स्थान कम है)। गुजराती समाज छत्तीसगढ़ और मध्य प्रान्त की संस्कृति में रच-बस जाने के बावजूद अपनी भाषा, खान-पान और सांस्कृतिक परम्पराओं को सहेज कर रखने में काफी हद तक सफल रहा है। इनकी जीवनशैली में सादगी आमतौर पर अब भी बरकरार है।
डॉ. परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़
-पुष्य मित्र
असली मसला बेरोगजारी का है। जिसका गुस्सा कभी आरआरबी के गलत रिजल्ट के बहाने निकल जाता है, तो कभी सेना की नौकरी में ठेका प्रथा शुरू करने के फैसले के विरोध में। यह उन लाखों युवाओं का गुस्सा है जो लंबे समय से दबा है। जो हर छोटे-बड़े शहरों में एक छोटे से कमरे में बंद होकर सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं। फिर चाहे वह कोई भी नौकरी हो, एसएससी की, रेलवे की या सेना की। वे हर जगह कोशिश करते हैं, क्योंकि आजादी के बाद के वर्षों के अनुभव ने भारत के लोगों को यही सिखाया है कि अगर भविष्य सुरक्षित करना है तो किसी न किसी तरह सरकारी नौकरी हासिल कर लो।
ये लोग बहुत आम घरों के लडक़े हैं। इनके अभिभावकों के पास इतना पैसा नहीं था कि ये किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज में जा पाते। न इनमें इतनी मेधा थी कि गरीबी के दुष्चक्र को तोडक़र मेहनत के दम पर कोई बड़ी सफलता हासिल कर लेते। लिहाजा पटना, दिल्ली, इलाहाबाद, भागलपुर, आरा, पूर्णिया जैसे शहरों के सीलन भरे छोटे कमरे में पैक होकर ये तपस्या करते रहते हैं।
आजकल शाम के वक्त आप गांधी मैदान जायें तो ऐसे सैडक़ों लडक़े-लड़कियां मिलेंगे तो सेना और पुलिस की नौकरी की तैयारी के लिए हाई जंप और लांग जंप करते दिखेंगे। गर्दनीबाग हाईस्कूल के मैदान में भी ऐसे युवा खूब जुटते हैं। दूसरे शहरों में भी ऐसे कई ठिकाने होंगे। ये जुटे रहते हैं। इसके बावजूद कि मुश्किल से इनमें से किसी एक को सरकारी नौकरी मिलती होगी फिर भी।
उम्मीद इनके भरोसे की डोर होती है। ये टकटकी लगाये वेकेंसी की राह देखते रहते हैं। घर से कह कर आते हैं कि दो साल का खर्च दीजिये, नौकरी हासिल करके लौटेंगे। मगर नौकरियां पंचवर्षीय योजना में बदल जाती हैं। फिर भी ये किसी न किसी तरह उम्मीद को टिकाये रहते हैं। इनके मानसिक तनाव का आप और हम अंदाजा नहीं लगा सकते।
इसी वजह से जब नौकरी से जुड़ी किसी सरकारी फैसले के विरोध में, जिस फैसले में युवाओं का हित कम और झांसे बाजी अधिक होती है, ये सडक़ पर उतर आते हैं। और फिर जगह-जगह बेरोजगारी का फ्रस्ट्रेशन दिखने लगता है। तोडफ़ोड़, आगजनी, पथराव। हम और आप इन्हें शांति की सलाह दे सकते हैं, जो उचित ही है। मगर इनका तनाव इतना गंभीर है कि ये समझते नहीं। कल बीबीसी की एक रिपोर्ट देख रहा था, इसमें एक युवा कह रहा था, हम शांति से आंदोलन कर सकते हैं, मगर क्या सरकारें शांतिपूर्ण आंदोलन को नोटिस करती हैं?
यह बड़ा सवाल है। सरकारें भी हिंसक आंदोलन पर सक्रिय होती हैं। वरना शांतिपूर्ण आंदोलन होते रहते हैं जंतर मंतर पर। खैर, फिर भी रास्ता गांधी का ही अच्छा है और किसान आंदोलन ने यह साबित किया है। उचित सलाह यही है कि आंदोलन शांतिपूर्ण हो।
मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार बेरोजगारी के मसले को ठीक से एड्रेस क्यों नहीं करती। अभी कल की तारीख में देश की बेरोजगारी दर 7.5 फीसदी है, बिहार की मई की बेरोजगारी दर 13.3 फीसदी। हालांकि वास्तविक बेरोजगारी इससे कहीं अधिक बड़ी है। युवाओं के पास कोई काम नहीं है। सरकारी विभागों में पद खाली हैं, मगर सरकार की इन्हें भरने में कोई दिलचस्पी नहीं है। सरकारों ने लगभग तय कर लिया है कि रोजगार देना, नौकरी देना इनका काम नहीं है।
ये इसलिए कहते हैं कि युवा आत्मनिर्भर बनें। पकौड़ा तलें। अपनी रोजी रोटी खुद कमायें। स्टार्टअप योजना का लाभ लें। मगर स्टार्टअप के आंकड़े टटोलिये, कितने फीसदी युवा सफल होते हैं। मुश्किल से एक परसेंट, बाकी 99 असफल होकर तनाव झेलते हैं। कह देना आसान है कि आत्मनिर्भर बन जाइये। मगर आज की तारीख में यह इतना भी आसान नहीं।
इसलिए सरकारों को बेरोजगारी के मसले पर संवेदनशीलता से विचार करना चाहिए। देश के युवा इस वक्त भीषण तनाव में हैं। उन्हें तनाव से बाहर निकालना जरूरी है। जो दृश्य नजर आ रहे हैं, उसका इशारा यही है कि देश 1974 के इमरजेंसी आंदोलन जैसे आंदोलन की तरफ बढ़ रहा है। यह बड़े विस्फोट का रूप ले सकता है।
ऐसा न हो, यही सबके हित में है। क्योंकि अराजकता कभी अच्छी नहीं होती। मगर इस अराजकता के दोषी सिर्फ युवा नहीं। सरकारें उनसे कहीं अधिक दोषी हैं। क्योंकि वे अपनी जिम्मेदारी से हाथ झटक रही हैं। उन्हें झांसा दे रही हैं। उनके लिए कुछ कर नहीं रहीं। अभी भी वक्त है कि सरकारें चेत जायें और युवाओं के मसले पर गंभीरता से विचार करें। यही इस वक्त का सबसे बड़ा संदेश है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मोदी सरकार ने जो नई अग्निपथ योजना घोषित की है, उसके खिलाफ सारे देश में जन-आंदोलन शुरु हो गया है। यह आंदोलन रोजगार के अभिलाषी नौजवानों का है। यह किसानों और मुसलमानों के आंदोलन से अलग है। वे आंदोलन देश की जनता के कुछ वर्गो तक ही सीमित थे। यह जाति, धर्म, भाषा और व्यवसाय से ऊपर उठकर है। इसमें सभी जातियों, धर्मों, भाषाओं, क्षेत्रों और व्यवसायों के नौजवान सम्मिलित है। इसके कोई सुनिश्चित नेता भी नहीं हैं, जिन्हें समझा-बुझाकर चुप करवाया जा सके।
यह आंदोलन स्वत: स्फूर्त है। जाहिर है कि इस स्वत:स्फूर्त आंदोलन के भडक़ने का मूल कारण यह है कि नौजवानों केा इसके बारे में गलतफहमी हो गई है। वे समझ रहे हैं कि 75 प्रतिशत भर्तीशुदा जवानों को यदि 4 साल बाद हटा दिया गया तो कहीं के नहीं रहेंगे। न तो नई नौकरी उन्हें आसानी से मिलेगी और न ही उन्हें पेंशन आदि मिलने वाली है। इस आशंका का जिक्र मैंने परसों अपने लेख में किया था।
इसे लेकर ही सारे देश में आंदोलन भडक़ उठा है। रेले रूक गई हैं, सडक़े बंद हो गई हैं और आगजनियां भी हो रही हैं। बहुत से नौजवान घायल और गिरफ्तार भी हो गए हैं। एक जवान ने आत्महत्या भी कर ली है। यह आंदोलन पिछले सभी आंदोलनों से ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि ज्यादातर आंदोलनकारी वे ही नौजवान हैं, जिनके रिश्तेदार, मित्र या पड़ौसी पहले से भारतीय फौज में है। इस आंदोलन से वे फौजी भी अछूते नहीं रह सकते।
सरकार ने इस अग्निपथ योजना को थोड़ा ठंडा करने के लिए भर्ती की उम्र को साढ़े सतरह साल से 21 साल तक जो रखी थी, उसे अब 23 तक बढ़ा दिया है। यह राहत जरुर है लेकिन इसका एक दुष्परिणाम यह भी है कि चार साल बाद याने 27 साल की उम्र में बेरोजगार होना पहले से भी ज्यादा हानिकर सिद्ध हो सकता है। यह ठीक है कि सेना से 4 साल बाद हटनेवाले 75 प्रतिशत नौजवानों को सरकार लगभग 12-12 लाख रु. देगी तथा सरकारी नौकरियों में उन्हें प्राथमिकता भी मिलेगी।
लेकिन असली सवाल यह है कि मोदी सरकार ने इस मामले में भी क्या वही गलती नहीं कर दी, जो वह पिछले आठ साल में एक के बाद एक करती जा रही है? 2014 में सरकार बनते ही उसने भूमि-ग्रहण अध्यादेश जारी किया, अचानक नोटबंदी घोषित कर दी, कृषि कानून बना दिए और पड़ौसी देशों के मामले में कई बार गच्चा खा गई।
इससे यही साबित होता है कि वह नौकरशाहों के मार्गदर्शन पर एक अनेक देशहितकारी कदम उठाने का सत्साहस तो करती है लेकिन उनके कदमों का जिन पर असली असर होना है, उन्हें वह बिल्कुल भी घांस नहीं डालती है। वह यह भूल रही है कि वह लोकतंत्र की सरकार है। वह किसी बादशाह की सल्तनत नहीं है कि उसने जो भी हांक लगाई तो सारे दरबारियों ने कह दिया ‘जी हुजूर’! (नया इंडिया की अनुमति से)
-रितिका सिहाग
एक लडक़ी है
हरपाल कौर नाम है
पंजाब की पहली वेल्डिंग गर्ल ...!!!
सिखों की एक बेहद जुझारू लडक़ी...!!!
पंजाब के लुधियाना और जालंधर के बिल्कुल बीच में फगवाड़ा से मात्र 13 किलोमीटर दूर गुरा नामक गाँव में रहती है।
मात्र बीस वर्ष की उम्र में पिता ने शादी कर दी। ससुराल वालों से मतभेद हुए, पिता के पास आकर रहने लगी।
नौ साल का एक लडक़ा है उसे भी साथ ले आई। तीन कुंवारी बहनें पहले से घर मे थी। पिता ने ससुराल में रहने को फोर्स करने की बजाय उसे खुद की लाइफ अपने हिसाब से जीने को स्वंतत्र किया और उसके फैसले के साथ रहे।
अब 9 वर्ष के लडक़े के साथ मायके में रहना भी लडक़ी के लिए आसान नहीं होता। तलाक का केस चल रहा। परिवार रिश्तेदारों के व्यंग्य बाण रोज सुनने को मिलते। रोज पिता से खर्च मांगना भी आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता....!!!
कहीं जॉब शुरू करके जीवन को पटरी पर लाने की कोशिश की लेकिन नहीं कर पाई।
पिता की एक दुकान है वेल्डिंग करके कृषि उपकरण बनाने की। दुकान के ऊपर उनका घर है लडक़ी ने पिता को कहा यहीं दुकान पर काम कर लेती हूँ, जो खर्च एक मजदूर को देते हो वही मुझे दे दो, साथ में अपनी जगह रहूंगी तो सेफ्टी भी रहेगी।
लडक़ी ने 300 रुपये रोजाना के हिसाब से वहीं काम शुरू कर दिया, लोहे को वेल्डिंग करके उपकरण बनाने का।
पंजाब की पहली वेल्डिंग गर्ल बनी। हाथ में सफाई इतनी कि ट्रैंड लडक़े भी उसके जैसा काम न कर सकते। वेल्डिंग की तेज रोशनी से आंखों से रोज पानी बहता, लोहे उठाने से हाथ काले पड़ जाते और दर्द करते, जुराबें गर्म होकर जूते के अंदर ही पैर से चिपक जाती पर ऐसी फंसी होती कि उसे निकाल भी न पाती।
कई लडक़ी उसे देखकर दुकान पर काम सीखने आई पर वहां की मेहनत देखकर दोबारा मुडक़र उस शॉप पर नहीं गयी। हरपाल रोजाना सुबह जल्दी उठकर और शाम को सबसे बाद में काम छोड़ती। जितना काम दूसरा मजदूर एक दिन में करके देता उतने ही पैसे में वो दुगना काम पिता को करके देती वो भी एकदम सफाई से।
टिक टोक पर वीडियो बनाने शुरू किए। वो बन्द हुई तो इंस्टाग्राम पर अपने वेल्डिंग करते के वीडियो पोस्ट किए। लोगों को पता लगने लगा फिर एक पंजाबी चैनल ने इंटरव्यू किया तो पूरे पंजाब समेत विदेशों में भी लडक़ी की चर्चा होने लगी। भारत समेत इंग्लैंड कनाडा और यूरोप के अन्य देशों से भी लडक़ी के लिए रिश्ते आ रहे पर वो अपने देश की मिट्टी में रहकर ही काम करना चाहती है चाहे पैसे कम मिले।
इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर लाखों सब्सक्राइबर होने की वजह से हरियाणा पंजाब और राजस्थान से भी लोग कृषि उपकरण बनवाने के लिए आने लगे। दोनों जगह ब्राउन कुड़ी के नाम से चैनल है जिनके लिंक कॉमेंट बॉक्स में दे दूंगी। बेटी की वजह से भगवान सिंह धंजल की दुकान की कीर्ति पूरे भारत में फैल गई।
हरपाल कौर सबसे बड़ी है उससे छोटी की शादी कर दी गई उससे छोटी पंजाब पुलिस में सेलेक्ट हो गई। सबसे छोटी इसी के साथ दुकान पर काम करती है। बेटी की जी तोड़ मेहनत की वजह से आज पिता का व्यवसाय पहले से कई गुना बढ़ गया। लडक़ी के पास खुद का बैंक एकाउंट है खूब पैसे हैं पर फिर भी रोज जी तोड़ मेहनत करती है। एक दिन दुकान पर मैले कुचैले कपड़ों और काले हाथों के साथ लोहे को वेल्ड कर रही होती है तो दूसरे दिन बुलेट पर चलती एक खूबसूरत परी जैसी दिखती है।
सोशल मीडिया पर इन्हें चन्द गालियां देने वाले लोग भी हैं जो कहते हैं 2 कोड़ी की नचनिया है पैसे के लिए नाचती है या दस मिनट काम करती है पर लाखों लोग इन्हें प्रेम देने वाले भी हैं। दस-दस पिज्जा एक साथ अनजान लोग इनकी शॉप पर गिफ्ट्स भेज देते हैं बिना अपना नाम जाहिर किये। आए दिन दुकान पर कोई न कोई गिफ्ट आता रहता है।
हमारे समाज में ऐसी देवी जैसी लड़कियां भी हैं वो चाहती तो कब की शादी करके अपने लिए जीना शुरू कर देती। पर बेटे के भविष्य को देखकर फूंक-फूंककर कदम रखती है !
-अतहर फारूकी
उर्दू के जानेमाने साहित्यकार और आलोचक प्रोफेसर गोपी चंद नारंग ने बुधवार रात लगभग 10 बजे अमेरिकी प्रांत नॉर्थ कैरोलाइना के एक शहर में अंतिम सांस ली। उनकी मौत यूं तो एक आलिम (बुद्धिजीवी) की मौत थी जो बकौल एक फिलॉसफर एक आलम (दुनिया) की मौत होती है। मगर गोपी चंद नारंग ने जिस तरह की जिंदगी जी है, ये उनकी एक यात्रा का समापन और दूसरी अनंत यात्रा का आरंभ है, और ये मातम का नहीं बल्कि जश्न का वक्त है।
पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज गुट) के सांसद इरफान सिद्दीकी ने उनकी मौत पर गुरुवार को देश की संसद में उन्हें श्रद्धांजलि दी।
उन्होंने कहा, ‘हमारे यहां अपने शायरों, अपने लिखनेवालों को लोग बहुत कम जानते हैं। लिहाज़ा गोपी चंद नारंग के बारे में भी मालूमात नहीं है। लेकिन उर्दू अदब और उर्दू आलोचना की जितनी सेवा गोपी चंद नारंग ने की, शायद पाकिस्तान के अंदर भी उतनी सेवा किसी ने नहीं की।’
‘वो जिस तरह भारत के अंदर साहित्यिक परंपरा के रखवाले थे, पाकिस्तान के अंदर भी उनकी बड़ी कद्र थी। वो पाकिस्तान हमेशा आया करते थे और यहां के सम्मेलन और संगोष्ठियों में शरीक होते थे। गोपी चंद का जाना उर्दू अरब का एक बड़ा नुकसान है।’
बलूचिस्तान में हुआ जन्म
गोपी चंद नारंग का जन्म 11 फरवरी, 1931 को ब्रिटिश इंडिया के दुकी में हुआ था जो कि अब पाकिस्तान के बलूचिस्तान में है।
उर्दू में ऐसा कोई सम्मान नहीं है जो उन्हें न मिला हो। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें केवल वही सम्मान नहीं मिले जिसकी ज्यूरी में वो ख़ुद थे जिसमें ज्ञानपीठ सबसे ऊपर है जिसकी उर्दू ज्यूरी के वो सर्वेसर्वा थे।
मगर ज्ञानपीठ वालों का मूर्तिदेवी अवार्ड भी उन्हें मिला। उन्हें साहित्य अकादमी की सबसे बड़ी फेलोशिप मिली, उन्हें पद्मभूषण सम्मान भी मिला।
पाकिस्तान का सबसे बड़ा अवार्ड सितारा-ए इम्तियाज भी उन्हें मिला।
भारत और पाकिस्तान दोनों से मिला सम्मान
वो उर्दू के पहले ऐसे स्कॉलर थे जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों से नागरिक सम्मान मिला। उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और फिर बरसों बाद वो साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी बने। ये संस्था भारत की 24 भाषाओं में साहित्य के विकास के लिए काम करती है।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी जैसे बड़े विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधियां दीं। उन्होंने कई बरसों तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया और दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाया। गोपी चंद नारंग जामिया उर्दू विभाग के पहले प्रोफ़ेसर थे।
यह भी याद रखना चाहिए कि जिस समय गोपी चंद नारंग साहब जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग में प्रोफेसर बने, ठीक उसी समय जामिया के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर मुजीब रिजवी थे। इसे जामिया की गंगा-जमनी तहजीब की एक शानदार मिसाल के तौर पर भी देखा जाता है।
रिटायरमेंट के बाद वो जामिया और दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एमिरेट्स भी बनाए गए। उन्होंने सेंट स्टीफेन्स कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी से अपने टीचिंग करियर का आगाज किया।
फिर वह दिल्ली यूनिवर्सिटी के ही डिपार्टमेंट ऑफ उर्दू में रीडर बने। वहां से वो यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन और फिर मैडिसन गए। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा और ऑस्लो यूनिवर्सिटी में भी छात्रों को पढ़ाया।
मैडिसन में रहने के दौरान नोबेल पुरस्कार विजेता हर गोबिंद खुराना उनके बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे। जब खुराना एमआईटी जा रहे थे तो उन्होंने नारंग साहब से भी साथ चलने को कहा।
खुराना साहब के इस ऑफर पर नारंग साहब ने जो कहा उसकी मिसाल लोग आज भी देते हैं।
उस वक्त नारंग साहब ने खुराना साहब से कहा था, ‘आपकी प्रयोगशाला एमआईटी में है और मेरी भारत में।’
भारत ने नहीं किया मायूस
भारत ने भी नारंग को मायूस नहीं किया। गोपीचंद नारंग ने जब हरगोविंद खुराना से कहा था कि भारत उनकी प्रयोगशाला है तो उनके जेहन में दूसरे कामों के अलावा दिल्ली की करखंदारी भाषा पर काम करना भी रहा होगा।
इस भाषा में उन्हें शुरुआत से ही दिलचस्पी थी। दिल्ली की उर्दू की करखंदारी बोली पर उनका काम महत्वपूर्ण था जिससे अब शायद बहुत कम लोग परिचित होंगे।
भाषा विज्ञान का उर्दू में वह आरम्भिक दौर था। बाद में नारंग ने उर्दू साहित्य पर अधिक ध्यान दिया। उर्दू साहित्य में टीका को एक पूर्ण शाखा बनाने में गोपी चंद नारंग का अहम किरदार था। उन्होंने उर्दू के 400 साल लंबे सांस्कृतिक इतिहास को अपने शोध का अहम बिंदु बनाया।
उर्दू साहित्य की भारतीय जड़ों की तलाश
अपनी जिंदगी के आखिरी पच्चीस सालों से ज्यादा का वक्त उन्होंने उर्दू साहित्य की भारतीय जड़ों की तलाश में गुजार दिए।
उर्दू किस्सों से माखूज उर्दू मसनवियां (2002), उर्दू गजल और हिंदुस्तानी जेहन-ओ-तहजीब (2002), गालिब : मानी आफरीनी (2013) इस सिलसिले की महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।
91 साल की जिंदगी में गोपी चंद नारंग को कम से कम 10 बड़े सम्मान मिले और दुनिया की छह बड़ी फेलोशिप मिली। उन्होंने सात जगहों पर पढ़ाने का काम किया और उन्होंने 70 से अधिक किताबें लिखीं जिनमें से आठ अंग्रेजी जुबान में, सात हिंदी में और 50 से अधिक उर्दू भाषा में थीं। उनकी किताबों का दुनिया की कई जुबानों में अनुवाद तो हुआ ही, खुद गोपी चंद नारंग पर करीब 30 किताबें लिखी गईं हैं। इससे ज्यादा की कामना किसी लिखनेवाले से करना शायद नाइंसाफी होगी।
उर्दू के चाहने वालों ने भी उन्हें खूब मोहब्बत और इज्जत दी। इतनी मोहब्बत और इज्जत भारत में उर्दू के दूसरे लिखने वालों को कम ही नसीब हुई है।
गोपी चंद नारंग ने अपनी पूरी जिंदगी उर्दू को सांप्रदायिकता की कैद से निकालने में लगा दी। वो कहा करते थे, ‘जुबान एडजस्ट कर लेगी और वो जिंदा रहेगी, दरिया की तरह जो अपने किनारे बदलता रहता है।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन अगले माह सउदी अरब की यात्रा पर जा रहे हैं। उस दौरान वे इजराइल और फिलीस्तीन भी जाएंगे लेकिन इन यात्राओं से भी एक बड़ी चीज जो वहां होने जा रही है, वह है— एक नए चौगुटे की धमाकेदार शुरुआत! इस नए चौगुटे में अमेरिका, भारत, इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) होंगे। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जो चौगुटा चल रहा है, उसके सदस्य हैं— अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया। इस और उस चौगुटे में फर्क यह है कि उसे चीन-विरोधी गठबंधन माना जाता है जबकि इस पश्चिम एशिया क्षेत्र में चीन के जैसा कोई राष्ट्र नहीं है, जिससे अमेरिका प्रतिद्वंद्विता महसूस करता हो।
इसके अलावा इस चौगुटे के तीन सदस्यों का आपस में विशेष संबंध बन चुका है। भारत और सं.अ.अ. के बीच मुक्त व्यापार समझौता है तो ऐसा ही समझौता इजराइल और सं.अ.अ. के बीच भी हो चुका है। ये समझौते बताते हैं कि पिछले 25-30 साल में दुनिया कितनी बदल चुकी है। इजराइल- जैसे यहूदी राष्ट्र और भारत—जैसे पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्र के साथ एक मुस्लिम राष्ट्र यूएई के संबंधों का इतना घनिष्ट होना अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हो रहे बुनियादी परिवर्तनों का प्रतीक है।
अमेरिका के राष्ट्रपति का इजराइल और फिलीस्तीन एक साथ जाना भी अपने आप में अति-विशेष घटना है। यों तो पश्चिम एशिया के इस नए चौगुटे की शुरुआत पिछले साल इसके विदेश मंत्रियों की बैठक से शुरु हो गई थी लेकिन अब इसका औपचारिक शुभारंभ काफी धूम-धड़ाके से होगा। मध्य जुलाई में इन चारों राष्ट्रों के शीर्ष नेता इस सम्मेलन में भाग लेंगे। जाहिर है कि यह नाटो, सेंटो या सीटो की तरह कोई सैन्य गठबंधन नहीं है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की उपस्थिति को सैन्य-इरादों से जोड़ा जा सकता है लेकिन पश्चिम एशिया में इस तरह की कोई चुनौती नहीं है।
ईरान से परमाणु-मुद्दे पर मतभेद अभी भी हैं लेकिन उसके विरुद्ध कोई सैन्य गठबंधन खड़ा करने की जरुरत अमेरिका को नहीं है। जहां तक भारत का सवाल है, वह किसी भी सैन्य संगठन का सदस्य न कभी बना है और न बनेगा। हिंद-प्रशांत क्षेत्र के चौगुटे में भी उसका रवैया चीन या रूस विरोधी नहीं है। भारत इस मामले में बहुत सावधानी बरत रहा है। वह इन चौगुटों में सक्रिय है लेकिन वह किसी महाशक्ति का पिछलग्गू बनने के लिए तैयार नहीं है।
इस वक्त भारत शाघांई सहयोग संगठन और एसियान देशों की बैठकें भी आयोजित कर रहा है। इन सबका लक्ष्य यही है कि आपसी आर्थिक और व्यावसायिक संबंधों की श्रीवृद्धि हो। क्या ही अच्छा होता कि इन सभी संगठनों में पाकिस्तान भी सम्मिलित होता लेकिन इस प्रश्न का हल तो पाकिस्तान ही कर सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व गर्ग
फेसबुक में कुछ लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। सोशल मीडिया के अलावा इनका कोई लेखन का इतिहास नहीं है। कई लोगों ने सोशल मीडिया में लिख-लिखकर अपनी जगह बनाई, इसमें कोई शक नहीं।
ये भी एक तथ्य है कि बड़े -बड़े स्तम्भकार , इतिहासकार, गद्य लेखक जिनकी किताबें देश भर में सर्वाधिक पढ़ी जाती रहीं, जिनके स्तम्भ सबसे चर्चित होते रहे सोशल मीडिया में खास फेसबुक में उनके पाठक खांटी फेसबुक लेखकों के मुकाबले नगण्य हैं।
क्या सोशल मीडिया का लेखन ज़्यादा प्रभावी, प्रामाणिक ,विश्वसनीय और स्वीकार्य है?
डिजिटल युग के नौजवानों से पूछिए वो इसी के पक्ष में हाथ उठाएंगे पर अखबारों, किताबों, पत्रिकाओं और साहित्य के गंभीर पाठकों से बात करिये वो बताएँगे सोशल मीडिया का लेखन क्षणिक है, यहाँ शब्दों का कोई भविष्य नहीं।
उनकी निगाह में सोशल मीडिया सबसे बड़ा कूड़ादान है, जहाँ लेखन के नाम पर सबसे ज़्यादा कूड़ा-करकट है।
दरअसल, सोशल मीडिया के बढ़ते पाठक आज के इस डिजिटल युग की बड़ी सच्चाई है। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी कहें या फेसबुक की पाठशाला इसका गहरा प्रभाव देश और दुनिया की राजनीति पर है। इसमें सत्ता हिलाने-बदलने की असीम क्षमता है, इसलिए राजनीतिक दलों ने अपने बजट के बड़े हिस्से को साइबर सेल में झोंका हुआ है।
सवाल यहीं से शुरू होता है कि जब सोशल मीडिया आज आज इतना ज़्यादा महत्वपूर्ण है तो इसमें गंभीर विमर्श, चिंतन और सार्थक लेखन क्यों गायब है ?
उत्तेजना पर सवार लेखक कल की बात और बीते इतिहास को दफनाकर कोई तात्कालिक मुद्दे को पकड़ते हैं और दूसरी ब्रेकिंग न्यूज़ मिलते ही उस मुद्दे को भी दफऩ कर देते हैं।
ये एक बड़ी जि़म्मेदारी वरिष्ठ लेखकों की बनती है कि वो सोशल मीडिया लेखन के विरोध ,उपेक्षा और तिरस्कार के बदले इन लेखकों के साथ सीधा संवाद करें।
इस सच्चाई को स्वीकार करें कि सोशल मीडिया आम जनता तक खासकर आज के युवा वर्ग तक पहुँचने की सीढ़ी है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि पिछले कुछ साल सोशल मीडिया फेसबुक हो या ट्विटर या व्हाट्सएप या इंस्टाग्राम से सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं।
इसलिए बीच-बीच में जब बुद्धिजीवी अपने सोशल मीडिया का अकाउंट ‘डीएक्टिवेट’ करते हैं या लिखना बंद कर देते हैं या दूर रहने कि घोषणा करते हैं तो सोशल मीडिया को ‘अनाथ’ करने जैसी बात होती है। और ज़्यादा दिशाहीन होने का खतरा बढ़ता है।
ये तथ्य है किसी साहित्यकार, लेखक, कवि के पास सोशल मीडिया में भले ही अपेक्षाकृत काम फॉलोवर हों पर सोशल मीडिया के बड़े फॉलोवर रखनेवाले भी उनसे दिशा लेते हैं।
अपने अनुभव, अध्ययन और आज की पूरी तस्वीर को देखकर दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमारे प्रगतिशील लेखक अगर सोशल मीडिया में न रहें, न लिखें तो यकीनन सोशल मीडिया के नौजवान अराजक लश्कर में दिखेंगे !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने रोजगार के बारे में जो घोषणाएं की हैं, यदि उन्हें वास्तव में अमली जामा पहनाया जा सके तो लोगों को काफी राहत मिलेगी। मोदी ने कहा है कि अगले डेढ़ साल में 10 लाख लोगों को सरकारी नौकरियां मिलेगी और राजनाथ सिंह ने तो भारतीय सेना में भर्ती और सेवाओं के नियम ही बदल दिए हैं। इस समय देश में करोड़ों लोग पूर्णरूपेण बेरोजगार हैं और उससे भी ज्यादा लोग अर्धरोजगार हैं। याने उन्हें पूरे समय कोई काम मिलता ही नहीं है।
यदि 10 लाख को रोजगार मिल जाए तो यह तो ऊँट के मुंह में जीरे के समान ही होगा। सरकार की दृष्टि अपनी नौकरियों तक ही सीमित है। केंद्र सरकार के पास 40 लाख पद हैं। उनमें से लगभग 9 लाख खाली पड़े हैं। उसका कर्तव्य क्या इतना ही है कि वह इन्हें भर दे? वह तो है ही, उनसे अलग नए गैर-सरकारी रोजगार पैदा करना उससे भी ज्यादा जरुरी है। सरकारी नौकरों को वेतन, भत्ता और पेंशन आदि तो पूरे-पूरे मिलते रहते हैं लेकिन वे अपना काम कितना करते हैं, इस पर कड़ी निगरानी का कोई तरीका हमारे यहां नहीं है जबकि चीन में मैंने कई बार देखा कि सरकारी और प्राइवेट कंपनियां अपने कार्यकर्ताओं से डटकर काम लेती हैं।
इसीलिए भारत से पिछड़ा हुआ चीन हमसे पांच गुना ज्यादा मजबूत हो गया है। सरकारी नौकरियों की संख्या जरुर बढ़े लेकिन उनकी उपयोगिता के मानदंड काफी सख्त होने चाहिए और हर पांच साल में उनकी समीक्षा होनी चाहिए। जो भी अयोग्य पाया जाए, उस कर्मचारी को छुट्टी दी जानी चाहिए। फौज में नौकरियों के नए नियम बनाने के लिए रक्षा मंत्री राजनाथसिंह बधाई के पात्र हैं लेकिन कुछ अनुभवी अफसरों ने चिंता भी व्यक्त की है।
इस साल 46 हजार नौजवानों को फौज में भर्ती किया जाएगा। उनकी उम्र 17.5 से 21 साल तक होगी। सभी जवानों को 4 साल तक फौज में रहना होगा। 4 साल बाद सिर्फ 25 प्रतिशत जवान वे ही रह पाएंगे, जो बहुत योग्य पाए जाएंगे। शेष 75 प्रतिशत जवानों को सेवा-निवृत्त कर दिया जाएगा। उन्हें पेंशन भी नहीं मिलेगी लेकिन नौकरी छोड़ते वक्त उन्हें 11 लाख 71 हजार रु. मिलेंगे, जिनसे वे कोई भी नया काम शुरु कर सकेंगे। उन्हें सरकार विभिन्न क्षेत्रों में प्राथमिकता भी दिलवाती रहेगी।
इस नए प्रावधान पर एक प्रतिक्रिया यह भी है कि सिर्फ चार साल की नौकरी के लिए कौन आगे आएगा? उस चारवर्षीय अनुभव का फायदा अन्य नौकरियों में कुछ काम देगा या नहीं? ये प्रश्न तो जायज हैं लेकिन इस नई पहल के कई फायदे हैं। एक तो फौज में नौजवानों की संख्या बढ़ेगी और सदा कायम रहेगी। सरकार का पैसा जो दीर्घावधि वेतन और पेंशन पर खर्च होता है, वह बचेगा।
इसके अलावा नई सैन्य तकनीकों के कारण यों भी सारे देश अपने फौजियों के संख्या-बल को घटा रहे हैं। चीन ने अपनी सेना को 45 लाख से घटाकर 20 लाख कर दिया है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और इस्राइल में फौजियों की कार्यवधि को काफी सिकोड़ दिया गया है। अब भारतीय फौज में जो भर्तियां होंगी, अंग्रेज की बनाई जातीय रेजिमेंटों में नहीं होगी। यह भी बड़ा सुधार है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व गर्ग
फेसबुक में कुछ लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं .सोशल मीडिया के अलावा इनका कोई लेखन का इतिहास नहीं है . कई लोगों ने सोशल मीडिया में लिख -लिख कर अपनी जगह बनाई , इसमें कोई शक नहीं .
ये भी एक तथ्य है कि बड़े -बड़े स्तम्भकार, इतिहासकार, गद्य लेखक जिनकी किताबें देश भर में सर्वाधिक पढ़ी जाती रहीं, जिनके स्तम्भ सबसे चर्चित होते रहे सोशल मीडिया में ख़ास फेसबुक में उनके पाठक खांटी फेसबुक लेखकों के मुकाबले नगण्य हैं .
क्या सोशल मीडिया का लेखन ज़्यादा प्रभावी, प्रामाणिक, विश्वसनीय और स्वीकार्य है ?
डिजिटल युग के नौजवानों से पूछिए वो इसी के पक्ष में हाथ उठाएंगे पर अखबारों, किताबों , पत्रिकाओं और साहित्य के गंभीर पाठकों से बात करिये वो बताएँगे सोशल मीडिया का लेखन क्षणिक है, यहाँ शब्दों का कोई भविष्य नहीं .
उनकी निगाह में सोशल मीडिया सबसे बड़ा कूड़ा दान है ,जहाँ लेखन के नाम पर सबसे ज़्यादा कूड़ा -करकट है .
दरअसल , सोशल मीडिया के बढ़ते पाठक आज के इस डिजिटल युग की बड़ी सच्चाई है .व्हाट्स ऍप यूनिवर्सिटी कहें या फेसबुक की पाठशाला इसका गहरा प्रभाव देश और दुनिया की राजनीति पर है . इसमें सत्ता हिलाने -बदलने की असीम क्षमता है , इसलिए राजनीतिक दलों ने अपने बजट के बड़े हिस्से को साइबर सेल में झोंका हुआ है .
सवाल यहीं से शुरू होता है कि जब सोशल मीडिया आज आज इतना ज़्यादा महत्वपूर्ण है तो इसमें गंभीर विमर्श ,चिंतन और सार्थक लेखन क्यों गायब है ?
उत्तेजना पर सवार लेखक कल की बात और बीते इतिहास को दफनाकर कोई तात्कालिक मुद्दे को पकड़ते हैं और दूसरी ब्रेकिंग न्यूज़ मिलते ही उस मुद्दे को भी दफ़न कर देते हैं .
ये एक बड़ी ज़िम्मेदारी वरिष्ठ लेखकों की बनती है कि वो सोशल मीडिया लेखन के विरोध ,उपेक्षा और तिरस्कार के बदले इन लेखकों के साथ सीधा संवाद करें .
इस सच्चाई को स्वीकार करें कि सोशल मीडिया आम जनता तक खासकर आज के युवा वर्ग तक पहुँचने की सीढ़ी है .
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि पिछले कुछ साल सोशल मीडिया फेसबुक हो या ट्विटर या व्हाट्स ऍप या इंस्टाग्राम से सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं .
इसलिए बीच बीच में जब बुद्धिजीवी अपने सोशल मीडिया का अकाउंट 'डीएक्टिवेट ' करते हैं या लिखना बंद कर देते हैं या दूर रहने कि घोषणा करते हैं तो सोशल मीडिया को 'अनाथ ' करने जैसी बात होती है. और ज़्यादा दिशाहीन होने का खतरा बढ़ता है .
ये तथ्य है किसी साहित्यकार ,लेखक ,कवि के पास सोशल मीडिया में भले ही अपेक्षाकृत काम फॉलोवर हों पर सोशल मीडिया के बड़े फॉलोवर रखनेवाले भी उनसे दिशा लेते हैं .
अपने अनुभव, अध्ययन और आज की पूरी तस्वीर को देखकर दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमारे प्रगतिशील लेखक अगर सोशल मीडिया में न रहें, न लिखें तो यक़ीनन सोशल मीडिया के नौजवान अराजक लश्कर में दिखेंगे !
- आर.के.विज
हाल ही में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बुद्धदेव कर्मस्कार बनाम् पश्चिम बंगाल राज्य’ में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कुछ अंतरिम निर्देश जारी करते हुए कहा कि यौनकर्मियों और उनके बच्चों को गरिमा और मानवीय शालीनता के साथ जीने के लिए उनके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि पेशे के बावजूद इस देश में हर व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है। न्यायालय द्वारा जारी निर्देश और कुछ नहीं बल्कि पैनल द्वारा की गई सिफारिशें हैं, जो जुलाई 2011 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक वरिष्ठ अधिवक्ता प्रदीप घोष की अध्यक्षता में गठित किया गया था। ये सिफारिशें सेक्स वर्कर्स के लिए अनुकूल परिस्थितियों के संबंध में है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के प्रावधानों के अनुसार सेक्स वर्कर्स गरिमा के साथ सेक्स वर्कर्स के रूप में रहना चाहती हैं।
मान्य निर्देशों को लागू करना
चूंकि भारत सरकार को (कुल दस में से) चार सिफारिशों पर कुछ आपत्तियां थीं, अदालत ने बाकी छह सिफारिशों को लागू करने और अनैतिक तस्करी (रोकथाम) अधिनियम (आईटीपीए) 1956 के प्रावधानों को सख्ती से लागू करने का निर्देश दिये हैं। इन निर्देशों में यौन उत्पीडऩ की शिकार यौनकर्मियों को तत्काल चिकित्सा सहायता प्रदान करना, आईटीपीए सुरक्षात्मक घरों में हिरासत में लिए गए वयस्क यौनकर्मियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध रिहा करना, यौनकर्मियों के सम्मान के साथ जीने के अधिकारों के बारे में पुलिस और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों को संवेदनशील बनाना, गिरफ्तारी, छापे और बचाव कार्यों के दौरान यौनकर्मियों की पहचान का खुलासा न करने मीडिया को दिशा-निर्देश जारी करना (भारतीय प्रेस परिषद द्वारा) और स्वास्थ्य उपायों (जैसे कंडोम) को सबूत के रूप में नहीं मानने और केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा अपने कानूनी सेवा प्राधिकरणों के माध्यम से यौनकर्मियों को उनके अधिकारों एवं यौन कार्य आदि की वैधता के बारे में शिक्षित करना सम्मिलित है।
यौनकर्मियों (यौन उत्पीडऩ की शिकार) को चिकित्सा सहायता प्रदान करने पर सीआरपीसी में पहले से ही एक प्रावधान उपलब्ध है। परंतु, कानून वेश्याओं की पहचान का खुलासा नहीं करने के बारे में मौन है। इसी तरह, हालांकि एक मजिस्ट्रेट द्वारा यौनकर्मी को उसकी देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता के बारे में उचित जांच के बाद उसे एक सुरक्षात्मक घर में भेजने का आदेश पारित किया जाता है, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को सही ढंग से लागू करने के लिए आईटीपीए और सीआरपीसी में वांछनीय संशोधन किया जा सकता है। अन्य निर्देश सरकारों द्वारा कार्यकारी आदेशों के माध्यम से लागू किए जा सकते हैं।
व्यापक प्रभाव वाली सिफारिशें
उन सिफारिशों में से एक जिस पर केंद्र सरकार ने अपने मत के लिये आरक्षित किया है, पुलिस को एक यौनकर्मी के खिलाफ कोई आपराधिक कार्रवाई करने से रोकने के बारे में है जो एक वयस्क है और ‘उम्र’ और ‘सहमति’ के आधार पर यौन कार्य में भाग ले रही है। यद्यपि ‘सेक्स वर्कर’ आईटीपीए या किसी अन्य कानून में परिभाषित नहीं है, आईटीपीए (जनवरी 1987 में संशोधित) के अनुसार, ‘वेश्यावृत्ति’ का अर्थ व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए व्यक्तियों का यौन शोषण या दुव्र्यवहार है। इसलिए, अभिव्यक्ति ‘वेश्यावृत्ति’ केवल भाड़े पर यौन संभोग के लिए एक व्यक्ति को शरीर की पेशकश करने तक ही सीमित नहीं है (पूर्व-1987 परिभाषा के अनुसार)। अपने फायदे या संभोग के लिए फंसी महिलाओं का अन्यायपूर्ण और गैरकानूनी फायदा उठाना इसके दायरे में लाया गया है। ‘दुव्र्यवहार’ शब्द का भी बहुत व्यापक अर्थ है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वेच्छा से देह व्यापार करने वाली एक वयस्क यौनकर्मी अपराधी नहीं है जब तक कि उसके द्वारा शोषण या दुव्र्यवहार की सूचना नहीं दी जाती है या जांच के दौरान खुलासा नहीं होता। इसलिए अब यह उपयुक्त होगा कि ‘यौन शोषण’ और ‘व्यक्तियों के दुरुपयोग’ को परिभाषित करने के साथ-साथ एक संशोधन किया जाये, ताकि प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा कई व्याख्याओं और संभावित दुरुपयोग को समाप्त किया जा सके, खासकर अगर सहमति के साथ शरीर की पेषकष को आपराधिक ढांचे से बाहर रखा जाता है।
एक अन्य (आरक्षित) सिफारिश कहती है कि चूंकि स्वैच्छिक यौन कार्य अवैध नहीं है और केवल वेश्यालय चलाना गैरकानूनी है, इसलिए वेश्यालय पर किसी भी छापे के दौरान यौनकर्मियों को गिरफ्तार या पीडि़त नहीं किया जाना चाहिए। आईटीपीए के अनुसार, ‘वेश्यालय’ ऐसा स्थान है, जिसका उपयोग यौन शोषण या किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिए या दो या दो से अधिक वेश्याओं के पारस्परिक लाभ के लिए किया जाता है। क्या होगा यदि इच्छुक यौनकर्मियों को वेश्यालय के मालिक या प्रबंधक के खिलाफ कोई शिकायत नहीं है? इसलिए, सरकार को एक नीति के रूप में यह तय करने की आवश्यकता होगी कि क्या दो या दो से अधिक यौनकर्मियों के पारस्परिक लाभ के लिए एक साथ रहने और स्वयं या किसी और के द्वारा प्रबंधित किए जाने के कार्य को अपराधिक बनाया जाना है या नहीं। इसके लिए व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता हो सकती है।
तीसरी सिफारिश में कहा गया है कि सेक्स वर्कर के किसी भी बच्चे को केवल इस आधार पर मां से अलग नहीं किया जाना चाहिए कि वह देह व्यापार में है। अगर कोई नाबालिग वेश्यालय में या सेक्स वर्कर के साथ रह रही है, तो यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसकी तस्करी की गई है। हालांकि कानून बच्चे को मां (सेक्स वर्कर) से अलग करने का आदेश नहीं देता है, लेकिन यह माना जाता है कि अगर कोई बच्चा वेश्यालय में किसी व्यक्ति के साथ पाया जाता है तो तस्करी की गई है। इसके अलावा, अगर किसी बच्चे या नाबालिग को वेश्यालय से छुड़ाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट उसे किशोर न्याय अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त किसी भी बाल देखभाल संस्थान में रखने का आदेश दे सकता है। इससे पहले, ‘गौरव जैन बनाम भारत संघ’ (1997) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया गया कि वेश्याओं के बच्चों को वेश्यालय के अवांछनीय परिवेश में रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और सुधार गृहों को उनके लिए सुलभ बनाया जाना चाहिए। इसलिए, बच्चे के कल्याण को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय के निर्देश को समायोजित करने के लिए एक उपयुक्त संशोधन किया जा सकता है।
चौथी सिफारिश में सरकार को सेक्स वर्क से संबंधित कानूनों में सुधारों या निर्णय लेने की प्रक्रिया में सेक्स वर्कर्स या उनके प्रतिनिधियों को शामिल करने के लिये निर्देष दिये हैं। चूंकि इस पूरे अभ्यास का उद्देश्य यौनकर्मियों का पुनर्वास करना और उनके रहने की स्थिति में सुधार करना है, निर्णय लेने में उनकी भागीदारी निश्चित रूप से उन्हें बेहतर तालमेल के साथ लागू करने योग्य बनाएगी।
कहीं भी यौन शोषण या दुव्र्यवहार की अनुमति क्यों दें?
उल्लेखनीय है कि अधिसूचित क्षेत्रों के बाहर या सार्वजनिक धार्मिक पूजा, शैक्षणिक संस्थान, अस्पताल आदि के किसी भी स्थान से दो सौ मीटर की दूरी के बाहर वेश्यावृत्ति करना आईटीपीए के तहत दंडनीय नहीं है। विडंबना यह है कि जब वेश्यावृत्ति का आवश्यक घटक व्यावसायिक उद्देश्य के लिए ‘यौन शोषण’ या ‘व्यक्तियों का शोषण’ है, इसे कहीं भी कैसे अनुमति दी जा सकती है? इसलिए, अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के साथ, सरकार के लिए जनहित को ध्यान में रखते हुए वेश्यावृत्ति और यौनकर्मियों के काम के बीच अंतर करना और वेश्यावृत्ति पर प्रतिबंध लगाने और कुछ शर्तों के साथ स्वैच्छिक यौन कार्य की अनुमति देना उचित होगा।
यह विवादित नहीं है कि देह व्यापार में पाई जाने वाली महिलाओं को अपराधियों के बजाय प्रतिकूल सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की शिकार के रूप में अधिक देखा जाना चाहिए। हालाँकि, सभी कानूनों और नीतियों के साथ, हम एक समाज के रूप में वेश्यावृत्ति को रोकने में भी विफल रहे हैं। इसलिए, सरकार अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उपयोग यौनकर्मियों और आसपास के वातावरण की स्थिति में सुधार, पुनर्वास की सुविधा और लागू कानूनों के साथ विभिन्न अस्पष्टताओं और विसंगतियों को दूर करने और स्पष्टता लाने के लिये अवसर के रूप में कर सकती है।
(नोट- लेखक छत्तीसगढ़ के पूर्व विषेष पुलिस महानिदेशक हैं और व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
-टेसा वोंग
ताइवान से जुड़ी खास बातें
चीन मानता है कि ताइवान उसका एक प्रांत है, जो अंतत: एक दिन फिर से चीन का हिस्सा बन जाएगा
ताइवान खुद को एक आजाद मुल्क मानता है। उसका अपना संविधान है और वहां लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार का शासन है
ताइवान दक्षिण पूर्वी चीन के तट से करीब 100 मील दूर स्थित एक द्वीप है
चीन और ताइवान के बीच अलगाव करीब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुआ
उस समय चीन की मुख्य भूमि में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का वहाँ की सत्ताधारी नेशनलिस्ट पार्टी (कुओमिंतांग) के साथ लड़ाई चल रही थी।
1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी जीत गई और राजधानी बीजिंग पर कब्जा कर लिया।
उसके बाद, कुओमिंतांग के लोग मुख्य भूमि से भागकर दक्षिणी-पश्चिमी द्वीप ताइवान चले गए।
फिलहाल दुनिया के केवल 13 देश ताइवान को एक अलग और संप्रभु देश मानते हैं।
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ताइवान के सवाल पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की चेतावनी का चीन ने कड़ा जवाब दिया है। चीन ने कहा है कि वह ताइवान की आजादी की किसी भी कोशिश को पूरी ताकत से कुचल देगा।
रविवार को चीन के रक्षा मंत्री जनरल वी फेंग ने अमेरिका पर आरोप लगाया कि वह ताइवान की आजादी का समर्थन कर रहा है।
उन्होंने कहा कि अमेरिका ताइवान पर किए गए अपने वादे को तोड़ रहा है और चीन के मामलों में दखल दे रहा है।
एशियाई सुरक्षा से जुड़े सांगरी-ला डायलॉग में चीनी रक्षा मंत्री ने कहा, ‘एक बात साफ कर दूं। किसी ने भी ताइवान को चीन से अलग करने की कोशिश की तो हम उससे जंग लडऩे से हिचकेंगे नहीं। हम किसी भी क़ीमत पर लड़ेंगे और आखऱि तक लड़ेंगे। चीन के मामले में यह हमारा एक मात्र विकल्प है।’
चीनी रक्षा मंत्री ने ये टिप्पणी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की ओर से चीन को दिए उस संदेश के बाद आई है, जिसमें उन्होंने कहा था वह ताइवान के नजदीक लड़ाकू जहाजों को उड़ाकर ‘खतरों से खेल रहा है’। अमेरिका ने कहा है कि अगर ताइवान पर हमला हुआ तो वह उसकी रक्षा के लिए अपनी सेना भेजेगा।
ताइवान खुद को संप्रभु देश मानता है जबकि चीन इसे अपना हिस्सा मानता है। लेकिन ताइवान अमेरिका को अपना सबसे बड़ा सहयोगी मानता है। अमेरिका में ये कानून है कि अगर ताइवान आत्मरक्षा के लिए खड़ा हुआ तो उसे उसकी मदद करनी होगी।
ताइवान के सवाल पर चीन और अमेरिका के बीच तनातनी लगातार बढ़ रही है। चीन ताइवान के डिफेंस जोन में लगातार लड़ाकू विमान भेजता रहा है। पिछले महीने इसने वहाँ अपना सबसे बड़ा हेलिकॉप्टर उड़ाया था, जबकि अमेरिका ने ताइवान के समुद्री इलाकों से होकर अपने कई जलपोत भेजे हैं।
क्या अमेरिका और चीन सैन्य संघर्ष की ओर बढ़ रहे हैं?
एक बड़ा डर इस बात का है कि अगर चीन ताइवान पर हमला करता है तो युद्ध छिड़ सकता है। चीन पहले ही कह चुका है जरूरत पड़ी तो वह अपने द्वीप पर दोबारा दावा कायम करेगा। चाहे इसके लिए ताकत का ही इस्तेमाल क्यों न करना पड़े।
लेकिन ज़्यादातर विश्लेषकों का मानना है कि फिलहाल युद्ध की आशंका नहीं दिखती।
इस बात पर बहस गर्म है कि क्या चीन के पास इतनी सैन्य ताकत है कि वह सफलतापूर्वक हमला कर सके। उधर, ताइवान लगातार अपनी वायु और नौसेना की ताकत बढ़ा रहा है। लेकिन कई विश्लेषक मानते हैं कि टकराव अगर जंग की ओर से बढ़ता है तो ये न सिर्फ चीन बल्कि पूरी दुनिया के लिए घातक और महंगा साबित होगा।
इंस्टिट्यूट ऑफ साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज के सीनियर फेलो विलियम चुंग कहते हैं हैं, ‘चीन की ओर से काफी बयान आ रहे हैं। लेकिन ताइवान पर हमले के बारे में सोचते हुए चीन को खतरों का ध्यान रखना होगा। ख़ास कर ऐसे वक्त में जब यूक्रेन संकट जारी है। रूस की तुलना में चीन की अर्थव्यवस्था के ग्लोबल लिंकेज कहीं ज़्यादा हैं।’
चीन ये लगातार कहता रहा है कि वह शांतिपूर्ण तरीके से ताइवान के साथ एकीकरण करना चाहता है। पिछले रविवार को चीन के रक्षा मंत्री ने यही बात दोहराई। चीन शांति चाहता है लेकिन उसे भडक़ाया गया तो वो कार्रवाई करेगा।
चीन को एक चीज़ भडक़ा सकती है और वो ये ताइवान औपचारिक तौर पर खुद को आजाद घोषित कर दे। लेकिन ताइवान की राष्ट्रपति बड़ी कड़ाई से इससे बचती रही हैं। हालांकि वह इस बात पर जोर देती हैं कि ताइवान पहले से ही एक संप्रभु राष्ट्र है।
ज़्यादातर ताइवानी इस रुख का समर्थन करते हैं, जिसे ‘यथास्थिति बरकरार’ रखना कहा जा रहा है। हालांकि उन लोगों की भी थोड़ी तादाद है कहते हैं के अब आजादी की ओर बढ़ा जाए।
जंग के सवाल पर अमेरिका का रुख
अमेरिका एशिया में महंगा सैन्य संघर्ष छेडऩे से हिचकेगा। उसने बार-बार ये संकेत दिया है कि वह युद्ध नहीं चाहता है।
अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन भी सांगरी-ला डायलॉग में मौजूद थे। उन्होंने अपनी स्पीच में कहा कि अमेरिका ताइवान की स्वतंत्रता का समर्थन नहीं करता और न ही वो कोई ‘नया शीत युद्ध’ चाहता है।
एस राजारत्नम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में रिसर्च फेलो कोलिन को का कहना है, ‘ताइवान के सवाल पर दोनों अपने रुख़ पर कायम हैं। दोनों को सख़्त दिखना है। वे अपने रुख़ से पीछे हटते हुए नहीं दिखना चाहते।’
‘लेकिन इसके साथ ही वो इस मामले में सीधे संघर्ष में उतरने के प्रति भी काफी सतर्क हैं। हालांकि अमेरिका और चीन दोनों एक दूसरे को आंखें दिख रहे हैं और जोखिम बढ़ा रहे हैं।’
‘हकीकत ये है कि चीनी रक्षा मंत्री और अमेरिका के रक्षा मंत्री सांगरी-ला डायलॉग से अलग अपनी मुलाक़ातों में काफी सकारात्मक थे। इसका मतलब ये कि दोनों पक्ष ये दिखाना चाहते थे कि वे अभी भी बैठकर बात कर सकते हैं। सहमति-असहमति दूसरी बात है।’
कोलिन ने कहा कि दोनों सेनाओं की ओर से और भी ऑपरेशनल बातचीत हो सकती है। इससे जमीन पर होने वाली किसी ऐसी ग़लती से बचने की बात होगी जिससे युद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है। कहने का मतलब ये है कि बातचीत होती रहेगी। डोनाल्ड ट्रंप के जमाने में ये बात नदारद थी।
आगे क्या होगा?
बहरहाल, चीन और अमेरिका के बीच आगे भी जुबानी जंग जारी रहने के आसार हैं।
सिंगापुर नेशनल यूनिवर्सिटी के चीन मामलों के विशेषज्ञ डॉ इयान चोंग का कहना है, ‘चीन अपने च्ग्रे जोन वॉरफेयरज् को आगे बढ़ा सकता है। इस रणनीति के तहत ताइवानी सेना के धैर्य की परीक्षा ली जाएगी और उसे थकाने की कोशिश होगी। बार-बार लड़ाकू जहाज भेज कर और दुष्प्रचार अभियान को बढ़ावा देकर वो इस काम को अंजाम दे सकता है।’
ताइवान के चुनाव में चीन पर दुष्प्रचार अभियान चलाने के आरोप लगते रहे हैं। ताइवान में इस साल के अंत में अहम स्थानीय चुनाव होने हैं।
डॉ. चोंग ने कहा, ‘फिलहाल अमेरिका और चीन में अपने रुख़ पर तब्दीली की राजनीतिक इच्छा नहीं दिखती। ख़ास कर ऐसे वक्त में जब अमेरिका में नवंबर में मध्यावधि चुनाव होने हैं। वहीं दूसरी छमाही में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का 20वां सम्मेलन होने जा रहा है। इसमें चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी पकड़ और मजबूत करेंगे।
डॉ. चोंग कहते हैं, ‘अच्छी बात ये है कि कोई भी पक्ष तनाव बढ़ाना नहीं चाहता। हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि आगे कोई अच्छी तस्वीर सामने आएगी। फिलहाल मौजूदा स्थिति तो तनातनी की ही है।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस आजकल राजनीतिक पार्टी की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनती जा रही है, इसका ताजा प्रमाण फिर सामने आ रहा है। ‘नेशनल हेराल्ड’ के मामले में सोनिया गांधी और राहुल को प्रवर्तन निदेशालय के सामने जांच के लिए पेश होना पड़ रहा है। हो सकता है कि जांच में दोनों बिल्कुल खरे उतरें। वैसे देश में मुझे तो एक भी नेता ऐसा दिखाई नहीं पड़ता जो कि दूध का धुला हो। कोई न कोई धांधली, ठगी, रिश्वत या दादागीरी का दांव मारे बिना कोई भी नेता अपनी दुकान कैसे चला सकता है?
फिर भी हम मानकर चल सकते हैं कि राहुल और सोनिया बिल्कुल बेदाग निकलेंगे तो भी असली सवाल यह है कि किसी जांच एजेंसी के सामने पेश होने में उन्हें एतराज क्यों होना चाहिए? यदि कानून सबके लिए एक-जैसा है तो वह उन पर भी लागू क्यों न हो? वे अपने आप को कानून से ऊपर समझते हैं, क्या? यदि वे निर्दोष हैं तो कोई जांच एजेंसी सत्तारुढ़ नेताओं की कितनी ही गुलाम हो, उन्हें किसी से डरने की क्या जरुरत है? भारत की न्यायपालिका आज भी निर्भीक और स्वतंत्र है। वह उनके सम्मान की रक्षा अवश्य करेगी लेकिन इस जांच को लेकर पूरी कांग्रेस जिस तरह से सडक़ पर उतर आई है, वह अपना मजाक बनवा रही है।
इससे कई बातें सिद्ध हो रही हैं। पहली तो यह कि कांग्रेस अपने सिर्फ दो नेताओं, माँ और बेटे को बचाने के लिए जिस तरह जन-आंदोलन पर उतर आई है, उससे लगता है कि उसके पास जनहित का कोई और मुद्दा है ही नहीं। अपने नेताओं को बचाना ही उसके लिए सबसे बड़ा जनहित है। दूसरा, उसने जन-आंदोलन की राह अपनाकर भाजपा सरकार के प्रति जनता को जो शिकायत हो सकती थी, उस पर ढक्कन लगा दिया है। जऱा याद करें कि चरणसिंह सरकार ने जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया था तो उस सरकार की इज्जत कैसे पैंदे में बैठ गई थी।
यही अब भी होता लेकिन मां-बेटे ने यह प्रदर्शन करवाकर भाजपा सरकार के हाथ मजबूत कर दिए हैं। तीसरा, लोगों को आश्चर्य है कि कांग्रेस की हालत मायावती की बसपा की तरह क्यों होती जा रही है? उसके पास न तो योग्य नेता हैं और न ही प्रभावशाली नीति है। इसी का नतीजा है कि राष्ट्रपति के चुनाव में उम्मीदवार के लिए किसी कांग्रेसी नेता का नाम सामने नहीं आ रहा है। सारे विपक्षी दलों को इस मुद्दे पर एक करने में भी कांग्रेस को सफलता नहीं मिल रही है।
यद्यपि कांग्रेस के कुछ मुख्यमंत्री काफी सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें भी जब मां-बेटे की सेवा में जोत दिया जा रहा हो तो आम लोग सोच में पड़ जाते हैं कि ये अनुभवी नेता लोग भी नेता हैं या किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के कर्मचारी हैं? देश के करोड़ों कांग्रेसी कार्यकर्त्ता हतप्रभ हैं। उन्हें आश्चर्य होता है कि उनके नेता राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई आंदोलन क्यों नहीं करते? क्या आंदोलन के लिए उनके नेताओं को बस यही मुद्दा मिला है? (नया इंडिया की अनुमति से)
-समरेन्द्र शर्मा
छत्तीसगढ़ में पिछले साढ़े तीन सालों में वायु सेवाओं को नए पंख लगे हैं। रायपुर के अलावा बिलासपुर और जगदलपुर से भी नियमित विमान सेवाओं का संचालन शुरू हो यहा है। एयरपोर्टों के विकास और अधोसंरचना विकास के कार्यों को भी गति मिली है। छत्तीसगढ़ के उत्तरी और दक्षिण इलाके में हवाई सेवाओं के विस्तार से विकास का नया मार्ग प्रशस्त भी हुआ है। छत्तीसगढ़ में वायु सेवाओं के विस्तार से निश्चित तौर पर राज्य के विकास की रफ्तार में भी तेजी आएगी। पृथक राज्य बनने के बाद प्रदेश के बड़े शहरों बिलासपुर, जगदलपुर से वायु सेवा शुरू करने की मांग उठती रही है, लेकिन इसके लिए लंबा इंतजार करना पड़ा।
वायु सेवाओं की शुरूआत के साथ सुविधाओं के विस्तार पर भी जोर दिया जा रहा है। बिलासपुर और जगदलपुर एयरपोर्ट में नाइट लैडिंग सुविधा के लिए पीबीएन प्रणाली स्थापित की जा रही है। इसके साथ साथ कोरबा में व्यावसायिक एयरपोर्ट के साथ कोरिया में नई हवाई पट्टी के विकास की योजना पर काम हो रहा है। अम्बिकापुर में 43 करोड़ रूपए की लागत से एयरपोर्ट रनवे भी बनाया जा रहा है। जगदलपुर, बिलासपुर और अम्बिकापुर एयरपोर्ट में ऑटोमेटेड एटीसी उपकरण स्थापित किए गए हैं।
मॉ दन्तेश्वरी एयरपोर्ट-राज्य शासन के प्रयासों से डायरेक्टर जनरल ऑफ सिविल एविएशन (डीजीसीए) द्वारा 2 सी व्हीएफआर श्रेणी के जगदलपुर एयरपोर्ट से 72 सीटर विमान द्वारा हवाई सेवा की स्वीकृति दी गयी एवं 21 सितम्बर 2020 से बस्तर अंचल के विकास का एक नया अध्याय शुरू हुआ, जब जगदलपुर से रायपुर- हैदराबाद-बैंगलोर सेक्टर में नियमित घरेलू विमान सेवा का संचालन प्रारंभ हुआ। जगदलपुर एयरपोर्ट से प्रतिमाह लगभग तीन हजार यात्रियों द्वारा विमान सेवा का लाभ लिया जा रहा है। इंण्डिगो विमानन कम्पनी द्वारा सप्ताह में बुधवार, शनिवार एवं रविवार को दिल्ली-रायपुर-जगदलपुर-रायपुर-दिल्ली सेक्टर के लिये पैरामिलीटरी फोर्स हेतु विमानन सेवा शुरू की गयी है। उम्मीद है कि शीघ्र ही इस वायुमार्ग पर सामान्य सिविल उड़ान सेवा भी प्रारम्भ हो जायेगी।
बिलासा देवी केंवट एयरपोर्ट-राज्य शासन द्वारा 41.00 करोड रुपए की लागत से बिलासपुर एयरपोर्ट का विकास, 3 सी व्हीएफआर श्रेणी में किया गया है, साथ ही डीजीसीए से लायसेंस प्राप्त किया गया है। यहां 01 मार्च 2021 से छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर हवाई सेवा से जुड़ गई। इस दिन 72 सीटर विमान द्वारा यहॉ से दिल्ली-जबलपुर-बिलासपुर-प्रयागराज वायु मार्ग में नियमित घरेलू विमान सेवा का संचालन प्रारंभ हुआ। इस एयरपोर्ट से प्रतिमाह लगभग तीन हजार यात्रियों द्वारा विमान सेवा का लाभ लिया जा रहा है। यहां से 5 जून 2022 से बिलासपुर-भोपाल के लिये नियमित घरेलू विमान सेवा भी प्रारम्भ हो चुकी है। इस एयरपोर्ट का विकास 4 सी व्हीएफआर श्रेणी में करने की योजना पर काम किया जा रहा है।
माँ महामाया एयरपोर्ट-प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र को विमान सेवाओं से जोडऩे के लिए संभागीय मुख्यालय अम्बिकापुर के दरिमा एयरपोर्ट का विकास 3 सी व्हीएफआर श्रेणी में किया जा रहा है। इसके पूरा होने पर यहां 72 सीटर विमान से हवाई सेवा संचालन हो सकेगा। इसके साथ ही यहां रवने विस्तार व विकास कार्य के लिए 43 करोड़ रुपए की प्रशासकीय स्वीकृति की गई है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पैगबंर-विवाद को लेकर भारत में अभी प्रदर्शन, जुलूस और पत्थरबाजी का दौर चल रहा है और दोषियों को दंडित करने के नाम पर उनकी अवैध संपत्तियों को भी ढहाया जा रहा है लेकिन क्या हमारे लोग कुछ मुस्लिम देशों के आचरण से कुछ सीखने की कोशिश करेंगे? हमारे पड़ौसी बांग्लादेश ने अन्य कुछ मुस्लिम देशों की तरह भारत की आलोचना में एक शब्द भी नहीं कहा। उसके सूचना मंत्री डॉ. हसन महमूद ने ढाका में भारतीय पत्रकारों से कहा कि पैगंबर-विवाद भारत का आंतरिक मामला है। उसमें बांग्लादेश को टांग अड़ाने की जरुरत क्या है? जहां तक पैगंबर की प्रतिष्ठा का सवाल है, उस पर उंगली उठानेवाली हर कथन की हम निंदा करते हैं लेकिन हम खुश हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने दो प्रवक्ताओं के विरुद्ध सख्त कार्रवाई कर दी है।
उन्होंने यह भी कहा कि इसके लिए भारत सरकार बधाई की पात्र है। महमूद ने कहा कि बांग्लादेश के लोगों को इस मुद्दे पर भडक़ाना हमारा काम नहीं है (जैसा कि कुछ अन्य मुस्लिम देश कर रहे हैं)! उन्होंने यह एलान भी किया कि बांग्लादेश में इस मुद्दे को लेकर जो भी शांति और व्यवस्था भंग करेंगे, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। शेख हसीना की अवामी लीग सरकार के कई विरोधी नेता बांग्ला जनता को भडक़ाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं।
इस मुद्दे के बहाने वे हसीना सरकार पर अपनी भड़ास निकालना चाहते हैं लेकिन सरकार उनके साथ बड़ी सख्ती से पेश आ रही है। यही काम अब कुवैत की सरकार ने भी शुरु कर दिया है। पैगंबर मसले पर कुवैत में रहने वाले भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मुसलमान ज्यादा चूं चपड़ कर रहे हैं। ऐसे में कुवैत की सरकार ने घोषणा कर दी है कि जो भी प्रवासी नागरिक इस तरह की गतिविधियों में लिप्त पाया गया, उसे हमेशा के लिए देश-निकाला दे दिया जाएगा।
मुझे विश्वास है कि लगभग सभी इस्लामी राष्ट्र इस दृढ़ता का परिचय देंगे। हां, पाकिस्तान इसका अपवाद हो सकता है, क्योंकि वहां के सत्तारुढ़ और विपक्षी दल इस मुद्दे को लेकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में जुट सकते हैं। उन्होंने संसद में भारत-विरोधी प्रस्ताव भी पारित करवा लिया है। लेकिन बांग्लादेश ने तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हर दबाव के आगे सीना तान रखा है। इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) ने लाख कोशिश की कि यह मामला संयुक्तराष्ट्र महासभा में घसीटा जाए लेकिन आजकल उसके अध्यक्ष मालदीव के अब्दुल्ला शाहिद हैं।
शाहिद ने इस्लामी संगठन की इस मांग को गौर करने काबिल भी नहीं समझा। संयुक्तराष्ट्र के महासचिव ने अपने आधिकारिक बयान में इस मामले में वही दृष्टिकोण अपनाया है, जो बांग्लादेश ने प्रतिपादित किया है। बांग्लादेश ने इस मुद्दे पर अत्यंत संतुलित रूख अपनाकर सारे इस्लामी देशों के लिए एक मिसाल पेश की है। ईरानी विदेश मंत्री की तरह अब बांग्लादेश के विदेश मंत्री अब्दुल मोमिन भी भारत आ रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्तराष्ट्र संघ में अभी भी दुनिया की सिर्फ छह भाषाएं आधिकारिक रूप से मान्य हैं। अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, रूसी, हिस्पानी और अरबी! इन सभी छह भाषाओं में से एक भी भाषा ऐसी नहीं है, जो बोलने वालों की संख्या, लिपि, व्याकरण, उच्चारण और शब्द-संख्या की दृष्टि से हिंदी का मुकाबला कर सकती हो। इस विषय की विस्तृत व्याख्या मेरी पुस्तक ‘हिंदी कैसे बने विश्वभाषा?’ में मैंने की है। यहां तो मैं इतना ही बताना चाहता हूं कि हिंदी के साथ भारत में ही नहीं, विश्व मंचों पर भी घनघोर अन्याय हो रहा है लेकिन हल्की-सी खुशखबर अभी-अभी आई है।
संयुक्तराष्ट्र संघ की महासभा ने अपने सभी ‘जरुरी कामकाज’ में अब उक्त छह आधिकारिक भाषाओं के साथ हिंदी, उर्दू और बांग्ला के प्रयोग को भी स्वीकार कर लिया है। ये तीन भाषाएं भारतीय भाषाएं हैं, हालांकि पाकिस्तान और बांग्लादेश को विशेष प्रसन्नता होनी चाहिए, क्योंकि बांग्ला और उर्दू उनकी राष्ट्रभाषाएं हैं। यह खबर अच्छी है लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला है कि संयुक्तराष्ट्र के किन-किन कामों को ‘जरुरी’ मानकर उनमें इन तीनों भाषाओं का प्रयोग होगा।
क्या उसके सभी मंचों पर होनेवा ले भाषणों, उसकी रपटों, सभी प्रस्तावों, सभी दस्तावेजों, सभी कार्रवाइयों आदि का अनुवाद इन तीनों भाषाओं में होगा? क्या इन तीनों भाषाओं में भाषण देने और दस्तावेज पेश करने की अनुमति होगी? ऐसा होना मुझे मुश्किल लग रहा है लेकिन धीरे-धीरे वह दिन आ ही जाएगा जबकि हिंदी संयुक्तराष्ट्र की सातवीं आधिकारिक भाषा बन जाएगी। हिंदी के साथ मुश्किल यह है कि वह अपने घर में ही नौकरानी बनी हुई है तो उसे न्यूयार्क में महारानी कौन बनाएगा?
हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और हिंदी देश में अधमरी (अर्धमृत) पड़ी हुई है। कानून-निर्माण, उच्च शोध, विज्ञान विषयक अध्यापन और शासन-प्रशासन में अभी तक उसे उसका उचित स्थान नहीं मिला है। जब 1975 में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर में हुआ था, तब भी मैंने यह मुद्दा उठाया था और 2003 में सूरिनाम के विश्व हिंदी सम्मेलन में मैंने हिंदी को सं.रा. की आधिकारिक भाषा बनाने का प्रस्ताव पारित करवाया था।
1999 में भारतीय प्रतिनिधि के नाते संयुक्तराष्ट्र में मैंने अपने भाषण हिंदी में देने की कोशिश की लेकिन मुझे अनुमति नहीं मिली। केवल अटलजी और नरेंद्र मोदी को अनुमति मिली, क्योंकि हमारी सरकार को उसके लिए कई पापड़ बेलने पड़े थे। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भरसक कोशिश की कि हिंदी को संयुक्तराष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिले लेकिन कोई मुझे यह बताए कि हमारे कितने भारतीय नेता और अफसर वहां जाकर हिंदी में अपना काम-काज करते हैं?
जब देश में सरकार का सारा महत्वपूर्ण काम-काज (वोट मांगने के अलावा) अंग्रेजी में होता है तो संसार में वह अपना काम-काज हिंदी में कैसे करेगी? अंग्रेजी की इस गुलामी के कारण भारत दुनिया की अन्य समृद्ध भाषाओं का भी लाभ लेने से खुद को वंचित रखता है। देखें, शायद संयुक्त राष्ट्र की यह पहल भारत को अपनी भाषायी गुलामी से मुक्त करवाने में कुछ मददगार साबित हो जाए! (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पैगंबर मोहम्मद के बारे में दिए गए बयानों के बारे में जो गलतफहमियां फैल गईं हैं, उन्हें अभी तक शांत हो जाना चाहिए था, क्योंकि भारत सरकार ने साफ कर दिया है कि उन बयानों से उसका कुछ लेना-देना नहीं है और भाजपा ने अपने बयानबाजों के खिलाफ सख्त कार्रवाई भी कर दी है। लेकिन देश के दर्जनों शहरों में जिस तरह के हिंसक प्रदर्शन हुए हैं, तोड़-फोड़ और मार-पीट की गई है, वह किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं है।
जिन मुसलमान भाइयों ने गुस्से में आकर ये सब कारनामे किए हैं, उनसे अगर आप पूछें कि किस बयान की किस बात पर आप नाराज़ हैं तो उन्हें उसका कुछ पता ही नहीं है। शुक्रवार की नमाज़ के बाद किसी ने उन्हें उकसा दिया और वे अपनी जान हथेली पर रखकर सडक़ों पर उतर आए, मानो इस्लाम खतरे में है। पैगंबर मोहम्मद की भूमिका अब से डेढ़ हजार साल पुरानी अरब दुनिया में इतनी क्रांतिकारी रही है कि उसे कोई किसी टीवी विवाद में क्या एक वाक्य के द्वारा मिटा सकता है?
टीवी चैनलों पर चल रही बहसों में आजकल ऐसे लोगों को बुलाया जाता है, जो तथ्यशील और तर्कशील होने की बजाय एक-दूसरे पर गोले बरसाने में माहिर होते हैं। ऐसी बहसें लोगों का बरबस ध्यान खींचती हैं। उससे चैनलों की टी.आर.पी. गरमाती है। ज्ञानवापी की उस बहस में भी यही हुआ। एक वक्ता ने शिवलिंगों की मजाक उड़ाई तो दूसरे वक्ता ने पैगंबर के बारे में वह कहकर अपना जवाब दे दिया, जो कुछ अरबी हदीसों में भी लिखा है। दोनों कथन टाले जा सकते थे लेकिन उन्हें कुछ लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया।
हालांकि उन टिप्पणियों से न तो शिवजी का बाल बांका होता है और न ही पैगंबर साहब की शान में कोई गुस्ताखी होती है लेकिन यह भी सत्य है कि जो इनके भक्त लोग हैं, उन्हें बहुत बुरा लगता है। इस बुरा लगने को भी टाला जाए तो जरुर टाला जाना चाहिए। जो लोग भी ऐसे आपत्तिजनक और दर्दनाक बयान देते हैं, उन्हें तथ्यों और तर्कों के आधार पर गलत सिद्ध किया जाना चाहिए, जैसा कि महर्षि दयानंद ने अपने युग प्रवर्तक ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में किया है।
उन्होंने अंतिम 4 अध्याय अन्य धर्मों की समीक्षा में लिखे हैं तो पिछले 10 अध्यायों में उन्होंने अपने पिताजी के पौराणिक हिंदू धर्म के परखचे उड़ा दिए हैं। यही काम यूरोप और अरब देशों के कुछ साहसी विद्वानों ने अपने-अपने धर्मों और उनके मूल धर्मग्रंथों के बारे में भी किया है। अभी डेढ़-दो सौ साल पहले तक भारत में सभी धर्मों के विद्वान खुले-आम ‘शास्त्रार्थ’ किया करते थे। उनमें मैंने मार-पीट, पत्थरबाजी या गाली-गलौज की बात कभी नहीं सुनी।
इसी का नतीजा है कि दुनिया में आज भारत अपने ढंग का अकेला देश है, जहां दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों का सह-अस्तित्व बना हुआ है। क्या ही अच्छा हो कि हिंदुओं और मुसलमानों के कुछ प्रमुख धर्मध्वजी मिलकर पहल करें और दोनों पक्षों से मर्यादा-पालन का आग्रह करें। (नया इंडिया की अनुमति से)
मनीष सिंह
पन्द्रह बीस साल पहले इसकी कोई अहमियत नहीं थी। इसके बाद अचानक से वह धूमकेतु की तरह उभरा। दुनिया उसकी सुनने लगी, पूछ परख बढ़ गई। क्या उसने एटम बम बनाये? या आर्थिक ताकत बन गया? नहीं, ऐसा कुछ नहीं।
कतर, आज दुनिया का मीडिया हाउस है। एक चैनल है, जिसकी दुनिया भर में पहुँच है, जो विश्वसनीय है। जो चाहे दुनिया मे आपकी थू-थू करवा सकता है, बस उसे कुछ सच्चाइयां दिखाने भर की देर है।
इस देश ने भारत सरकार से नूपुर/नवीन मामले में अनकंडीशनल, सार्वजनिक माफी मांगने को कहा है। और भारत की सरकार ना-ना करते हुए भी मजबूरन यही कर रही है।
1996 में अल जजीरा बना था, महज एक अरबी चैनल के रूप में बना। मिडिल ईस्ट के देशों में तब कोई स्वतंत्र चैनल नहीं था। स्टेट चैनल होते थे, जिनका काम देश के नेता का गुणगान करना, अच्छे दिनों का बखान करना और खबरों को दिखाने की बजाय दबाना होता था।
तो अल जजीरा मिडिल ईस्ट के रेगिस्तान में एक नई हवा बना। सन्तुलित, निष्पक्ष कंटेंट, जमीनी रिपोर्टिंग, वो सुनाता कम, दिखाता ज्यादा.. जो जहां जैसा है, देखिये। बोलने का मौका सभी पक्षों को मिलता।
अरबी चैनल होने के बावजूद अंग्रेजी को भरपूर तरजीह दी। दुनिया के बड़े और नामचीन पत्रकारों को जोड़ा। जर्नलिज्म के एथिक्स तय किये।
दुनिया मे बीबीसी की जो वक्त है, जो आदर्श हैं, जो शांत विचारण है, वही या उससे बेहतर बनना अल जजीरा के लिए तय किया गया लक्ष्य था।
उस दौर में जब अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, 9-11, अरब स्प्रिंग जैसी घटनाएं हो रही थी, अल जजीरा ने कमाल किया। हैरतअंगेज जमीनी रिपोर्ट, लाइव वार जोन, जान हथेली पर लेकर चलते पत्रकार।
तब से आजतक दर्जन से ऊपर पत्रकार मारे जा चुके। कुछ कैप्चर हुए, बहुतेरे घायल। लेकिन न अल जजीरा डरा, न उसके निडर पत्रकार।
उसने तस्वीर का दूसरा रुख भी सामने रखा। अरब, इजराइल, अलकायदा जैसे विलेन को भी अल जजीरा का माइक मिला। कोई पक्ष कुछ भी बोले, तय तो व्यूवर को करना था, की विश्वास किसका करे।
तो व्यूवर ने चाहे जिसके पक्ष का यकीन किया हो, भरोसा हमेशा अल जजीरा का बढ़ता गया।
आज अल जजीरा दुनिया के हर देश के ऑपरेट कर रहा है। उसके कवरेज, उसकी खबरें, उसके एंकर, उसके कंटेंट को बियॉन्ड डाऊट एक्सेप्ट किया जाता है। लेकिन मैं आपसे अल जजीरा की बात नहीं कर रहा।
मेरी बात तो कतर की है।
मिडिल ईस्ट के इस अनजान देश के शाह ने, इस चैनल को शुरू कराया। काम करने की पूरी स्वतंत्रता दी। अब 25 साल में अल जजीरा ने कतर को वह हैसियत दे दी, की वो मिडिल ईस्ट की एक प्रमुख राजनीतिक ताकत बन गया है।
दोहा, अब एशिया का नॉर्वे बन गया है।
वह तालिबान अमेरिका के बीच शांति वार्ता करवा रहा है। यमन के विद्रोही गुटों में शांति करवा रहा है। अरब इजराइल विवाद और गाजा पट्टी के मामलों में मध्यस्थता कर रहा है।
जिस देश की अदरवाइज कोई औकात ही नहीं, महज एक न्यूज नेटवर्क के दम पर वैश्विक ताकत बन चुका है।
मध्य-पूर्व की जियोपोलिटिक्स में, अब कोई फैसला कतर को नकार कर नही हो सकता। कोशिश की गई थी, चार साल पहले जब पड़ोसी अरब देशों ने कतर पर ब्लोकेड किया गया।
उन सबने देशों ने ब्लोकेड हटाने के लिए इस चैनल को बंद करने की शर्त रखी। कतर ने नही माना, विरोधियों को ही झुकना पड़ा, लेकिन कतर की बढ़ती हैसियत में अल जजीरा का महत्व दुनिया ने समझ लिया। इस बरस अल जजीरा अपनी 25 वी वर्षगाँठ, याने रजत जयंती मना रहा है।
25 साल पहले भारत में भी सेटेलाइट क्रांति हुई, चैनल आये, न्यूज स्वतंत्र हुई। अब सरकारी टेलीविजन पर हम निर्भर नहीं थे।
न्यूज निष्पक्ष, खोजपरक होने लगी। लगता था, दस बीस सालों में हिंदुस्तान भी, कोई बीबीसी, कोई अल जजीरा पैदा कर लेगा।
लेकिन ऐसा, हो नहीं सका। हमारे चैनल रद्दी का टोकरा और सरकारी माउथपीस बन गए। सरकारी विज्ञापन, नफरत की खेती, रद्दी बहसें, बेकार मुद्दे, खराब रिसर्च और एकपक्षीय कवरेज ने भारत के चैनलों को वैश्विक स्तर पर मजाक बना दिया है।
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हम अफ्रीकी तानाशाहियों के बीच बैठे है। विदेशी चैनल हंसते है, हमारी न्यूज फुटेज दिखाकर, जहां युद्ध के वीडियो गेम को अफगानिस्तान की फुटेज बता दी जाती है। जिन बहसों को हम गम्भीरता से लेकर भुजाएं फडक़ाते हैं, विदेशी उसे मीम की तरह मजे लेते हैं।
फेक न्यूज अब भारतीय चैनलों की यूएसपी है। ड्रग दो, ड्रग दो के तमाशे है। हिन्दू मुस्लिम शोर, बैठ जा मौलाना की धमकियां हैं।
पैसे किस एंकर ने कितने कमाए, कौन जाने। पर यह हम जानते हैं, कि भारत किसी अल जजीरा जैसे चैनल के बूते, कतर की तरह वैश्विक सीढियां चढऩे से महरूम रह गया।
भारतीय मीडिया ये कर सकता था। इन्वेस्टमेंट, टैलेन्ट, आजादी सब कुछ मिलने के बावजूद, उसने यह रास्ता अख्तियार नहीं किया। तो क्या यह अपने आप में देशद्रोह नहीं। चंद पैसों के निजी लाभ के लिए देश को पीछे धकेल देना, आखिर
और क्या कहलाता है?
इस देशद्रोही प्रसारण के दर्शक, टीआरपी दाता, अगर आप भी थे, तो आप क्यो देशद्रोही नहीं गिने जाएं, सोचकर बताइएगा।
और यह भी सोचिये, की ऐसे कितने क्षेत्र है, जिसमे अगुआ बनने का अवसर हमने इस जहालत के दौर में खोया है।
कितने टैलेंट जात-धर्म की लड़ाई में बर्बाद किए हंै। कितना विमर्श, समय, बहसें हमने उन चीजों पर खर्च किये, जिसका कोई हासिल नहीं।
पलटकर हमारी अगली पीढ़ीयां जब देखेंगी...
तब पाएंगी कि हमने भारत को वहां तक ले जाकर नही छोड़ा, जिसका हममें पोटेंशियल था। जिसका अवसर खुला था..
बल्कि हमने सब कुछ पीछे धकेल दिया। एक अंतहीन खड्डे में। तब क्या वे हमें एक देशद्रोही पीढ़ी के रूप में याद नही करेंगे।
विष्णु नागर
अगर मैं गलत हूँँ तो मुझे ठीक करें कि हिंदी साहित्य की परंपरा कुछ ऐसी रही है कि विभिन्न विधाओं में लिखने वाले लेखकों की भी कोई एक साहित्यिक पहचान ही स्वीकार की जाती है, चाहे वह निराला हों या जयशंकर प्रसाद, नागार्जुन हों या मुक्तिबोध जैसे बड़े लेखक। ये सब कवि के रूप में हिन्दी में सर्वमान्य हैं मगर इनका योगदान कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि में भी न्यूनाधिक रहा है। बल्कि इनमें से अधिकतर का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मुक्तिबोध को एक उदाहरण के रूप में लें तो उनकी कहानियाँ किसी भी बड़े (प्रेमचंद को छोड़ दें) कहानीकार से कम नहीं हैं। उनका आलोचना के क्षेत्र में योगदान किसी भी बड़े आलोचक से बड़ा है मगर उनकी चर्चा अक्सर कवि के रूप में शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है। शायद ही कोई आलोचक जब हिंदी कहानी की चर्चा करता है तो उसे जयशंकर प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि की कहानियाँ याद आती हैं, जबकि बाद के भी बहुत से कवियों का कहानियों की ओर रुझान रहा है बल्कि उनका योगदान मानना चाहें तो शायद है।
कवियों ने उपन्यास अपेक्षया कम लिखे हैं मगर फिर कुछ बड़े कवियों के नामों को याद करें तो अज्ञेय समेत कुछ का बड़ा योगदान रहा है। इधर विनोद कुमार शुक्ल जरूर अज्ञेय की तरह अपवाद रहे हैं,जिनके उपन्यासों की चर्चा हुई है मगर समस्या केवल किसी एक विधा तक सीमित नहीं है, दूसरी विधाओं के लेखकों का भी उनकी मुख्य समझी जाने वाली विधा से अलग जो योगदान रहा है, उसे विस्मृत सा किया गया है या जब उस लेखक- विशेष पर चर्चा हुई है तो उसके अन्य विधाओं में योगदान को भी संयोगवश याद किया गया है।
एक ऐसी दृष्टि आलोचना में विकसित क्यों नहीं हुई कि अगर किसी कथाकार का किसी अन्य विधा में महत्वपूर्ण योगदान है तो उस विधा पर चर्चा के समय उसे भुला न दिया जाए। कुछ मामले अपवाद रहे हैं, जैसे मोहन राकेश हैं। उन्हें कथाकार तथा नाटककार दोनों रूपों में समान रूप से मान्य किया गया है।लेकिन नाटक की क्षेत्र में उनके योगदान को उस दुनिया में स्वीकृति खूब मिली,इसीलिए शायद उनका यह रूप साहित्य में भी स्वीकृत हुआ।
मेरा कतई यह मत नहीं है कि एक विधा में लिखने वाले ने अगर दूसरी विधा में भी लिखा है तो वह उल्लेखनीय ही होगा मगर है तो उसकी चर्चा उस विधा की चर्चा के समय उपेक्षित क्यों होनी चाहिए? पाठकों तक समग्र दृष्टि क्यों न पहुंचे?