राजनांदगांव
छुरिया में कांग्रेस की आपसी लड़ाई से गई कुर्सी, भाजपा में खेमेबाजी से निपटाने का खेल
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
राजनांदगांव, 5 जुलाई। मिशन-2023 के लिए भाजपा और कांग्रेस सियासी दांव-पेंच के जरिये सत्ता हथियाने के लिए जोर लगा रहे हैं। लगभग 4 माह बाद प्रस्तावित विधानसभा चुनाव में राजनांदगांव जिले की सियासी हालत कांग्रेस और भाजपा के लिए गुटबाजी परेशानी खड़ी कर रही है। दोनों राजनीतिक दल में गुटबाजी पूरे शबाब पर है।
सत्तारूढ़ कांग्रेस के सांगठनिक नेताओं की स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती चली जा रही है। छुरिया में जिस तरह से एक राजनीतिक घटनाक्रम में कांग्रेस को अपनी अध्यक्ष की कुर्सी गंवानी पड़ी। उससे साफ है कि क्षेत्रीय विधायक छन्नी साहू और जिलाध्यक्ष पदम कोठारी की कोशिशें धरी की धरी रह गई। छुरिया में काफी समय से सियासी उठापटक से आपसी द्वंद बढ़ा, लेकिन जिम्मेदार नेताओं ने बढ़ते विवाद को रोकने की दिशा में दिलचस्पी नहीं ली।
कांग्रेस के भीतर जिला स्तर पर गुटबाजी ने कार्यकर्ताओं को परेशान कर दिया है। वहीं क्षेत्रीय विधायकों की एकला चलो नीति से चुनावी साल में कार्यकर्ताओं को पशोपेश में ला दिया है। अविभाजित राजनंादगांव के सभी 6 सीटों में से 5 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। कांग्रेस विधायकों की अपने कार्यकर्ताओं से दूरी जगजाहिर है। ऐसे में कांग्रेस के भीतर मौजूदा विधायकों को दोबारा टिकट दिए जाने का विरोध भी शुरू हो गया है।
डोंगरगांव विधायक दलेश्वर साहू पर कथित रूप से भाजपा कार्यकर्ताओं को तवज्जो दिए जाने का आरोप लगता रहा है। मोहला-मानपुर विधायक इंद्रशाह मंडावी पर आदिवासी हितों को लेकर लचीला रूख अख्तियार करने का आरोप लगता रहा है। खैरागढ़ विधायक यशोदा वर्मा भी अपने एक साल के कार्यकाल में अपनी कार्यशैली के जरिये छाप छोडऩे में नाकाम साबित रही है। डोंगरगढ़ विधायक भुनेश्वर बघेल पर एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रहे हैं। कांग्रेस संगठन में पदम कोठारी की कार्यशैली को लेकर सवाल उठते रहे हैं। इस तरह राजनांदगांव जिले में कांग्रेस की स्थिति गुटबाजी के लिहाज से बुरे दौर में नजर आ रही है। इस बीच भाजपा की स्थिति भी बेहद खराब है। पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह एकमात्र भाजपा विधायक है। संगठन में कई मामलों में उनसे सलाह लेना भी जरूरी नहीं समझा जा रहा है। मौजूदा जिलाध्यक्ष रमेश पटेल का स्थानीय नेताओं से तालमेल नहीं हो पा रहा है। पूर्व जिलाध्यक्ष मधुसूदन यादव की संगठन के प्रमुख नेताओं से पटरी नहीं बैठ रही है। पार्टी के भीतर दूसरी पंक्ति के नेताओं को सियासी दांव-पेंच में निपटाने का खेल चल रहा है। संगठन द्वारा ज्यादातर कार्यक्रमों में गुटीय लड़ाई स्पष्ट तौर पर नजर आ रही है। 15 साल सत्ता में रही भाजपा सूबे में वापसी के लिए जोर मार रही है, लेकिन आपसी द्वंद के कारण पार्टी की एकता सिर्फ कागजों में ही नजर आ रही है।
2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा नेताओं के आक्रामक रवैये और आपसी खींचतान के कारण अविभाजित राजनांदगांव में 6 में से एकमात्र राजनांदगांव विधानसभा में भाजपा को जीत नसीब हुई। हार के बावजूद पार्टी ने अब तक सबक नहीं लिया। निकाय चुनाव में भी हार का सिलसिला जारी रहा। भाजपा की मौजूदा टीम में कुछ पदाधिकारियों के बर्ताव को लेकर भी कार्यकर्ता आयोजनों से दूर रहने में अपनी भलाई समझ रहे हैं। भाजपा के भीतर बढ़ रही खेमेबाजी ने संगठन की ताकत को एक तरह से कुंद कर दिया है। पार्टी के भीतर जारी वर्चस्व की लड़ाई से यह साफ है कि कांग्रेस को सबक सिखाने से पहले भाजपा को अपनी अंदरूनी सांगठनिक ताकत को दुरूस्त करना होगा।