राजपथ - जनपथ
मी टू में फंसे नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। प्रदेश संगठन जरूर कौशिक का बचाव कर रहा है, लेकिन पार्टी हाईकमान इसको लेकर गंभीर दिख रहा है। सुनते हैं कि हाईकमान ने महिला के आरोपों की वीडियो क्लिप मंगवाई है और देर शाम तक सारी जानकारी भेज भी दी गई। यही नहीं, मंगलवार को दिल्ली में अमित शाह के रात्रि भोज के मौके पर भी कुछ नेता इस प्रकरण पर बतियाते रहे। हाईकमान इस पूरे प्रकरण को लेकर गंभीर इसलिए है कि नेता प्रतिपक्ष के चयन के दौरान कौशिक की गैरमौजूदगी में एक पूर्व मंत्री ने उनके आचरण को लेकर काफी कुछ कहा था तब पार्टी नेता सन्न रह गए थे।
कौशिक का यह बयान भी लोगों को हजम नहीं हो रहा है कि दो साल तक महिला क्या कर रही थी। इस पर महिला के वकीलों का कहना है कि कौशिक के करीबी प्रकाश बजाज के खिलाफ पुलिस से लेकर तत्कालीन सीएम डॉ. रमन सिंह से भी मिलकर महिला ने छेड़छाड़ की शिकायत की थी लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। जब प्रकाश बजाज जैसे मामूली नेता पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही थी तो कौशिक जैसे बड़े प्रदेशाध्यक्ष पर क्या कार्रवाई होती? सरकार बदली तो उनकी शिकायत पर अब जब प्रकाश बजाज पर कार्रवाई हुई, तो इसके बाद शिकायतकर्ता महिला का हौसला बढ़ा। खैर, कांग्रेस ने यह कह दिया कि कौशिक जिस एजेंसी से जांच कराना चाहे, वे इसके लिए तैयार हैं। अब कौशिक के अगले कदम पर निगाहें टिकी हुई है। अभी जब तक दिल्ली में एनडीए की सरकार बन न जाए, तब तक तो कौशिक के हिमायती यह चुनौती भी नहीं दे सकते कि मामले की सीबीआई से जांच करा ली जाए। महिलाओं की शिकायत मनमाने तरीके से खारिज करने के नुकसान देश भर में जगह-जगह समय-समय पर आते रहे हैं, और छत्तीसगढ़ में धरम कौशिक को लेकर पहले से कई अप्रिय चर्चाएं हवा में रही हैं, इसलिए इस शिकायत को खारिज करना भाजपा के कई लोगों के गले नहीं उतर रहा है। फिलहाल भाजपा नेत्री हर्षिता पांडेय महिला आयोग के अध्यक्ष पद पर नहीं हैं, इसलिए बखेड़ा बढऩे पर इसी आयोग से कोई नोटिस भी आ सकता है।
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के दामाद, एक सरकारी डॉक्टर को प्रदेश का एक वक्त का अकेला मेडिकल कॉलेज अस्पताल सौंप दिया गया था कि उसे सुपर स्पेशलिटी अस्पताल बनाया जाए। दाऊ कल्याण सिंह दानदाता थे, और उनके नाम पर इसे डी.के. अस्पताल नाम से जाना जाता था। बाद में मेडिकल कॉलेज का नया अस्पताल बना तो छत्तीसगढ़ राज्य बनने पर इसी इमारत में मंत्रालय खुला और एक दशक से ज्यादा चलता रहा। जब मंत्रालय नया रायपुर गया, तो एक बार फिर इसे अस्पताल बनाने का काम हुआ। ऐसे में मेडिकल कॉलेज में नेफ्रोलॉजी के विशेषज्ञ डॉ. पुनीत गुप्ता को यह जिम्मा दिया गया, और जाहिर है कि सीएम का दामाद होने की वजह से उन्हें खुली छूट भी दी गई कि वे तेज रफ्तार से इसे एक शानदार अस्पताल बनाएं।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ऐसा कोई भी वक्त नहीं रहा जब स्वास्थ्य विभाग प्रदेश का सबसे भ्रष्ट विभाग न रहा हो। हाल ही में यह तस्वीर बदली है जब कांगे्रस सरकार के स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव अस्पतालों पर अपनी जेब का पैसा खर्च कर रहे हैं बजाय अस्पतालों के पैसों से जेब भरने के। रमन सरकार में एक सबसे ताकतवर मंत्री अजय चंद्राकर स्वास्थ्य मंत्री थे, और सुब्रत साहू जैसे स्वास्थ्य सचिव थे जिनके पिता ओडिशा में चीफ सेक्रेटरी रह चुके थे। ऐसे लोगों के रहते हुए उनके विभाग में खूब चर्चित डी.के. अस्पताल में जिस रफ्तार से नियम-कायदे तोड़कर करोड़ों खर्च हुए, और बैंक से फर्जी कागजातों पर कर्ज लिया गया, उनमें से कोई भी बात इन दोनों लोगों की अनदेखी से हो नहीं सकती थी। जिस पंजाब नेशनल बैंक से करीब पौन सौ करोड़ रुपये का यह कर्ज लिया गया, वहां के उस वक्त के मैनेजर ने खुलासा किया है कि इस कर्ज के पीछे सरकार की मंजूरी थी, सरकार की गारंटी थी, और अस्पताल की कमेटी में स्वास्थ्य मंत्री, स्वास्थ्य सचिव, और रायपुर के कलेक्टर मेंबर थे। वैसे तो आज पुलिस की जांच डॉ. पुनीत गुप्ता को घेरे में लेकर चल रही है, और अभी बैंक के एजीएम को भी पुलिस ने गिरफ्तार किया है, लेकिन सरकार में जिम्मेदारी महज पुनीत गुप्ता पर खत्म नहीं हो सकती, उसके ऊपर के कई और लोगों की सीधी जिम्मेदारी इसमें बनती है। जब सरकार का कोई विभाग इतनी तेजी से कर्ज लेता है और खरीददारी करता है तो उसके लिए वित्त विभाग की कई तरह की इजाजत लगती है जो कि छोटी-छोटी बातों पर आपत्ति करने वाला विभाग रहता है। ऐसे में डी.के. अस्पताल को एक स्वतंत्र देश की तरह चलाने का यह काम कैसे हुआ यह हैरान करने वाला है। मीडिया में लगातार तस्वीरें आती भी थीं कि मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री इस अस्पताल की बदलती हुई शक्ल को देखने के लिए जाते थे। और स्वास्थ्य विभाग में हजारों करोड़ की खरीदी जिस तरह होती थी, उसकी जानकारी प्रदेश के आम लोगों को भी थी, इसलिए ऐसा तो हो नहीं सकता कि जानकार स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर इससे नावाकिफ रहे हों। देखना है कि पुलिस के हाथ कहां तक पहुंचते हैं।
पुनीत की बुलेटप्रूफ जैकेट
डीकेएस घोटाले में फंसे पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह के दामाद डॉ. पुनीत गुप्ता के खिलाफ कई प्रकरण दर्ज तो हैं, लेकिन पुलिस उनसे कोई राज नहीं उगलवा पाई। पुनीत को अग्रिम जमानत मिली हुई है और बयान देने के लिए वकीलों की फौज लेकर पहुंचते हैं। पुलिस का कोई भी सवाल रहे, उनका एक ही जवाब होता है कि फाइल देखकर ही कुछ बता पाएंगे। फाइलें तो गायब हैं, और अस्पताल प्रबंधन ने इसको लेकर एफआईआर दर्ज करा रखी है।
पुनीत ने पुलिस को छकाने के लिए बकायदा आरटीआई लगाकर फाइलों की छायाप्रति मांग लिया है। अब फाइलें तो गुम हैं इसलिए उन्हें कोई जानकारी नहीं मिल सकती। ऐसे में पुनीत गोलमोल जवाब देकर पुलिस कार्रवाई से बच रहे हैं। अब सवाल यह है कि आखिर घोटाले की फाइलें कहां गर्इं। पुलिस की मानें तो इसके बारे में सिर्फ पुनीत गुप्ता ही कुछ बता सकते हैं। पुलिस के हाथ बंधे हैं क्योंकि पुनीत ने कानूनी कानूनी बुलेटप्रूफ जैकेट पहन रखी है। उनकी अग्रिम जमानत खारिज करने के लिए पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है। कोर्ट ने चार हफ्ते के भीतर पुनीत से जवाब मांगा है। इस पर जुलाई में सुनवाई होगी। यह साफ है कि जब तक पुलिस पुनीत को रिमांड में लेकर पूछताछ नहीं करेगी तब तक फाइलों के राज से पर्दा नहीं उठ पाएगा। यह सब आसान भी नहीं दिख रहा है, क्योंकि पुनीत के लिए देश के नामी-गिरामी वकील पैरवी कर रहे हैं, और पुलिस को अदालत में इसका मुकाबला करने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है।
महिला की शिकायत और धरम कौशिक
नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक से पार्टी के कई बड़े नेता नाराज बताए जा रहे हैं। वजह यह है कि कौशिक, छेड़छाड़ के आरोपी प्रकाश बजाज के समर्थन में बयानबाजी करने और आंदोलन छेडऩे के लिए पार्टी नेताओं पर दबाव बनाए हुए हैं। प्रकाश, धरम कौशिक के बेहद करीबी माने जाते हैं, और उनके राजदार भी बताए जाते हैं। सुनते हैं कि सालभर पहले रमन सिंह सरकार के रहते यह मामला प्रकाश में आया था। तब भी धरम कौशिक के दबाव की वजह से आगे कोई पुलिस-कार्रवाई नहीं हो पाई। चूंकि यह महिला से जुड़ा मामला है और महिला अत्याचार को लेकर पार्टी संवेदनशील होने का दावा करते रही है। ऐसे में कौशिक का आरोपी को बिना किसी जांच के क्लीन चिट देकर सरकार पर बदलापुर की राजनीति करने का आरोप लगाना पार्टी नेताओं को गले नहीं उतर रहा है। कुछ नेताओं ने तो कौशिक के बयान की कटिंग पार्टी हाईकमान को भेजी है और उनकी गतिविधियों पर रोक लगाने का आग्रह किया है।
([email protected])
लोकसभा चुनाव मतदान खत्म होते ही कल शाम जो एग्जिट पोल सामने आया, वह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के लिए खासी निराशा लेकर आया है। इसमें भाजपा को नुकसान तो बड़ा होते दिख रहा है, और उसकी दस सीटें घटकर छह रह जा रही हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने विधानसभा चुनाव में ग्यारह में से दस लोकसभा क्षेत्र में लीड पाई थी, जो एग्जिट पोल के मुताबिक घटकर पांच सीटों पर रह जा रही है। लेकिन इससे भी अधिक फिक्र खड़ी करने वाला एक दूसरा आंकड़ा आज सुबह आया है। सी वोटर के यशवंत देशमुख ने राज्यों में पार्टियों के वोट की हिस्सेदारी का चार्ट पोस्ट किया है जिसके मुताबिक छत्तीसगढ़ में भाजपा कांग्रेस से साढ़े नौ फीसदी अधिक वोट पाते दिख रही है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से दस फीसदी अधिक वोट पाए थे। इन छह महीनों में अगर छत्तीसगढ़ के वोटर कांग्रेस से भाजपा की तरफ, या मोदी की तरफ इतने खिसक गए हैं कि दोनों पार्टियों के बीच इन दोनों चुनावों में वोटों का फर्क बीस फीसदी होने जा रहा है तो यह हैरान करने वाली बात रहेगी। और यह भी तब जब जोगी इस चुनाव में मैदान में नहीं थे, और ऐसा माना जा रहा था कि उन्हें मिलने वाले परंपरागत वोट कांग्रेस की तरफ आएंगे। यह तो मतगणना के बाद अलग-अलग बूथ के आंकड़े बताएंगे कि कहां-कहां जोगी को वोट मिले थे, और उन बूथ पर इस चुनाव में उनके न रहने पर ये वोट कांग्रेस को मिले हैं, या नहीं? चुनावी विश्लेषण आंकड़ों से परे भी बहुत सी बातों पर टिका रहता है, लेकिन आंकड़े ही हैं जो कि निर्विवाद होते हैं, और जिनसे कम से कम एक तस्वीर तो बनती ही है। अब सीवोटर के ये आंकड़े सही निकलते हैं, या नहीं यह नहीं पता। कल के एग्जिट पोल की एजेंसियों ने केवल सीटों की संख्या के अंदाज सामने रखे हैं, लेकिन इस एक एजेंसी ने वोट प्रतिशत भी पेश किया है जिसे मतगणना के आंकड़ों से मिलाकर देखा जा सकेगा।
कांग्रेस के सामने चुनौती...
अब जब पूरे देश में वोट गिर चुके हैं, तब पार्टियों के नेता कुछ अधिक ईमानदारी के साथ अपनी हालत मंजूर कर रहे हैं। ऐसे में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी सात सीटों की बात कर रही है। यह बात प्रदेश के सबसे वरिष्ठ मंत्री टी.एस. सिंहदेव बार-बार कह चुके हैं कि सात से कम सीटें आने पर आत्ममंथन करना होगा, पुनर्विचार करना होगा, हालांकि वे यह नहीं कहते हैं कि किस बात पर पुनर्विचार करना होगा। जाहिर है कि दिल्ली में अगर कांग्रेस किसी तरह सरकार में रहेगी, तो राज्यों में पार्टी की हालत पर उतनी बारीकी से गौर नहीं होगा। लेकिन अगर कांग्रेस दिल्ली में विपक्ष में रहती है तो उसके पास हर प्रदेश की जीत-हार पर गौर करने के लिए समय ही समय रहेगा। यह बात जरूर है कि बहुत से राज्यों में विधानसभा का चुनाव स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेताओं को सामने रखकर लड़ा गया था, और इस बार यह चुनाव मोदी के समर्थन या मोदी के विरोध के बीच हुआ है, और यह राज्य विधानसभाओं से थोड़ा अलग तो रहना ही था। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस आठ से अधिक सीटों की उम्मीद कर रही थी, और अगर उसकी कुल पांच सीटें आती हैं, तो उसे सचमुच ही अपने कई पहलुओं पर सोचना-विचारना पड़ेगा, और जनता के बीच एक बार फिर लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मुश्किल कोशिश करनी पड़ेगी।([email protected])
पिछले कुछ समय से सरकार के मंत्री ताम्रध्वज साहू नाराज चल रहे हैं। वे अपने बेेटे को दुर्ग से टिकट दिलाना चाहते थे, मगर उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी। अभी नाराजगी मंत्रियों के विभाग में छोटे से परिवर्तन को लेकर है। सीएम भूपेश बघेल ने अस्पताल में भर्ती मंत्री रविन्द्र चौबे का विधि-विधायी विभाग मोहम्मद अकबर को दे दिया। सुनते हैं कि ताम्रध्वज इसको लेकर नाराज हो गए।
हल्ला है कि उन्होंने प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया और अन्य नेताओं से इस पर आपत्ति भी जताई है। बाद में उन्हें समझाया गया कि चुनाव आचार संहिता हटने के तुरंत बाद विधि-विधायी विभाग से जुड़े कई अहम फैसले होने हैं। चूंकि रविन्द्र चौबे को पूरी तरह ठीक होने में कुछ वक्त और लग सकता है। ऐसे में अकबर को चौबे के स्वस्थ होने तक विधि-विधायी विभाग का प्रभार दिया गया है। इसमें चौबे की भी सहमति रही है। तब कहीं जाकर वे थोड़े बहुत नरम पड़े। वैसे उनका मिजाज उस समय से और ज्यादा बिगड़ा हुआ है जब प्रतिमा चंद्राकर को दुर्ग से प्रत्याशी बनाया गया। प्रतिमा ने विधानसभा चुनाव में अपनी जगह ताम्रध्वज को टिकट देने का विरोध किया था।
इसके अलावा ट्रांसफर-पोस्टिंग के भी कुछ ऐसे मामले थे जिनमें ताम्रध्वज की बात मुख्यमंत्री ने किन्हीं वजहों से नहीं सुनी, और उन्हें लेकर वे बिफरे हुए रहे। अब लोकसभा चुनाव निपट जाने के बाद कई लोगों के बीच छोटे-छोटे विवाद सामने आ सकते हैं जिनमें कई ऐसे लोगों के मामले भी हैं जिनके खिलाफ चुनाव में कांगे्रस को खासा नुकसान पहुंचाने के सुबूत हैं, लेकिन जो अब तक मजे कर रहे हैं।
रिटायरमेंट के बाद...
प्रदेश में जितने आईएएस-आईपीएस अफसर रिटायर होने वाले हैं, उतनी ही चर्चा चल रही है कि बाद में किसे कौन सी कुर्सी मिलेगी। कुछ रिटायर्ड लोगों ने अपने नाम की चर्चा तरह-तरह से शुरू करवा दी है, और कुछ रिटायर होने वाले लोग मुख्यमंत्री तक अपनी खूबियां पहुंचाने में लगे हुए हैं। कुल मिलाकर कोई भी ऐसे नहीं दिखते जो रिटायर होने के बाद सचमुच रिटायर होना चाहते हों। जाहिर है कि सरकार की ऐसी मेहरबानी पाने के लिए लोग नौकरी के आखिरी एक-दो बरस सरकार की खुशामद में सभी कुछ करने को तैयार रहते हैं। और तो और कुछ कुर्सियों पर रिटायर्ड जजों को ही मनोनीत किया जाता है, और उसके लिए भी लोग चर्चा में रहते हैं कि किसे और क्यों क्या बनाया जाएगा।
आदत क्यों बिगाड़ रहे हैं?
एक तरफ हर सरकार में बहुत से मंत्री भारी कमाई करने के लिए चर्चा में रहते हैं, तो दूसरी तरफ टी.एस. सिंहदेव देश के सबसे संपन्न गिने-चुने अरबपति विधायकों में से एक हैं, और अस्पतालों की जरूरत को पूरा करने के लिए वे अपनी जेब से एसी और कूलर लगवा रहे हैं। अब दूसरे बहुत से नेता यह देखकर परेशान हो रहे हंै जो हैं तो खासे संपन्न लेकिन जो निजी घर का कमोड भी सरकारी खर्च से बदलवा रहे हैं। ऐसे एक सत्तारूढ़ नेता ने कहा कि बाबा (टी.एस. सिंहदेव) के पास ज्यादा पैसा है तो घर पर रखें, सरकारी कामकाज में निजी पैसा खर्च करके जनता की उम्मीद क्यों बढ़ा रहे हैं? ऐसे में हम जनता के पैसों से अपना कुछ भी नहीं कर सकेंगे। अब विधानसभा चुनाव के वक्त से लेकर अब तक टी.एस. सिंहदेव के निजी खर्च को लेकर कई किस्म की कहानियां हवा में हैं जिनकी सच्चाई वे ही बता सकते हैं। कुछ लोगों का कहना और मानना है कि उन्होंने अपनी बहुत सी जमीनें बेचकर विधानसभा चुनाव के वक्त पार्टी को एक बहुत बड़ी रकम दी है, और वे उसी अंदाज में आज भी जनता के कामों पर घर का खर्च कर रहे हैं।
प्रदेश कांग्रेस के नेता यूपी में चुनाव प्रचार कर लौट आए हैं। पार्टी हाईकमान ने सरकार के मंत्रियों और संगठन के प्रमुख नेताओं को यूपी के मुख्य रूप से अमेठी, रायबरेली और बाराबंकी में चुनाव प्रबंधन का जिम्मा सौंपा था। संकेत साफ था कि उन्हें खाली हाथ नहीं आना है। खैर, प्रदेश का चुनाव निपटते ही सीएम-मंत्रिगण और सारे प्रमुख नेता यूपी पहुंच गए। अमेठी से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में ज्यादातर नेता वहीं डटे रहे।
सुनते हैं कि अमेठी में पार्टी संगठन का हाल ऐसा था कि स्थानीय लोगों को वहां के प्रमुख पदाधिकारियों का नाम तक नहीं मालूम था। किसी तरह खोजबीन कर जिला अध्यक्ष को बुलाया गया। और उनके साथ मिल बैठकर यहां के नेताओं ने चुनाव प्रचार की व्यूह रचना तैयार की। दो दिन बाद प्रियंका गांधी का रोड शो होने वाला था। रोड शो में किसी तरह कमी न रहे, यह सोचकर जिलाध्यक्ष को मंत्रियों की मौजूदगी में साढ़े 3 लाख दे दिए और सभी जरूरी इंतजाम करने कहा गया।
एक साथ लाखों रूपए देखकर जिलाध्यक्ष महोदय की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और वे इंतजामों को लेकर बढ़-चढक़र दावा कर वहां से निकल लिए। अगले दिन तैयारियों पर चर्चा के लिए यहां के नेताओं ने जिलाध्यक्ष को फोन लगाया, तो उनका मोबाइल बंद मिला। जिलाध्यक्ष का कोई पता नहीं चलने पर हैरान-परेशान नेता दूसरे किसी जिम्मेदार स्थानीय पदाधिकारी की खोज में जुट गए। फिर एक नेता को यह कहकर पेश किया गया कि ये ईमानदार हैं और अमेठी में बरसों से पार्टी का झंडा थामे हुए हैं।
दूध से जले नेताओं ने स्थानीय नेता की ईमानदारी का टेस्ट करने के लिए 50 हजार रूपए दिए और उन्हें रोड शो की तैयारियों में जुटने कहा। पचास हजार रूपए मिलते ही इंतजामों का आश्वासन देकर निकल गए और थोड़ी देर बाद उनका भी मोबाइल बंद हो गया। फिर क्या था, प्रदेश के नेताओं ने अमेठी के नेताओं को छोडक़र खुद ही सारे इंतजाम किए। हाल यह रहा कि छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी महापौर और विधायक सहित अन्य बड़े नेता खुद नारेबाजी करते अमेठी की गलियों में घूमने मजबूर रहे। उन्होंने सफलतापूर्वक रोड शो होने पर राहत की सांस ली।
इस मांग से कोर्ट बेहतर...
पिछली सरकार में ताकतवर रहे कई अफसर जांच के घेरे में आ गए हैं। इनमें से एक पुलिस अफसर जांच का घेरा तोडऩे की भरसक कोशिश कर रहे हैं। चर्चा है कि अफसर ने कांग्रेस के कई राष्ट्रीय नेताओं से जुगाड़ भी बिठाया, बावजूद इसके उन्हें राहत नहीं मिल पाई है। सुनते हैं कि पुलिस अफसर को अभयदान देने के बदले झीरम कांड का रहस्य लिखित में देने के लिए कहा गया। ऐसी शर्त सुनकर पुलिस अफसर भी हक्का-बक्का रह गए। वे मिन्नतें छोडक़र कानूनी लड़ाई में पूरा ध्यान दे रहे हैं। उन्हें कई और लोगों का साथ मिल रहा है। केन्द्र में एनडीए की सरकार आई, तो उन्हें पूरी राहत मिलने की उम्मीद है। वैसे भी राज्य के आधा दर्जन आईएएस-आईपीएस चुनावी नतीजों की राह देख रहे हैं कि एनडीए लौटे तो वे दिल्ली जाने की अर्जी लगा दें।
पुराना माल रक्खा हुआ है...
दूसरों की निजी जिंदगी में तांकझांक करने के लिए कानूनी और गैरकानूनी दोनों किस्म की फोन टैपिंग का लालच बहुत से नेता-अफसर छोड़ नहीं पाते, और इसका कानूनी इस्तेमाल चाहे न हो, बंद कमरे में ऐसी रिकॉर्डिंग सुनकर वे खुश भी होते हैं, और इसके आधार पर कुछ लोगों से दोस्ती पाल लेते हैं, कुछ से दुश्मनी। कानून तो गैरकानूनी फोन टैपिंग के खिलाफ बड़ा सख्त है, लेकिन छत्तीसगढ़ में यह धड़ल्ले से हुई, और अब कुछ नेताओं, कुछ अफसरों, और कुछ पत्रकारों तक यह बात पहुंचाई जा रही है कि आज वे किसी को मुसीबत में देखकर अधिक खुश न हों, क्योंकि उनकी कई निजी और नाजुक बातचीत अब तक हार्डडिस्क पर कायम है, और गैरकानूनी होने पर भी उसे गुमनाम तरीके से बाजार में फैलाया तो जा ही सकता है।
महात्मा गांधी पर भाजपा के अलग-अलग लोग जिस अंदाज में हमला कर रहे हैं, उसे देखकर सब हक्का-बक्का हैं। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने ऐसे लोगों को नोटिस देने की बात कही है, लेकिन भाजपा के नेता हैं कि कूद-कूदकर गांधी पर हमला किए जा रहे हैं। ऐसे में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के भाजपा जिलाध्यक्ष राजीव अग्रवाल शायद भाजपा से ऐसे अकेले नेता हैं जिन्होंने खुलकर साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ सोशल मीडिया पर लिखा है- साध्वी प्रज्ञा का नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं हैं। नाथूराम गोडसे केवल हत्यारा था, और इसके अलावा कुछ नहीं। साध्वी को देश से माफी मांगनी चाहिए। बीती दोपहर ही उन्होंने यह पोस्ट कर दिया था, हालांकि अमित शाह का बयान खासा बाद में आया है, आज सुबह। अमित शाह के बयान के बाद भी मध्यप्रदेश भाजपा के प्रवक्ता अनिल सौमित्र ने गांधी को पाकिस्तान का राष्ट्रपिता कहा है। और उनकी इस बात पर देश के बहुत से चौकीदारों ने लिखा है कि जब किसी को राष्ट्रपिता बनाकर दूसरों पर थोपा जाएगा, तो उसकी ऐसी ही प्रतिक्रिया होगी। हालांकि राजनीति में दिलचस्पी लेने वाले लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि चुनाव के बीच में, अभी जब मतदान का एक दौर बाकी है, भाजपा के नेता गांधी को इस तरह कूद-कूदकर लात मारकर आखिर कौन से वोटरों को प्रभावित कर रहे हैं? क्या अब बाकी सीटों पर महज गोडसेवादी वोटर ही बचे हैं?
मुख्यमंत्री की मेज लबालब
चुनाव प्रचार से मुक्त होकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल एक बार फिर सरकारी कामकाज पर बैठे हैं, तो उनके टेबिल और कमरे सभी फाइलों से लबालब बताए जा रहे हैं। बहुत से मामलों पर फैसले लेने हैं, और बहुत से नाम भी निगम-मंडल के लिए छांटने हैं। विधानसभा चुनाव को कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में भूपेश ने जिस खूबी से जीता है, उसके चलते वे मंत्रिमंडल तो पूरी तरह अपनी मर्जी का बना गए, लेकिन अब निगम-मंडल में मनोनयन में पार्टी के दिग्गज विधायकों से लेकर संगठन के वजनदार लोगों तक सबके बीच संतुलन बनाना उतना आसान नहीं रहेगा। लोगों की बड़ी-बड़ी उम्मीदें हैं क्योंकि पन्द्रह बरस बाद पार्टी सत्ता में है, ऐसे में हर कोई सत्ता की बस में सवार हो जाना चाहते हैं। एक बार फिर धर्म, जाति, जिला, और गुट, इन सभी का ख्याल रखते हुए लोगों के नाम छांटने होंगे, और यही मौका मुख्यमंत्री के सामने सरकारी फिजूलखर्ची को घटाने का भी रहेगा कि ऐसे नाम के कागजी निगम-मंडल, आयोग खत्म किए जाएं जो कि मुफ्तखोरी के लिए बनाए गए थे। यह एक कड़ा और कड़वा फैसला हो सकता है, लेकिन कामयाब लीडरशिप ऐसा जरूर कर सकती है क्योंकि इतने बहुमत से आने के बाद भूपेश बघेल के सामने मध्यप्रदेश की तरह सरकार पलटने का खतरा नहीं है।
([email protected])
अब चुनावी नतीजों को करीब हफ्ता भर बाकी है, और लोग उम्मीद कर रहे हैं कि चुनाव आयोग की रोक खत्म होते ही टीवी चैनलों और अखबारों पर एक्जिट पोल के अंदाज आने लगेंगे। ऐसे में कांग्रेस के डेटा एनालिटिक्स विभाग के मुखिया प्रवीण चक्रवर्ती की एक ट्वीट पर ध्यान देने की जरूरत है जिसमें कहा गया है कि 2014 से लेकर अब तक जिन बड़े राज्यों में सीटों की भविष्यवाणी की गई थी, वह भारी गड़बड़ी निकली थी। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, हरियाणा, कर्नाटक, पंजाब, बिहार, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, दिल्ली, केरल, और तमिलनाडु में पिछले 5 बरस के विधानसभा चुनावों के नतीजों के एक्जिट पोल में सीटों की संख्या का हिसाब चार अलग-अलग एजेंसियों का इस प्रकार रहा- एक्सिस-38 फीसदी सहित, चाणक्य- 25 फीसदी, सी वोटर- 15 फीसदी, और सीएसडीएस- 0 फीसदी। अब जो लोग एक्जिट पोल देखना चाहते हैं, वे इस बात को ध्यान में रखकर आगे अपना मनोरंजन कर सकते हैं।
राजेश मूणत और रमशीला साहू को छोड़कर रमन सरकार के तकरीबन सभी मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के कुछ न कुछ प्रकरण हैं, और वे जांच के घेरे में आ गए हैं। बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ उनकी अपनी सरकार ने ही जांच बिठा रखी थी, इसलिए नई सरकार को आगे कुछ करने की जरूरत नहीं है।
पूर्व गृहमंत्री रामसेवक पैकरा पर गलत जानकारी देकर पत्नी के नाम गैस एजेंसी हासिल करने के मामले की पड़ताल चल रही है। अजय चंद्राकर भी आय से अधिक संपत्ति मामले में जांच के घेरे में हैं। अमर अग्रवाल और उनके परिवार के कई उद्योगपति सदस्यों के खिलाफ तरह-तरह के केस दर्ज भी हंै, और चर्चा में भी हैं। सुनते हैं कि अमर ने आबकारी में काफी खेल खेला था और एसआर सिंह नाम का अभी लापता या फरार चल रहा भूतपूर्व अफसर अमर की मेहरबानी से ही नौ-नौ बार संविदा नियुक्ति पाकर बड़े-बड़े आईएएस अफसरों से भी ऊपर आबकारी की पूरी साजिश करते रहा, और हजारों करोड़ का दो नंबर का काम उसी दौर में हुआ। राजेश मूणत के खिलाफ अभी तक कोई ठोस प्रकरण नहीं आया है। जबकि खुद डॉ. रमन सिंह कई प्रकरणों में घिर गए हैं। अब 15 साल सरकार में थे, तो गलती होना स्वाभाविक था। कुछ गलतियां अनजाने में हुई, तो कुछ लापरवाही से हुई, शायद यह सोचकर कि सत्ता परिवर्तन होगा ही नहीं। सरकार में बाकी उपेक्षित-तिरस्कृत नेता-अफसरों का यह मानना रहा कि रमन सिंह की टीम यह मानकर चल रही थी कि वे अमर-बूटी पा चुके हैं, और खा चुके हैं। इसी धोखे में बहुत से मामले खड़े रह गए जो कि आज जांच और कटघरे तक पहुंचा रहे हैं। फिलहाल मौजूदा सरकार के लिए अगले चुनाव में जाने तक के लिए काफी कुछ मसाला तैयार हो गया है।
विधायक भीमा मंडावी के निधन के बाद खाली दंतेवाड़ा सीट पर अगले कुछ महीनों में उपचुनाव होना है। राजनीतिक हल्कों में यह चर्चा है कि नक्सलियों की गोली से मारे गए विधायक भीमा मंडावी के परिजनों में से भाजपा किसी को प्रत्याशी बनाती है, तो शायद कांग्रेस उम्मीदवार न खड़ा करे। भाजपा के कुछ लोग महाराष्ट्र और एक-दो अन्य राज्यों की परंपरा का हवाला देकर सत्तारूढ़ दल कांग्रेस से कुछ इसी तरह की उम्मीद पाले हुए हैं।
महाराष्ट्र में पूर्व गृहमंत्री आरआर पाटिल के निधन के बाद एनसीपी ने उनकी पत्नी को उम्मीदवार बनाया, तो सत्तारूढ़ दल भाजपा ने उपचुनाव में प्रत्याशी नहीं खड़े किए। इसी तरह महाराष्ट्र के एक और प्रतिष्ठित नेता पतंगराव कदम के निधन के बाद हुए उपचुनाव में भी भाजपा ने पतंगराव कदम के बेटे विश्वजीत कदम के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारा। पर छत्तीसगढ़ में इस तरह की परंपरा नहीं रही है। बालोद में भाजपा विधायक मदन लाल साहू के निधन के बाद उपचुनाव में पार्टी ने उनकी पत्नी कुमारी बाई को प्रत्याशी बनाया, तो कांग्रेस ने पूरी दमदारी से चुनाव लड़ा था। झीरम नक्सल हमले में मारे गए नंदकुमार पटेल के पुत्र उमेश पटेल के खिलाफ प्रत्याशी खड़ा करने में भाजपा ने जरा भी संकोच नहीं किया।
इस बार के विधानसभा चुनाव में तो उमेश पटेल को हराने के लिए हर संभव कोशिश की गई। कुछ लोगों का अंदाजा है कि पार्टी ने सबसे ज्यादा पैसे खर्च खरसिया में उमेश पटेल को हराने के लिए किए। वैसे तो डॉ. रमन सिंह को संवेदनशील सीएम माना जाता रहा है, लेकिन वे चुनावी राजनीति में कठोर रहे। उन्होंने तो दिवंगत पूर्व गृहमंत्री नंदकुमार पटेल के गृहग्राम नंदेली में सभा लेकर एक तरह से कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने कोशिश की। ये अलग बात है कि इन तमाम हथकंडों के बावजूद भाजपा को बुरी हार का सामना करना पड़ा। यह सब देखकर नहीं लगता कि कांग्रेस, दंतेवाड़ा उपचुनाव में मैदान छोड़ेगी।
परंपराएं तो पहले ही ढह गईं...
इसी किस्म की दूसरी बात छत्तीसगढ़ में यह है कि जोगी के वक्त से विधानसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देने की पुरानी परंपरा खत्म कर दी गई थी। वरना अविभाजित मध्यप्रदेश में हमेशा ही उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को दिया जाता था। जोगी ने भाजपा के एक दर्जन से अधिक विधायक तोड़े भी थे, और ऐसी कई परंपराएं शुरू की थीं जो कि पुरानी लोकतांत्रिक परंपराओं के खिलाफ थीं। फिर तो छत्तीसगढ़ में परंपराएं गड्ढे में डाल दी गईं, और विधानसभा अध्यक्ष भी कई ऐसे काम करते दिखे जो कि उनकी गरिमा के लायक नहीं थे। जब डॉ. रमन सिंह अपनी सरकार की सालगिरह पर सीएम हाऊस में मीडिया से बात कर रहे थे, तब उनके बगल में उनके दूसरे मंत्रियों के साथ-साथ विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल भी सीएम से नीची कुर्सी पर बैठे थे। उन्हें एक पिछले विधानसभा अध्यक्ष पे्रम प्रकाश पाण्डेय ने याद भी दिलाया कि क्या उनका सीएम की पे्रस कांफे्रंस में आना ठीक है?
कनक तिवारी के खिलाफ अभियान
छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता कनक तिवारी राज्य के सबसे सीनियर वकील हैं, और भूपेश बघेल ने उनकी वरिष्ठता, काबिलीयत, उनका गांधीवादी मिजाज, कांगे्रसी पृष्ठभूमि, और दुर्ग जिले के होने की तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए उन्हें महाधिवक्ता बनाया। लेकिन उसी वक्त कांगे्रस के कुछ दूसरे लोग एक जातिवाद के तहत एक दूसरे को महाधिवक्ता बनाने में जुटे हुए थे, लेकिन मुख्यमंत्री ने उस वाद को वजन नहीं दिया। कनक तिवारी कमाई के मामले में भारी नुकसान में हैं क्योंकि आज जितने महंगे मुकदमे छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में चल रहे हैं, वे कनक तिवारी को करोड़पति तो बना ही देते अगर वे सरकार के खिलाफ लडऩे के लिए उपलब्ध रहते। करोड़पति वे पहले से हैं, पहले से कई मकान और कई गाडिय़ां हैं, वे महंगी वकालत करते हैं इसलिए एजी बनने से उन्हें कमाई का नुकसान हुआ है। और ऐसे में जब कांगे्रस का एक तबका उन्हें हटाने में जुटा हुआ है, तो जाहिर है कि सोशल मीडिया और मीडिया में उनके इस्तीफे की अफवाहें पहला कदम हैं।
([email protected])
हाउसिंग बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह सवन्नी नियम-विरूद्ध मकान आबंटन मामले में फंस सकते हैं। सुनते हैं कि जिस बंगले में वे रहते हैं, वह बोर्ड के अध्यक्ष के लिए था। सवन्नी को बंगला इतना भाया कि सरकारी अनुमति लेकर बंगले को नीलाम करवाकर अपने पास ही रख लिया। यह बंगला उनके ही करीबी समर्थक के नाम पर है। चर्चा तो यह भी है कि इस बंगले पर दो आईएएस अफसरों की नजरें थी। दोनों ने ही अपने नाम पर बंगला कराने के लिए काफी कुछ किया भी, लेकिन वे नीलाम नहीं करवा पाए। पर सवन्नी सबसे तेज निकले और उन पर धरमलाल कौशिक का भरोसा रहा है। कहा जा रहा है कि बंगले की नीलामी की प्रक्रिया में नियम कायदे का ध्यान नहीं रखा गया। कुछ इस तरह की नीलामी हुई कि बंगला अपनों के पास आ गया। अब सरकार बदलते हाउसिंग बोर्ड और अन्य संस्थाओं में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के गंभीर प्रकरण सामने आ रहे हैं। कुछ की जांच चल रही है। ऐसे में सवन्नी के खिलाफ एक शिकायत तो ईओडब्ल्यू को पहले ही जा चुकी है। एक-दो और भ्रष्टाचार के प्रकरण जल्द सामने आ सकते हैं।
ऐसे में आने वाले दिनों में सवन्नी के लिए मुश्किलें बढ़ सकती है। और यह भी हो सकता है कि उन्हें भी महेश जेठमलानी की सेवाएं लेनी पड़े। जैसे-जैसे सवन्नी पर कोई मुश्किल बढ़ेगी, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक के सीने में दर्द बढ़ते चलेगा। शायद यह सोचकर भी सरकार उस तोते के पंख खींच रही है, जिस तोते में कौशिक की जान बसती है। कौशिक की ऐसी ही एक दूसरी जान मुख्यमंत्री के जिले में जंगल दफ्तर में बसी हुई है, यह बात भी अभी-अभी सरकार की जांच एजेंसियों को मालूम हुई है।
ऊंचे दर्जे का आत्मविश्वास
लोकसभा चुनाव के प्रचार में बहुत से लोग छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के इस खुले चुनावी दावे के रहस्य को अब तक सुलझा नहीं पाए हैं कि उनकी सरकार ने कौन-कौन से काम अगर न किए हों, तो जनता उन्हें बिल्कुल वोट न दे। उन्होंने कर्जमाफी से लेकर धान के बढ़े हुए दाम, और धान बोनस तक कई बातों को गिनाया था, और वोटरों को चुनौती दी थी कि अगर उनकी सरकार ने ये काम अब तक नहीं किए हैं तो उन्हें वोट न दें। यह एक खतरनाक दांव था, और जब कोई आत्मविश्वास से खूब भरा रहे तभी ऐसा हो सकता है।
जनता के लिए नाम-नंबर जारी
अभी ऐसा एक दूसरा मामला सामने आया है जिसमें प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की सड़कों की क्वालिटी परखने के लिए बाहर के राष्ट्रीय गुणवत्ता समीक्षक आने वाले हैं। इनके नाम और इनके फोन नंबर उन जिलों के नाम के साथ पीएमजीएसवाई ने जारी कर दिए हैं जहां ये जाने वाले हैं। ठेकेदारों को तो नाम वैसे भी विभागों से मिल जाते हैं कि कौन कहां जाने वाले हैं। यह एक नया अंदाज है कि इनके नाम और नंबर समाचार में जारी कर दिए जाएं ताकि उन जिलों के आम लोग भी इन समीक्षकों को फोन करके सड़कों की गड़बड़ी के बारे में बता सकें। किसी सरकारी निर्माण विभाग में ऐसा आत्मविश्वास पहले शायद ही रहा हो कि पारदर्शी तरीके से जनता को शामिल किया जाए कि वे अपने इलाके की सड़कों की क्वालिटी के बारे में रिपोर्ट कर सकें। जाहिर है कि ठेकेदारों में इसे लेकर दहशत है कि पुराने अंदाज से काम अब शायद न चले। कुछ ठेकेदार और कुछ हटाए गए अफसर अब सूचना के अधिकार के तहत दूसरे लोगों के मार्फत कई किस्म की जानकारी निकालने में लगे हैं। खाली दिमाग शैतान का घर।
([email protected])
रमन सरकार में ताकतवर रहे अफसरों के खिलाफ जांच-पड़ताल चल रही है। उनके खिलाफ गंभीर शिकायतें हैं। इन शिकायतों को देखकर भाजपा के भी कई नेता हैरान हैं। यह सवाल भी उठा रहे हैं कि आखिर भाजपा सरकार रहते हुए उन पर नकेल डालने की कोशिश क्यों नहीं हुई। सुनते हैं कि जांच-पड़ताल के बावजूद पूर्व सीएम का अमन सिंह-मुकेश गुप्ता जैसे अफसरों पर भरोसा कम नहीं हुआ है। इसकी झलक इस बात से मिलती है कि पूर्व सीएम के दामाद डॉ. पुनीत गुप्ता, निलंबित डीजी मुकेश गुप्ता और नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक की जनहित याचिका की पैरवी एक ही वकील यानी महेश जेठमलानी कर रहे हैं। अलबत्ता, अमन सिंह की तरफ से सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष विकास सिंह और पूर्व एडिशनल सालिसिटर जनरल मानविंदर सिंह पैरवी कर रहे हैं।
महेश जेठमलानी सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील राम जेठमलानी के बेटे हैं। महेश का भी वकालत पेशे में काफी नाम है। उनकी फीस प्रति पेशी 10 लाख के आसपास बताई जाती है। सुनते हैं कि महेश की निलंबित डीजी मुकेश गुप्ता से पुरानी जान-पहचान है। रमन सरकार के समय एक मानहानि मुकदमे के लिए मुकेश गुप्ता की तरफ से पहली बार पैरवी आए थे। तब से छत्तीसगढ़ सरकार के कई मुकदमों की पैरवी सुप्रीम कोर्ट में कर चुके हैं। इन दिग्गज वकीलों की फीस जुटा पाना किसी भी सामान्य नौकरशाह के लिए कठिन है। चूंकि जांच-पड़ताल में घिरे अफसर हरफनमौला माने जाते हैं ऐसे में इन्हें फीस जुटाने में कोई समस्या होगी, ऐसा लगता नहीं है। हल्ला तो यह भी है कि रमन सरकार में एक बार दिग्गज वकील को खुफिया मद से करीब 37 लाख भुगतान किए गए थे। अब खुफिया मद का कोई ऑडिट तो होता नहीं है। इसलिए अब इसकी जांच भी संभव नहीं है।
छुपाने में लगे अफसर...
छत्तीसगढ़ सरकार में कई विभागों या स्थानीय संस्थाओं के अधिकारियों से मीडिया समाचार के बारे में रोज ही कई सवाल करता है। इससे गलत खबर छपना या दिखना भी रूकती है, और सरकारी सच भी सामने आ जाता है। लेकिन बहुत सी छपी हुई खबरों में सरकार का पक्ष बताने वाले अधिकारियों की भाषा देखें तो लगता है कि वे कोई भी जवाब देने से ठीक उस तरह बचते हैं जिस तरह अदालत के कटघरे में कोई पेशेवर गवाह वकील के पूछे हर सवाल के जवाब में घुमाफिराकर जवाब दे रहा हो। न तो इससे सच सामने आता, और न ही झूठ को प्लांट किया जा सकता है। नतीजा यह निकलता है कि सरकार मानो किसी मुजरिम की तरह बच निकलने की कोशिश कर रही हो। और बहुत से मामलों में ऐसा होता भी है। मीडिया के पास सरकार से जुड़ी हुई वही खबरें तो पहुंचती हैं जिनमें कुछ गड़बड़ी होती है। ऐसे में सरकार अगर जवाब देने को उपलब्ध न हो, तो कुल मिलाकर नुकसान सरकार का ही होता है। अब भूपेश बघेल मुख्यमंत्री हैं जो कि पन्द्रह बरस के रमन राज, और उसके पहले के तीन बरस के जोगी राज में भी, विपक्ष की तरह ही रहे, मीडिया के साथ उनके दोस्ताना ताल्लुकात रहे। मीडिया के दो पुराने पेशेवर रहे लोग, विनोद वर्मा और रूचिर गर्ग, आज उनके सरकारी सलाहकार भी हैं, लेकिन सरकारी अफसरों का रूख पहले की तरह ही छुपाने या घुमाने का बना हुआ है। अभी तो नई सरकार की गलतियां, या उसके गलत काम सामने आए भी नहीं हैं, और पिछली सरकार के जिन गलत कामों को नई सरकार उजागर करना चाह रही है, उनके बारे में भी आज के अफसर गोलमोल जवाब देकर पहले के गलत कामों को छुपाने में लगे हैं। नुकसान तो मौजूदा सरकार का ही है।
([email protected])
छत्तीसगढ़ के एक नामी आईएएस रहे ओ.पी. चौधरी पिछली सरकार में सबसे ताकतवर नौकरशाह, अमन सिंह के सबसे पसंदीदा अफसरों में से एक रहे, और फिर छत्तीसगढ़ का माटीपुत्र होने के नाते राजनीतिक महत्वाकांक्षा उन्हें स्वाभाविक लगी, और वे देश की एक सबसे सुरक्षित नौकरी छोड़कर चुनाव में उतर गया। जिन लोगों को भाजपा के सरकार बनाने की गारंटी लग रही थी, उनके बीच इस बात को लेकर बहस होती थी कि विधायक बनने के बाद ओ.पी. चौधरी खेल और युवा कल्याण मामलों के मंत्री बनेंगे या युवा आयोग के अध्यक्ष? खैर, भाजपा की सरकार बनी नहीं, और कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के तेवर पिछली सरकार की गड़बडिय़ों को लेकर इतने आक्रामक हैं कि खुद कांग्रेस विधायकों को ऐसा अंदाज नहीं था।
अब ओ.पी. चौधरी दंतेवाड़ा की कलेक्टरी के समय के जमीन के एक फैसले को लेकर एक जांच के घेरे में हैं। चौधरी रायपुर के भी कलेक्टर रहे हुए हैं, और इसी कुर्सी पर उनसे बरसों पहले बैठने वाले सी.के. खेतान को चौधरी के जमीन के फैसले की जांच दी गई है। सी.के. खेतान अब एसीएस हैं, और सुनील कुजूर के रिटायर होने के बाद जिन दो अफसरों में से एक की सीएस बनने की संभावना है, वे उनमें से एक हैं। इसलिए इस जांच में वे कोई कसर रखेंगे ऐसा लगता नहीं है। दूसरी तरफ इस जांच को होने से रोकने के लिए जिस तरह से कुछ लोगों ने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ लगाई थी, उससे भी लगता है कि इस जांच में छुपाने लायक कुछ बात है।
एक वक्त रेणु पिल्ले...
दूसरी तरफ अमन सिंह की पत्नी यास्मीन सिंह के खिलाफ एक जांच शुरू हुई है। वे पीएचई में सलाहकार के पद पर काम करती रहीं, लेकिन साथ-साथ वे पूरे देश में कत्थक के मंच प्रदर्शन में भी लगी रहीं। अब जांच उनकी नियुक्ति से लेकर उनके काम और उनकी छुट्टियों तक फैली हुई है। यह जांच प्रदेश की एक सबसे कड़क समझी जाने वाली आईएएस अधिकारी रेणु पिल्ले को दी गई है जो कि पिछली रमन सिंह सरकार में अपने एक शासकीय फैसले को लेकर पल भर में सरकार से बाहर कर दी गई थीं, और राजस्व मंडल नाम के कालापानी पर भेज दी गई थीं। जिस बैठक में रेणु पिल्ले को हटाने का फैसला हुआ, उसमें रेणु पिल्ले के साथ-साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, मुख्य सचिव विवेक ढांड, राजस्व मंत्री प्रेमप्रकाश पांडेय, मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव अमन सिंह मौजूद थे। पिछली सरकार में यह जाहिर था कि जिस बैठक में अमन सिंह रहते थे, उसके फैसले या तो वे ही लेते थे, या उनकी सहमति वाले फैसले ही होते थे। ऐसे में रेणु पिल्ले की साफ-साफ असहमति ने उन्हें पल भर में कुर्सी से हटा दिया गया था, और वे बिना किसी शिकायत सिर ऊंचा किए हुए राजस्व मंडल चली गई थीं। वक्त कैसे बदलता है, आज यास्मीन सिंह के मामले की जांच रेणु पिल्ले कर रही हैं।
हाथापाई से लेकर जांच तक...
कुछ ऐसी ही एक दूसरी जांच राज्य के एक डीजीपी, निलंबित मुकेश गुप्ता की हो रही है। उनके खिलाफ चल रही कई जांच में से एक पुलिस महानिदेशक डी.एम. अवस्थी करने जा रहे हैं। लोगों को अच्छी तरह याद है कि जब चुनाव आयोग ने कई बरस पहले डीजीपी विश्वरंजन को जबरिया छुट्टी पर भेजा था, और अनिल नवानी को पुलिस विभाग का मुखिया बनाया गया था, तो उनकी टेबिल पर एक बैठक के बीच मुकेश गुप्ता डी.एम. अवस्थी पर चढ़ बैठे थे, दोनों के बीच बुरी जुबान के बाद हाथापाई की नौबत आई थी, और वहां मौजूद दो दूसरे बड़े आईपीएस ने दोनों को पकड़कर खींचकर अलग किया था। उस वक्त उस बैठक में मौजूद एक या दो महिला आईपीएस अधिकारी यह देखकर हक्का-बक्का रह गई थीं। उस पूरी घटना को नवानी की कमजोर लीडरशिप का भी नतीजा माना गया था कि डीजीपी के कमरे में उनके दो मातहत किस तरह ऐसे भिड़ सकते हैं। बैठक में बहस इस बात को लेकर हुई थी कि इंटेलीजेंस के मद से जिलों के एसपी को पर्याप्त रकम दी जा रही है या नहीं? खैर, अब मुकेश गुप्ता की बाकी बची नौकरी से बहुत अधिक लंबे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के तेवर देखते हुए किसी जांच में मुकेश गुप्ता से किसी रियायत के आसार नहीं दिखते हैं।
एक जांच अफसर रेणु पिल्ले, और एक जांच अफसर डी.एम. अवस्थी, इन दोनों को बदले हुए हालात में इन बदले हुए किरदारों में देखकर लोगों को यह सबक भी लेना चाहिए कि जब वक्त अपना चल रहा हो, तो दिख रहे आज के साथ-साथ न दिख रहे आने वाले कल का भी ध्यान रखना चाहिए।
छत्तीसगढ़ में किसे कितनी सीटें?
छत्तीसगढ़ के चुनाव में किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी, इस पर अटकल किनारे चली गई है। यहां की सीटों से न तो दिल्ली की सरकार बननी हैं, न बिगडऩी है। और न ही छत्तीसगढ़ में सरकार की सेहत पर इससे सीधे-सीधे कोई फर्क पडऩे जा रहा है। ग्यारह सीटों में से दस भाजपा के पास थी, और एक पर कांग्रेस के ताम्रध्वज साहू सांसद थे। अब कांग्रेस कहने के लिए तो ग्यारह सीटों का दावा कर रही है, लेकिन उसके वरिष्ठ मंत्री टी.एस. सिंहदेव देश में चुनाव के चलते-चलते भी पता नहीं क्यों सात सीटों तक अपनी बात लाकर रूक जाते हैं। उन्हें बार-बार लगता है कि कांग्रेस सात से अधिक सीटें शायद न भी पाए, और वे सात से कम को कांग्रेस की नाकामयाबी भी बता रहे हैं, जो कि कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि वे इसे मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल की नाकामयाबी बताने की ओर इशारा कर रहे हैं।
जो भी हो, सीटों के बारे में लोगों का एक मोटा अंदाज यह है कि दोनों ही पार्टियों की कम से कम चार-चार सीटों की गारंटी है, और तीन सीटें डांवाडोल हैं जो कि किसी भी करवट बैठ सकती हैं। ये चार-चार सीटें कौन सी हैं, इसके बारे में भी काफी लोगों को अंदाज है और ऐसी आठ सीटों के बाद तीन सीटों के नाम ही तो बचते हैं। आम चर्चा के मुताबिक सरगुजा, बिलासपुर, रायपुर, और दुर्ग में लोग भाजपा की संभावना देख रहे हैं, और बस्तर, कांकेर, राजनांदगांव, और कोरबा में कांग्रेस की। अब जो तीन सीटें बच गई हैं वे जांजगीर, रायगढ़, और महासमुंद हैं। कांग्रेस के कम से कम चार दिग्गजों की निजी प्रतिष्ठा तीन सीटों पर लगी हुई है, और भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में अधिक बेसब्री से इंतजार है।
([email protected])
उत्तरप्रदेश की तीन लोकसभा सीटों पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके एक वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद अकबर चुनाव प्रचार करके लौट आए। अमेठी और रायबरेली तो कांग्रेस नेताओं के लिए तीर्थयात्रा जैसी रहती है इसलिए इन दोनों सीटों पर इन दोनों ने अपनी मेहनत भी की, और वहां पर गांव-गांव तक छत्तीसगढ़ के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ड्यूटी पर भी लगाया। लेकिन इसके अलावा एक तीसरी सीट पर भी मेहनत की, बाराबंकी। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रभारी पी.एल. पुनिया का बेटा बाराबंकी से चुनाव लड़ रहा है, और यहां पर कुर्मी मतदाता भी खूब हैं, और मुस्लिम मतदाता भी। ऐसे में कुर्मी मुख्यमंत्री और मुस्लिम मंत्री की यह जोड़ी हिट रही क्योंकि दोनों बोलने में भी तेज हैं। वहां भूपेश बघेल को मुस्लिमों के बीच यह भी साफ करना पड़ा कि मोहम्मद अकबर अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री नहीं हैं, बल्कि छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े विभागों के मंत्री हैं जिनमें सस्ता राशन देने वाला विभाग भी शामिल है। दोनों ने सस्ते राशन से लेकर कर्जमाफी तक का सारा श्रेय राहुल गांधी के नीति-निर्देश को दिया, और यह उम्मीद बंधाई कि दिल्ली में राहुल की सरकार बनने पर पूरे देश को इस तरह की मदद मिलेगी। अब उत्तरप्रदेश से लौटने के बाद भूपेश बघेल मध्यप्रदेश में भूतपूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और मौजूदा मुख्यमंत्री कमलनाथ के इलाकों में चुनाव प्रचार करने चले गए हैं। वे अविभाजित मध्यप्रदेश के समय भी दिग्विजय के मंत्री रहे हैं, और उन्हीं के अखाड़े के पहलवान भी हैं। इस चुनाव में प्रदेश के बाहर जिस कांग्रेसी मुख्यमंत्री की सबसे अधिक मांग रही है, वे भूपेश बघेल ही हैं। इसके साथ-साथ अमेठी और रायबरेली की मेहनत भी उनके नाम मजबूती से दर्ज हो गई है। कांग्रेस में इससे अधिक लगता क्या है?
नब्ज ऑटो-टैक्सी में है
पूरे देश में चुनाव की रिपोर्टिंग करते घूमने वाले मीडिया के लोगों को किसी शहर पहुंचते ही नब्ज टटोलने के लिए सबसे पहले टैक्सी या ऑटो के लोग मिलते हैं। इसलिए सरकार को इस तबके को खुश रखना चाहिए। लोगों को याद होगा कि केजरीवाल जब सरकार में आए, तब दिल्ली के सारे ऑटो वाले उनके साथ थे। हालांकि दिल्ली के वोटर को मीडिया से ऐसा कोई लेना-देना नहीं रहता कि बाहर के आए हुए मीडिया के लोग ऑटो-टैक्सी से पूछकर जो लिखें, उसे सुनकर दिल्ली के वोटर वोट डालते हों। लेकिन बाकी हिन्दुस्तान में तो बाहर से जाने वाला मीडिया चुनाव का रहस्य सबसे पहले ऑटो-टैक्सी वालों से ही समझना चाहता है। इसी तरह सड़क के रास्ते जो रिपोर्टर लंबा सफर करते हैं वे ढाबे वालों से बात करते चलते हैं, और हवा का रूख भांपने की कोशिश करते हैं। अभी छत्तीसगढ़ से कुछ रिपोर्टर उत्तरप्रदेश गए थे, और तरह-तरह से परखने के बाद उनका नतीजा यह था कि तकरीबन पूरा प्रदेश गठबंधन के साथ है। गठबंधन यानी सपा-बसपा गठबंधन। इन दोनों की ऐतिहासिक लड़ाई के बाद यह ऐतिहासिक दोस्ती उत्तरप्रदेश के आम वोटर के लिए बहुत ही वजनदार साबित हो रही है। और अगर यह रूख नतीजों को बता रहा है तो उसका मतलब यह है कि भाजपा को योगीराज में खासे बड़े हिस्से में संन्यास पर भेजा जा रहा है।
भूमाफिया बनी पुलिस
छत्तीसगढ़ के बहुत से जिलों में पुलिस जमीन-जायदाद के अघोषित कारोबार में ऐसी लग गई है कि किसी थाने में पोस्टिंग का मोलभाव उस थाना इलाके में जमीनों के सौदों को देखकर तय होता है। जमीनों के कब्जों को लेकर, किसी और झगड़े को लेकर जहां पुलिस की दखल नहीं बनती है वहां पर भी पुलिस की दखल के दाम लगते हैं, जहां भी पुलिस दखल बनती है, वहां पर एफआईआर न लिखने के भी दाम लगते हैं। अभी दुर्ग जिले में कल ही एसपी ने एक थानेदार को सस्पेंड किया। उस पर लंबे समय से एक शिकायत के बावजूद एफआईआर दर्ज न करने की शिकायतें थीं, और वही बात उसे ले डूबी। मुख्यमंत्री का अपना जिला, गृहमंत्री का भी जिला, और भी ताकतवर विधायकों का यह जिला पुलिस में ऐसे कई मामले देख रहा है जिनमें धड़ल्ले से मोलभाव चलते रहता है। अभी एक-दो ऐसे अधिकारियों पर कार्रवाई हुई है लेकिन कुल मिलाकर हाल बुरा ही है। दुर्ग पुलिस का जमीन का एक ऐसा मामला अभी सामने आया है जिसमें एक आदमी ने रिपोर्ट लिखाई, उस पर पुलिस ने सौदा करवाकर, रकम वापिस करवाने की बात तय कर ली, और जब शिकायतकर्ता ने हलफनामा देकर शिकायत वापिस ले ली, तो पुलिस रकम दिलवाने से मुकर गई। नतीजा यह है कि अब शिकायतकर्ता फिर पुलिस में पहुंचा हुआ है कि वह अपना हलफनामा खारिज करवाकर कार्रवाई चाहता है।
रायपुर के एक अखबार में कल ही रिपोर्ट छपी है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के अपने चुनाव क्षेत्र पाटन में पूरी रात शराब की होम-डिलिवरी चलती रहती है। अब यह जाहिर है कि पुलिस के साथ के बिना तो ऐसा हो नहीं सकता। देखना यह है कि बाकी प्रदेश में जमीनों के सौदागर और दलाल बनी हुई पुलिस की रंगदारी के खिलाफ कब कार्रवाई होगी। दरअसल यह प्रदेश ऐसे बड़े-बड़े धाकड़ और ताकतवर पुलिस अफसरों को जमीन के अवैध कारोबार का मुखिया बना हुआ देख चुका है, और उनकी वजह से विभाग के बाकी छोटे अफसरों की धड़क खुली हुई है।
भाजपा के घर में खड़कते बर्तन
सीएम भूपेश बघेल के खिलाफ विवादित बयान से भाजपा विधायक शिवरतन शर्मा ने भले ही पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन पार्टी के भीतर इसको लेकर विवाद जारी है। चर्चा है कि पार्टी का संगठन में हावी खेमा चाहता था कि भूपेश के खिलाफ बयान को किसी भी दशा में वापस नहीं लिया जाना चाहिए। भले ही इसके लिए अदालती कार्रवाई का सामना करना पड़े।
सुनते हैं कि पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने शिवरतन शर्मा को सलाह दी कि बयान वापस लेने की जरूरत नहीं है। मगर पार्टी का दूसरा खेमा इससे सहमत नहीं था। चर्चा है कि एक पूर्व मंत्री ने रमन सिंह से पूछ लिया कि आपत्तिजनक बयान उन्हीं से जुड़े लोगों के नाम से क्यों जारी होती है? कभी पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल और राजेश मूणत इस तरह का बयान क्यों नहीं देते। विरोधी खेमे की आक्रामकता को देखकर रमन और बाकी नेताओं को पीछे हटना पड़ा। आनन-फानन में सब कुछ मीडिया विभाग पर थोपकर किसी तरह विवाद का निपटारा करने की कोशिश हुई। मगर, एक खेमा अभी भी मीडिया विभाग में आमूलचूल परिवर्तन के लिए दबाव बनाए हुए हैं। अब लोकसभा चुनाव निपटने के बाद इन सबको लेकर हाईकमान हस्तक्षेप कर सकता है।
जम्मू-कश्मीर राज्य के लेह में एक प्रेस कांफ्रेंस के बाद भाजपा पर यह आरोप लगा कि उसने पत्रकारों को नगदी भरे हुए लिफाफे बांटे। खुद पत्रकारों ने इसकी शिकायत निर्वाचन आयोग से की, और इसकी जांच हो रही है। (लोगों को उम्मीद है कि उस पर भी चुनाव आयोग अपनी वही मशहूर हो चुकी क्लीनचिट देगा)। ऐसे में छत्तीसगढ़ के कुछ बरस पहले की एक ऐसी प्रेस कांफ्रेंस याद पड़ती है जो हुई ही नहीं थी। एक केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय कोरबा के किसी बिजलीघर दो देखने के लिए आए थे और लौटते में रायपुर की पिकैडली होटल में उनकी पे्रस कांफे्रंस रखी गई थी। उनको आने में देर होती चली गई, लेकिन तब तक छत्तीसगढ़ राज्य बना नहीं था, और केंद्रीय मंत्री का आना इस इलाके के लिए एक बड़ी घटना थी इसलिए मीडिया इंतजार करते बैठे रहा। वे काफी देर से आए और उड़ान का समय हो गया था। आते ही उन्होंने पूछा कि मीडिया को कुछ खाना-पीना मिला या नहीं? इसके बाद अपने बेतकल्लुफ अंदाज में उन्होंने अपने अफसरों से कहा कि इन्हें ठीक से खिलाओ-पिलाओ। फिर उन्होंने साथ के अफसरों की ओर देखा तो बैग से गिफ्ट पैक किए गए सूट के कपड़े निकाले गए, और कल्पनाथ राय ने पत्रकारों को पैकेट थमाए, और कहा कि देर हो रही है वे निकल रहे हैं।
लेह के पत्रकारों ने शिकायत चाहे जो की हो, चाहे किसी वजह से की हो, लेकिन पत्रकारों के बीच तोहफे या नगदी बंटना कोई बहुत नई बात नहीं है। दशकों पहले रायपुर में तबकी कपड़ों की एक मशहूर कंपनी एस कुमार्स की तरफ से एक फैशन परेड रायपुर में की गई थी, और जो विज्ञापन एजेंसी इसकी प्रेस कांफ्रेंस कर रही थी, उसने चुनिंदा रिपोर्टरों को बता दिया था कि वहां सबको सूट के कपड़े दिए जाएंगे। प्रेस कांफ्रेंस की औसत भीड़ से दो गुना भीड़ वहां लग गई थी। पहले भी यही हाल था, और अब भी यही हाल है कि पत्रकारों को तनख्वाह बहुत कम मिलती है, कहीं-कहीं पर मिलती भी नहीं है। ऐसे में यह इस पेशे के साथ जुड़ा हुआ एक छोटा सा फायदा था जो कि उस वक्त रिश्वत नहीं थी। रिश्वत तो वह पिछले चार-पांच चुनावों से हो गई है जब मीडिया मालिक सत्तारूढ़ पार्टी या करोड़पति उम्मीदवार से मोटा पैकेज पाते हैं, न मिलने पर बांह मरोड़कर ले लेते हैं। ऐसे में अधिक असरदार मीडिया में काम करने वाले अधिक असरदार पत्रकारों का भी राजनीतिक दल ख्याल रखने लगे हैं, जो मंजूर करे उसे पैकेज दे दिया जाता है, लेकिन जो मंजूर न करे उससे डरकर रहा जाता है। जिस तरह सरकार, अदालत, समाजसेवा किसी भी दायरे में अच्छे और बुरे दोनों किस्म के लोग हैं, वैसा ही हाल मीडिया का भी है, बाकी धंधों से न बेहतर, न बदतर।
इन्हें देखकर कुछ तो सीखें...
अभी एक तस्वीर खबरों में आई है जिनमें एक नौजवान मतदाता लड़की वोट डालने गई है, और चुनाव अफसर उसके पांव की ऊंगली पर स्याही का निशान लगा रहा है क्योंकि उसके हाथ नहीं है। हाथ नहीं हैं पर हौसला है, अगली सरकार या अपना सांसद चुनने की हसरत है। इसलिए वह बिना हाथों के भी पहुंचकर, कतार में लगकर वोट डालने पहुंची थी, और यह तस्वीर हिन्दुस्तान के उन करोड़ों लोगों के मुंह पर तमाचा है जो साबुत हाथ लिए हुए घर बैठे रहे, वोट डालने नहीं गए।
कुछ ऐसा ही हाल हर सुबह देखने मिलता है जब बहुत से जवान लोग उस वक्त सोकर उठते हैं जब सूरज एक बांस चढ़ चुका होता है, फिर मां-बाप की छाती पर मूंग दलना शुरू करते हैं, और चाय की फरमाईश करते हैं। इनके मुकाबले बहुत से बुजुर्ग लोग सुबह से घूमने निकल जाते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अनुपम उद्यान में आज सुबह कांग्रेस के मीडिया-प्रभारी शैलेष नितिन त्रिवेदी को ऐसा एक नजारा देखने मिला जिसमें एक बुजुर्ग महिला छड़ी टेकते हुए वहां पहुंची, और फिर कसरत की एक मशीन के किनारे अपनी छड़ी लिटाकर रखी, और फिर मशीन पर चढ़कर अपने से दो-तीन पीढ़ी छोटी बच्ची के साथ जमकर कसरत करने लगी। इस तस्वीर को देखकर ऐसे लोगों को सोचना चाहिए जो जवानी में पलंग या कुर्सी तोड़ते पड़े रहते हैं, और बुढ़ापे में फिजियोथैरेपी को मजबूर होते हैं।
([email protected])
सरकार बदलने के बाद भी कुछ निगम-आयोगों में भाजपा के लोग काबिज हैं, जिन्हें हटाने की कोशिश भी चल रही है। मार्कफेड के अध्यक्ष राधाकृष्ण गुप्ता हटाए जा चुके हैं और अब दुग्ध महासंघ अध्यक्ष रसिक परमार का नंबर है। रसिक परमार भी निर्वाचित हैं और उन्हें हटाने के लिए ग्राउंड तैयार किया जा रहा है।
वैसे तो मीडिया जगत से आए रसिक परमार की साख अच्छी है और उन पर भ्रष्टाचार के कोई ठोस आरोप नहीं हैं। लेकिन दुग्ध महासंघ के अफसर जरूर मौज-मस्ती वाले रहे हैं। महासंघ में ऊंचे ओहदे पर रहे एक अफसर ने भाजपा की टिकट से विधानसभा चुनाव की तैयारी भी की थी, लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिल पाई। अफसर ने मतदाताओं को रिझाने के लिए इलाके में दूध-मठा भी बंटवाया था। खैर, रसिक परमार को हटाने के लिए पार्टी नेताओं का दबाव है। उनका कैबिनेट मंत्री का दर्जा वापस लिया जा चुका है। चूंकि लोकसभा का चुनाव चल रहा है और कृषि मंत्री अस्वस्थ हैं। इसलिए इस पर कोई फैसला नहीं हो पाया है। कहा जा रहा है कि महीने के आखिरी तक उनकी सेवाएं वापस ली जा सकती है।
रमन सिंह के पूर्व प्रमुख सचिव अमन सिंह की गिनती देश के ताकतवर नौकरशाहों में होती रही है, लेकिन सरकार बदलते ही अमन सिंह दिक्कत में दिख रहे हैं। सरकार ने उनके खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए एसआईटी बनाई थी, जिसमें उन्हें फिलहाल अदालती राहत भी मिल गई है। मगर, कुछ और प्रकरण हैं जिसमें उन्हें थोड़ी-बहुत परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। एक प्रकरण उनकी अमेरिका यात्रा का है, जिसमें वे हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के कार्यक्रम में बतौर स्पीकर शामिल हुए थे। इस पूरी यात्रा पर करीब 7 लाख खर्च हुए थे। यह खर्चा एनआरडीए ने वहन किया था। अब इस पूरे खर्च को लेकर एनआरडीए दफ्तर में चर्चा हो रही है।
दस्तावेजों को देखे तो पहली नजर में अमन सिंह कहीं गलत नहीं दिखते हैं। वजह यह है कि खुद जीएडी ने एनआरडीए चेयरमैन की अमेरिका यात्रा और खर्चें की अनुमति दी थी। इसमें प्रथम श्रेणी हवाई यात्रा की विशेष अनुमति भी थी। वैसे तो प्रथम श्रेणी में हवाई यात्रा की पात्रता सिर्फ सीएम को रहती है और तत्कालीन सीएम रमन सिंह की खुद की अमन सिंह के लिए विशेष अनुमति रही है। अब यह भी कहा जा रहा है कि संस्थान ने अतिथि के आने-जाने का खर्च वहन क्यों नहीं किया?
जो लोग अमन सिंह को नजदीक से जानते हैं, वे मानते हैं कि अमन सिंह बहुत बारीक रहे हैं। मुकेश गुप्ता की तरह उनसे शायद ही कोई लापरवाह चूक हुई हो। यह जानकर लोगों को हैरानी होगी कि पिछले पांच साल में अमन सिंह ने किसी फाइल पर दस्तखत नहीं किए। जबकि सबसे ज्यादा गड़बड़ी उनके विभाग में सामने आ रही है, लेकिन इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं दिखते हैं। जिस किसी फाइल में भी उनके दस्तखत हैं उनमें विभागीय मंत्री के साथ-साथ उनसे ऊपर के कई अफसरों के दस्तखत हैं। यानी उन्हें किसी गलती के लिए उन्हें अकेले जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। ये अलग बात है कि रमन सरकार में जो कुछ भी अच्छा हुआ, उसका श्रेय बिना कुछ किए अमन को ही मिला। नेता, अफसर हो या फिर पत्रकार, जिस किसी से भी उनकी ठनी, उन्हें पछाड़ कर ही दम लिया। उनकी कार्यशैली पर नजर रखने वाले दावा करते हैं कि अमन को घेर पाना मुश्किल ही नहीं, नामुकिन है।
कॉल रिकॉर्डिंग, जायज-नाजायज?
टेलीफोन पर लोगों से की जा रही बातचीत रिकॉर्ड करना जायज है या नहीं यह कहना अब कुछ मुश्किल हो चला है। एक वक्त था जब लोग अपनी कही बातों के साथ खड़े रहते थे, लेकिन अब खड़े-खड़े मुकर जाते हैं। बिलासपुर हाईकोर्ट में एक बड़े सरकारी वकील ने अभी सरगुजा से आने वाले छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख पत्रकार के खिलाफ पुलिस में शिकायत की कि उन्होंने अनिल टुटेजा की जमानत के बारे में पूछताछ करते हुए उन्हें डांटा, और उन्हें धमकाया भी। उन्हें यह बात बुरी लगी है, और इस पर पुलिस कार्रवाई करे। पुलिस पहली नजर में हैरान-परेशान हुई कि किसी को कोई बात बुरी लगी हो तो उसमें पुलिस क्या करे? लेकिन चूंकि बात प्रदेश के एक सबसे बड़े सरकारी वकील की थी, इसलिए पुलिस ने शिकायत में दिए गए फोन नंबर पर फोन करके पत्रकार को चमकाना शुरू किया। लेकिन थाने वाले को अंदाज नहीं था कि सामने ऐसा पत्रकार है जिसकी आए दिन मुख्यमंत्री और मंत्रियों से बात-मुलाकात होती रहती है, और जो कानून की थोड़ी सी समझ भी रखता है। उसने थाने को सलाह दी कि उसे औपचारिक नोटिस भेजा जाए तो वह पूछताछ के लिए पेश होगा। अब बुरे लगने पर तो कोई जुर्म बनता नहीं है, धारा लगती नहीं है, वकील का बयान पुलिस ने लिया नहीं है, ऐसे में नोटिस भेजे तो क्या भेजे?
कहा जा रहा है कि इस पत्रकार ने इस बातचीत के टेलीफोन कॉल को रिकॉर्ड कर लिया था, और पूरी बातचीत में वकील साहब जवाब दे रहे थे, उन्हें कुछ बुरा लगते नहीं दिख रहा था। लेकिन अगर बातचीत रिकॉर्ड नहीं होती तो अमूमन लोग यह मान लेते कि पत्रकार था तो धमकाया ही होगा, और वकील है तो शिकायत सही ही होगी।
अब इस केस को देखें तो लगता है कि कॉल रिकॉर्ड करना जायज है क्योंकि कब कोई किसी कॉल को धमकाने वाला कहने लगे, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। अभी-अभी एक दूसरे मामले में रायपुर की एक सामाजिक कार्यकर्ता महिला ने पुलिस में रिपोर्ट की है कि किस तरह उद्योग विभाग का एक अधिकारी उससे फोन पर नशे में ऊलजलूल बातें कर रहा था, और बात पूरी होने के बाद उस अधिकारी के आसपास के लोग किस तरह शराब पीते हुए आपस में उस महिला के बारे में गंदी और अश्लील बातें कर रहे थे। अब इसकी भी अगर रिकॉर्डिंग नहीं होती, तो यह शिकायत कैसे हो पाती? इसलिए आत्मरक्षा में ऐसी रिकॉर्डिंग अब नाजायज नहीं कही जा सकती।
([email protected])
जम्मू-कश्मीर के छोटे से जिले लेह के पत्रकारों ने आरोप लगाया है कि भाजपा नेताओं ने लोकसभा चुनाव में अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए पैसा देने की कोशिश की। चुनाव आयोग इसकी पड़ताल कर रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के वक्त पत्रकारों को पैसे देने का चलन-सा है। छत्तीसगढ़ में भी 2013 के विधानसभा में कांग्रेस की एक सूची वायरल हुई थी, जिसमें यह उल्लेख था कि किस पत्रकारों को कितने पैसे दिए गए। जिन पत्रकारों ने पैसे लिए थे, उन्होंने चुपचाप रख लिए, लेकिन सूची में कई नाम ऐसे थे जिन्होंने पैसे नहीं लिए पर उनके नाम के आगे राशि का जिक्र था। ऐसे पत्रकारों ने पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के समक्ष कड़ी आपत्ति जताई थी, तब मीडिया विभाग संभाल रहे रमेश वल्र्यानी को काफी सफाई देनी पड़ी।
लेन-देन की रिकॉर्डिंग मौजूद है
इस बार के विधानसभा चुनाव में तो बहुत कुछ हुआ। एक राजनीतिक दल ने तो एक मीडिया कंपनी को कुछ पत्रकारों को पैसे देने का जिम्मा सौंपा था। कंपनी के लोग काफी होशियार निकले, उन्होंने चुपचाप रिकॉर्डिंग भी करवा रखी है। ताकि किसी तरह का कम-ज्यादा का आरोप-प्रत्यारोप होने पर सबूत उपलब्ध रहे। लोकसभा चुनाव में प्रदेश भाजपा ने विज्ञापन और मीडिया के लोगों को किसी तरह का व्यवहार देने से खुद को अलग रखा। सुनते हंै कि विधानसभा चुनाव में हार के बाद प्रदेश में इन सब चीजों का हिसाब-किताब रखने वालों पर उंगलियां उठ रही हैं। चर्चा तो यह भी है कि विधानसभा चुनाव में करीब साढ़े 8 करोड़ रूपए बांटे गए थे। यह सब विज्ञापन से अलग था। विरोधी नेता आपसी चर्चा में यह कह रहे हैं कि इसमें काफी हेर-फेर हुई है। और जिम्मेदार लोगों ने पैसे दबा दिए। कई पत्रकारों ने पैसे लेने से मना भी किया, लेकिन छोटे से जिले लेह के पत्रकारों जैसा हौसला नहीं दिखा पाए।
सीएम के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर कांग्रेस ने भाजपा विधायक शिवरतन शर्मा को बैन कर दिया है। पार्टी नेता शिवरतन शर्मा के साथ किसी भी टीवी डिबेट में हिस्सा नहीं लेंगे। पिछले कुछ समय से शिवरतन शर्मा, भूपेश सरकार के खिलाफ मुखर हैं। वैसे तो वे भाजपा की गुटीय राजनीति में रमनविरोधी खेमे माने जाते थे, लेकिन सरकार ने जैसे ही रमन-परिवार पर निगाह तिरछी की, तो बचाव में सबसे पहले शिवरतन शर्मा ही आगे आए। वे अब रमन के भरोसेमंद माने जाने लगे हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पार्टी ने वर्ष-2013 के विस चुनाव में उन्हें टिकट नहीं देने का फैसला किया था, तब बृजमोहन अग्रवाल के अडऩे की वजह से उन्हें टिकट मिल पाई और चुनाव भी जीत गए। इस बार के विधानसभा चुनाव में भाग्य ने उनका साथ दिया और त्रिकोणीय संघर्ष में फिर बाजी मार गए। इन सफलताओं के बावजूद पार्टी के भीतर उनकी छवि कोई अच्छी नहीं रही है। उनका परिवार चावल कारोबार से जुड़ा है। कुछ साल पहले बलौदाबाजार में चावल-धान घोटाला हुआ था, तो शिवरतन शर्मा निशाने पर रहे।
भाजपा सरकार में उनके परिवार ने काफी आर्थिक तरक्की की। नागरिक आपूर्ति निगम में परिवहन के ठेके में पूर्व विधायक गुरूमुख सिंह होरा परिवार का बहुत लंबे समय से एकाधिकार रहा है, लेकिन शिवरतन के परिवार ने होरा का वर्चस्व तोड़ दिया। भाटापारा में शिवरतन परिवार का डीपीएस स्कूल भी है। वे भाटापारा-बलौदाबाजार जिले में एक बड़ी आर्थिक ताकत बन चुके हैं।
सुनते हैं कि रमन सरकार में मंत्रिमंडल में उन्हें जगह दिलाने के लिए सरोज पाण्डेय ने काफी मेहनत की थी। तब एक प्रमुख नेता ने निजी चर्चाओं में यह कहकर खारिज किया था कि शिवरतन को मंत्रिमंडल में शामिल करने से अच्छा संदेश नहीं जाएगा और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है। अब जब शिवरतन शर्मा आक्रामक दिख रहे हैं, तो इसकी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। फिलहाल तो उनके खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई जा रही है।
बहिष्कार के मुकाबले बहिष्कार
भारतीय जनता पार्टी ने कुछ समय पहले जब कांगे्रस के एक प्रवक्ता विकास तिवारी का टीवी चैनलों पर बहिष्कार घोषित किया, तो कांगे्रस प्रवक्ताओं की लिस्ट में मिलीजुली प्रतिक्रिया रही। एक ही तरह के काम करने वाले लोगों के बीच जाहिर है कि थोड़ी सी खींचतान रहती ही है, और हर टीवी डिबेट के बाद जब दोनों-तीनों पार्टियों के लोग चाय पर गपियाते हैं, तो अपनी-अपनी पार्टी के दूसरों की कमजोरियां भी बांटी जाती हैं। ऐसे में विकास तिवारी का बहिष्कार उन पर भारी पड़ रहा था।
अब जब शिवरतन शर्मा के एक बयान को लेकर कांगे्रस ने पहले जब केवल बयान जारी किया तो विकास तिवारी बेचैन थे। उनकी बेचैनी को देखते हुए पार्टी ने फिर शिवरतन शर्मा का बहिष्कार किया, तो कलेजे में कुछ ठंडक पड़ी।
प्रवक्ताओं की जात क्या है?
एक दिलचस्प बात यह है कि छत्तीसगढ़ में कांगे्रस और भाजपा जैसी दोनों बड़ी पार्टियों के प्रवक्ताओं को टीवी पर देखें, तो दिखता है कि ब्राम्हण या सवर्ण हावी हैं। कांगे्रस की लिस्ट देखें तो राजेन्द्र तिवारी, शैलेष नितिन त्रिवेदी, आरपी सिंह, किरणमयी नायक, विकास तिवारी, रमेश वल्र्यानी जैसे लोग ही टीवी के परदे पर दिखते हैं। दूसरी तरफ भाजपा में सच्चिदानंद उपासने, श्रीचंद सुंदरानी, केदार गुप्ता, संजय श्रीवास्तव, के चेहरे ही टीवी पर दिखते हैं।
कहने के लिए इन पार्टियों की प्रवक्ता-सूची में मुस्लिम, ईसाई, दलित, आदिवासी हो सकते हैं, लेकिन अमूमन वे टीवी पर दिखते नहीं हैं। अब अल्पसंख्यकों और सबसे दबे-कुचले तबकों की जगह पार्टी की ओर से बोलने में ही इतनी कमजोर रखी गई है, तो बहस में इन तबकों के तजुर्बों की भला क्या जगह होती होगी? लेकिन राजनीतिक दलों के लोगों अखबारों के संपादकीय विभाग या न्यूज रूम को भी गिना सकते हैं कि वहां पर भी तो महज ब्राम्हणों का बोलबाला है। मीडिया मालिक अधिकतर मारवाड़ी, और पत्रकार अधिकतर ब्राम्हण!
([email protected])
लखनऊ के संजय गांधी पीजी अस्पताल में कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे का इलाज चल रहा है। यूपी के इस सबसे बड़े अस्पताल का नामकरण प्रदेश सरकार की पहल पर संजय गांधी के नाम पर किया गया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका उद्घाटन किया। मगर, अस्पताल का सबसे ज्यादा काम मोतीलाल वोरा के गवर्नर रहते हुआ था। वे इस अस्पताल की गवर्निंग काउंसिल के चेयरमैन रहे हैं। पिछले दिनों वे रविन्द्र चौबे को देखने अस्पताल गए तो वहां उन्होंने कांग्रेस नेताओं को बताया कि यहां उन्होंने क्या-क्या काम करवाए हैं।
अस्पताल के चिकित्सक भी उनके योगदान को नहीं भूले हैं। इससे परे वोराजी ने कांग्रेस नेताओं को एक और बात बताई, जो कि कईयों को नहीं मालूम था। वोराजी दुर्ग शहर से आधा दर्जन बार विधायक रहे हैं। जब पहली बार वे विधायक बने तो रविन्द्र चौबे के पिता स्व. देवीप्रसाद चौबे उनके साथ अविभाजित मप्र में विधानसभा के सदस्य थे। बाद में वोराजी, रविन्द्र चौबे की माता कुमारी बाई चौबे के साथ विधानसभा के सदस्य रहे। इसके बाद रविन्द्र चौबे के बड़े भाई प्रदीप चौबे, वोराजी के साथ विधानसभा के सदस्य रहे। बाद में रविन्द्र चौबे, वोराजी के साथ विधायक बने। यानी वोराजी, चौबे परिवार के राजनीति में सक्रिय सभी सदस्यों के साथ विधानसभा में रहे हैं। ये अलग बात है कि पारिवारिक घनिष्ठता के बाद भी चौबे बंधु, कांग्रेस के वोरा विरोधी खेमे से जुड़े रहे हैं। हालांकि उन्होंने कभी भी किसी भी फोरम में वोराजी का विरोध नहीं किया और उनका हमेशा सम्मान ही करते हैं।
इन दो नेताओं से उम्मीद...
केन्द्र में एनडीए की सरकार बनी तो छत्तीसगढ़ के भाजपा प्रभारी रहे जगत प्रकाश नड्डा और धर्मेन्द्र प्रधान पॉवरफुल रहेंगे। दोनों ही राज्यसभा सदस्य हैं और लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। यही वजह है कि प्रदेश के जो कोई भी भाजपा नेता यूपी और ओडिशा चुनाव प्रचार के लिए जा रहे हैं, वे नड्डा और धर्मेन्द्र प्रधान से जरूर मिल रहे हैं। दोनों ही यहां के छोटे-बड़े नेताओं से परिचित हैं।
सुनते हैं कि सरकार जाने के बाद बड़े भाजपा नेता काम धंधे की तलाश में भी हैं। कई ने पेट्रोल पंप के लिए धर्मेन्द्र प्रधान से जुगाड़ भी लगाया था, लेकिन ऑनलाइन लॉटरी सिस्टम से आबंटन होने के कारण वे मदद नहीं कर पाए। एनडीए की सरकार बनने पर दोनों का फिर से मंत्री बनना तय है। ऐसे में यहां के नेताओं को उम्मीद है कि दोनों ही कारोबार बढ़ाने में मदद करेंगे। ([email protected])
सत्ता के भ्रष्टाचार को देखें तो वह धर्म और जाति से परे का दिखता है। भ्रष्ट लोगों में भला किस जाति के लोग नहीं दिखते! जिन दलित-आदिवासी अफसरों के भ्रष्टाचार की कहानियां सामने आती हैं, उन्हें सुनकर ऊंची कही जाने वाली जातियों के लोगों के मन में हिकारत जागती है कि जिस जात का है उसकी वजह से हजार-पांच सौ रूपए भी रिश्वत ले लेता है। अपने को ऊंचा मानने वाली जाति का यह अहंकार रहता है कि वह कम रिश्वत लेने वालों को कम सामाजिक समझ रखने वाले मूर्ख भी मान लेता है। छत्तीसगढ़ में पिछले दिनों में जैसे-जैसे भ्रष्टाचार सामने आए हैं, उनके पीछे के नेता और अफसर सभी जातियों के हैं, और उससे यह जाहिर होता है कि खानपान चाहे अलग हो, धार्मिक-सामाजिक रीति-रिवाज चाहे अलग हो, बोली अलग हो, लेकिन रूपए को लेकर नीयत कमोबेश एक सरीखी रहती है, और उसमें कोई जाति-धर्म आड़े नहीं आते। इससे लगता है कि रूपए सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष और जातिविहीन होते हैं, जिनसे किसी को परहेज नहीं होता। अब यहां पर एक-एक नेता-अफसर की जात गिनाकर, धर्म गिनाकर भ्रष्टाचार गिनाना जरूरी नहीं है क्योंकि खबरों को देखें तो यह समझ आ जाएगा कि कौन-कौन से ईश्वर, किस-किस जाति के भगवान अपने किन-किन भ्रष्ट लोगों को देखकर खुश हो रहे होंगे। यह बात तो जाहिर है ही कि ईश्वर को सबसे अधिक चढ़ावा सबसे अधिक भ्रष्ट से ही मिलता है जिसे अपने पापों का प्रायश्चित भी करना होता है, और आगे के लिए अधिक कमाई का आशीर्वाद भी लगता है। ऐसे में हर देश-प्रदेश से आए हुए, हर जाति-धर्म के अफसरों के बीच यह एक अनोखी एकता है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को एक बनाती है!
फसल बीमा घोटाले को लेकर जिस तरह पिछले मुख्य सचिव अजय सिंह के खिलाफ एक जांच दर्ज करने की तैयारी चल रही है, उससे छत्तीसगढ़ के सहमे हुए अफसरों की रीढ़ की हड्डी में एक बार और सिहरन दौड़ गई है। दरअसल राज्य बनने के बाद से अब तक के इतने बरसों में किसी ने यह सोचा नहीं था कि सरकारी कामकाज को लेकर कोई सरकार इतने सारे अफसरों के खिलाफ इतने आक्रामक तरीके से जांच और मुकदमे शुरू कर देगी। लेकिन सरकार के तेवर वैसे ही आक्रामक बने हुए हैं जैसे पिछले पन्द्रह बरस के विपक्ष में थे। और दूसरी तरफ पन्द्रह बरस की सरकार के अफसरों का हाल यह था कि उनको यह लगना बंद हो गया था कि कभी कोई और सरकार भी आ सकती है।
मंत्रालय में एक आला अफसर का कहना है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की यही रफ्तार रही, तो पांच बरस का कार्यकाल पूरा होने तक आल इंडिया सर्विस छत्तीसगढ़ में दर्जन भर अफसर खो बैठेगी, नीचे के कई अफसरों को प्रमोशन का मौका मिलेगा, और राज्य को केन्द्र से मांग करनी पड़ेगी कि और अफसर दिए जाएं। दूसरी तरफ राज्य में केन्द्रीय सेवा के अफसरों के दबदबे के खिलाफ कुछ ऐसे वरिष्ठ आईएएस हैं जो मानते हैं कि राज्य को राज्य सेवा के अधिकारियों को ही बढ़ावा देना चाहिए, और अधिक से अधिक जिम्मा उनको देना चाहिए। कुल मिलाकर राज्य बनने के बाद से पहली बार आला अफसरों में मुख्यमंत्री के तेवरों को लेकर, और अपने भविष्य को लेकर इतना गहरा विचार-विमर्श चल रहा है। फिर आपस में इस बात पर शर्त भी लग रही है कि जिन अफसरों को जेल जाने के आसार हैं, वे कब तक जेल चले जाएंगे, या नहीं जाएंगे? आरोपों से घिरे हुए एक अफसर के बारे में कुछ समय पहले तक ऐसी चर्चा थी कि जिस वजह से अजीत जोगी को कांग्रेस के भीतर बार-बार माफी मिल जाती थी, उसी वजह से इस अफसर को भी बख्श दिया जाएगा। लेकिन फिर ईओडब्ल्यू में जब जुर्म दर्ज हो गया, तो वह चर्चा अपने आप खारिज हो गई, और उसके साथ ही यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि ईश्वर इस बार कांग्रेस में माफी के लिए जोगी का साथ देगा, या नहीं?
बृजमोहन अग्रवाल लखनऊ में केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के चुनाव प्रचार की कमान संभाल रहे हैं। चुनावी सभा में राजनाथ सिंह ने बृजमोहन की कार्यशैली की जमकर प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि बृजमोहन जबसे चुनाव लड़ रहे हैं, उन्हें कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा। छत्तीसगढ़ में सरकार नहीं बन पाई, लेकिन एक बात तय थी कि बृजमोहन अग्रवाल अच्छे वोटों से जीतेंगे। राजनाथ ने आगे कहा कि बृजमोहन पार्टी के प्रति निष्ठावान हैं और यही वजह है कि वे यहां पार्टी के प्रचार के लिए आए हैं। इसके बाद सभा में मौजूद लोगों ने जमकर तालियां बजाईं।
बृजमोहन को चुनाव प्रबंधन में माहिर माना जाता है। छत्तीसगढ़ में पार्टी की सरकार रहते कठिन उपचुनावों में उन्हें चुनाव संचालन की जिम्मेदारी दी गई थी और उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में पार्टी उम्मीदवार को जीत दिलाई। प्रदेश से बाहर भी दिग्गज नेता चुनाव प्रचार की कमान उन्हें सौंपते रहे हैं। उन्होंने प्रतिष्ठापूर्ण छिंदवाड़ा लोकसभा उपचुनाव में सुंदरलाल पटवा के चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी। उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने भी अपने चुनाव में प्रचार के लिए बुलाया था। ये अलग बात है कि इतनी प्रतिभा होते हुए भी प्रदेश भाजपा की राजनीति में संगठन में हावी नेता उन्हें हाशिए पर ढकेलने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।
मौसम मंत्री भी देखने आए
कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे का लखनऊ के अस्पताल में इलाज चल रहा है। उन्हें देखने के लिए सीएम भूपेश बघेल के साथ-साथ सरकार के कई मंत्री पहुंचे। न सिर्फ राज्य के मंत्री बल्कि बाहर के भी अलग-अलग पार्टियों के कई नेता भी उनका कुशलक्षेम पूछने अस्पताल गए। मेल-मुलाकात करने वालों में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और विधि मंत्री बृजेश पाठक भी थे।
बृजेश पाठक को लेकर यहां के नेताओं में उत्सुकता ज्यादा रही। उन्हें उत्तरप्रदेश का मौसम विज्ञानी माना जाता है। यानी बृजेश पाठक जिसकी भी सरकार रही, उसके साथ रहे और उन्हें उस पार्टी में अहम जिम्मेदारी भी मिली। पहले वे बसपा में थे और वे बसपा सरकार में मंत्री रहे। उससे पहले सपा सरकार में मंत्री रहे। बाद में हवा का रूख भांपकर भाजपा में आ गए और चुनाव जीतकर मंत्री का दायित्व संभाल रहे हैं। प्रदेश के नेता उनसे दल बदल के बावजूद प्रभावशाली रहने का गुर जानने की कोशिश करते रहे।
हिंदुस्तान में लोगों को जितनी पुरानी याद है, उसमें अफवाहें फैलाने के लिए बीबीसी का नाम सबसे अधिक लिया जाता था क्योंकि रेडियो बीबीसी को सबसे भरोसेमंद माना जाता था। हिंदुस्तान में हाल के बरसों तक रेडियो पर सरकार का एकाधिकार था, और वैसे में भरोसेमंद खबरों के लिए लोग बीबीसी सुना करते थे। आज भी जब दर्जनों रेडियो-टीवी चैनल हो गए हैं, हजारों प्रमुख समाचार वेबसाईटें हो गई हैं, तब भी बीबीसी का नाम अफवाह फैलाने के लिए दिलचस्प तरीके से लिया जा रहा है।
अभी वॉट्सऐप पर एक संदेश आया जिस पर बीबीसी का एक वेबसाईट लिंक भी दिया हुआ था, और नीचे लिखा गया था कि सीआईए का एक सर्वे बताता है कि भाजपा सीटें खोने जा रही हैं, और 2019 में सरकार नहीं बना सकेगी। इसमें एनडीए और यूपीए की सीटों के अलग-अलग आंकड़ों सहित तमाम पार्टियों के अंदाज भी लिखे गए हैं, और इस पोस्ट में ऊपर और नीचे दोनों तरफ बीबीसी का एक सच्चा लिंक भी पोस्ट किया गया है।
जब इस लिंक पर जाएं तो बीबीसी का पेज खुलता भी है लेकिन जैसा कि किसी भी वेबसाईट के साथ होता है, उस पेज पर किसी खबर को ढूंढना उतना आसान नहीं होता। ऐसे में पहली नजर में आम लोग यह मान लेते हैं कि वेबसाईट तो सही खुल रही है, और जानकारी भी सही ही होगी। लेकिन उस वेबसाईट पर ऐसी कोई जानकारी नहीं है जो कि इस वॉट्सऐप मैसेज में इस लिंक के साथ लिखी गई है। तकरीबन तमाम लोग बिना लिंक खोले भी इस बात पर अपनी पसंद-नापसंद के मुताबिक भरोसा करेंगे, या नहीं करेंगे। जो गिनेचुने लोग लिंक खोलेंगे, वे भी लिंक को सही पाएंगे। आजादी को पौन सदी हो रही है, लेकिन इस देश में अफवाह और झूठ फैलाने के लिए बीबीसी का लेबल आज भी पहली पसंद बना हुआ है।
नेता से जनता ने पूछा
नेता - हाँ. जी
जनता - क्या आप देश को लूट खाओगे ?
नेता - बिल्कुल नहीं.
जनता - हमारे लिए काम करोगे ?
नेता - हाँ. बहुत.
जनता - महगांई बढ़ाओगे ?
नेता - इसके बारे में तो सोचो भी मत
जनता - आप हमें जॉब दिलाने में मदद करोगे ?
नेता - हाँ. बिल्कुल करेंगे.
जनता - क्या आप देश में घोटाला करोगे ?
नेता - पागल हो गए हो क्या बिलकुल नहीं.
जनता - क्या हम आप पर भरोसा कर सकते हैं ?
नेता - हाँ
जनता - नेताजी ...
चुनाव जीतकर नेताजी वापस आये
अब आप, नीचे से ऊपर पढ़ो
समुद्र सिंह के यहां छापेमारी से विशेषकर आबकारी अफसर-कर्मियों में खुशी की लहर है। समुद्र सिंह रिटायर होने के बाद 9 साल तक संविदा पर रहे। रमन सरकार में उनकी हैसियत विभागीय सचिव से कहीं ज्यादा रही है। वे अमर अग्रवाल के बेहद करीबी रहे हैं। समुद्र सिंह को फंड जुटाने में भी माहिर माना जाता रहा है। यही वजह है कि हर कोई उनके आगे नतमस्तक रहा।
सुनते हैं कि समुद्र सिंह के दबाव के चलते ही विभाग में एडिशनल कमिश्नर का पद स्वीकृत नहीं हो पाया था और कई अफसरों का प्रमोशन भी रूका था। अब जब उनके यहां छापेमारी हो रही है, तो उनसे प्रताडि़त अफसर काफी खुश हैं। चर्चा तो यह भी है कि विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के कई बड़े नेताओं को उनकी वजह से परेशानी का सामना करना पड़ा था।
किस प्रत्याशी के यहां पेटी भेजना है, समुद्र सिंह ने रमन सरकार के रणनीतिकारों के साथ बैठक कर तय की थी। हाल यह रहा कि सत्तारूढ़ पार्टी के ही विरोधी खेमे के कई नेताओं को मतदाताओं को लुभाने के लिए अन्य स्त्रोतों से शराब का इंतजाम करना पड़ा। ईओडब्ल्यू की टीम ने समुद्र सिंह से जुड़ी फाइलें खंगालनी शुरू की है, तो देर सबेर अमर के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। अब एक दिक्कत यह भी है कि समुद्र सिंह के सबसे करीबी रहे एक अफसर जो कि पिछली सरकार में एक बड़ी कमाऊ जगह पर जमे रहे, और जिनका दावा सत्ता से एक रिश्तेदारी का था, वे आज एक बड़े ताकतवर मंत्री के ओएसडी बने बैठे हैं। उस जगह पर रहकर वे एसीबी के छोटे अफसरों को तो प्रभावित करने की हालत में हैं ही। यह भी हैरानी की बात है कि पिछली सरकार के सबसे चहेते और सबसे भ्रष्ट अफसरों में से कुछ किस तरह, कितनी आसानी से नई सरकार में कमाऊ जगहों पर टिके हुए हैं, या एक कमाऊ जगह से दूसरी कमाऊ जगह पर चले गए हैं।
पूर्व कलेक्टर ओपी चौधरी दंतेवाड़ा में जमीन की अदला-बदली के पुराने प्रकरण में फंस गए हैं। प्रकरण की जांच पर ऐसा माना जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट से रोक लगी है। लेकिन अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में लगाई गई एक विशेष याचिका पर अपने पिछले आदेश पर यह स्पष्टीकरण दिया है कि उसने जांच पर कभी रोक नहीं लगाई थी। प्रकरण कुछ इस तरह का है कि चौधरी ने दंतेवाड़ा कलेक्टर रहते कलेक्टोरेट के समीप करीब साढ़े तीन एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। इसके एवज में भू-स्वामियों को बाजार के समीप जमीन का आबंटन कर दिया गया। अदला-बदली के तहत सौंपी गई जमीन पर दंतेवाड़ा के व्यापारियों के लिए कॉम्पलेक्स का निर्माण प्रस्तावित था। इसकी शिकायत पर स्थानीय लोगों ने हाईकोर्ट में याचिका लगाई। जिस पर हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार की आशंका जताते संबंधित अफसरों के खिलाफ जांच के आदेश जारी किए थे। कोर्ट का फैसला आता तब तक कॉम्पलेक्स का निर्माण हो चुका था और कई व्यापारियों ने कॉम्पलेक्स में दुकानें खरीदी थीं। बाद में कुछ व्यापारी सुप्रीम कोर्ट चले गए और सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश 20 फरवरी 2017 को दिया था, उसे ऐसा मान लिया गया था कि मानो जांच पर सुप्रीम कोर्ट से रोक लग गई। दूसरी तरफ रमन सरकार के इस लाड़ले कलेक्टर को बचाने की कोशिश भी हुई। जांच के लिए पहले रिटायर्ड जज (अब लोकायुक्त) जस्टिस टी पी शर्मा की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच कमेटी बनाई थी। कमेटी अपना प्रतिवेदन भी नहीं दे पाई थी कि सुप्रीम कोर्ट से रोक का हल्ला हो गया। नौकरी छोड़कर राजनीति में आ चुके ओपी चौधरी की आगे की राह आसान नहीं है क्योंकि सरकार बदल चुकी है। उनके खिलाफ कई और प्रकरण सामने आ रहे हैं। अब जब यह साफ हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट से जांच पर रोक कभी लगी ही नहीं थी, तो उनकी मुश्किलें बढ़ सकती है।