राजपथ - जनपथ
सरकार गई, पर लड़ाई जारी...
छत्तीसगढ़ में सत्ता के भ्रष्टाचार के कुछ मुद्दों को लेकर मीडिया से कोर्ट तक लगातार लडऩे वाली मंजीत कौर बल ने आज सुबह पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के एक ऐसे अफसर का मामला उठाया है जो अभी दुर्ग में तैनात हैं। मंजीत ने इस बारे में फेसबुक पर लिखा है- 2011 में इस अफसर के खिलाफ एक गंभीर मामले में एफआईआर दर्ज हुई, और उस वक्त के पंचायत मंत्री की मेहरबानी से वे फरार रहते हुए जमानत के लिए हाईकोर्ट तक पहुंचे लेकिन अर्जी खारिज हो गई। फिर 2013 में पंचायत मंत्री की मेहरबानी से इस अफसर की सत्ता में वापिसी हुई, और फरारी के दौरान ही मंत्रालय में पोस्टिंग मिली, इसी पोस्टिंग के दौरान प्रमोशन भी मिला, और उसके अपने गृहस्थान में विशेष पोस्टिंग दी गई। मंजीत ने लिखा है कि पुलिस ने इसी मामले में यह हलफनामा दिया कि यह अभियुक्त कमलाकांत तिवारी व उसके अन्य सहभागी फरार हैं, जिन्हें पकडऩे की कोशिश की जा रही है। पिछले पंचायत मंत्री अजय चंद्राकर के कार्यकाल का यह मामला भूपेश सरकार बनते ही नए पंचायत मंत्री टी.एस. सिंहदेव को भी दिया गया, लेकिन चारसौबीसी और एसटीएससी एक्ट के तहत मामले दर्ज होने के बावजूद अफसर दुर्ग जिला पंचायत में संयुक्त संचालक है।
छत्तीसगढ़ के लोग मंजीत कौर बल को अच्छी तरह जानते हैं क्योंकि वे बरसों से उस वक्त के मंत्री रहे अजय चंद्राकर के खिलाफ कई आयोगों और कई अदालतों में लगातार लड़ाई लड़ती रहीं। अब सत्ता बदलने के बाद भी हाईकोर्ट में पुलिस के लिए हलफनामे के खिलाफ एक अफसर प्रमोशन पाकर तैनात है, और अदालत में कहा जा रहा है कि वह फरार है। कुल मिलाकर मतलब यह कि सरकार बदली, मंत्री बदले, लेकिन मंजीत कौर बल की लड़ाई नहीं बदली, लडऩे की जरूरत जारी है।
कौन है घर का भेदी?
सरकार के भीतर एक बड़ा सवाल यह तैर रहा है कि कई किस्म की जांच का सामना कर रहे निलंबित एडीजी मुकेश गुप्ता की मदद करने के लिए वे कौन लोग हैं जो तरह-तरह की ऐसी कार्रवाई कर रहे हैं जिनसे सुप्रीम कोर्ट में मुकेश गुप्ता का सरकार के खिलाफ केस मजबूत हो। इसके अलावा वे कौन लोग हैं जो सरकार की गोपनीय जानकारी निकालकर मुकेश गुप्ता तक पहुंचा रहे हैं। अब तक की पुलिस की जांच के बारे में दो अलग-अलग निष्कर्ष पता लग रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि मुकेश गुप्ता की बेटियों के फोन टैप करने का गोपनीय आदेश रायपुर आईजी दफ्तर के एक कम्प्यूटर से डाऊनलोड किया गया, और वह उन तक पहुंचा। यह जानकारी बताने वाले लोग बताते हैं कि कम्प्यूटर के भीतर यह जानकारी दर्ज रहती है कि उससे कब कौन सा दस्तावेज डाऊनलोड किया गया। एक दूसरी जानकारी हवा में यह तैर रही है कि रायपुर एसपी दफ्तर का एक जूनियर कर्मचारी इस कागज को मुकेश गुप्ता तक पहुंचाने वाला है। ऐसा कहा जा रहा है कि उसने ये गोपनीय दस्तावेज वॉट्सऐप पर एक अफसर को भेजे, और फिर उस अफसर ने मुकेश गुप्ता को पहुंचाए। जो भी हो फिलहाल सरकार इस जानकारी को सार्वजनिक करने की हड़बड़ी में नहीं दिख रही है, और इस पर अगर कोई कार्रवाई हुई है तो उसे भी सार्वजनिक करने की हड़बड़ी नहीं दिख रही क्योंकि इनमें से कोई जानकारी फिर मुकेश गुप्ता के हाथ मजबूत न कर जाए।
डाला भैया की मिस्टर विनम्र छवि
छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ विधायक को जान से मारने की धमकी मिलने की जानकारी मिलने पर तमाम जनप्रतिनिधि एकजुट हो गए। सभी ने राज्य कानून व्यवस्था पर सवाल उठाने शुरू कर दिए और बात भी सही है, अगर माननीय ही सुरक्षित नहीं है, तो आम लोगों का क्या होगा। टीवी, मीडिया और सदन में सरकार को घेरने के लिहाज से सभी ने गंभीर और एक स्वर में मुद्दा उठाया, लेकिन विधायक महोदय को पहले से जाने वाले सदस्य और उनके पुराने दिनों के साथियों की अलग ही चिंता है। उनका कहना है कि वे जब विधायक-मंत्री नहीं बने थे, तब भी उनकी पहचान थी और वे डाला भैया के नाम से जाने जाते थे। वो दौर था धमकी-चमकी का। यह अलग बात है कि उन्हें परवाह तो उस समय भी नहीं थी, लेकिन ऐसा करने से पहले इलाके के दादा लोग भी सोचते थे, लेकिन अब माननीय बनने के बाद उन्हें धमकी लोगों को कुछ हजम नहीं हो रही है। नेताजी को जानने वाले एक दूसरे नेता ने टिप्पणी की कि लगता है धमकी देने वाला उनके पुराने तेवर से परिचित नहीं है या फिर डाला भैया मिस्टर विनम्र की छवि बना चुके हैं।
मानव बम का खौफ
छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके से कांग्रेस के एक विधायक से सत्ता और विपक्ष के बड़े बड़े दिग्गज घबराने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि वे राजनीति में पॉवरफुल हो गए हैं, बल्कि विधायक बनने के बाद भी सामान्य तौर तरीके से रहते हैं और लोगों से मिलते हैं। ऐसे सहज सरल जनप्रतिनिधि मानव बम के नाम से प्रचलित हो गए हैं। लोग बाग उन्हें दूर से ही देखकर ऐसे भागते जैसे वो कोई बम-वम लेकर घूमते हों। हालांकि ऐसा बिल्कुल नहीं है, लोगों से जब इस बारे में पूछा गया तो किसी ने साफ तौर पर कुछ बताया तो नहीं, लेकिन इतना जरूर कहा कि इसके लिए आपको कुछ देर उनके साथ रहना पड़ेगा। उनके साथ रहने का मौका तो नहीं मिला, लेकिन उनके बारे में जो कानाफूसी होती है, उससे यह बात समझ आई कि उनका हाजमा गड़बड़ रहता है, जिसके कारण उन्हें मानव बम की उपाधि दी गई है।
कुलसचिव ने ऐसे बढ़वाए नंबर
दिल्ली के जेएनयू में आंदोलन की धमक छत्तीसगढ़ में भी दिखाई दी। यहां के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि के छात्रों ने गेट के बाहर प्रदर्शन किया। छात्र नेताओं और कई नुमाइंदों ने भाषण दिया। विवि में फिलहाल कुलपति का पद खाली है और कुलसचिव ही सर्वेसर्वा हैं। उनको इस बात की जानकारी मिली कि विवि के बाहर जेएनयू के समर्थन में प्रदर्शन की तैयारी है तो उन्होंने मीडिया में बयान दिया कि ऐसे किसी भी प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई है और इसमें भाग लेने वाले छात्रों पर कार्रवाई की जाएगी, लेकिन प्रदर्शन वाले दिन उनका रवैया ठीक उलटा था। वे पूरे समय प्रदर्शन स्थल के पास ही कुर्सी लगाकर बैठे रहे और तो और छात्रों को भी प्रेरित करते रहे कि आंदोलन में शामिल हों। हद तो तब हो गई जब उन्होंने प्रदर्शन में शामिल प्रमुख लोगों के लिए अपने सरकारी आवास में दावत का इंतजाम किया। उधर, सोशल मीडिया में इसकी खूब चर्चा हो रही है और प्रदर्शन स्थल पर कुर्सी लगाए बैठे उनकी तस्वीर भी खूब वायरल हो रही है। लोगों ने यह भी लिखा है कि धरने के लाऊडस्पीकर के लिए बिजली भी विश्वविद्यालय से दी गई। हालांकि इससे उनकी सेहत पर कुछ असर पड़ेगा, इसकी संभावना तो कम ही है, क्योंकि उन्होंने अपना नंबर तो बढ़वा लिया है। ([email protected])
ये गेड़ी, भौंरा की मस्ती है...
छत्तीसगढ़ में इन दिनों दो बातें खूब चर्चा में है। पहली बात किसानों की धान खरीद और दूसरी सूबे के मुखिया भूपेश बघेल का ठेठ देसी अंदाज। कभी वो गेड़ी चढ़ते नजर आते हैं, तो कभी भौंरा चलाते या फिर नदी में आकर्षक डुबकी लगाते सुर्खियों में रहते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि वे अपने इस अंदाज के कारण खूब वाहवाही बटोर रहे हैं। इस बीच धान खरीद को लेकर भी खूब सियासत हो रही है। कांग्रेस बीजेपी दोनों एक दूसरे पर बरस रहे हैं। मामला कुछ भी हो लेकिन किसान की चिंता बढ़ गई है, क्योंकि धान खरीद 1 दिसंबर शुरू होगी। ऐसे में किसान को रोजमर्रा के कामकाज और खर्च के लिए धान बेचना ही पड़ता है। दिक्कत ये है कि समर्थन मूल्य से कम कीमत पर कोचिया या व्यापारी को धान बेचने में भी खतरा बना हुआ है। खेत-खलियान से जैसी ही गाड़ी निकलती है, पुलिस और प्रशासन की पैनी नजर उस पर टूट पड़ती है। कोई किसान सपड़ा गया तो समझो गए काम से, क्योंकि उनका सीआईडी दिमाग कहता है कि हो सकता है कि धान की तस्करी हो रही हो? पुलिस और प्रशासन को समझाने-बुझाने और कागज दिखाने में कम से कम दो तीन दिन का समय बीत जाता है। जैसे तैसे गाड़ी छूटती है तो मंडी में और व्यापारियों से जूझना पड़ता है। ऐसे ही परेशानी से जूझने के बाद एक किसान ने अपनी व्यथा इलाके के बड़े नेता को बताई तो उन्होंने तपाक से छत्तीसगढ़ी में कहा कि रुक अभी गेड़ी, भौंरा और डुबकी लगाए के बाद सोचबो धान के का करना हे। इतना सुनते ही किसान समझ गया कि अभी कुछ बोलना बेकार है।
खुद का माल बेचने के लिए...
रमन सरकार के समय इस रोक के पीछे सोच बताई जा रही थी कि ऐसी तमाम बिक्री पर रोक लगने से ही नया रायपुर के भूखंड, कमल विहार के भूखंड, और हाऊसिंग बोर्ड के मकान बिक सकेंगे। सरकार ने खुद ने इन सबका ऐसा दानवाकार आकार खड़ा कर दिया था कि उसे बेचना भारी पड़ रहा था, और अब साल भर गुजारने के बाद भी भूपेश सरकार इस बोझ से उबर नहीं पा रही है। पिछली सरकार के समय हाऊसिंग बोर्ड ने इस बड़े पैमाने पर गैरजरूरी निर्माण कर लिया था जिसमें चवन्नी दिलचस्पी जरूर थी, लेकिन बोर्ड का कोई फायदा नहीं था, घाटा ही घाटा था। उस समय हाऊसिंग बोर्ड के खाली मकानों को ठिकाने लगाने के लिए सरकार के सबसे ताकतवर सचिव पुलिस महकमे के पीछे लगे थे, और डीजीपी ए.एन.उपाध्याय और हाऊसिंग बोर्ड के एमडी डी.एम. अवस्थी पर लगातार दबाव डाला गया था कि वे पुलिसवालों के लिए मकान बनाने के बजाय हाऊसिंग बोर्ड के मकान ही खरीद लें। लेकिन उन्होंने हाऊसिंग बोर्ड के निर्माण को कमजोर बताते हुए और उनका दाम अधिक बताते हुए उस पर पुलिस का पैसा खर्च करने से मना कर दिया था। उसके बजाय पुलिस हाऊसिंग कार्पोरेशन ने अपने मकान बनाए थे जो कि शहर के अलग-अलग इलाकों में, थानों के आसपास, और पुलिस लाईन के आसपास बने, और छोटे पुलिस कर्मचारियों के अधिक काम भी आए।
छोटे प्लॉटों की छूट से जनता का भला
छोटे भू-खण्डों की रजिस्ट्री की अनुमति देने के फैसले को अच्छा प्रतिसाद मिला है। चार-पांच महीने में ही एक लाख से अधिक छोटे भू-खण्डों की रजिस्ट्री हो चुकी है। सरकार के इस फैसले से निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों को बड़ा फायदा हुआ है, जो कि सरकारी नियमों के चलते मकान नहीं बना पा रहे थे, या अपनी निजी जरूरतों के लिए भी निजी जमीन को बेच नहीं पा रहे थे। पिछली सरकार में भी 22 सौ वर्गफीट से कम भू-खण्डों की रजिस्ट्री पर से रोक हटाने की मांग उठी थी। तब कैबिनेट की बैठक में दो मंत्रियों के बीच इसको लेकर काफी विवाद हुआ था। विवाद इतना ज्यादा हुआ था कि सीएम रमन सिंह को हस्तक्षेप करना पड़ा। रमन सिंह भी छोटे भू-खण्डों की रजिस्ट्री पर से रोक हटाने के पक्ष में थे, लेकिन एक अन्य मंत्री ने जब इसका विरोध किया तो वे भी पीछे हट गए। इसका नुकसान विधानसभा चुनाव में भाजपा को उठाना पड़ा और परंपरागत शहरी वोट कांग्रेस की तरफ खिसक गए।
लोग बड़े-बड़ेे महान लोगों की किताबों में जिंदगी के राज ढूंढते हैं। हकीकत यह है कि जिंदगी के कई किस्म के फलसफे ट्रकों के नीचे लिखे दिख जाते हैं, और कई बार लोगों के टी-शर्ट भी कड़वी हकीकत बताते हैं।
स्मार्ट पुलिस के राज में किस्मत कारगर
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की पुलिस स्मार्ट और हाईटेक होने का दावा करती है और यहां के पुलिस कप्तान की स्मार्ट पुलिसिंग का डंका देश-विदेश में भी बजता है, लेकिन शहर में चोरी के एक ताजा मामले में कहानी कुछ और ही कह रही है। हम जिस चोरी की बात कह रहे हैं, वह है तो एक मामूली सी चोरी, लेकिन राजधानी की स्मार्ट और हाइटेक पुलिसिंग की पोल खोलने के लिए काफी है। रायपुर के फूल चौक से करीब 15 दिन पहले एक महिला डॉक्टर की एक्टिवा बाइक चोरी हो गई थी, जिसकी रिपोर्ट मौदहापारा थाने में लिखवाई गई। जैसा कि आमतौर पर होता है कि पुलिस ने खानापूर्ति के लिए काफी जद्दोजहद के बाद रिपोर्ट तो लिख ली, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की, जबकि आपको आश्चर्य होगा कि यह चोरी की गाड़ी शहर के दूसरे थाने में ही पड़ी मिली। वो तो गनीमत है कि महिला डॉक्टर के परिचित का, जो किसी काम से थाने गए तो उन्होंने बाइक को पहचान लिया।
राजधानी रायपुर में बाइक चोरी, उठाईगिरी और सूने घरों के ताले टूटने की दर्जनों रिपोर्ट रोजाना थाने में दर्ज होते हैं, लेकिन उसमें से अधिकांश मामलों में पुलिस शायद ही किसी नतीजे तक पहुंच पाती है। पीडि़त लोग भी यह मानकर चलते हैं कि उनका चोरी हुए सामान का मिलना मुश्किल है, फिर भी पुलिस से उम्मीद लगाए लोग थाने के चक्कर जरूर काटते हैं, हालांकि पुलिस थानों के चक्कर काटते-काटते उनकी आखिरी उम्मीद भी टूट जाती है। किसी किस्मत वाले को ही उसका चोरी हुआ सामान वापस मिल पाता है। ऐसे ही फूल चौक की इस महिला डॉक्टर का भाग्य ने साथ दिया तो उसकी चोरी हुई बाइक 15 दिन के भीतर मिल गई। रायपुर की सुयश हास्पिटल की डॉक्टर की गाड़ी 8 नवंबर को फूल चौक स्थित घर से चोरी हो गई। उन्होंने 9 तारीख को मौदहापारा में इसकी रिपोर्ट लिखवाई। यह अलग बात है कि रिपोर्ट लिखवाने के लिए भी उन्हें खूब पापड़ बेलने पड़े। इसके बाद वो अपनी बाइक की खबर लेने रोजाना थाने जाती थीं, लेकिन पुलिस वाले उन्हें डॉटकर भगा देते थे कि रोज रोज परेशान न करें। गाड़ी के बारे में जानकारी मिलने पर फोन कर दिया जाएगा। महिला डॉक्टर ने आसपास के सीसीटीवी कैमरा के फुटेज भी पुलिस को उपलब्ध कराए थे, जिसमें सुबह 4 बजे के आसपास चोर गाड़ी ले जाते दिखाई दे रहा था, लेकिन इसके बाद भी पुलिस ने कोई खोजबीन नहीं की।
महिला डॉक्टर का 15 दिन में उत्साह धीरे धीरे ठंड़ा हो रहा था, इस बीच शुक्रवार को उनके एक रिश्तेदार किसी काम से टिकरापारा थाने पहुंचे तो उन्हें वहां एक्टिवा बाइक खड़ी दिखी। उन्होंने इसकी सूचना महिला डॉक्टर को दी तो उसने टिकरापारा थाने जाकर देखा तो वह उनकी ही गाड़ी निकली। इसके बाद उन्होंने इसकी सूचना मौदहापारा पुलिस को दी। थाने वालों ने पता करवाया तो जानकारी मिली कि गाड़ी लावारिस हालत में पड़ी मिली थी, तो उसे थाने में रखवा दिया गया था। अब सोचने वाली बात यह है कि शहर में एक थाने से दूसरे थाने के बीच सूचनाओं का आदान प्रदान नहीं हो रहा है, तो कैसी स्मार्ट पुलिसिंग का दावा किया जा रहा है। महिला डॉक्टर को किस्मत और रिश्तेदार की तत्परता के कारण गाड़ी कोर्ट से वापस मिल जाएगी, लेकिन हर किसी की किस्मत ऐसा हो जरूरी नहीं है।
खास बात यह है कि महिला डॉक्टर ने अपनी गाड़ी को आकर्षक बनाने के लिए तरह-तरह के ग्राफिक्स बनवाए थे, इसीलिए रिश्तेदारों ने उसकी पहचान कर ली, वरना तो गाड़ी थाने में पड़े-पड़े सड़ जाती। एक और बात यह भी कि उनकी गाड़ी में पेट्रोल कम था, तो पेट्रोल खत्म होने पर चोर ने गाड़ी को लावारिस छोडऩा ही सही समझा। इस पूरे वाकये से ये सबक तो मिलता है कि गाड़ी में ज्यादा पेट्रोल न रखें और कुछ ऐसा निशान बनाकर रखें, ताकि गाड़ी और सामानों को कोई भी पहचान सके, क्योंकि रायपुर की स्मार्ट पुलिस ने शहर को किस्मत के भरोसे छोड़ दिया है।
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भ्रष्टाचार निजी स्टाफ से होकर...
मोदीजी की तरह दाऊजी, यानी भूपेश बघेल भी अपने और साथी मंत्रियों की निजी स्थापना पर नजर रखे हुए हैं। आम धारणा है कि भ्रष्टाचार मंत्री के स्टाफ से होकर गुजरता है। यही वजह है कि इस पर नकेल कसने की कोशिश हो रही है और सरकार के 11 महीने के कार्यकाल में अब तक दर्जनभर अफसर-कर्मी सीएम-मंत्री स्टाफ से निकाले जा चुके हैं। तकरीबन सभी तेज बैटिंग कर रहे थे। खुद दाऊजी अपने स्टाफ से दो को बाहर कर चुके हैं।
शुरूआत उन्होंने अपने ओएसडी प्रवीण शुक्ला से की थी, जो कि उद्योग अफसर हैं और वे भी इन्हीं सब शिकायतों के चलते बाहर हुए। उन्हें रविंद्र चौबे के यहां भेजा गया, लेकिन वहां भी वे ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। इसके बाद हाल ही में सीएम हाउस से अजीत मढ़रिया को भी मूल विभाग में भेज दिया गया। अजीत सीएम भूपेश बघेेल के सबसे पुराने सहयोगी थे। चर्चा है कि दाऊजी के सीएम बनने के बाद उनके अपने निवास में समानांतर जनदर्शन चल रहा था। ये बात किसी को हजम नहीं हुई और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
स्कूल शिक्षा मंत्री प्रेमसाय सिंह का पूरा स्टाफ बदल दिया गया। लेकिन इससे पहले तक मंत्री की जानकारी के बिना तबादला-पोस्टिंग के नाम पर प्रदेशभर से काफी कुछ बटोरकर निकल गए। जयसिंह अग्रवाल के दो पीए बदले जा चुके हैं। रूद्रकुमार गुरू के पीए पंकज देव को भी हाल में मूल विभाग में भेज दिया गया। कवासी लखमा के यहां भी छोटा सा फेरबदल हुआ है। पुराने मंत्री मोहम्मद अकबर, रविन्द्र चौबे के यहां पुराने लोग काम कर रहे हैं।
अकबर के यहां एस के सिसोदिया तो पिछली सरकार में भ्रष्टाचार के खिलाफ धरने पर बैठ गए थे। रविंद्र चौबे के यहां डीपी तिवारी की साख अच्छी है। उमेश पटेल के यहां तो उनके पिता के पुराने सहयोगी जेके शर्मा ही काम संभालते हैं। उनकी छबि भी साफ-सुथरी है। अनिला भेडिय़ा के यहां स्टाफ पर उनके पति, रिटायर्ड आईजी रविंद्र भेडिय़ा, की पैनी निगाहें रहती हंै। इसलिए उनके यहां जो कुछ भी होता है, वह रविंद्र भेडिय़ा की जानकारी में रहता है।
टीएस सिंहदेव के स्टाफ में उनके ओएसडी आनंद सागर सिंह का दबदबा है। आनंद भी सिंहदेव के जांचे-परखे हुए हैं। आनंद के पिता, सिंहदेव के पिता के सहायक थे। आनंद भी सिंहदेव के मिजाज से पूरी तरह वाकिफ हैं। वे ऐसा कोई काम करने से परहेज करते हैं, जो सिंहदेव को पसंद नहीं है। यही वजह है कि इन मंत्रियों के यहां भारीभरकम तबादलों के बावजूद लेन-देन की चर्चाओं मेें पुराने स्टाफ के लोगों का नाम नहीं आया। इन मंत्रियों के यहां भारी भरकम तबादलों के बाद भी गरिमा कायम रही।
रमन सिंह के वक्त भी...
पिछली सरकार में तो रमन सिंह और उनके कुछ मंत्रियों के सहयोगियों ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए थे, जिनके खिलाफ पीएमओ तक शिकायत हुई थी। रमन सिंह खुद शालीन रहे, लेकिन अरूण बिसेन जैसों के कारनामों को अनदेखा करना उन्हें भारी पड़ा। खुद रमन सिंह की छवि पर असर पड़ा। मंत्रियों के स्टाफ का हाल यह रहा कि दो के खिलाफ तो यौन उत्पीडऩ की शिकायत भी अलग-अलग स्तरों पर हुई थी, लेकिन मामले दबा दिए गए। यही नहीं, एक मंत्री के करीबी अफसर की प्रताडऩा से एक जूनियर इंजीनियर ने आत्महत्या तक कर ली थी, लेकिन उन पर कार्रवाई तो दूर, कुछ समय बाद प्रमोशन तक हो गया।
रमन सरकार के एक मंत्री के ओएसडी की तो एक जूनियर अफसर ने बंद कमरे में जमकर पिटाई भी की थी। चूंकि कमरे के बाहर सिर्फ आवाज ही सुनाई दे रही थी और बाहर निकलकर ओएसडी ने किसी तरह चूं-चपड़ नहीं की इसलिए तूल नहीं पकड़ सका। केदार कश्यप के पीए आरएन सिंह के खिलाफ तो दिल्ली के एक प्रकाशक ने बकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर खुलेतौर पर कमीशन मांगने का आरोप लगाया था। आरएन सिंह की तो बृजमोहन अग्रवाल के शिक्षा मंत्री रहने से लेकर केदार कश्यप के कार्यकाल तक शिक्षा विभाग में तूती बोलती थी कुछ लोग तो उन्हें अघोषित मंत्री तक कहते थे। भाजपा के पुराने नेता कहते हैं कि यदि मोदी सरकार की तरह मंत्री स्टाफ पर नजर रखी जाती, तो भाजपा का इतना बुरा हाल नहीं होता। जाहिर है कि मंत्रियों का उन्हें संरक्षण था, ऐसे में बुरा होना ही था।
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सारी सिफारिशें किनारे करके...
वैसे तो प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी पीएल पुनिया ने कहा था कि निकाय- पंचायत चुनाव के बाद निगम-आयोगों में नियुक्ति होगी, फिर भी अल्पसंख्यक आयोग में नियुक्ति कर दी गई। महेन्द्र छाबड़ा को आयोग का अध्यक्ष बनाने का फैसला चौंकाने वाला था, क्योंकि इसमें प्रदेशभर के बड़े मुस्लिम-सिख नेताओं की नजर लगी थी। पार्टी के कई राष्ट्रीय नेताओं ने भी अपनी तरफ से अलग-अलग नामों की सिफारिशें की थी। इन सबको दरकिनार कर महेन्द्र छाबड़ा को अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई।
सुनते हैं कि छाबड़ा को अध्यक्ष बनाने में मोहम्मद अकबर की भूमिका अहम रही है। छाबड़ा राजीव भवन में मंत्रियों के मेल-मुलाकात कार्यक्रम के प्रभारी थे और मीडिया विभाग में भी अपनी जिम्मेदारी बाखूबी से निभा रहे थे। ऐसे में अकबर ने उनके नाम का सुझाव दिया, तो सीएम ने फौरन हामी भर दी। आयोग में दो सदस्यों में से एक अनिल जैन की नियुक्ति में भी अकबर की चली है।
अनिल, अकबर के कॉलेज के दौर के सहयोगी हैं। जबकि राजनांदगांव के हाफिज खान की नियुक्ति में करूणा शुक्ला का रोल रहा है। हाफिज खान ने विधानसभा चुनाव में राजनांदगांव में करूणा का जमकर प्रचार किया था। और करूणा ने जब उनका नाम आगे किया, तो सीएम ने बिना किन्तु-परन्तु के सदस्य के रूप में नियुक्ति कर दी। दोनों सदस्यों को राज्यमंत्री का दर्जा रहेगा।
जब सीधा आदमी अड़ जाए...
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी सीधे-सरल माने जाते हैं। मगर कांकेर जिलाध्यक्ष पद पर अपने समर्थक विजय मंडावी को बिठाने के लिए सभी बड़े नेताओं की नाराजगी मोल ले ली। कांकेर में रमन सिंह, रामप्रताप सिंह और पवन साय व धरमलाल कौशिक एकमतेन किसी गैर आदिवासी विशेषकर सामान्य वर्ग से अध्यक्ष बनाने के पक्ष में थे। क्योंकि जिले की सारी विधानसभा सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित है। मौजूदा जिलाध्यक्ष हलधर साहू पिछड़ा वर्ग से रहे हैं, लेकिन वे कोई परिणाम नहीं दे सके। कांकेर जिले में हर चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है।
सुनते हैं कि विक्रम को समझाने की कोशिश की गई, किन्तु वे नहीं माने। अपेक्स बैंक के पूर्व अध्यक्ष महावीर सिंह राठौर के साथ तो उनकी तीखी नोंक-झोंक भी हुई। वे अपनी पसंद का अध्यक्ष बनाने के लिए इतने अड़े थे कि पार्टी को कांकेर का 22 तारीख को होने वाला चुनाव स्थगित करना पड़ा। पार्टी नेताओं को आशंका थी कि विक्रम अपनी पसंद का अध्यक्ष न होने पर पद से इस्तीफा तक दे सकते हैं। ऐसे में पार्टी नेताओं ने फिलहाल चुनाव टालने में समझदारी दिखाई। ([email protected])
सहकर्मी से समधी तक...
दो आईएफएस अफसर संजय शुक्ला और जयसिंह म्हस्के की दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदलने जा रही है। संजय जल्द ही पीसीसीएफ बनने वाले हैं, और म्हस्के वन मुख्यालय में एपीसीसीएफ की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। वैसे तो म्हस्के, संजय शुक्ला से एक साल जूनियर हैं, लेकिन दोनों लंबे समय तक पंचशील नगर में एक-दूसरे के पड़ोसी रहे हैं। दोनों ही रायपुर के ही रहने वाले हैं। संजय के पिता कान्यकुब्ज सभा के अध्यक्ष भी रहे हैं और म्हस्के के परिवार के लोग राजनीति में है। और अब संजय के पुत्र सूर्यांश का विवाह अगले महीने म्हस्के की पुत्री से होने जा रहा है। दोनों का परिवार एक-दूसरे से बरसों से परिचित रहा है।
ऐसे में दोनों परिवारों ने आपसी रजामंदी से दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने का फैसला लिया। संजय के पुत्र सूर्यांश की पढ़ाई विदेश में हुई है और उनका अपना खुद का कारोबार है। संजय और म्हस्के, छत्तीसगढ़ के पहले आईएफएस हैं, जो पद पर रहते आपस में रिश्तेदार बनने जा रहे हैं। इससे पहले अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे शरदचंद बेहार ने अपने पुत्र का विवाह अपने जूनियर अफसर एस के मिश्रा की पुत्री के साथ किया था। मिश्रा बाद में छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव बने और रिटायरमेंट के बाद कई अहम पदों पर रहे।
हक तो बनता है...
प्रदेश भाजपा संगठन के कर्ता-धर्ता माने जाने वाले गौरीशंकर अग्रवाल अपनी ही पार्टी के प्रमुख नेताओं की आंखों की किरकिरी बन गए हैं। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष होने के नाते गौरीशंकर को तमाम सरकारी सुविधाएं हासिल हैं। वे पूरे लाव-लश्कर के साथ पार्टी दफ्तर आते हैं। वे वैसे तो किसी अहम पद पर नहीं है, लेकिन उनके मंच पर बैठने को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं।
सुनते हैं कि प्रदेश पदाधिकारियों की बैठक में दो वरिष्ठ नेताओं ने महामंत्री (संगठन) पवन साय को पर्ची भेजकर जानना चाहा कि गौरीशंकर को किस आधार पर मंच पर बिठाया गया। इससे पार्टी में हलचल मच गई। पिछले दिनों जिला अध्यक्ष की रायशुमारी के लिए वरिष्ठ नेताओं की बैठक में भी गौरीशंकर मौजूद थे, तब भी कुछ प्रमुख नेताओं ने उनकी मौजूदगी पर आपत्ति की थी।
गौरीशंकर भले ही किसी पद पर न हो, पार्टी में साधन-संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी उन पर रहती है। लोगों को याद है कि जब पार्टी लगातार विपक्ष में थी तब भी रायपुर में भाजपा कार्यालय गौरीशंकर अग्रवाल ने ही खड़े रहकर बनवाया था, और तब से लेकर विधानसभा अध्यक्ष रहने तक भी राजनीतिक और चुनावी खर्च की तमाम इंतजाम बैठकों में वे रखे ही जाते थे। ऐसे में मंच पर बैठने का हक तो बनता ही है, लेकिन पार्टी दिग्गज नेताओं की नाराजगी को भी अनदेखा नहीं कर पा रही है। चूंकि पार्टी विपक्ष में है, ऐसे में दिग्गजों को साथ लेना मजबूरी भी है। इन सबको देखते हुए तोड़ निकाला गया कि मंच पर कुर्सी में अब नेताओं का नाम चिपका दिया जाता है। जिनका नाम होता है, वे ही मंच पर कुर्सी में बैठ सकते हैं। इससे सभी का सम्मान रह जाता है।
संभावनाएं अभी बाकी हैं...
आरपी मंडल के मुख्य सचिव बनने के साथ ही उनके बैचमेंट चित्तरंजन खेतान मंत्रालय से बाहर हो गए क्योंकि आमतौर पर लोग अपने बराबर के, या अपने से जूनियर अफसर के मातहत काम नहीं करते। खेतान के राजस्व मंडल जाने के अलावा इन दोनों से वरिष्ठ एक अफसर, पूर्व मुख्य सचिव अजय सिंह भी सरकार के बाहर हैं, लेकिन वे राजस्व मंडल से नया रायपुर, योजना आयोग में उपाध्यक्ष के पद पर आ गए हैं, जहां अध्यक्ष मुख्यमंत्री होते हैं। एक और सीनियर अफसर एन. बैजेंद्र कुमार केंद्र सरकार के एनएमडीसी में सीएमडी के बहुत महत्वपूर्ण और ताकतवर पद पर हैं, लेकिन उनका रिटायरमेंट भी कुछ ही महीने दूर है। ऐसे में अभी ऊपर के ये चारों नाम कुछ महीनों से लेकर डेढ़ बरस तक अलग-अलग जगह काम भी करेंगे, लेकिन लोगों की नजरें इस पर भी हैं कि क्या मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इनमें से किसी को सलाहकार भी बनाएंगे? पिछली भाजपा सरकार में शिवराज सिंह और सुनिल कुमार दो रिटायर्ड मुख्य सचिव सलाहकार बने थे, और भूपेश सरकार में कोई भी रिटायर्ड अफसर सलाहकार नहीं है। कुछ लोगों को लगता है कि भूतपूर्व अफसर भी काम के हो सकते हैं, हालांकि भूपेश बघेल ने जो चार गैरसरकारी पृष्ठभूमि वाले सलाहकार बनाए हैं, वह अपने-आपमें एक अनोखा और महत्वपूर्ण प्रयोग है। इनमें से तीन तो अखबारी दुनिया से आगे बढ़े हुए हैं, और एक राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए हैं। अब जो अफसर मुख्य सचिव बन गए, या नहीं बन पाए, उनके सामने सलाहकार बनने की एक दूर की संभावना दिखती है।
बड़ा और कड़ा फैसला
आखिरकार दाऊजी ने रायगढ़ के गारे पेलमा खदान से राज्य पॉवर कंपनी के संयंत्रों तक कोयला परिवहन के ठेके को निरस्त करने के आदेश दे दिया। उनके इस फरमान से पार्टी में हलचल मची हुई है, जो कि कोयला परिवहन कारोबार से जुड़े हैं। गारे पेलमा के माइनिंग ऑपरेटर अडानी समूह हैं और परिवहन में भी उनकी एकतरफा चलती है। मगर टेंडर में जो रेट आए थे वह काफी ज्यादा थे। इसके बाद उन्होंने पॉवर कंपनी के चेयरमैन शैलेन्द्र शुक्ला से चर्चा के बाद कड़ा और बड़ा फैसला ले लिया।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अडानी समूह के खदानों में परिवहन का ठेका अंबिकापुर के कई बड़े लोगों के पास रहा है। यहां के परिवहन ठेकेदारों का दबदबा इतना है कि अंबिकापुर के मुख्य चौराहे में गांधीजी की प्रतिमा को किनारे लगा दिया गया। ताकि गाडिय़ों के आने-जाने में दिक्कत न हो। दिलचस्प बात यह है कि राजनेता तो दूर, बात-बात पर धरना प्रदर्शन और कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने वाले सामाजिक कार्यकर्ता भी इसको लेकर खामोश रहे। मगर इस बार दाऊजी के फैसले से अडानी-समर्थकों को गहरी चोट पहुंची है। इससे पहले लेमरू हाथी अभ्यारण्य के फैसले से अडानी समूह को बड़ा झटका लगा था। क्योंकि हसदेव अरण्ड इलाके में अडानी समूह को पीएल मिला हुआ था। विरोधी भी मानने लग गए हैं कि राज्यहित में बड़ा और कड़ा फैसला दाऊजी ही ले सकते हैं।
रमन सिंह की एक और पारी?
पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को प्रदेश भाजपा की कमान सौंपी जा सकती है। पार्टी हल्कों में इसकी चर्चा चल रही है। संगठन चुनाव में जिस तरह छोटे-बड़े फैसलों में रमन सिंह की राय ली जा रही है, उससे उन्हें अध्यक्ष बनाने की अटकलों को बल मिला है। 15 साल के सीएम रमन सिंह विधानसभा चुनाव में बुरी हार के बाद अभी भी पार्टी का सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं।
जिलाध्यक्षों के चयन में उनकी राय को महत्व मिलने के संकेत हैं। खुद प्रदेश के चुनाव अधिकारी रामप्रताप सिंह और महामंत्री (संगठन) पवन साय जिलाध्यक्षों का नाम तय करने के पहले उनसे मंत्रणा कर चुके हैं। वैसे तो पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया है, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में उनकी पूछ परख नहीं रह गई है। उन्होंने खुद भी दिल्ली आना-जाना एकदम कम कर दिया है। प्रदेश के नेता भी छोटी-मोटी शिकायतों को लेकर प्रदेश अध्यक्ष या अन्य किसी नेता के पास जाने के बजाए रमन सिंह के पास जाना ज्यादा पसंद कर रहे हैं।
सुनते हैं कि रमन सिंह ने राजनांदगांव में स्थानीय सांसद संतोष पाण्डेय और अन्य पूर्व विधायकों के विरोध के बावजूद महापौर मधुसूदन यादव को जिलाध्यक्ष बनाने के पक्ष में राय दे दी है। उन्होंने यह तर्क दिया है कि हेमचंद यादव के निधन के बाद पार्टी के पास कोई बड़ा यादव चेहरा नहीं है। चर्चा तो यह भी है कि मधुसूदन यादव को अध्यक्ष बनाने के लिए रमन सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह का ज्यादा दबाव है।
रमन सिंह सिर्फ दुर्ग-भिलाई में ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि वहां सरोज पाण्डेय, और पे्रम प्रकाश पाण्डेय की दिलचस्पी है। बाकी जगह रमन सिंह की पसंद-नापसंदगी को तवज्जो मिल रही है। ऐसे में उन्हें प्रदेश की कमान सौंपने की अटकलें चल रही है, तो बेवजह नहीं हैं। उनके उत्साही समर्थक मानते हैं कि जिस तरह वर्ष-2003 में रमन सिंह के अध्यक्ष रहते प्रदेश में भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई थी, उसी तरह चार साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में फिर से रमन सिंह की अगुवाई में सरकार बनाने में कामयाब होंगे। मगर क्या केन्द्रीय नेतृत्व भी ऐसा सोचता है, यह अगले महीने साफ हो जाएगा। ([email protected])
सारी कायनात जुट गई...
रेडिएंट-वे स्कूल में हादसे को लेकर पिछले दिनों जमकर कोहराम मचा। हादसे में एक छात्रा बुरी तरह घायल हो गई। स्कूल में फीस बढ़ोत्तरी को लेकर पालक पहले से ही नाराज चल रहे थे। ऐसे में हादसे के बाद उन्हें प्रबंधन के खिलाफ मोर्चा खोलने का मौका मिल गया। पालक संघ के दबाव के बाद स्कूल संचालक समीर दुबे और अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर कार्रवाई के लिए सीएम और गृहमंत्री का भी दबाव था, लेकिन कुछ घंटे बाद मुचलके पर उन्हें छोडऩा पड़ा।
सुनते हैं कि समीर को छोडऩे के लिए ऐसा दबाव पड़ा कि पुलिस के हाथ-पांव फूल गए। विधायक कुलदीप जुनेजा ने तो समीर को छोडऩे के लिए पुलिस की नाक में दम कर रखा था। भाजपा सांसद सुनील सोनी भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने ने भी समीर को छुड़ाने के लिए आईजी और एसपी को फोन किया। समीर, दिवंगत खुदादाद डंूगाजी के नाती हैं, उनके पिता मंगल दुबे की भी अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से आईएएस अफसरों के बीच बड़ी पकड़ रही है। रायपुर के आयुर्वेदिक कॉलेज का अस्पताल डूंगाजी की दान की हुई जमीन पर बना है।
ऐसे में समीर पर आफत आई, तो कई बड़े असरदार लोग भी समीर को छुड़ाने की कोशिश में जुट गए। ऐसे में सत्ता और विपक्ष के साथ-साथ बड़े कारोबारियों को एक मंच पर देख पुलिस के हौसले पस्त पड़ गए और थोड़ी-बहुत कानूनी कार्रवाई कर रिहा कर अपनी जान छुड़ाई। वैसे नेताओं में समीर दुबे के घर सबसे अधिक जाने-आने वाला जोगी परिवार रहा है, लेकिन आज इस परिवार की सिफारिश नुकसान छोड़ कोई नफा नहीं कर सकती।
बिना वल्दियत का अज्ञान...
सोशल मीडिया के वैसे तो कई औजार हैं, लेकिन जितना आसान और प्रचलित वॉट्सऐप है, उतना और कोई नहीं। लोगों को यह दिख जाता है कि उनके दोस्त अभी ऑनलाईन हैं या नहीं, उन्होंने उनका भेजा मैसेज पढ़ लिया है या नहीं। ऐसी सहूलियत के साथ इसका प्रचलन बढ़ते चल रहा है। और साम्प्रदायिक अफवाहों के तुरंत बाद इसमें दूसरा सबसे बड़ा बेजा इस्तेमाल मेडिकल दावों का हो रहा है। लोग कहीं से ऐसा संदेश पाते हैं कि डायबिटीज का इलाज क्या है, किस तरह कैंसर ठीक हो सकता है, और आनन-फानन उसे किसी धार्मिक भंडारे के प्रसाद की तरह चारों तरफ बांटने में लग जाते हैं। ज्ञान बांटने में काफी मेहनत लगती है, और उसे पाने वाले उतना खुश भी नहीं होते। लेकिन अज्ञान के साथ ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती, और लोग उसे पाकर भी खुश होते हैं क्योंकि वह दिमाग पर जोर नहीं डालता, और उसे खूब बांटते भी हैं क्योंकि लोगों को लगता है कि वह दोस्तों का भला करेगा। भली नीयत के साथ भी फैलाए गए बेबुनियाद मेडिकल दावे लोगों को सुख देते हैं, भेजने वाले को भी, और पाने वाले को भी। जानकार मेडिकल सलाह लोगों को कहेगी कि रोज आधा घंटा तेज पैदल चलो, मीठा खाने से बचो, रात खाना जल्दी खत्म करो। दूसरी तरफ अज्ञान के पास घरेलू नुस्खों की भरमार रहती है कि सौफ और अजवाईन से, लहसुन और सरसों के तेल से कैसे डायबिटीज गायब हो सकता है, कैंसर खत्म हो सकता है, और दिल की तंग हो चुकी धमनियां फिर से गौरवपथ की तरह चौड़ी हो सकती हैं। सोशल मीडिया पर तैरता हुआ अज्ञान बिना वल्दियत वाला होता है, और उसकी कीमत किसी पखाने के दरवाजे पर भीतर की तरफ खरोंचकर लिखी गई बातों से अधिक नहीं होती।
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बजाज के शुभचिंतक...
जमीन आबंटन प्रकरण में अनियमितता के आरोप में निलंबित आईएफएस अफसर श्याम सुंदर बजाज की अब तक बहाली नहीं हो पाई है। सरकार ने उन्हें आरोप पत्र थमा दिया गया है, जिसका उन्होंने जवाब भी दे दिया है। बजाज ने अपनी बहाली के लिए केंद्र सरकार के समक्ष अपील भी की है। बजाज को नया रायपुर बसाने का श्रेय दिया जाता है। वे रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से ही पढ़े हैं। ऐसे में प्रशासन-राजनीति में तैनात इसी इंजीनियरिंग कॉलेज के कई पूर्व छात्र उनकी बहाली के लिए प्रयास भी कर रहे हैं।
सुनते हैं कि बजाज के ही सहपाठी रहे इंजीनियरिंग कॉलेज के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष शैलेष नितिन त्रिवेदी, जो कि कांग्रेस के प्रमुख रणनीतिकार भी हैं, उनके मार्फत सरकार की नाराजगी कम करने की कोशिश भी की गई। शैलेष ने बजाज की बहाली के लिए सीएम भूपेश बघेल से चर्चा भी की, लेकिन सीएम ने उन्हें कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया। इन सबके बावजूद कई और अफसर उनकी बहाली के लिए कोशिश कर रहे हैं। मुख्य सचिव आरपी मंडल और पीसीसीएफ राकेश चतुर्वेदी, दोनों ही रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के पूर्व छात्र हैं और उनकी बजाज के प्रति सद्भावना भी है। उन पर कई और पूर्व छात्रों का बजाज की बहाली के लिए पहल करने का दबाव भी है, लेकिन वे चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
बजाज की साख पूरी सरकार में बहुत अच्छी है। लोगों का यह मानना है कि नया रायपुर और टाऊन एंड कंट्री प्लानिंग का काम देखते हुए उनकी जगह दूसरे बहुत से अफसर ‘आसमान’ पर पहुंच चुके रहते, और बजाज जमीन के जमीन पर हैं। वे छत्तीसगढ़ के ही रहने वाले हैं, व्यवहार से लेकर ईमानदारी और काबिलीयत की साख के मामले में वे बेमिसाल सरीखे हैं।
म्युनिसिपलों के सामने चुनौती
छत्तीसगढ़ के नए मुख्य सचिव आर.पी. मंडल ने स्कूटर से राजधानी की गंदगी देखकर पूरे प्रदेश के म्युनिसिपल अफसरों के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी है, और परेशानी भी। अभी पिछले कई हफ्तों से राजधानी के म्युनिसिपल अफसरों को नियमों को तोडक़र महंगे किराये की कारें देने की खबरें छप ही रही थीं, अब तो कायदे से होना यह चाहिए कि म्युनिसिपल स्कूटर ही खरीदकर अफसरों को दे दे कि इसी पर घूमें क्योंकि ये तंग गलियों तक जा सकती हैं, और तंग हो चुकी चौड़ी सड़क़ों पर भी इस पर घूमने में आसानी रहेगी।
अब कुछ पुराने लोगों को यह याद है कि रायपुर के एक पुराने म्युनिसिपल प्रशासक ओ.पी.दुबे की याद है जो पैदल ही पूरे शहर का दौरा करते थे, और सफाई से लेकर बाकी तमाम चीजों को देख लेते थे। अब एक प्रशासक या कमिश्नर की जगह शहर में आधा दर्जन जोन बन गए, जोन कमिश्नर बन गए, एक कार की जगह म्युनिसिपल में दर्जनों कारें आ गईं, और शहर चौपट हो गया। जैसे-जैसे अफसरों की कारों का आकार बढऩे लगा, निर्वाचित प्रतिनिधियों की कारें बड़ी होने लगीं, उनका काम छोटा होने लगा। अब अपने ठाठ-बाट से परे शहर की फिक्र कम ही लोगों को, कम ही है, और ऐसे में मुख्य सचिव का ऐसा चौंकाने वाला काम म्युनिसिपल के अफसरों को ताकत के अपने गुरूर से बाहर ला सके, तो शहर साफ भी हो सकते हैं।
सामंती नामकरण
कल ही खबर आई है कि रायपुर म्युनिसिपल मुख्यालय का नाम व्हाईट हाऊस से बदलकर गांधी के नाम पर रखा जाएगा ताकि सेवा की सोच लौट सके। इस राजधानी में लोगों को अपनी सत्ता के महिमामंडन के लिए ऐसे सामंती नाम रखने का बड़ा शौक है। अमरीका के राष्ट्रपति के घर-दफ्तर का नाम व्हाईट हाऊस है, और उसी के नाम पर रायपुर म्युनिसिपल मुख्यालय का नाम रखा गया। और तो और इमारत को महलों की तरह डिजाइन किया गया। महलों जैसी इमारत में बैठकर सेवा की सोच होना तो वैसे भी मुमकिन नहीं है। राजभवन को देखें तो वहां सभागृह बनाया गया, तो उसका नाम दरबार हॉल रखा गया। इक्कीसवीं सदी में दरबार का क्या काम? दरअसल अंग्रेजों के वक्त बनाए गए भारत के राष्ट्रपति भवन में सभागृह का नाम दरबार हॉल रखा गया था, और अब इक्कीसवीं सदी में बने छत्तीसगढ़ राजभवन के सभागृह का वही नाम रखना सामंती सोच से परे कुछ नहीं है। और तो और अब नया रायपुर में जो सरकारी इमारतें बन रही हैं, उनमें भी किसी एक सभागृह का नाम दरबार हॉल रखा जा रहा है। जिस प्रदेश की आधी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे हो, वहां की सरकार अपने जलसों के लिए अंग्रेजों की छोड़ी विरासत को ढोकर दरबार हॉल बनाए, यह हैरान करने वाली तकलीफदेह बात है। नया रायपुर में अंग्रेजी-अमरीकी नामकरण के तर्ज पर कैपिटॉल कॉम्पलेक्स बनाया गया। अमरीका में संसद की इमारत के इलाके को कैपिटॉल हिल कहा जाता है, और उसी की नकल करते हुए नया रायपुर में ऐसा नाम रखा गया। सत्ता की लगाम थामे हाथों को अपने आपको महिमामंडित करना सुहाता है, इसलिए सामंती नकल करने में कोई हिचक भी नहीं होती।
हासिल आया जीरो बटे सन्नाटा
वैसे तो ट्रांसफर-पोस्टिंग लेन-देन की शिकायत हमेशा से होती रही है। सरकार कोई भी हो, ट्रांसफर उद्योग चलाने का आरोप लगता ही है। यह भी सत्य है कि निर्माण विभागों के अलावा आबकारी व परिवहन में मलाईदार पदों में पोस्टिंग के लिए अफसर हर तरह की सेवा-सत्कार के लिए तैयार रहते हैं। इन सबके बीच निर्माण विभाग में एक ऊंचे पद के लिए ऐसी बोली लगी कि इसकी चर्चा आम लोगों में होने लगी है।
हुआ यूं कि सरकार बदलते ही पिछली सरकार के करीबी, दागी-बागी टाइप के अफसरों को हटाने का सिलसिला शुरू हुआ। इन सबके बीच निर्माण विभाग के एक बड़े अफसर को हटाने की मुहिम शुरू हुई। हटाने के लिए जरूरी भ्रष्टाचार की शिकायतों का पुलिंदा तैयार किया गया। बात नहीं बनी, तो अफसर को पिछली सरकार का बेहद करीबी बताया गया। फिर क्या था, अफसर को हटाने के लिए नोटशीट चल गई। विभागीय मंत्री के साथ-साथ एक अन्य मंत्री की भी अनुशंसा ले ली गई।
अफसर को हटाने के बाद जिस दूसरे अफसर को बिठाने का वादा किया गया था उससे काफी माल-टाल ले लिया गया। मलाईदार पद पाने के आकांक्षी अफसर ने माल-टाल जुटाने के लिए हर स्तर पर कलेक्शन किया। सब कुछ पाने के बाद इस पूरी मुहिम के अगुवा, मंत्री बंगले के अफसर ने वादा किया था कि जल्द ही बड़े अफसर को हटाकर उनकी पोस्टिंग हो जाएगी।
महीनेभर से अधिक समय गुजर गया, लेकिन पहले से जमे-जमाए बड़े अफसर को हटाया नहीं जा सका है। सुनते हैं कि इस पूरे लेन-देने की चर्चा दाऊजी तक पहुंच गई थी। दाऊजी ने नोटशीट को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। जिस अफसर ने मलाईदार पद पर बैठने के लिए इतना सब कुछ हुआ कि वे अब परेशान हो गए हैं। सबकुछ डूबने की आशंका तो है ही, इससे आगे लेन-देन की चर्चा भी इतनी आम हो गई है कि हर जानकार लोग अफसर से पूछने लगे हैं, शपथ कब होगा?
संघविरोध की तीसरी पीढ़ी, भूपेश...
संघ-भाजपा, मोदी-शाह, और गोडसे को लेकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बयान एक अभूतपूर्व आक्रामकता से भरे हुए हैं। उनके गुरू दिग्विजय सिंह भी आक्रामकता में कहीं कम नहीं थे, और एक वक्त के दिग्विजय के गुरू अर्जुन सिंह भी ऐसे ही थे। लेकिन अर्जुन सिंह एक अलग पीढ़ी के थे, और आरएसएस पर उनका हमला वैचारिक और सैद्धांतिक अधिक रहता था। जो लोग अर्जुन सिंह को करीब से जानते थे, उनमें से कुछ का यह मानना था कि उनके एक सबसे पसंदीदा आईएएस अफसर, सुदीप बैनर्जी, ने अर्जुन सिंह की धार को और तेज करने का काम किया था। वे संघ के खिलाफ तो थे ही, लेकिन सुदीप बैनर्जी अपनी निजी विचारधारा के चलते संघ के खिलाफ बहुत से पुराने दस्तावेज निकालकर-छांटकर, संदर्भ सहित तैयार करके अर्जुन सिंह के लिए मोर्चा तैयार करने का काम करते थे। अर्जुन सिंह के साथ काम करने वाले सुनिल कुमार, और बैजेन्द्र कुमार जैसे लोग भी वैचारिक रूप से धर्मनिरपेक्ष, और संघ के आलोचक थे, और ऐसे दायरे में अर्जुन सिंह की आक्रामकता बढ़ती गई थी। जहां तक दिग्विजय सिंह का सवाल है तो वे संघ-भाजपा के खिलाफ अपनी बुनियादी समझ के बाद दस्तावेजों पर अधिक निर्भर नहीं करते, और हमले के लिए हर वक्त तैयार रहते हैं। भूपेश बघेल में इन दोनों पीढिय़ों से ली गई कुछ-कुछ बातें दिखती हैं, और कल नेहरू जयंती पर उन्होंने कहा- संघ की वेशभूषा और उसके वाद्ययंत्र भारतीय नहीं है, ये लोग मुसोलिनी को अपना आदर्श मानते हैं, उनसे प्रेरणा लेकर काली टोपी और खाकी पेंट पहनते हैं, और ड्रम बजाते हैं जिनमें से कुछ भी भारत के नहीं हैं।
अब इंटरनेट पर मामूली सी सर्च बता देती है कि आरएसएस जिस बिगुल का इस्तेमाल करता है, वह पश्चिम का बना हुआ है, और सैकड़ों बरस पहले से वहां इस्तेमाल होते आया है। हिन्दुस्तान में शादियों में गाने-बजाने वाली बैंड पार्टी भी ऐसा ही बिगुल बजाती है जिसे ट्रम्पेट कहते हैं, और इसी एक वाद्ययंत्र के नाम पर बैंड पार्टी को परंपरागत रूप से ब्रास बैंड पार्टी कहा जाता है, क्योंकि यह ट्रम्पेट, ब्रास यानी पीतल का बना होता है। भूपेश की यह बात सही है कि संघ का हाफपैंट, या नया फुलपैंट हिन्दुस्तानी नहीं हैं, और बिगुल भी हिन्दुस्तानी नहीं हैं। संघ के पथ संचलन में जिस ड्रम का उपयोग होता है, वह भी हिन्दुस्तानी तो नहीं है। वैसे तो यह एक अच्छी बात है कि अपने देश की कही जाने वाली संस्कृति के लिए मर-मिटने को उतारू संस्था दूसरे देशों के प्रतीकों का भी इस्तेमाल करती है, और इसमें कोई बुराई नहीं समझी जानी चाहिए, लेकिन भूपेश का तर्क अपनी जगह है कि संघ इन विदेशी चीजों का इस्तेमाल करता है। भूपेश ने कल ही यह ट्वीट किया है कि आरएसएस हिटलर और मुसोलिनी को अपना आदर्श मानता है। यह भी कोई नया रहस्य नहीं है क्योंकि संघ के सबसे वरिष्ठ लोगों ने अपनी प्रकाशित किताबों में हिटलर की तारीफ में बहुत कुछ लिखा हुआ है। दरअसल नेहरू जयंती पर भूपेश ने याद दिलाया कि इटली का एक फासिस्ट प्रधानमंत्री बेनिटो मुसोलिनी नेहरू से मिलना चाहता था, लेकिन नेहरू ने उससे मिलने से इंकार कर दिया था। भूपेश का संघविरोध कांग्रेस और मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ की राजनीति की तीसरी पीढ़ी है, अर्जुन सिंह के बाद दिग्विजय सिंह, और दिग्विजय के बाद भूपेश बघेल। किताबों में दर्ज अपना ही कहा हुआ सच भी कोई बार-बार कुरेदे, तो वह असुविधाजनक तो हो ही जाता है।
व्यायामशाला से जिम तक
छत्तीसगढ़ में इन दिनों कई खबरें हैं जो बता रही हैं कि बड़े-बड़े महंगे जिम में किस तरह मसल्स बनाने के नाम पर नौजवानों को प्रोटीन सप्लीमेंट्स और कुछ दूसरे नशीले सामान खिलाए-पिलाए जा रहे हैं।
इस बारे में एक वक्त व्यायामशाला जाने वाले ट्रेड यूनियनबाज अपूर्व गर्ग ने फेसबुक पर लिखा है- हम सबने आज खबर पढ़ी कि रायपुर में एक बॉडीबिल्डर को स्टेरॉइड लेने की वजह से अस्पताल में भर्ती करने की नौबत आई। आज बॉडीबिल्डिंग का जबर्दस्त क्रेज है, और इससे जुड़ा कारोबारी सब कुछ बेच देना चाहता है। लेकिन लोग बॉडीबिल्डिंग तो पहले से करते आए हैं, लेकिन कभी ऐसी दवाओं का चलन यहां नहीं था। यहां से निकले हुए दिग्गज बिना प्रोटीन, बिना दवा आगे बढ़ते चले गए।
संजय शर्मा, राजीव शर्मा, एवन जैन, जवाहर सोनी, जंघेल, तन्द्रा राय चौधरी, युसूफ भाई जैसे जमीन से जुड़े लोगों ने इस शहर की मिट्टी को अपने पसीने से सींच कर बॉडी बिल्डर्स की फसल तैयार की।
ये फसलें पूरी तरह प्राकृतिक या आज की शब्दावली में कहें तो आर्गेनिक थी न कृत्रिम प्रोटीन न फर्जी विटामिन, स्टीरॉइड, की कल्पना तो सपने में भी नहीं की जा सकती थी।
इस शहर के पुराने मोहल्लों में व्यायाम शाला जरूर होती थी वो चाहे पुरानी बस्ती हो या लोधी पारा देशबंधु संघ या टिकरापारा, पुराना गॉस मेमोरियल हो या रायपुर की सबसे बड़ी, हवादार सप्रे स्कूल की ही व्यायामशाला क्यों न हो, अनुभवी पहलवानों की निगाहें नए नवेलों पर होती थीं। मजाल है कोई बिना लंगोट कसरत कर ले! मजाल है कोई कसरती नियमों का उल्लंघन कर ले!
इन गुरु हनुमानों के रहते किसी की मजाल नहीं होती थी कि उदण्डता, अश्लीलता या अनुशासनहीनता कोई कर सके। ये जितनी सख्ती से कसरत सिखाते थे उतना ही स्नेह करते और ख्याल रखते थे।
आज जब कुछ मॉडर्न हेल्थ गुरू अपने शागिर्दों को कसरत के नाम पर लूटकर मौत के मुँह में धकेल रहे हैं तो वो पुराने चेहरे बार-बार सामने आ रहे हैं जिनके लिए व्यायाम शाला मंदिर होता था, कसरत पूजा और शिष्य छोटे भाई या बच्चे की तरह होते थे।
ये छोटे भाई ही आज कृष्णा साहू, मनोज चोपड़ा, मेघेश तिवारी, बुधराम सारंग (रुस्तम के पिता) जैसे न जाने कितने हैं जो देश और दुनिया में शहर का नाम रोशन कर रहे हैं।
उम्मीद है आने वाली नस्लों, फसलों पर घातक केमिकल का प्रयोग कर उन्हें जहरीला नहीं बनाया जायेगा। उम्मीद है मुनाफे की हवस इस उर्वर भूमि को बंजर नहीं करेगी। उम्मीद है पुराने दिनों की तरह एक बार फिर व्यायाम शाला से बहता पसीना तय करेगा कौन श्रेष्ठ है, न कि हेल्थ क्लब में बिकती दवाईयां!! - अपूर्व गर्ग
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भाजपा के भीतर रस्साकसी
विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद भी भाजपा गुटबाजी से उबर नहीं पा रही है। दुर्ग-भिलाई में संगठन चुनाव के बहाने पार्टी के बड़े नेता आमने-सामने आ गए हैं। चुनाव में गड़बड़ी की शिकायत कर पूर्व मंत्री प्रेमप्रकाश पाण्डेय और सांसद विजय बघेल ने सरोज पाण्डेय के दबदबे को खत्म करने की कोशिश की है। सरोज-विरोधियों को तो चुनाव स्थगित कराने में सफलता तो मिल गई, लेकिन आगे उन्हें संगठन में अहम जिम्मेदारी पाने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ सकता है।
पार्टी ने नगरीय निकाय चुनाव की घोषणा पत्र तैयार करने के लिए बृजमोहन अग्रवाल की अगुवाई में समिति बनाई है। बृजमोहन और प्रेमप्रकाश की घनिष्ठता किसी से छिपी नहीं है। मगर बृजमोहन के सरोज पाण्डेय से भी मधुर संबंध हैं। समिति में प्रेमप्रकाश पाण्डेय को भी रखा गया है।
सुनते हैं कि समिति में पहले प्रेमप्रकाश पाण्डेय का नाम नहीं था। उन्हें जगह दिलाने के लिए पूर्व मंत्री अमर अग्रवाल को खासी मशक्कत करनी पड़ी। अमर नगरीय निकाय चुनाव के लिए पार्टी के प्रभारी हैं। अमर ने पार्टी के प्रमुख नेताओं से बात की, तब कहीं जाकर प्रेमप्रकाश को जगह मिल पाई। अमर के कहने पर ही कोरबा के पूर्व महापौर जोगेश लांबा को भी समिति में रखा गया। जबकि समिति में सरोज की करीबी दुर्ग की महापौर चंद्रिका चंद्राकर को प्रमुखता से रखा गया है। सरोज की संगठन में पकड़ जगजाहिर है। ऐसे में उनके विरोधियों की राह आसान नहीं है। दिल्ली में छत्तीसगढ़ से किसी भाजपा नेता की सबसे बड़ी पकड़ है, तो वे सरोज पाण्डेय ही हैं। एक वक्त था जब ऐसी चर्चा भाजपा के ताकतवर नेताओं के बीच रहती थी कि किसी वजह से अगर डॉ. रमन सिंह को केंद्रीय राजनीति में ले जाया जाएगा, तो छत्तीसगढ़ में बारी सरोज पाण्डेय की ही आएगी।
विधायकों की सुनने वाला मंत्री
परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर की खासियत यह है कि वे दूसरे जिलों में अपने विभाग से जुड़े कोई भी कार्य अथवा योजनाओं पर स्थानीय कांग्रेस विधायकों से राय जरूर लेते हैं। उनकी कार्यशैली के अमितेश शुक्ल जैसे कई विधायक मुरीद हैं। इन विधायकों का मानना है कि सरकार के अन्य मंत्रियों को भी अकबर का अनुशरण करना चाहिए।
सुनते हैं कि विधि-विधायी विभाग से जुड़े जिला अदालतों में नोटरी के नवीनीकरण की अनुशंसा भी कांग्रेस विधायकों से पूछ-पूछकर की। आवेदनों में जशपुर जिले के भाजपा पदाधिकारी का भी प्रकरण था। अकबर ने संबंधित विधायक को फोन लगाया, तो उन्होंने भाजपा पदाधिकारी का काम करने का आग्रह किया। विधायक ने कहा कि नोटरी भाजपा से जरूर जुड़े हैं, लेकिन उनकी विचारधारा कांग्रेस से मेल खाती है। और चुनाव में भी भरपूर मदद की थी। फिर क्या था अकबर ने विधायक की सिफारिश को मानने में देर नहीं की। ([email protected])
अपना अहाता तुड़वाने से शुरूआत
राजधानी रायपुर के देवेन्द्र नगर में बड़े अफसरों और मंत्रियों की कॉलोनी की एक दीवार कल मुख्य सचिव आर.पी. मंडल ने तुड़वा दी। यह दीवार उन्हीं के बंगले के सामने की थी, और सड़क को चौड़ी करने के लिए इस जगह की जरूरत थी। अपने बंगले से जब मुख्य सचिव शुरुआत कर रहे हों, तो और लोग दिक्कत कैसे खड़ी कर सकते हैं। अधिक लोगों को यह याद नहीं होगा कि जब शहर के बीच से नहर के ऊपर कैनाल रोड बनाने की बात आई, तो उस वक्त मुख्य सचिव के लिए निर्धारित बंगले में तत्कालीन सीएस सुनिल कुमार रहते थे। कैनाल रोड को चौड़ा करने के लिए उस बंगले के अहाते की जगह की जरूरत थी। मंडल उस समय नगरीय प्रशासन सचिव थे। वे सुनिल कुमार के पास गए और डरते-डरते उन्हें कहा कि सड़क के लिए उनके बंगले के अहाते की कुछ जगह चाहिए। सुनिल कुमार ने तुरंत ही हामी भर दी, और मुख्य सचिव के बंगले की दीवार तोड़कर सड़क की जगह निकालने के बाद और किसी बंगले के साथ कोई दिक्कत नहीं आई।
मंडल को तेजी से काम करवाने के लिए जाना जाता है। वे जहां-जहां कलेक्टर रहे, उन्होंने तेजी से बाग-बगीचे बनवाए, सड़कें बनवाईं। पीडब्ल्यूडी के सचिव रहे तो निर्माण कार्य तेज रफ्तार से करवाए। मुख्य सचिव बनने के बाद उन्होंने तेजी से काम करवाने की पहल तो की है, लेकिन कलेक्टरी में जो रफ्तार मुमकिन रहती है, वह प्रशासन के मुखिया की कुर्सी से मुमकिन होगी या नहीं, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। फिलहाल राज्य सचिवालय और पूरे प्रदेश का प्रशासन खासा ढीला पड़ा हुआ था, और सुधार की बड़ी संभावना के साथ मंडल ने काम शुरू किया है, आगे-आगे देखें होता है क्या। फिलहाल जिन लोगों ने आज मंडल को फोन करके इस बात की बधाई दी कि तीन गरीबों के कब्जों के साथ-साथ प्रदेश के तीन सबसे बड़े अफसरों के अहातों को भी उन्होंने तुड़वाया, तो उनका जवाब था कि मुख्यमंत्री ने सीएस बनाने के साथ-साथ यह निर्देश भी दिया था कि गरीबों का कभी कोई नुकसान न हो, यह ध्यान रखना। उन्होंने कहा कि बेदखल लोगों की बसाहट भी सरकार करेगी, और प्रदेश के व्यस्त शहरों में जहां-जहां जाम लगता है, सभी जगह उसका हल निकाला जाएगा।
रिकॉर्ड समय, रिकॉर्ड किफायत
लेकिन मंडल का पुराना ट्रैक रिकॉर्ड कुछ इसी किस्म का रहा। पिछले मुख्यमंत्री रमन सिंह के समय राज्य को बाहर प्रचार दिलवाने के लिए यहां के स्टेडियम में आईपीएल मैच करवाने की बात हुई। आईपीएल की एक टीम की मालिक जीएमआर इस बात के लिए तैयार भी हो गई कि वह रायपुर स्टेडियम को अपनी सेकंड होमपिच घोषित कर देगी ताकि यहां मैच हो सके। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती थी साठ दिनों के भीतर स्टेडियम को पूरा करना। ऐसे में मंत्रिमंडल की बैठक में जब यह तय किया गया कि किसी भी हालत में इसे तय समय में बनाया जाए, तो मंत्रिमंडल ने ही इस अकेले निर्माण कार्य के लिए खरीदी नियमों में कई किस्म की छूट दी। इसके बाद उस वक्त के खेल संचालक, एक आईपीएस राजकुमार देवांगन, अब बर्खास्त, से स्टेडियम को पूरा करने के लिए अनुमानित लागत पूछी गई तो उन्होंने 62 करोड़ रूपए का हिसाब बताया। लेकिन इससे पार पाने के लिए सरकार ने उस वक्त मंडल को खेल सचिव भी बनाया, और उन्होंने स्टेडियम पूरा करने का बीड़ा उठाया। उस वक्त के मुख्य सचिव सुनिल कुमार ने मंडल को पूरी छूट दी कि समय पर और ईमानदारी से काम करने के लिए तमाम प्रशासनिक स्वीकृतियां दी जाती हैं। इसके बाद मंडल ने देश में घूमकर कई स्टेडियम देखे, बीसीसीआई से एक सलाहकार को कुछ लाख की फीस पर लेकर आए, और कुर्सियों से लेकर कैमरों तक सारे सामान की खरीदी सीधे कंपनियों से करवाई।
उस वक्त के जानकार लोग बताते हैं कि स्टेडियम बना रही कंपनी नागार्जुन ने राजकुमार देवांगन के 62 करोड़ के बजट से खासा कम 48 करोड़ का बजट बताया था, लेकिन वह 75 दिनों से कम में इसे पूरा करने को तैयार नहीं थी। ऐसे में मंडल ने सीधे खरीददारी करके स्टेडियम पूरा करवाया, और 50 दिनों में काम खत्म करके जब 60वें दिन इसका उद्घाटन हुआ, तो हर खर्च मिलाकर स्टेडियम पर कुल 21 करोड़ रूपए खर्च हुए थे। रांची के स्टेडियम में जो कुर्सियां 27 सौ रूपए में लगी थीं, वे ही कुर्सियां छत्तीसगढ़ में 1080 रूपए में लगीं। पूर्व मुख्य सचिव सुनिल कुमार ने इस बारे में फोन पर कहा कि बाद में जब आईपीएल हुआ, और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी आए, तो उन्होंने एक डिनर पर रायपुर के स्टेडियम की जमकर तारीफ की थी।
विधायक न बने, तो अब जिलाध्यक्ष...
भाजपा में विधानसभा चुनाव में पराजित नेता जिलाध्यक्ष बनने की होड़ में हैं। पार्टी में अंदरूनी तौर पर इसका विरोध हो रहा है। सुनते हैं कि रायपुर ग्रामीण जिलाध्यक्ष पद के लिए देवजी पटेल की पुख्ता दावेदारी है। उन्हें सांसद सुनील सोनी का भी समर्थन है, लेकिन इसका त्रिपुरा के राज्यपाल रमेश बैस के समर्थक खुला विरोध कर रहे हैं।
इसी तरह राजनांदगांव से मौजूदा महापौर मधुसूदन यादव भी जिलाध्यक्ष बनना चाहते हैं। उन्होंने मंडल चुनाव में काफी रूचि भी ली थी, लेकिन राज्य भंडार गृह निगम के अध्यक्ष नीलू शर्मा और अन्य प्रमुख लोग उनके पक्ष में नहीं दिख रहे हैं। धमतरी के पूर्व विधायक इंदर चोपड़ा ने भी जिलाध्यक्ष बनने की इच्छा जताई है। मगर उन्हें पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर का एनओसी नहीं मिल पा रहा है। बेमेतरा में अवधेश चंदेल जिलाध्यक्ष बनना चाहते हैं, लेकिन उन्हें सरोज पाण्डेय का समर्थन नहीं मिल रहा है। बिलासपुर के शहर और ग्रामीण जिलाध्यक्ष पद के लिए नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक व पूर्व मंत्री अमर अग्रवाल के खेमे आमने-सामने हंै। सबसे ज्यादा विवाद की आशंका दुर्ग-भिलाई में जताई जा रही थी, लेकिन वहां का चुनाव स्थगित हो गया है। मगर हारे नेताओं के संगठन चुनाव में कूदने से बाकी जिलों में भी दुर्ग-भिलाई जैसी स्थिति बन रही है। ([email protected])
कर्ज नहीं चुकाया, बंगला सील
कर्ज नहीं चुका पाने के कारण बैंक ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक रिटायर्ड अफसर का बंगला सील कर दिया है। अफसर का बंगला वीआईपी रोड स्थित एक पॉश कॉलोनी में है। अफसर जब पद में थे, तो बंगले की साज-सज्जा में काफी खर्च किए लिफ्ट भी लगवाए। इसके लिए उन्होंने बैंक से भारी-भरकम लोन भी लिए थे। मगर उन्होंने बैंक की किस्त जमा नहीं की और इस वजह से बैंक ने बंगले को अपने कब्जे में ले लिया है।
वैसे तो अफसर यहां रहते नहीं हैं। उनका कई शहरों में अपना मकान है। जब तक पद में थे, तो नियम-कायदे को दरकिनार कर खूब बैटिंग की। इस वजह से कई जांच भी चल रही है, लेकिन वे अब बंगला छुड़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। बैंक वाले भी सेटलमेंट करने के लिए तैयार हैं। सुनते हैं कि सेटलमेंट की राशि जुटाने के लिए अफसर पुराने संपर्कों को टटोल रहे हैं, जिनका उन्होंने पद में रहते कुछ काम किया था। ये लोग भी अफसर से परेशान हो गए हैं। वजह यह है कि काम के एवज में अफसर उनका पहले ही काफी दोहन कर चुके हैं। मगर पुरानी आदत आसानी से छूटती नहीं है। इसलिए पद में नहीं रहने के बाद भी अफसर प्रयासों में कमी नहीं छोड़ रहे हैं।
एसएसपी के हाथ नांदगांव
रायपुर और दुर्ग के बाद सरकार ने राजनीतिक और नक्सल समस्या से घिरे राजनांदगांव जिले को वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक यानी एसएसपी के हवाले कर दिया। अरसे बाद मैदानी मोर्चे की कमान संभालने के लिए सरकार ने बीएस धु्रव की नांदगांव में पोस्टिंग की है। धु्रव अगले साल जनवरी में डीआईजी पदोन्नत हो जाएंगे। डीआईजी पदोन्नत होने की सूरत में उनके नियमित एसपी बने रहने पर मातहत अफसर सवाल दाग रहे हैं। क्योंकि राजनांदगांव में पहले से ही आरएल डांगी डीआईजी नक्सल के पद पर काम कर रहे हैं। हालांकि नांदगांव में उन्हें बतौर एसएसपी रहने दिया जा सकता है। वैसे भी रायपुर और दुर्ग में एसएसपी ही पदस्थ हैं। इसके बावजूद भी फेरबदल को लेकर चर्चा चल ही रही है। ([email protected])
- चाय ताजमहल की हो या टाटा टी की ....मेरा बिस्कुट दोनों में टूट जाता है...
- हमेशा स्पेशल बनकर रहो... क्योंकि आम हुए तो अचार बना दिए जाओगे।
- लिखने का बहुत कुछ मन कर रहा है, लेकिन घरवाले बोल रहे थे कि जमानत नहीं करवाएंगे सोच लो..
- मोदीजी ने महाराष्ट्र का चुनावी नतीजा बीजेपी के लिए दिवाली का तोहफा बताया था। फडणवीस गिफ्ट पैक नहीं खोल पा रहे।
बंद मुट्ठी लाख की...
अयोध्या पर फैसले के बाद शांति बनाए रखने की नीयत से कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने ही अपने प्रस्तावित आंदोलन स्थगित कर दिए। आंदोलन के स्थगित होने से उन नेताओं ने राहत की सांस ली है, जो आंदोलन की व्यवस्था में जुटे थे। कांग्रेस ने धान-खरीद मसले पर दिल्ली कूच के लिए तो रूटचार्ट तक तैयार कर लिया था। सभी प्रमुख नेताओं को जिलेवार जिम्मेदारी दी गई थी। उन्हें वाहनों का इंतजाम कर कार्यकर्ताओं को साथ दिल्ली ले जाना था।
सुनते हैं कि कांग्रेस के एक प्रमुख पदाधिकारी यात्रा की तैयारियों का जायजा लेने महासमुंद पहुंचे, तो कार्यकर्ताओं ने उन्हें लग्जरी बस का इंतजाम करने कह दिया। यही नहीं, उन्हें खाने-पीने का टाइम-टेबल और मैन्यू भी बता दिया। चूंकि प्रदेश में कांगे्रस की सरकार है इसलिए कार्यकर्ता इसमें किसी तरह समझौते के मूड में नहीं थे, वे यात्रा को एक पिकनिक के रूप में देख रहे थे। इससे व्यवस्था में जुटे पदाधिकारी परेशान थे और जब आंदोलन स्थगित होने की खबर आई, तो उन्होंने चैन की सांस ली। दूसरी तरफ, भाजपा का कार्यक्रम बड़ा तो नहीं था, लेकिन जिस तरह पदाधिकारियों की बैठक में बढ़-चढ़कर दावे किए जा रहे थे उससे पार्टी के ही कई नेता परेशान थे।
कांग्रेस के दिल्ली कूच के जवाब में भाजपा ने 13 तारीख को ही जेलभरो आंदोलन की रूपरेखा तैयार की थी। बैठक में प्रदेशभर से कुल 50 हजार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का लक्ष्य तय किया गया था। इसको लेकर ही बैठक में काना-फूसी होने लगी थी। पार्टी के कुछ नेताओं का मानना है कि सरकार जाने के बाद कार्यकर्ताओं में उत्साह नहीं रह गया है। ऐसे में 50 हजार तो दूर, 10 हजार की भीड़ जुटाना मुश्किल था। अमित शाह की मौजूदगी में कुछ महीने पहले हुए कार्यकर्ता सम्मेलन में तो इंडोर स्टेडियम तक नहीं भर पाया था। ऐसे में भीड़ जुटाने की व्यवस्था में जुटे नेताओं को आंदोलन फ्लॉप होने का भी डर सता रहा था। जैसे ही जेल भरो आंदोलन के स्थगित होने की सूचना आई, इससे व्यवस्था में जुटे भाजपा नेताओं के चेहरे खिल उठे।
कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेताओं के लिए यह मौका राहत का है, बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की...
हाथी मेरे साथी...
हाईकोर्ट से लेकर केंद्र सरकार तक छत्तीसगढ़ के हाथियों का मुद्दा चल ही रहा है। पशुप्रेमी अदालत जा रहे हैं, सरकार के लिए आदेश ला रहे हैं, और नियमों के मुताबिक राज्य सरकार को हाथियां का बाड़ा बनान के लिए राष्ट्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण की मंजूरी लगती है, जिसकी अर्जी लंबे समय से दिल्ली में पड़ी हुई थी, अब हाईकोर्ट केे नोटिस के बाद वहां से भी विशेषज्ञ टीम तेजी से पहुंची, और राज्य के हाथी-बाड़े की तैयारियों को सही पाकर लौट गई। सरकार हाथियों को तो सीधे-सीधे कुछ समझा नहीं सकती, लेकिन हाथी प्रभावित इलाकों की जनता का समझा सकती है, और वह कोशिश लगातार नाकामयाब हो रही है। गांव-गांव में लोगों का रूख हाथियों के लिए ऐसा रहता है कि मानो वे सर्कस के हाथी हों, कहीं उन्हें दौड़ाया जाता है, कहीं उन पर पत्थर चलाए जाते हैं। इसके बाद हाथी अपनी मर्जी का बर्ताव करते हैं और जगह-जगह इंसानी जिंदगियां जा रही हैं। फिल्मों भर में लोगों को यह सिखाना आसान रहता है कि हाथी मेरे साथी होते हैं, असल जिंदगी में यह इतना आसान नहीं होता। ([email protected])
- मंदिर गिराकर मस्जिद बनी ये सिद्ध नहीं हुआ मगर मस्जिद गिराकर मंदिर बने ये जरूर माना।
- पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर घंटों एयरटाइम लुटाने वाले न्यूज चैनल, कभी अपने देश की अर्थव्यवस्था पर भी बात कर लो!
- प्रेमचन्द याद आ गए क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगे...
- सबके हाथों मे रेखा है लेकिन अमिताभ के हाथों में जया है।
- कुंडली मिलवानी है तो सास-बहू की मिलाया करो, लड़का तो भगवान की मर्जी समझकर एडजस्ट कर ही लेता है।
- रंजन गोगोई के पुनर्वास से आज के फैसले पर सरकारी भावभंगिमा की पुष्टि हो जायेगी।
- आजकल लोग कितने स्वार्थी हैं, पैन माँगो तो ढक्कन खुद रख लेते हैं? मेरे पास 18 पैन हैं, बिना ढक्कन वाले
- -लुगाई का होना बहुत ही जरूरी है क्योंकि, जिसे लुगाई परेशान नहीं करती वो पूरे देश को परेशान करता है.
- शादी का सीजन आ गया है अब ना जाने किसका बाबू किसके पास जायेगा..
- पराली का धुआं भी पक्का देशभक्त है पंजाब, हरियाणा से उड़कर 40 किमी दूर पाकिस्तान नहीं जाता, 400 किमी दूर दिल्ली की ओर आता है
स्कूली बच्चियां और शराब
शराब को लेकर कभी भी खबरें अच्छी नहीं रहती हैं। शराब से मौतें होती हैं, शराब घटिया रहती है, सरकारी दुकानों पर वे रेट से अधिक पर बिकती है, जगह-जगह अवैध बिक्री होती है। लोग दारू पीकर कत्ल करते हैं, हंगामा करते हैं, और रोजी-रोटी छोड़ देते हैं। लेकिन इन सबसे बढ़कर अभी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगे हुए एक कस्बे की एक सरकारी स्कूल का वीडियो सामने आया है। उसमें एक छात्रा किसी दूसरे के साथ क्लासरूम में प्लास्टिक की शराब बोतल से प्लास्टिक की ग्लास में शराब निकाल रही है, और क्लासरूम में ही दोनों शराब पी रहे हैं। बिना पानी मिलाए खालिस शराब पीने का वीडियो बताता है कि उनको इसकी अधिक आदत नहीं हैं, और पीते ही उनको तकलीफ भी हो रही है। अब स्कूली बच्चियों का अगर ऐसा हाल है तो सरकार और समाज को शराब के बारे में सोचना चाहिए कि उसे कैसे बंद या कम किया जाए। दूसरी बात यह कि प्लास्टिक की शराब-बोतल का ढक्कन खोले बिना, सिर्फ उसे दबा-दबाकर उसमें से शराब निकाली जा रही है, यह सरकारी बिक्री की बोतल का हाल है। यह मामला एक छोटा सा लग सकता है, लेकिन इसके अलग-अलग पहलुओं पर सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए।
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दुर्ग में भाजपा का दुर्ग घिर गया...
भाजपा के दुर्ग-भिलाई संगठन चुनाव में गड़बड़ी की शिकायत दिल्ली दरबार तक पहुंच गई है। प्रदेश पदाधिकारियों की बैठक में खूब हल्ला मचा। पहली बार दुर्ग जिले के सरोज पांडेय विरोधी नेता, एक साथ नजर आए। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दुर्ग-भिलाई में सरोज के मनमाफिक ही मंडल से लेकर जिलों में पदाधिकारी तय होते हैं। प्रेम प्रकाश पांडेय की हालत तो यह हो गई थी कि वे पिछली सरकार में भले ही मंत्री थे, लेकिन जिला तो दूर, मंडल तक में एक भी पदाधिकारी उनके साथ नहीं था। हाल यह रहा कि उन्होंने पार्टी के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं को एकजुट कर राम दरबार नामक एक अलग संगठन खड़ा किया था जो उनके लिए पार्टी गतिविधियों का संचालन करता था।
मगर इस बार के चुनाव में विरोधी सरोज के दबदबे को खत्म करने के लिए विरोधी पूरी तरह तैयार नजर आए। इस बार प्रेमप्रकाश को सांसद विजय बघेल और जिले के एक मात्र भाजपा विधायक विद्यारतन भसीन का साथ मिला। तीनों ने मिलकर सरोज के खिलाफ आवाज बुलंद की। जब उनके साथ जब प्रदेश पदाधिकारियों की बैठक में पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर और शिवरतन शर्मा भी मुखर हुए, तो पार्टी में खलबली मच गई।
सुनते हैं कि पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं ने दुर्ग-भिलाई के चुनाव में गड़बड़ी की शिकायतों पर प्रदेश के चुनाव अधिकारी रामप्रताप सिंह से जवाब मांगा है। मगर इन सबके चलते पार्टी के गुटीय समीकरण बनते-बिगड़ते दिखे हैं। शिवरतन शर्मा, जो कि प्रेमप्रकाश पांडेय-अजय चंद्राकर के करीबी माने जाते हैं, उनका सरोज के खिलाफ मुखर होना चौंकाने वाला रहा। दिलचस्प बात यह है कि शिवरतन शर्मा ने पिछली सरकार में मंत्री बनने के लिए सरोज से सहयोग मांगा था।
सरोज ने शिवरतन को मंत्री बनवाने के लिए काफी प्रयास भी किया था, लेकिन सफलता नहीं मिल पाई। अब प्रदेश में सरकार तो रही नहीं, ऐसे में शिवरतन पुराने साथियों के साथ ही दिखे। पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, पूरे प्रदेश में बृजमोहन-प्रेमप्रकाश और अजय खेमे के खिलाफ भले ही हों और उन्होंने नेता प्रतिपक्ष के चुनाव में इन सबको झटका भी दिया था, लेकिन दुर्ग-भिलाई की राजनीति में इस खेमे के साथ ही दिखे।
मजे की बात यह है कि रमन विरोधी खेमे के माने जाने वाले बृजमोहन अग्रवाल बैठक में विलंब से पहुंचे। तब तक दुर्ग-भिलाई एपिसोड खत्म हो चुका था। उनके देरी से पहुंचने के भी मायने निकाले जा रहे हैं, क्योंकि उनके सरोज पांडेय से मधुर संबंध हैं। बृजमोहन के ही करीबी रायपुर सांसद सुनील सोनी को बैठक में हंगामे का अंदाजा पहले ही था इसलिए वे एक दिन पहले ही दिल्ली निकल गए। बैठक खत्म होने के बाद रायपुर पहुंचे। सौदान सिंह तो झारखंड चुनाव का बहाना बनाकर रायपुर ही नहीं आए। इतना शोर-शराबे के बाद सरोज विरोधियों की शिकायतों का निराकरण हो पाता है या नहीं, देखना है।
धार्मिक रिवाज और महिलाएं...
छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश के बाजार देखें तो साल में आधे दिन सड़क किनारे किसी न किसी त्यौहार के सामान बिकते दिखते हैं। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि एक त्यौहार के सामान हटे नहीं, और अगले त्यौहार के सामान ठीक उसी तरह धक्का-मुक्की करने लगते हैं जिस तरह हिन्दुस्तानी ट्रेनों में मुसाफिर उतर नहीं पाते, और नए मुसाफिर चढऩे लगते हैं, या किसी सार्वजनिक इमारत में लिफ्ट से लोग उतर नहीं पाते, और नए लोग चढऩे लगते हैं। ऐसे ही सड़क किनारों पर त्यौहारों के और भंडारों के पंडालों का भी होता है, और वे धक्का-मुक्की करते दिखते हैं। धार्मिक त्यौहारों पर इतनी बिजली चोरी होती है, और त्यौहार इस तरह लगातार चलते हैं कि बिजली दफ्तर को पता ही नहीं चलता कि किसी महीने चोरी कम हुई है, किस महीने अधिक हुई है। थानों को भी पता नहीं चलता कि कब त्यौहार कम थे, कब अधिक, कब सड़कों पर तैनाती अधिक थी, और कब सिपाही खाली थे।
लेकिन कई धर्मों के कई त्यौहारों को देखें, तो नदी-तालाब में कचरा बढ़ाने से लेकर, सड़कों और मोहल्लों में ट्रैफिक जाम से लेकर शोरगुल बढ़ाने तक त्यौहार कई तरह से सार्वजनिक जिंदगी भी तबाह करते हैं, और निजी बदन भी। कई धर्मों में लोग तरह-तरह के उपवास करते हैं, अन्न नहीं खाते हैं, या एक वक्त खाते हैं, या सिर्फ शाम से सुबह तक खाते हैं, और इसके साथ-साथ वे इस तरह की चीजें खाते हैं जिनसे बदन को नुकसान छोड़ कुछ नहीं होता। नदियों के प्रदूषण से लेकर बदन के प्रदूषण तक, धार्मिक त्यौहार कई चीजें बढ़ाते हैं। और अगर यह देखें कि कई धर्म अपने समुदाय की महिलाओं का कितना वक्त त्यौहारों में जोतकर रखते हैं, यह समझ पड़ता है कि उसके रिवाज बनाने वाले आदमियों ने यह तय कर रखा था कि औरतों को बराबरी के कोई काम करने ही नहीं देने हैं। साल भर में जाने कितना वक्त महिलाओं को त्यौहारों की तैयारी करने, त्यौहार मनाने, और फिर पसारा समेटने में लगाना पड़ता है! जाहिर है कि इसके बाद या इसके साथ वे और कोई उत्पादक काम तो अधिक कर नहीं सकतीं।
सिंहदेव की दरियादिली से दिक्कत
मुख्यमंत्री समग्र ग्रामीण विकास योजना के मद के कार्यों की स्वीकृति से कई कांग्रेस विधायक नाखुश हैं। सुनते हंै कि इस मद से नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक और पूर्व पंचायत मंत्री अजय चंद्राकर के इलाके में काफी काम स्वीकृत किए गए। उस अनुपात में कई कांग्रेस विधायकों के इलाके में आधे काम भी स्वीकृत नहीं हुए हैं। समग्र ग्रामीण विकास योजना के मद का पूरा कार्य पंचायत मंत्री की मर्जी से होता है। इन कार्यों की स्वीकृति में पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव ने विपक्ष का खास ध्यान रखा।
खास बात यह है कि सबसे ज्यादा काम खुद उनके अपने सरगुजा जिले में स्वीकृत किए गए हैं। सरगुजा में सवा 8 सौ कार्यों के लिए 22 करोड़ से अधिक की राशि मंजूर की गई। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। पंचायत मंत्री का अपना जिला है, तो वहां ज्यादा काम करवाने का राजनीतिक हक बनता है। मगर कांग्रेस विधायकों को यह बात अखर रही है कि पिछली भाजपा सरकार में ज्यादातर विपक्षी कांग्रेस के विधायकों के यहां विकास कार्यों की स्वीकृति में भेदभाव होता था।
उनका मानना है कि ऐसे में अब कांग्रेस की सरकार में विपक्षी भाजपा विधायकों को ज्यादा महत्व देना उचित नहीं है। नाराज विधायक अपनी बात सीएम तक भी पहुंचा चुके हैं। अब कांग्रेस विधायकों को कौन समझाए, पिछली सरकार ने विपक्ष के साथ भेदभाव भले ही किए हों, नेता प्रतिपक्ष के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं किया। उस समय के नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव के सारे काम प्राथमिकता से होते थे। ऐसे में सिंहदेव का अपने-पराए का भेद किए बिना काम करना गलत नहीं है।
बेरोजगारी खत्म होने के आसार
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर फैसला अब किसी भी पल आ सकता है, और उसे लेकर दोनों समुदायों के लोगों के बीच अपने बाहुबल के अनुपात में उत्साह दिख रहा है। ऐसे में छत्तीसगढ़ में भाजपा अपने उन लोगों को तैयार कर सकती है जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिराने के बाद वहां से मस्जिद की लाई गई ईंटों के साथ अखबारों के दफ्तर की परिक्रमा की थी। भाजपा के राज्य के एक बड़े नेता उस वक्त बाबरी मस्जिद की ईंट से ईंट बजाकर, और एक साबुत र्इंट लेकर रायपुर लौटे थे, और अखबारों में जाकर उसके दर्शन करवाए थे। अगर मंदिर बनने की नौबत आती है, तो छत्तीसगढ़ भाजपा के ऐसे आज खाली बैठे हुए लोगों को अयोध्या भेजा जा सकता है। और मंदिर बनने की नौबत नहीं आती है, तब तो प्रदर्शन करने के लिए इनका यहां भी इस्तेमाल होगा, और अयोध्या में भी। कुल मिलाकर कुछ लोगों की बेरोजगारी खत्म होने के आसार हैं।
रिश्तेदारी नहीं...
आईपीएस अफसरों की तबादला लिस्ट में दुर्ग के एसपी प्रखर पाण्डेय का तबादला बटालियन में हो गया, तो कुछ लोग हैरान हुए कि डीजीपी डीएम अवस्थी के रिश्तेदार को जिले से कैसे हटा दिया गया। इस बारे में जब अवस्थी से लोगों ने कहा तो उन्होंने साफ किया कि उनसे कोई भी रिश्तेदारी नहीं है, वे छत्तीसगढ़ के ब्राम्हण हैं, और अवस्थी उत्तरप्रदेश के। सिर्फ ब्राम्हण हो जाने से वे लोग ऐसी अफवाह फैलाने में लगे थे जो कि अवस्थी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। ([email protected])
एक और चूक?
बहुत तेज रफ्तार से निकलने वाले सरकारी हुक्म कई बार चूक का शिकार हो जाते हैं। अभी आईपीएस अफसरों की तबादला लिस्ट में दो एडीजी आईजी बना दिए गए थे, उसका सुधार शायद कर दिया गया है। लेकिन पुलिस हाऊसिंग कार्पोरेशन में एडीजी पवनदेव को एमडी और चेयरमैन दोनों का पद दे दिया गया है। एक जानकार भूतपूर्व आईपीएस और एक मौजूदा आईपीएस ने इस बारे में बताया कि इस कार्पोरेशन के संविधान में इसके चेयरमैन के पद पर पुलिस महानिदेशक को ही रखने का प्रावधान है। पहले डी.एम. अवस्थी इस पर थे, फिर ए.एन. उपाध्याय इस पर रहे, और फिर अवस्थी को तब वापिस यहां किया गया जब उपाध्याय रिटायर हुए। लेकिन अभी एडीजी को ये दोनों पद दे दिए गए।
पुलिस मुख्यालय के सूत्रों का कहना है कि इस बार की तबादला लिस्ट न डीजीपी डी.एम. अवस्थी ने देखी, न ही एसीएस चित्तरंजन खेतान ने, और न ही गृह विभाग के विशेष सचिव उमेश अग्रवाल ने। जब लिस्ट जारी हो गई, तो वॉट्सऐप की मेहरबानी से इन लोगों ने भी लिस्ट पा ली।
तो फिर जंग ही सही...
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने धान खरीदी के बहुत ही नाजुक मुद्दे पर भाजपा और मोदी सरकार दोनों से जिस दर्जे का टकराव लिया है, वह छत्तीसगढ़ की राजनीति में अब तक अनदेखा था। उन्होंने 20 हजार कांग्रेस कार्यकर्ताओं या किसानों के साथ सड़क के रास्ते दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मांगपत्र देने की घोषणा की है। अपने प्रदेश और शहर में तो 20 हजार क्या, दो लाख लोगों की भी भीड़ जुटाई जा सकती है, लेकिन रायपुर से दिल्ली का साढ़े बारह सौ किलोमीटर का सफर छोटी बात नहीं होती। और 20 हजार लोगों के वहां जाने का मतलब 33 सीटों वाली 6 सौ बसें होता है। अब एक सवाल यह भी है कि 6 सौ बसों का कारवां सैकड़ों शहर-कस्बों से होते हुए जब गुजरेगा तो नजारा कैसा होगा? इतने लोगों के लिए रास्ते में इंतजाम कैसे होगा, और धुंध और ठंड के इन दिनों में दिल्ली के पहले उत्तरप्रदेश से यह सफर मुश्किल भी होता जाएगा। फिर भी किसानों को अगर बढ़ा हुआ समर्थन मूल्य दिलाने के लिए यह किया जा रहा है, तो शायद पूरा देश इसे ध्यान से देखेगा, और जिन लोगों को रिकॉर्ड दर्ज करवाने का शौक होता है, उनके लिए यह कारवां शायद देश का सबसे लंबा और सबसे बड़ा कारवां भी हो सकता है। इसी प्रदर्शन को लेकर आज सुबह भूपेश बघेल ने साहिर लुधियानवी का एक शेर ट्विटर पर पोस्ट किया है।
भाजपा के घर की आग कौन बुझाए?
संगठन चुनाव को लेकर भाजपा में किचकिच चल रही है। सांसद विजय बघेल और पूर्व मंत्री प्रेम प्रकाश पाण्डेय ने तो खुले तौर पर चुनाव को फर्जी करार दिया है। अभी सिर्फ मंडलों के ही चुनाव हो रहे हैं। मगर पार्टी के प्रभावशाली नेताओं की नाराजगी के चलते चुनाव प्रक्रिया से जुड़े नेता सकते में हैं।
सुनते हैं कि चुनाव अधिकारी रामप्रताप सिंह ने चुनाव से जुड़े विवाद को निपटाने के लिए संगठन के ताकतवर नेता सौदान सिंह से मदद मांगी है। लेकिन सौदान ने किसी तरह का हस्तक्षेप करने से मना कर दिया। उन्होंने दो टूक शब्दों में कह दिया कि उनकी प्राथमिकता झारखण्ड चुनाव है। छत्तीसगढ़ में संगठन से कोई लेना-देना नहीं है। दिक्कत यह है कि दिल्ली के बड़े नेता महाराष्ट्र सरकार बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। उनके पास संगठन चुनाव में गड़बड़ी पर बात करने के लिए समय नहीं है। ऐसे में चुनाव अधिकारियों की दिक्कतें बढ़ती ही जा रही हैं। जब तक भाजपा प्रदेश में सत्ता में थी, तब तक तो मुख्यमंत्री का नाम ही काफी होता था, लेकिन अब पार्टी के सभी लोगों को अपना गुबार निकालने का मौका मिल रहा है। ऐसा नहीं कि भाजपा मजबूत नहीं है, बस यही है कि वह छत्तीसगढ़ में अब नए किस्म की बेचैनी देख रही है।
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भाजपा का घर बेकाबू...
सत्ता हाथ से निकलने के बाद भाजपा कार्यकर्ता स्वच्छंद हो गए हैं। वे मनमानी पर उतारू हैं। कम से कम संगठन चुनाव को देखकर ऐसा ही लग रहा है। हाल यह है कि प्रदेश के चुनाव अधिकारी रामप्रताप सिंह भी ज्यादा कुछ कर पाने की हालत में नहीं दिख रहे हैं।
सुनते हैं कि तिल्दा मंडल के चुनाव में गड़बड़ी की शिकायत पर तो रामप्रताप ने मंडल के चुनाव अधिकारी को चुनाव स्थगित करने के लिए कह दिया था। चुनाव अधिकारी हृदय राम साहू ने बैठक लेकर चुनाव स्थगित करने की सूचना दी और बाहर जाने लगे तभी उन्हें पार्टी के प्रमुख नेता का फोन आया। चूंकि नेताजी पार्टी का कोष संभालते हैं ऐसे में उनकी अनदेखी करना चुनाव अधिकारी के मुश्किल हो गया। उन्होंने तुरंत फिर बैठक बुलाई और रामप्रताप सिंह के आदेश को नजर अंदाज कर नेताजी के कहे अनुसार अध्यक्ष का चुनाव करा दिया। साथ ही नेताजी की पसंद का अध्यक्ष घोषित कर दिया।
बालोद में तो जिले के चुनाव अधिकारी अपने रिश्तेदार को अध्यक्ष बनाने की कोशिश में जुट गए, जिसको लेकर मारपीट तक की नौबत आ गई। रायपुर के तेलीबांधा मंडल चुनाव का हाल यह रहा कि जिसे अध्यक्ष बनाना पहले से तय था उससे बैठक की सारी व्यवस्था करा ली गई, यानी खाने पीने और अन्य सभी खर्चें अध्यक्ष के दावेदार के मत्थे डाल दिया गया, लेकिन चुनाव की बारी आई, तो किसी और को चुन लिया गया। भिलाई में तो सरोज पाण्डेय के सारे विरोधी नेता एकजुट हो गए और खुलकर लड़ाई के मूड में आ गए। चूंकि सत्ता नहीं है, तो कार्यकर्ता किसी तरह अनुशासन की कार्रवाई की परवाह नहीं कर रहे हैं और पार्टी के रणनीतिकारों का हाल यह है कि मनमानी कर रहे नेताओं-कार्यकताओं पर लगाम नहीं लगा पा रहे हैं।
दो डीआईजी के मायने...
बस्तर भेजे गए पुलिस महकमे के दो अफसर सुंदरराज पी. और डॉ. संजीव शुक्ला की पोस्टिंग के खास मायने निकाले जा रहे हैं। पीएचक्यू में दोनों अफसरों की कार्यशैली से ज्यादा नक्सल मामलों में गहरी समझ भी पदस्थापना के पीछे एक बड़ी वजह है। आईपीएस बिरादरी में सुंदरराज और संजीव को एक तरह से बस्तर को दो हिस्सों में बांटकर ही सरकार ने भेजा है। सुंदरराज का बस्तर रेंज से प्रशासनिक नाता रहा है। बस्तर और नारायणपुर एसपी रहने के साथ ही वह डीआईजी तथा दो साल पहले प्रभारी आईजी के तौर पर ही काम कर चुके हैं। विभाग के मुखिया डीजी डीएम अवस्थी से उनकी गहरी छनती भी है। यह भी संयोग है कि सुंदरराज दोबारा प्रभारी आईजी बनने वाले इकलौते अफसर हैं।
सुनते हैं कि दक्षिण बस्तर के नक्सल उपद्रव से निपटने के लिए सुंदरराज पर ही भरोसा किया गया। जबकि उत्तर बस्तर के कांकेर, नारायणपुर और कोंडागांव के लिए संजीव महकमे की निगाह में फिट हुए। कहा जा रहा है कि संजीव शुक्ला की पोस्टिंग दूरगामी रणनीति के तहत भी हुई है। अगले दो साल के भीतर वह आईजी प्रमोट होंगे। डीआईजी रहते आईजी बनने के लिए ट्रेनिंग के तौर पर उन्हें पदस्थ किया गया। बस्तर जैसे संवदेनशील इलाके में दोनों अफसर के कामकाज से महकमे को फायदे ही दिख रहे हैं। संजीव ने राजनांदगांव एसपी रहते उफनती नक्सल समस्या को लगभग काबू किया था। दोनों अफसर सरकार की नजरों पर खरा उतरेंगे, ऐसा पुलिस के रणनीतिकारों का मानना है। संजीव शुक्ला की दिक्कत यह है कि वे डीजीपी डीएम अवस्थी के बहनोई हैं, इसलिए अपनी सारी काबिलीयत और ईमानदारी के बावजूद उनकी किसी नियुक्ति पर इस रिश्तेदारी की छाप लगाने में लोग चूकते नहीं हैं। लेकिन अब जब नक्सल मोर्चे पर यह तैनाती हुई है तो लोगों के मुंह बंद हो जाने चाहिए। ([email protected])
एडीजी आईजी बना दिए गए?
छत्तीसगढ़ सरकार ने बीती रात करीब दो दर्जन आईपीएस अफसरों के तबादले किए जिसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण तबादला खुफिया विभाग के मुखिया का रहा। इस कुर्सी पर अब तक तैनात एडीजी संजय पिल्ले पहले भी एक बार खुफिया विभाग में रह चुके थे, इसलिए उनके लिए यह काम पुराना ही था। लेकिन राज्य सरकार की बहुत सी बातें किस तरह बाहर जा रही थीं, उसकी खबर खुफिया विभाग को न हो पाना संजय पिल्ले के हटने की एक वजह हो सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री के सबसे करीबी इस पुलिस पद पर रहने या इससे जाने की वजह हो सकता है कि सीएम को खुद को ही हो। फिलहाल उनकी जगह दुर्ग के आईजी हिमांशु गुप्ता को विभाग का मुखिया बनाया गया है, और लिस्ट में उनके पदनाम को लेकर कुछ हैरानी खड़ी हुई है। हिमांशु गुप्ता एडीजी बनाए जा चुके हैं, और महीनों बाद का यह आदेश उन्हें फिर आईजी लिख रहा है। इसी तरह एडीजी के.एस.आर.पी.कल्लूरी को ट्रांसपोर्ट से पुलिस मुख्यालय भेजा गया है, आईजी के पद पर। यह बात भी हैरान करती है क्योंकि कई महीने पहले जो तीन आईजी एडीजी बनाए गए थे उनमें ये दोनों भी शामिल थे। अब इन्हें फिर आईजी किस हिसाब से लिखा गया है, यह समझ से परे है। कुछ लोगों को यह जरूर लगा कि इस सरकार ने पिछली सरकार के बनाए हुए तीन स्पेशल डीजी को वापिस एडीजी बना दिया था, इसलिए शायद एडीजी बनाए गए तीन लोग फिर आईजी बना दिए गए हैं, लेकिन सरकार ने ऐसा कोई आदेश निकाला नहीं था, इसलिए यह आदेश कुछ अटपटा है।
चर्चित लोग और चर्चित मामले
कल्लूरी के ट्रांसपोर्ट से हटने के बारे में यह बात पहले से चर्चा में रही है कि ट्रांसपोर्ट मंत्री मोहम्मद अकबर उनसे खुश नहीं थे, लेकिन फिर भी उन्हें वहां से हटाने में कई महीने लग गए। इस लिस्ट में राज्यपाल के एडीसी रहे आईपीएस भोजराम पटेल को कांकेर का एसपी बनाया गया है। उन्हें पिछली सरकार ने सीएसपी ही बनाकर रखा था, और कभी एडिशनल एसपी भी नहीं बनाया था। अब शायद वे ऐसे पहले एसपी होंगे जो बिना एडिशनल एसपी बने सीधे एसपी बने हैं। दुर्ग के एसपी प्रखर पांडेय को जिले में मायने रखने वाले बहुत से चर्चित मामलों में पूरी तरह नाकामयाब होने के बाद वहां से हटाकर बटालियन में रायगढ़ भेजा गया है। दुर्ग में आईजी के दफ्तर में ही बैठने वाले डीआईजी राजनांदगांव की कुर्सी अब नांदगांव भेजी गई है, और रतनलाल डांगी नांदगांव में बैठेंगे। अभी भिलाई के एक ही दफ्तर में आईजी और डीआईजी दोनों बैठते थे, और चर्चा यह थी कि रतनलाल डांगी हिमांशु गुप्ता को यह याद दिलाते रहते थे कि उन्हें केवल लोकसभा चुनाव के कुछ हफ्तों के लिए लाया गया है, और बाद में डांगी ही वहां प्रभारी आईजी के रूप में रहेंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।
पिछली सरकार में कुछ नाजुक मामलों से जुड़े रहे एडीजी अशोक जुनेजा पर लगातार जिम्मेदारियां बढ़ती चल रही हैं, खुफिया विभाग से तो उन्हें सरकार बदलने पर हटना ही था, लेकिन उन्हें हटाकर भी पुलिस मुख्यालय में प्रशासन का सबसे महत्वपूर्ण काम दिया गया था, अब उन्हें पुलिस भर्ती का अतिरिक्त काम भी दिया गया है। एडीजी पवनदेव के बारे में चर्चा रहती थी कि वे एसीबी-ईओडब्ल्यू में जाना चाहते हैं, जा रहे हैं, लेकिन उन्हें भेजा गया है पुलिस हाऊसिंग कार्पोरेशन में जहां पर अब तक डीजी डी.एम. अवस्थी ही सब सम्हाल रहे थे। पवनदेव पुलिस हाऊसिंग में एमडी के साथ-साथ चेयरमैन भी रहेंगे, और इस तरह अवस्थी वहां से पूरी तरह बाहर हो जाएंगे। दिलचस्प बात यह है कि पुलिस हाऊसिंग को लेकर महालेखाकार ने जो आपत्तियां अपनी रिपोर्ट में लिखी हैं, वे जांच के लिए ईओडब्ल्यू में अब तक खड़ी हुई हैं, और ईओडब्ल्यू के एडीजी (या अब महज आईजी?) जी.पी. सिंह के डी.एम. अवस्थी से सांप-नेवले जैसे मधुर संबंध सिपाही स्तर तक सबको मालूम हैं। अब पुलिस हाऊसिंग पर एजी की आपत्तियां और जांच दोनों ही अवस्थी के सीधे काबू से बाहर है।
विवेकानंद आखिर बस्तर से निकले...
केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति से दिल्ली से छत्तीसगढ़ लौटते ही आईजी विवेकानंद को तकरीबन तुरंत ही बस्तर भेज दिया गया था, और वे तब से अभी, ढाई साल के बाद पहली बार बस्तर से निकल रहे हैं, लेकिन हर किसी को महीनों पहले से यह मालूम था कि वे दुर्ग के आईजी बनाए जाने वाले हैं। इस पूरी लिस्ट में सबसे लंबे समय से इसी एक नाम की चर्चा इसी एक कुर्सी के लिए थी, बाकी तमाम फेरबदल तकरीबन ताजा हैं। लेकिन इस पूरी लिस्ट को लेकर इस बात की हैरानी हैं कि गृह विभाग के बड़े अफसरों को इसकी जानकारी शायद नहीं थी, और एक छोटे से अफसर के दस्तखत से करीब दो दर्जन आईपीएस अफसरों के तबादले की लिस्ट जारी की गई। यह प्रक्रिया कुछ हैरान करने वाली इसलिए भी है कि दो एडीजी को आईजी बनाने के साथ-साथ यह लिस्ट एसीएस गृह विभाग से होकर भी नहीं गुजरी है ऐसा राज्य सरकार के एक अधिकारी का कहना है। सी.के. खेतान अभी तक गृह विभाग के एसीएस हैं जो कि शायद आज सुब्रत साहू को काम सौंपने वाले हैं जो कि चुनाव आयोग से निकलकर यह काम सम्हालने में कुछ लेट हुए हैं, लेकिन ऐसी चर्चा है कि खेतान के पद पर रहते हुए भी उनकी जानकारी में ये तबादले नहीं थे।
वॉट्सऐप निगरानी सॉफ्टवेयर
आज देश भर में जिस इजरायली सॉफ्टवेयर, पेगासस, की चर्चा चल रही है, उसके बारे में एक अंग्रेजी अखबार में यह खबर छपी है कि छत्तीसगढ़ पुलिस के सामने भी इसे बनाने वाली इजरायली कंपनी ने 1917 में इसका प्रदर्शन किया था। यह सॉफ्टवेयर वॉट्सऐप जैसे सुरक्षित माने जाने वाले मैसेंजर को भी टैप कर सकता है, और इसकी मदद से दुनिया के कई देशों में सरकारों ने ऐसा किया भी। कंपनी यह दावा भी करती है कि वह इसे सरकारों और सरकारी एजेंसियों के अलावा किसी को नहीं बेचती है। अंग्रेजी अखबार संडे गार्डियन में दो दिन पहले छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पेगासस बनाने वाली इजरायली साइबर इंटेलीजेंस कंपनी, एनएसओ, ने 2017 में छत्तीसगढ़ पुलिस के बड़े अफसरों के सामने राज्य के पुलिस मुख्यालय में इसका प्रदर्शन किया था। इस अखबार ने उस बैठक में मौजूद एक अधिकारी के हवाले से लिखा है कि बैठक में वरिष्ठ खुफिया अफसर मौजूद थे। इस बारे में पूछने पर डीजीपी डी.एम. अवस्थी ने कहा कि न तो उनके सामने कभी ऐसा कोई प्रजेंटेशन हुआ, न पूछताछ पर उन्हें ऐसी कोई जानकारी मिली। उस वक्त वे एडीजी नक्सल इंटेलीजेंस और नक्सल ऑपरेशंस थे, और ऐसे किसी निगरानी सॉफ्टवेयर की उनके सामने चर्चा भी नहीं हुई। प्रदेश के एक एडीजी आर.के. विज से पूछने पर उन्होंने कहा कि ऐसे किसी प्रोडक्ट के प्रदर्शन की उन्हें कोई याद नहीं है, न तो मौजूद रहने की, न ही बाद में ऐसे किसी कागज की। उस वक्त राज्य के खुफिया-चीफ एडीजी अशोक जुनेजा थे, और उनसे संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन उनके फोन पर कोई जवाब नहीं मिला।
संडे गार्डियन ने यह भी लिखा है कि 2017 में रायपुर पुलिस मुख्यालय में यह प्रजेंटेशन 20-25 मिनट चला, लेकिन कंपनी ने उसके 60 करोड़ दाम बताए जिसे बहुत अधिक मानते हुए बात उसी समय खत्म हो गई। इस अखबार की पूछताछ पर इस कंपनी एनएसओ ने कहा कि वे इस बात से इंकार नहीं करते कि हिन्दुस्तान में उनके इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन वे यह नहीं बता सकते कि उन्होंने इसे किस एजेंसी या सरकार को बेचा था। ([email protected])
एयरपोर्ट तक सफर और बेवकूफी
जो लोग देश की राजधानी दिल्ली से हवाई अड्डे के रास्ते सफर करते हैं, वे अगर पूरे रास्ते बाकी गाडिय़ों को देखें, और एयरपोर्ट तक के रास्ते को देखें तो समझ आता है कि दिल्ली में इतना प्रदूषण क्यों है। और यह बात महज दिल्ली की नहीं है, जिस-जिस शहर में एयरपोर्ट है, उन तमाम शहरों में यह बात देखने में मिलती है कि एक-एक मुसाफिर को छोडऩे के लिए बड़ी-बड़ी गाड़ी एयरपोर्ट आती-जाती है। औसतन हर मुसाफिर के लिए 50 से 100 किलोमीटर का सफर एक गाड़ी आने-जाने में करती है। एक मामूली सी समझदारी यह हो सकती है कि शहर और एयरपोर्ट के बीच, शहर के करीब कोई ऐसी खुली जगह तय कर दी जाए जहां से बसें सामान सहित लोगों को एयरपोर्ट ले जा सके, और कारें वहीं से शहर लौट जाएं। इसी तरह वे बसें लौटते में आए हुए मुसाफिरों को ऐसी जगह तक ले आएं जहां से लोग अपनी निजी कार या टैक्सी से बाकी रास्ता तय कर सकें। दिल्ली में तो यह लगता है कि ऐसी दो-तीन जगहें बनाई जा सकती हैं जिनसे हर कार के 20-25 किलोमीटर का सफर घट सकता है। अभी तक हिन्दुस्तान के किसी शहर में ऐसा देखने-सुनने में आया नहीं है कि एयरपोर्ट तक का लंबा रास्ता घटाकर शहर के किनारे एक बस स्टैंड ऐसा बनाया जाए जहां से आगे लोगों का जाना एक साथ हो सके, सड़कों पर गाडिय़ां घटें, ईंधन घटे, और प्रदूषण भी घटे। खर्च की फिक्र तो किसी को है नहीं!
टेक्नालॉजी और टोटका
दिल्ली पर ही एयरपोर्ट के ठीक पहले जो आखिरी रेडलाईट पड़ता है, उस पर सुबह-सुबह से बहुत से बच्चे थमी हुई गाडिय़ों को नींबू और मिर्च का टोटका बेचते दिखते हैं। हर कार के शीशे खटखटाते हुए वे अंधविश्वास की दहशत को दुहते हैं, और अपना पेट भी पालते हैं। अब टेक्नालॉजी के एक बड़े इस्तेमाल, हवाई सफर के पहले भी अगर ऐसा टोटका बिक रहा है, तो टेक्नालॉजी का क्या मतलब? और फिर यह भी कि जाने वाले मुसाफिर नींबू-मिर्च को ले जाकर कहां बांधेंगे? हवाई जहाज पर किसी जगह बांधेंगे, या पायलट के गले में? ([email protected])
मुख्यधारा में वापिसी
आखिरकार अजय सिंह मुख्य धारा में लौट आए। सरकार ने उन्हें चीफ सेक्रेटरी के पद से हटाकर राजस्व मंडल भेज दिया था। सीएम भूपेश बघेल उनकी कार्यशैली से नाखुश थे। बघेल से पहले रमन सिंह भी अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में नियामक आयोग अध्यक्ष पद पर नियुक्ति में देरी को लेकर अजय सिंह से नाराज थे। खैर, अजय सिंह ने सीएस पद से हटाने के फैसले को चुपचाप स्वीकार कर लिया और नई जिम्मेदारी संभाल ली। मगर सुनील कुजूर के रिटायरमेंट के चलते नए सीएस के नामों पर चर्चा चली, तो अजय सिंह रेस में आ गए थे।
चूंकि उनका रिटायरमेंट सिर्फ चार महीने रह गया था, इसलिए आरपी मंडल को सीएस की जिम्मेदारी दी गई, ताकि मंडल को काम करने का पूरा अवसर मिल सके। अजय सिंह ठहरे, खालिस छत्तीसगढिय़ा। सरकार ने उन्हें निराश नहीं किया और अहम जिम्मेदारी देने का फैसला लिया। अजय सिंह को राज्य योजना आयोग का उपाध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया है। अजय सिंह रिटायरमेंट के बाद भी इसी पद पर रहेंगे। उनसे पहले योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर सीएस रह चुके शिवराज सिंह और सुनील कुमार भी काम कर चुके हैं। कुल मिलाकर अजय सिंह की ससम्मान वापसी हुई है।
बिगड़ा करियर पटरी पर
पूर्व सीएस अजय सिंह की तरह डॉ. आलोक शुक्ला की भी प्रशासनिक महकमे में ससम्मान वापसी हुई है। आईएएस के 86 बैच के अफसर डॉ. शुक्ला नान घोटाले में फंसे रहे और कुछ दिन पहले ही उनकी अग्रिम जमानत हुई है। पिछली सरकार ने चार साल तक उनके खिलाफ जांच को लटकाए रखा। इन सबके चलते उनका पूरा कैरियर तकरीबन तबाह हो गया। वे अभी तक प्रमुख सचिव हैं जबकि वरिष्ठता क्रम में उनसे जूनियर उन्हीं के बैच के अफसर सुनील कुजूर सीएस बनकर रिटायर हुए।
आलोक शुक्ला को कभी पूरे छत्तीसगढ़ कैडर का एक सबसे होशियार अफसर माना जाता रहा है। कम से कम उनके साथ काम कर चुके राज्य के दो पूर्व सीएस तो ऐसा ही मानते हैं। शुक्ला ने अपनी योग्यता साबित भी की। छत्तीसगढ़ की पीडीएस व्यवस्था को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री अवार्ड से नवाजा जा चुका है। जोगी सरकार में स्वास्थ्य सचिव के रुप में उनके कामकाज की सराहना हुई थी।
चुनाव आयोग में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। अब भूपेश सरकार ने उनके पिछले रिकॉर्ड और उनके खिलाफ चल रहे मामले की समीक्षा करने के बाद उनकी मंत्रालय में वापसी का फैसला लिया। उन्हें प्लानिंग के साथ-साथ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रमुख सचिव के अलावा छत्तीसगढ़ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के डीजी का भी अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया है।
आलोक शुक्ला के रिटायरमेंट में 8 महीने बाकी है। सुनते हैं कि वे खुद कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते थे। वे अपना कैरियर चौपट मानकर चल रहे थे और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी आना-जाना छोड़ दिया था, मगर सीएम की समझाइश के बाद उन्होंने नई जिम्मेदारी स्वीकार कर ली। जो लोग उन्हें नजदीक से जानते हैं उनका मानना है कि आलोक शुक्ला कम समय में भी बहुत कुछ करने की क्षमता रखते हैं।
रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज और सत्ता का गृह नक्षत्र
छत्तीसगढ़ सरकार में रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज (वर्तमान में एनआईटी) के पूर्व छात्रों का दबदबा बना है। राज्य के प्रशासनिक मुखिया आरपी मंडल रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। कॉलेज में उनसे एक साल जूनियर राकेश चतुर्वेदी वन विभाग के मुखिया हैं। मंडल के कॉलेज में सहपाठी राजेश गोवर्धन वन विकास निगम के एमडी हैं। यह भी संयोग है कि एडीजी (इंटेलिजेंस) संजय पिल्ले भी रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से स्नातक हैं और वे अगले कुछ दिनों में डीजी के पद पर प्रमोट हो जाएंगे। संजय पिल्ले के ही कॉलेज के सहपाठी अतुल शुक्ला वर्तमान में पीसीसीएफ (वाइल्ड लाइफ) के पद पर हैं।
यही नहीं, नया रायपुर को बसाने में अहम भूमिका निभाने वाले एपीसीसीएफ (वर्तमान में निलंबित) श्याम सुंदर बजाज भी रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से स्नातक हैं। पिल्ले, शुक्ला और बजाज कॉलेज में एक ही बैच के हैं। वह दौर छात्र राजनीति का था। इस दौरान प्रदेश में सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता शैलेश नितिन त्रिवेदी ने भी रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की। वे संजय पिल्ले के सहपाठी हैं। और वर्ष-82 में इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे। यानी वे मौजूदा सभी अफसरों के नेता रहे हैं।
रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से ही एपीसीसीएफ संजय शुक्ला ने भी सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री हासिल की है और वे अगले कुछ दिनों में पीसीसीएफ के पद पर प्रमोट हो जाएंगे। संजय शुक्ला से कॉलेज में एक साल जूनियर सुधीर अग्रवाल और तपेश झा वर्तमान में एपीसीसीएफ के पद पर हैं। दिलचस्प बात यह है कि छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी प्रशासनिक सेवा में आने से पहले रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में कुछ समय अध्यापन कर चुके हैं।
इंजीनियरिंग कॉलेज के ठीक सामने साइंस कॉलेज से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और प्रदेश में सबसे ज्यादा समय तक मुख्य सचिव रहे और वर्तमान में रेरा चेयरमैन विवेक ढांड भी पढ़कर निकले हैं। साइंस कॉलेज के बगल में स्थित आयुर्वेदिक कॉलेज से डॉ. रमन सिंह ने डॉक्टरी की डिग्री हासिल की। और वे 15 साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे। सरकार के दो मंत्री डॉ. प्रेमसाय सिंह और डॉ. शिवकुमार डहरिया भी आयुर्वेदिक कॉलेज से पढ़कर निकले हैं। कुल मिलाकर इस इलाके का गृह नक्षत्र कुछ ऐसा है कि प्रदेश की सत्ता इस आधा किमी के दायरे से निकली है।
स्कूल के साथी
यह भी संयोग है कि राज्य के प्रशासनिक मुखिया आरपी मंडल और राज्य पॉवर कंपनी के चेयरमैन शैलेन्द्र शुक्ला बिलासपुर के शासकीय गवर्नमेंट हाईस्कूल से पढ़कर निकले हैं। मंडल और शैलेन्द्र शुक्ला के साथ वन विकास निगम के एमडी राजेश गोवर्धन व ग्रामोद्योग सचिव हेमंत पहारे भी थे। ये सभी स्कूल के दिनों के साथी हैं और पहली से 11वीं कक्षा साथ पढ़ाई की।
यह भी दिलचस्प है कि राज्य के वन मुखिया राकेश चतुर्वेदी और पीसीसीएफ (वाइल्ड लाइफ)अतुल शुक्ला ने रायपुर के सेंटपॉल्स स्कूल से पढ़ाई की है। यह भी संयोग है कि चतुर्वेदी के पिताजी, अतुल शुक्ला के शिक्षक रहे हैं। चतुर्वेदी के पिताजी सेंटपॉल्स स्कूल में अध्यापक थे। इससे परे अतुल शुक्ला के पिता, राकेश चतुर्वेदी के इंजीनियरिंग कॉलेज में शिक्षक रहे हैं। अतुल शुक्ला के पिता इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक थे। खास बात यह है कि अहम पदों पर काबिज ये सारे अफसर एक-दूसरे से पुराने परिचित होने के कारण आपसी तालमेल बहुत अच्छा है।
पीताम्बरा पीठ
दूर दराज से लोग अपनी मनोकामना लेकर दतिया स्थित पीताम्बरा पीठ जाते हैं। पीताम्बरा देवी के मंदिर में छत्तीसगढ़ के कई नेता-अफसर और आम लोग भी अक्सर मत्था टेकने जाते हैं। इससे परे रायपुर में भी एक 'पीताम्बराÓ भवन काफी चर्चित हो रहा है। पीताम्बरा उद्योग भवन के मालिक कांग्रेस के एक बड़े नेता हैं और चर्चा है कि उनकी सरकार के अलग-अलग विभागों में ठेका-सप्लाई आदि में अहम भूमिका रहती है। सुनते हैं कि नेताजी पहले पार्टी दफ्तर में बैठते थे, लेकिन इससे पार्टी के नेता ही नाखुश थे। पार्टी नेताओं की नाराजगी को देखकर उन्होंने ठिकाना बदल दिया है। अब सिविल लाईन में एक भवन किराए से लिया है। पीताम्बरा नाम से चर्चित इस भवन में ठेकेदारों-सप्लायरों, उद्योगपतियों की भीड़ अक्सर देखी जा सकती है। नेताजी की कृपा से इन सब की मनोकामना पूरी होने लगी है। लिहाजा, लोगों ने हंसी-मजाक में पीठ का दर्जा दे दिया है।
गांवों में नो प्लास्टिक का हाल
कल गुरुवार को किसी के यहां शोक प्रकट करने पाटन के एक गांव जाना हुआ। बाइक पर सवार जाते हुए पाटन रोड पर ही स्थित ग्राम अमेरी के मोड़ के समीप शराब दुकान पर नजर पड़ी। शराब दुकान का प्रांगण तो बड़ा था ही, उसके सामने पगडंडी या छोटी मुरुम वाली कच्ची सड़क के पार करीब 5 एकड़ से ज्यादा का खुला मैदान (भाठा) दिखा, यह खुला मैदान भी घास की बजाय प्लास्टिक डिस्पोजल और चखना आइटम्स के खाली पैकेट्स से पटा हुआ था।
तस्वीर में देखी जा सकती है कि जहां तक नजर आ रहा है वहां तक प्लास्टिक कचरा पटा हुआ है। शहरों में तो राज्य सरकार कथित नो प्लास्टिक अभियान चला रहे हैं लेकिन गांवों की स्थिति यह तस्वीर बयान कर रही है, वह भी मुख्यमंत्री के इलाके की तस्वीर, जिस सड़क से आए दिन लालबत्ती गाडिय़ां और सरकारी अमला रफ्तार से निकल जाता होगा। इन इलाकों में गाय के खाने के लिए घास आसानी से उपलब्ध है या यह प्लास्टिक कचरा, यह भी तस्वीर बता रही है।
इन तस्वीरों से अंदरुनी इलाकों में नो प्लास्टिक अभियान का असल हाल समझा जा सकता है। (तस्वीर और टिप्पणी ब्लॉगर संजीत त्रिपाठी)
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