सरगुजा

शोध संगोष्ठी में प्राचीन लोक वाद्यों की दी प्रस्तुति
21-Feb-2021 8:34 PM
 शोध संगोष्ठी में प्राचीन लोक वाद्यों की दी प्रस्तुति

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता

अम्बिकापुर, 21 फरवरी। संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व छत्तीसगढ़, रायपुर द्वारा सरगुजा के इतिहास एवं संस्कृति से जुड़े लोकगीत, किंवदंतियां एवं लोकगाथाओं पर आधारित संभाग स्तरीय दो दिवसीय संगोष्ठी शोध संगोष्ठी 19-20 फरवरी  तक पुरातत्व संग्रहालय अंबिकापुर में आयोजित किया गया। जिसमें जिला पुरातत्व संघ सूरजपुर के सदस्य अजय कुमार चतुर्वेदी, राज्यपाल पुरस्कृत व्याख्याता ने सरगुजा अंचल की लोक संस्कृति से जुड़े लोकगीत और लोक वाद्य विषय पर शोध पत्र पढ़ा और अपनी खोज से 77 प्राचीन लोक वाद्यों के फोटोग्राफ और आवाज सुनाकर पावर प्वाइंट के माध्यम से जानकारी दी।

अजय कुमार चतुर्वेदी ने बताया कि सरगुजा अंचल में अनेक प्रकार के लोक वाद्य प्रचलित थे, जो अब आधुनिकता की आड़ में विलुप्त हो गये या फिर विलुप्ति के कगार पर हैं। यहां के लोक वाद्यों को देखने -सुनने से ऐसा लगता है कि प्राचीन नाम सुरगुजा यहाँ की पारंपरिक और सुरीली आवाजों की ही देन है। यहां के लोग अपने पारंपरिक लोक वाद्यो से लैश होकर मनोहारी सुरों का गुंजन करते हैं। यही सुरों की गुंजन से (सुर+गुंजा) सुरगुंजा बना। इसी का अपभ्रंश वर्तमान में सरगुजा प्रचलित है। सरगुजा जि़ले में संगीत का प्रयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। यहां ऐसे लोक वाद्यों का प्रयोग किया जाता था। जिससे देवी-देवताओं और मनुष्य के अलावा शेर जैसे जंगली जानवर भी रिझा करते थे।

घुमरा वाद्या से बाघ के गरजने जैसी आवाजें निकलती है। सरगुजावासी अपने अनोखे वाद्य-यंत्रों से लैस होकर राजाओं के साथ शिकार पर जाया करते थे। शिकारी बाजे के साथ झुमका खेलकर जंगली जानवरों को रिझाया करते थे।सरगुजा में शेर जैसे जंगली जानवरों को रिझाने वाला वाद्य यंत्र शिकारी बाजा (झुन्का) है। तथा घुमरा बाजे की आवाज से शेर जैसे जंगली जानवरों को भगाया जाता था।इन वाद्य यत्रों का प्रयोग कर किसान लोग अपने खते की रखवाली करते थे। लोक वाद्य प्राय: हांथ, पैर, मुंह, नाक से बजाया जाता है। किंतु सरगुजा अंचल में एक ऐसा अनोखा विलुप्त दुर्लभ लोक वाद्य ढ़ोंक प्रचलित था, जिसे हांथ और पेट से बजाया जाता है। यहां वाद्ययंत्रों को जन्म, विवाह एवं मृत्यु संस्कार, त्यौहार, खेल, कृषि, मनोरंजन, गंवसज्जी, शिकार, पूजा-पाठ, देवारी, जागरूकता, प्रचार-प्रसार और फसल होने के अवसर पर बजाये जाते हैं।

सरगुजा संभाग मुख्याल के पुरातत्व संग्रहालय अंबिकापुर में इतिहास एवं संस्कृति से जुड़े लोकगीत, किंवदंतियां एवं लोकगाथा पर आयोजित शोध संगोष्ठी में अजय चतुर्वेदी द्वारा संकलित प्राचीन लोक वाद्यों के साथ मनमोहक पारंपरिक सरगुजिहा लोकगीतों की प्रस्तुति ने दर्शकों भाव विभोर कर दिया। प्रस्तुत प्राचीन लोक वाद्यों में पेट से बजाने वाला ढ़ोंक, शेर को रिझाने वाला झुनका (शिकारी बाजा) , मां देवी को प्रसन्न करने वाला डमफा, फूंक वाद्य महुवेर, तार वाद्य किंदरा, झंकार वाद्य केरचों और ताल वाद्य मृदंग को शामिल किया गया था।

वादक कलाकारों में पारंपरिक लोकवाद्य कला मंच के हेमंत कुमार आयम,अजय चतुर्वेदी,संतोष कुमार आयम,जलजीत,दीलबोध, हीराधन रहे। अजय चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल के इतिहास, पुरातत्व, लोक संस्कृति, लोक गीत, लोक वाद्य, लोक कला, सरगुजिहा बोली पर अनेंक राष्ट्रीय एव अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में प्रस्तृत दिया है। इनके खोजे प्राचीन लोक वाद्यों पर आकाशवाणी अंबिकापुर द्वारा 14 कडिय़ों में धारावाहिक रूपक सरगुजा अंचल के पारंपरिक लोक वाद्य प्रस्तुत किया जा चुका है।

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