राजपथ - जनपथ
एयरपोर्ट तक सफर और बेवकूफी
जो लोग देश की राजधानी दिल्ली से हवाई अड्डे के रास्ते सफर करते हैं, वे अगर पूरे रास्ते बाकी गाडिय़ों को देखें, और एयरपोर्ट तक के रास्ते को देखें तो समझ आता है कि दिल्ली में इतना प्रदूषण क्यों है। और यह बात महज दिल्ली की नहीं है, जिस-जिस शहर में एयरपोर्ट है, उन तमाम शहरों में यह बात देखने में मिलती है कि एक-एक मुसाफिर को छोडऩे के लिए बड़ी-बड़ी गाड़ी एयरपोर्ट आती-जाती है। औसतन हर मुसाफिर के लिए 50 से 100 किलोमीटर का सफर एक गाड़ी आने-जाने में करती है। एक मामूली सी समझदारी यह हो सकती है कि शहर और एयरपोर्ट के बीच, शहर के करीब कोई ऐसी खुली जगह तय कर दी जाए जहां से बसें सामान सहित लोगों को एयरपोर्ट ले जा सके, और कारें वहीं से शहर लौट जाएं। इसी तरह वे बसें लौटते में आए हुए मुसाफिरों को ऐसी जगह तक ले आएं जहां से लोग अपनी निजी कार या टैक्सी से बाकी रास्ता तय कर सकें। दिल्ली में तो यह लगता है कि ऐसी दो-तीन जगहें बनाई जा सकती हैं जिनसे हर कार के 20-25 किलोमीटर का सफर घट सकता है। अभी तक हिन्दुस्तान के किसी शहर में ऐसा देखने-सुनने में आया नहीं है कि एयरपोर्ट तक का लंबा रास्ता घटाकर शहर के किनारे एक बस स्टैंड ऐसा बनाया जाए जहां से आगे लोगों का जाना एक साथ हो सके, सड़कों पर गाडिय़ां घटें, ईंधन घटे, और प्रदूषण भी घटे। खर्च की फिक्र तो किसी को है नहीं!
टेक्नालॉजी और टोटका
दिल्ली पर ही एयरपोर्ट के ठीक पहले जो आखिरी रेडलाईट पड़ता है, उस पर सुबह-सुबह से बहुत से बच्चे थमी हुई गाडिय़ों को नींबू और मिर्च का टोटका बेचते दिखते हैं। हर कार के शीशे खटखटाते हुए वे अंधविश्वास की दहशत को दुहते हैं, और अपना पेट भी पालते हैं। अब टेक्नालॉजी के एक बड़े इस्तेमाल, हवाई सफर के पहले भी अगर ऐसा टोटका बिक रहा है, तो टेक्नालॉजी का क्या मतलब? और फिर यह भी कि जाने वाले मुसाफिर नींबू-मिर्च को ले जाकर कहां बांधेंगे? हवाई जहाज पर किसी जगह बांधेंगे, या पायलट के गले में? ([email protected])
मुख्यधारा में वापिसी
आखिरकार अजय सिंह मुख्य धारा में लौट आए। सरकार ने उन्हें चीफ सेक्रेटरी के पद से हटाकर राजस्व मंडल भेज दिया था। सीएम भूपेश बघेल उनकी कार्यशैली से नाखुश थे। बघेल से पहले रमन सिंह भी अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में नियामक आयोग अध्यक्ष पद पर नियुक्ति में देरी को लेकर अजय सिंह से नाराज थे। खैर, अजय सिंह ने सीएस पद से हटाने के फैसले को चुपचाप स्वीकार कर लिया और नई जिम्मेदारी संभाल ली। मगर सुनील कुजूर के रिटायरमेंट के चलते नए सीएस के नामों पर चर्चा चली, तो अजय सिंह रेस में आ गए थे।
चूंकि उनका रिटायरमेंट सिर्फ चार महीने रह गया था, इसलिए आरपी मंडल को सीएस की जिम्मेदारी दी गई, ताकि मंडल को काम करने का पूरा अवसर मिल सके। अजय सिंह ठहरे, खालिस छत्तीसगढिय़ा। सरकार ने उन्हें निराश नहीं किया और अहम जिम्मेदारी देने का फैसला लिया। अजय सिंह को राज्य योजना आयोग का उपाध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया है। अजय सिंह रिटायरमेंट के बाद भी इसी पद पर रहेंगे। उनसे पहले योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर सीएस रह चुके शिवराज सिंह और सुनील कुमार भी काम कर चुके हैं। कुल मिलाकर अजय सिंह की ससम्मान वापसी हुई है।
बिगड़ा करियर पटरी पर
पूर्व सीएस अजय सिंह की तरह डॉ. आलोक शुक्ला की भी प्रशासनिक महकमे में ससम्मान वापसी हुई है। आईएएस के 86 बैच के अफसर डॉ. शुक्ला नान घोटाले में फंसे रहे और कुछ दिन पहले ही उनकी अग्रिम जमानत हुई है। पिछली सरकार ने चार साल तक उनके खिलाफ जांच को लटकाए रखा। इन सबके चलते उनका पूरा कैरियर तकरीबन तबाह हो गया। वे अभी तक प्रमुख सचिव हैं जबकि वरिष्ठता क्रम में उनसे जूनियर उन्हीं के बैच के अफसर सुनील कुजूर सीएस बनकर रिटायर हुए।
आलोक शुक्ला को कभी पूरे छत्तीसगढ़ कैडर का एक सबसे होशियार अफसर माना जाता रहा है। कम से कम उनके साथ काम कर चुके राज्य के दो पूर्व सीएस तो ऐसा ही मानते हैं। शुक्ला ने अपनी योग्यता साबित भी की। छत्तीसगढ़ की पीडीएस व्यवस्था को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री अवार्ड से नवाजा जा चुका है। जोगी सरकार में स्वास्थ्य सचिव के रुप में उनके कामकाज की सराहना हुई थी।
चुनाव आयोग में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। अब भूपेश सरकार ने उनके पिछले रिकॉर्ड और उनके खिलाफ चल रहे मामले की समीक्षा करने के बाद उनकी मंत्रालय में वापसी का फैसला लिया। उन्हें प्लानिंग के साथ-साथ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रमुख सचिव के अलावा छत्तीसगढ़ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के डीजी का भी अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया है।
आलोक शुक्ला के रिटायरमेंट में 8 महीने बाकी है। सुनते हैं कि वे खुद कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते थे। वे अपना कैरियर चौपट मानकर चल रहे थे और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी आना-जाना छोड़ दिया था, मगर सीएम की समझाइश के बाद उन्होंने नई जिम्मेदारी स्वीकार कर ली। जो लोग उन्हें नजदीक से जानते हैं उनका मानना है कि आलोक शुक्ला कम समय में भी बहुत कुछ करने की क्षमता रखते हैं।
रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज और सत्ता का गृह नक्षत्र
छत्तीसगढ़ सरकार में रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज (वर्तमान में एनआईटी) के पूर्व छात्रों का दबदबा बना है। राज्य के प्रशासनिक मुखिया आरपी मंडल रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। कॉलेज में उनसे एक साल जूनियर राकेश चतुर्वेदी वन विभाग के मुखिया हैं। मंडल के कॉलेज में सहपाठी राजेश गोवर्धन वन विकास निगम के एमडी हैं। यह भी संयोग है कि एडीजी (इंटेलिजेंस) संजय पिल्ले भी रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से स्नातक हैं और वे अगले कुछ दिनों में डीजी के पद पर प्रमोट हो जाएंगे। संजय पिल्ले के ही कॉलेज के सहपाठी अतुल शुक्ला वर्तमान में पीसीसीएफ (वाइल्ड लाइफ) के पद पर हैं।
यही नहीं, नया रायपुर को बसाने में अहम भूमिका निभाने वाले एपीसीसीएफ (वर्तमान में निलंबित) श्याम सुंदर बजाज भी रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से स्नातक हैं। पिल्ले, शुक्ला और बजाज कॉलेज में एक ही बैच के हैं। वह दौर छात्र राजनीति का था। इस दौरान प्रदेश में सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता शैलेश नितिन त्रिवेदी ने भी रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की। वे संजय पिल्ले के सहपाठी हैं। और वर्ष-82 में इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे। यानी वे मौजूदा सभी अफसरों के नेता रहे हैं।
रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से ही एपीसीसीएफ संजय शुक्ला ने भी सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री हासिल की है और वे अगले कुछ दिनों में पीसीसीएफ के पद पर प्रमोट हो जाएंगे। संजय शुक्ला से कॉलेज में एक साल जूनियर सुधीर अग्रवाल और तपेश झा वर्तमान में एपीसीसीएफ के पद पर हैं। दिलचस्प बात यह है कि छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी प्रशासनिक सेवा में आने से पहले रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में कुछ समय अध्यापन कर चुके हैं।
इंजीनियरिंग कॉलेज के ठीक सामने साइंस कॉलेज से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और प्रदेश में सबसे ज्यादा समय तक मुख्य सचिव रहे और वर्तमान में रेरा चेयरमैन विवेक ढांड भी पढ़कर निकले हैं। साइंस कॉलेज के बगल में स्थित आयुर्वेदिक कॉलेज से डॉ. रमन सिंह ने डॉक्टरी की डिग्री हासिल की। और वे 15 साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे। सरकार के दो मंत्री डॉ. प्रेमसाय सिंह और डॉ. शिवकुमार डहरिया भी आयुर्वेदिक कॉलेज से पढ़कर निकले हैं। कुल मिलाकर इस इलाके का गृह नक्षत्र कुछ ऐसा है कि प्रदेश की सत्ता इस आधा किमी के दायरे से निकली है।
स्कूल के साथी
यह भी संयोग है कि राज्य के प्रशासनिक मुखिया आरपी मंडल और राज्य पॉवर कंपनी के चेयरमैन शैलेन्द्र शुक्ला बिलासपुर के शासकीय गवर्नमेंट हाईस्कूल से पढ़कर निकले हैं। मंडल और शैलेन्द्र शुक्ला के साथ वन विकास निगम के एमडी राजेश गोवर्धन व ग्रामोद्योग सचिव हेमंत पहारे भी थे। ये सभी स्कूल के दिनों के साथी हैं और पहली से 11वीं कक्षा साथ पढ़ाई की।
यह भी दिलचस्प है कि राज्य के वन मुखिया राकेश चतुर्वेदी और पीसीसीएफ (वाइल्ड लाइफ)अतुल शुक्ला ने रायपुर के सेंटपॉल्स स्कूल से पढ़ाई की है। यह भी संयोग है कि चतुर्वेदी के पिताजी, अतुल शुक्ला के शिक्षक रहे हैं। चतुर्वेदी के पिताजी सेंटपॉल्स स्कूल में अध्यापक थे। इससे परे अतुल शुक्ला के पिता, राकेश चतुर्वेदी के इंजीनियरिंग कॉलेज में शिक्षक रहे हैं। अतुल शुक्ला के पिता इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक थे। खास बात यह है कि अहम पदों पर काबिज ये सारे अफसर एक-दूसरे से पुराने परिचित होने के कारण आपसी तालमेल बहुत अच्छा है।
पीताम्बरा पीठ
दूर दराज से लोग अपनी मनोकामना लेकर दतिया स्थित पीताम्बरा पीठ जाते हैं। पीताम्बरा देवी के मंदिर में छत्तीसगढ़ के कई नेता-अफसर और आम लोग भी अक्सर मत्था टेकने जाते हैं। इससे परे रायपुर में भी एक 'पीताम्बराÓ भवन काफी चर्चित हो रहा है। पीताम्बरा उद्योग भवन के मालिक कांग्रेस के एक बड़े नेता हैं और चर्चा है कि उनकी सरकार के अलग-अलग विभागों में ठेका-सप्लाई आदि में अहम भूमिका रहती है। सुनते हैं कि नेताजी पहले पार्टी दफ्तर में बैठते थे, लेकिन इससे पार्टी के नेता ही नाखुश थे। पार्टी नेताओं की नाराजगी को देखकर उन्होंने ठिकाना बदल दिया है। अब सिविल लाईन में एक भवन किराए से लिया है। पीताम्बरा नाम से चर्चित इस भवन में ठेकेदारों-सप्लायरों, उद्योगपतियों की भीड़ अक्सर देखी जा सकती है। नेताजी की कृपा से इन सब की मनोकामना पूरी होने लगी है। लिहाजा, लोगों ने हंसी-मजाक में पीठ का दर्जा दे दिया है।
गांवों में नो प्लास्टिक का हाल
कल गुरुवार को किसी के यहां शोक प्रकट करने पाटन के एक गांव जाना हुआ। बाइक पर सवार जाते हुए पाटन रोड पर ही स्थित ग्राम अमेरी के मोड़ के समीप शराब दुकान पर नजर पड़ी। शराब दुकान का प्रांगण तो बड़ा था ही, उसके सामने पगडंडी या छोटी मुरुम वाली कच्ची सड़क के पार करीब 5 एकड़ से ज्यादा का खुला मैदान (भाठा) दिखा, यह खुला मैदान भी घास की बजाय प्लास्टिक डिस्पोजल और चखना आइटम्स के खाली पैकेट्स से पटा हुआ था।
तस्वीर में देखी जा सकती है कि जहां तक नजर आ रहा है वहां तक प्लास्टिक कचरा पटा हुआ है। शहरों में तो राज्य सरकार कथित नो प्लास्टिक अभियान चला रहे हैं लेकिन गांवों की स्थिति यह तस्वीर बयान कर रही है, वह भी मुख्यमंत्री के इलाके की तस्वीर, जिस सड़क से आए दिन लालबत्ती गाडिय़ां और सरकारी अमला रफ्तार से निकल जाता होगा। इन इलाकों में गाय के खाने के लिए घास आसानी से उपलब्ध है या यह प्लास्टिक कचरा, यह भी तस्वीर बता रही है।
इन तस्वीरों से अंदरुनी इलाकों में नो प्लास्टिक अभियान का असल हाल समझा जा सकता है। (तस्वीर और टिप्पणी ब्लॉगर संजीत त्रिपाठी)
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बृजमोहन-मूणत में समझौता...
खबर है कि रायपुर नगर निगम चुनाव के चलते पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल और राजेश मूणत ने हाथ मिला लिया है। भाजपा की गुटीय राजनीति में दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी माने जाते हैं। मगर अब प्रदेश में पार्टी की सरकार नहीं रह गई है, तो ऐसे में दोनों ने एक-दूसरे का सहयोग करने की ठानी है। सुनते हैं कि समझौते की अहम कड़ी बृजमोहन अग्रवाल के भाई विजय अग्रवाल हैं। जिन्हें राजेश मूणत ने रायपुर पश्चिम के स्वामी आत्मानंद वार्ड से प्रत्याशी बनाने पर सहमति दे दी है।
स्वामी आत्मानंद वार्ड भाजपा का गढ़ माना जाता है और वर्तमान में यहां से त्रिपुरा के राज्यपाल रमेश बैस के भतीजे सनत बैस पार्षद हैं। इस वार्ड में अग्रवाल-जैन समाज के लोग निर्णायक भूमिका में हैं। ऐसे में भाजपा के लोग मान रहे हैं कि विजय अग्रवाल को चुनाव जीतने में दिक्कत नहीं आएगी। अब समस्या सनत बैस की है, जिनके लिए अगल-बगल का कोई वार्ड देखा जा रहा है।
सनत मेहनती है और वे सक्रिय भी रहे हैं। ऐसे में उन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल भी हो रहा है। लेकिन विजय अग्रवाल को प्रत्याशी बनाने से मूणत समर्थकों को बड़ा फायदा नजर आ रहा है। मूणत से जुड़े लोग मानते हैं कि रायपुर पश्चिम में विधानसभा चुनाव में अग्रवाल समाज से जुड़े लोग मूणत के साथ नहीं थे। इसका चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा। अब विजय रायपुर पश्चिम में सक्रिय रहेंगे, तो विधानसभा चुनाव में अग्रवाल वोटों को साधने में मदद मिलेगी। फिलहाल, चुनाव की घोषणा से पहले ही पार्टी में कई समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं।
भाजपा में उपेक्षित हैं भसीन?
वैशाली नगर के भाजपा विधायक विद्यारतन भसीन काफी दुखी हैं। वजह यह है कि पार्टी में संगठन चुनाव चल रहे हैं और उन्हें कोई पूछ नहीं रहा है। सुनते हैं कि वैशाली नगर के मंडलों में राज्यसभा सदस्य सुश्री सरोज पाण्डेय के भाई राकेश पाण्डेय के समर्थक काबिज हो गए हैं। राकेश पाण्डेय खुद विधानसभा टिकट के दावेदार थे, लेकिन पार्टी ने उनकी जगह विद्यारतन भसीन को प्रत्याशी बना दिया। भसीन दुर्ग जिले से भाजपा के अकेले विधायक हैं। कहा जा रहा है कि भसीन ने संगठन चुनाव से उन्हें पूरी तरह अलग-थलग करने की शिकायत प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी से की है।
मगर उसेंडी की दिक्कत यह है कि उनकी भी कोई सुन नहीं रहा है। उनके अपने कांकेर जिले में चुनाव में गड़बड़ी के विरोध में कार्यकर्ता पार्टी छोडऩे की तैयारी कर रहे हैं। बस्तर से लेकर सरगुजा तक संगठन चुनाव में गड़बड़ी की शिकायतें आई है, लेकिन नाराज कई बड़े नेता नगरीय निकाय चुनाव को देखते हुए ज्यादा कुछ नहीं कह रहे हैं। चुनाव के बाद विवाद खुलकर सामने आ सकता है। ([email protected])
शहर छोड़ देना ठीक है...
गणेश और दुर्गा के वक्त लाऊडस्पीकरों का शोर इतना अधिक हुआ कि हाईकोर्ट से लेकर जिले के अफसरों तक ने बहुत से कागज रंग डाले, लेकिन अराजकता इतनी फैल गई है कि इनमें से कोई भी रंग लोगों पर नहीं चढ़ा, और बाद के दूसरे त्यौहारों में भी लोगों का जीना हराम होते रहा। किसी उर्स या मजार की चादर को भी इतने लाऊडस्पीकरों के साथ निकाला गया, साथ में सड़क में ऐसा हंगामा होते रहा कि देश में हिंदू और मुस्लिम एक सरीखे हैं, यह साबित करने की होड़ लगी रही। और फिर मानो हाईकोर्ट का मुंह चिढ़ाने के लिए दीवाली के तीन दिन संपन्न इलाकों में इतनी देर रात तक इतने तेज धमाके करने वाले पटाखे फोड़े गए कि लोगों का जीना हराम हो गया। यह बात साफ है कि हाईकोर्ट हो या सुप्रीम कोर्ट, इनका कोई हुक्म तभी तक हुक्म है जब तक वह किसी धर्म या धार्मिक त्यौहार, किसी जाति या सम्प्रदाय को छूने वाला न हो। अगर इनमें से किसी को कानून समझाने की कोशिश की जाती है, तो भीड़ जजों और अदालतों को उनकी औकात समझा देती है। और नेताओं-अफसरों में तो किसी धार्मिक-गुंडागर्दी को छूने की हिम्मत है नहीं। ऐसे में त्यौहारों के मौके पर लोग शहर छोड़कर कहीं जा सकें, तो ही बेहतर है, पड़ोस की गुंडागर्दी पर कोई पुलिस को बुलाने की कोशिश भी करे, तो भी कौन पुलिस आ जाएगी?
आखिर पदोन्नति की ओर
आखिरकार सरकार ने पीसीसीएफ के दो अतिरिक्त पद स्वीकृत कर केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेज दिए हंै। केंद्र की मंजूरी के बाद डीपीसी होगी और सीनियर एपीसीसीएफ संजय शुक्ला और आरबीपी सिन्हा को पीसीसीएफ बनाने के प्रस्ताव पर मुहर लग सकती है। सुनते हैं कि सीएम पहले पीसीसीएफ के अतिरिक्त पद बढ़ाने के पक्ष में नहीं थे, बाद में उन्होंने वन मंत्री के सुझाव को मान लिया। पिछली सरकार में संजय शुक्ला पॉवरफुल थे, लेकिन सरकार बदलते ही हाशिए पर चले गए। काफी दिनों तक उनके पास कोई काम नहीं था। बाद में लघु वनोपज संघ में एडिशनल एमडी के पद पर पदस्थ किया गया। उन्होंने थोड़े ही समय में संघ की बेहतरी के लिए काफी कुछ काम किया। वनवासियों से तेंदूपत्ता संग्रहण से लेकर वनोपज की खरीदी संघ के मार्फत होती है। ये सब सरकार की प्राथमिकता में है। संजय वनोपज से जुड़े उद्योग लगवाने की दिशा में कोशिश करते दिख रहे हैं। ये सब सरकार की नजर में आया, तो पीसीसीएफ के अतिरिक्त पद भी मंजूर हो गए। संजय के साथ-साथ आरबीपी सिन्हा भी पीसीसीएफ बन जाएंगे। ([email protected])
तोहफे का मौसम
दीवाली के मौके पर गिफ्ट लेने-देने का चलन है। चुनाव के आसपास दीवाली होने पर इसका चलन बढ़ जाता है। प्रदेश में नगरीय निकाय के चुनाव होना है। यह देखते हुए टिकट के दावेदारों ने अपने मतदाताओं को खुश करने के लिए दिल खोलकर गिफ्ट बांटे। रायपुर दक्षिण के एक वार्ड में तो कांग्रेस टिकट के एक दावेदार ने अपने वार्ड के तकरीबन हर घर में कुछ न कुछ गिफ्ट भेजा। कई वार्डों में चुनाव लडऩे के इच्छुक लोगों ने खुलकर खर्च किए।
सुनते हैं कि गिफ्ट-लिफाफे के चक्कर में एक मंत्री बंगले में कुछ मीडिया कर्मियों के साथ कहा-सुनी की भी बात सामने आई है। सरकार के कई अफसर तो कुछ मीडिया कर्मियों से काफी परेशान रहे। ये लोग पिछली सरकार की परंपराओं का हवाला देकर लिफाफे के लिए दबाव बनाते रहे। अफसर उन्हें समझाते नजर आए कि इन्हीं सब कारनामों की वजह से पिछली सरकार के कई अफसरों के खिलाफ ईओडब्ल्यू में प्रकरण चल रहा है। मीडिया जगत में इस तरह की बातें पिछले कुछ सालों में देखने को मिली हंै।
एक समय ऐसा भी था जब मीडिया में लिफाफा संस्कृति के लोग नहीं थे। राज्य बनने के ठीक पहले दीवाली के मौके पर तो एक आबकारी अफसर उस समय के एक बड़े अखबार के संपादक दिवंगत बबन प्रसाद मिश्रा के पास गए। अफसर ने हैरानी जताई कि दीवाली के मौके पर शहर का कोई भी पत्रकार उनसे लिफाफा लेने नहीं आया जबकि इससे पहले वे जिस भी शहर में रहे हैं, वहां त्यौहार के मौके पर मीडिया कर्मी लिफाफा लेने पहुंच जाते हैं। अफसर ने स्वर्गीय मिश्रा के सामने रायपुर के मीडिया कर्मियों की ईमानदारी की जमकर तारीफ भी की। लेकिन जैसे-जैसे मीडिया का स्वरूप बदला है, प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया की सक्रियता बढ़ी है। कई लोग लिफाफा संस्कृति मेें चले गए हैं। इससे नेताओं और अफसरों को भी परेशानी उठानी पड़ रही है। हालांकि लोगों का मानना है कि दूसरे कई प्रदेशों के मुकाबले छत्तीसगढ़ का मीडिया अब भी बेहतर है। ([email protected])
सुनील सोनी का धंधा अच्छा चला
सांसद बनने के बाद सुनील सोनी की पहली दीवाली काफी खुशियां लेकर आई। सुनील सोनी का ज्वेलरी का पुश्तैनी कारोबार है। सक्रिय राजनीति में होने के बावजूद वे सारा काम छोड़कर हर धनतेरस के दिन पूरे समय अपने सदर बाजार स्थित ज्वेलरी दुकान में बैठते हैं। इस बार भी वे सुबह से ही ज्वेलरी दुकान में पहुंच गए थे। धनतेरस की सुबह से ही ग्राहकों की भीड़ उनके दुकान में देखी गई। खुद सुनील सोनी ग्राहकों को ज्वेलरी दिखाते नजर आए। इस बार खरीददारी करने बड़ी संख्या में भाजपा नेता भी पहुंचे थे।
चूंकि नगरीय निकाय चुनाव जल्द होना है और टिकट वितरण में सांसद होने के नाते सुनील सोनी की भूमिका अहम रहेगी। ऐसे में भाजपा पार्षद टिकट के दावेदारों को सुनील सोनी को रिझाने का एक अवसर भी मिल गया। टिकट के बहुत से दावेदार उनके दुकान पहुंचे और चांदी का सिक्का खरीदकर गए। पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल भी देर रात अपनी पत्नी के साथ सुनील सोनी के दुकान पहुंचे और खरीददारी की। खुद सुनील सोनी ने सोशल मीडिया में लिखा है कि धनतेरस में उन्होंने अच्छा व्यवसाय किया। इस साल अधिक ग्राहक आए, इसके लिए उन्होंने सबको बधाई भी दी।
बृजमोहन के करीबी निराश
सरकार जाने के बाद भाजपा नेताओं की दीवाली इस बार थोड़ी फीकी दिख रही है। 15 साल तक मंत्री रहे बृजमोहन अग्रवाल की दीवाली हमेशा चर्चा में रही है। बृजमोहन को उदार नेता माना जाता है और वे त्योहार के मौके पर अपने लोगों को खुशियां मनाने का मौका देना नहीं छोड़ते हैं। सालों से उनके यहां से भारी-भरकम तोहफे पार्टी के छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं, अफसरों और मीडिया से जुड़े लोगों तक पहुंचते रहे हैं। ये अलग बात है कि उनकी दरियादिली से उनके विभाग के लोग ज्यादा परेशान रहते थे। अब जब वे सरकार का हिस्सा नहीं रह गए हैं, तो स्वाभाविक तौर पर दीवाली के मौके पर पहले जैसी दरियादिली दिखाना मुश्किल है। इससे उनसे जुड़े लोग थोड़े मायूस हैं।
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एक बार और हार की तकलीफ
चित्रकोट में बड़ी जीत के बाद भी प्रदेश कांग्रेस के रणनीतिकार मायूस हैं। वजह यह है कि प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया के पुत्र तनुज पुनिया बाराबंकी जिले की विधानसभा सीट से बुरी तरह हार गए। वे तीसरे स्थान पर रहे। जबकि साधन-संसाधन में कोई कमी नहीं थी। सुनते हैं कि छत्तीसगढ़ से कई नेताओं ने पुनिया के क्षेत्र में काफी कुछ दांव पर लगाया था। सीएम भूपेश बघेल भी वहां प्रचार के लिए गए थे। पुनिया के बेहद करीबी माने जाने वाले नगरीय प्रशासन मंत्री डॉ. शिव कुमार डहरिया तो तीन दिन तक वहां डटे रहे। इन सबके बावजूद पुनिया के बेटे की करारी हार को टाल नहीं सके ।
पुनिया के बेटे तनुज लोकसभा का भी चुनाव लड़े थे तब बड़ी संख्या में प्रदेश से नेताओं ने वहां जाकर प्रचार की कमान संभाली थी। इन सबके बावजूद तनुज पुनिया की जमानत नहीं बच पाई। इतना साधन-संसाधन जुटाने के बाद जीत नहीं हुई, तो दुखी होना स्वाभाविक है।
पार्टी के लोगों से ही परेशानी
राजनांदगांव के एक भाजपा नेता इन दिनों बेचैन हैं। वजह यह है कि पिछली सरकार में उन्होंने जमकर अवैध उत्खनन कराया था। वे तत्कालीन सांसद के करीबियों में गिने जाते थे, इसलिए कोई बाल-बांका नहीं हुआ। सरकार बदली, तो शिकायतें हो गई। अब अवैध खनन की फाइल तैयार हो रही है। जल्द ही उन पर गाज गिर सकती है। ऐसा नहीं है कि नेताजी खुद को बचाने के लिए कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं। उन्होंने पार्टी के कई बड़े नेताओं से मदद भी मांगी है। मगर दिक्कत यह है कि भाजपा के ही विरोधी खेमे के लोग उन पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाए हुए हैं। अब भाजपा के लोग भी अपनी पार्टी के नेता के खिलाफ कार्रवाई चाहते हैं, तो भला सरकार-प्रशासन को कार्रवाई में परेशानी क्यों होगी।
एक दिन में !
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कल दिल्ली में जिस रफ्तार से लोगों से मिले वह हैरान करने वाला है। वे भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिले जो कि छत्तीसगढ़ में होने जा रहे अर्थशास्त्रियों के एक बड़े सालाना राष्ट्रीय कार्यक्रम में यहां आने वाले हैं, और वे इस कार्यक्रम के आयोजन के सिलसिले में पहले भी भूपेश बघेल से बात कर चुके हैं। उन्होंने यह न्यौता मंजूर किया। इसके बाद भूपेश बघेल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले, और उन्हें छत्तीसगढ़ के राज्योत्सव का मुख्य अतिथि बनने का न्यौता दिया जिसे उन्होंने मंजूर किया। इसके बाद भूपेश एक के बाद एक केन्द्रीय मंत्रियों से जिस रफ्तार से मिले, वह हैरान करने वाला था। केन्द्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से मिलकर उन्होंने सड़क और पूलों के अधूरे होने का मुद्दा उठाया, जनजाति कार्यमंत्री अर्जुन मुंडा से मिलकर उन्होंने ढाई हजार करोड़ रूपए अलग-अलग आदिवासी-क्षेत्र योजनाओं के लिए मांगे, केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से मिलकर केन्द्रीय करों में राज्य के हिस्से में की गई कमी की भरपाई मांगी, देश के प्रतिरक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से मिलकर उन्होंने छत्तीसगढ़ में एयरबेस बनाने की मांग की।
भारत सरकार में सचिव रह चुके एक अफसर ने इन मुलाकातों को देखकर कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए-1 सरकार के वक्त अविभाजित आन्ध्र के, देश के सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू ही एक दिन में इतने केन्द्रीय मंत्रियों और नेताओं से मिलने के लिए जाने जाते थे, जिस वक्त चन्द्राबाबू की मेहरबानी से अटल सरकार चल रही थी, और केन्द्रीय मंत्री अपने-अपने दफ्तर में बैठकर चन्द्राबाबू की राह देखते थे। भूपेश बघेल ने एक दिन में अपनी पार्टी के दो सबसे बड़े नेताओं के अलावा इतने केन्द्रीय मंत्रियों से मुलाकात करके राज्य की बहुत सारी बातों को उनके सामने रख दिया।
भाजपा से कांग्रेस से भाजपा
अभी इसी पखवाड़े छत्तीसगढ़ के बस्तर में चित्रकोट विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस का प्रचार करके लौटे कांग्रेस नेता अरूण उरांव कल झारखंड में भाजपा में शामिल हो गए। वे कांग्रेस की तरफ से छत्तीसगढ़ के सह-प्रभारी थे। उन्हें एक आदिवासी नेता होने के नाते सरगुजा और बस्तर, इन दो आदिवासी संभागों का काम दिया गया था कि वे यहां असरदार साबित होंगे। झारखंड के होने के कारण वे वहां से लगे हुए छत्तीसगढ़ के सरगुजा में अधिक आया-जाया करते थे और जब रायपुर आते थे तो यहां की सबसे महंगी होटल में ठहरना पसंद करते थे।
कांग्रेस संगठन के लोगों का उनके बारे में तजुर्बा है कि वे बहुत ही घुन्ने थे, और ज्यादा बात नहीं करते थे जो कि राजनीति में कुछ अटपटी बात है। लेकिन हो सकता है कि आज के वीडियोग्राफी और स्टिंग के जमाने में कम बोलकर वे महफूज रहना जानते थे। खैर जो भी हो कल वे बिना किसी पूर्व तनाव के कांग्रेस से भाजपा में चले गए। वे पूर्व आईपीएस हैं और कल झारखंड के भाजपा के जलसे में एक और पूर्व डीजीपी, दो पूर्व आईएएस भी भाजपा में शामिल हुए हैं, इसलिए यह यूपीएससी का चुना हुआ गुलदस्ता भाजपा में गया है। अरूण उरांव 1992 बैच के पंजाब काडर के आईपीएस थे और 1914 में नौकरी छोड़कर उन्होंने भाजपा की सदस्यता ली थी। लेकिन भाजपा ने उनकी मर्जी के मुताबिक उन्हें लोकसभा चुनाव नहीं लड़वाया, तो वे 1915 में कांगे्रस में आ गए थे। उनके पिता बांदी उरांव विधायक थे, ससुर कार्तिक उरांव इंदिरा मंत्रिमंडल में थे, और सास सुमति उरांव सांसद थीं।
फिर भी इसी पखवाड़े चित्रकोट में कांग्रेस का प्रचार करने के तुरंत बाद पार्टी से किसी भी तनाव के बिना भाजपा में जाना हैरान जरूर करता है।
लेकिन आईपीएस से राजनीति तक, और भाजपा से कांग्रेस होते हुए भाजपा तक जाने के सफर में एक और दिलचस्प बात उनके साथ यह है कि वे जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड में वाईस प्रेसीडेंट भी थे। अब नवीन जिंदल की इस कंपनी में वाईस प्रेसीडेंट होने की जानकारी के साथ-साथ इस बात को जोड़कर भी देखना चाहिए कि नवीन जिंदल पर झारखंड में ही सीबीआई अदालत में भारत सरकार के साथ धोखाधड़ी का मुकदमा भी चल रहा है। ऐसे में उस राज्य के किसी अफसर रहे नेता को कंपनी में वाईस प्रेसीडेंट रखना सर्फ की खरीददारी जैसी समझदारी ही कही जा सकती है।
पूरे आदिवासी इलाकों से भाजपा साफ
बस्तर में चित्रकोट विधानसभा के उपचुनाव में भाजपा की हार के साथ ही प्रदेश के दोनों सिरों पर बसे हुए आदिवासी इलाकों में भाजपा का सफाया हो गया है। पूरा का पूरा सरगुजा विधानसभा चुनाव में ही कांग्रेस के पास चले गया था, और बस्तर में एक सीट, दंतेवाड़ा भाजपा के पास बची थी। पिछले उपचुनाव में वह सीट भी कांग्रेस के पास चली गई, और चित्रकोट उपचुनाव की शक्ल में भाजपा के पास यह आखिरी मौका आया था कि वह बस्तर में, और प्रदेश के पूरे आदिवासी अंचल में एक कमल खिला सके, लेकिन वैसा हो नहीं पाया। एक सीट का उपचुनाव इतना बड़ा भी नहीं होता कि उसमें सत्तारूढ़ पार्टी अपनी अधिक संपन्न-ताकत के चलते आम चुनाव की तरह उसे जीत ही ले। और भाजपा तो आज पूरे देश में ही सत्तारूढ़ है, इसलिए उसकी ताकत में कोई कमी है नहीं, इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि चित्रकोट चुनाव कांग्रेस ने पैसों से जीत लिया है। पैसे तो छत्तीसगढ़ भाजपा के पास भी कम नहीं हैं।
लेकिन आदिवासी इलाकों से ऐसा सफाया राज्य के आदिवासी भाजपा नेताओं के भविष्य को भी कमजोर करने वाला है। बस्तर के बड़े-बड़े दिग्गज और अरबपति हो चुके भाजपा के नेता इस नौबत के लिए पार्टी के भीतर क्या जवाब देंगे, यह लाख रूपए का सवाल है। और लाख रूपए का सवाल यह भी है कि प्रदेश स्तर के भाजपा के नेता इस पर दिल्ली में क्या सफाई देंगे? पिछले लोकसभा चुनाव के समय छत्तीसगढ़ भाजपा को पूरे का पूरा खारिज करते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सिर्फ अपने फैसले से टिकटें बांटी थीं, और तकरीबन पूरा प्रदेश जीत लिया था। अब राज्य का यह एक उपचुनाव भी हारकर प्रदेश भाजपा एक कोने में घिर गई है।
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मजबूती से काबिज
पीडब्ल्यूडी के एसडीओ राजीव नशीने किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे सीएम-मंत्रियों के बंगले सहित पुराने रायपुर में अहम निर्माण-मरम्मत कार्यों का जिम्मा संभालते हैं। यह मलाईदार काम वे सालों से करते आए हैं। उनके खिलाफ ढेरों शिकायतें हैं, इन सबके बावजूद उनका कभी बाल बांका नहीं हुआ। पिछली सरकार में तो उन्हें कई बार सरकारी हेलीकॉप्टर में यात्रा करते भी देखा गया। जैसे ही सरकार बदली, उन्हें हटाने के लिए कई नेता और अफसर उन्हें जिले से बाहर भेजने की कोशिश में लग गए। सुनते हैं कि ट्रांसफर लिस्ट में उनका नाम भी था। इसकी भनक लगते ही नशीने सक्रिय हो गए और कुछ प्रभावशाली लोगों ने इसके लिए मेहनत भी की। आखिरकार नशीने का तबादला होने से रह गया। तबादला तो दूर, उनका डिवीजन तक नहीं बदला। अब लोग नशीने की सबको साधने की कला की दाद देने लगे हैं।
चित्रकोट से चित्र बदलेंगे?
चित्रकोट उपचुनाव के नतीजे गुरूवार को आएंगे। मगर इसको लेकर कयास लगाए जा रहे हैं। पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने ऐलान किया था कि दंतेवाड़ा में हार का बदला चित्रकोट सीट छीनकर लेंगे। दंतेवाड़ा के उलट चित्रकोट में भाजपा के सभी प्रमुख नेताओं को वहां प्रचार के लिए भेजा गया था। मतदान के बाद जो रूझान सामने आए हैं, उससे पार्टी के प्रमुख नेता मायूस हैं। हालांकि यहां के चुनाव संचालक नारायण चंदेल उम्मीद से हैं कि पार्टी प्रत्याशी को अच्छे मतों से जीत हासिल होगी। मगर कुछ प्रमुख नेताओं ने पार्टी हाईकमान को यहां के संभावित नतीजों से अवगत करा दिया है। चर्चा तो यह भी है कि यदि चुनाव नतीजे अनुकूल नहीं आए, तो पार्टी यहां संगठन में कोई आमूलचूल परिवर्तन की दिशा में कदम उठा सकती है।
लंका से अयोध्या, दशहरे से दीवाली
गूगल मैप जैसे आसान इंटरनेट एप्लीकेशन ने लोगों की कल्पनाशक्ति में चार चांद लगा दिए हैं। अब लोग यह हिसाब आसानी से लगा लेते हैं कि दशहरे के दिन श्रीलंका में रावण को मारकर राम रवाना हुए होंगे तो लगातार पैदल चलते-चलते वे दीवाली के दिन, 20 दिन में अयोध्या पहुंचे होंगे। अब राम तो भगवान थे, इसलिए वे लगातार भी पैदल चल सकते थे। लंका से अयोध्या तक का 3145 किलोमीटर का सफर ठीक इतने ही दिनों में पैदल किया जा सकता है। अब दिक्कत यह है कि ऐसे में पुष्पक विमान की कहानी का क्या होगा? जो भी हो, पुष्पक विमान में तो सीटें सीमित ही रही होंगी, और ऐसे में लंका से अयोध्या पैदल आने वाले वानर-साथी-भक्तों का ध्यान रखते हुए बीस दिन बाद दीवाली मनाई गई होगी।
अदालतों में झटके ही झटके
सरकार को एक के बाद एक अदालत से झटके लग रहे हैं। पहले आरक्षण बढ़ाने के फैसले पर रोक लग गई थी। और अब पुलिस भर्ती के लिए नए सिरे से विज्ञापन जारी करने पर भी हाईकोर्ट ने रोक लगा दी है। यही नहीं, अनुसूचित जाति, महिला आयोग के हटाए गए पदाधिकारी फिर स्टे लेकर बैठ गए हैं। ऐसे कई प्रकरण हैं, जिन पर सरकार अपने मनमाफिक फैसले लागू नहीं कर सकी और हाईकोर्ट ने रोक लगा दी है। यह सब देखकर सरकार के अंदरखाने में चर्चा आम हो गई है कि एजी ऑफिस सही ढंग से काम नहीं कर रहा है।
जानकार बताते हैं कि सरकार कोई भी हो, एजी ऑफिस को सबसे पहले मजबूत करती है। काबिल वकीलों की नियुक्ति करती है। ताकि सरकारी फैसले के खिलाफ अदालत में पक्ष मजबूती से रखा जा सके। राज्य बनने के बाद पहले सीएम अजीत जोगी ने रविन्द्र श्रीवास्तव को एजी नियुक्त किया था। श्रीवास्तव, अविभाजित मप्र में अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में एजी थे। जोगी के बाद रमन सरकार ने मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठित वकील रवीश अग्रवाल को एजी नियुक्त किया। रविश दो साल बाद खुद हट गए, तब एडिशनल एजी प्रशांत मिश्रा को एजी नियुक्त किया गया।
प्रशांत मिश्रा जब हाईकोर्ट जज बने, तो देवराज सिंह सुराना को एजी बना दिया गया। सुराना की सारी वकालत जिंदगी जिला अदालत तक सीमित रही थी, और हाईकोर्ट में वह काम नहीं आती। ऐसे में सुराना के एजी रहते रमन सरकार को यह अहसास हुआ कि अलग-अलग प्रकरणों में कोर्ट में उनका पक्ष कमजोर हो रहा है, तो उनका इस्तीफा लेकर संजय के. अग्रवाल को एजी नियुक्त किया गया। संजय के. अग्रवाल के हाईकोर्ट जज बनने के बाद जेके गिल्डा को एजी बनाया गया। गिल्डा उसके पहले करीब 10 साल एडिशनल एजी के पद पर काम कर चुके थे।
कनक तिवारी आए और गए
भूपेश सरकार आई, तो बिलासपुर, जबलपुर और दिल्ली के बड़े वकीलों में एजी बनने की होड़ मच गई। तब कनक तिवारी को एजी बनाया गया। कनक तिवारी अपने पूरे जीवन कांगे्रस पार्टी से जुड़े रहे, या कांगे्रस की नेहरू-गांधी विचारधारा के आक्रामक विचारक रहे। तिवारी की गिनती भी प्रतिष्ठित वकीलों में होती है, लेकिन दो-तीन महीने में ही सरकार से उनकी पटरी नहीं बैठ पाई और उनका, न दिया गया इस्तीफा भी स्वीकार कर लिया गया। इसके बाद सतीशचंद्र वर्मा को एजी नियुक्त किया गया। वर्मा युवा हैं और उनसे पहले के एजी की तुलना में उनका बहुत कम अनुभव है। यही नहीं, उनकी टीम के सदस्यों का कोई लंबा अनुभव नहीं है। कुछ लोग कह रहे हैं कि सरकार का पक्ष मजबूती से नहीं रखा जा रहा है। बात चाहे सही न भी हो, जिस तरह अदालतों में सरकार को मुंह खानी पड़ रही है, उससे यह लगने लगा है कि एजी ऑफिस मजबूत नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में सरकारी वकील...
कल जब सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई की याचिका पर सुनवाई हो रही थी, तो वहां मौजूद एक वकील के मुताबिक छत्तीसगढ़ के एजी चुपचाप खड़े थे, और राज्य सरकार को नोटिस जारी हो गया। उनकी मौजूदगी में रिंकू खनूजा की मौत पर लंबी-चौड़ी चर्चा हुई, लेकिन वे अदालत में छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से खड़े हुए एक वरिष्ठ वकील की भी कोई मदद नहीं कर सके। कुल मिलाकर सरकार बैकफुट पर रही।
राज्य सरकार के कुछ सबसे बड़े अफसरों का भी यह तजुर्बा है कि अदालतों में चल रहे मामलों की खबर उन्हें एजी दफ्तर से समय रहते नहीं मिलती। सुप्रीम कोर्ट से मुकेश गुप्ता की याचिका पर राज्य सरकार को नोटिस जारी होने के चार दिन बाद भी डीजीपी डी.एम. अवस्थी यह दावा करते रहे कि उन्होंने किसी याचिका या नोटिस की कॉपी भी नहीं देखी है। मीडिया में छपा उनका ऐसा बयान लोगों को राज्य की कानूनी हालत पर हक्का-बक्का कर गया।
संजीव बख्शी ने फेसबुक पर लिखा है-
आज 22 अक्टूबर को किशोर साहू महान फिल्म निर्माता-निर्देशक का जन्म दिवस है। ज्ञात हो कि किशोर साहू का जन्म दुर्ग में और उनकी पढ़ाई आदि की शुरुआत राजनांदगांव में हुई थी। तीन वर्ष पहले राजनांदगांव में किशोर साहू की जयंती में शानदार कार्यक्रम हुआ था जिसमें मुख्यमंत्रीजी ने किशोर साहू की आत्मकथा का विमोचन किया था यह आत्मकथा राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था जोकि काफी चर्चित हुआ इस आत्मकथा के लिए रमेश अनुपम के साथ मैं भी मुंबई गया था जहां से किशोर साहू के पुत्र ने पांडुलिपि देकर यह विश्वास किया था कि इसका प्रकाशन ठीक ढंग से किया जाएगा तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह ने आत्मकथा के प्रकाशन के लिए रुचि दिखाई और अशोक माहेश्वरी राजकमल प्रकाशन से स्वयं पांडुलिपि लेने के लिए रायपुर आए थे। इस कार्यक्रम की विशेषता यह थी कि मुख्यमंत्री जी ने घोषणा की थी कि प्रतिवर्ष राष्ट्रीय स्तर पर फिल्म निर्देशक को 1000000 रुपए का सम्मान किया जाएगा और राज्य के स्तर पर ? 200000 का सम्मान प्रतिवर्ष दिया जाएगा पहले वर्ष में यह सम्मान राष्ट्रीय स्तर का श्याम बेनेगल को और प्रादेशिक स्तर का मनोज वर्मा को प्रदान किया गया था आज 22 अक्टूबर है लेकिन किशोर साहू जयंती पर ना तो सम्मान देने की कार्यवाही का कुछ पता चल रहा है और ना ही किसी कार्यक्रम का । हम जब मुंबई गए थे और किशोर साहू के पुत्र विक्रम साहू से मिले थे तो विक्रम साहू जी ने हमें बताया था कि किशोर साहू वह शख्सियत थे कि राज कपूर भी उस समय जब उनसे मिलने आते तो बराबरी के सोफे पर ना बैठ कर जमीन पर उनके सामने बैठते थे। ([email protected])
नोट के इस्तेमाल से हैरानी
सरकार के एक-दो मंत्री अपनी अजीबो गरीब कार्यशैली की वजह से पार्टी हाईकमान की निगाह में आ गए हैं। हुआ यूं कि कुछ दिन पहले लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी का रायपुर आगमन हुआ। पश्चिम बंगाल के कांग्रेस सांसद अधीर रंजन रायपुर के एक कांग्रेस नेता के नजदीकी रिश्तेदार हैं। अधीर रंजन रायपुर आए, तो अपने रिश्तेदार कांग्रेस नेता के घर भी गए।
कांग्रेस नेता ने अपने घर में भोज रखा था। इसमें नेताजी ने एक मंत्री व अपने कुछ पारिवारिक मित्रों को भी आमंत्रित किया था। भोज के दौरान अधीर रंजन ने मंत्रीजी से प्रदेश के राजनीति हालातों पर भी चर्चा की। भोजन के बाद मंत्रीजी ने अपनी जेब से पांच सौ के नए नोट निकाले और नोट को मोड़कर दांत में फंसे भोजन के टुकड़े को निकालने लगे। विपक्ष के नेता अधीर रंजन, मंत्रीजी के तौर-तरीके को एकटक देखने लगे। अधीर रंजन ने कुछ नहीं कहा, लेकिन मंत्रीजी अपने अलग ही अंदाज के चलते हाईकमान की नजर में आ गए।
करे कोई, भरे कोई
स्कूल शिक्षा विभाग में ट्रांसफर-पोस्टिंग के चक्कर में डिप्टी कलेक्टर नाहक बदनाम हो गए। वे ट्रांसफर सीजन शुरू होने से कुछ दिन पहले ही स्कूल शिक्षा मंत्री डॉ. प्रेमसाय सिंह के विशेष सहायक नियुक्त हुए थे। मंत्रीजी की सरलता उनके स्टॉफ के कुछ लोगों ने जमकर फायदा उठाया। हालांकि बाद में शिकवा-शिकायतों के बाद मुख्यमंत्री की नाराजगी के चलते मंत्रीजी ने ओएसडी राजेश सिंह और विशेष सहायक नवीन भगत को हटा दिया।
सुनते हैं कि भगत का ट्रांसफर पोस्टिंग से ज्यादा कोई लेना देना नहीं था। उन्होंने कामकाज ठीक से संभाला नहीं था। मंत्री बंगले में उनका कमरा भी तैयार नहीं हुआ था कि ट्रांसफर-पोस्टिंग में गड़बडिय़ों का ठीकरा उन पर ही फोड़ दिया गया। जबकि सारा किया धरा राजेश सिंह का था। राजेश सिंह इतने प्रभावशाली रहे कि उनके पक्ष में टीएस सिंहदेव भी सामने आ गए। मगर भगत को हटाए जाने के बाद यह कहा जाने लगा कि गेंहू के साथ घुन भी पिस गया। हालांकि ट्रांसफर-पोस्टिंग में गड़बडिय़ों के लिए एक स्वास्थ्य कर्मचारी को भी जिम्मेदार ठहराया गया था। वे भी मंत्री स्टॉफ में हैं, लेकिन वे अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहे।
मयखाने में विमोचन..
अब तक हमने देखा है कि कोई साहित्यकार अपनी कृति का विमोचन किसी बड़े समारोह में किसी बड़े राजनेता या साहित्यकार से कराता है । कल रायपुर में एक साहित्यकार ने अपनी किताब का विमोचन उन मजदूरों से कराया जो इस उपन्यास के पात्र हैं, उस कृति का हिस्सा है। जी हां, रायपुर में ऐसा पहली बार हुआ है। छत्तीसगढ़ के युवा साहित्यकार किशनलाल जी के नए उपन्यास चींटियों की वापसी का कल कुछ इसीतरह विमोचन हुआ । मजेदार बात यह कि कार्यक्रम भी ऐसी जगह पर किया गया जहां आमतौर पर सभ्य लोग जाने से कतराते हैं। जी, आप लोगों का अंदाजा सही है, कार्यक्रम राजधानी के आमा सिवनी स्थित शराब दुकान के अहाते में किया गया। कार्यक्रम को देखने-सुनने के लिए बड़ी संख्या में ऑटो-रिक्शा चालक, बढ़ई, मिल-कारखानों के मजदूर व भवन निर्माण करने वाले कामगार मौजूद थे। कार्यक्रम के अतिथि के रूप में रूपचंद रात्रे, तुलेश्वर सोनवानी, जितेन्द्र चेलक और छोटू जोशी मौजूद थे। ये सभी मजदूर राजधानी के डॉ. भीमराव अंबेडकर वार्ड के मोवा निवासी हैं जो कि उपन्यास के विभिन्न पात्र हैं। अतिथियों के स्वागत व कृति के विमोचन के बाद लेखक किशनलाल ने उपन्यास के महत्वपूर्ण हिस्से का पाठ किया। कार्यक्रम इतना दिलचस्प हो गया था कि लोग कुछ देर के लिए शराब पीना छोड़कर बड़े ध्यान से रचनाकार के पाठ को सुन रहे थे। यह पूछे जाने पर कि रायपुर सहित प्रदेश में राष्ट्रीय स्तर के कई साहित्यकार होने के बावजूद मजदूरों से पुस्तक विमोचन क्यों, इसका जवाब देते हुए किशनलाल ने कहा कि जिनके लिए लिखा है, वही लोग इसका विमोचन करें, मेरी हार्दिक इच्छा थी। शराब दुकान में आयोजन को लेकर उन्होंने कहा कि मेरे लिए हर जगह पवित्र है। दूसरी बात यह कि ऐसी जगहों पर कार्यक्रम करने पर किराया नहीं देना पड़ता है। चींटियों की वापसी उपन्यास है जो कि पूरी तरह रायपुर शहर पर केंद्रित है।
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भ्रष्टाचार, सीनियरों का साथ...
सरकार में अफसरों के भ्रष्टाचार के कई किस्से सुने जा रहे हैं। कई बार तो भ्रष्ट अफसरों को सीनियरों का संरक्षण भी मिल जाता है। यही वजह है कि कई भ्रष्टाचार के प्रकरणों पर पर्दा नहीं उठ पाता। ऐसे ही वन विभाग के एक प्रकरण में विभाग के आला अफसरों ने लीपापोती की भरपूर कोशिश की, लेकिन मंत्री की पैनी निगाह से बच नहीं पाए। हुआ यूं कि पिछली सरकार में एक डीएफओ ने जीपीएस सिस्टम-कैमरा वगैरह की खरीदी के नाम पर जमकर गोलमाल किया।
खास बात यह है कि डीएफओ ने सारी खरीदी राज्य उपभोक्ता भंडार से होना बता दिया। इसके बिल भी पेश कर पूरी राशि हजम कर गए। मामला लंबे समय तक दबा रहा, लेकिन सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट में इसका खुलासा हो गया। ऑडिट रिपोर्ट के आधार पर लोक लेखा समिति प्रकरण की पड़ताल कर रही है। सुनते हैं कि विभाग की तरफ से जो जबाव तैयार किया गया था, उसमें पूरी खरीदी की प्रक्रिया को सही ठहराया गया था। समिति में भेजने से पहले जवाब की फाइल वनमंत्री को भेजी गई। मंत्रीजी ने पूरी फाइल को बारीकी से देखा, तो पहली नजर में भारी गड़बड़झाला नजर आया। उन्होंने फाइल का अनुमोदन करने के बजाए प्रकरण की डिटेल्ड रिपोर्ट मांग ली और खरीदी का भौतिक सत्यापन करने के लिए कह दिया। संकेत साफ है कि रिपोर्ट आने के बाद समिति से पहले विभाग अपनी कार्रवाई कर सकता है।
पुलिस चाहती है सीबीआई...
दिल्ली में बैठे एडीजी मुकेश गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी नई पिटीशन में रायपुर पुलिस द्वारा जारी किए गए टेलीफोन टैपिंग के आदेश की कॉपियां लगाई हैं। ये गोपनीय आदेश उन तक कैसे पहुंचे, इसे लेकर राज्य में खलबली मची हुई है। पुलिस महकमे के एक जिम्मेदार वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि ये सब कागजात और जानकारी खुद पुलिस विभाग के लोग मुकेश गुप्ता के करीबी लोगों तक पहुंचा रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि पुलिस के कई लोग इस तरह की कार्रवाई कर रहे हैं जिससे हासिल कुछ नहीं हो रहा, पुलिस उजागर जरूर हो रही है। रायपुर से लेकर दिल्ली तक हो रही ऐसी बहुत सी कार्रवाईयों के पीछे जांच करने वाले बड़े-बड़े अफसरों की यह नीयत है कि किसी तरह यह पूरी जांच सुप्रीम कोर्ट सीबीआई को दे दे, तो छत्तीसगढ़ की पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां धर्मसंकट से बचें। मुकेश गुप्ता विभाग से निलंबित हैं, लेकिन उनका दबदबा आज भी महकमे के अफसरों पर इतना है कि लोग उनकी जांच करने से बचना चाहते हैं। अब छत्तीसगढ़ पुलिस का खुफिया विभाग इतना काबिल तो है नहीं कि राज्य के कौन से अफसर सोच-समझकर जांच को सीबीआई की तरफ धकेल रहे हंै उसका पता लगा ले।
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शरारत या चूक?
सत्ता से हटने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के पहले जन्मदिन में अखबारों में भाजपा छोड़ चुके पूर्व महापौर नरेश डाकलिया की तस्वीर छपने को अलग-अलग नजरिया से परखा गया। कुछ नेताओं ने इसे शरारत कहा तो कुछ ने चूक। भाजपा के विज्ञापन में अपनी तस्वीर देखने के बाद डाकलिया ने भी विरोध करने में देर नहीं की। उन्होंने इसके लिए भाजपा नेतृत्व को ही कोसा। सियासत में जरा सी भूल से बात का बतंगड़ बन जाता है। कांग्रेस के सत्ता में आने के कुछ महीनों में ही डाकलिया ने भगवा राजनीति को अलविदा कह दिया था। अब उनकी भाजपा नेताओं के साथ तस्वीर से वे भले ही असहज हैं, लेकिन भाजपा और कांग्रेस में उनके विरोधी नेता खुश दिख रहे हैं। कुछ इसी तरह की गलतियां विक्रम उसेंडी के जन्मदिन बधाई पोस्टर में भी दिखाई दी। कांकेर में कई जगह होर्डिंग्स में भाजपा के बड़े नेताओं के साथ-साथ पूर्व विधायक मंतूराम पवार की तस्वीर भी लगी थी। पवार ने कुछ दिनों पहले ही अंतागढ़ प्रकरण में पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह और अन्य के खिलाफ कोर्ट में बयान दिया था। जिसके बाद उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। अब बधाई में उनकी तस्वीर छपने के बाद पार्टी में हडक़ंप मचा हुआ है। खुद विक्रम उसेंडी को इसके लिए सफाई देनी पड़ रही है।
समय होत बलवान..
राजनीतिक ताकत धूप-छांव की तरह होती है। सियासी ताकत की चमक से बिरले नेता ऐसे होते है जो सूझबूझ से संतुलन बनाए रखते हैं। कभी खैरागढ़ राजघराने की सत्ता के गलियारों में तूती बोलती रही। एक ऐसा समय भी था जब पैलेस में सांसद रहे विधायक देवव्रत सिंह की चौखट पर आला नेताओं को मिलने के लिए मशक्कत करनी पड़ती थी। एक बार तो सांसद रहते देवव्रत सिंह से मिलने के लिए प्रभावशाली नेता मोहम्मद अकबर को भी मिलने घंटों इंतजार करना पड़ा था। इस वाक्ये के नांदगांव के कई नेता साक्षी रहे। अब वक्त ने ऐसा करवट बदला कि जोगी पार्टी के विधायक देवव्रत सिंह को प्रभारी मंत्री अकबर की राह ताकते देखा जा सकता है। सुनते हैं कि देवव्रत सिंह अप्रत्यक्ष तौर पर कांग्रेस के लिए ही काम कर रहे हैं। अकबर के जरिए वह कांग्रेस में अपनी वापसी की संभावना तलाश रहे हैं। देवव्रत और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बीच रहे तल्ख रिश्तों पर जमी धूल को साफ करने अकबर एक मजबूत कड़ी भी माने जा रहे हैं। राजनांदगांव कलेक्टोरेट में देवव्रत को प्रभारी मंत्री अकबर से मुलाकात के लिए इंतजार करते देखकर कांग्रेस नेता चुटकी लेने से पीछे नहीं रहे कि समय होत बलवान...। [email protected]
अभी दो-चार दिन पहले दिल्ली के खान मार्केट में छत्तीसगढ़ से पहुंचे एक आदमी को चिंतामणि चंद्राकर और मुकेश गुप्ता जाते हुए दिखे।
रमन रमन ही हैं...
इस हफ्ते भाजपा के दो बड़े नेता रमन सिंह और विक्रम उसेंडी का जन्मदिन था। रमन सिंह के जन्मदिन के मौके पर खूब जलसा हुआ। नगरीय निकाय चुनाव लडऩे के इच्छुक नेताओं ने जन्मदिन के बहाने शक्ति प्रदर्शन भी किया। चूंकि वे 15 साल सीएम रहे हैं, ऐसे में उन्हें बधाई देने के लिए भीड़ उमडऩा स्वाभाविक था। पार्टी नेताओं से परे प्रदेश भाजपा की तरफ से भी रमन सिंह को जन्मदिन की बधाई के विज्ञापन भी जारी किए गए। मगर गुरूवार को प्रदेश संगठन के मुखिया विक्रम उसेंडी के जन्मदिन मौके पर कार्यक्रम तो दूर, पार्टी की तरफ से उनके लिए बधाई का संदेश तक जारी नहीं किया गया।
सिर्फ कांकेर और रायपुर के ही कुछ नेता उन्हें बधाई देने पहुंचे थे। विक्रम उसेंडी की गिनती सरल आदिवासी नेताओं में होती है। पार्टी ने लोकसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं दी, तो भी वे शांत रहे। अब प्रदेश में संगठन के चुनाव चल रहे हैं। और दिसंबर तक प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव होगा। ऐसे में उसेंडी के जन्मदिन पर पार्टी नेताओं की ठंडी प्रतिक्रिया को भविष्य के संकेतों के रूप में भी देखा जा रहा है। वैसे छत्तीसगढ़ भाजपा के बारे में यह बात साफ है कि विधानसभा चुनाव में पार्टी के चाहे जो नतीजे रहे हों, आज भी रमन सिंह ही पार्टी का चेहरा हैं, और जनता के बीच उन्हीं को प्रदेश भाजपा माना जाता है।
बड़े और महंगे वकीलों का काम...
नान घोटाले के आरोपी चिंतामणि चंद्राकर को सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिल पाई। हालांकि उनके लिए पिछली सरकार के प्रभावशाली लोगों ने काफी कोशिश की थी। चंद्राकर की पैरवी पूर्व सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार ने की थी। यह भी संयोग है कि पिछली सरकार में जब भैंसाकन्हार कांड के खिलाफ भूपेश बघेल सुप्रीम कोर्ट में लड़़ाई लड़ रहे थे, तब रंजीत कुमार ही उनके वकील थे। अब मामूली से एकाउंटेंट के लिए रंजीत कुमार जैसे महंगे वकील की पैरवी करना सरकार रणनीतिकारों को हजम नहीं हो रहा है।
पिछली सरकार के प्रभावशाली लोगों के खिलाफ जिस तेजी से जांच खड़ी हुई थी, वह किसी किनारे लगती नहीं दिख रही है। ये लोग भी हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में अपने पक्ष में नामी वकील खड़े कर राहत पाने में सफल रहे हैं। सरकार के रणनीतिकारों को मालूम है कि नामी वकीलों के लिए पैसे कहां से आ रहे हैं, और उनके पीछे कौन सी ताकतें काम कर रही है। मगर यह सब जानकार भी कोई कुछ कर पाने की स्थिति में नजर नहीं आ रही हैं। छत्तीसगढ़ में जितने मामले दर्ज हो रहे हैं, उनकी जांच का जो हाल है, उसे देखते हुए पुलिस के अलग-अलग बहुत से अफसरों की भी जांच करवाने की जरूरत है कि आए दिन मामले अदालतों में कमजोर क्यों साबित हो रहे हैं। मामले कमजोर हैं, या पुराने रिश्ते मजबूत हैं?
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कवर्धा अनछुआ
प्रदेश में सरकार बदलने के बाद कवर्धा ही एकमात्र ऐसा जिला है जहां प्रशासनिक स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ है। जबकि यह पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह का गृह जिला है और उनकी व्यक्तिगत पसंद पर यहां के छोटे-बड़े अफसरों की पोस्टिंग होती थी। सरकार बदलने के बाद सबसे पहले कवर्धा कलेक्टर अवनीश शरण और एसपी लाल उम्मेद सिंह को बदले जाने की चर्चा रही, लेकिन 9 महीने गुजरने के बाद भी उन पर किसी तरह की आंच नहीं आई है। जबकि बाकी 26 जिलों के कलेक्टर-एसपी बदले जा चुके हैं। रायपुर में तो 9 महीने में दो एसपी बदल गए हैं। फिर भी कवर्धा जिले में न सिर्फ एसपी-कलेक्टर बल्कि निचले स्तर के अफसर भी यथावत हैं। यहां किसी तरह के फेरबदल के लिए परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर की राय अंतिम होगी। चर्चा है कि सीएम ने उन्हें फ्री हैंड दिया हुआ है। इन सबके बावजूद अकबर प्रशासन पर दबाव के पक्ष में नहीं रहते हैं। प्रशासन पर जरूरत से ज्यादा दबाव का फायदा उन्हें विधानसभा चुनाव में मिला और वे अब तक के छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा वोट से जीतने वाले विधायक बन गए। सुनते हैं कि कवर्धा में प्रशासनिक महकमे में बदलाव की एक वजह यह है कि सरकार बदलते ही अफसरों ने अपनी कार्यशैली बदल दी है, जो कांग्रेस के लोग पहले निराश रहते थे वे अब संतुष्ट हैं।
आलोक शुक्ला का वक्त बदला
नान घोटाले में फंसे प्रमुख सचिव डॉ. आलोक शुक्ला को हाईकोर्ट से बड़ी राहत मिल गई है। उनकी अग्रिम जमानत मंजूर कर दी गई है। आईएएस के वर्ष-86 बैच के अफसर डॉ. शुक्ला मौजूदा मुख्य सचिव सुनील कुजूर के बैचमेट हैं। वे वरिष्ठता क्रम में उनसे ऊपर भी हैं, लेकिन नान घोटाले की वजह से वे अपर मुख्य सचिव नहीं बन पाए। वे पिछले चार साल कानूनी उलझन में फंसे रहे।
रायपुर में पले-बढ़े डॉ. आलोक शुक्ला की गिनती काबिल अफसरों में होती है। उन्हें पीडीएस में बेहतर काम के लिए प्रधानमंत्री अवार्ड से नवाजा जा चुका है। केन्द्रीय चुनाव आयोग में भी पदस्थापना के दौरान अपना हुनर दिखा चुके हैं। अब जब कोर्ट से उन्हें राहत मिल गई है, तो उनकी पोस्टिंग भी तय मानी जा रही है। उनके रिटायरमेंट में 8 महीने बाकी हैं। मगर उन्हें इसके लिए 31 अक्टूबर तक इंतजार करना पड़ सकता है। वजह यह है कि कुजूर के एक्सटेंशन के लिए सीएम ने पीएम को पत्र लिखा है। यदि एक्सटेंशन नहीं मिलता, तो कुजूर रिटायर हो जाएंगे। तब सीके खेतान या आरपी मंडल में से कोई सीएस बनता है, तो डॉ. शुक्ला की पोस्टिंग हो सकती है। वह भी मंत्रालय के बाहर। लेकिन अजय सिंह या बैजेन्द्र कुमार, सीएस बनते हैं, तो आलोक शुक्ला को मंत्रालय में पोस्टिंग मिल सकती है। फिलहाल प्रशासनिक फेरबदल को लेकर कयास ही लगाए जा रहे हैं।
कुत्तों और उनके मालिकों की कहानी...
कुछ लोग सुबह और शाम अपने पालतू कुत्तों को खाना देते हैं, और फिर कुछ देर बाद उन्हें घुमाने के लिए निकलते हैं। घुमाने का तो नाम रहता है, असली मकसद होता है कि अपने घर से दूर, और दूसरे के घरों के करीब उनसे पखाना करवा दिया जाए, ताकि अपने आसपास सफाई बनी रहे। दुनिया के सभ्य देशों में, और हिन्दुस्तान के कुछ सभ्य शहरों में ऐसे लोग जब निकलते हैं, तो अपने साथ कुत्ते का पखाना उठाने के लिए प्लास्टिक का एक सामान लेकर चलते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा कोई चलन दिखता नहीं है। नतीजा यह होता है कि लोग अपने घर के किनारे अगर कार ऐसे रोकें कि ड्राईवर की सीट दीवार की तरफ रहे, तो कुत्ते की गंदगी पर पांव पडऩे का खासा खतरा रहता है। एक-दो संपन्न इलाकों में ऐसी गंदगी से थके हुए गैर कुत्ता पालकों ने ऐसे कुत्ता-मालिकों के दिखने पर उनके साथ-साथ चलना तय किया, और जैसे ही कुत्ते ने गंदगी की, उन्होंने मालिक को घेरा कि इसे उठाओ। अब खाली हाथ आया हुआ मालिक इसे उठाए तो कैसे उठाए? लेकिन नतीजा यह हुआ कि दो-चार बार ऐसी घेरेबंदी से उस इलाके में कुत्ता मालिकों का आना बंद हो गया।
गांधीगिरी का यह तरीका ठीक है कि लोगों से अपने कुत्ते की गंदगी उठाकर ले जाने को कहा जाए। यह सत्याग्रह कुछ और आगे बढऩा चाहिए क्योंकि कुछ कुत्ता मालिक तो बाग-बगीचों में भी कुत्ते ले जाने लगे हैं, और मरीन ड्राइव जैसे तालाब-किनारे भी। अब खाली हाथ जाने वाले ऐसे कुत्ताप्रेमी कुछ उठाकर लाएंगे भी कैसे, इसलिए उनकी घेराबंदी ही अकेला जरिया हो सकता है। फिलहाल सोशल मीडिया पर पटना की एक गली में लगे हुए एक पोस्टर की फोटो आई है जिसमें लिखा है- ऐ कमीने, गली को कुत्ते से गंदा मत करा रे कुत्ते...।
अब हम कुत्ते शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करने के खिलाफ हैं, लेकिन ऐसा जाहिर है कि पटना के लोग हमसे सहमत नहीं हैं। ([email protected])
बाकी को फंसा, खुद निकल लिए...
नया रायपुर के सेक्टर-27 में मकान लेने वाले ज्यादातर अफसर पछता रहे हैं। यहां बड़ी संख्या में आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अफसरों ने मकान लिए थे। तब एनआरडीए ने यहां मकान की रजिस्ट्री और स्टॉम्प शुल्क में छूट दे रखी थी। अफसरों को भरोसा दिलाया गया था कि मकान बनने तक नया रायपुर आबाद हो जाएगा। मगर 12 साल बाद भी नया रायपुर वीरान है। कई अफसरों के मकान खाली पड़े हैं। कुछ किराएदार ढूंढ रहे हैं। केआर पिस्दा जैसे इक्का-दुक्का अफसर हैं जो कि यहां रहने चले आए हैं।
मजे की बात यह है कि इस स्कीम को लॉच करने वाले आईएफएस अफसर एसएस बजाज सबसे पहले मकान बेचकर निकल लिए। उनकी देखा-देखी सूचना आयुक्त अशोक अग्रवाल और हेमंत पहारे भी मकान बेचकर मुक्त हो गए। कई अभी भी ऐसे अफसर हैं जो यहां का अपना मकान बेचना चाह रहे हैं, लेकिन उचित दाम नहीं मिल रहा है। वर्ष-2007 में अफसरों ने जिस मकान को 20 लाख में खरीदा गया था, उसे 35 लाख में लेने वाले नहीं मिल रहे हैं। जबकि उस समय रायपुर के आसपास के मकानों की कीमत आज तिगुनी-चौगुनी हो गई है। हाल यह है कि सेक्टर-27 में अपना मकान देखकर अफसर खुश होने के बजाए मायूस हैं।
रमन के जन्मदिन पर जलसा...
रमन सिंह के जन्मदिन के बहाने भाजपा नेताओं ने एकजुटता का संदेश देने की कोशिश की है। मंगलवार को रमन सिंह के मौलश्री विहार स्थित घर में समर्थकों की अच्छी खासी भीड़ जुटी। रमन समर्थकों ने खाने-पीने का पूरा इंतजाम रखा था। कुल मिलाकर विधानसभा में करारी हार के बाद पहली बार रमन सिंह के आसपास कार्यकर्ताओं की भीड़ देखने को मिली। स्वागत-सत्कार के बीच पूर्व सीएम के समर्थकों को अमित शाह के ट्वीटर पर बधाई संदेश से काफी खुशी मिली।
अमित शाह ने लिखा कि डॉ. रमन सिंहजी ने जिस अथक परिश्रम और ईमानदारी से छत्तीसगढ़ की जनता की सेवा की वह हम सभी के लिए प्रेरणीय है। खास बात यह है कि सीएम पद से हटने के बाद राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के बावजूद रमन सिंह एक तरह से किनारे लगा दिए गए। उन्हें महाराष्ट्र और हरियाणा में भी प्रचार के लिए नहीं बुलाया गया। जबकि इससे पहले के चुनावों में वे दूसरे राज्यों के लिए भी स्टार प्रचारक रहे हैं। इससे कांग्रेस नेताओं को रमन सिंह पर तंज कसने का मौका मिल गया, कि पार्टी के भीतर उनकी पूछ परख खत्म हो गई है। लेकिन पार्टी के ही एक बड़ेे नेता ने साफ किया कि जिन राज्यों में उपचुनाव हैं वहां के नेताओं को दूसरे जगह प्रचार के लिए नहीं भेजा जा रहा है। छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा में भाजपा चुनाव हार चुकी है। ऐसे में पार्टी चित्रकोट चुनाव हर हाल में जीतना चाहती है। और रमन सिंह को एक तरह से इसकी कमान सौंपी गई है। सच्चाई चाहे जो भी हो, लेकिन अमित शाह के बधाई संदेश से यह साफ हो गया है कि प्रदेश के बाहर भले ही रमन सिंह की पूछ परख नहीं हो रही है, लेकिन छत्तीसगढ़ में उनका महत्व बरकरार रहेगा। ([email protected])
हमेशा बोझ से लदा जीएडी...
सरकारी अधिकारी-कर्मचारी संगठन प्रमोशन से जुड़ी विसंगतियों को दूर करने की मांग करते रहे हैं। पर जीएडी की तरफ से कोई ठोस पहल नहीं हो पा रही है। वैसे तो जीएडी सचिव डॉ. कमलप्रीत और रीता शांडिल्य, दोनों की साख अच्छी है, लेकिन उन पर काम का दबाव ज्यादा है। राज्य गठन के बाद जीएडी में अनुभवी पंकज द्विवेदी और चंद्रहास बेहार जैसे अफसरों को बिठाया गया था, जिन्होंने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के बीच अधिकारी-कर्मचारियों के बंटवारे व प्रमोशन-आरक्षण जैसे विषय को काफी हद तक सुलझाया।
बेहार को नियमों का काफी जानकार माना जाता है। यही वजह है कि रिटायरमेंट के कई साल बाद भी सरकार उनकी सेवाएं लेती रही है। वे प्रशासन अकादमी में प्रशिक्षु अफसरों की क्लास भी लेते हैं। सुनते हैं कि बेहार ने अपनी तरफ से नियम शाखा को मजबूत बनाने के लिए कई सुझाव दिए हैं। उन्होंने पत्र भी लिखा है। वे बिना किसी वेतन के मदद करने के तैयार भी हैं। परन्तु सरकार तो सरकार है जब तक कोर्ट का कोई सख्त निर्देश नहीं होता, समस्या का हल नहीं ढूंढा जाता है।
पत्रकारों में चुहलबाजी का दौर
विवेकानंद तकनीकी विश्वविद्यालय में कुलपति को ही एक और कार्यकाल मिल गया इसलिए वह चर्चा से बाहर हो गया। लेकिन अब कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति का चयन होना है जो कि अटकलों में बना हुआ है। राज्य सरकार ने एक बड़ी समझदारी का फैसला लेकर इस ओहदे के लिए बाकी शर्तें घटा दीं, और पत्रकारिता का लंबा अनुभव ही एक शर्त रखी है। अब तक जितने कुलपति थे वे पत्रकारिता-शून्य थे, और एक पत्रकार के आने से यह विश्वविद्यालय जिंदा हो सकता है। ऐसे में पत्रकार एक-दूसरे से चुहलबाजी में लगे हुए हैं कि उनका नाम कुलपति के लिए चल रहा है। जिन लोगों को वहां किसी कार्यक्रम में बुलाया गया, उनके नाम को भी संभावित मान लिया जा रहा है। जो पत्रकार मुख्यमंत्री से अच्छे परिचित हैं, उनको भी सुपात्र समझा जा रहा है। इसके अलावा मुख्यमंत्री के तीन सलाहकार, विनोद वर्मा, रूचिर गर्ग, और प्रदीप शर्मा पत्रकार रहे हुए हैं, इसलिए देश के बहुत से अच्छे पत्रकारों से उनकी मित्रता रही है, और इस तरह संभावित नामों की लिस्ट बड़ी लंबी हो जा रही है। आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के लिए यह एक महत्वपूर्ण फैसला हो सकता है कि इस विश्वविद्यालय से पत्रकार बनने लायक पढ़ाई करवाने वाले कुलपति आते हैं, या फिर इसकी बर्बादी जारी रहेगी। चूंकि सरकार ने नियम बदले हैं, इससे कुछ उम्मीद जागती है कि शायद कोई अच्छा कुलपति लाया जाए। फिलहाल जो चयन समिति बनी है, उसमें देश के एक सबसे अच्छे पत्रकार रहे ओम थानवी सदस्य हैं, जो कि राजस्थान के पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति भी हाल ही में बने हैं। उनके नाम से भी ऐसा लगता है कि वे किसी औने-पौने नाम पर समझौता नहीं करेंगे। तब तक पत्रकारों के बीच कुछ को सरकार का करीबी साबित करने का मजाक चल रहा है, और कुछ लोगों के बारे में यह मजाक चल रहा है कि वे अपनी बागी तेवर दिखाकर अपनी मौजूदगी दर्ज कर रहे हैं कि वे हैं ना...
हिंदुस्तान में लोगों की हसरतें नंबर प्लेटों पर दिखती हैं। चूंकि पुलिस का कोई भरोसा कानून लागू करने में रहता नहीं है, इसलिए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही सड़कों पर हजारों गाडिय़ां तरह-तरह के अहंकारी नारों वाली दिखती हैं जो नंबर के बजाय दबदबा लिखवाकर चलती हैं। अब रायपुर के संजीत त्रिपाठी को कल रात आजाद चौक के पास डॉ. सुरेंद्र शुक्ला के नर्सिंग होम की पार्किंग में यह स्कूटर दिखी जो कि बेरला के राजा अंशुल भैया की है। अब दुर्ग जिले के ही मुख्यमंत्री भी हैं, वहीं के गृहमंत्री हैं, और अब पता लग रहा है कि उसी जिले के बेरला में एक राजा भी हैं। अब पुलिस की क्या हिम्मत हो सकती है किसी राजा को छूने की?
एक काबिल के आने का फर्क
रेणु पिल्ले के डीजी बनने के बाद से प्रशासन अकादमी का माहौल बदला है। अब तक एक हजार अफसर अकादमी में टे्रनिंग ले चुके हैं। ट्रेनिंग क्वालिटी में काफी सुधार आया है। यही वजह है कि टे्रनिंग ले रहे नए-पुराने अफसर अकादमी की क्लास में पूरी दिलचस्पी लेते नजर आते हैं। जबकि पहले ट्रेनिंग क्वालिटी ठीक नहीं थी। इसके चलते अनुशासनहीनता भी बढ़ गई थी। क्लास में प्रशिक्षु अफसर लेक्चर पर ध्यान देने के बजाए मोबाइल पर वीडियोगेम खेलना ज्यादा पसंद करते थे।
आईएएस की 91 बैच की अफसर रेणु पिल्ले को डीजी का काम संभाले सालभर हो गए हैं। उनकी गिनती बेहद ईमानदार और अनुशासनप्रिय अफसरों में होती है। वे सुबह ठीक 10 बजे अकादमी पहुंच जाती हैं। उनकी वजह से अकादमी का स्टाफ भी समय पर आने लगा है। वैसे तो रेणु पिल्ले घर से लंच बॉक्स लेकर आती हैं, यदि लंच बॉक्स लेकर नहीं आईं, तो अकादमी के कैंटीन में लंच करती हैं और बिल का भुगतान भी खुद करती हैं। उनके आने से पहले अकादमी के स्टाफ की मुफ्तखोरी की आदत पड़ चुकी थी, लेकिन डीजी की ईमानदारी का असर स्टाफ पर भी हुआ है, और उन्होंने भी मुफ्तखोरी बंद कर दी।
प्रशासन अकादमी में व्यवस्था ठीक करने के नाम पर खरीदी-बिक्री का खेल चलता रहा। सुनते हैं कि अकादमी के एक अफसर ने अलग-अलग प्रयोजन पर करीब 5 करोड़ का बजट प्रस्ताव डीजी रेणु पिल्ले को दिया था। मगर रेणु पिल्ले ने गैरजरूरी खर्चों पर रोक लगाकर बजट को 7 करोड़ से घटाकर 17 लाख कर दिया। जबकि उनसे पहले एक अफसर ने तो केन्द्र से मिली राशि से फर्नीचर खरीद लिया था। चूंकि पिछली सरकार में उनका काफी दबदबा था। इसलिए उनके मातहत असहमति के बावजूद इसका विरोध नहीं कर पाए और वे अपना हाथ साफ कर निकल गए। ऐसे में रेणु पिल्ले की साफ-सुथरी कार्यशैली से हर कोई प्रभावित दिख रहा है, क्योंकि उसका असर दिख रहा है। ([email protected])
जानकार संबंधों का फायदा
बस्तर राजपरिवार के मुखिया कमलचंद भंजदेव को हाईकोर्ट ने विरासत में मिली संपत्ति का स्वाभाविक हकदार माना है। कोर्ट ने संपत्ति के पूर्व के बंटवारे को भी गलत करार दिया है। फैसले के बाद जगदलपुर और आसपास की 38 एकड़ जमीन के असल हकदार कमलचंद भंजदेव हो गए हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि परिवार के दूसरे सदस्यों ने जो जमीन बेची थी, उसकी बिक्री को भी कोर्ट ने निरस्त कर दिया।
युवा आयोग के पूर्व चेयरमैन कमलचंद भंजदेव को अपनी जमीन वापस हासिल करने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लडऩी पड़ी। सुनते हैं कि इस लड़ाई में एक महिला अफसर ने उनका पूरा साथ दिया। महिला अफसर चूंकि कलेक्टर रह चुकी हैं और उन्हें राजस्व प्रकरणों की गहरी समझ है। जब भंजदेव आयोग में थे, तो आयोग के कामकाज को लेकर महिला अफसर से मेल मुलाकात होते रहती थी।
फिर उन्होंने भंजदेव के जमीन विवाद को समझा और कानूनी लड़ाई में उनका मार्गदर्शन किया। इसका प्रतिफल यह रहा कि भंजदेव को सैकड़ों करोड़ की संपत्ति मिल गई है। मगर कोर्ट के आदेश के बाद भी जमीन वापस पाना आसान नहीं होगा क्योंकि उक्त जमीन पर कालोनी का निर्माण हो गया है और प्रभावित लोग सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रहे हैं। चाहे कुछ भी हो, भंजदेव को बड़ी शुरूआती कामयाबी मिल ही गई। ([email protected])
स्टार प्रचारकों की सूची में रमन नहीं!
महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। दोनों ही प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा ने अपने स्टार प्रचारकों की सूची जारी की है। कांग्रेस की सूची में सीएम भूपेश बघेल को विशेष रूप से जगह मिली है। वे दोनों राज्यों में प्रचार के लिए जा सकते हैं। मगर भाजपा की सूची में सिर्फ सरोज पाण्डेय का नाम स्टार प्रचारकों की सूची में है। सरोज महाराष्ट्र तक ही सीमित रहेंगी। वे महाराष्ट्र भाजपा की प्रभारी हैं। सूची में पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह का नाम गायब है। जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में दोनों ही राज्यों में पार्टी ने उन्हें प्रचार के लिए बुलाया था।
महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ की सीमा से सटा हुआ है। छत्तीसगढ़ के हजारों लोग नागपुर और आसपास के इलाकों में रहते हैं। यही वजह है कि यहां के नेताओं को विशेष तौर पर प्रचार के लिए बुलाया जाता रहा है। पिछली बार तो भाजपा ने छत्तीसगढ़ के करीब आधा दर्जन नेताओं को विधानसभावार चुनाव संचालन की जिम्मेदारी दी थी, लेकिन इस बार संचालन तो दूर, यहां के नेताओं को प्रचार के लिए तक नहीं बुलाया गया है। एकमात्र सुनील सोनी को ही प्रचार के लिए बुलाया गया है, वे भी सिर्फ उल्लासनगर विधानसभा तक सीमित रहेंगे। जबकि मध्यप्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे को स्टार प्रचारकों की सूची में रखा गया है।
तीन बार के सीएम रमन सिंह का नाम सूची में नहीं होने से पार्टी के स्थानीय नेता हैरान हैं और कई लोग विधानसभा चुनाव में बुरी हार के बाद पार्टी में उनके दबदबे की कमी के रूप में देख रहे हैं। पार्टी ने चुनाव में हार के बावजूद रमन सिंह को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तो बना दिया है, लेकिन राष्ट्रीय संगठन में उनकी सक्रियता देखने को नहीं मिली है। जबकि उनके साथ ही मप्र के सीएम रहे शिवराज सिंह चौहान को राष्ट्रीय स्तर पर सदस्यता अभियान का प्रभारी बनाया गया है। चौहान सभी राज्यों का दौरा कर रहे हैं। हालांकि रमन सिंह के करीबी लोग जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पूछ-परख बढऩे की उम्मीद पाले हुए हैं। उनका कहना है कि जगत प्रकाश नड्डा के पूर्णकालिक अध्यक्ष बनने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में रमन सिंह का महत्व बढ़ेगा। नड्डा छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रभारी रहे हैं और उनकी डॉ. सिंह से घनिष्ठता है। फिलहाल तो पार्टी के लोग भविष्य का अंदाजा ही लगा रहे हैं।
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राजनीतिक से ज्यादा कानूनी लड़ाई
भाजपा के रणनीतिकार सीएम भूपेश बघेल के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई के बजाए कानूनी विकल्पों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। तभी तो सीएम के खिलाफ दो दशक पुराने साडा जमीन आबंटन प्रकरण पर दर्ज अपराध के खात्मे की अनुशंसा के खिलाफ जिला अदालत में जमकर लड़ाई लड़ी गई। इस प्रकरण पर 17 तारीख को फैसला होगा। मगर भाजपा के रणनीतिकारों की प्रकरण पर दिलचस्पी लेने की राजनीतिक हल्कों में चर्चा का विषय है। सुनते हैं कि जमीन आबंटन प्रकरण पर भूपेश के खिलाफ उनके भतीजे भाजपा सांसद विजय बघेल को आगे किया गया है, लेकिन परदे के पीछे कई और बड़े चेहरे हैं।
पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह की भूपेश से नाराजगी तो जगजाहिर है, लेकिन प्रकरण की मॉनिटरिंग रमन के करीबी रहे अफसर कर रहे हैं। खास बात यह है कि भूपेश के खिलाफ दर्ज प्रकरण के खात्मे के विरोध के लिए मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के सबसे महंगे वकील सुरेन्द्र सिंह की सेवाएं ली गई थी। जबकि भाजपा संगठन में वकीलों का एक अलग प्रकोष्ठ है। भाजपा संगठन के पदाधिकारी वकील, प्रकरण से दूर रहे। भूपेश के खिलाफ वकीलों के फीस पर ही लाखों रूपए फूंकने की चर्चा है। यह सब तब हो रहा है जब चित्रकोट उप चुनाव में पार्टी के नेता चुनावी फंड की कमी का रोना रो रहे हैं। इस प्रकरण पर पूर्व सीएम अजीत जोगी की तरफ से भी खात्मे की अनुशंसा के खिलाफ कड़ी आपत्ति दर्ज कराई गई। खैर, कानूनी लड़ाई का क्या हश्र होता है, यह देखना है।
मंत्री से खफा पार्टी नेता
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को 9 महीने ही हुए हैं, लेकिन एक मंत्री ने अल्प समय में ही अपनी कार्यशैली से पार्टी के बड़े नेताओं को नाराज कर रखा है। मंत्रीजी की दखलंदाजी की वजह से डीएमएफ मद के कार्य भी काफी प्रभावित हुए हैं। यही नहीं, मंत्री समर्थकों की उगाही की शिकायत पीएचक्यू तक पहुंची है। सुनते हंै कि रोजमर्रा की शिकायतों के बाद मंत्रीजी पर अब लगाम कसा गया है।
पहले चरण में मंत्रीजी के सारे करीबी अफसरों का तबादला एक-एक कर जिले से बाहर कर दिया गया है। साथ ही साथ मंत्री समर्थकों की गुंडागर्दी रोकने के लिए तेज-तर्रार पुलिस अफसर को वहां भेजा गया है। मंत्रीजी की हालत अब ऐसी हो गई है कि उन्होंने अपने विभाग के एक अफसर का तबादला जिले से बाहर किया, तो अफसर को कोर्ट से तबादले के खिलाफ स्टे मिल गया। संकेत साफ है कि मंत्रीजी ने अपनी कार्यशैली नहीं बदली, तो पंचायत चुनाव के बाद संभावित फेरबदल में उनका पत्ता साफ हो सकता है।
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सुब्रमणियम अगले गृह सचिव होंगे?
छत्तीसगढ़ कैडर के आईएएस बीवीआर सुब्रमणियम की वापसी की संभावना तकरीबन खत्म हो गई है। सुब्रमणियम जम्मू कश्मीर के मुख्य सचिव हैं। वे छत्तीसगढ़ के अपने बैच के अकेले अफसर हैं, जो कि केन्द्र सरकार में सचिव पद के लिए सूचीबद्ध हुए हैं। उनके बैचमेट सीके खेतान और आरपी मंडल, केन्द्र सरकार में सचिव के पद पर सूूचीबद्ध होने से रह गए। हालांकि दोनों के पास राज्य में मुख्य सचिव बनने का अवसर है, जो कि मौजूदा मुख्य सचिव सुनील कुजूर के एक्सटेंशन न होने की दशा में इस माह के आखिरी में खाली हो सकता है। मगर फिर भी दोनों में से एक रह जाएंगे।
सुब्रमणियम के पास पाने के लिए बहुत कुछ है। उनके करीबी अफसर मानकर चल रहे हैं कि जम्मू कश्मीर के बाद वे केन्द्र सरकार में अगले गृह सचिव होंगे। यह पद डेढ़ साल बाद खाली होगा। तब तक वे जम्मू कश्मीर में सेवाएं देते रहेंगे। सुब्रमणियम राज्य के पांचवें अफसर हैं, जो कि केन्द्र सरकार में सचिव के पद के लिए सूचीबद्ध हुए हैं। उनसे पहले एसके मिश्रा, एके विजयवर्गीय, शिवराज सिंह और सुनील कुमार सचिव पद के लिए सूचीबद्ध हुए थे। लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें केन्द्र में जाने नहीं दिया और चारों यहीं मुख्य सचिव बनकर रिटायर हुए। पूर्व मुख्य सचिव विवेक ढांड, डीएस मिश्रा और अजय सिंह संयुक्त सचिव तक तो सूचीबद्ध हो गए थे, लेकिन उन्होंने भारत सरकार में काम नहीं किया, इसलिए सचिव के पद पर सूचीबद्ध नहीं हो पाए।
चुनावी चंदे की कमी, कार्यक्रमों से भी तौबा
चित्रकोट में भाजपा के नेता फंड की कमी का रोना रो रहे हैं। दंतेवाड़ा में तो कईयों ने खुद के जेब से पैसा भी लगाया था, लेकिन इस बार ज्यादातर लोगों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा में भी चुनाव हैं और दिल्ली के सारे नेता वहीं व्यस्त हैं। ऐसे में वहां से फंड आने की उम्मीद ही नहीं है। स्थानीय बड़े कारोबारियों ने मंदी को कारण बताकर भाजपा कोई ज्यादा मदद नहीं कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि पार्टी की हालत वर्ष-2003 से पहले जैसी हो गई है, तब प्रदेश में भाजपा की सरकार नहीं थी। ऐसा नहीं है कि पार्टी नेताओं के पास पैसे की कमी है। पिछले 15 सालों में बड़े नेताओं ने काफी कुछ बना लिया है, लेकिन वे उपचुनाव में जोखिम नहीं लेना चाह रहे हैं। वैसे भी नगरीय निकाय के चुनाव निकट हैं। इसमें भी काफी कुछ खर्च करना पड़ सकता है।
सुनते हैं कि खर्चों से बचने के लिए पार्टी के फंड मैनेजर कोई कार्यक्रम कराने से भी परहेज करने लगे हैं और यह भी चाहते हैं कि फिलहाल कोई बड़ा नेता न आए। इन नेताओं का मानना है कि दिल्ली वालों के नखरे काफी रहते हैं। एक नेता ने किस्सा सुनाया कि एक बेहद अनुशासित और सादगी पसंद माने जाने वाले संगठन के एक बड़े नेता का वर्ष-2002 में आगमन हुआ। यह नेता वर्तमान में केन्द्र सरकार में मंत्री हैं। उस समय प्रदेश में सरकार तो थी नहीं, नेताजी की दिल्ली वापसी के लिए इकॉनामी क्लास में फ्लाइट की टिकट बुक कराई। पर नेताजी अड़ गए कि वे बिजनेस क्लास में ही यात्रा करेंगे। इसके बाद पार्टी नेताओं ने आपस में चंदा इकट्ठा कर बिजनेस क्लास की टिकट कराई। अब प्रदेश में सरकार जाने के बाद पुराने दिन याद आने लगे हैं।
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सरगुजा में रेणुका की परेशानी
तेज तर्रार महिला नेत्री रेणुका सिंह केन्द्र में मंत्री तो बन गई हैं, लेकिन सरगुजा में अपनी धमक बनाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। शासन-प्रशासन और आम लोगों में भी राज्य के दोनों स्थानीय मंत्री टीएस सिंहदेव और अमरजीत भगत की ही ज्यादा पूछ परख रहती है। रेणुका को अंबिकापुर के सबसे बड़े दशहरा उत्सव में भी अतिथि बनने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। जबकि दशहरा उत्सव समिति में भाजपा के लोगों का ही दबदबा है।
समिति ने सबसे पहले अमरजीत भगत को मुख्य अतिथि बनाने का फैसला किया था। अमरजीत के पास संस्कृति विभाग भी है। और भगत ने विभागीय मद से काफी कुछ अनुदान देने का वादा भी किया था। इसके बाद रेणुका के लोगों ने उन्हें मुख्य अतिथि बनाने के लिए समिति के सदस्यों पर दबाव बनाया। सुनते हैं कि रेणुका की तरफ से भी आयोजन के लिए कुछ करने का वादा किया गया। पर राशि अमरजीत की तरफ से मिलने वाली राशि से काफी कम थी। चूंकि केन्द्र में राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाली इकलौती मंत्री हैं, इसलिए आयोजकों ने निराश नहीं किया। दोनों को ही दशहरा उत्सव में अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। दोनों को बराबर का दर्जा दिया गया।
महापौर प्रत्याशी, और मशक्कत
महापौर प्रत्याशी के चयन के लिए कांग्रेस सर्वे करा रही है। चर्चा है कि अंबिकापुर को छोड़कर बाकी जगह नए चेहरों को आगे किया जा सकता है। अंबिकापुर से मौजूदा महापौर डॉ. अजय तिर्की की टिकट तकरीबन पक्की मानी जा रही है। वजह यह है कि उन्हें लेकर कोई विवाद नहीं है, और दोनों स्थानीय मंत्री टीएस सिंहदेव और अमरजीत भगत से अच्छे संबंध हैं। मगर रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग में दावेदारों की फौज खड़ी हो गई है। यहां तीनों ही निकायों में महापौर के पद अनारक्षित हैं। ऐसे में यहां प्रत्याशी चयन में फूंक-फूंककर कदम उठाया जा रहा है। पार्टी के अंदरूनी सूत्र बता रहे हैं कि तीनों निकायों में नए चेहरों को आगे लाया जा सकता है। रायपुर में झगड़ा बढ़ा, तो विधायक को लड़ाया जा सकता है, लेकिन इसमें जीत की संभावना को ध्यान में रखा जाएगा। फिलहाल तो सर्वे रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा है। ([email protected])
सुनील सोनी की मांग
रायपुर सांसद सुनील सोनी चुनाव प्रचार के लिए महाराष्ट्र जा सकते हैं। वहां उल्हास नगर के भाजपा प्रत्याशी कुमार आयलानी ने महाराष्ट्र भाजपा अध्यक्ष चंद्रकांत दादा पाटिल को पत्र लिखकर इंदौर के सांसद शंकर लालवानी और रायपुर के सांसद सुनील सोनी को प्रचार के लिए बुलाने का आग्रह किया है।
सुनते हैं कि सुनील सोनी को प्रचार में बुलाने के पीछे उल्हास नगर का सामाजिक समीकरण भी है। वहां ज्वेलरी व्यवसाय से जुड़े करीब 25 हजार लोग रहते हैं, जो कि सोनी (सुनार) समाज के हैं। सोनी ज्वेलरी कारोबार से जुड़े विषय को लोकसभा में उठा चुके हैं। इसके चलते प्रदेश के बाहर भी उनकी पहचान बन गई है। यही वजह है कि सोनी को महाराष्ट्र में भी व्यापारी-सराफा व्यवसायी को अपने पक्ष में करने के लिए पार्टी प्रचार में बुला रही है।
न सिर्फ सुनील सोनी बल्कि बृजमोहन अग्रवाल भी विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए महाराष्ट्र जा सकते हैं। बृजमोहन महाराष्ट्र के सीएम देवेन्द्र फडऩवीस के विधानसभा क्षेत्र नागपुर में पिछले चुनाव में भी प्रचार के लिए गए थे। इसके अलावा गोंदिया में उनका ससुराल भी है। गोंदिया और नागपुर में बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ के लोग रहते हैं। इन सबको देखते हुए बृजमोहन और अन्य भाजपा नेताओं की वहां ड्यूटी लग सकती है।
अब भी ताकत की चाह...
पिछली सरकार के मंत्रियों के कई निज सचिवों का दबदबा अभी भी बरकरार है। हालांकि धीरे-धीरे इन कुख्यात निज सचिवों का प्रभाव कम करने की कोशिश की गई है, और उन्हें किनारे लगाया गया है। एक का हौसला तो इतना बढ़ गया था कि मंत्री स्टाफ से बाहर होने के बाद मलाईदार चार्ज पाने के लिए हाईकोर्ट तक चला गया, लेकिन उसे राहत नहीं मिल पाई। बात सिंचाई अफसर एके छाजेड़ की हो रही है।
छाजेड़ जोगी सरकार में मंत्री रहे दिवंगत गंगूराम बघेल के स्टॉफ में रहे। गंगूराम सीधे-सरल नेता थे। तब छाजेड़ ने उनके पीएचई डिपार्टमेंट में जमकर खेल खेला। जोगी सरकार के जाते ही वे भाजपा के मंत्रियों के करीबी हो गए। लंबे समय तक बृजमोहन अग्रवाल के यहां छाए रहे। इसके बाद प्रेमप्रकाश पाण्डेय के ओएसडी बन गए। नई सरकार में मंत्रियों के उन्होंने फिर जगह बनाने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिल पाई। अलबत्ता, उन्होंने विभाग में अनुसंधान अधिकारी का पद हासिल कर लिया, लेकिन जल्द ही उन्हें हटाकर अधीक्षण अभियंता कार्यालय में पदस्थ कर दिया गया। जो कि लूप लाइन माना जाता है। उन्होंने तबादला आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने प्रकरण के निपटारे के आदेश दिए। विभाग ने तमाम कोशिशों के बावजूद उनका अभ्यावेदन निरस्त कर दिया।
रावण का क्या होता अगर...
दशहरे का मौका रावण को बनाने और फिर मिटाने का रहता है। लोग रंगीले-चमकीले पुतले बनाते हैं, और फिर उसे जलाते हैं। लेकिन रावण पर क्या गुजरती होगी, उसे कोई नहीं सोचते। अभी फेसबुक पर किसी ने इस बारे में लिखा है-
1. अगर रावण के दस सिरों में से दो सिर शाकाहारी होते, तो वह तंदूरी-चिकन कैसे खाता?
2. अगर वह किसी लड़की को देखकर सीटी बजा देता तो जवाब में थप्पड़ सीटी वाले मुंह को पड़ती, या सभी दस चेहरों को?
3. उसे सारे दस चेहरों की दाढ़ी बनाने, सभी दस मुंह के दांतों पर ब्रश करने, और सभी दस सिरों के बाल बनाने के बाद समय पर दफ्तर पहुंचने का वक्त रहता?
4. अगर दो सिर बीड़ी-सिगरेट पीने वाले होते, तो बाकी के आठ सिर पैसिव स्मोकिंग की शिकायत नहीं करते?
5. बाल कटाने की जरूरत पडऩे पर नाई को हर सिर के लिए अलग-अलग स्टाईल बतानी होती, या एक सरीखी?
6. अगर वह किसी बार में जाता तो हर सिर की पसंद अलग-अलग शराब होती, या एक सरीखी? और अलग-अलग शराब भीतर जाकर मिलकर कैसा असर करती?
7. सर्दी होने पर एक सिर की नाक साफ करनी होती, या सभी दस नाक?
8. किसी से गुस्सा होने पर एक मुंह से गालियां निकलतीं, और बाकी मुस्कुराते रहते तो क्या होता?
9. मोबाइल फोन का ब्लूटूथ किस सिर के किस कान में लगाता?
10. अगर एक सिर माइकल जैक्सन सुनना चाहता, और दूसरा दलेर मेहंदी तो क्या होता?
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