बलौदा बाजार

लोकसभा की 7 सीटें, 1977 में 11 हुई
04-May-2024 6:18 PM
लोकसभा की 7 सीटें, 1977 में 11 हुई

1971 तक बलौदाबाजार थी लोकसभा सीट, मिनीमाता थीं सांसद

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता

बलौदाबाजार, 4 मई। पहले आम चुनाव से लेकर अब तक 73 साल गुजर चुके हैं इस बार 18वीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहा है। इस लंबी अवधि में चुनावों के तौर तरीकों में आमूलचूल बदलाव आया है।

 पहले बलौदाबाजार लोकसभा सीट हुआ करती थी, समय के साथ लोकसभा की पहचान बदल गई और ये रायपुर लोकसभा में दूसरी पहचान के साथ मौजूद है।

जब पहली बार चुनाव हुए थे, तब छत्तीसगढ़ के अंतर्गत आने वाली लोकसभा की सीट 7 थी।

1997 में बलौदाबाजार सीट बनी थी, जिसमें मिनीमाता पहली बार सांसद बनी थी। इस बार रायगढ़ सीट नहीं थी, 1962 में लोकसभा की 10 सीट थी। इसमें रायगढ़, महासमुंद, राजनांदगांव भी सीट बनी।

1971 में बलौदाबाजार सीट का विलोपन हुआ और कांकेर नई सीट बनी, उसके साथ 1977 में हुए चुनाव में सारंगढ़ के रूप में 11वीं सीट जुड़ी।

आज के चुनाव इलेक्ट्रॉनिक तौर तरीके के हो गए हैं। बड़े राजनीतिक दल सडक़ों पर रैली निकालने के पक्ष में नहीं रहते हैं। अब प्रचार बड़े-बड़े पोस्टर- बैनर्स के माध्यम से हो रहे हैं। बड़ा राजनीतिक दल प्रिंट मीडिया में मुख्य पृष्ठ पर कब्जा जमाए हैं। सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग हो रहा है। प्रत्येक मोबाइल पर प्रचार कर रहे हैं।

पहले हर प्रत्याशी के लिए होती थी मत पेटी

60 के दशक के बाद हुए चुनाव की यादें बहुतों के दिमाग में ताजा है। गांधी चौक निवासी कुंवर सिंह नामदेव बताते हैं कि पहले बूथ में हर प्रत्याशी के चुनाव चिन्ह वाली अलग-अलग मत पेटी हुआ करती थी। बैलेट पेपर के नाम पर बिना नाम व चिन्ह वाला प्लेट कार्ड होता था, जिसे मतदाता चुनाव चिन्ह देखकर पेटी में डाल देता था।

प्रचार के लिए बच्चों को चॉकलेट

देकर इकठ्ठा करते थे

समय के साथ सब कुछ बदल गया, अब चुनाव में प्रचार महत्वपूर्ण हो गया। चुनाव के समय बच्चे, युवा, महिला, पुरुष सब चुनाव का हिस्सा बन जाते थे। पहले बच्चों में प्रत्याशी के नाम के बिल्ले जमा करने का शौक होता था। बच्चों को कोई भी पार्टी चुनाव प्रचार के लिए चॉकलेट देकर इक_ा कर लिया करती थी। भीड़ और नारे ये उस समय प्रचार-प्रसार का माध्यम थे। महिलाओं को मजदूरी दर के हिसाब से इकठ्ठा कर लिया जाता था और हाथों में तख्तियां देकर नारे लगाते हुए शहर की गलियों में घुमा दिया जाता था।

कोई स्टार प्रचारक आया तो शक्ति प्रदर्शन के लिए ट्रैक्टर बसों में भरकर गांव-गांव से लोगों को इक_ा कर लिया जाता था।

इधर मतदान प्रक्रिया में बदलाव आया, अब विधिवत मत पत्र प्रत्याशी के नाम पर चुनाव चिन्ह के साथ छपने लगे।

1999 में ईवीएम ने प्रवेश किया, इससे मतपेटिया लूटने की योजनाएं समाप्त हो गई। प्रत्याशी के चुनाव परिचय की सीमा तय हुई। चुनाव में पहचान पत्र की शुरुआत की, वोटर आईडी का महत्व बढ़ा।

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