दयाशंकर मिश्र

खानाबदोश!
18-Oct-2020 12:49 PM
खानाबदोश!

बच्चे पेड़ के पत्ते नहीं हैं, जो वह पेड़ की मर्जी से ही कदमताल करें। उनका स्वतंत्र जीवनबोध है। इस बात को हम जितनी सरलता से स्वीकार कर लेंगे, हमारे रिश्ते उतने ही महकेंगे।

जीवन में यात्रा का कितना महत्व है। यात्राएं बंद होने पर यह बात समझ में आती है। यात्रा बंद होने का अर्थ हुआ, अब जीवन के तट पर काई जमने लगेगी। जो हमेशा ही चलने को तत्पर है, जीवन का आनंद उसे ही मिलेगा! खानाबदोशी, जीवनशैली है, जिसे हासिल हुई, वही आनंद बता सकता है। अष्टावक्र के दृष्टांत को पढ़ते-समझते हुए ‘खानाबदोश’ शब्द के नए अर्थ मिले। रजनीश कहते हैं, खाना यानी घर और बदोश यानी कंधे पर।

जिसका घर अपने कंधे पर है, वही खानाबदोश। जो खानाबदोश है, वही जीवन का मर्म समझ पाएगा। वह कहते हैं, ठहरना मत यहां, अधिक से अधिक टेंट लगा लेना। लेकिन रुक मत जाना! मनुष्य के रूप में हमें कितनी आजादी और स्वतंत्रता मिली है, यह बात हम स्वयं ही भूल चुके हैं। इसलिए, हम नई-नई जकडऩें तैयार करते रहते हैं। नए-नए बंधन बांधे ही जाते हैं। इन बंधनों को ही हम कामयाबी समझते हैं। जबकि असली कामयाबी है, हमारी चेतना की स्वतंत्रता।

जीवन संवाद को रांची? से एक ई-मेल मिला। पिता राधेश्याम जी ने चिंतित होकर पूछा है, ‘मेरा बेटा मेरे बताए रास्ते पर नहीं चलता। इससे हमारे बीच बहुत मुश्किल हो गई है। समझ में नहीं आ रहा क्या किया जाए! कैसे इस परिस्थिति को संभालूं। सरकारी कर्मचारी हूं, अब रिटायरमेंट नजदीक है, लेकिन बेटा मेरी किसी बात पर राजी नहीं। सोचता हूं रिटायरमेंट से पहले उसकी शादी कर दूं। लेकिन वह तैयार नहीं। मैं चाहता हूं सरकारी नौकरी करे, लेकिन वह अपनी प्राइवेट नौकरी से ही संतुष्ट है। जहां उसे पैसे तो ठीक मिल रहे हैं, लेकिन नौकरी की गारंटी नहीं’!

मैं राधेश्याम जी के प्रश्न के बाद से ही सोच रहा हूं कि संकट क्या है? यह अकेले उनका संकट नहीं है। अधिकांश भारतीय माता-पिता अभी भी अपने बच्चों को उसी चश्मे से देख रहे हैं, जो चश्मा खुद उनकी नजऱ के हिसाब से सही नहीं है। अभिभावक होने का अर्थ यह नहीं कि आप हर वक्त केवल इसी चिंता में घुलते रहें कि आपका बच्चा आपके हिसाब से सपने नहीं बुन रहा। राधेश्याम जी से मैंने कहा, ‘क्या उन्होंने पिता का मनचाहा सपना पूरा किया था? क्या उन्होंने पिता की हर बात मानी थी’।

उन्होंने मजेदार उत्तर दिया, ‘अगर मैं उनका कहा मानता, तो मैं किसान ही बना रहता अफसर नहीं बन पाता’। मैंने कहा, ‘जो आप नहीं कर पाए, उसकी अपेक्षा बेटे से मत करिए’!

खानाबदोशी का अर्थ केवल इतना नहीं है कि हम यहां-वहां टहलते रहें। उससे अधिक यह हर व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतिनिधि विचार है। अपने बच्चों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता देना। जीवन में बहुत बड़ा कदम है, दिखने में छोटा, लेकिन यह मन? में नन्हा पौधा लगाने जैसा है! बड़े से बड़ा वृक्ष भी पौधे से ही तैयार होता है। हम अपने आसपास व्यक्तियों को जितनी स्वतंत्रता दे पाएंगे, और वह उस स्वतंत्रता का जितना सार्थक उपयोग कर पाएंगे, हमारा जीवन उतना ही रचनात्मक होगा।

जीवन को बांधना नहीं है, उसे बहने देना है। कई बार बच्चों पर थोपा गया अत्यधिक अनुशासन उनकी रचनात्मकता के रास्ते रोक लेता है। आत्मविश्वास से उनको आगे नहीं बढऩे देता, क्योंकि सारे निर्णय कोई और कर रहा होता है।

बच्चे पेड़ के पत्ते नहीं हैं, जो वह पेड़ की मर्जी से ही कदमताल करें। उनका स्वतंत्र जीवनबोध है। इस बात को हम जितनी सरलता से स्वीकार कर लेंगे, हमारे रिश्ते उतने ही महकेंगे।
-दयाशंकर मिश्र

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