विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा ने अपने प्रवक्ता और मीडिया सेल के प्रमुख के विरुद्ध सख्त कार्रवाई तो की ही, अपने आधिकारिक बयान में उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह भारत में प्रचलित सभी धर्मों के प्रति सम्मान की भावना रखती है। उस बयान में यह भी बताया गया कि उसके प्रवक्ता और मीडिया प्रमुख ने पैगंबर मुहम्मद और इस्लाम के बारे में जो कुछ भी कहा है, उससे वह सहमत नहीं है।
भारत सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि भाजपा के इन कार्यकर्ताओं की टिप्पणी सनकीपने के अलावा कुछ नहीं है। भारत सरकार किसी धर्म, संप्रदाय या उसके महापुरुष के बारे में कोई भी निषेधात्मक विचार नहीं रखती है। भारत का संविधान सभी धर्मों को एक समान दृष्टि से देखता है। जरा खुद से आप पूछिए कि भाजपा और भारत सरकार को इतनी सफाइयां क्यों देनी पड़ गई हैं? इसका पहला कारण तो यह है कि इस्लामी देशों के सरकारें भाजपा के कार्यकर्ताओं की उन टिप्पणियों से बहुत नाराज हो गई हैं।
सउदी अरब, ईरान, पाकिस्तान, कुवैत, बहरीन, कतर, ओमान आदि देशों की सरकारों ने न सिर्फ उक्त टिप्पणियों के भर्त्सना की है बल्कि इन देशों में भारतीय माल का बहिष्कार भी शुरु हो गया है। कोई आश्चर्य नहीं कि इन देशों में रहने वाले भारतीयों का वहां जीना भी दूभर हो जाए। इस्लामी सहयोग संगठन ने संयुक्तराष्ट्र संघ से अपील की है कि वह भारत के विरूद्ध कार्रवाई करे। भारत में भी, खासतौर से कानपुर में भी इस मामले को लेकर भारी उत्पात मचा है।
भाजपा के जिन दो पदाधिकारियों ने ये टिप्पणियां की हैं, उनका कहना है कि टीवी वाद-विवाद में जब शिवलिंग के बारे में भद्दी बातें कही गईं तो उसके जवाब में उन्होंने भी जो ठीक लगा, वह पैगंबर मुहम्मद और इस्लाम के बारे में कह डाला। लेकिन वे क्षमा-याचनापूर्वक खेद व्यक्त करते हैं। वे किसी का दिल नहीं दुखाना चाहते। लेकिन मेरा असली सवाल यह है और यह सवाल हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य धर्मावलंबियों से भी है कि क्या वे सच्चे धार्मिक हैं? क्या वे सच्चे ईश्वरभक्त हैं? यदि हैं तो फिर किसी भी संप्रदाय की निंदा क्यों करना?
सभी कहते हैं कि उनका धर्म, मजहब या संप्रदाय ईश्वर का बनाया हुआ है। क्या ईश्वर, अल्लाह, यहोवा, गॉड, अहुरमज्द अलग-अलग हैं? यदि आप उनको अलग-अलग मानते हैं तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि ये सब प्रकार के ईश्वर और अल्लाह मनुष्यों के बनाए हुए है। मनुष्य ही ईश्वरों और अल्लाहों को लड़ा देते हैं। क्या इसीलिए एक-दूसरों के धर्मों और महापुरुषों की निंदा की जाती है?
दुनिया का कोई धर्मग्रंथ ऐसा नहीं है, जिसकी सब बातें आज भी मानने लायक हैं। सभी धर्मग्रंथों और सभी धार्मिक महापुरुषों में आप अत्यंत आपत्तिजनक दोष भी ढूंढ सकते हैं लेकिन उससे किसको क्या फायदा होनेवाला है? यदि हम सभी धर्मप्रेमियों और सारी मनुष्य जाति का हित चाहते हैं तो हमें सभी धर्मग्रंथों और धार्मिक महापुरुषों की सिर्फ सर्वहितकारी बातों पर ही ध्यान देना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व भारद्वाज
पोस्ट का शीर्षक देखकर चौकिये मत...मैं नफरती नूपुर का बिल्कुल भी बचाव करने नहीं आया हूँ। मैं आपको यहां असली अपराधी बताने आया हूँ। आज भारत पूरे विश्व में जो शर्म झेल रहा है उसका असली अपराधी है 2013 के बाद से बीजेपी के संगठन में आया बकलोल, नॉन सीरियस और उत्पाती कलचर।
2013 के पहले की डिबेट या प्रेस कांफ्रेंस उठाकर देख लीजिए आपको बीजेपी की ओर से सुषमा स्वराज, रविशंकर प्रसाद, अरुण जेटली, शाहनवाज और निर्मला सीतारमण जैसे प्रवक्ता प्राइम टाइम न्यूज शोज में डिबेट करते हुए मिलेंगे। कभी-कभी उन बहस का स्तर संसद के स्तर से भी ऊंचा होता था। वे इतनी तर्क और तथ्यों से बात करते थे कि आप उनसे असहमत होते हुए भी उनका सम्मान करते थे लेकिन 2013 के मध्य से सब कुछ बदल गया।
2013 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बीजेपी में साहब को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित करती है फिर मोटा भाई को यूपी में संगठन का प्रभार दिया जाता है, इसी के साथ शुरू होता है। संबित पात्रा, नूपुर शर्मा, गौरव भाटिया और नवीन कुमार जिंदल जैसे लंपट बकरबाजों का बीजेपी के मीडिया सेल में प्रवेश और गोदी मीडिया में अंजना, अमिश और अमन चोपड़ा जैसे नान सिरियस एंकर्स का प्रमोशन।
यह सब पूरी प्लानिंग से हो रहा था। आईटी सेल और गोदी मीडिया का डेडली कॉम्बिनेशन विपक्ष के हर तर्क और तथ्य को नेस्तनाबूद कर रहा था। हर तर्क को जुमले से हराना, हर तथ्य की इतिहास से तुलना कर देना, एक सोची-समझी स्ट्रेटजी का हिस्सा था। जब वो किसी बहस को हारते हुए दिखते तो वो किसी भी गंभीर बहस को गली-चौराहों पे होने वाली ठिठोली में बदल देते थे। लोग मूल मुद्दे को भूलकर हँसी में लग जाते थे।
इसे मैं टैबलायड स्ट्रेटजी बोलता हूं। लंदन के शाम के अखबार हर गंभीर मुद्दे की ऐसे ही हवा निकाल देते हंै। दुनिया की सारी कट्टरपंथी राष्ट्रवादी पार्टियां यही रणनीति फालो करती हैं। वो धर्म से लेकर सारे मुद्दों को इतने नीचे स्तर पर ले जाती हंै कि उस समाज का पूरा स्तर ही नीचे चला जाता है। ट्रम्प, एर्डोगन और पुतिन ने अपने अपने देश में यही किया और अपने संगठन और मीडिया में ऐसे लंपट लोगों की जमकर नियुक्तियां की।
एक बार हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि अगर आप अपने आंगन में पड़ोसी के लिए सांप पालते हैं तो इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वो आपको नहीं डसेंगे। आज इन जहरीले प्रवक्ताओं ने अपनी पार्टी के साथ-साथ पूरे देश को डस लिया है, पर इसके जिम्मेदार वो नहीं, इनको पालने वाले सपेरे हैं जिनके इशारों पर यह दिन-रात नाचते हंै और पूरे देश में जहर फैलाते हैं।
-प्रकाश दुबे
सेना सहित सरकारी प्रतिष्ठानों के कर्णधार सेवानिवृत्ति से पहले और बड़ी निजी कंपनियों के खेवनहार नई नाव की सवारी करने से पहले विदाई दौरा करते हैं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के बेड़े के साथ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कानपुर देहात के अपने गांव पहुंचे। राष्ट्रपति जमैका की विदेश यात्रा से लौटे हैं। उत्तर अमेरिका के 234 किलोमीटर लंबे और फकत 80 किमी चौड़े देश जमैका में पहली मर्तबा किसी भारतीय राष्ट्रपति ने कदम रखा। उपराष्ट्रपति 15 लाख की जनसंख्या वाले गबोन के दौरे पर हैं। जमैका देश की जनसंख्या नागपुर से और गबोन की जबलपुर से कुछ कम है। उपराष्ट्रपति नायडू तीन अफ्रीकी देशों की यात्रा पर गए। उनके दौरे में कतर भारत के लिए महत्वपूर्ण देश है। इन दौरों से भारत-हित जरूर सधा होगा। निवर्तमान राष्ट्रपति ने जमैका में डा आंबेडकर की मूर्ति का अनावरण किया। उपराष्ट्रपति ने कतर में रहने वाले साढ़े सात लाख भारतवंशियों से मुलाकात का कार्यक्रम बनाया। कार्यकाल समाप्ति- कोविंद 25 जुलाई। नायडू-11 अगस्त।
सबै भूमि गोपाल की
जग जाहिर भारतीय संस्थानों में अहमदाबाद के भारतीय प्रबंधन संस्थान का नाम बहुत ऊपर है। अवतारी व्यक्तियों की तरह संस्थान समय से आगे की सोच रखता है। किसी और के दिमाग की बत्ती जलने से पहले संस्थान ने कृषि भूमि मूल्य सूचकांक बनाने का दो जून को ऐलान कर दिया। देश भर में भूखंड यानी जमीन की कीमत का सही आकलन करने के लिए इसका गठन किया गया है। प्रबंधन संस्थान की अपनी साख का इसे फायदा मिलेगा। कई कारणों से जमीन के दाम में और उसके आकलन में बहुत अंतर होता है। ग्रामीण और कस्बाई इलाकों की मानक दर यानी बेंचमार्किंग का अपने तरह का पहला प्रयोग होगा। कृषि भूमि को रियल एस्टेट में बदलने में भरोसेमंद स्रोत मिला। शुरुआती दौर में महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु जैसे राज्यों की जमीन पर नजऱ है। भारत की 20 करोड़ हेक्टर भूमि का मात्र दो प्रतिशत फसल के लिए काम आता है। संस्थान में रियल एस्टेट विभाग है जिसके कर्ताधर्ता मानते हैं कि इससे निवेश करने से पहले खतरों आगाह किया जा सकेगा। कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर और किसान से अधिक उत्सुक निवेशक होंगे।
चूक गया चौहान
खेल संगठन पर कब्जा जमाए रखना बच्चों का खेल नहीं है। फुटबाल संगठन के चुनाव का मसला अदालत में लटका था। तभी सरकार ने प्रशासक बिठा दिया। हाकी संघ में दावों की हाकी टकराईं। चुनाव में पदाधिकारी बदल दिए गए। राष्ट्रीय खेल नियमों के अनुसार दो तिहाई मत पाने के बाद ही किसी पद पर दावेदारी मानी जाती है। शतरंज में ऊंट टेढ़ो टेढ़ो जाए। घोड़ा ढाई घर छलांग लगाता है। वर्ष 2021 के चुनाव में भरत सिंह चौहान सचिव निर्वाचित हुए। मामला अदालत में पहुंचा। खेल मंत्रालय के वकील ने चौहान के चुनाव पर दो तिहाई बहुमत की शर्त लागू नहीं होती। हाकी संघ के चुनाव में सरकार की तरफ से पेश किए गए शपथपत्र में दो तिहाई बहुमत वाली शर्त का उल्लेख था। दिल्ली उच्च न्यायालय की पूछताछ में अतिरिक्त सालिसिटर जनरल पहले अड़े। खेल मंत्रालय की चेतावनी के बाद चाल बदलकर नया हलफनामा देंगे। चौहान ने गुपचुप खिलाडिय़ों के आंकड़े बेचे। प्रधानमंत्री कार्यालय में शिकायत पहुंची। उठापटक का कारण? शतरंज का ओलंपिक रूस में नहीं हो सकता। दो महीने बाद भारत में होना है।
अफीम का नशा
राजनीति और युद्ध में सब जायज माना जाता है। केरल में दूसरी बार सरकार बनाने का कीर्तिमान बनाने वाले विजयन ने इस बात पर विश्वास कर लिया। पी सी थामस के निधन के कारण थ्रिक्काकारा विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने उनकी पत्नी उमा को उम्मीदवार बनाया। वाम मोर्चे के नेताओं ने हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. जोसफ को मैदान में उतारा। मरीजों के वोट पक्के करने के साथ ही ईसाइयों के वोट पर नजऱ गई। अस्पताल में पत्रकार परिषद के दौरान गिरजाघर के पादरी हाजिर थे। धर्म को अफीम बताने वाले दल के साथ गंठजोड़ की चर्चा हुई। ईसा मसीह पहले ही कह चुके हैं-हे प्रभु इन्हें माफ करना। ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं? प्रभु माफ करने के मूड में नहीं थे। उमा ने सरकार के उम्मीदवार को 25 हजार मतों के बड़े अंतर से हराया। पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा होगा-भगवान से डरो। इस मुद्दे पर सारे भगवान एक हो गए। हिंदुत्व के मुखर पैरोकार राधाकृष्णन को भाजपा ने कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों के विरुद्ध खड़ा किया। हम नहीं बताएंगे कि राधाकृष्णन की जमानत बची या नहीं। (लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका में इस समय लगभग 45 लाख भारतीय रह रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले कुछ ही वर्षों में भारतीय मूल का कोई व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति बन जाए। कमला हैरिस अभी उप-राष्ट्रपति तो हैं ही। इस समय अमेरिका में सबसे संपन्न कोई विदेशी मूल के लोग हैं तो वे भारतीय ही हैं। वैसे गोरे लोग भी कोई मूल अमेरिकी थोड़े ही हैं।
वे भी भारतीयों की तरह यूरोप से आकर अमेरिका में बस गए हैं लेकिन उनका आगमन तीन-चार सौ साल पहले से शुरु हुआ है तो वे यह मानने लगे हैं कि वे गोरे लोग तो मूल अमेरिकी ही हैं। बाकी सब भारतीय, अफ्रीकी, चीनी, जापानी, मेक्सिकन आदि लोग विदेशी हैं। जो एशियाई लोग पिछले सौ-डेढ़ सौ साल से अमेरिका में पैदा हुए और वहीं रह रहे हैं, उन्हें भी गोरे लोग अपनी तरह अमेरिकी नहीं मानते।
इसी का नतीजा है कि कई दशकों तक भारतीयों का अमेरिका के विभिन्न व्यवसायों में सर्वोच्च पदों तक पहुंचना असंभव लगता था लेकिन अब अमेरिका की बड़ी से बड़ी कंपनियों, प्रयोगशालाओं, शिक्षा और शोध संस्थाओं तथा यहां तक कि उसकी फौज में भी आप भारतीयों को उच्च पदों पर देख सकते हैं। भारतीयों की योग्यता, कार्यकुशलता और परिश्रम अमेरिकियों को मजबूर कर देते हैं कि उनकी नियुक्ति उन्हें उच्च पदों पर करनी होती है।
भारतीयों की जीवन-पद्धति देखकर भी औसत अमेरिकी चकित रह जाता है। लेकिन भारतीयों की ये सब विशेषताएं अमेरिकी गोरों के दिल में जलन भी पैदा करती हैं। संपन्नता के लिहाज से अमेरिका में भारतीय मूल के लोग सबसे अधिक संपन्न वर्ग में आते हैं। उनके पास एक से एक बढिय़ा मकान, कीमती कारें और एश्वर्य का अन्य सामान आम अमेरिकियों के मुकाबले ज्यादा ही होता है। इसी का नतीजा है कि आजकल भारतीयों के विरुद्ध अमेरिका में अपराधों की भरमार हो गई है। इन्हें अमेरिका में घृणाजन्य अपराध (हेट क्राइम) कहा जाता है।
2020 के मुकाबले 2021 में भारतीयों के विरुद्ध ऐसे अपराध 300 प्रतिशत याने तीन गुना बढ़ गए हैं। कुछ गोरे लोग भारतीयों को देखते ही उन पर गोली चला देते हैं। सडक़ों और दुकानों पर उन्हें देखते ही गालियां बकने लगते हैं। भारतीयों के विरुद्ध बिना किसी कारण, बिना किसी उत्तेजना के इस तरह के अपराध इसीलिए होते हैं कि लोगों के दिल पहले से ही घृणा से लबालब भरे होते हैं। जब से डोनाल्ड ट्रंप राजनीति में आए हैं, उन्होंने एशियाई, अफ्रीकी और लातीनी लोगों के खिलाफ इस घृणा को अधिक प्रबल बनाया है।
ट्रंप के इस उग्र वंशवाद का दुष्परिणाम यह भी हुआ है कि अमेरिका के कुछ प्रभावशाली टीवी चैनल इस घृणाजन्य अपराध को बढ़ावा देते रहते हैं। ज्यों ही बाइडन-प्रशासन वीजा वगैरह में जऱा-सी ढील देता है, त्यों ही रिपब्लिकन पार्टी के कई नेता शोर मचाना शुरु कर देते हैं कि अमेरिका में गोरे लोग शीघ्र ही अल्पसंख्यक बन जाएंगे और उनका जीना हराम हो जाएगा।
अमेरिका में कोरोना को फैलाने के लिए भी एशियाई लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। जो लोग भारतीयों के विरुद्ध घृणा फैला रहे हैं, क्या उन्हें पता है कि यदि आज सारे भारतीय मूल के लोग अमेरिका से बाहर निकल आएं तो अमेरिका की हवा खिसक जाएगी? ये भारतीय लोग न सिर्फ अमेरिका की संपन्नता बढ़ा रहे हैं बल्कि उसे श्रेष्ठ जीवन-पद्धति से भी उपकृत कर रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
जब मोदी सरकार की आठ साल की उपलब्धियों के गौरव गान में सरकार के मंत्री और मीडिया व्यस्त हैं तब कश्मीर घाटी आतंकवादी हिंसा की आग में झुलस रही है और हम मोदी सरकार के धारा 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाने के उस फैसले के दुष्परिणामों का सामना कर रहे हैं जिसे ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम बताया गया था।
सरकार और सरकार के समर्थक इन हिंसक घटनाओं की -जिनमें चुन चुन कर कश्मीरी पंडितों, अन्य राज्यों से आए श्रमिकों, स्थानीय पुलिस कर्मियों एवं सरकारी कर्मचारियों को निशाना बनाया जा रहा है- बड़ी असंभव सी लगने वाली व्याख्याएं कर रहे हैं जिनमें उनकी असंवेदनशीलता स्पष्ट झलकती है।
इन व्याख्याओं के अनुसार कश्मीर की जनता अब निर्भीक हो चुकी है, वह आतंकवादियों के हुक्म को नजरअंदाज कर रही है, इसलिए उसमें डर फैलाने के लिए यह हत्याएं की गई हैं। कश्मीर घाटी में पाकिस्तान से होने वाली घुसपैठ पर पूरी तरह रोक लग गई है इसलिए आतंकी घबराए हुए हैं और हताशा में इन कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। कश्मीर में शासकीय नौकरियों में भर्ती के लिए जो सिंडिकेट काम करता था उसे नेस्तनाबूद कर दिया गया है, इससे जुड़े लोग सरकारी कर्मचारियों में डर और भ्रम फैला रहे हैं। कश्मीर में देश के अन्य भागों से निवेश आ रहा है, यहां की बसाहट बदल रही है इसलिए पृथकतावादी तत्व भयभीत होकर हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं।
कश्मीर पर सरकार की इस सफाई में मूल प्रश्नों के उत्तर नदारद हैं। आतंकवादी हिंसा पर अंकुश लगाने में सरकार क्यों नाकामयाब हुई है?कैसे खुलेआम हथियार लहराते आतंकी बेखौफ होकर अपनी नापाक हरकतों को अंजाम दे रहे हैं? सरकार का कहना है कि उसने निर्दोष लोगों की हत्या के जिम्मेदार आतंकवादियों को चुन चुन कर उनके अंजाम तक पहुंचाया है। यदि सरकार और उसका सुरक्षा तंत्र इतना ही कार्यकुशल है तो फिर वारदात करने से पहले ही इन आतंकवादियों क्यों नहीं धर दबोचा गया? क्यों आम लोगों और सरकारी कर्मचारियों तथा अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के चाक चौबंद इंतजाम नहीं किए गए?
आतंकवादी घटनाओं की इन सरकारी व्याख्याओं में नया कुछ भी नहीं है। हमारे देश के जिन प्रान्तों में आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद ने अपनी जड़ें जमाई हैं उन प्रान्तों की सरकारें भी अनेक वर्षों से भयानक और नृशंस आतंकी हिंसा के बाद ऐसे कल्पनाशील स्पष्टीकरण बड़ी निर्लज्जता से देती रही हैं जिनका सार संक्षेप यही होता है कि सरकार की सख्ती से आतंकवादी घबराए हुए हैं और हिंसक कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। आतंकी हिंसा के बाद सरकारों की घिसीपिटी सफाई के हम सभी अभ्यस्त हैं।
किंतु कश्मीर का घटनाक्रम इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस मुद्दे का उपयोग कर भाजपा ने केंद्र और राज्यों के चुनावों में आशातीत सफलता हासिल की है और वह कश्मीर विषयक अपने फैसलों को नए भारत के नए तेवर को दर्शाने वाले कदमों के रूप में प्रचारित करती रही है- ऐसे कदम जो कठोर निर्णय लेने वाली मजबूत सरकार ही उठा सकती थी।
कश्मीर की यह परिस्थितियां इसलिए भी ध्यान खींचती हैं कि अभी चंद दिनों पहले कश्मीरी पंडितों के साथ हुई त्रासदी पर केंद्रित एक फ़िल्म के प्रचार-प्रसार में (जिसका उद्देश्य अर्द्धसत्यों और कल्पना का एक ऐसा कॉकटेल तैयार करना था जिससे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफ़रत फैले) हमने पूरी सरकार को उतरते देखा। स्थिति ऐसी बन गई कि अनेक भाजपा शासित राज्यों में इसे कर मुक्त किया गया और इसे देखना मानो एक अनिवार्य राष्ट्रीय कर्त्तव्य बना दिया गया।
धारा 370 के दो उपखंडों को हटाने के निर्णय के बाद केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर घाटी के राजनीतिक नेताओं की नजरबंदी, इंटरनेट सहित अन्य संचार सेवाओं पर संभवतः विश्व में सर्वाधिक अवधि की रोक, प्रेस पर अघोषित सेंसरशिप एवं पूरे राज्य में धारा 144 लागू करने जैसे कदम उठाए गए। सुरक्षा बलों की भारी तैनाती घाटी में की गई। सामान्य जनजीवन लंबे समय तक ठप रखा गया। सुरक्षा बलों के पहरे के बीच कश्मीर के डरावने सन्नाटे को केंद्र सरकार ने आतंकी गतिविधियों पर नियंत्रण की उपलब्धि के रूप में चित्रित किया। किंतु जैसे ही जनजीवन सामान्य होता गया, आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक गतिविधियां प्रारंभ होने लगीं, आतंकी हिंसा पुनः प्रारंभ हो गई।
कश्मीर में 19 जून 2018 से राज्यपाल का शासन है। सत्ता समर्थक मीडिया द्वारा प्रायः नए भारत के सरदार पटेल के रूप में चित्रित किए जाने वाले श्री अमित शाह गृह मंत्री के तौर पर कश्मीर के हालात की रोज निगरानी कर रहे हैं। श्री अजीत डोभाल जिन्हें भारतीय मीडिया अनेक दंत कथाओं के यथार्थ नायक के रूप में चित्रित करता रहा है, स्वयं कश्मीर की सुरक्षा व्यवस्था पर नजर रख रहे हैं। सरकार के अनुसार केंद्र की उन विकास योजनाओं का लाभ अब जम्मू कश्मीर के लोगों को मिल रहा है, धारा 370 के कारण जिनसे वे वंचित थे।
फिर भी कश्मीर के हालात बिगड़ते क्यों जा रहे हैं?
कहीं सरकार अपने कर्त्तव्य पथ से विचलित तो नहीं हो रही है? कहीं कश्मीर समस्या को न केवल जीवित रखना बल्कि उसे उलझाना सरकार की चुनावी मजबूरी तो नहीं है? आखिर जनता से वोट बटोरने का यह एक प्रमुख भावनात्मक मुद्दा रहा है।
रोते-बिलखते-आक्रोशित-दुःखित कश्मीरी पंडित की छवि कट्टर हिंदुत्व समर्थकों के उस झूठे नैरेटिव के साथ बड़ी आसानी से सजाई जा सकती है जिसके अनुसार बहुसंख्यक बनने के बाद मुसलमान हिंदुओं से कैसा बर्ताव करेंगे यह देखने के लिए हमें कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा पर नजर डालनी चाहिए। क्या यही कारण है कि कश्मीरी पंडितों की समस्याओं के समाधान लिए कोई गंभीर प्रयास होता नहीं दिखता? क्या उनके साथ हुई भयानक त्रासदी और उनके दारुण दुःख को भावनाओं के बाजार में सजाकर उससे अपना राजनीतिक हित नहीं साधा जा रहा है? क्यों सोशल मीडिया में सक्रिय कट्टर हिंदुत्व के पैरोकार बार बार यह भड़काने वाला संदेश दे रहे हैं कि कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार करने वाले सिरफिरे आतंकवादियों का बदला हिन्दू समाज देश की निर्दोष मुस्लिम आबादी से ले?
धारा 370 के दो उपखंडों को हटाने के बाद केंद्र सरकार को इंटरनेट बंदी, मीडिया पर नियंत्रण, स्थानीय राजनीतिक नेताओं की नजरबंदी जैसे कदम क्यों उठाने पड़े? अघोषित कर्फ्यू जैसी स्थिति में लंबे समय तक कश्मीर वासियों को क्यों रखा गया? क्या सरकार जानती थी कि उसका यह फैसला एक अलोकप्रिय निर्णय है? क्या इन कदमों से यह संदेश नहीं जाता कि सरकार कश्मीर के आम लोगों की देशभक्ति के प्रति भी संदिग्ध है? क्या सरकार के कश्मीर में लोकतंत्र बहाली, राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत और समावेशी विकास के दावों के बीच कश्मीरियत को खत्म किया जा रहा है? क्या कश्मीरियत और देशभक्ति का सह अस्तित्व नहीं हो सकता? कश्मीर के कितने ही मूल निवासी -हिन्दू और मुसलमान- पुलिस कर्मी, शासकीय कर्मचारी, पत्रकार, नेता, व्यापारी जैसी भूमिकाएं निभाते हुए आतंकवादी हिंसा का शिकार हुए हैं। क्या इनकी देशभक्ति पर संदेह करना दुःखद और निंदनीय नहीं है?
क्या सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि विश्वास और अस्मिता के प्रश्न उस विकास से हल नहीं हो सकते जो स्थानीय लोगों को भरोसे में लिए बिना किया जाए और जिसके परिणामस्वरूप उनकी पहचान ही गुम जाए? क्या सरकार यह मानती है कि आतंकवाद की समाप्ति केवल सुरक्षा बलों की सक्रियता द्वारा ही संभव है? क्या विश्व इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण उपलब्ध है जिसमें केवल सैन्य कार्रवाई द्वारा आतंकवाद को जड़मूल से समाप्त करने में कामयाबी हासिल की गई हो? क्या यह सच नहीं है कि पूरी दुनिया में और हमारे देश में भी पारस्परिक चर्चा,विमर्श और समझौता वार्ताओं के माध्यम से उग्रवाद और आतंकवाद का अधिक कारगर एवं टिकाऊ समाधान निकाला गया है और असाध्य रोग सी लगती आतंकवाद की समस्या का सुखद पटाक्षेप हुआ है?
संभव है कि सरकार कश्मीर को उस रूप में ढालने में कामयाब हो जाए जो उसकी विचारधारा के अनुरूप है- वहां की बसाहट और आबादी के वितरण में बदलाव ले आया जाए, चुनावी सफलता भी किसी तरह अर्जित कर ली जाए लेकिन कश्मीरियत का सम्मान न करने वाली कोई भी सरकार वहां के निवासियों की वास्तविक प्रतिनिधि नहीं होगी।
कश्मीरियत को राष्ट्र विरोधी भावना समझकर तथा आम कश्मीरी के राष्ट्रप्रेम पर संदेह करके कश्मीर की समस्या का हल कभी नहीं निकाला जा सकता। सरकार को अपनी कश्मीर नीति की समीक्षा करनी चाहिए और तमाम अमनपसंद, जम्हूरियत पर भरोसा करने वाली तथा हिंसा का खात्मा चाहने वाली ताकतों से संवाद प्रारम्भ करना चाहिए।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मुझे खुशी है कि ज्ञानवापी मस्जिद और देश के अन्य हजारों पूजा-स्थलों के बारे में पिछले कुछ दिनों से मैं जो लिख रहा हूं, उसका समर्थन कई महत्वपूर्ण लोग करने लगे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने साफ़-साफ़ कहा है कि मंदिर-मस्जिद विवादों को अब तोड़-फोड़ और आंदोलनों के जरिए हल नहीं किया जा सकता है। सबसे अच्छा तरीका यह है कि 1991 में संसद द्वारा पारित कानून का पालन किया जाए याने 15 अगस्त 1947 को जो धर्मस्थल जिस रूप में थे, उन्हें उसी रूप में रहने दिया जाए।
सिर्फ राम मंदिर उसका अपवाद रहे। इसका अर्थ यह नहीं कि विदेशी हमलावरों की करतूतों को हम भूल जाएं। उन जाहिल बादशाहों ने अपना रूतबा कायम करने के लिए मजहब को अपना हथियार बनाया और उसके जरिए भारत के गरीब, अनपढ़, अछूत और सत्ताकामी सवर्णों को मुसलमान बना लिया। लेकिन ये लोग कौन है? क्या ये विदेशी हैं? नहीं। ये लोग अपने ही भाई-बहन हैं।
इन विदेशी हमलावरों ने अपनी सत्ता की भूख मिटाने के लिए कई मंदिरों को निगला तो उन्होंने अपने प्रतिद्वंदियों की मस्जिदों को भी नहीं बख्शा। हमारे हिंदुओं की तरह अगर हमारे मुसलमान भाई भी इस एतिहासिक तथ्य को स्वीकार करें तो उनकी इस्लाम-भक्ति में कोई कमी नहीं आएगी। इसमें शक नहीं कि कुछ मुस्लिम आबादी ऐसी भी है, जो विदेशी डंडे के जोर से नहीं, अपने ही लोगों के जुल्म से बचने के लिए इस्लाम की शरण में चली गई।
मोहन भागवत का कहना है कि ये सब हमारे लोग हैं, भारतीय हैं, अपने हैं। विदेशी नहीं हैं। इनका मजहब चाहे विदेश से आया है लेकिन भारत के ये करोड़ों मुसलमान तो विदेश से नहीं आए हैं। इन्हें हम उन विदेशी हमलावरों के कुकर्मों के लिए जिम्मेवार क्यों ठहराएं? इन्होंने तो ये मंदिर नहीं गिराए हैं। तो अब मंदिर-मस्जिद विवाद का हल क्या है? भागवत का कहना है कि या तो इस मुद्दे पर दोनों पक्ष आपसी संवाद करें और वे सफल न हों तो अदालत का फैसला मानें। यह सुझाव बहुत व्यावहारिक है लेकिन कई हिंदू संगठन न आपसी संवाद से सहमत हैं और न ही अदालत के फैसले को मानने को तैयार हैं।
क्या कोई अदालत ऐसा फैसला दे सकती है कि सारी मस्जिदों को तोडक़र उनकी जगह फिर से मंदिर बना दिए जाएं? बाबरी मस्जिद तो टूट चुकी थी। इसलिए राम मंदिर बनाने का फैसला आ गया। लेकिन यदि अब ऐसा फैसला आ गया तो मस्जिदें टूटें या न टूटें, लोगों के दिलों के टुकड़े जरुर हो जाएंगे। भारत की शांति और एकता भंग हो जाएगी।
तो फिर क्या करें? गड़े मुर्दे न उखाड़ें। जहां भी मंदिर-मस्जिद साथ-साथ हैं, वे वहां ही रहें। दोनों सबके लिए खुले रहें। यदि वहां कुछ जगह खाली हो तो वहां गुरुद्वारा, गिरजाघर, साइनेगाग आदि भी बन जाएं। यदि ऐसा हो तो सोने में सुहागा हो जाएगा। सारे धर्म-स्थल साथ-साथ हों तो विभिन्न धर्मावलंबियों में आपस में प्रेम भी बढ़ेगा। अयोध्या में राम-मंदिर के पास 63 एकड़ जमीन इसीलिए नरसिंहराव सरकार ने अधिग्रहीत की थी। यदि ये सब धर्मस्थल हैं याने ईश्वर के घर हैं तो ये सब साथ-साथ क्यों नहीं रह सकते? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के सत्तारुढ़ और विपक्षी नेताओं में इस बात को लेकर वाग्युद्ध चल पड़ा है कि क्या पाकिस्तान के तीन टुकड़े हो जाएंगे? इमरान खान ने एक साक्षात्कार में कह दिया कि अगर फौज ने सावधानी नहीं बरती तो पाकिस्तान के तीन टुकड़े हो सकते हैं। उनका अभिप्राय यह था कि शाहबाज़ शरीफ प्रधानमंत्री के तौर पर कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। देश में महंगाई, भुखमरी और गरीबी तेजी से बढ़ रही है। पाकिस्तान की फौज इतने बुरे हालात पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं?
जिस फौज ने इमरान खान को सत्ता से धकियाया, उसी फौज से वे पाकिस्तान को बचाने का अनुरोध कर रहे हैं। इमरान के बयान पर पूर्व राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने कहा कि वे नरेंद्र मोदी की भाषा बोल रहे हैं। शाहबाज शरीफ आजकल तुर्की में हैं। वे कह रहे हैं कि मैं देश के बिगड़े हुए हालात को काबू करने के लिए बाहर दौड़ रहा हूं और इमरान गलतबयानी करके कह रहे हैं कि पाकिस्तान का हाल सीरिया और अफगानिस्तान की तरह हो रहा है।
इमरान ने यह भी कहा है कि पाकिस्तान का खजाना खाली हो गया है। फौज अगर कमजोर पड़ गई तो परमाणु अस्त्र का ब्रह्मास्त्र निरर्थक हो जाएगा। ऐसी हालत में अमेरिका और भारत मिलकर कब पाकिस्तान के टुकड़े कर देंगे, कुछ पता नहीं। इमरान को अगला चुनाव जीतना है। इस लक्ष्य को पाने के लिए यह जरुरी है कि वह अमेरिका और भारत को कोसें। लेकिन जहां तक पाकिस्तान के तीन टुकड़े होने का सवाल है, सच्चाई तो यह है कि उसके तीन नहीं, चार टुकड़े करने की मांग बरसों से हो रही है।
जब केंद्र की सरकार थोड़ी कमजोर दिखाई पड़ती हैं तो पाकिस्तान के टुकड़ों की मांग जोर पकडऩे लगती है। ये चार टुकड़े हैं— पख्तूनिस्तान, बलूचिस्तान, सिंध और पंजाब! पंजाब सबसे अधिक शक्तिशाली, संपन्न, बहुसंख्यक और शासन में आगे है। इन प्रांतों के अलगाववादी नेताओं से पाकिस्तान में मेरी कई बार मुलाकातें हुई हैं। उनमें अफगानिस्तान, ईरान, अमेरिका और ब्रिटेन में भी खुलकर बातें हुई है।
कई पठान, बलूच और सिंधी नेता इस तरह की बाते करते रहते है। पर पाकिस्तान के तीन या चार टुकड़े होना न उनके लिए फायदेमंद है, न भारत के लिए। अभी तो भारत को सिर्फ एक पाकिस्तान से व्यवहार करना पड़ता है। फिर चार-चार पाकिस्तानों से करना पड़ेगा और यह भी देखना पड़ेगा कि आपसी दंगलों की आग कहीं भारत को न झेलनी पड़ जाए।
भारत को मध्य एशिया और यूरोप के रास्तों की भी किल्लत बढ़ जाएगी। इसके अलावा इन सब छोटे-मोटे देशों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली जाएगी, जिसका बोझ भी आखिरकार भारत को ही सम्हालना पड़ेगा। इसके अलावा स्वयं पाकिस्तान एक कमजोर और भूवेष्टित देश बन जाएगा। भारत तो चाहता है कि उसके सारे पड़ौसी देश संपन्न और सुरक्षित रहें। वे टूटे नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ जुड़ते चले जाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सिन्धूवासिनी त्रिपाठी
क्या आपको उस शख्स की याद आ सकती है जिससे आप कभी मिले ही नहीं? किसी से प्रेम करने और उसके जीवित रहने तक उस प्रेम को जाहिर न कर पाने की पीड़ा कैसी होती है? क्या कुछ वैसी ही जैसे केके के चले जाने के बाद मुझे महसूस हो रही है? खुदा जानता था कि मैं उस पर फिदा थी और बहुत कुछ कहने को था और अब ये लिखने से पहले केके की गाई वही लाइनें याद आती हैं-‘कितना कुछ कहना है फिर भी है दिल में सवाल वही, सपनों में जो रोज कहा है वो फिर से कहूं या नहीं?’ मैं प्रेम और नापसंदगी दोनों बराबर रूप से व्यक्त करने वालों में से हूं लेकिन कृष्णकुमार कुम्मत की तारीफ में एक मर्तबा भी कुछ नहीं लिखा। खुदा जानता है कि पिछले दो दिनों से उसके गाए गानों के सिवा कोई और गाना एक पल के लिए भी नहीं सुना है।
उसके जाने का खालीपन और ज्यादा महसूस करने के लिए शोकगीत पढ़े और सुने। निदा फाजली की ‘मैं तुम्हारी कब्र पर फातिहा पढऩे नहीं आया’ से लेकर उसके गाए ‘फिरता हूं मैं दरबदर, मिलता नहीं तेरा निशां’ तक। मगर उसके जाने के बाद का खालीपन ये शोकगीत भी नहीं भर पा रहे हैं। केके के चाहने वालों की कतार बहुत लंबी है और मुझ जैसी लडक़ी उस कतार में शायद बहुत पीछे खड़ी होगी। मैंने तो उसके जाने से पहले उसका पूरा नाम जानने की जहमत तक नहीं उठाई थी।
वो मुझे इस कदर पसंद था और उसका जाना मुझे इस कदर खलेगा, इसका अंदाजा भी मुझे नहीं था। उसकी मखमली आवाज जिंदा रहने तक सुनी जाएगी लेकिन इसका मलाल हमेशा रहेगा कि उस आवाज में अब कुछ नया सुनने को नहीं मिलेगा। केके के गुजरने ने एक नए अहसास से वाकिफ कराया- उस शख्स को याद करने का अहसास जिससे आप कभी मिले नहीं और किसी के जीवित रहने तक उसके प्रति अपना प्रेम जाहिर न करने का अहसास।
अब जब भी अलेक्जेंडर 23 का गाया ‘How can you miss someone you have never met’ और ‘you cry over boys you haven’t even met in real life’ सुनूंगी, केके की याद आती रहेगी और फिर मैं खुद को समझाने के लिए कहूंगी- खुदा जाने कि मैं फिदा हूं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केंद्र सरकार के प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पेशी का नोटिस भेजा है। ये दोनों कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व अध्यक्ष हैं। इनके अलावा आप पार्टी के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को ईडी ने हिरासत में डाल रखा है। लालू प्रसाद यादव और ओमप्रकाश चौटाला पहले से जेल भुगत रहे हैं। झारखंड के कुछ अफसर भी जेल भुगत रहे हैं। ये लोग सब कौन हैं? ये सब गैर-भाजपाई नेता हैं।
ये सब विरोधी दलों के अध्यक्ष या मुख्यमंत्री या अफसर रहे हैं? इनमें से किसका कितना दोष या अपराध है, यह तो अदालतें तय करती हैं लेकिन कितने गर्व और गौरव की बात है कि इनमें से एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो भाजपा का हो या सत्तारुढ़ दल का हो। यदि भाजपा के सभी नेता और कार्यकर्त्ता सचमुच ऐसे हों तो इससे बढ़कर आनंद की बात राष्ट्र के लिए क्या हो सकती है? लेकिन क्या ऐसा है? यह कैसे पता चले?
या तो वे शपथ लेकर कहें कि वे दूध के धुले हुए हैं या वे यह दावा करें कि उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली है, या उन्होंने कभी टैक्स-चोरी नहीं की है या पैसे की अफरा-तफरी नहीं की है। ऐसा दावा करते हुए तो हमने किसी भी पार्टी के एक भी नेता को नहीं सुना है। हाँ, सिर्फ विरोधी नेताओं को सरकारें अपने दांव में फंसा लेती हैं। आज भाजपा अपने विरोधियों- कांग्रेसियों, आपियों, बसपाइयों और समाजवादियों- को अपने जाल में फंसा रही है तो कल जब सत्ता बदलेगी तो ये सब मिलकर क्या भाजपाइयों के लिए लंबा-चैड़ा जाल नहीं बिछा देंगे?
क्या इससे भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी? नहीं, बिल्कुल नहीं। अपने विरोधियों पर छापे मारने के पहले यदि कोई प्रधानमंत्री अपने समर्थकों पर छापे डलवा दे तो वह असली सफाई कहलाएगी। दूसरों का घर साफ़ करने के पहले यदि अपना घर साफ़ न करें तो लोग आपकी मजाक उड़ाए बिना नहीं रहेंगे। आपकी उस सफाई को लोग राजनीतिक प्रतिशोध की कार्रवाई समझेंगे। जनता में उसकी एकदम उल्टी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। जनता उनके अपराध को अनदेखा कर देगी और उनके लिए सहानुभूति के बादल बरस पड़ेगे जैसे कि चरणसिंह द्वारा इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी पर बरसे थे।
क्या भारत में किसी पार्टी की कोई ऐसी सरकार कभी बनेगी, जो अपने नेताओं पर सबसे पहले छापे मारे और उन्हें गिरफ्तार करे। पंजाब में आप पार्टी ने यह कर दिखाया है लेकिन अपने दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री को वह पद्मविभूषण के लायक बता रही है और कांग्रेस भी अपने दोनों मालिकों के प्रति पूर्ण भक्तिभाव दिखा रही है। यह हो सकता है कि गहन जांच के बाद ये लोग दोषी साबित हो जाएं लेकिन फिर भी यह सवाल बना ही रहेगा कि सिर्फ ये ही क्यों? (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
शायद वह सन् 2009 काआखिरी महीना रहा होगा जब संजीव बख्शी ने मुझे अपने प्रथम उपन्यास ‘भूलन कांदा’ की पांडुलिपि पढऩे और उस पर अपनी राय देने के लिए मुझे दी । इससे पहले उन्होंने जिन दो लोगों को इसकी पांडुलिपि पढऩे के लिए दी थी, उनकी यह राय थी कि उन्हें अभी और इस पर काम करना चाहिए। संजीव बख्शी दोनों की राय से मुझे अवगत करा चुके थे और अब वे तीसरे पाठक के रूप में मेरी राय जानने के लिए किंचित उत्सुक थे। यह उनका पहला उपन्यास था वे मूलत: कवि थे। इसलिए अपने पहले उपन्यास की लेकर उनका सशंकित होना जायज ही था।
मैने पांडुलिपि मिलते ही उसे पढऩा शुरू कर दिया था। पूरा उपन्यास मैने एक ही बैठक में समाप्त कर दिया था। मैं इसे पढक़र एक तरह से चकित था, कुछ-कुछ रोमांचित भी।
मुझे यह बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि संजीव बख्शी जो मूलत: एक कवि हैं ऐसा महत्वपूर्ण उपन्यास लिख लेंगे।
मैंने दूसरे दिन उनसे कहा कि यह गजब का उपन्यास है। आप इसे कहीं प्रकाशित करवाइए। फिर मैंने यह भी जोड़ दिया कि अच्छा होता आप इसे पहले ‘बया’ में प्रकाशित करवाते, इसके बाद ही पुस्तकाकर रूप में इसे साया होने देते।
संजीव बख्शी को मेरी राय काम की लगी होगी। सो उन्होंने बिना देरी किए पांडुलिपि ‘बया’ में प्रकाशनार्थ भेज दी। कुछ दिनों के भीतर ही ‘बया’ के संपादक गौरीनाथ का फोन भी आ गया कि वे इसे ‘बया’ के अगले अंक में प्रकाशित कर रहे हैं।
‘बया’ के अप्रैल-जून सन् 2010 में यह पूरा उपन्यास प्रकाशित हुआ।
‘बया’ में प्रकाशित होते ही सबसे पहले विष्णु खरे और वंदना राग की प्रतिक्रियाएं सामने आई। दोनों ने ‘भूलन कांदा’ की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
विष्णु खरे ने संजीव बख्शी को मुंबई से फोन किया और कहा कि उपन्यास के रूप में प्रकाशित होने से पहले वे कुछ जरूरी चर्चा इस उपन्यास के संबंध में उनसे करना चाहते हैं। इसलिए उनका आग्रह था कि समय निकालकर संजीव बख्शी किसी दिन मुंबई आ जाएं ।
विष्णु खरे उन दिनों दिल्ली छोड़ चुके थे और मुंबई में बस गए थे। अब संजीव बख्शी किसी तरह मुंबई जाने के लिए उत्सुक थे । इसी बीच एक दुर्लभ संयोग घटित हुआ।
छत्तीसगढ़ शासन को कंपनी लॉ की एक पेशी में कंपनी कोर्ट में उपस्थित होने की नोटिस मिली। छत्तीसगढ़ शासन के तत्कालीन मुख्य सचिव विवेक ढांड को इस पेशी में उपस्थित होना था पर व्यस्तताओं के चलते उनके लिए मुंबई जा पाना दूभर था। उन्होंने अपने मातहत संजीव बख्शी को आदेशित किया कि छत्तीसगढ़ शासन का पक्ष रखने के लिए वे मुंबई जाएं। संजीव बख्शी को विमान से आने जाने का किराया छत्तीसगढ़ शासन से मिल ही रहा था सो उन्होंने मेरे समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि उन्हें छत्तीसगढ़ शासन की ओर से मुंबई आने जाने का किराया मिल ही रहा है सो वे अपनी ओर से मुझे अपने साथ मुंबई ले जाना चाहते हैं । मैं सहर्ष तैयार हो गया। संजीव बख्शी अगर विमान की टिकट का भार नहीं उठाते तो भी विष्णु खरे से मिलने का आकर्षण ही अपने आप में इतना प्रबल था कि मैं मुंबई जा सकता था। तब तक विष्णु खरे से मेरी मित्रता परवान चढ़ चुकी थी। दिल्ली में अक्सर उनसे मिलना जुलना मेरा होता ही रहता था।
सो तत्काल विष्णु खरे को इसकी सूचना दी गई कि हम लोग मुंबई पहुंच रहे हैं और इस तरह हम 6 जनवरी 2011 को मुंबई पहुंच गए थे।
कम्पनी लॉ की पेशी अगले दिन मुकर्रर थी, इसलिए 6 जनवरी को हम पूरी तरह से फ्री थे। चूंकि विष्णु खरे मलाड वेस्ट में रह रहे थे इसलिए संजीव बख्शी ने मलाड वेस्ट के ही एक होटल में कमरा बुक करवा रखा था, जिससे कि उनसे मिलने-जुलने में किसी प्रकार की कोई असुविधा न हो।
दोपहर में ही विष्णु खरे होटल आ गए थे। देर रात तक उनके साथ ‘भूलन कांदा’ उपन्यास को लेकर हमारी चर्चा होती रही। उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए। तय हुआ कि उपन्यास के रूप में प्रकाशित होने के पूर्व ही इसे संशोधित कर लिया जाए। उसी दिन यह भी तय हो गया कि विष्णु खरे ही ‘भूलन कांदा’ उपन्यास का ब्लर्ब भी लिखेंगे। पांच छह घंटे तक उस दिन हम केवल ‘भूलन कांदा’ उपन्यास पर ही चर्चा करते रहे ।
दूसरे दिन गेटवे ऑफ इंडिया के समीप स्थित कम्पनी लॉ के कोर्ट में संजीव बख्शी की पेशी थी। पेशी निबटा कर हम गेटवे ऑफ इंडिया में देर शाम तक घूमते रहे थे। शाम को होटल पहुंचे। विष्णु खरे भी तब तक होटल पहुंच चुके थे।
पहले से तयशुदा कार्यक्रम के चलते आज रात्रि का भोजन हमें विष्णु खरे के घर पर करना था। हम विष्णु खरे के साथ ही मलाड वेस्ट स्थित उनके फ्लैट पहुंचे थे। विष्णु खरे के बेटे ने हम लोगों के लिए होटल से खाना भिजवा दिया था। विष्णु खरे के घर पर भी हमारी बातचीत ज्यादातर ‘भूलन कांदा’ पर ही केंद्रित रही थी।
8 मई को हम मुंबई से वापस रायपुर लौट आए थे। संजीव बख्शी ने रायपुर वापस लौटने के बाद विष्णु खरे के सुझाव पर ‘भूलन कांदा’ में कुछ जगहों पर आवश्यक परिमार्जन किए और उपन्यास को अन्तिका प्रकाशन को छपने के लिए रवाना भी कर दिया।
विष्णु खरे ने समय सीमा में उपन्यास का ब्लर्ब लिख कर भेज दिया था। रामकिंकर की सुप्रसिद्ध धातु शिल्प संथाल परिवार को इस उपन्यास के कवर पेज के लिए पसंद किया गया जो इस उपन्यास की थीम के अनुरूप ही था।
सन् 2012 में यह उपन्यास अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया।
रायपुर के वृंदावन हाल में इसका लोकार्पण समारोह संपन्न हुआ। विष्णु खरे इस समारोह के मुख्य अतिथि और मुख्य आकर्षण दोनों थे। ‘भूलन कांदा’ पर उनका व्याख्यान हम सबके लिए एक यादगार व्याख्यान रहा।
‘भूलन कांदा’ के प्रकाशन के पश्चात छत्तीसगढ़ के युवा फिल्म निर्देशक मनोज वर्मा द्वारा इस पर फिल्म निर्माण की चर्चा भी शुरू हो गई थी। विष्णु खरे भी इसे लेकर अपनी तरह से उत्साहित थे। मनोज वर्मा से उन्होंने कहा कि वे इस फिल्म की स्क्रिप्ट पढऩा चाहेंगे और इस फिल्म के निर्माण संबंधी अन्य चीजों में भी उनसे वे लगातार बातचीत करना चाहेंगे।
इसी बीच अप्रैल 2014 में विष्णु खरे छिंदवाड़ा से रायपुर आए। तय हुआ कि ‘भूलन कांदा’ के लिए लोकेशन देख लिया जाए।
मनोज वर्मा गरियाबंद जिले के भुंजिया आदिवासियों का एक गांव महुवा भाटा पहले ही देख आए थे। वे चाहते थे कि विष्णु खरे और हम लोग भी उस गांव को एक बार देख लें। मनोज वर्मा, विष्णु खरे, संजीव बख्शी और मैं गरियाबंद जिले में स्थित महुवाभाटा पहुंचे। चार-पांच घंटे तक हम लोग पूरा गांव घूमते रहे।
विष्णु खरे और हम सबको ‘भूलन कांदा’ के लिए यह गांव उपयुक्त प्रतीत हुआ। प्राकृतिक रूप से सुंदर इस आदिवासी गांव ने हम सबको मोह लिया था। बहुत सारे महुवा के पेड़ होने के कारण इस गांव का नाम महुवा भाटा पड़ा था।
इस बीच विष्णु खरे का छिंदवाड़ा से रायपुर आना जाना खूब होता रहा। जब भी आते ‘भूलन कांदा’ फिल्म की चर्चा करना वे नहीं भूलते थे।
मनोज वर्मा के साथ इस फिल्म की स्क्रिप्ट को लेकर उनकी एक बार नहीं अनेक बार चर्चाएं भी हुईं।
बहरहाल 5 नवंबर सन 2016 को इस फिल्म की शूटिंग की शुरुआत हुई और केवल 34 दिनों में इस फिल्म की शूटिंग पूरी भी हो गई। एडिटिंग, डबिंग और बैक ग्राउंड म्यूजिक का काम अलबत्ता अभी बाकी था।
इस फिल्म के सिनेमेटोग्राफर के लिए मनोज वर्मा ने विशेष रूप से कोलकाता के सुप्रसिद्ध कैमरामैन संदीप सेन को बुलवाया था।
‘पीपली लाइव’ के ओंकार दास मानिकपुरी को मुख्य किरदार के रूप में तथा इसकी नायिका प्रेमिन के लिए मुंबई की उभरती हुई नायिका अणिमा पगारे को अनुबंधित किया था। इसके अतिरिक्त मुंबई से ही अशोक मिश्र, राजेंद्र गुप्ता, मनोज तिवारी जैसे जाने-माने अभिनेताओं सहित छत्तीसगढ़ के आशीष शेंद्रे, संजय महानंद को मनोज वर्मा ने इस फिल्म के लिए अनुबंधित किया था।
कला निर्देशन की जिम्मेदारी मुंबई के ही जयंत देशमुख को सौंपी गई थी। संगीत के लिए सुनील सोनी को तथा बैक ग्राउंड म्यूजिक के लिए मुंबई के मोंटी शर्मा का चयन किया गया था।
इस फिल्म में गांव का लोकेशन महुवा भाटा को ही रखा गया। महुवा भाटा सहित गरियाबंद, खैरागढ़, रायपुर में इस फिल्म की शूटिंग हुई। संजीव बख्शी के साथ मैं गरियाबंद, खैरागढ़, रायपुर में हुई शूटिंग में उपस्थित रहा। किसी भी फिल्म को बनते हुए देखना, किसी दृश्य में खुद को भी शामिल होते हुए देखना यह सब कुछ मेरे लिए विरल और सुखद अनुभव था। अर्थात् जाने अनजाने मैं भी इस फिल्म का हिस्सा बनता चला गया।
इसलिए अपने बारे में यह तो कह ही सकता हूं कि उपन्यास से लेकर फिल्म के निर्माण तक की यात्रा का न केवल मैं गवाह रहा हूं अपितु एक तरह से इसका एक अविभाज्य हिस्सा भी रहा हूं।
फिल्म के निर्माण के पश्चात इसे अनेक बार बार देखने का सौभाग्य भी मुझे मिला, जिसमें एक बार विष्णु खरे के साथ भी मनोज वर्मा के स्वप्निल स्टूडियो में इस फिल्म को देखना शामिल है।
अब जब ‘भूलन कांदा’ जो ‘भूलन द मेज’ के नाम से पूरे देश भर में 27 मई को रिलीज होने जा रही है। जो रीजनल फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड तथा अनेक फिल्म समारोहों में कई सारे अवार्ड हासिल कर चुकी है। ‘भूलन द मेज’ अपने छत्तीसगढ़ी गीत संगीत के लिए भी प्रदर्शन से पूर्व ही पूरे प्रदेश में अच्छी खासी लोकप्रियता बटोर चुकी है। इसे लेकर छत्तीसगढ़ सहित देश भर के दर्शकों में उत्सुकता तो होगी ही।
छत्तीसगढ़ राज्य की यह पहली फिल्म है जिसे नेशनल अवार्ड से सम्मानित होने का खिताब मिला है।
27 मई से यह फिल्म सिनेमाघरों मैं सफलतापूर्वक दिखाई जा रही है। मेरे लिए उपन्यास के प्रकाशन से लेकर इस फिल्म के रिलीज होने तक की इतनी सारी यादें हैं जिसे एक लेख तक सीमित कर पाना मेरे लिए एक कठिन कार्य है।
इस अवसर पर विष्णु खरे की याद मुझे सबसे अधिक आ रही है। इस उपन्यास के प्रकाशन के पश्चात ही मुझे लगता रहा है कि इस उपन्यास के हर पृष्ठ पर विष्णु खरे जैसे स्वयं मौजूद हैं । वैसे ही ‘भूलन द मेज’ फिल्म में भी उनकी मौजूदगी को मैं साफ साफ महसूस कर सकता हूं।
आज वे होते तो इस फिल्म के प्रीमियर शो में अवश्य उपस्थित होते।
-अजय तिवारी
जी हाँ, यह कोई अंधविश्वास नहीं, जीती-जागती सचाई है। किसी के शरीर में सात गोलियाँ दाग दी जाएँ और उसकी लगभग मृत्यु हो गयी हो, तब वह जीवन में कोई अप्रत्याशित सफलता पाकर दिखाये तो क्या कहिएगा?
इस प्रसंग में चमत्कार और दैवीय वरदान के विश्वास की प्रबल संभावना है। हालाँकि है यह नितांत लौकिक संघर्ष और नैतिक साहस की कथा। इसलिए जऱा ठहरकर इसपर गौर करना आवश्यक है।
रिंकू राही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। 2007 में वे मुजफ्फरनगर में पीसीएस अधिकारी थे। युवा अधिकारी में नैतिकता और ईमानदारी का भूत सवार था। उसने देखा कि 100 करोड़ रुपये का स्कालरशिप घोटाला धड़ल्ले से चल रहा है। उसने इस घोटाले को उजागर किया। स्वभावत: इतनी बड़ी रकम का घोटाला सरकारी अधिकारियों और बाहरी माफिया की मिलीभगत से चल रहा था।
ये सब रिंकू राही पर बौखला गये। 2009 में अपराधियों द्वारा उन्हें गोलियों से भून दिया गया। उनके शरीर में सात गोलियाँ घुसीं। इनमें तीन उनके चेहरे पर लगी थीं। चेहरा बिगड़ गया। एक आँख जाती रही। एक कान चला गया।
पर रिंकू बच गये। चार महीने अस्पताल में रहने के बाद जब वे वापस लौटे तो उन्होंने निश्चय किया कि अपनी शक्ति बढ़ाने की जरूरत है। यह शक्ति माफिया बनकर फिल्मी तरीके से नहीं, प्रशासन में बेहतर स्थिति हासिल करके बढ़ायी जा सकती है। उन्होंने यूपीएससी की तैयारी शुरू की। इस साल जब हम सब जामिया के प्रशिक्षण केंद्र से आकर यूपीएससी में पहले तीनों स्थान लेने पर रिचा शर्मा और दो अन्य बच्चियों की सफलता का आनंद ले रहे हैं, तब इसी के साथ 683वें स्थान पर आईएएस की परीक्षा पास करने वाले रिंकू राही को भुला नहीं सकते—उनकी सफलता कम प्रेरणादायी और आनंदप्रद नहीं है।
रिंकू पर हत्या के इरादे से गोली चलाने वालों में आठ लोग गिरफ़्तार हुए। उनमें चार को 10-10 साल की सजा हुई। इस संघर्ष में रिंकू राही को बहुत पीड़ादायक अनुभवों से गुजरना पड़ा। उनका कहना है कि मैं व्यवस्था से नहीं लड़ रहा था, व्यवस्था मुझसे लड़ रही थी! यह बात कितनी सच है, आप स्वयं सोचिए कि चार महीने इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती रहने का चिकित्सकीय अवकाश (मेडिकल लीव) आज तक स्वीकार नहीं हुआ है!
रिंकू राही अब 40 वर्ष के हैं। पंद्रह साल पहले जब उन पर गोलियाँ चली थीं, तब वे 25 साल के थे। तब से उत्तर प्रदेश में आने वाली सरकारों ने उनके साथ बेरहमी का ही बर्ताव किया। उन्हें मारने की कोशिश मायावती की बसपा सरकार के समय हुई थी। अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने उन्हें भ्रष्टाचार पर बहुत ज़्यादा विरोध करने के नाते पागलखाने भेज दिया था। यूपीएससी ने किसी-किसी वर्ग के लिए आयुसीमा में छूट दी थी। रिंकू गोली लगने के बाद विकलांग श्रेणी में आ गये हैं जिनके लिए यूपीएससी में 42 वर्ष की अर्हता आयु है। इसका लाभ रिंकू राही को मिला।
इस नौजवान का जीवन पहले से संघर्षपूर्ण रहा है। पिता दस साल के थे, तभी दादाजी का निधन हो गया। दादी ने किस तरह परिवार पाला होगा, उसका वृत्तांत रोमांचक है। पिता पढऩे में बहुत अच्छे थे लेकिन परिवार चलाने में दादी का साथ दिये बिना चारा नहीं था। पढ़ाई ढंग से और नियमित रूप में नहीं हो सकती थी। अपने विकासकाल में रिंकू ने अनुभव किया कि अगर सरकारी अधिकारी ईमानदार हों तो गरीबों के लिए चलने वाली योजनाओं का लाभ सचमुच लोगों को प्राप्त हो।
बहरहाल, अब रिंकू स्वयं आईएएस अधिकारी हैं। अपने आदर्शों और सपनों को क्रियान्वित करें, प्रशासन को ईमानदार ही नहीं, संवेदनशील बनाने में भी जो भूमिका निभा सकते हैं, निभाएँ। तंत्र और व्यवस्था के भीतर व्यक्तिगत प्रभाव की सीमाएँ होती हैं। लेकिन व्यक्तिगत प्रयत्न भी महत्व रखते हैं, इसमें संदेह नहीं।
रिंकू का जीवन प्रसंग मौत से लडक़र और फिर व्यवस्था से लडक़र अनोखी उपलब्धि का उदाहरण है। इसमें आस्तिक और धर्मभीरु मन के लिए चमत्कारिक व्याख्या की बड़ी गुंजाइश है लेकिन दूसरी तरफ मृत्यु को चुनौती देकर ईमानदारी के लिए संघर्ष की अदम्य प्रेरणा भी है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर में जबसे धारा 370 हटी है, वहां राजनीतिक उठा-पटक और आतंकवादी घटनाओं में काफी कमी हुई है लेकिन इधर पिछले कुछ हफ्तों में आतंकवाद ने फिर से जोर पकड़ लिया है। कश्मीर घाटी के एक स्कूल में पढ़ा रही जम्मू की अध्यापिका रजनीबाला की हत्या ने कश्मीर में तूफान-सा खड़ा कर दिया है। कश्मीर के हजारों अल्पसंख्यक हिंदू कर्मचारी सडक़ों पर उतर आए हैं और वे उप-राज्यपाल से मांग कर रहे हैं कि उन्हें घाटी के बाहर स्थानांतरित किया जाए, वरना वे सामूहिक बहिर्गमन का रास्ता अपनाएंगे। उनका यह आक्रोश तो स्वाभाविक है लेकिन उनकी मांग को क्रियान्वित करने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। यहां एक सवाल तो यही है कि क्या आतंकवादी सिर्फ हिंदू पंडितों को ही मार रहे हैं? यह तो ठीक है कि मरनेवालों में हिंदू पंडितों की संख्या ज्यादा है, क्योंकि एक तो वे प्रभावशाली हैं, मुखर हैं और उनकी संख्या भी ज्यादा है लेकिन रजनीबाला तो पंडित नहीं थी। वह तो दलित थी।
इसके अलावा हम थोड़े और गहरे उतरें तो पता चलेगा कि इस वर्ष अब तक आतंकवादियों ने 13 लोगों की हत्या की है, उनमें चार पुलिस के जवान थे, तीन हिंदू थे और छह मुसलमान थे। इन मुसलमानों में पुलिस वालों के अलावा पंच, सरपंच और टीवी की एक महिला कलाकार भी थी। कहने का अर्थ यह कि आतंकवादी सबके ही दुश्मन हैं। वे घृणा और घमंड से भरे हुए होते हैं। वे जिनसे भी घृणा करते हैं, उनकी हत्या करना वे अपना धर्म समझते हैं। क्या वे यह नहीं जानते यह कुकर्म वे इस्लाम के नाम पर करते हैं और उनकी इस करनी की वजह से इस्लाम सारी दुनिया में बदनाम होता रहता है। ऐसे ही हिंसक उग्रवादियों की मेहरबानी के कारण आज पाकिस्तान और अफगानिस्तान बिल्कुल खस्ता-हाल हुए जा रहे हैं। कश्मीर में इधर कुछ हफ्तों से आतंकवादी हमलों में जो बढ़त हुई है, उसका एक कारण यह भी लगता है कि ये आतंकवादी नहीं चाहते कि भारत-पाक रिश्तों में जो सुधार के संकेत इधर मिल रहे हैं, उन्हें सफल होने दिया जाए। इधर जब से शाहबाज शरीफ की सरकार बनी है, दोनों देशों के नेताओं का रवैया रचनात्मक दिख रहा है।
दोनों देश सीमा पर युद्ध विराम समझौते का पालन कर रहे हैं और सिंधु-जल विवाद को निपटाने के लिए हाल ही में दोनों देशों के अधिकारियों की बैठक दिल्ली में हुई है। पाकिस्तान के व्यापारी भी बंद हुए आपसी व्यापार को खुलवाने का आग्रह कर रहे हैं। आतंकवादियों के लिए यह सब तथ्य काफी निराशाजनक हैं। इसीलिए वे अंधाधुंध गोलियां चला रहे हैं। उनकी हिंसा की सभी कश्मीरी नेताओं ने कड़ी निंदा की है और उप-राज्यपाल मनोज सिंहा ने भी कठोर शब्दों में आतंकवादी हत्यारों को शीघ्र ही दंडित करने की घोषणा की है। क्या इन आतंकवादियों को इतनी-सी बात भी समझ नहीं आती कि वे हजार साल तक भी इसी तरह लोगों का खून बहाते रहें तो भी अपना लक्ष्य साकार नहीं कर पाएंगे और वे जितने निर्दोष लोगों की हत्या करते हैं, उससे कई गुना ज्यादा आतंकवादी हर साल मारे जाते हैं। यह बात उन पाकिस्तानी लोगों को भी समझनी चाहिए, जो आतंकवाद को प्रोत्साहित करते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले 75 साल में भारत में 14 प्रधानमंत्री हुए। उनमें से पांच कांग्रेसी थे और 9 गैर-कांग्रेसी हुए। इन गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों में यदि सबसे लंबा कार्यकाल किसी प्रधानमंत्री को अभी तक मिला है तो वह नरेंद्र मोदी को ही मिला है। उन्होंने आठ वर्ष पूरे कर लिए हैं और अपनी शेष अवधि पूरी करने में भी उन्हें कोई आशंका नहीं है। यह भी असंभव नहीं कि वे लगातार तीसरी अवधि भी पूरी कर डालें। यदि ऐसा हुआ तो जवाहरलाल नेहरु के बाद वे ऐसे पहले भारतीय प्रधानमंत्री होंगे, जो लगातार सर्वाधिक अवधि वाले प्रधानमंत्री कहलाएंगे।
भारतीय लोकतंत्र के विपक्ष की यह बड़ी उपलब्धि होगी। हमारे कई पड़ौसी देशों में भी इतने लंबे समय तक राज करने वाले नेता नहीं हुए हैं। लेकिन मूल प्रश्न या सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह नहीं है कि आप कितने साल तक गद्दी पर बैठे रहे? उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि आपने अपने राष्ट्रोत्थान के लिए बुनियादी काम किए या नहीं? आपने क्या ऐसे काम भी किए हैं, जिन्हें इतिहास याद रखेगा?
इंदिरा गांधी ने आपात्काल लगाने की भयंकर भूल की लेकिन उन्हें याद किया जाएगा— परमाणु-परीक्षण, सिक्किम के विलय, पंजाब पर नियंत्रण और सबसे ज्यादा बांग्लादेश के निर्माण के लिए! उनके ‘गरीबी हटाओ’ का नारा सिर्फ चुनाव जीतने का हथकंडा बनकर रह गया लेकिन उनकी कार्यप्रणाली कुछ ऐसी रही कि भारत के लगभग सारे राजनीतिक दल उनकी देखादेखी प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों में बदल गए हैं। अब क्या नरेंद्र मोदी इस ढर्रे को बदल पाएंगे या और अधिक मजबूत करके छोड़ जाएंगे? इस ढर्रे पर चलकर पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र की बलि तो चढ़ती ही है, राष्ट्रीय लोकतंत्र के लिए भी खतरा पैदा हो जाता है।
इसी तरह भारत की आर्थिक प्रगति भी सभी प्रधानमंत्रियों के काल में लंगड़ाती रही है। जो चीन अब से 50 साल पहले हमसे पीछे था, उसकी आर्थिक शक्ति हम से 5 गुना ज्यादा हो गई है। कहां वह और कहां हम? विश्व गुरु गुड़ चूस रहा है और चेला शक्कर के मजे ले रहा है। पिछले आठ साल में मोदी सरकार ने आम आदमियों को राहत देने के अदभुत और अपूर्व काम किए हैं। उन सबको यहां गिनाना संभव नहीं है लेकिन ये तो तात्कालिक सुविधाएं हैं।
धारा—370 और तीन तलाक को खत्म करना तो सराहनीय है लेकिन देश में एक समान आचार संहिता का निर्माण, जातिवाद का उन्मूलन और अंग्रेजी के वर्चस्व को घटाना, यह भी उतना ही जरुरी है। असली प्रश्न यह है कि शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के मामले में क्या कोई बुनियादी काम पिछले आठ साल में हुआ है? नौकरशाहों के दम पर आप राहत की राजनीति तो कर सकते हैं लेकिन क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिए आपके पास अपनी मौलिक दृष्टि भी होनी चाहिए या दृष्टिसंपन्न लोगों के साथ नम्रतापूर्वक संवाद करने की कला भी आपके पास होनी चाहिए।
विदेश नीति के क्षेत्र में भी भारत कई नए बुनियादी कदम उठा सकता था, लेकिन न तो अभी तक वह पड़ौसी राष्ट्रों के संघ-दक्षेस- को ठप्प होने से रोक सका और न ही उसके पास कोई ऐसी विराट दृष्टि दिख रही है, जिसके चलते वह पुराने आयावर्त्त के डेढ़ दर्जन राष्ट्रों का कोई संघ खड़ा कर सके। महाशक्तियों से उसके संबंध काफी संतुलित हैं लेकिन भारत स्वयं कैसे महाशक्ति बने, इस दिशा में भी ठोस प्रयत्नों की जरुरत है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-दीपक मंडल
भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्रालय ने रविवार को भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण यानी यूआईडीएआई (आधार एजेंसी) को दो दिन पहले जारी उस एडवाइजऱी को वापस ले लिया है, जिसमें लोगों को कहा गया था कि वे होटल, सिनेमाघरों जैसी जगहों पर अपने आधार कार्ड की फोटोकॉपी न दें। ऐसी जगहों पर इसका ‘दुरुपयोग’ हो सकता है।
इस एडवाइजऱी को वापस लेते हुए जो स्पष्टीकरण दिया गया है, उसमें कहा गया है कि लोग सिर्फ उन्हीं संस्थाओं को अपने आधार का ब्योरा दें जिनके पास ‘यूजर लाइसेंस’हों। इस स्पष्टीकरण में ये भी कहा गया है कि वापस ली गई एडवाइजरी में लोगों से मास्क्ड आधार देने को कहा गया था, जिसमें आधार नंबर के आखिरी चार नंबर ही इस्तेमाल होते हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि पहले जारी एडवाइजरी से भ्रम न फैले इसलिए उसे तुरंत प्रभाव से वापस ले लिया गया है।
स्पष्टीकरण में कहा गया है कि आधार कार्ड धारकों को ये सलाह दी जाती है कि वे कहीं भी अपना आधार नंबर देते समय ‘नॉर्मल प्रूडेंस’ यानी सामान्य विवेक या समझदारी का इस्तेमाल करें। इसमें दावा किया गया है कि आधार पहचान के सत्यापन के इको-सिस्टम में आधार धारक की निजता यानी प्राइवेसी को बरकरार रखने की पर्याप्त व्यवस्था है। सरकार ने भले ही ये कहा है कि पुरानी एडवाइजरी से भ्रम की स्थिति न फैले इसलिए इसे खारिज कर दिया गया है लेकिन अभी भी ऐसे कई सवाल हैं जिससे भ्रम की स्थिति बनी हुई है।
यूजर लाइसेंस का मामला
सरकार की ओर से जारी स्पष्टीकरण में कहा गया है कि नागरिकों के अपने आधार का ब्योरा सिर्फ उन्हीं संस्थाओं से साझा करना चाहिए जिनके पास यूआईडीएआई का यूजऱ लाइसेंस है। लेकिन इसमें ये नहीं बताया गया है कि किसी संस्था के पास यूजर लाइसेंस है या नहीं, इसकी जांच कैसे करें। अगर यूजर लाइसेंस है भी तो इसकी प्रामाणिकता के जानने के लिए क्या किया जाना चाहिए।
‘नॉर्मल प्रूडेंस’ क्या है?
लोगों के आधार ब्योरे का इस्तेमाल और साझा करते वक्त नॉर्मल प्रूडेंस यानी सामान्य विवेक या समझदारी के इस्तेमाल की सलाह दी गई है। लेकिन ये नहीं बताया कि नॉर्मल प्रूडेंस क्या है। इसके दायरे में क्या आता है।
प्राइवेसी का सवाल
सरकार की ओर से आधार पर जारी एडवाइजरी को वापस लेने के बाद लोगों की डाटा प्राइवेसी से जुड़े सवाल उठने लगे हैं। कहा जाने लगा कि सरकार खुद ही प्राइवेसी को लेकर असमंजस में है।
11 नवंबर 2016 को यूएआईडीएआई ने अपनी आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट कर कहा था लोगों को आधार और अपनी पहचान से जुड़े किसी भी दस्तावेज के लेकर काफी चौकस रहना चाहिए। ऐसा कोई भी नबंर या इसकी प्रिंटेड कॉपी किसी के साथ साझा न करें। लेकिन यूआईड़ीएआई ने ही 17 मार्च 2018 के ट्वीट में कहा, च्ज् आधार पहचान से जुड़ा एक ऐसा दस्तावेज है, जिसे स्वाभाविक तौर पर जरूरत पडऩे पर किसी दूसरे के साथ साझा किया जा सकता है।
पूर्व ट्राई प्रमुख का दावा और मौजूदा एडवाइजरी से उठे सवाल
सरकार ने 27 मई को आधार की फोटोकॉपी गैर लाइसेंसी यूजऱ के साथ साझा न करने की जो एडवाइजऱी जारी की थी, उससे ऐसा लगता है कि आधार की प्राइवेसी को लेकर सवाल अभी भी बरकरार हैं। 2018 में आधार की प्राइवेसी को लेकर सवाल उठाए जाने पर ट्राई के तत्कालीन प्रमुख आर एस शर्मा ने अपना आधार नंबर ट्विटर पर शेयर करते हुए चुनौती दी थी कि सिर्फ आपके इस नंबर को जान कर कोई आपको नुकसान नहीं पहुंचा सकता है। लेकिन इसके बाद लोगों ने ट्विटर पर उनका मोबाइल नंबर, फोटो, घर का पता, जन्म तारीख और चैट थ्रेड शेयर करने शुरू कर दिए। कई ट्विटर यूज़र्स ने कहा कि वह सोशल मीडिया पर अपना आधार नंबर शेयर करने से बाज़ आएं।
बैपटिस्ट रॉबर्ट नाम से ट्वीट करने वाले एक फ्रेंच सिक्योरिटी एक्सपर्ट ने लिखा, ‘लोग आपका निजी पता, जन्म तारीख और आपका दूसरा टेलीफोन खोज निकालने में सफल रहे। मुझे लगता है कि अब आप समझ गए होंगे कि आधार नंबर को सार्वजनिक करना अच्छा आइडिया नहीं है। ’
ये सब डाटा सुरक्षा पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट आने के ठीक एक दिन बाद हुआ था, जिसमें आधार कार्ड धारक से जुड़ी जानकारियों को सुरक्षित रखने के लिए आधार कानून में व्यापक संशोधन की बात की गई थी। इसमें कहा गया था कि यूआईडीएआई या कानून की अनुमति वाली संस्थाओं की मंजूरी से सार्वजनिक काम कर रहे सार्वजनिक प्राधिकरण के पास ही आपकी पहचान के लिए आधार ब्यौरा मांगने का अधिकार है।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स?
अजय भूषण पांडे यूएडीआईए के सीईओ रह चुके हैं। बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट के फैसले और सरकार की नीतियों के मुताबिक प्राइवेसी का पूरा ख्याल रखना चाहिए। आधार की जानकारियों की गोपनीयता सुरक्षित रखने के लिए जो नीतियां बनी हैं उनका अनुपालन होना चाहिए। अगर ऐसा लगता है कि ऐसा नहीं हो रहा है तो इस बारे में सख्ती से काम लिया जाना चाहिए।’ वो कहते हैं, ‘आधार का ब्यौरा कौन मांग सकता है, इसे लेकर कानून बना हुआ है। इस कानून के मुताबिक इसके लिए आपको सहमति लेनी पड़ती है। यहां तक कि सरकार आपको जहां कुछ लाभ दे रही हो (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर वगैरह) वहां भी आधार मांगने से पहले बताना पड़ता है आप इसकी मांग कर रहे हैं। आधार कानून के सेक्शन 6 का नोटिफिकेशन जहां नहीं है, वहां आप आधार नंबर भी नहीं मांग सकते। जो लोग आधार मांगने का अधिकार नहीं रखते और वे ऐसा कर रहे हैं तो उनके खिलाफ सख्ती होनी चाहिए।’ वह कहते हैं, ‘बैंकों में जब मुझसे आधार मांगा जाता है तो मैं पूछता हूं कि क्या आपके पास इसे मांगने का अधिकार है। अगर है तो आप बताएं कि आप हमारी जानकारी को सुरक्षित तरीके से किस तरह स्टोर रखेंगे, जिससे हमारी प्राइवेसी भंग न हो।’ इस साल अप्रैल में कैग ने कहा था कि यूआईडीएआई ने यह सुनिश्चित नहीं किया है आधार सत्यापन के लिए एजेंसियाँ जिन डिवाइस या ऐप का इस्तेमाल करती हैं, वे आपकी लोगों की जानकारियों को गोपनीय तरीके से सुरक्षित रखने में सक्षम हैं या नहीं।
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने आधार कानून के सेक्शन 57 को खारिज कर दिया था जिसमें निजी संस्थाओं को नागरिकों के आधार ब्यौरे जमा करने का अधिकार दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया था। (bbc.com/hindi)
-चैतन्य नागर
टेक्सस, अमेरिका के युवाल्डे शहर के रॉब एलिमेंट्री स्कूल में एक 18 वर्षीय बंदूकधारी सेल्वडोर रॉमोस ने जिस तरह गोलियों की बारिश करके वहाँ के प्राइमरी स्कूल में पढऩे वाले पाँच से ग्यारह साल के 19 मासूम बच्चों को मार डाला, सुनकर ही दिल दहल जाता है। इस युवक के पास सेमी-ऑटोमेटिक राइफल और हैंडगन थी। स्कूल आने से पहले इसने अपनी दादी पर भी गोलियाँ दागी थी। यह खबर उसने अपनी मित्र को मेसेज के जरिये दे दी थी कि उसने अपनी दादी को गोली मार दी है, और अब वह एक और सरप्राइज देने वाला है! मंगलवार को हुई इस घटना के दस दिन पहले ही न्यूयॉर्क में एक मॉल में इसी तरह की अंधाधुंध फायरिंग में दस लोगों ने जानें गवाईं थी।
टेक्सस के गवर्नर ग्रेग एबॉट का कहना है कि शूटर, सेल्वडोर रामोस ने हमले में एआर-15 का इस्तेमाल किया। मंगलवार की सामूहिक गोलीबारी की घटना से कुछ ही दिनों पहले शिकागो के एक इलाके में एक बंदूकधारी ने राहगीरों पर गोलियां चला दीं, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई थी। अमेरिका में स्कूलों में अंधाधुंध फायरिंग और बच्चों की मौत का एक लंबा इतिहास रहा है। कुछ खास घटनाएँ इस प्रकार हुई हैं- 2005 में रेड लेक सीनियर हाई स्कूल में फायरिंग में । लोगों की मौत हुई थी। 2006 में वेस्ट निकेल माइन्स स्कूल फायरिंग में 5 लोगों की मौत हुई थी। 200। में वर्जीनिया टेक स्कूल में फायरिंग में 32 लोगों की मौत हो गई थी। 2012 में सैंडी हुक स्कूल फायरिंग में 26 लोगों की मौत हुई थी।2014 में मैरीसविल पिलचक हाई स्कूल में 4 लोगों की मौत हुई थी। 2018 में मार्जोरी स्टोनमैन डगलस हाई स्कूल फायरिंग में 1। लोगों की मौत हुई थी। 2018 में सांता फे हाई स्कूल में फायरिंग में 10 लोगों की मौत हुई थी।
चिंतक और लेखक अरुण महेश्वरी कहते हैं- ‘पर्दे पर हिंसक खूनी खेलते-खेलते ये युवा अब असल जिंदगी में भी मौत का ये घिनौना खेल खेल रहें हैं। ये कैसे हत्यारे रोबोटों का समाज बन रहा है! इस घटना ने सोलह दिसंबर की पेशावर की उस दर्दनाक घटना की याद ताजा कर दी जब आतंकियों ने इसी तरह स्कूल के मासूम बच्चों को गोलियों से भून दिया था।’ अरुण बॉब डिलन की मर्मस्पर्शी पंक्तियों को उद्धृत करते हैं जो वहाँ के हाल को बखूबी दिखाती हैं- ‘और एक इंसान के कितने कान होने चाहिए/जिससे वह लोगों की चीखें सुन सके/और उसे कितनी मौतों का सामना करना होगा, जिससे वह जान सके कि कई लोग मर चुके है।‘
कइयों को इस बात को लेकर ताज्जुब हो रहा होगा कि 18 साल के एक बच्चे के हाथ में इतना घातक हथियार कैसे आ गया। अमेरिका का कानून ही कुछ ऐसा है कि वहां बंदूक वगैरह रखने की न्यूनतम उम्र काफी कम है। संघीय कानून तो कुछ अपवादों को छोडक़र स्पष्ट है कि हैंडगन रखने वाले की न्यूनतम उम्र अठारह साल होनी चाहिए, पर राइफल और शॉटगन जैसे हथियारों के लिए ऐसी कोई सीमा नही। कोलंबिया डिस्ट्रिक्ट और बीस अन्य स्टेट्स ने न्यूनतम उम्र के कानून को 14 से 21 वर्ष के बीच रखा हुआ है। मोंटाना में यह 14 वर्ष है जबकि इलिनोई में 21 वर्ष। बाकी तीस स्टेट्स में किसी बच्चे के लिए लंबी नली की बंदूक रखना तकनीकी रूप से वैध है।
जब कोलंबाइन हाई स्कूल में इस तरह का कत्ले आम 1999 में हुआ था तो अमेरिका हिल गया था। ऐसा लगा कि वह घटना अमेरिकी इतिहास की सबसे भयावह घटना के रूप में दर्ज होगी। आज यदि मरने वालों की संख्या पर नजर डाली जाए तो दिखेगा कि इसी दशक में तीन और घटनाएँ ऐसी हुई हैं जो उससे भी ज्यादा दर्दनाक रही है। 2012 में सैंडी हुक एलीमेंट्री स्कूल में हुए हमले में 26 बच्चे मारे गए थे; इसके बाद 2018 में मरजोरी स्टोनमैन डगलस हाईस्कूल, फ्लोरिडा में 17 लोगों की जानें गईं और अब 24 मई को टेक्सस में 19 बच्चे और दो वयस्क मौत के मुंह में समा गए।
मानसिक रोग और बंदूक के दुरुपयोग के संबंध को लेकर एक बार फिर से अमेरिका में बहस छिड़ी हुई है। बंदूकों का प्रेमी देश कहता है कि मानसिक बीमारी के कारण ऐसी घटनाएँ होती हैं, न कि सिर्फ बंदूक रखने के कारण। इन लोगों को नहीं लगता कि बंदूक रखने की कानून को बदला जाना चाहिए। इन्हें इस बात का भी अहसास नहीं कि ऐसा कह कर वे मानसिक तौर पर बीमार लोगों पर एक तरह का कलंक लगा रहे है। हर मानसिक रोगी गन का इस्तेमाल नहीं करता, और मानसिक रुग्णता भी कई तरह की होती है। जरूरी नहीं कि मानसिक तौर पर बीमार हर इंसान हिंसक भी हो। कई मानसिक बीमारियाँ तो व्यक्ति को बिल्कुल शिथिल और निष्क्रिय बना देती है। अवसाद तो व्यक्ति को चारों और से जकड़ लेता है, इतनी बुरी तरह कि वह कुछ करने के लायक ही नहीं बचता।
सीधे मानसिक रोग से इस समस्या को जोड़ देना इसका अति सरलीकरण है। इससे मानसिक रोगी अपनी दशा के बारे में खुलकर बताने से हिचकिचाएंगे और साथ ही समाज के लोग उनसे दूरी बनाने लगेंगे। दरअसल इस तरह की हिंसा के कई कारण हो सकते हैं और इस बात को भूला नहीं जाना चाहिए कि अमेरिका में हथियारों के कारोबारियों की एक बहुत मजबूत लॉबी है। वह दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का निर्यातक है, और अपने घरेलू बाजार में भी खतरनाक हथियार झोंकने में उसे कोई संकोच नहीं हुआ है। उसके कानून और वहां हो रही इस तरह की घटनाएँ ही इसका सबसे बड़ा सबूत है।
अमेरिका में करीब 33 करोड़ लोग हैं और बंदूकें हैं 40 करोड़। यानी, प्रति नागरिक एक से ज़्यादा बंदूके। अमेरिका की आबादी दुनिया की आबादी का 4 प्रतिशत है। इन 4 फीसदी लोगों के पास दुनिया की 40 फीसदी बंदूकें वगैरह है। ये वहां के नागरिक हैं, पुलिस या सेना के लोग नही। अंदाजा लगाइए, लोगों के मन में एक दूसरे के प्रति कितना भय और शंकाएं होंगी। कितनी नफरत होगी। बंदूकें होंगीं तो चलेंगीं भी, कभी न कभी। इन भयावह परिस्थितियों के साथ है वहां एक अजीब तरह की आजादी की धारणा। ऐसी आजादी जिसमें न ही जिम्मेदारी है और न ही अनुशासन। आपको यह भी मालूम होगा शायद कि स्कूलों में गोलियां चलना अमेरिकी संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। शायद एक समाज के रूप में इंसान से ज़्यादा प्रिय उन्हें बंदूकें है। संविधान (दूसरा संशोधन या सेकंड अमेंडमेंट) उन्हें हथियार रखने का हक देता है। वॉलमार्ट अपने करीब 5000 आउटलेट्स से बंदूकें बेचता है। और शिकार करने के शौकीन भी कई हैं वहां, इसलिए वे कई तरह के शस्त्र रख लेते है। अक्सर बच्चे अपने माता पिता के हथियारों का भी इस्तेमाल कर लेते है। आप आग पर चलेंगे और चाहेंगे कि तलुवे भी न झुलसे! मूर्खों के स्वर्ग में रहना इसी को तो कहते है।
अमेरिका आत्मघाती हुआ जा रहा है। अंधाधुंध अपने ही बच्चों को, अपने ही भविष्य को मार देने का सामान बना रहा है। न ही पेरेंट्स, न ही स्कूल प्रबंधन, न ही सरकार जानती है इसे रोका कैसे जाए। हथियारों के कारोबार में डूबे रहने वालों को खुद को बम, गोलियों की आवाजों और खून की गंध का आदी बना लेना चाहिए।
कल ही इस घटना को लेकर मित्र ब्रूस ऑल्डरमैन से फ़ोन पर बात हुई। ब्रूस कैलिफोर्निया की नेशनल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, कवि हैं और मनोविज्ञान उनका विषय है। उन्होंने बड़े ही दुखी मन से कहा- ‘हमारे लिए यहाँ बड़ा ही उदास समय है। मुझे नहीं लगता कि किसी के पास भी इसका कोई जवाब है भी कि ये घटनाएँ क्यों हो रही है। खतरनाक हथियारों की उपलब्धता तो एक कारण है ही, पर साथ ही एक किस्म की सांस्कृतिक रुग्णता भी देखी जा सकती है। बंदूकों की पूजा और बंदूक संस्कृति की उपासना हाल के वर्षों में सामने आई है और यह बहुत परेशान कर रही है। बंदूक की मदद से हिंसक गतिविधियों में शामिल होना युवा वर्ग के लिए आसान हो गया है।
युवा इस आसानी से उपलब्ध माध्यम का उपयोग करके अपने आक्रोश को व्यक्त करते हैं और अपनी ‘छाप छोड़ देना चाहते हैं’। कई मामलों में मानसिक बीमारी भी इसका कारण है, पर हमेशा नही। कई शूटर अवसाद दूर करने की दवाओं पर रहते हैं, और इनकी वजह से उनमे आत्मघाती और हिंसक प्रवित्तियां बढ़ जाती है। यह एक बड़ी बुरी तरह उलझी हुई गाँठ है और मैं वास्तव में चाहता हूँ कि हम इसका कोई हल ढूँढ़ निकाल लें।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद की संयुक्त समिति ने एक आदेश जारी किया है, जिसके कारण अब सांसदों को सिर्फ अपनी एक ही पेंशन पर गुजारा करना होगा। अभी तक एक सांसद को, यदि वह विधायक भी रहा हो और सरकारी कर्मचारी भी रहा हो तो तीन-तीन पेंशनें लेने की सुविधा बनी हुई है। हमारे सांसदों को तीन लाख 30 हजार रु. तो हर महिने वेतन के तौर पर मिलते ही हैं, उन्हें तरह-तरह की इतनी सुविधाएं भी मिलती हैं कि उन सबका हिसाब बाजार भाव से जोड़ा जाए तो उन पर होने वाला सरकारी खर्च कम से कम 10 लाख रु. प्रति माह होता है।
जबकि भारत के लगभग 100 करोड़ लोग 10 हजार रु. प्रति माह से भी कम में गुजारा करते हैं। हमारे वे सांसद और विधायक बिल्कुल भौंदू माने जाएंगे, जो सिर्फ अपने वेतन और भत्तों पर ही निर्भर होंगे। राजनीति में आने वाला हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पार्टी का हो, उसके लिए यह सरकारी वेतन और भत्ते तो ऊँट के मुंह में जीरे के समान हैं। हमारी राजनीति का शुद्धिकरण तभी हो सकता है जबकि हमारे जन-प्रतिनिधि आचार्य कौटिल्य की सादगी का अनुकरण करें या यूनानी विद्वान प्लेटो के दार्शनिक सेवकों की तरह रहें।
प्रधानमंत्री ने खुद को ‘प्रधान जनसेवक’ कहा है, जो बिल्कुल उचित है लेकिन हमारे नेता गण वास्तव में जनता के प्रधान मालिक बन बैठते हैं। उनकी लूट-पाट और उनकी अकड़ हमारे नौकरशाहों के लिए अत्यंत प्रेरणादायक होती है। वे उनसे भी ज्यादा अकड़बाज और लुटेरे बनकर ठाठ करते हैं। संसदीय समिति को बधाई कि उसने अभी सांसदों की दुगुनी-तिगुनी पेंशन पर रोक लगाई है लेकिन यह काम अभी अधूरा ही है।
उसे पहला काम तो यह करना चाहिए कि सांसदों को अपने वेतन और भत्ते खुद ही बढ़ाने के अधिकार को वह समाप्त करे। दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में यह अधिकार दूसरे संगठन को दिया गया है। इसके अलावा जरा यह भी सोचा जाए कि यदि कोई व्यक्ति पांच साल से कम समय तक संसद और विधायक रहे तो उसे पेंशन क्यों दी जाए? क्या सरकारी कर्मचारी और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को इस तरह पेंशन मिल जाती है? मेरी अपनी राय तो यह है कि सांसदों और विधायकों को कोई पेंशन नहीं लेनी चाहिए।
इसके अलावा यदि विभिन्न राज्यों का हिसाब-किताब देखें तो वहां पेंशन के नाम पर लूट मची हुई है। कई राज्यों में जो विधायक कई बार चुने जाते हैं, उनकी पुरानी पेंशन में नई पेंशन भी जुड़ जाती है। पंजाब में अकाली दल के 11 बार विधायक रहे प्रकाशसिंह बादल को लगभग 6 लाख रु. प्रति माह पेंशन मिलती है। ‘आप पार्टी’ की मान सरकार इस प्रावधान पर रोक लगा रही है।
इसके अलावा विधायकों के और भी कई मजे हैं। देश के सात राज्यों में विधायक लोगों की आय पर आयकर उनकी सरकारें भरती हैं। उन्हें भी सांसदों की तरह निवास, यात्राओं आदि की कई मुफ्त सुविधाएं मिली रहती हैं। जो सुविधाएं जन-सेवा के लिए जरुरी हैं, वे अवश्य दी जाएं लेकिन नेताओं की पेंशन, मोटी तनख्वाह और अनावश्यक सुविधाओं में यदि कटौती कर दी जाए तो हजारों करोड़ रु. की बचत हो सकती है, जिसका लाभ देश के वंचितों, गरीबों और पिछड़ों को पहुंचाया जा सकता है। आजकल देश के नेतागण अपने विज्ञापन छपाने और दिखाने पर अरबों-खरबों रु. खर्च कर रहे हैं। इस पर भी तुरंत पाबंदी लगनी चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान के आठ पड़ौसी देशों का एक चौथा सम्मेलन ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में इस हफ्ते हुआ। इस सम्मेलन में कजाकिस्तान, किरगीजिस्तान, उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान ने तो भाग लिया ही, उनके साथ रूस, चीन, ईरान और भारत के प्रतिनिधि भी उसमें गए थे। यह सम्मेलन इन देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों का था। भारत से हमारे प्रतिनिधि अजित दोभाल थे। उनके साथ विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे.पी. सिंह भी थे लेकिन पिछली बार जब यह सम्मेलन भारत में हुआ था तो चीनी प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित नहीं हुए थे। उन्होंने कोई बहाना बना दिया था।
पाकिस्तान न तो उस सम्मेलन में आया था और न ही इस सम्मेलन में आया। क्यों नहीं आया? क्योंकि एक तो इसमें भारत की उपस्थिति ऐसी है, जैसे किसी ड्राइंग रूम में हाथी की होती है। भारत इन देशों में चीन के बाद सबसे बड़ा देश है। भारत आतंकवाद का शिकार हुआ है। पाकिस्तान के लिए वह सिरदर्द बन सकता है लेकिन इस बार चीन दुशांबे में तो आया लेकिन दिल्ली में नहीं आया। क्यों नहीं आया, क्योंकि वह दिल्ली आता तो पाकिस्तान नाराज़ हो सकता था।
पाकिस्तान और चीन की दोस्ती मामूली नहीं है। इस्पाती है। इसके बावजूद भारत और ताजिकिस्तान ने अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों की भर्त्सना की और काबुल में सर्वसमावेशी सरकार की मांग की। ताजिकिस्तान वही देश है, जहां काबुल से भागकर राष्ट्रपति अशरफ गनी पहुंच गए थे। अफगानिस्तान के फारसीभाषी ताजिक लोग उसका सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह हैं जबकि तालिबान मुख्यत: गिलजई पठान हैं। ताजिकिस्तान में बैठकर ही अहमदशाह मसूद ने काबुल की रूसपरस्त सत्ता को हिला रखा था।
अब भी तालिबान का काबुल पर कब्जा होते ही मसूद के बेटे और भाई दुशांबे में बैठकर तथाकथित प्रवासी सरकार चला रहे हैं। इस सम्मेलन से तालिबान इसलिए भी बाहर है कि एक तो उनकी सरकार को किसी ने भी मान्यता नहीं दी है और दूसरा वे ताजिक दखलंदाजी के खिलाफ हैं। चाहे जो हो, इस सम्म्मेलन में रूस और चीन की उपस्थिति बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूतिन का रूस अब ब्रेजनेव वाला रूस नहीं रहा और चीन को अपने शिन च्यांग में चल रहे उइगर मुसलमानों से बहुत परेशानी है।
लाखों उइगर मुसलमानों को चीन ने यातना-शिविरों में बंद कर रखा है। इस दृष्टि से भारत और चीन की चिंताएं लगभग एक-जैसी हैं। जैसे हमारे कश्मीर और पंजाब में वैसे ही शिनच्यांग में आतंकवादी काफी सक्रिय हैं। पाकिस्तान को इस सम्मेलन में सबसे अधिक सक्रिय होना चाहिए, क्योंकि आतंकवाद सबसे ज्यादा उसी का नुकसान कर रहा है। इस सम्मेलन ने आतंकवाद-विरोध और सर्वसमावेशी सरकार की जमकर मांग की लेकिन मंहगाई, बेरोजगारी और अभाव से ग्रस्त जनता की मदद के लिए ये सभी राष्ट्र कोई बड़ी घोषणा करते तो बहुत अच्छा रहता। (नया इंडिया की अनुमति से)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप
गीताजंलि श्री के उपन्यास ‘रेत-समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टूम्ब ऑफ सेन्ड’ को बुकर सम्मान मिलने पर हिंदी जगत का गदगद होना स्वाभाविक है। मेरी भी बधाई। मूल अंग्रेजी में लिखे गए कुछ भारतीय उपन्यासों को पहले भी यह सम्मान मिला है। लेकिन किसी भी भारतीय भाषा के उपन्यास को मिलने वाला यह पहला सम्मान है। लगभग 50 लाख रु. की यह सम्मान राशि उसकी लेखिका और अनुवादिका डेजी रॉकवेल के बीच आधी-आधी बटेगी। इतनी बड़ी राशिवाला कोई सम्मान भारत में तो नहीं है। इसलिए भी इसका महत्व काफी है।
वैसे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में इतने उत्कृष्ट उपन्यास लिखे जाते रहे हैं कि वे दुनिया की किसी भी भाषा की कृतियों से कम नहीं हैं लेकिन उनका अनुवाद अपनी भाषाओं में ही नहीं होता तो विदेशी भाषाओं में कैसे होगा? भारतीय भाषाओं में कुल मिलाकर जितनी रचनाएं प्रकाशित होती हैं, उतनी दुनिया के किसी भी देश की भाषा में नहीं होतीं। इसीलिए पहले तो भारत में एक राष्ट्रीय अनुवाद अकादमी स्थापित की जानी चाहिए, जिसका काम भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ ग्रंथों का सिर्फ आपसी अनुवाद प्रकाशित करना हो।
इस तरह के कुछ उल्लेखनीय अनुवाद-कार्य साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ और कुछ प्रादेशिक संस्थाएं करती जरुर हैं। उस अकादमी का दूसरा बड़ा काम विदेशी भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को भारतीय भाषाओं में और भारतीय भाषाओं की रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद करना हो। यह कार्य भारत की सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ बनाने में सहायक तो होगा ही, विश्व भर की संस्कृतियों से भारत का परिचय बढ़ाने में भी यह अपनी भूमिका अदा करेगा। अभी तो हम सिर्फ अंग्रेजी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद पर सीमित हैं, जो कि गलत नहीं है लेकिन यह हमारी गुलाम मनोवृत्ति का प्रतिफल है।
आज भी हम भारतीयों को पता ही नहीं है कि रूस, चीन, फ्रांस, जापान, ईरान, अरब देशों और लातीनी अमेरिका में साहित्यिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कौन-कौन से नए आयाम खुल रहे हैं। अंग्रेजी की गुलामी का यह दुष्परिणाम तो है ही, इसके अलावा यह भी है कि अंग्रेजी में छपे साधारण लेखों और पुस्तकों को हम जरुरत से ज्यादा महत्व दे देते हैं।
हमारे लिए बुकर सम्मान और नोबेल प्राइज़ हमारे भारत रत्न और ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी अधिक सम्मानित और चर्चित हो जाते हैं। गीताजंलि का उपन्यास ‘रेत-समाधि’ भारत-पाक विभाजन की विभीषिका और उससे जुड़ी एक हिंदू और मुसलमान की अमर प्रेम-कथा पर केंद्रित है। वह भारत के अत्यंत प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह राजकमल ने छापा है तो वह उत्कृष्ट कोटि का तो होगा ही लेकिन सारे देश का ध्यान उस पर अब इसलिए जाएगा कि उसे हमारे पूर्व स्वामियों और पूर्व गुरुजन (अंग्रेजों) ने मान्यता दी है। भारत अपनी इस बौद्धिक दासता से मुक्त हो जाए तो उसे पता चलेगा कि उसने जैसे दार्शनिक, विचारक, राजनीतिक चिंतक, साहित्यकार और पत्रकार पैदा किए हैं, वैसे दुनिया के अन्य देशों में मिलने दुर्लभ हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
‘मुझे भारत के लोगों से इतना प्यार और स्नेह मिला है कि मैं इसका एक छोटा सा अंश भी उन्हें लौटा नहीं सकता, और वास्तव में स्नेह जैसी मूल्यवान चीज के बदले में कुछ लौटाया भी नहीं जा सकता। इस देश में कई लोगों की प्रशंसा की गई है, कुछ को श्रद्धेय समझा गया है, लेकिन मुझे भारत के सभी वर्गों के लोगों का स्नेह इतनी प्रचुर मात्रा में मिला है कि मैं इससे अभिभूत हूँ। मैं केवल आशा ही कर सकता हूँ कि जब तक मैं जीवित हूँ, मैं अपने लोगों और उनके स्नेह से वंचित न रहूँ।
अपने असंख्य साथियों और सहकर्मियों के प्रति मेरे मन में गहरा कृतज्ञता भाव है। हम कई महान कार्यों में सहभागी रहे हैं और हमने एक साथ सफलता का सुख और असफलता का दु:ख साझा किया है।
मैं पूरी ईमानदारी से यह घोषित करता हूँ कि मैं नहीं चाहता कि मेरी मृत्यु के बाद किसी भी तरह का धार्मिक अनुष्ठान किया जाये। मैं ऐसे किसी भी अनुष्ठान में विश्वास नहीं करता, अत: मेरी मृत्यु के बाद ऐसा करना वास्तव में पाखंड होगा तथा स्वयं को और अन्य लोगों को धोखा देने के समान होगा।
मैं चाहता हूँ कि जब मेरी मृत्यु हो तो मेरे शरीर का दाह संस्कार कर दिया जाये। यदि मेरी मृत्यु विदेश में होती है, तो मेरा दाह संस्कार वहीं कर दिया जाये और मेरी राख को इलाहाबाद भेज दिया जाये। इसमें से एक मु_ी भर राख गंगा में प्रवाहित कर दी जाये तथा और शेष राख का निपटान नीचे दर्शाये गए तरीके से किया जाये। इस राख का कोई भी हिस्सा न ही बचाकर रखा जाये और न ही संरक्षित किया जाये।
जहाँ तक मेरा संबंध है, मेरी एक मु_ी राख को इलाहाबाद में गंगा में प्रवाहित करने की मेरी इच्छा का कोई धार्मिक महत्व नहीं है। इस मामले में मेरी कोई धार्मिक भावना नहीं है। मैं अपने बचपन से ही इलाहाबाद में गंगा और यमुना नदियों से जुड़ा रहा हूँ, और जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, यह लगाव भी बढ़ता गया है। मैंने बदलते मौसमों के साथ इनकी अलग-अलग भावभंगिमायें देखी हैं, और अक्सर मैंने उन इतिहास, मिथक, परंपरा, गीत और कहानियों पर विचार किया है जो सदियों से इनके साथ जुड़ी रही है तथा इनके निरंतर प्रवाह का अंग बन गयी हैं। विशेष रूप से, गंगा, भारत की नदी है, जिससे लोग प्रेम करते हैं, जिसके इर्द-गिर्द उनकी जातीय स्मृतियां, उनकी आशाएं और भय, उनके विजय गीत, उनकी जीत और हार गुथे हुए हैं।
वह भारत की सदियों पुरानी संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक रही है, सदा बदलने वाली, सदा बहने वाली, लेकिन फिर भी सदा वही गंगा। वह मुझे हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों और गहरी घाटियों की याद दिलाती है, जिनसे मैं बेहद प्यार करता हूँ, और निचले इलाकों के समृद्ध और विशाल मैदानों की, जहां मेरा जीवन और कर्म निर्धारित हुआ है। प्रात:काल के सूरज की रोशनी में मुस्कराती और अठखेलियां करती हुई; शाम के साये में गहरी, उदास और रहस्य से भरी हुई; सर्दियों में संकरी, धीमी और रमणीय धारा; मानसून के दौरान सागर सी विशाल और गरजती हुई तथा उसके ही समान विध्वंस करने की क्षमता रखने वाली, गंगा, मेरे लिए भारत के भूतकाल की स्मृति और प्रतीक के रूप में रही है जो वर्तमान में प्रवाहमान है और जिसकी दिशा भविष्य के महासागर की ओर है। और यद्यपि मैंने अतीत की बहुत सी परंपराओं और रीतिरिवाजों को खारिज कर दिया है, और चिंतित हूँ कि भारत को उन सभी बंधनों से स्वयं को मुक्त कर देना चाहिए जो उसे बांधते और विवश करते हैं तथा बड़ी संख्या में उसके निवासियों को दबाते और विभाजित करते हैं, और शरीर व आत्मा के मुक्त विकास में अवरोधक हैं।
हालांकि यह सब चाहते हुए भी मैं स्वयं को अपने अतीत से पूरी तरह अलग करना नहीं चाहता। हमारी महान विरासत पर मुझे गर्व है और मैं सचेत हूँ कि अन्य सभी लोगों की तरह मैं भी उस अटूट श्रृंखला का हिस्सा हूँ जो भारत के प्राचीन अतीत में इतिहास के आरंभ तक जाती है। मैं उस श्रंखला को नहीं तोडूंगा, क्यों ताकि यह मेरे लिए किसी बहुमूल्यह खजाने से कम नहीं है और जिससे मैं प्रेरणा लेता हूँ। भारत की सांस्कृतिक विरासत को मेरी अंतिम श्रद्धांजलि के रूप में, मैं यह अनुरोध करता हूँ कि मेरी एक मु_ी राख को इलाहाबाद में गंगा में प्रवाहित कर दिया जाये जो बहते हुए उस महासागर में मिलती है जो भारत की तट रेखा को प्रक्षालित करता है।
मेरी राख के शेष बड़े भाग का इस्तेमाल कुछ अलग तरह से करना है। मैं चाहता हूं कि इसे एक हवाई जहाज से ऊंचाई पर ले जाया जाये और उस ऊंचाई से भारत के उन खेतों में बि खरा दि या जाये जहां भारत के किसान परिश्रम करते हैं, ताकि वह भारत की मिट्टी में समाहित होकर भारत का एक अभिन्न अंग बन जाये।’
-जवाहर लाल नेहरू (21 जून, 1954)
-अशोक पांडे
पहली बार रवि शास्त्री हाय-हाय का उद्घोष करने वाला कोई न कोई दिलजला रहा होगा।
लम्बे कद के खूबसूरत रवि शास्त्री के पीछे लड़कियां दीवानी रहा करती थीं। इन दीवानियों में कई फिल्म अदाकाराएँ और टॉप मॉडल बालाएं भी थीं। शास्त्री के स्टाइल का हाल यह था कि खासी बैकवर्ड जगह होने के बावजूद हमारे हल्द्वानी-काठगोदाम में कम से कम दो ऐसे छैफुट्टे लडक़े थे जिनके बालों का झब्बा उसी के कट का था जिसके सहारे वे खुद को रवि शास्त्री समझते नगर के सभी कन्यादर्शन-केन्द्रों पर रियाज करते पाए जाते और हाईट बढ़ाने के हरसंभव जतन में लगे जमाने भर के टीनेजर लौंडों की डाह का विषय बनते।
हमारे देश में वैसे भी लड़कियों द्वारा लडक़ों को आसानी से घास न डाले जाने की लंबी परम्परा रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि लड़कियों के बीच बेतरह पॉपुलर इस कामयाब खिलाड़ी से जलने वाले किसी लौंडे ने शास्त्री के असफल हो जाने के बाद रवि शास्त्री हाय-हाय का नारा लगाया हो।
यह नारा 1990 के दशक के शुरुआती सालों में एक कल्ट की सूरत अख्तियार कर चुका था।
आप फर्ज कीजिये शारजाह में पाकिस्तान और वेस्ट इंडीज का टेस्ट मैच चल रहा है। खिलाड़ी और दर्शक दोपहर की कड़ी धूप में पसीने से तरबतर हैं। तीन ओवर लगातार मेडन जा चुके हैं और मैच का परिणाम आने की कोई संभावना नहीं है। अचानक कोई हारा हुआ मजनूँ दैवीय प्रभाव में आकर चीख उठता है- ‘रवि शास्त्री हाय-हाय।’
समूचे स्टेडियम में बवाल मच जाता है, लोग खुशी के मारे चीखने लगते हैं, कुर्सियां फेंकी जाने लगती हैं, कोई मैदान की तरफ कोकाकोला का खाली कैन उछाल देता है और मैच खेल रहे खिलाडिय़ों की सूरतों पर अचरज छा जाता है।
ऐसा जलवा था रवि शास्त्री का।
एक इंटरव्यू में रवि शास्त्री कहते हैं कि वे बीमारी के कारण एक मैच नहीं खेल रहे थे और ग्रीनरूम में आराम फरमा रहे थे जबकि समूचा स्टेडियम ‘रवि शास्त्री हाय-हाय’ के नारों से गूँज रहा था। मुझे नहीं लगता पेले या माराडोना तक को ऐसी ख्याति नसीब हुई होगी!
शास्त्री एक जमाने में बहुत अच्छे क्रिकेटर हुआ करते थे और खूबसूरती के लिहाज से संदीप पाटिल से बीस नहीं तो उन्नीस तो ठहरते ही थे। उन्होंने फस्र्ट क्लास क्रिकेट में एक ओवर की छ: गेंदों पर छ: छक्के भी लगाये थे और महान सर गैरी सोबर्स की बराबरी की थी।
रवि शास्त्री भारत के बड़े स्टार बन गए थे ख़ास तौर पर जब उन्हें 1985 में ऑस्ट्रेलिया में हुए बेंसन एंड हेजेज कप में चैम्पियन ऑफ चैम्पियंस घोषित किया गया था। श्रीकांत के साथ उनकी ओपनिंग जोड़ी के चलते उन दिनों भारत सारे मैच जीत जाया करता था।
इसके बाद उन्हें ईनाम में एक कार मिली थी जिस पर बिठाकर उन्होंने अपनी पूरी टीम को मैदान की सवारी खिलाई थी। टीवी पर उस कार को देखने के बाद ही भारत के लोगों को पता चला कि दुनिया में एम्बेसेडर, पद्मिनी और मारुति के अलावा भी कारें होती हैं जो इतनी महंगी होती हैं कि उनका बस सपना ही देखा जा सकता है। छोटे गाँव-कस्बों में लोग पूछते पाए जाते - ‘कित्ते की होगी साली!’
विचार किया जाय कि देश का ऐसा दुलारा हीरो अचानक लोगों की हाय-हाय के सबसे जरूरी निशानों में शुमार हो गया। पहली वजह, जिसके बारे में मेरा अनुमान बहुत ठोस है, मैं आपको बता ही चुका हूँ। दूसरी वजह यह थी कि अपने करियर के अंतिम सालों में शास्त्री ने बैटिंग की लप्पा तकनीक की एक भुस्कैट फॉर्म का ईजाद किया था जिसमें दस में से नौ बार तुक्का नहीं लगता।
फर्ज कीजिये आखिरी के सात ओवर बचे हैं और पांचवां विकेट गिरने के बाद शास्त्री मैदान में आते हैं। कुल 46 रन बनाने को बचे हैं। शास्त्री क्या करेंगे कि पहली ही गेंद पर विकेट छोडक़र लेग स्टम्प के बाहर खड़े हो जाएंगे और कैसी भी गेंद हो उसे लॉन्ग ऑन के ऊपर टांगने के अंदाज में हवा की धुनाई शुरू करेंगे। यह सिलसिला तब तक चलेगा जब तक कि या तो वाकई में छक्का न लग जाए या उनके स्टम्प जमींदोज न हो जाएं। अमूमन वे आउट हो जाते थे और भारत हार जाया करता। ‘रवि शास्त्री हाय-हाय’ कहने वालों को मौका मिल जाता कि अपनी प्रतिभा और देशभक्ति का प्रदर्शन करें और वे ऐसा करते भी।
दुनिया की इतनी सारी क्रूरता के बावजूद मैंने रवि शास्त्री को पसंद किया। साढ़े पांच फुट की अपनी लम्बाई के बावजूद मुझे खुशफहमी थी की उसके जितनी तो नहीं पर नैनीताल नगर की कम से कम आधा दर्जन लड़कियां मुझे अपना रवि शास्त्री समझती थीं। इस लिहाज से रवि शास्त्री मेरा बड़ा भाई था। मेरा फ्रेंड, फिलॉसॉफर एंड गाइड था!
इधर उसकी तोंद निकल आई है जिसके बावजूद हाल तक वह कोहली-शिखर टाइप के छोकरों का कोच बना बैठा था। ईष्र्यालुजन चटखारे ले-ले कर उसकी शराबखोरी के किस्से सुनाया करते हैं। वह अक्सर कमेंट्री करता है। उसकी कमेंट्री को अतिड्रामाई की श्रेणी में रखा जा सकता है जिसमें खूब सूंसूं -फूंफूं की जानी होती है- ‘येस्स्स्स इट्स अ सिक्स्स्स!’
उसकी कमेंट्री सुनते हुए मुझे अक्सर खीझ का दौरा पड़ता है और मैं टीवी बंद कर देता हूँ। इसके बावजूद जब-तब कंधे पर धाप मार कर गले से लग जाने और उससे यह कहने का मन होता है कि आई मिस यू भाई।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के टेक्सास प्रांत में वही हो गया, जो पिछले 250 साल से उसके हर शहर और मोहल्ले में होता रहा है। हर आदमी के हाथ में बंदूक होती है। वह कब किस पर चला दे, पता नहीं चलता। बंदूक का प्रयोग आत्महत्या के लिए तो अक्सर होता ही है लेकिन अमेरिका में कोई हमला ऐसा नहीं गुजरता है, जबकि कहीं न कहीं से सामूहिक हत्या की खबरें न आती हों।
अभी टेक्सास में 18 साल के एक नौजवान ने बंदूक उठाई और अपनी दादी को मार डाला। फिर वह एक स्कूल में गया और वहां उसने दो अध्यापकों और 19 बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। 10 दिन पहले ही न्यूयार्क के एक बड़े बाजार में एक नौजवान ने दस अश्वेत लोगों को मार डाला था। अब से लगभग 53-54 साल पहले जब न्यूयॉर्क की कोलंबिया युनिवर्सिटी में मैं पढ़ता था तो मैं यह देखकर दंग रह जाता था कि वहां बाजार में खरीदी करते हुए या किसी रेस्तरां में खाना खाते हुए भी लोग अपने बेग में या कमर पर छोटी-मोटी पिस्तौल छिपाए रखते थे।
लगभग सभी घरों में बंदूकें रखी होती थीं। इस समय अमेरिका के 33 करोड़ लोगों के पास 40 करोड़ से भी ज्यादा बंदूकें हैं। याने हर परिवार में तीन-चार बंदूकें तो रहती ही हैं। ये क्यों रहती हैं? मुझे मेरे अध्यापकों ने बताया कि बंदूकें रखना अमेरिकी संस्कृति का अभिन्न अंग शुरु से ही है। जब दो-ढाई सौ साल पहले गोरे यूरोपीय लोग अमेरिका आने लगे तो उन्हें स्थानीय ‘रेड इंडियन्स’ का मुकाबला करना होता था। उसके बाद अफ्रीकी अश्वेत लोगों का बड़े पैमाने पर अमेरिका आगमन हुआ तो शस्त्र-धारण की जरुरत पहले से भी ज्यादा बढ़ गई।
इसीलिए अमेरिकी संविधान में जो दूसरा संशोधन जेम्स मेडिसन ने 1791 में पेश किया था, उसमें आम लोगों को हथियार रखने का पूर्ण अधिकार दिया गया था। वह अधिकार आज भी ज्यों का त्यों कायम है। अमेरिका की सीनेट याने वहां की राज्यसभा, जो वहां की लोकसभा याने हाऊस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स से ज्यादा शक्तिशाली है, इस संवैधानिक कानून को कभी खत्म होने ही नहीं देती है।
डेमोक्रेटिक पार्टी के बराक ओबामा और अब जो बाइडन इसके विरुद्ध हैं लेकिन वे कुछ नहीं कर सकते। कन्जर्वेटिव पार्टी के नेता अब भी पुरानी लीक को ही पीट रहे हैं। वे यह क्यों नहीं समझते कि उनकी अकड़ की वजह से औसत अमेरिकी नागरिक का जीवन कितना भयावह हो गया है।
विश्व महाशक्ति होने का दावा करनेवाला अमेरिका अपनी इस हिंसक प्रवृत्ति के कारण सारी दुनिया में कितना बदनाम होता रहता है। अमेरिका की बदनामी उसके ईसाई समाज के लिए भी चिंता का विषय है। अहिंसा और ब्रह्मचर्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करनेवाले ईसा मसीह के बहुसंख्यक ईसाई समाज में हिंसा, बलात्कार और व्यभिचार की बहुतायत क्या उस राष्ट्र की छवि को मलिन नहीं कर रही है? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
खबर है कि 1 जून को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार एक सर्वदलीय बैठक बुला रहे हैं, जो बिहार में जातीय जनगणना की रुप-रेखा तय करेगी। पहले भाजपा इसका विरोध कर रही थी, अब वह भी इस बैठक में शामिल होगी। नीतीश इस सवाल पर दो बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल चुके हैं। जहां तक मोदी का सवाल है, वह जातीय जनगणना के पक्के विरोधी हैं। जब 2010 में जातीय जनगणना के विरुद्ध मैंने दिल्ली में जन-अभियान शुरु किया तो गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने मुझे कई बार फोन किया और हमारे आंदोलन को अपने खुले समर्थन का एलान किया।
उस आंदोलन में कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के अनेक बड़े नेता भी सक्रिय भूमिका अदा करते रहे। सोनिया गांधी ने न्यूयार्क से लौटते ही पहल की और ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ के आग्रह पर जातीय जनगणना रुकवा दी। मनमोहनसिंह की कांग्रेस सरकार ने उन आंकड़ों को प्रकाशित भी नहीं होने दिया, जो हमारे आंदोलन के पहले इकट्ठे हो गए थे। मुझे खुशी है कि नरेंद्र मोदी ने भी अपने प्रधानमंत्री काल में उसी नीति को चलाए रखा।
अब नीतीश जो पहल कर रहे हैं, वह बिहार के लिए नहीं, सारे देश के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। वैसे नेताओं में नीतीश मेरे प्रिय हैं। उन्होंने रेल मंत्री रहते हुए हिंदी के लिए और बिहार में शराबबंदी के लिए मेरे कई सुझावों को तुरंत लागू किया है लेकिन यदि जातीय जनगणना उन्होंने बिहार में करवा दी तो यह बीमारी सारे भारत में फैल जाएगी। कर्नाटक और तमिलनाडु में उसकी असफल कोशिश हो चुकी है। अब छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र की सरकारें भी इसे अपने यहां करवाना चाहती हैं।
यदि सभी प्रांतों में जातीय जन-गणना होने लगी तो भारत की एकता के लिए यह विनाशकारी सिद्ध होगी। जातीय अलगाव मजहबी अलगाव से भी अधिक जहरीला है। 1947 में भारत के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब भारत हजारों-लाखों टुकड़ों में बंट जाएगा। पिछली जनगणना में 46 लाख जातियों और उप-जातियों का पता चला था। एक ही प्रांत में एक ही जाति के लोग अलग-अलग जिलों में अपने आपको उच्च या नीच जाति का मानते हैं। यदि जातीय आधार पर आरक्षण और सुविधाएं बंटने लगीं तो कौन जाति के लोग अपने आपको पिछड़ा या दलित साबित नहीं करना चाहेंगे?
जातीय जन-गणना सामूहिक लूट-खसोट का हथियार बन जाएगी। वैसे देश के कुछ नेता इन आंकड़ों का इस्तेमाल कुर्सी पाने और उसे बचाने के लिए करते ही है। जातीय जनगणना देश के लोकतंत्र को भेड़तंत्र में बदल डालेगी। देश की न्यायपालिका, विधानपालिका और कार्यपालिका में ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में योग्यता की जगह जाति ही पैमाना बन जाएगी। गरीबी दूर करने का लक्ष्य धरा का धरा रह जाएगा।
आज 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन क्या जाति के आधार पर मिल रहा है? नहीं, गरीबी के आधार पर मिल रहा है। जातीय जनगणना हुई तो यह आधार नष्ट हो जाएगा। देश में गरीबी बढ़ेगी। देश के 70 करोड़ से ज्यादा वंचितों का जातीय आरक्षण ने सबसे ज्यादा नुकसान किया है। सिर्फ 5-7 हजार सरकारी नौकरियों की रेवड़ियां बांटकर देश के 80 करोड़ गरीबी की रेखा के नीचे लोगों को उपेक्षा का शिकार क्यों बनाया जाए? जो लोग भारत का भला चाहते हैं, उन्हें जन्मना जातिवाद का डटकर विरोध करना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने दक्षिण-पूर्व एशिया के 12 देशों को अपने साथ जोडक़र एक नया आर्थिक संगठन खड़ा किया है, जिसका नाम है, ‘‘भारत-प्रशांत आर्थिक मंच (आईपीईएफ)’’। तोक्यो में बना यह 13 देशों का संगठन बाइडन ने जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ घोषित किया है। वास्तव में यह उस विशाल क्षेत्रीय आर्थिक भागीदारी संगठन (आरसीईपी) का जवाब है, जिसका नेता चीन है। उस 16 राष्ट्रों के संगठन से भारत ने नाता तोड़ा हुआ है। इसके सदस्य और इस नए संगठन के कई सदस्य एक-जैसे हैं।
जाहिर है कि अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा इतनी तगड़ी है कि अब चीन द्वारा संचालित संगठन अपने आप कमजोर पढ़ जाएगा। बाइडन ने यह पहल भी इसीलिए की है। इस क्षेत्र के राष्ट्रों को जोडऩे वाले ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप संगठन (टीपीपी) से पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपना हाथ खींच लिया था, क्योंकि अमेरिका की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति में इन सदस्य राष्ट्रों के साथ मुक्त-व्यापार उसके लिए लाभकर नहीं था।
अब इस नए संगठन के राष्ट्रों के बीच फिलहाल कोई मुक्त-व्यापार का समझौता नहीं हो रहा है लेकिन ये 13 ही राष्ट्र आपस में मिलकर डिजिटल अर्थ-व्यवस्था, विश्वसनीय सप्लाय श्रृंखला, स्वच्छ आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार मुक्त उद्योग आदि पर विशेष ध्यान देंगे। ये लक्ष्य अपने आप में काफी ऊँचे हैं। इन्हें प्राप्त करना आसान नहीं है लेकिन इनके पीछे असली इरादा यही है कि इस क्षेत्र के राष्ट्रों की अर्थ-व्यवस्थाओं को चीन ने जो जकड़ रखा है, उससे छुटकारा दिलाया जाए। बाइडन प्रशासन को अपने इस लक्ष्य में कहां तक सफलता मिलेगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि वह इन सदस्य-राष्ट्रों को कितनी छूट देगा।
बाइडन-प्रशासन पहले से ही काफी दिक्कत में है। अमेरिका में मंहगाई और बेरोजगारी ने उसकी अर्थव्यवस्था की गति को धीमा कर दिया है और बाइडन प्रशासन की लोकप्रियता पर भी इसका असर पड़ा है। ऐसी हालत में वह इन दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के साथ कितनी रियायत कर पाएगा, इसका अंदाज लगाया जा सकता है। अमेरिका को यह बात तो अच्छी तरह समझ में आ गई है कि शीतयुद्ध काल का वह जमाना अब लद गया है, जब सीटो और सेंटो जैसे सैन्य-संगठन बनाए जाते थे।
उसने चीन से सीखा है कि अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए आर्थिक अस्त्र ही सबसे ज्यादा कारगर है लेकिन अमेरिका की समस्या यह है कि वह लोकतांत्रिक देश है, जहां विपक्ष और लोकतंत्र दोनों ही सबल और मुखर हैं जबकि चीन में पार्टी की तानाशाही है और लोकमत नामक कोई चीज़ वहां नहीं है। जो भी हो, इन दोनों महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता में भारत को तो अपना राष्ट्रहित साधना है।
इसीलिए उसने बार-बार ऐसे बयान दिए हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि भारत किसी (चीन) के विरुद्ध नहीं है। वह तो केवल आर्थिक सहकार में अमेरिका का साथी है। चीन से विवाद के बावजूद उसका आपसी व्यापार बढ़ता ही जा रहा है। इस नए संगठन के जरिए उसका व्यापार बढ़े, न बढ़े लेकिन इसके सदस्य-राष्ट्रों के साथ भारत का आपसी व्यापार और आर्थिक सहयोग निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मंदिर-मस्जिद विवाद पर छपे मेरे लेखों पर बहुत-सी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। लोग तरह-तरह के सुझाव दे रहे हैं ताकि ईश्वर-अल्लाह के घरों को लेकर भक्तों का खून न बहे। पहला सुझाव तो यही है कि 1991 में संसद में जो कानून पारित किया था, उस पर पूरी निष्ठा से अमल किया जाए याने 15 अगस्त 1947 को जो धर्म-स्थान जिस रूप में था, उसे उसी रूप में रहने दिया जाए। उसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाए।
जिस कांग्रेस पार्टी की सरकार ने यह कानून संसद में बनवाया था, वह भी इस बात को जोरदार ढंग से नहीं दोहरा रही है। उसे डर लग रहा है कि यदि वह ऐसा करेगी तो उसका हिंदू वोट बैंक, जितना भी बचा है, वह भी लुट जाएगा। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कांग्रेस की कब्रगाह बन सकता है। तो अब क्या करें? इस समस्या के हल का दूसरा विकल्प यह है कि 1991 के इस कानून को भाजपा सरकार रद्द करवा दे।
यह मुश्किल नहीं है। भाजपा का स्पष्ट बहुमत तो है ही, वोटों के लालच में छोटी-मोटी पार्टियां भी हां में हां मिला देंगी। तो क्या होगा? तब भाजपा सरकार के पास अगले दो-तीन साल तक एक ही प्रमुख काम रह जाएगा कि वह ऐसी हजारों मस्जिदों को तलाशे, जो मंदिरों को तोडक़र बनवाई गई हैं। यह काम ज्यादा कठिन नहीं है। अरबी और फारसी के कई ग्रंथ और दस्तावेज पहले से उपलब्ध हैं, जो तुर्क, मुगल और पठान बादशाहों के उक्त ‘‘पवित्र कर्म’ का बखान करते हैं।
वे धर्मस्थल स्वयं इसके साक्षात प्रमाण हैं। तो क्या इन मस्जिदों को तोडऩे का जिम्मा यह सरकार लेगी? ऐसे अभियान की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं क्या सरकार बर्दाश्त कर सकेगी? इस समस्या का तीसरा विकल्प यह हो सकता है, जैसा कि कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने बयान दिया है कि भारत के सारे मुसलमान उन सभी मस्जिदों का बहिष्कार कर दें और हिंदुओं को सौंप दें ताकि वे उन्हें फिर से मंदिर का रूप दे दें। यह सुझाव तो बहुत अच्छा है।
भारत के मुसलमान ऐसा कर सकें तो वे दुनिया के बेहतरीन मुसलमान मान जाएंगे और वे इस्लाम की इज्जत में चार चांद लगा देंगे लेकिन क्या यह संभव है? शायद नहीं। तो फिर क्या किया जाए? एक विकल्प जो मुझे सबसे व्यावहारिक और सर्वसंतोषजनक लगता है, वह यह है कि यदि मुसलमान मस्जिद को अल्लाह का घर मानते हैं और हिंदू लोग मंदिर को ईश्वर का घर मानते हैं तो अब दोनों घर एक-दूसरे के पास-पास क्यों नहीं हो सकते? क्या ईश्वर और अल्लाह अलग-अलग हैं? दोनों एक ही हैं।
1992 में अयोध्या में बाबरी ढांचे के ढह जाने के बाद जो 63 एकड़ जमीन उसके आस-पास नरसिंहराव सरकार ने अधिग्रहीत की थी, वह मेरा ही सुझाव था। उस स्थान पर अपूर्व एवं भव्य राम मंदिर तो बनना ही था, उसके साथ-साथ वहां पर दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों का संयुक्त धर्म-स्थल भी बनना था। इसी काम को अब देश के कई स्थानों पर बड़े पैमाने पर जन-सहयोग से प्रेमपूर्वक संपन्न किया जा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
भारत के 83 फीसदी पुरुष मांसाहारी हैं। इस देश में 47 फीसदी हिंदू ऐसे हैं जो मांसाहार का सेवन करते हैं। देश की 55 फीसदी शहरी आबादी और 49 फीसदी प्रतिशत ग्रामीण आबादी मांसाहारी है। जैन और हिंदू धर्म के लोगों के बीच पिछले 6 साल में मांस खाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। यहां तक कि देश में हर आयु वर्ग के लोगों में मांसाहार करने वालों की संख्या बढ़ रही है।
नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट कह रही है कि देश में 15 से 49 साल के 84.4 फीसदी पुरुष और 70.6 फीसदी महिलाएं नॉन-वेज खाती हैं। 2015-16 से तुलना की जाए तो नॉन-वेज खाने वाले पुरुषों की संख्या में 5 फीसदी और महिलाओं की संख्या में 0.6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
बंगाल, गोवा और केरल ये तीन राज्य ऐसे हैं जहां मांसाहार करने वालों की संख्या 90 फीसदी या उससे ज्यादा है। पूर्वोत्तर राज्यों में ये आंकड़ा 60 से लेकर 80 के बीच है।
यह कोई नई बात नहीं है। पहले से पता है कि जो राज्य समुद्र के किनारे हैं, जहां हर साल बाढ़ आती है, जहां अनाज की तुलना में मांसाहार आसानी से और सस्ते में उपलब्ध है, वहां के 80 से 90 फीसदी लोग मांसाहारी हैं। जैसे इस वक्त पूर्वोत्तर में बाढ़ के चलते सात से आठ लाख लोग प्रभावित हुए हैं। सब बह गया तो वे मांसाहार के लिए गदर काटने वाले किसी सियासी गधे का मांस तो खाएंगे नहीं। उनके पास अनाज नहीं है तो बाढ़ के पानी से मछली और केकड़ा पकड़ेंगे और खा लेंगे।
अब ऐसे देश में कोई पार्टी, कोई व्यक्ति, कोई नेता अगर शाकाहार और मांसाहार को मुद्दा बनाता हो, खानपान के आधार पर भीड़तंत्र को उकसाता हो, भीड़ को ‘न्याय करने’ की छूट देता हो, मांसाहार का बहाना लेकर उन्माद फैलाता हो तो सोचिए कि वह कितना बड़ा बलंडर आदमी है। या तो वह धूर्त है या फिर ऐसा महाशातिर है जिसके शातिरपन की कोई सीमा नहीं है। सोचिए ये कितने खतरनाक लोग हैं जो लोगों को उनके खानपान की परंपराओं के लिए उन्हें आपस में लड़ाते हैं!
भारत जैसे देश में मध्य मार्ग ही सर्वोत्तम है। जिसको जो खाना हो खाए, जिसको जो पूजना हो पूजे। हम अपना देखें, आप अपना देंखें। जहां आस्था का मसला फंसे वहां सरकार हस्तक्षेप करे और बीच का रास्ता निकाले। लेकिन इस समय भारत में एक चौपट राजाओं ने अंधेर नगरी बसा रखी है। 84 फीसदी मांसाहारियों के देश में 13 फीसदी लोग खाने पीने की आदतों को लेकर उपद्रव करें, यह विशुद्ध गुंडई नहीं तो और क्या है?