राजपथ - जनपथ
जोगी अर्श से फर्श पर!
विधानसभा चुनाव के बाद से जोगी पार्टी का ग्राफ लगातार गिर रहा है। पार्टी ने लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा था। मगर दंतेवाड़ा और चित्रकोट विधानसभा उपचुनावों में प्रत्याशी उतारे थे। हाल यह रहा कि दोनों ही सीटों पर जोगी पार्टी के उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा सके। म्युनिसिपल चुनाव में जोगी पार्टी की तरफ से बढ़-चढ़कर दावे किए जा रहे थे, लेकिन प्रदेश के 2836 वार्डों में से 28 वार्डों में ही जोगी पार्टी को सफलता मिल पाई। यानी एक फीसदी से भी कम सीटों पर पार्टी को सफलता मिली है।
सुनते हैं कि जोगी पार्टी के जो पार्षद जीतकर आए हैं, उन पर भी पार्टी नेताओं का नियंत्रण नहीं रह गया है। ज्यादातर पार्षद अपनी सुविधा के अनुसार कांग्रेस या भाजपा का समर्थन कर रहे हैं। बलौदाबाजार में जोगी पार्टी के 3 पार्षद जीतकर आए हैं। यहां नगर पालिका अध्यक्ष बनवाने में जोगी पार्टी की भूमिका अहम होगी। मगर बलौदाबाजार के जोगी पार्टी के विधायक प्रमोद शर्मा ने कांग्रेस और भाजपा के लोगों को साफ तौर पर बता दिया है कि उन्हें सीधे पार्षदों से ही चर्चा करनी होगी। पार्टी के चुनाव चिन्ह पर जीत तो गए हैं, लेकिन वे समर्थन का फैसला खुद लेंगे।
अजीत जोगी जब कांग्रेस में थे, तो अपनी ताकत का अहसास कराते हुए अक्सर कहा करते थे कि कांग्रेस के बिना जोगी नहीं और जोगी के बिना कांग्रेस नहीं। उनका मानना था कि बिना जोगी के कांग्रेस का राज्य में कोई अस्तित्व नहीं है। मगर हुआ ठीक उल्टा, उनके पार्टी छोडऩे के बाद कांग्रेस 15 साल बाद सत्ता में आई। इसके बाद से कांग्रेस का ग्राफ बढ़ रहा है। इसके विपरीत जोगी का आधार सिमटता जा रहा है। कम से कम म्युनिसिपल चुनाव में तो यह साबित भी हो गया है। ऐसे में उनके विरोधी कहने लगे हैं कि कांग्रेस के बिना जोगी नहीं...
एक मोहभंग
छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी के मुखिया रहे कृषि वैज्ञानिक डॉ. संकेत ठाकुर ने कल सोशल मीडिया पर साल के आखिरी दिन राजनीति को बिदा करने की घोषणा की। लोग कुछ हैरान हुए कि अचानक ऐसा क्या हो गया? लेकिन म्युनिसिपल चुनावों में आम आदमी पार्टी का हाल देखने के बाद शायद उन्हें यह रास्ता सूझा हो। जो भी हो, राजनीति में, एक खासकर दलगत-चुनावी राजनीति में गए हुए भले लोगों का मोहभंग होना कोई नई बात नहीं है। छत्तीसगढ़ में ऐसे ही एक दूसरे भले इंसान को लेकर भी लोगों में अटकल लगते रहती है कि आखिर कब तक?
अब डॉ. संकेत ठाकुर के राजनीति छोडऩे की घोषणा उस वक्त आई है जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि छत्तीसगढ़ का दिल्ली पर कोई असर होगा, अरविंद केजरीवाल बगल के लगे हुए राज्यों में अपनी पार्टी को धूल चाटते देख चुके हंै, और छत्तीसगढ़ का वहां कोई असर नहीं है, फिर भी एक खबर तो बनती हैै, और यह खबर आम आदमी पार्टी के खिलाफ तो जाती है। कुछ अरसा पहले इस पार्टी की बस्तर की सबसे बड़ी नेता सोनी सोरी ने भी पार्टी छोड़ी थी। पिछले कुछ चुनावों में पार्टी किसी किनारे पहुंच नहीं पाई, और कोई किनारा नजर भी नहीं आ रहा है, इसलिए लोगों का हौसला पस्त है। छत्तीसगढ़ कुल मिलाकर दो पार्टियों का राज्य बना हुआ है, और जोगी की पार्टी भी पूरी तरह से हाशिए पर चली गई दिखती है। ([email protected])
कोरबा में मुमकिन तो है पर...
कांग्रेस सभी 10 म्युनिसिपलों में अपना मेयर-सभापति बनाने का दावा कर रही है। सीएम भूपेश बघेल पूरी दमदारी से यह बात कह भी चुके हैं। सिर्फ कोरबा में थोड़ी बहुत दिक्कत हो सकती है। क्योंकि यही एक म्युनिसिपल है जहां कांग्रेस, भाजपा से थोड़ी पीछे है। यद्यपि बहुमत किसी दल को नहीं है, फिर भी कांग्रेस के रणनीतिकार मानकर चल रहे हैं कि कोरबा में भी कांग्रेस का मेयर बनेगा। यहां कांग्रेस के 26, भाजपा को 31, जोगी कांग्रेस के 2 और 9 निर्दलीय पार्षद चुनकर आए हैं।
पार्टी ने सोच समझकर अनुभवी नेता सुभाष धुप्पड़ को मेयर चुनाव के लिए पर्यवेक्षक बनाया है। वे विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के करीबी माने जाते हैं, तो सीएम का भी उन पर भरोसा है। वे अल्पमत को बहुमत में बदलने का कारनामा पहले भी कर चुके हैं। डायरेक्ट इलेक्शन के दौर में जब जोगेश लांबा कोरबा के मेयर बने थे तब कांग्रेस पार्षदों की संख्या भाजपा से कम थी।
तब सभापति के चुनाव में सुभाष धुप्पड़ की रणनीति के आगे भाजपा टिक नहीं पाई और सभापति पद पर कांग्रेस का कब्जा हो गया। अब तो प्रदेश में सरकार भी है। फिलहाल तो चार पार्षद पहले ही मंत्री जयसिंह अग्रवाल को समर्थन देने का वादा कर आए हैं। बाकियों से चर्चा चल रही है। ऐसे में पार्टी के रणनीतिकार मानकर चल रहे हैं कि इतिहास फिर दोहराया जाएगा।
अब कांगे्रस के भीतर कोरबा के मेयर को लेकर एक दुविधा यह है कि पार्टी के कुछ लोग वहां मंत्री जयसिंह अग्रवाल के एक विरोधी कांगे्रस पार्षद को मेयर बनाना चाहते हैं। उन्होंने सीएम तक कोशिश की है, लेकिन कोरबा संसदीय सीट के सबसे बड़े नेता, विधानसभाध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत ने पार्टी के भीतर यह साफ कर दिया है कि पार्टी के बाहर से पार्षदों को लाकर या लेकर महापौर बनाने की क्षमता आज सिर्फ जयसिंह में है, और कोई चाहे या न चाहे, जयसिंह की पसंद से ही पार्टी का मेयर बन सकता है। वैसे यह बात भी है कि जयसिंह अग्रवाल दशकों से सुभाष धुप्पड़ के करीबी रहे हुए हैं, और इन्हीं सब तालमेल को देखते हुए उन्हें कोरबा का जिम्मा दिया गया है।
टीएस की अगली पीढ़ी का लाँच
सरगुजा राजघराने के मुखिया टीएस सिंहदेव अब अपने भतीजे आदितेश्वर शरण सिंहदेव (आदि बाबा) को पंचायत चुनाव के जरिए चुनावी राजनीति में लांच करने जा रहे हैं। आदि बाबा के जिला पंचायत चुनाव मैदान में उतरने की चर्चा है। वे सरगुजा के जिला पंचायत क्रमांक-2 से प्रत्याशी हो सकते हैं। आदि बाबा ने अमेरिका से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की है और वे कुछ समय वहां एक निजी कंपनी में काम करते रहे हैं। नौकरी छोड़़कर आने के बाद वे सक्रिय राजनीति में आ गए। वे एआईसीसी के सदस्य भी हैं।
टीएस सिंहदेव के मंत्री बनने के बाद आदि बाबा अंबिकापुर में रहकर सिंहदेव के निर्वाचन क्षेत्र से जुड़े कामकाज में सहयोग करते हैं। वैसे तो पंचायत चुनाव दलीय आधार पर नहीं हो रहे हैं फिर भी पार्टी अधिकृत प्रत्याशियों की सूची जारी करेगी। जिला पंचायत का अध्यक्ष पद अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित है। ऐसे में चुनाव जीतने की स्थिति में आदि बाबा जिला पंचायत के उपाध्यक्ष ही बन सकते हैं।
छत्तीसगढ़ को नई पहचान
दिलाने वाला नृत्योत्सव
आदिवासी नृत्य महोत्सव की तारीफ देश-दुनिया में हो रही है। यह आयोजन देश में पहली बार हुआ है। न सिर्फ देश के बल्कि दुनिया के अलग-अलग देशों के आदिवासी कलाकारों ने अपनी पारंपरिक नृत्य कला का प्रदर्शन किया। इससे पहले तक पिछली सरकार में राज्योत्सव और अन्य मौकों पर गीत-संगीत, नृत्य के कार्यक्रम होते रहे हैं। इनमें सलमान खान, करीना कपूर जैसी फिल्मी हस्तियों पर ही करोड़ों रुपये फूंके गए थे, मगर वैसी तारीफ और सुर्खियां नहीं मिलीं, जैसे आदिवासी नृत्य महोत्सव की हो रही है।
सुनते हैं कि इस तरह के आयोजन का आइडिया छत्तीसगढिय़ा मूल के, अमरीका में बसे वैंकटेश शुक्ला का रहा है। वे साल में एक-दो बार छत्तीसगढ़ आते हैं। उनका दर्द यह रहा है कि छत्तीसगढ़ की समृद्धशाली आदिवासी नृत्य-परंपराओं को देश-दुनिया में कोई पहचान नहीं मिल पा रही है। उन्होंने पिछली सरकार के लोगों को भी इस तरह के आयोजन का सुझाव दिया था। मगर सरकार में शहरी-अभिजात्य सोच के दबदबे के चलते उनके इस सुझाव पर ध्यान नहीं दिया गया। सरकार बदलने के बाद तीन-चार माह पहले यहां आए, तो उन्होंने फिर से आदिवासी नृत्य महोत्सव के आयोजन का सुझाव दिया। भूपेश बघेल की खुद आदिवासी कला-परंपराओं को आगे बढ़ाने की सोच रही है। उन्हें आदिवासी कला को लेकर आयोजन को अंतराष्ट्रीय स्वरूप देने का आइडिया जच गया। फिर क्या था, उन्होंने अपने करीबी अफसरों को इसकी कार्ययोजना तैयार करने कहा।
महोत्सव के आयोजन का भार संस्कृति विभाग को सौंपा गया। फंड की बड़ी चिंता थी, क्योंकि इस आयोजन में काफी खर्च होना था। तब सरकार के रणनीतिकारों ने इसके लिए एनएमडीसी से चर्चा की। एनएमडीसी को माइनिंग लीज की अवधि समय से पहले ही बढ़ा दी गई। इससे एनएमडीसी प्रबंधन राज्य सरकार से काफी उपकृत है।
सीएमडी एन बैजेंद्र कुमार ने व्यक्तिगत रूचि लेकर महोत्सव के लिए सीएसआर मद से साढ़े सात करोड़ उपलब्ध करा दिए। इसके बाद युद्ध स्तर पर कार्यक्रम की तिथि तय कर अलग-अलग देशों के दूतावास के जरिए आदिवासी कलाकारों को आमंत्रण पत्र भेजा गया। पहले तो कई बड़े लोग इसको लेकर नाक-भौंह सिकोड़ रहे थे। कार्यक्रम के आयोजन की सफलता पर सवाल खड़े किए जा रहे थे, लेकिन जैसे ही देश-दुनिया के कलाकारों ने छत्तीसगढ़ की धरती पर कदम रखा पूरा माहौल ही बदल गया। कपकपाती ठंड में लोग आदिवासी नृत्य देखने के लिए उमड़ पड़े हैं, जो लोग पहले नृत्य के आयोजन को लेकर सवाल खड़े कर रहे थे, वे आदिवासी कलाकारों के साथ फोटो खिंचवाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं। कुल मिलाकर इस आयोजन ने दुनिया के अलग-अलग देशों में भी छत्तीसगढ़ की पहचान और आदिवासी संस्कृति को लेकर उत्सुकता जगाई है, और आने वाले बरसों में हो सकता है कि यह कार्यक्रम और भी बड़ा रूप ले ले। ([email protected])
कैसा भी हो, बने तो सही
खबर है कि म्युनिसिपलों में अपना मेयर बिठाने के कांग्रेस हर तरीके अपना रही है। वैसे तो कोरबा को छोड़कर सभी जगहों पर कांग्रेस पार्षदों की संख्या ज्यादा हैं, ऐसे में पार्टी नेताओं की इस तरह की कोशिश स्वाभाविक है, मगर भाजपा भी अपनी कोशिशों में कमी नहीं कर रही है। भाजपा कोरबा में तो मेयर बनाने के लिए जुटी हुई है, धमतरी और अन्य जगहों पर भी निर्दलियों का सहयोग लेकर अपना मेयर बनाने की कोशिश कर रही है। इन म्युनिसिपलों में आर्थिक रूप से ताकतवर पार्षद को मेयर प्रत्याशी के रूप में आगे करने की सोच रही है।
सुनते हैं कि एक म्युनिसिपल में तो भाजपा एक बड़े सटोरिए पर दांव लगाने के लिए भी तैयार दिख रही है। फटाका उपनाम से मशहूर उक्त सटोरिए को पार्टी के कुछ नेताओं ने संकेत भी दे दिए हैं और उसे निर्दलीय पार्षदों का जुगाड़ करने के लिए कह दिया है। फटाका ने एक निर्दलीय पार्षद को अपने प्रभाव में ले लिया है। इसकी भनक कांग्रेस के रणनीतिकारों को हो गई है। फटाका का कैरियर रिकॉर्ड खंगाला जा रहा है। चर्चा है कि पुलिस भी इस पूरे मामले में दखल देे सकती है। अब मेयर के चक्कर में भाजपा का 'फटाका' फूट जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दिग्गजों को लेकर एक कहानी
रायपुर-बिलासपुर और राजनांदगांव में तो कांग्रेस का मेयर बनना तय है। मगर भाजपा के दिग्गज केंद्रीय नेतृत्व को यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी तरफ से प्रयासों में कोई कमी नहीं की गई थी। इन 'कोशिशोंÓ पर पार्टी के एक नेता ने चुटकी ली और पंचतंत्र की कहानी सुनाई कि जंगल में एक शेर बूढ़ा हो चला था। उसे शिकार करने में दिक्कत होती थी। जिसके कारण कई दिनों तक उसे भूखा भी रहना पड़ता था। शेर की दशा को देखकर उसके मंत्री सियार ने सलाह दी कि वह राजा का पद त्याग कर दें और सबसे माफी मांग लें। सियार ने शेर के कान में अपने आगे की योजना भी बताई।
शेर को सियार की बात जम गई। उसने सियार के जरिए सारे जानवरों की मीटिंग बुलाकर अपना पद त्याग करने की घोषणा की। साथ ही निर्दोष जानवरों का शिकार करने के लिए माफी भी मांगी। योजना अनुसार राजा का पद बंदर को दे दिया। राजा बनने के बाद बंदर ने सभी को भरोसा दिलाया कि शेर से डरने की जरूरत नहीं है। वह अब शिकार नहीं करेगा। भरोसा जीतने के लिए कुछ दिन तक शेर ने शिकार भी नहीं किया। बकरी-हिरण और अन्य जानवर निडर होकर उसके पास से गुजरने भी लगे। एक दिन मौका पाकर हिरण के बच्चे को चुपचाप दबोच लिया। रोज एक-एक कर बकरी-हिरण के बच्चे गायब होने लगे।
सभी जानवर एक दिन गुस्से से राजा बंदर के पास पहुंचे और उनसे गायब बच्चों के बारे में पूछा। फिर क्या था बंदर एक डाल से दूसरे डाल फिर तीसरे डाल में उछलकूद करते रहा। काफी देर तक यह नजारा देख रहे जानवरों ने बंदर से पूछा कि आखिर वह कर क्या रहा है? बंदर का जवाब था कि उसे बच्चों के बारे में नहीं पता, लेकिन उसके प्रयासों में कमी है तो बताएं। कुछ इसी तरह मेयर बनाने के लिए उछलकूद तो सभी दिग्गज कर रहे हैं, लेकिन निर्दलियों को अपने पाले में करने के लिए जरूरी संसाधन झोंकने के लिए कोई तैयार नहीं हैं।
झारखंड और छत्तीसगढ़
झारखंड चुनाव में कांग्रेस गठबंधन सरकार की जीत के बाद विशेष रूप से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव का कद बढ़ा है। भूपेश पर झारखंड में आक्रामक चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी भी थी, और उन्हें वहां चुनाव खर्च में पार्टी की तरफ से योगदान भी करना था। भूपेश वहां चुनावी सभाओं में छत्तीसगढ़ की किसान-आदिवासी बिरादरी की खुशहाली गिनाकर माहौल बना पाए।
दूसरी तरफ सिंहदेव को टिकट वितरण में भी शामिल रखा गया था, और अब झारखंड मुक्ति मोर्चा और अन्य सहयोगी दल के साथ चर्चा कर नई सरकार का खाका खींचने की अहम जिम्मेदारी सौंपी गई है। यह पहले से ही तय है कि हेमंत सोरेन सीएम होंगे और वे जल्द शपथ भी लेंगे, लेकिन गठबंधन सरकार के साझा घोषणापत्र के क्रियान्वयन और अन्य विषयों पर सिंहदेव की राय भी अहम रहेगी। यानी साफ है कि भूपेश और सिंहदेव का छत्तीसगढ़ के साथ-साथ झारखंड सरकार में भी कांगे्रस की भागीदारी की हद तक दखल रहेगा।
ऐसी भी चर्चा है कि छत्तीसगढ़ सरकार की कुछ नीतियां बाकी कांग्रेस-राज्यों में भी अपनाई जा सकती हैं, लेकिन ऐसा होता या नहीं यह आने वाले महीने बताएंगे। ([email protected])
योगेश अग्रवाल की खुशी
रायपुर म्युनिसिपल चुनाव में हार के बाद भाजपा में अंदरूनी कलह उभरकर सामने आ गया है। असंतुष्टों के निशाने पर खुद चुनाव संयोजक बृजमोहन अग्रवाल भी हैं। सुनते हैं कि बृजमोहन अग्रवाल के भाई योगेश अग्रवाल और अन्य समर्थकों ने स्वामी आत्मानंद वार्ड में निर्दलीय प्रत्याशी अमर बंसल के पक्ष में खुलकर काम किया। यह वही वार्ड है जहां से त्रिपुरा के राज्यपाल रमेश बैस के सगे भतीजे ओंकार बैस भाजपा प्रत्याशी थे।
बंसल की जीत की घोषणा हुई, तो योगेश अग्रवाल और अन्य बृजमोहन समर्थक जश्न मनाते दिखे। टीवी चैनलों में अमर बंसल के साथ योगेश अग्रवाल विजयी मुस्कान बिखेरते नजर आए। यह नजारा देखकर बैस समर्थक गुस्से में हैं। ओंकार की हैसियत संगठन में ऊंची है। वे शहर जिला अध्यक्ष पद की दौड़ में है और जिले के महामंत्री रह चुके हैं।
खुद रमेश बैस दो दिन रायपुर में रहकर ओंकार का चुनावी हाल पूछ रहे थे। हालांकि यह जरूर कहा जा रहा है कि योगेश भाजपा के कार्यकर्ता नहीं है। वैसे भी एक परिवार के लोग अलग-अलग दलों से भी जुड़े रहते हैं, ऐसे में योगेश का किसी का साथ देना न देना, उनका निजी मामला है। यही नहीं, अमर बंसल भाजपा से टिकट चाह रहे थे, टिकट नहीं मिली, तो वे बागी हो गए। चाहे कुछ भी हो, भाई की वजह से विरोधियों को बृजमोहन के खिलाफ बोलने का मौका मिल ही गया।
खर्च के रिकॉर्ड टूटे
म्युनिसिपल चुनाव नतीजे आने के बाद हार-जीत का आंकलन चल रहा है। सुनते हैं कि रायपुर के कई वार्डों में तो प्रत्याशियों ने विधानसभा चुनाव से ज्यादा खर्च किया। कुछ जगहों पर तो निर्दलियों ने पैसा खर्च करने के मामले में भाजपा-कांग्रेस के उम्मीदवारों को मीलों पीछे छोड़ दिया। रायपुर पश्चिम के एक वार्ड के एक निर्दलीय प्रत्याशी ने तो प्रदेश से बाहर गए कई वोटरों को लाने के लिए एयर टिकट तक का इंतजाम किया था।
रायपुर उत्तर के एक वार्ड के निर्दलीय प्रत्याशी तो दीवाली के बाद से ही थैली खोल दी थी। उन्होंने अपने वार्ड के रोजी मजदूरी करने वाले लोगों को प्रचार में झोंक दिया था। उनके आक्रामक प्रचार से कांग्रेस-भाजपा उम्मीदवार तक थर्राए हुए थे। यही नहीं, मतदान के दिन तो उसने खुले तौर पर नोट बंटवाए। मगर चुनाव नतीजे आए, तो निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों की बाहुल्यता वाले इस वार्ड के लोगों ने अपने विवेक का इस्तेमाल किया और व्यवहार कुशल-मेहनती समझे जाने वाले कांग्रेस प्रत्याशी को जिताया। निर्दलीय प्रत्याशी इतना कुछ खर्च करने के बाद अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए।
म्युनिसिपल चुनाव में तो कांग्रेस के महापौर पद के दो दावेदारों के चुनावी खर्च की भी जमकर चर्चा है। दोनों ने न सिर्फ अपने वार्ड में साधन-संसाधन झोंका बल्कि पड़ोस के वार्ड से चुनाव लड़ रहे महापौर पद के अन्य दावेदार को हराने के लिए भी भारी भरकम रकम खर्च की। मगर इतना कुछ करने के बाद भी दोनों दावेदारों की इच्छा पूरी नहीं हो पाई। इन चार-पांच वार्डों के चुनाव खर्च और कुल प्राप्त मतों से तुलना की जाए, तो प्रत्याशियों को एक-एक वोट के पीछे 2-3 हजार से अधिक खर्च करना पड़ा है। रायपुर उत्तर वार्ड के निर्दलीय प्रत्याशी को तो एक मत के पीछे 5 हजार से अधिक राशि खर्च करना पड़ा।
सट्टे का रेट उठता-गिरता रहा
खबर है कि म्युनिसिपल चुनाव में हाईप्रोफाइल भगवतीचरण शुक्ल वार्ड में महापौर प्रमोद दुबे की जीत-हार पर ही दो करोड़ से अधिक सट्टा लगा था। पहले प्रमोद दुबे को 70 पैसे का भाव दिया जा रहा था यानी प्रमोद दुबे की जीत आसान समझी जा रही थी। लेकिन पहली और दूसरी मतपेटी खुलने के बाद एक रूपए 70 पैसे तक भाव चला गया। तब प्रमोद दुबे करीब तीन सौ मतों से पीछे चल रहे थे। एक मौका ऐसा आया जब प्रमोद दुबे बढ़त भी बना चुके थे, लेकिन टीवी चैनलों में पिछडऩे की खबर ही चल रही थी।
कटोरा तालाब और कुछ अन्य इलाकों में तो सटोरिए प्रमोद दुबे की हार सुनिश्चित बताकर लोगों को रकम लगाने के लिए उकसाते रहे। बड़ी संख्या में लोग सटोरियों के झांसे में आ गए और दो करोड़ तक का सट्टा लग गया। शाम होते-होते तक भगवतीचरण वार्ड की तस्वीर साफ होती चली गई और प्रमोद दुबे सम्मानजनक बढ़त बना चुके थे। आखिर में उन्हें दो हजार से अधिक मतों से जीत हासिल हुई, जो कि उससे पहले के चुनावों में किसी भी कांग्रेस प्रत्याशी को उस वार्ड से इतनी बड़ी जीत नहीं मिली। प्रमोद दुबे की जीत पर सटोरियों ने जमकर चांदी काटी। ([email protected])
खुद दूल्हा बन बैठने का नुकसान
म्युनिसिपल चुनाव में इस बार रायपुर में वर्ष-1994 के चुनाव नतीजे रिपीट हुए हैं। उस समय महापौर बनने की चाह में अजेय माने जाने वाले विधायक तरूण चटर्जी, गौरीशंकर अग्रवाल, जगदीश जैन, राजीव अग्रवाल जैसे भाजपाई दिग्गज वार्ड चुनाव में उतर गए थे। लेकिन सभी को हार का सामना करना पड़ा। तरूण को रविशंकर शुक्ल वार्ड से दीपक दुबे ने बुरी तरह निपटा दिया। दिग्गजों के चुनाव मैदान में उतरने से भाजपा का चुनाव प्रबंधन बुरी तरह गड़बड़ा गया था। ये सभी खुद तो हारे और प्रबंधन कमजोर होने के कारण कई भाजपा प्रत्याशी भी पिट गए।
भाजपा नेताओं की हार से झल्लाए विधायक बृजमोहन अग्रवाल ने उस समय टिप्पणी की थी कि दुल्हन ढंूढने निकले थे और खुद ही दुल्हा बन गए...। उस समय म्युनिसिपल चुनाव में रायपुर में कांग्रेस को बहुमत मिला और कांग्रेस के बलवीर जुनेजा महापौर बने। अब 25 साल बाद भी भाजपा ने पिछली गलतियों से सबक नहीं सीखा। अपना वार्ड आरक्षित होने पर पार्टी के दिग्गज राजीव अग्रवाल, संजय श्रीवास्तव और सुभाष तिवारी, महापौर बनने की चाह में अड़ोस-पड़ोस के वार्ड से चुनाव मैदान में कूद गए। चूंकि छोटे चुनाव में स्थानीय कार्यकर्ताओं की काफी अपेक्षा रहती है और वे खुद चुनाव लडऩा चाहते हैं। ऐसे में इन सभी को अंतरविरोधों का सामना करना पड़ा। इसका प्रतिफल यह हुआ कि सभी कांगे्रस के नए नवेले युवाओं से हार गए।
लंबे भाषणों का दाम चुकाया?
धमतरी में राज्य बनने के बाद पहली बार भाजपा पिछड़ी है। इस बार भी भाजपा नेताओं को पूरी उम्मीद थी कि निगम में पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल जाएगा। यहां प्रचार की कमान पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर ने संभाल रखी थी। प्रचार के शुरूआती दौर में ऐसा लग रहा था कि भाजपा को आसानी से बहुमत मिल जाएगा। मगर आखिरी दो दिनों में प्रबंधन गड़बड़ा गया।
पार्टी के एक रणनीतिकार बताते हैं कि रमन सिंह के रोड शो-सभा के बाद माहौल बिगड़ गया। इसके लिए पार्टी संगठन के नेता जिम्मेदार हैं। हुआ यूं कि सभी 48 वार्ड के प्रत्याशियों को 5-5 हजार रूपए दिए गए थे। उन्हें भीड़ लाने के लिए कहा गया था। भीड़ तो काफी जुट गई, लेकिन हरेक प्रत्याशियों के 15-20 हजार रूपए खर्च हो गए।
चुनाव के वक्त में निचली बस्तियों के लोगों का समय काफी कीमती होता है। उन्हें एक दिन में कई रैलियों-प्रदर्शन में जाना होता है और बदले में अच्छी खासी कमाई हो जाती है। मगर लोगों के कीमती वक्त को इंदर चोपड़ा और विजय साहू जैसे नेताओं ने बर्बाद कर दिया। दोनों ने एक घंटा लंबा भाषण दे दिया। हाल यह रहा कि रमन सिंह के भाषण सुनने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं रह गई और उनका गुस्सा वार्ड प्रत्याशियों पर निकला। धमतरी को मैनेज करने के चक्कर में अजय चंद्राकर अपने विधानसभा क्षेत्र कुरूद को ही भूल गए और वहां भी कांग्रेस का कब्जा हो गया। ([email protected])
मतगणना के बाद तीर्थयात्रा?
वैसे तो छत्तीसगढ़ के म्युनिसिपल चुनाव नतीजे मंगलवार की देर शाम तक घोषित हो जाएंगे, लेकिन प्रदेश भर में महापौर-अध्यक्ष पद के लिए रस्साकसी 29 तारीख तक जारी रहेगी। इसके लिए कांग्रेस और भाजपा में मंथन चल रहा है। कांग्रेस में प्रभारी मंत्री कमान संभाल रहे हैं। जिन निकायों में बहुमत रहेगा वहां दिक्कत नहीं है, लेकिन जहां बहुमत नहीं है वहां निर्दलीय व अन्य को तोड़कर महापौर अथवा अध्यक्ष बनाने की कोशिश होगी। ऐसी स्थिति में पार्षदों को प्रदेश से बाहर पिकनिक पर भेजने की रणनीति बनाई जा रही है।
कांग्रेस के एक बड़े नेता ने कहा कि यह फैसला स्थानीय स्तर पर परिस्थितियों को देखकर लिया जाएगा। भाजपा में भी इसको लेकर कोर ग्रुप की बैठक में चर्चा हुई है। भाजपा नेता अपने पार्षदों को तोड़-फोड़ से बचाने के लिए पुरी और अन्य जगहों पर टूर प्लान कर रहे हैं। भाजपा के एक नेता का कहना है कि बहुमत नहीं होने पर संबंधित निकायों के पार्षदों को अपने साथ जोड़कर ज्यादा दिन तक नहीं रखा जा सकता। क्योंकि अविश्वास प्रस्ताव के जरिए उन्हें हटाया जा सकता है। वैसे भी जिनकी सरकार रहती है, उनके पास धन-बल और प्रशासन सबकुछ नियंत्रण में रहता है। ऐसे में यह मुहावरा फिट बैठता है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस।
झारखंड का असर होगा?
झारखंड चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा संगठन में सौदान सिंह की हैसियत कम हो सकती है। पार्टी हाईकमान ने सौदान सिंह को एक तरह से फ्री हैंड दे दिया था। सौदान की सिफारिश पर ही राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम को वहां का प्रभारी बनाया गया, लेकिन दोनों असफल साबित हुए। झारखंड के नतीजों का छत्तीसगढ़ में भी प्रभाव पडऩे की संभावना जताई जा रही है। प्रदेश में संगठन के चुनाव हो चुके हैं और अगले कुछ दिनों में प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव होंगे।
ऐसे में माना जा रहा था कि झारखंड में सफल होने पर सौदान सिंह की सिफारिश पर ही छत्तीसगढ़ में अध्यक्ष की नियुक्ति हो सकती है। मगर इसकी संभावना अब कम हो गई है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दुर्ग और अन्य स्थानों में विधानसभा चुनाव में हार की समीक्षा बैठक के दौरान कार्यकर्ताओं ने खुलकर सौदान सिंह और रमन सिंह को जमकर कोसा था। झारखंड चुनाव में विफलता से सौदान विरोधी काफी खुश हैं और उन्हें भरोसा है कि देर सवेर उन्हें छत्तीसगढ़ के प्रभार से मुक्त कर दिया जाएगा। वाकई ऐसा होता है या नहीं, नए अध्यक्ष की नियुक्ति में स्पष्ट हो पाएगा।
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महापौर के दावेदारों की संभावना
मतदान के बाद अंदाजा लगाया जा रहा है कि रायपुर नगर निगम के कांग्रेस से महापौर पद के दावेदार एन-केन प्रकारेण जीत जाएंगे। महापौर पद के दावेदार प्रमोद दुबे, एजाज ढेबर, अजीत कुकरेजा को दिक्कत नहीं है। ज्ञानेश शर्मा, श्रीकुमार मेनन जरूर त्रिकोणीय मुकाबले में फंसे हैं, लेकिन चर्चा है कि वे भी मैदान मार सकते हैं। सुनते हैं कि महापौर के दावेदार आपस में ही एक-दूसरे को निपटाने के लिए दमखम लगा रहे थे। इसलिए कुकरेजा को छोड़कर सभी कड़े मुकाबले में फंस गए थे। इन्हीं सब बातों को लेकर चुनाव प्रचार के दौरान एक प्रमुख दावेदार की तो दूसरे के भाई से तीखी बहस भी हुई थी।
छोटे चुनाव की खासियत यह है कि निपटने-निपटाने के खेल में कभी-कभी तीसरे को फायदा हो जाता है। बरसों पहले बैजनाथ पारा वार्ड चुनाव में लाल बादशाह को कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं ने निर्दलीय चुनाव मैदान में उतारा। और उन्हें भाजपा के लोगों ने भी साधन-सुविधाएं मुहैया कराई। ताकि कांग्रेस के अंदरूनी झगड़े का फायदा भाजपा को मिल सके, लेकिन निर्दलीय लाल बादशाह को इतना साधन संसाधन मिल गया कि वे खुद चुनाव जीत गए। कुछ इसी तरह की स्थिति प्रमोद दुबे के लिए भी बन गई थी। प्रमोद दुबे के खिलाफ लड़ रहे भाजपा प्रत्याशी सचिन मेघानी, निर्दलीय अप्पू वाडिया और जोगी पार्टी के राउल रउफी को काफी मदद मिली।
हल्ला तो यह भी है कि अप्पू को प्रमोद से जुड़े लोगों ने मदद की थी। ताकि सिंधी वोटों का बंटवारा हो सके, लेकिन अप्पू की स्थिति मजबूत लगातार होते चली गई। प्रचार के अंतिम दिनों में प्रमोद की टेंशन बढ़ गई थी। ऐसे मौके पर प्रमोद को पूर्व मंत्री विधान मिश्रा, जगदीश कलश, संता सिंह कोहली और तेज कुमार बजाज की चौकड़ी का साथ मिला। जगदीश तो वहां के पार्षद भी रह चुके हैं। संता सिंह कोहली चुनाव लड़ चुके हैं और बजाज इस बार कांग्रेस टिकट की होड़ में थे। अनुभवी चौकड़ी के खुलकर साथ आने से प्रमोद की राह आसान हो पाई। दावेदारों में अजीत के सबसे ज्यादा वोट से जीतने का अनुमान लगाया जा रहा है। छोटे से तेलीबांधा वार्ड के तकरीबन हर मतदाता को हर संभव 'मदद' की गई। ऐसे में अजीत के नाम सर्वाधिक वोटों से जीत का रिकार्ड बन जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
निर्दलियों की जरूरत पड़ेगी?
नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस का दबदबा कायम रहने का अनुमान लगाया जा रहा है। दुर्ग, राजनांदगांव और अंबिकापुर में कांग्रेस को स्पष्ट जीत मिल सकती है। जबकि भाजपा को चिरमिरी और रायगढ़ में सफलता मिल सकती है। रायपुर और बिलासपुर में अंदाजा लगाया जा रहा है कि दोनों नगर निगमों में महापौर बनवाने में निर्दलियों की भूमिका अहम रहेगी।
रायपुर नगर निगम का हाल यह रहा कि पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के विधानसभा क्षेत्र रायपुर दक्षिण में भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है। पिछले चुनाव में भी रायपुर दक्षिण से कांग्रेस को ज्यादा सफलता मिली थी। भाजपा के एक पूर्व विधायक यह कहते सुने गए कि यह भी रणनीति का हिस्सा है। हार में भी जीत छिपी होती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बृजमोहन के क्षेत्र में तो भाजपा का एक भी नेता विधानसभा स्तर का नहीं है।
चुनाव में बस्तर संभाग में कांग्रेस को ज्यादा सफलता मिलने का अनुमान है। जबकि बिलासपुर संभाग में भाजपा अच्छी स्थिति में आ सकती है। कांग्रेस में टिकट को लेकर विवाद काफी ज्यादा था और इस वजह से नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में कई जगहों पर नुकसान उठाना पड़ सकता है। इन सबके बावजूद पिछले निकाय चुनाव की तरह ही कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रह सकता है।
शक्कर मिलेगी या नहीं?
रायपुर नगर निगम के एक निर्दलीय प्रत्याशी ने मतदाताओं को रिझाने के लिए अनोखा तरीका अपनाया। प्रत्याशी ने वार्ड के ज्यादातर लोगों की राशन कार्ड की छाया प्रति लेकर एक अलग कार्ड बनवाया। इस कार्ड के जरिए लोगों को यह सुविधा दी गई कि वे प्रत्याशी के डिपार्टमेंटल स्टोर से 20 रूपए किलो में पांच किलो शक्कर ले सकते हैं। बड़ी संख्या में लोगों ने कार्ड भी बनवाए। प्रत्याशी ने यह भी वादा किया था कि चुनाव जीतने पर कार्डधारियों को पहली बार पांच किलो शक्कर मुफ्त दिए जाएंगे। अब देखना है कि चुनाव नतीजे आने के बाद लोगों को रियायती शक्कर मिल पाता है या नहीं, क्योंकि इतना सबकुछ करने के बावजूद इस निर्दलीय प्रत्याशी के जीतने की संभावना बेहद कम है।
ऐसे वक्त त्रिपुरा छोड़ रायपुर में!
त्रिपुरा के राज्यपाल रमेश बैस रायपुर में डटे हैं। उनकी निगाह स्वामी आत्मानंद वार्ड में टिकी है, जहां से उनके सगे भतीजे ओंकार बैस चुनाव लड़ रहे हैं। वे पार्टी के लोगों से चुनाव का हाल भी सुन रहे हैं। बैस की निकाय चुनाव में दिलचस्पी को लेकर पार्टी के भीतर कानाफूसी हो रही है। उनका दौरा ऐसे वक्त में हुआ है जब पूर्वोत्तर राज्य नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ जल रहा है। यह कहा जा रहा है कि विपरीत परिस्थितियों में बैस को त्रिपुरा में रहकर वहां की सरकार का मार्गदर्शन करना चाहिए था।
वैसे भी ओंकार नए नवेले नहीं हैं। वे एक बार पार्षद रह चुके हैं। उनके सगे छोटे भाई सनत अभी पार्षद हैं। ओंकार अनुभवी भी हैं। ऐसे में रमेश बैस को उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मगर बैस के विरोधियों को कौन समझाए कि 40 साल की सक्रिय राजनीति से एकाएक अलग होना आसान नहीं होता है। वैसे भी प्रदेश में बैस की पार्टी की सरकार नहीं है। ऐसे में बैसजी अपने लोगों का थोड़ा बहुत मार्गदर्शन कर रहे हैं, तो इसको गलत नहीं कहा जा सकता। उत्तर-पूर्व तो वैसे भी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ही देख रहे हैं, और वे देख ही लेंगे।
भाजपा में कार्रवाई शुरू
भाजपा ने अपने बागियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी है। उन लोगों के खिलाफ भी कार्रवाई की गई है, जो अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ काम कर रहे हैं। पार्टी ने पूर्व विधायक श्रीचंद सुंदरानी के कट्टर समर्थक श्याम चावला को निलंबित कर दिया है। सुंदरानी की भूमिका को लेकर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
सुनते हैं कि सुंदरानी की सिफारिश पर तेलीबांधा के मंडल अध्यक्ष की टिकट काटकर दीपक भारद्वाज को प्रत्याशी बनाया गया। तेलीबांधा मंडल के तीनों प्रत्याशियों की हालत खस्ता है। इसके लिए अप्रत्यक्ष रूप से सुंदरानी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसके अलावा संजय श्रीवास्तव, प्रफुल्ल विश्वकर्मा और राजीव अग्रवाल, तीनों वार्ड का चुनाव लड़ रहे हैं। ये तीनों जीत कर आते हैं, तो ये रायपुर उत्तर विधानसभा टिकट के भी दावेदार हो जाएंगे। ऐसे में श्रीचंद के लिए दिक्कतें बढ़ सकती हैं।
फंड के रास्ते पर झगड़ा
नगरीय निकाय चुनाव में साधन-संसाधन को लेकर राजनांदगांव में दो नेताओं के बीच झड़प की गूंज रायपुर तक सुनाई दी है। सुनते हैं कि निकाय चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों का फंड पहुंचाने का जिम्मा एक बड़े कारोबारी के करीबी नेता को दिया गया। इसकी भनक लगने पर वहां के जिले के एक प्रमुख पदाधिकारी ने आपत्ति की और फंड पहुंचा रहे नेता से बहस शुरू कर दी।
कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशियों को 'आर्थिक संकट' से उबारने गए नेता ने झगड़े का मुंहतोड़ जवाब देते 'ऊपरÓ से मिले आदेश का पालन की जानकारी दी। इसके बाद भी पदाधिकारी का गुस्सा कम नहीं हुआ। पदाधिकारी अपने जरिए प्रत्याशियों को फंड आबंटन चाहते थे। बढ़ते झगड़े के बीच दोनों नेता ने एक-दूसरे को धमकी दी। सुनते हैं कि आर्थिक मदद करने गए नेता सीधे पदाधिकारी के घर धमक गए। घर में भी दोनों में जमकर तकरार हुई। विवाद के बीच पदाधिकारी के पिता ने बीच-बचाव कर दूसरे को पुराने रिश्ते का हवाला देकर शांत किया। बताते है कि इस मामले को लेकर शीर्ष नेतृत्व को जानकारी दी गई।
साल भर बाद महज शिकायत !
रायपुर की मेयर रही हुईं, और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की करीबी सहयोगी किरणमयी नायक ने आरडीए के अध्यक्ष रहे हुए और अभी भाजपा के वार्ड प्रत्याशी संजय श्रीवास्तव के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का एक पुलिंदा एसीबी-ईओडब्ल्यू जाकर दिया तो मामला पहली नजर में बहुत बड़ा लगा। लेकिन प्रदेश में कांगे्रस की सरकार बनने की सालगिरह के बाद आज महज आरोप म्युनिसिपल-मतदान के 48 घंटे पहले आना कुछ अटपटा इसलिए है कि ये आरोप तो विधानसभा चुनाव के पहले से चर्चा में थे और राज्य की कांगे्रस सरकार चाहती तो इसकी जांच करके अब तक इस पर एफआईआर हो चुकी रहती, गिरफ्तारी हो चुकी रहती, और बहुत संभावना है कि बाकी कई मामलों की तरह हाईकोर्ट से जांच पर स्टे भी मिल गया होता। लेकिन ऐसा कुछ भी न होकर आज शिकायत होना थोड़ा सा अटपटा है, और यह वोटरों के गले कितना उतरेगा इस पर अटकल ही लगाई जा सकती है। ([email protected])
इधर सिंधी तो उधर मुस्लिम
नागरिक संशोधन कानून से नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा को बड़े फायदे की उम्मीद है। पाकिस्तान से आए सिंधी समाज के लोग दसियो हजार की संख्या में छत्तीसगढ़ में बसे हुए हैं और उन्हें नागरिकता नहीं मिल पा रही है। नए कानून के प्रभावशील होने के बाद उन्हें नागरिकता मिलने की उम्मीद है। भाजपा इस कानून को अपने पक्ष में भुनाने में लगी है और बाकी सिंधी वोटरों को लामबंद करने के लिए तगड़ी कोशिश चल रही है। खुद बृजमोहन अग्रवाल इस मुहिम में जुटे हुए हैं।
बृजमोहन ने सिंधी समाज के अलग-अलग लोगों के साथ बैठकें की। सिंधी समाज के लोगों के लिए पापड़-पानी का खास इंतजाम भी किया गया था। पार्टी के रणनीतिकारों का अनुमान है कि सिंधी वोटर एकजुट होकर भाजपा के पक्ष में मतदान करते हैं, तो दर्जनभर वार्डों में पार्टी उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित हो सकती है। इन वार्डों में सिंधी वोटर निर्णायक भूमिका में हैं। मगर इस कानून के चलते नुकसान का भी अंदेशा है।
और फिर सिख भी तो हैं...
नागरिक संशोधन कानून को मुस्लिम विरोधी प्रचारित किया गया है। यह सब देखकर रायपुर दक्षिण विधानसभा के एक वार्ड का भाजपा के लोगों ने सर्वे भी कराया। जिसमें यह बात उभरकर सामने आई कि एक भी मुस्लिम, भाजपा को वोट देने के पक्ष में नहीं है। जबकि उस वार्ड में भाजपा के अल्पसंख्यक नेता काफी सक्रिय भी हैं। भाजपा को सिख वोटों का झटका भी लग सकता है। पार्टी ने एक भी सिख उम्मीदवार नहीं खड़ा किया है, इससे उनमें काफी नाराजगी है। सिख समाज के प्रमुख नेताओं की बैठक भी हुई है। हाल यह है कि सिख-पंजाबी वोटर कांग्रेस के पक्ष में लामबंद होते दिख रहे हैं। खैर, कौन-किसके पक्ष में है, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही साफ हो पाएगा। रायपुर शहर में ही कम से कम तीन-चार वार्ड ऐसे हैं जिनमें सिख वोट नाराजगी की हालत में संतुलन बिगाड़ सकते हैं।
यह बात मोटे तौर पर तो रायपुर को लेकर लिखी जा रही है लेकिन बाकी छत्तीसगढ़ में भी जगह-जगह इन तीन समुदायों की सघन बसाहट है, उन वार्डों के नतीजे वार्ड के बाहर के मुद्दों से प्रभावित होंगे, कई वार्डों में राष्ट्रीय मुद्दों का असर होगा।
धान को पसीने छूट रहे हैं...
धान खरीद नियम में बार-बार बदलाव से कांग्रेस को नगरीय निकाय चुनाव में नुकसान उठाना पड़ सकता है। नगर पालिका और नगर पंचायतों में खेतिहर लोग ज्यादा संख्या में रहते हैं। नियमों में बदलाव से उन्हें काफी असुविधा का सामना करना पड़ा है। जिसके चलते उनमें नाराजगी है। जबकि विधानसभा चुनाव में नगर पालिका और नगर पंचायतों में कांग्रेस के पक्ष में एकतरफा माहौल था। सरकार से जुड़े एक उच्च पदस्थ व्यक्ति ने आपसी बातचीत में कहा कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का धान खरीदी का तुरूप का पत्ता अफसरों ने चिड़ी की दुक्की बनाने में कोई कसर नहीं रखी, अब बाद का डैमेज कंट्रोल कितना काम आता है, यह किसान आबादी के वोट गिने जाने पर पता लगेगा।
धान खरीदी की बदइंतजामी, और पारे की तरह अस्थिर नियमों-शर्तों के चलते जो नुकसान हो रहा था, उस पर कांग्रेस के रणनीतिकारों ने डैमेज कंट्रोल की पूरी कोशिश की है और इसका कुछ फर्क भी पड़ा है। मगर कर्जमाफी और 25 सौ क्विंटल धान खरीद के बाद जिस तरह छोटे-बड़े किसान कांग्रेस के पक्ष में लामबंद रहे हैं। वह स्थिति अब छोटे निकायों में देखने को नहीं मिल रही है। यहां भाजपा फिर से मजबूत दिख रही है। बस्तर और सरगुजा संभाग में तो कुछ निकायों को छोड़ दें, तो यहां कांग्रेस के पक्ष में माहौल दिख रहा है। बस्तर में भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
सौदान सिंह की सक्रियता फिर...
भाजपा संगठन के बड़े नेता सौदान सिंह छत्तीसगढ़ में एक बार फिर सक्रिय दिख रहे हैं। उन्होंने सभी जिले के प्रभारियों और प्रमुख नेताओं से चर्चा कर चुनाव का हाल जाना और छोटी मोटी समस्याओं को हल करने के लिए खुद पहल की है। दिलचस्प बात यह है कि हाल ही में बस्तर में दो विधानसभा के उपचुनाव हुए थे, लेकिन उन्होंने झारखण्ड चुनाव में व्यस्तता का हवाला देकर दूरियां बना ली थी। दोनों में ही भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। और तो और सौदान सिंह ने संगठन चुनाव से भी खुद को दूर रखा और यहां झगड़े को निपटाने के लिए भी कोई पहल नहीं की। ये अलग बात है कि झारखंड चुनाव के बीच में ही रायपुर आए और एक विवाह समारोह में शामिल होने चार दिन तक डटे रहे। अब झारखंड चुनाव के बीच में ही छत्तीसगढ़ में नगरीय निकाय चुनाव की सुध ले रहे हैं, तो उसको लेकर पार्टी नेताओं में कानाफूसी हो रही है। कुछ का अंदाजा है कि विधानसभा चुनाव की तुलना में नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन बहुत बेहतर रहेगा, इसलिए सौदान सिंह रूचि ले रहे हैं, वहीं कुछ का कहना है कि वे दिलचस्पी ले रहे हैं इसलिए नतीजे बेहतर होंगे। ([email protected])
योगी-मोदी क्या सोचेंगे?
देश के कई प्रदेशों में उत्तर भारत को अनपढ़, निकम्मा, या मुजरिम मान लिया जाता है और वहां के लोगों के खिलाफ आमतौर पर एक साथ तोहमत जड़ दी जाती है। हिन्दी इलाकों में कई जगह मुजरिमों का जिक्र करने के लिए यूपी-बिहार वाले कह दिया जाता है। रायपुर शहर भाजपा अध्यक्ष राजीव कुमार अग्रवाल म्युनिसिपल के वार्ड का चुनाव लड़ रहे हैं। एक वार्ड चुनाव के हिसाब से वे खासे बड़े नेता हैं, और उनके वार्ड के लोगों को भी इस बात का अहसास है कि वे पार्षद नहीं शायद मेयर चुन रहे हैं, अगर शहर में भाजपा के पार्षदों का बहुमत रहे। आज सुबह उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट किया है- हमें जानकारी मिली है कि महर्षि वाल्मीकि वार्ड, वार्ड नंबर 32 में बूथ लूटने का प्लान भी विरोधी पक्ष करने वाला है। वे यह जान लें कि यह छत्तीसगढ़ है, यूपी, बिहार, या बंगाल नहीं। यह शांतिप्रिय प्रदेश है, अशांति फैलाने वालों को यह प्रदेश बर्दाश्त नहीं करता।
अब राजीव अग्रवाल ने यह लिख तो दिया है, लेकिन अगर कोई यह बात उन्हीं की भाजपा के यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बताए, तो उन्हें यह बात अपनी बेइज्जती लगेगी कि उनके रामराज के बारे में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ऐसे ख्याल रखते हैं। दूसरी तरफ बिहार में भी भाजपा सत्ता में है, और पता नहीं उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी इस बारे में क्या सोचेंगे। रहा बंगाल का सवाल तो वहां कानून व्यवस्था के बदहाल को लेकर ऐसी बात कहना भाजपा का हक है। राजीव अग्रवाल के बयान से शहर के किनारे औद्योगिक क्षेत्र में बसे हुए यूपी-बिहार के लाखों लोगों के बीच भी भाजपा के उम्मीदवारों से कोई सवाल कर सकता है।
हाई वोल्टेज वार्ड
वैसे तो जोगी पार्टी रायपुर नगर निगम के 40 वार्डों में चुनाव लड़ रही है, लेकिन उनके एक-दो प्रत्याशी ही मुख्य मुकाबले में दिख रहे हैं। ऐसे में जोगी पिता-पुत्र ज्यादातर वार्डों में प्रचार के लिए नहीं जा रहे हैं। उन्होंने सिर्फ एकमात्र मोतीलाल नेहरू वार्ड पर ध्यान केन्द्रित किया हुआ है। यहां से उनकी पार्टी से पन्ना साहू चुनाव मैदान में हैं। पन्ना साहू धरसींवा से विधानसभा चुनाव लड़े थे और करीब 15 हजार वोट हासिल किए थे। यहां पूर्व मंत्री सत्यनारायण शर्मा और पूर्व विधायक देवजी पटेल की प्रतिष्ठा भी दांव पर है।
सत्यनारायण शर्मा ने विधानसभा चुनाव में उनकी मुखालफत करने वाले दो बार के पार्षद अनवर हुसैन की टिकट कटवा दी। इससे बौराए अनवर हुसैन न सिर्फ खुद निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, बल्कि उन्होंने उन सीटों पर भी निर्दलीय उम्मीदवार खड़े किए हैं जहां से सत्यनारायण शर्मा की पसंद पर कांग्रेस ने प्रत्याशी तय किए हैं।
मोतीलाल नेहरू वार्ड से सत्यनारायण शर्मा के करीबी तेज तर्रार वीरेन्द्र टंडन उर्फ अब्बी चुनाव मैदान में हैं। जबकि भाजपा ने पहले गोपेश साहू को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन बाद में देवजी की सिफारिश पर अशोक सिन्हा को टिकट दे दी गई। इससे नाराज गोपेश साहू निर्दलीय चुनाव मैदान में उतर गए हैं। अब गोपेश न सिर्फ अपने वार्ड में बल्कि पड़ोस के पड़ोस के वार्ड से चुनाव लड़ रहे राजीव अग्रवाल के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। कुल मिलाकर जोगी पिता-पुत्र की आक्रामक रणनीति, सत्यनारायण के तेज प्रचार और निर्दलियों के दमखम से यहां चुनावी मुकाबला रोचक हो गया है।
भाजपा से लडऩा दिक्कत बन गया
तीन बार के निर्दलीय पार्षद मृत्युंजय दुबे इस बार सुंदरनगर वार्ड से भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। मृत्युंजय न सिर्फ सुंदरनगर बल्कि अगल-बगल के वार्डों में भी प्रभाव रखते हैं। मगर भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लडऩे से उनके लिए दिक्कतें पैदा हो गई है। क्योंकि वे हमेशा से कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को कोसते रहे हैं। उनके बड़े भाई अनिल दुबे छत्तीसगढ़ समाज पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हैं, जो कि भाजपा नेताओं के खिलाफ कड़वे वचन के लिए पहचाने जाते हैं।
दुबे बंधु कई मायनों में अन्य नेताओं से अलग हैं। वे धूम्रपान नहीं करते और शुद्ध शाकाहारी भी हैं। मृत्युंजय तो कभी किसी से हाथ नहीं मिलाते। कोई हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाता है, तो वे दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार कर देते हैं। ऐसा नहीं कि वे कोई छुआ-छूत जैसी सामाजिक विकृतियों पर विश्वास रखते हैं, उनका परिवार आनंदमार्गी संप्रदाय से जुड़ा हुआ है और उनकी परम्पराओं पर विश्वास करते हैं। मगर उनके हाथ न मिलाने को भी विरोधी चुनाव प्रचार में उनके खिलाफ उपयोग कर रहे हैं। इससे परे अनिल दुबे, मृत्युंजय जितने कट्टर नहीं है। उनकी खासियत यह है कि वे जेब में हाथ नहीं डालते। उनका शहर के महंगे होटलों में डेरा रहता है। उनसे मेल मुलाकात के लिए आए लोगों का अनिल दुबे हमेशा चाय-जलपान से स्वागत करते हैं। उन्हें कभी किसी होटल में बिल देने के लिए जेब में हाथ डालते नहीं देखा गया। उनका इतना प्रभाव-सम्मान है कि होटलवाले भी कभी उन्हें कोई बिल नहीं देते। ([email protected])
मजबूत पकड़, पर चुनौती कायम...
ढेबर बंधु इन दिनों सुर्खियों में हैं। गुजराती मूल के ढेबर बंधुओं में सबसे छोटे एजाज ढेबर मौलाना अब्दुल रउफ वार्ड से चुनाव लड़ रहे हैं और उन्हें महापौर पद का दावेदार भी माना जा रहा है। कभी जोगी के करीबी रहे ढेबर बंधु अब सीएम भूपेश बघेल के करीबी माने जाते हैं। उनकी सत्ता के गलियारों में गहरी पकड़ है। कबाड़ के धंधे से आगे बढऩे वाले ढेबर बंधुओं को शहर के बड़े बिल्डरों में गिना जाता है। दो दिन पहले सीएम भूपेश बघेल और रायपुर जिले के प्रभारी मंत्री रविन्द्र चौबे ने एजाज ढेबर के समर्थन में सभा ली थी।
सभा में चौबे ने यह कहा कि एजाज में शहर का विकास करने की क्षमता है। प्रभारी मंत्री के इस बयान के राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं और यह कहा जा रहा है कि चुनाव जीतने पर उन्हें अहम जिम्मेदारी दी जा सकती है। धनबल से मजबूत होने के बावजूद एजाज की राह आसान नहीं है। वजह यह है कि उनके खिलाफ भाजपा से तीन बार के पार्षद सुनील बांद्रे चुनाव मैदान में हैं, जिन्हें बेहद विनम्र और मिलनसार माना जाता है। इससे परे ढेबर बंधु गलत वजहों से भी चर्चा में रहे हैं। एजाज के बड़े भाई याहया ढेबर को एनसीपी नेता रामअवतार जग्गी हत्याकांड प्रकरण में उम्रकैद की सजा हुई थी। खुद एजाज ढेबर बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ विधानसभा का चुनाव लडऩा चाहते थे और उसके लिए चुनाव के पहले कई महीने भूपेश बघेल के आसपास मेहनत भी की थी। जब टिकट नहीं मिली तो एजाज के समर्थकों ने राजीव भवन में तोडफ़ोड़ भी की थी, जिसकी बाद में उन्होंने मरम्मत करवाई थी।
ढेबर समर्थकों का मानना है कि उन्हें जग्गी हत्याकांड में फंसाया गया था। इस प्रकरण के बाद ही ढेबर बंधुओं ने अजीत जोगी से अपना नाता तोड़ लिया था। सुनते हैं कि गुजराती लिंक के कारण कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष अहमद पटेल से ढेबर बंधुओं की सीधी जान-पहचान है। यह भी प्रचारित हो रहा है कि यदि एजाज चुनाव जीतते हैं, तो अहमद पटेल से नजदीकियों के चलते आगे की राह आसान हो जाएगी। चाहे कुछ भी हो, एजाज को लेकर प्रचार-प्रसार के चलते उनका वार्ड हाईप्रोफाइल हो गया है।
राह आसान नहीं...
मौदहापारा वार्ड से कांग्रेस प्रत्याशी अनवर हुसैन किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। सात साल पहले उन्होंने इंदिरा गांधी कृषि विवि के कार्यक्रम में तत्कालीन सीएम रमन सिंह को किसानों की समस्या को लेकर खुली चुनौती दे दी थी। उस वक्त के केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार भी मौजूद थे। अनवर की चुनौती पर रमन सिंह अपना आपा खो बैठे फिर क्या था, पुलिस ने उन्हें पीट-पीटकर कार्यक्रम स्थल से बाहर निकाला था।
सीमित संसाधनों से चुनाव लड़ रहे अनवर की साख अच्छी है। उन्हें जुझारू माना जाता है। मगर कांग्रेस के कई स्थानीय नेता बागी उम्मीदवार को मदद कर रहे हैं। मौदहापारा परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर का निवास स्थान भी है। लिहाजा, उनकी भी प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। वैसे तो मौदहापारा हमेशा कांग्रेस का गढ़ रहा है, लेकिन बागी उम्मीदवार की दमदार मौजूदगी से अनवर की राह आसान नहीं रह गई है। हाल यह है कि खुद अकबर को नाराज नेताओं को मनाने के लिए आगे आना पड़ रहा है। ऐसे में कांग्रेस को अपना गढ़ बचाने के लिए इस बार तगड़ी चुनौती मिल रही है।
पुराने साथी आमने-सामने, पर साथ भी
स्कूल के दिनों के साथी नवीन चंद्राकर और मुकेश कंदोई रायपुर म्युनिसिपल चुनाव के चलते आमने-सामने हो गए हैं। नवीन और मुकेश, दोनों ही ने कालीबाड़ी स्कूल में एक साथ छठवीं से बारहवीं तक पढ़ाई की थी। नवीन कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता हैं और वे महापौर प्रमोद दुबे के सचिव हैं। जबकि मुकेश का अपना कारोबार है। मगर सदरबाजार वार्ड से दोनों की पत्नियां चुनाव लड़ रही हैं। अच्छी बात यह है कि दोनों पुराने दोस्त चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी से परहेज कर रहे हैं और सिर्फ अपनी पार्टी और अपना एजेंडा लेकर वोट मांग रहे हैं।
इसे देखकर कुछ दिन पहले फेसबुक पर पोस्ट की गई एक फोटो याद पड़ती है जिसमें राज्य सरकार के मीडिया सलाहकार और कांगे्रस में गए हुए रूचिर गर्ग, सीपीएम के संजय पराते, और आम आदमी पार्टी के डॉ. संकेत ठाकुर एक साथ दिख रहे हैं और तीनों रायपुर की कालीबाड़ी स्कूल में एक साथ पढ़े हुए भी हैं। तीन अलग-अलग पार्टियां, तीनों में चर्चित और जुझारू, और आज भी संबंध अच्छे।
जंगल में मंगल जारी...
नए साल में आधा दर्जन से अधिक आईएफएस अफसर पदोन्नत होने जा रहे हैं। इसके लिए डीपीसी की तैयारी चल रही है। वर्ष-2006 बैच के आधा दर्जन डीएफओ अब सीएफ के पद पर पदोन्नत हो जाएंगे। सीएफ के पद पर पदोन्नति के लिए न्यूनतम 14 साल की सेवा जरूरी है। इसके अलावा सीसीएफ स्तर के अफसर बीपी लोन्हारे और नरेन्द्र पाण्डेय 31 तारीख को रिटायर हो रहे हैं। उनके रिटायरमेंट के बाद सीसीएफ के दो रिक्त पदों पर भी पदोन्नति होगी।
एपीसीसीएफ से पीसीसीएफ के एक रिक्त पद के लिए सीनियर एपीसीसीएफ नरसिम्हा राव को पदोन्नति देने की तैयारी चल रही है। नरसिम्हा राव सबसे ज्यादा पर्यावरण संरक्षण मंडल के सदस्य सचिव रहे हैं। पिछली सरकार में विभागीय मंत्री ने मीटिंग में ही उनके खिलाफ टिप्पणी कर दी थी बाद में उन्हें पद से हटाकर वापस वन विभाग भेज दिया गया। हालांकि कई लोग नहीं चाहते कि वे पदोन्नत हो, लेकिन सरकार किसी से भेदभाव करते नहीं दिखना चाहती है। ऐसे में उन्हें हफ्ते-दस दिन में उन्हें पदोन्नत किया जा सकता है। ([email protected])
घर के लोगों को निपटाने के लिए...
कांग्रेस और भाजपा के महापौर पद के दावेदार नेता अपने ही दल के अन्य दावेदारों को निपटाने में जुटे हैं। कुछ को इसके प्रमाण भी मिले हैं। सुनते हैं कि कांग्रेस के महापौर पद के एक दावेदार अपने ही दल के एक अन्य प्रबल दावेदार के वार्ड से निर्दलीय उम्मीदवार खड़े करने की कोशिश में जुटे थे। जिस नेता को निर्दलीय उम्मीदवार बनाने की कोशिश की गई, उसे पहले के चुनाव में उसी वार्ड से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में अच्छे खासे वोट मिले थे। निर्दलीय उम्मीदवार को भारी भरकम फाइनेंस का वादा भी किया गया था, लेकिन बाद में उसने अधिकृत उम्मीदवार के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने से मना कर दिया। इसके बाद अब प्रबल दावेदार को निपटाने के लिए जोगी पार्टी के प्रत्याशी पर काफी दांव लगाया जा रहा है ताकि महापौर दावेदार वार्ड में ही निपट जाए।
कुछ ऐसा ही हाल भाजपा में भी है। भाजपा के महापौर पद के एक दावेदार के खिलाफ दल के ही बागी निर्दलीय उम्मीदवार ने मोर्चा खोले हुए हैं। निर्दलीय उम्मीदवार के चाचा को भाजपा ने टिकट भी दी है और चाचा के जरिए भतीजे निर्दलीय उम्मीदवार को बिठाने की कोशिश भी हुई। मगर इसमें सफलता नहीं मिली। सुनते हैं कि खुद चाचा ने अपने भतीजे को नाम वापस कराने में कोई ज्यादा पहल नहीं की। दल के अन्य नेताओं द्वारा दबाव बनाए जाने पर चाचा ने खुद मैदान छोडऩे की धमकी दे दी। भतीजे को बागी बनाने में पार्टी के लोगों की अहम भूमिका रही है।
और इधर घर के भीतर...
नगरीय निकाय चुनाव के तुरंत बाद पंचायत के चुनाव होंगे। पंचायत चुनाव मैदान में उतरने के इच्छुक नेताओं ने अपने इलाकों में सक्रियता बढ़ा दी है। भाजपा के एक पूर्व मंत्री के घर में चुनाव से पहले ही झगड़ा शुरू हो गया है। सुनते हैं कि मंत्री के पुत्र खुद जिला पंचायत का चुनाव लडऩा चाहते हैं। जबकि उनकी पत्नी और मंत्री की पुत्रवधु भी चुनाव लडऩे की इच्छुक हैं। बेटे-बहू में से किसको चुनाव लड़ाए, यह फैसला पूर्व मंत्री के लिए कठिन हो चला है। क्योंकि दोनों ही चुनाव लडऩा चाहते हैं। फिलहाल तो पूर्व मंत्री मान मनौव्वल में ही जुटे हैं।
खतरे का तजुर्बा
राजधानी नया रायपुर की जंगल सफारी में कल सैलानियों से भरी एक सुरक्षित गाड़ी खराब हो गई तो सिंहों-शेरों के डर में गाड़ी के लोग बेचैन हो गए। बात में दूसरी गाड़ी आई और इसे खींचकर ले गई, तब तक लोगों का रोमांच अगली दो पीढ़ी को बताने लायक किस्सों से भर गया। सुरक्षित जाली के भीतर लोग जितने बेचैन हुए, उन्हें अब आगे यह अहसास भी रहेगा कि जंगल विभाग के कर्मचारी ऐसे जानवरों के बीच कैसे काम करते हैं, और कैसे जंगली जानवरों के इलाकों के ग्रामीण वहां जीते हैं। इस थोड़ी सी देर में तमाम सुरक्षा के बीच भी खुले जंगलों के खतरों का थोड़ा सा अंदाज लगा होगा। ([email protected])
सबसे लोकप्रिय प्रत्याशी, चेपटी...
चुनाव प्रचार के दौरान ज्यादातर वार्ड प्रत्याशियों को नित नई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। बस्तियों में चेपटी की बड़ी मांग है, लेकिन इसकी पूर्ति करने में प्रत्याशियों को दिक्कत हो रही है। एक प्रत्याशी ने अपनी व्यथा सुनाई कि शराब दूकानों में दो-तीन बोतल से अधिक खरीदने पर बाहर सादे कपड़े में तैनात पुलिस कर्मी जब्त कर ले रहे हैं। बाद में उन्हीं पुलिस वालों से चेपटी लेना पड़ रहा है। यानी एक बोतल की कीमत दोगुनी हो जा रही है। कुछ प्रत्याशियों ने इसका तोड़ निकाल भी लिया है, वे अब नगद राशि दे रहे हैं। कुछ वार्डों में बिरयानी पार्टी चल रही है। इतना सब कुछ करने के बाद भी प्रत्याशी निश्चिंत नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि एक-एक वोटर कई लोगों से माल पा रहे हैं। खैर, अभी तो लोगों की निकल पड़ी है।
कद्दू कटने की उम्मीद...
वैसे तो 24 तारीख को नगरीय निकाय चुनाव के नतीजे घोषित हो जाएंगे। मगर पुलिस-प्रशासन का टेंशन खत्म नहीं होने वाला है। वजह यह है कि 30 तारीख तक महापौरों-अध्यक्षों के चुनाव होंगे। इसमें निर्वाचित पार्षदों के बीच चुनाव होगा। चूंकि दलबदल कानून निकायों में लागू नहीं है इसलिए खरीद-फरोख्त की आशंका जाहिर की जा रही है। भाजपा अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के विरोध में रही है। चाहे कुछ भी हो, किसी एक पार्टी के पार्षदों का बहुमत न होने की हालत में निर्दलियों के भाव काफी ऊं चे रहेंगे, क्योंकि बड़े शहरों और महंगे इलाकों में पार्षद बनना अपने आपमें काफी फायदे का काम रहता है, और जब उनके वोट से मेयर या अध्यक्ष बनने की नौबत आए, तो वे भी कद्दू का एक टुकड़ा चाहेंगे। पुरानी बात है कि कद्दू कटे, तो सबमें बंटे।
हारने वाले का इंतजार!
वैसे तो रायपुर समेत 10 जिला भाजपा अध्यक्षों के चुनाव स्थगित हो गए हैं। इन जिलों में अध्यक्ष की नियुक्ति प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव के बाद होंगे। राजधानी रायपुर के शहर अध्यक्ष पद को काफी अहम माना जाता है और पार्टी के सभी बड़े नेता अपने करीबी को अध्यक्ष बनाने की कोशिश में रहते हैं। रायपुर शहर में संगठन की कमान किसे सौंपी जाएगी, इसको लेकर पार्टी हल्कों में चर्चा चल रही है। संगठन के एक जानकार ने दावा किया कि जो पार्षद चुनाव में हारेगा उसे शहर जिला संगठन की कमान सौंपी जा सकती है।
यह तर्क दिया जा रहा है कि महापौर पद के दावेदार, जिलाध्यक्ष बनने की होड़ में रहे हैं। इतिहास भी बताता है कि हारे हुए नेता को संगठन की कमान सौंपने में परहेज नहीं रहा है। अविभाजित मध्यप्रदेश में बालू भाई पटेल शहर जिला के अध्यक्ष थे, जो कि पार्षद का चुनाव भी हार चुके थे। इसके बाद जगदीश जैन अध्यक्ष बने, जो कि पद पर रहते पार्षद का चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद अध्यक्ष बने गौरीशंकर अग्रवाल को भी पार्षद चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। उनके बाद के अध्यक्ष सच्चिदानंद उपासने तो कभी कोई भी चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद के अध्यक्ष राजीव अग्रवाल, अशोक पाण्डेय भी पार्षद चुनाव हार चुके हैं। ये दोनों फिर चुनाव मैदान में हैं।
राजीव अग्रवाल की जगह जिन नामों पर चर्चा चल रही है उनमें सुभाष तिवारी, संजय श्रीवास्तव, संजूनारायण सिंह ठाकुर और ओंकार बैस के नामों की चर्चा चल रही है। यह भी संयोग है कि ये सभी पार्षद का चुनाव भी लड़ रहे हैं। अगर इनमें से चुनाव हार चुके नेता को संगठन की कमान सौंपी जाती है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। क्योंकि इतिहास अपने आप दोहराता है।
चुनाव में मजदूरी क्या बुरी?
म्युनिसिपल वार्डों के चुनाव खासे महंगे हो रहे हैं, जितनी महंगी बस्ती, जितने ताकतवर उम्मीदवार, उतने ही महंगे प्रचार का नजारा हो रहा है। शहर की एक महंगी कॉलोनी में हर दिन आधा दर्जन जुलूस निकल रहे हैं जिनमें सौ-दो सौ महिला-बच्चे किसी बुलंद आवाज वाले आदमी के नारों को दुहराते हुए, झंडे और पोस्टर लिए हुए, कैप लगाए हुए, और पर्चियां बांटते हुए चल रहे हैं। हो सकता है कि जुलूस में शामिल लोगों को रोजी मिल रही हो, लेकिन इसमें बुरा क्या है? कोई अगर भाड़े पर प्रचार करने वाले कहकर गाली देना चाहें, तो उन्हें याद दिलाना पड़ेगा कि इसी हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी म्युनिसिपल या पंचायत, देश की संसद में सवाल पूछने के लिए भाड़े के मुंह बाजार में खड़े थे, और संसद ने वह पूरी खरीद-बिक्री देखी हुई है। ऐसे में दिन भर मजदूरी करने, प्रचार करने के लिए अगर किसी को भुगतान मिलता है, तो वह सांसदों की बिक्री जैसा बदनाम धंधा नहीं है, वह मेहनत-मजदूरी का काम है जो कि मीडिया से जुड़े हुए कई नामी-गिरामी लोग भी चुनाव के वक्त करने लगते हैं। चुनाव के वक्त खासा कमाते हुए मीडिया वाले भी जिस तरह अपनी कलम बेचते हैं, उसके मुकाबले तो नारे लगाने वाले लोग महज मजदूर हैं, और सौ फीसदी ईमानदारी की मजदूरी ले रहे हैं।
मतदाताओं के सामने सवाल
म्युनिसिपल चुनाव छत्तीसगढ़ में वैसे तो चुनाव चिन्हों पर, पार्टी के आधार पर हो रहे हैं, लेकिन वोटरों के सामने सवाल बहुत सारे खड़े हैं। पसंद की पार्टी को वोट दें, या उसके नापसंद उम्मीदवार को वोट दें, या नापसंद पार्टी के पसंद आ रहे प्रत्याशी को वोट दें, या दिल्ली की तरह आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दें, और उम्मीद करें कि वार्ड का नक्शा उसी तरह बदल जाएगा जिस तरह केजरीवाल ने दिल्ली में अच्छे काम किए हैं? किसी पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को वोट दें, या उसकी टिकट न पाने वाले बेहतर-बागी उम्मीदवार को चुनें? ये सवाल छोटे नहीं हैं, खासे बड़े हैं, और न सिर्फ अपने वार्ड का, बल्कि पूरे शहर का अगले पांच बरस का भविष्य तय करने वाले सवाल हैं। लोगों को अपने आसपास के दूसरे वोटरों से भी बात करना चाहिए कि क्या किया जाए? कुछ पार्टियों और कुछ प्रत्याशियों के तो समर्पित न्यूनतम वोटर रहते ही हैं, उन पर वक्त खराब नहीं करना चाहिए, बात उनसे करनी चाहिए जो कि किसी से प्रतिबद्ध नहीं हैं, और किसी के नाम का झंडा-डंडा लेकर नहीं चल रहे हैं। यह भी सोचना चाहिए कि शहर के म्युनिसिपल पर किसी एक पार्टी का कब्जा होने देना चाहिए, या फिर हर वार्ड से सबसे अच्छे लगने वाले, सबसे काबिल, ईमानदारी की थोड़ी सी संभावना वाले, अच्छे बर्ताव वाले उम्मीदवार को चुना जाए और फिर देखा जाए कि अच्छे-अच्छे पार्षद वहां जाकर किस पार्टी का साथ देते हैं, किसे अध्यक्ष या महापौर बनाते हैं। समझदारी की एक बात यह लगती है कि किसी भी पार्टी से परे इस बात को सबसे महत्वपूर्ण माना जाए कि पार्षद का वोट जिसे दें, उसका अपना, या उसके जीवन-साथी का, चाल-चलन अच्छा हो, जिसके साथ बेईमानी के किस्से जुड़े हुए न हों, और जो सुख-दुख में लोगों के साथ आकर खड़े रहते हों। अब देखना है कि वोटर अपने क्या पैमाने तय करते हैं।
आने वाले दिनों में क्या होगा?
रायपुर नगर निगम में जोगी पार्टी ने 40 वार्डों में प्रत्याशी खड़े किए हैं। वैसे तो पार्टी सभी 70 वार्डों में प्रत्याशी उतारना चाहती थी, लेकिन बाकी वार्डों में तो प्रत्याशी तक नहीं मिल पाए। जोगी पार्टी का हाल यह है कि विधायक दल के मुखिया धर्मजीत सिंह प्रचार में रूचि नहीं ले रहे हैं। पार्टी के मुख्य सचेतक देवव्रत सिंह कांग्रेस के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। रायपुर और बिलासपुर जैसे बड़े नगर निगमों में जोगी पार्टी के एक-दो लोग भी चुनाव जीतकर आ जाते हैं, तो वह बहुत बड़ी बात होगी। यानी साफ है कि आने वाले दिनों में पार्टी की राह और भी कठिन होगी।
मीडिया मैनेजमेंट, कल और आज
मीडिया को मैनेज करना एक वक्त बड़ा आसान काम हुआ करता था। किसी बड़े विज्ञापनदाता के खिलाफ कोई खबर होती थी, तो उसकी विज्ञापन एजेंसी गिने-चुने दो अखबारों के दफ्तर चली जाती थी, और कई बार खबर रूक जाती थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक वक्त बस दो प्रमुख अखबार हुआ करते थे, और एक अखबार को यह भरोसा दिलाना होता था कि दूसरे अखबार में भी खबर नहीं छपेगी, और खबर रूकने की पूरी गुंजाइश रहती थी। फिर धीरे-धीरे अखबार बढ़ते गए, और यह गुंजाइश घटती चली गई, फिर टीवी चैनल आए, तो जब तक रोका जाए, तब तक उन पर प्रसारण हो चुका रहता था। और अब डिजिटल मीडिया आने के बाद, लोगों के सोशल मीडिया पर सक्रिय होने के बाद कुछ भी नहीं रूक सकता। धरती पर आज किसी की इतनी ताकत नहीं है कि सबको रोक सके। कश्मीर की तरह अगर इंटरनेट महीनों तक बंद रहे, तो बात अलग है, लेकिन लोकतंत्र अगर कायम रहे, तो हर बात कहीं न कहीं छप ही जाती है। यह लोकतंत्र की एक बिल्कुल नई ऊंचाई है कि खबरों को दबाना, विचारों को कुचल देना, अब नामुमकिन है। लेकिन खबरों से परे सोशल मीडिया पर इतने किस्म के आरोप भी अब तैरते हैं, और आम लोगों से लेकर खास लोगों तक लोग खबर और आरोप में फर्क भी नहीं कर पाते हैं। नतीजा यह होता है कि सनसनीखेज आरोप एक खबर की तरह फैलते रहते हैं, और यह लोकतंत्र के लचीलेपन का एक खतरनाक पहलू भी है कि कानून आखिर इतने वॉट्सऐप संदेशों का पीछा करके उनका उद्गम स्थल ढूंढ सकता है कि यह मैली गंगा किस गोमुख से निकली है? अब मीडिया मैनेजमेंट चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और रईस उम्मीदवारों के पैकेज तक सीमित रह गया है, बाकी घटनाओं की खबरें पूरी तरह कोई नहीं रोक सकते।
प्रमाण पत्र की तारीख का खतरा
तीन बार के पार्षद और महापौर पद के दावेदार सूर्यकांत राठौर फर्जी जाति प्रमाण पत्र की शिकायत पर मुश्किलों में घिर सकते हैं। राठौर पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित रमन मंदिर वार्ड से चुनाव लड़ रहे हैं। वैसे तो उनके विरोधियों ने जाति प्रमाण पत्र को लेकर आपत्ति की थी, लेकिन एसडीएम ने आपत्ति खारिज कर दी। मगर कांग्रेस नेताओं ने नई शिकायत एसएसपी को सौंपी है, जिसमें जाति प्रमाण पत्र से जुड़े तहसील के रिकॉर्ड भी हैं।
सुनते हैं कि राठौर ने वर्ष-1993-94 में 11 हजार 414 नंबर का पिछड़ा वर्ग का प्रमाण पत्र बनना बताया है। कांग्रेस नेताओं ने शिकायत में यह भी बताया कि उस साल कुल 2 हजार प्रमाण पत्र भी नहीं बने थे। शहर कांग्रेस अध्यक्ष गिरीश दुबे को पूरा भरोसा है कि मतदान से पहले इस पूरे मामले की जांच पूरी हो जाएगी और सच सामने आ जाएगा। सच्चाई चाहे जो भी हो, वार्ड में राठौर के खिलाफ माहौल दिख रहा है। पहले उनकी जीत आसान दिख रही थी, जो कि दिन-ब-दिन कठिन होती दिख रही है।
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मुदित कुमार की संभावना...
हर आईएफएस अफसर का सपना होता है कि वह डीजीएफ यानी डायरेक्टर जनरल ऑफ फारेस्ट बनकर रिटायर हो। केंद्र सरकार का यह पद केन्द्र सरकार में विशेष सचिव के समकक्ष होता है। प्रदेश के अब तक किसी भी वन अफसर को डीजीएफ तक पहुंचने का मौका नहीं मिला है। मगर पीसीसीएफ (प्रशासन) से हटाए जाने के बाद मुदित कुमार सिंह इस पद की दौड़ मेें हैं और उनका नाम पैनल में भी आ गया है।
सुनते हैं कि ओडिशा कैडर के अफसर डीजीएफ सिद्धांत दास की नियुक्ति नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में होने के कारण यह पद खाली हुआ है। इसके लिए देशभर के कुल 20 अफसरों ने आवेदन दिया था। इनमें वर्ष 83 बैच से लेकर 89 बैच तक के अफसर हैं। मुदित कुमार सिंह वर्ष-84 बैच के हैं। मुदित कुमार देहरादून वन अकादमी के डीजी पद पर नियुक्ति के लिए प्रयासरत रहे और उनका नाम पैनल में भी था, लेकिन उनकी नियुक्ति नहीं हो पाई। छत्तीसगढ़ में वे वन अनुसंधान संस्थान में हैं, जहां उनके पास कोई ज्यादा कामधाम नहीं रह गया है। ऐसे में वे भारत सरकार में डीजीएफ बनने के लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं।
वार्ड चुनाव का जोर
नगरीय निकाय चुनाव में प्रचार तेज हो गया है। रायपुर नगर निगम में तो महापौर पद के मतदाताओं को रिझाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। एक वार्ड में तो पानी की दिक्कतों को दूर करने के लिए पार्षद प्रत्याशी ने सौ से अधिक घरों में पानी के पंप लगवा दिए।
महापौर पद के कुछ दावेदारों ने न सिर्फ अपने वार्ड बल्कि आसपास के वार्डों का भी खर्चा उठाना शुरू कर दिया है। इसके लिए उन्हें पार्टी से आदेश दिया गया है। दोनों ही पार्टियां इस बार अपने प्रत्याशियों पर खर्च नहीं कर रही हैं। उन्हें सिर्फ प्रचार सामग्री उपलब्ध करा रही है। प्रचार सामग्री भी सीमित मात्रा में है। ये बात अलग है कि कुछ मजबूत प्रत्याशियों को बिना मांगे चंदा मिलना शुरू हो गया है। चंदा देने वालों में स्मार्ट सिटी परियोजना से जुड़े और निगम के ठेकेदार, शहर के बड़े बिल्डर, कॉलोनाईजर, अवैध निर्माण करने वाले, अवैध कब्जा कर चुके लोग ज्यादा हैं। कई ऐसे लोग भी चंदा दे रहे हैं जिनको किसी नाराजगी की वजह से वर्तमान पार्षद को निपटाना है, और किसी दूसरे उम्मीदवार में जीत की संभावना दिख रही है। ([email protected])
विधायकों ने दिखाया दम
कांग्रेस के एक-दो को छोड़कर सभी विधायक अपने निकायों से पसंदीदा उम्मीदवार तय कराने में कामयाब रहे। वैसे तो दिखावे के लिए वार्ड और जिले में प्रत्याशी के नामों पर विचार के लिए कमेटी भी बनाई गई थी, लेकिन हुआ वही जो विधायकों ने चाहा। सबसे ज्यादा झंझट राजनांदगांव नगर निगम के वार्डों को लेकर हुआ।
सुनते हैं कि राजनांदगांव में जिलाध्यक्ष कुलबीर छाबड़ा के साथ-साथ पुराने कांग्रेस नेताओं और पूर्व सांसद करूणा शुक्ला ने अपनी अलग सूची तैयार कर रखी थी। इस वजह से यहां काफी खींचतान हुई। इससे परे विधायकों की राय के विपरीत कुछ वार्डों में सीएम ने हस्तक्षेप कर टिकट दिलाई। नागभूषण राव, अजीत कुकरेजा और बिलासपुर नगर निगम के वार्ड से बसंत शर्मा, ऐसे हैं जिनके लिए स्थानीय विधायक सहमत नहीं थे। मगर सीएम की दखल के बाद उन्हें टिकट दी गई।
दुर्ग नगर निगम के वार्ड प्रत्याशियों के चयन में स्थानीय विधायक अरूण वोरा की एकतरफा चली। चर्चा है कि वार्ड प्रत्याशी मदन जैन के नाम पर गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू को आपत्ति थी, लेकिन जैसे ही उन्हें बताया गया कि मदन जैन के लिए मोतीलाल वोरा ने सिफारिश की है, वे खामोश हो गए।
फिलहाल दुर्ग में एक ऐसा ऑडियो तैर रहा है जिसमें अरूण वोरा के बेटे को एक कांग्रेसी धमका रहा है, और बातचीत में धमकी और गाली-गलौज भी चल रही है कि उसका टिकट कटवा दिया गया। टिकट को लेकर यह टेलीफोन कॉल यह भी बताती है कि अब मोतीलाल वोरा की अगली की अगली पीढ़ी भी कांग्रेस की राजनीति में दखल रखने लगी है। इसके साथ-साथ लोगों के लिए यह सबक भी है कि टेलीफोन पर बातचीत अब सुरक्षित नहीं है क्योंकि इस कॉल पर यह बहस भी चल रही है कि फोन की बातचीत रिकॉर्ड करके फैलाने का काम किया जा रहा है, उसके बाद भी गर्मागर्म बातचीत जारी भी है।
विकास उपाध्याय को फटकार
रायपुर नगर निगम के वार्ड प्रत्याशियों के चयन के दौरान विधायक विकास उपाध्याय ने एक वार्ड प्रत्याशी के नाम का विरोध करते हुए कहा कि उन्हें पिछली बार मैंने ही टिकट दिलाई थी। इस पर सीएम ने उन्हें फटकार लगाई और कहा कि टिकट आपने नहीं, कांग्रेस ने दी थी। इसके बाद विकास खामोश हो गए। हालांकि उनके अपने विधानसभा क्षेत्र में उन्हीं की पसंद से ही प्रत्याशी तय किए गए। सुनते हैं कि रायपुर शहर जिलाध्यक्ष गिरीश दुबे को तीनों विधायकों ने अपनी पसंद बता दी थी। इसलिए गिरीश दुबे ने वही नाम रखे, जो विधायकों को पसंद थे। रायपुर दक्षिण में प्रमोद दुबे और सत्यनारायण शर्मा की राय पर प्रत्याशी तय किए गए। ([email protected])
आगे-आगे देखें होता है क्या...
सीएस की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने डीकेएस घोटाले पर अपना प्रतिवेदन सरकार को सौंप दिया है। जांच प्रतिवेदन में भारी धांधली की पुष्टि होने पर प्रकरण ईओडब्ल्यू को सौंप दिया है। प्रारंभिक जांच में पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह के दामाद डॉ. पुनीत गुप्ता की घोटाले में संलिप्तता साबित हुई है। प्रतिवेदन में यह कहा गया कि आउटसोर्सिंग सर्विसेस के लिए पुनीत गुप्ता ने अलग-अलग कंपनियों को बिना सक्षम अधिकारी के अनुमोदन के आशय पत्र जारी कर दिया।
प्रतिवेदन में एक और गंभीर टिप्पणी की गई है कि डीकेएस पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीस्ट्यूट एण्ड रिसर्च सेंटर की परिकल्पना से क्रियान्वयन तक अलग-अलग सेवाओं के लिए आउटसोर्सिंग के कार्य में पाई गई विभिन्न कमियां, पर्याप्त सही पर्यवेक्षण और समीक्षा के अभाव के लिए सभी स्तर के विभागीय अफसर जिम्मेदार हैं। यानी अब गेंद ईओडब्ल्यू के पाले में आ गई है। देखना है कि वह किस स्तर के अफसरों को पूछताछ के लिए बुलाती है, अथवा कार्रवाई करती है। यानी विभाग के उस समय के सभी छोटे-बड़े अफसरों पर गाज गिरना तय माना जा रहा है, जिनमें से कुछ आज सरकार में महत्वपूर्ण जगहों पर बैठे हुए हैं, आगे-आगे देखें होता है क्या।
काटजू ने लिखा था कि मुल्ला ने लिखा था...
हैदराबाद में बलात्कार के आरोपियों को एक पुलिस मुठभेड़ में मारने को लेकर देश भर में बहस छिड़ी हुई है कि पुलिस के ऐसा करने की छूट मिलनी चाहिए या नहीं? लोकप्रिय प्रतिक्रिया कानून से परे है क्योंकि मारे जाने वाले लोग ऐसे नाचते लोगों के सगे नहीं हैं। ऐसे में लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मार्कन्डेय काटजू का एक ट्वीट दुबारा पोस्ट किया है जिसमें उन्होंने लिखा था- जस्टिस अवध नारायण मुल्ला ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले में लिखा था- मैं जिम्मेदारी के पूरे एहसास के साथ कह रहा हूं कि पूरे देश में मुजरिमों का ऐसा कोई भी गिरोह नहीं है जिसके जुर्म का रिकॉर्ड भारतीय पुलिस कहे जाने वाले संगठित मुजरिम गिरोह के रिकॉर्ड के आसपास भी आता हो। ([email protected])
अपने बारे में पता न हो तो...
नगरीय निकायों में चुनावी माहौल गरमा रहा है। रायपुर नगर निगम की बात करें, तो यहां कांग्रेस और भाजपा के दिग्गज नेता, बागियों की मान मनौव्वल में जुटे हैं। वार्ड के इस चुनाव में गड़े मुद्दे उठाकर प्रतिद्वंदी को पीछे ढकेलने की कोशिश खूब होती है। एक वार्ड में तो महिला प्रत्याशी को सिर्फ इसलिए नुकसान उठाना पड़ सकता है कि उनके पति ने जमीन संबंधी विवाद पर एक सरकारी कर्मचारी की पिटाई कर दी थी। दो साल पुराना प्रकरण स्थानीय लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है।
ऐसे ही एक पुराने प्रकरण को लेकर एक वार्ड के पार्षद प्रत्याशी को चुनाव में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पार्षद प्रत्याशी तीन-चार साल पहले भिलाई-3 के एक होटल में रंगरेलियां मनाते पकड़े गए थे। उस समय भिलाई के अखबारों में खबरें भी छपी थी। अब विरोधी पुरानी कतरनें निकालकर पार्षद प्रत्याशी के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। एक अन्य वार्ड में तो महापौर पद के दावेदार को अपने रसिक मिजाज भाई की वजह से नुकसान उठाना पड़ सकता है। कहावत है यदि आपको अपने बारे में कुछ नहीं पता, तो चुनाव लड़ लीजिए। विरोधी सारी जानकारी सामने ले आएंगे। जितना छोटा चुनाव होता है, उतनी ही बड़ी चुनौती भी होती है, लोगों को याद है कि राजधानी में अजीत माने जाने वाले बेताज बादशाह तरूण चटर्जी अपने वार्ड का चुनाव हार गए थे, और उसके साथ-साथ शहर में उन पर भरोसा रखने वाले दर्जनों लोग मोटी-मोटी शर्त भी हार गए थे।
पुलिस में फेरबदल बाकी
नए साल में आईपीएस अफसरों के प्रभार बदले जा सकते हैं। बिलासपुर आईजी प्रदीप गुप्ता प्रमोट होकर एडीजी बनेंगे। इसके अलावा सरगुजा आईजी केसी अग्रवाल 31 दिसंबर को रिटायर होंगे। ऐसे में बिलासपुर और सरगुजा आईजी के पद पर नई पदस्थापना संभव है। सुनते हैं कि बस्तर की तरह बिलासपुर और सरगुजा आईजी का प्रभार डीआईजी स्तर के अफसर को दिया जा सकता है।
प्रभारी आईजी पद के लिए जिन नामों की चर्चा है उनमें रतन लाल डांगी, डीआर मनहर, संजीव शुक्ला और आरपी साय शामिल हैं। वैसे तो 97 बैच के अफसर दीपांशु काबरा के पास पिछले दस-ग्यारह महीनों से कोई काम नहीं है। वे रायपुर, बिलासपुर आईजी रह चुके हैं, फिर भी पता नहीं क्यों, अब तक सरकार की नजरें उन पर इनायत नहीं हुई है। वे निलंबित एडीजी मुकेश गुप्ता के करीबी माने जाते हैं, शायद यही वजह हो सकती है कि उन्हें कोई काम नहीं दिया जा रहा है। बीच में ऐसी चर्चा थी कि उन्हें दुर्ग का आईजी फिर से बनाया जाएगा, लेकिन सरकार के भीतर कुछ लोगों ने इसे रोक दिया। फिलहाल एसआरपी कल्लूरी भी बिना किसी काम के हैं।
बुरे कामों और बद्दुआ का असर
राज्य के नगरीय प्रशासन विभाग के सामने एक दिलचस्प मामला आया है जिसमें दुर्ग म्युनिसिपल के एक अफसर की बर्खास्तगी की तैयारी चल रही है। इस अफसर के खिलाफ भ्रष्टाचार के दो मामले थे, जिनमें से एक में उसे अदालत से सजा हो गई, और दूसरे मामले में अदालत से स्थगन मिल गया।
सरकारी रिकॉर्ड में इसमें से एक मामला दिखाकर और दूसरा मामला छुपाकर वह अब तक नौकरी में बना हुआ है। अब दोनों मामलों के कागज एक साथ सामने आए, तो नौकरी खतरे में पड़ी। छोटे-छोटे गरीब कर्मचारियों से रिश्वत लेने की बद्दुआ कभी तो असर करती ही है।
इंसान और मशीन की बुद्धि
इन दिनों दुनिया में आर्टिफिशियल इटेंलीजेंस, एआई, की जमकर चर्चा है कि कम्प्यूटर और मशीनें इंसानों को टक्कर देने वाले हैं, और जल्द ही उनकी कृत्रिम बुद्धि इंसानों की बुद्धि को पार कर जाएगी। फिलहाल आज सुबह गूगल क्रोम पर जब उन्नाव बलात्कार के खिलाफ यूपी में कल हुए कांग्रेस के प्रदर्शन में पुलिस महिलाओं को पीट रही थी, तो इस तस्वीर को सर्च करने पर गूगल इसका संभावित क्लू, फन, बता रहा था, फन यानी मजा। अब सोचने-विचारने पर समझ आया कि पुलिस की प्रदर्शनकारी महिला पर लाठियों के बजाय वह पीछे दीवार के पोस्टर में हॅंसते हुए योगी आदित्यनाथ और दूसरे मंत्रियों के चेहरों से यह नतीजा निकाल रहा था। इंसान की बुद्धि और मशीन की बुद्धि में भी खासा फासला खासे अरसे तक बने रहने वाला है।
सड़क पर खतरनाक हमला
अधिकतर धर्मों में धर्म का प्रचार किया जाता है ताकि उसे मानने वाले बढ़ें। ईसाई धर्म का प्रचार आधी सदी पहले से रेडियो सीलोन पर शुभ समाचार या ऐसे ही किसी नाम से सुनाई पड़ता था, बाद में आदिवासी इलाकों में ईसाई धर्म प्रचारक बहुत काम करते थे, और लोगों को यह समझाते थे कि ईसा मसीह ही उनका कल्याण कर सकते हैं। हाल के बरसों में हिन्दुस्तान के अनगिनत शहरों में हरे कृष्ण आंदोलन कहे जाने वाले इस्कॉन के संन्यासी किसी भी भीड़ भरी सड़क पर एकमुश्त टूट पड़ते हैं, और गीता या धर्म की दूसरी किताबों को बेचने के लिए गाडिय़ां रोकने लगते हैं। यह इतने बड़े पैमाने पर किसी एक जगह किया जाता है कि आती-जाती गाडिय़ां रूकने को मजबूर हो जाएं। आधा-एक दर्जन संन्यासी अपनी भगवा-पीली वर्दी में सड़क के बीच खड़े गाडिय़ां रोकने लगते हैं, और इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की सड़कों पर जगह-जगह इस्कॉन का यह हल्ला बोल चल रहा है। कई मौकों पर इस्कॉन की गाड़ी सड़क किनारे रोककर पैदल घूमते लोगों के बीच किताबें बेची जाती हैं, वहां तक तो ठीक है, लेकिन तेज रफ्तार गाडिय़ों के सामने कूदकर जिस तरह अभी कृष्ण को लोकप्रिय किया जा रहा है, उसमें गाडिय़ों के आपस में टकराने का खतरा भी है, और किसी संन्यासी के स्वर्गवासी होने का भी। जो संगठन दुनिया के कई देशों में काम करता है, उसे कोई बेहतर और अधिक सभ्य तरीका इस्तेमाल करना चाहिए, न अपने लिए खतरा खड़ा करें, न दूसरों के लिए।
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रायपुर में बना एक विश्व रिकॉर्ड...
नगरीय निकाय टिकट वितरण के बीच कईयों की गुटीय निष्ठा भी साबित हुई है। डॉ. चरणदास महंत के करीबी माने जाने वाले बिलासपुर के जिला अध्यक्ष विजय केशरवानी का रूख बदला-बदला सा रहा। वे डॉ. महंत के बजाए सीएम समर्थकों के साथ खड़े दिखे। यही वजह है कि बिलासपुर नगर निगम के टिकट वितरण में महंत समर्थक गच्चा खा गए।
रायपुर के नेताओं ने अपेक्षाकृत होशियारी दिखाई। कुलदीप जुनेजा, विकास उपाध्याय, पंकज शर्मा और प्रमोद दुबे व गिरीश दुबे एक राय होकर आए थे। सब एक-दूसरे का साथ देते नजर आए। प्रमोद दुबे को भगवती चरण शुक्ल वार्ड से प्रत्याशी बनाने की बात आई, तो सबने समर्थन कर दिया। किसी ने भी बाहरी जैसा मुद्दा नहीं बनाया। कुलदीप को अजीत कुकरेजा के नाम पर आपत्ति थी, लेकिन सीएम भूपेश बघेल ने वीटो कर अजीत को टिकट दिलवा दी।
लंबे समय तक कांग्रेस में रहे और अब जोगी कांग्रेस के भीतर या बाहर, पता नहीं कहां खड़े विधान मिश्रा ने कल प्रमोद दुबे के वार्ड चुनाव लडऩे पर प्रतिक्रिया दी, और कहा राजधानी रायपुर से आज प्रमोद दुबे के नाम एक गिनीज रिकॉर्ड बना है। लोकसभा सांसद का चुनाव लडऩे के बाद वार्ड पार्षद का चुनाव लडऩे वाले वे समूचे ब्रम्हांड के प्रथम व्यक्ति बन गए हैं।
सौदान सिंह की मेहरबानी से...
भाजपा की पूर्व मंत्री सुश्री लता उसेंडी और पूर्व विधायक डॉ. सुभाऊ कश्यप को केंद्र सरकार की कमेटियों मेें रखा गया है। दोनों ही बस्तर से हैं। लता को कोल और कश्यप को पेट्रोलियम सलाहकार समिति का सदस्य बनाया गया है। सुनते हैं कि दोनों को सदस्य बनवाने में सौदान सिंह की भूमिका अहम रही है। जबकि विधानसभा चुनाव में बुरी हार के बाद पार्टी के भीतर यह चर्चा थी कि सौदान सिंह की पूछ-परख कम हो गई है। मगर नई नियुक्तियों के बाद सौदान सिंह की पकड़ साबित हुई है।
लता और सुभाऊ कश्यप, दोनों लगातार दो चुनाव हार चुके हैं। लेकिन वे पार्टी संगठन के पसंदीदा बने हुए हैं। चुनाव में हार के बाद भी विशेषकर लता के लिए खुशी का क्षण आया है। उनके नाम पर नगरनार में पेट्रोल पंप की लॉटरी निकली है। नगरनार का पेट्रोल पंप कमाई के लिहाज से काफी बेहतर माना जा रहा है। इसके अलावा उनका नाम प्रदेश अध्यक्ष के रूप में प्रमुखता से उभरा है। नए अध्यक्ष के चयन में सौदान सिंह की राय अहम रहेगी।
आखिरी पल की टिकटें बेहतर...
टिकट को लेकर कांग्रेस में विवाद ज्यादा था लेकिन प्रचार भाजपा का ज्यादा हुआ। कांग्रेस नेताओं ने होशियारी दिखाई और नामांकन दाखिले के अंतिम दिन प्रत्याशियों की सूची जारी की। भाजपा एक दिन पहले जारी कर चुकी थी इसलिए टिकट कटने से खफा नेताओं को धरना-प्रदर्शन करने के लिए पर्याप्त समय मिल गया।
एकात्म परिसर में टिकट कटने से नाराज नेता ने दो सौ समर्थकों के साथ डेरा डाल दिया। बाहर से आने वाले नेताओं को परिसर में घुसने में कठिनाई हो रही थी। तनावपूर्ण माहौल के बीच उकसाने वाले नारे लग रहे थे। पुलिस सुरक्षा तो थी नहीं, ऐसे में किसी तरह की अप्रिय स्थिति को टालने के लिए सांसद सुनील सोनी आगे आए और सूझबूझ दिखाते हुए नाराज नेता को बताया कि उन्हें टिकट दी जा रही है। फिर क्या था, तीन घंटे के धरना-प्रदर्शन के बाद माहौल बदल गया। तब कहीं जाकर बाकी प्रत्याशी नामांकन दाखिले के लिए रवाना हो सके।
खुफियागिरी अब गैरजरूरी...
एक वक्त था जब लोगों के मन की टोह लेने की बात होती थी। कुछ लोग इसे मन की थाह लेना कहते थे, कुछ कहते थे कि उसके दिल-दिमाग को भी टटोल लो। लेकिन अब वक्त बदल गया। अब सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोग ट्विटर और फेसबुक पर अपने दिल-दिमाग को नुमाइश पर ही बिठा देते हैं, और किसी के मन को टटोलने की जरूरत ही नहीं रह जाती। लोग अपनी पसंद-नापसंद, अपनी हिंसा और अपनी नफरत, इन सबको इतना खुलकर लिखते हैं कि किसी के मन में झांकने की कोई जरूरत ही नहीं रहती। जो लोग सोशल मीडिया पर हैं उनकी उंगलियां दिमाग से अधिक रफ्तार से कुलबुलाती हैं, और दिल से अधिक बेचैन रहती हैं कि अपनी बात कहें। नतीजा यह होता है कि एक वक्त लोगों की जासूसी करने की जरूरत रहती थी, और अब सोशल मीडिया को लेकर यह मजाक बनता है कि अब सरकार ने अपनी खुफिया एजेंसियों का बजट आधा कर दिया है कि लोग तो अपने आपको खुद ही सोशल मीडिया पर उजागर कर रहे हैं, खर्च किस बात का?
सत्तारूढ़ कांग्रेस में जोरदार किचकिच
काफी किचकिच के बाद रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग नगर निगम के वार्ड प्रत्याशियों की कांग्रेस की सूची नामांकन दाखिले के आखिरी दिन जारी हो सकी। प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया, सीएम भूपेश बघेल और अन्य नेताओं के साथ तडक़े 5 बजे तक बैठक करते रहे। पुनिया के दिल्ली उडऩे के बाद तीनों नगर निगम के वार्ड प्रत्याशियों की सूची जारी की गईं। सुनते हैं कि बिलासपुर में सर्वाधिक विवाद हुआ है। चर्चा है कि जिन नामों पर सहमति बनी थी, उनमें से कई नाम बदलकर सूची जारी कर दी गई।
बिलासपुर में अटल श्रीवास्तव और विधायक शैलेष पाण्डेय अपने-अपने समर्थकों को ज्यादा से ज्यादा टिकट दिलाने के लिए प्रयास करते रहे। मगर सूची में हेर-फेर होने से अटल के कई लोग टिकट पा गए। सूची जारी होने के बाद इसको लेकर कानाफूसी शुरू हो गई है। इस पूरे मामले को लेकर पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम पर उंगलियां उठ रही है और समिति के एक-दो सदस्य इसको लेकर काफी खफा हैं। इसको लेकर पार्टी के भीतर घमासान होने के संकेत हैं और मामला दिल्ली दरबार तक ले जाने की तैयारी चल रही है। यह साफ है कि मोहन मरकाम को पहली बार पार्टी के भीतर मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है।
सरोज की एकतरफा चली
तेजतर्रार सांसद विजय बघेल और पूर्व मंत्री प्रेमप्रकाश पाण्डेय व वैशाली नगर के विधायक विद्यारतन भसीन की तिकड़ी ने राज्यसभा सदस्य सरोज पाण्डेय के खिलाफ लड़ाई लड़ी और गड़बड़ी का आरोप लगाकर संगठन चुनाव रूकवाने में सफल रहे। मगर निकाय चुनाव के टिकट वितरण में उन्हें बुरी तरह शिकस्त खानी पड़ी। दुर्ग नगर निगम में तो सरोज की एकतरफा चली।
सुनते हैं कि दुर्ग नगर निगम के एक वार्ड से प्रेमप्रकाश-विजय बघेल, दिवंगत पूर्व मंत्री हेमचंद यादव के पुत्र को प्रत्याशी बनाना चाहते थे। चुनाव समिति के कई सदस्य भी इसके पक्ष में थे, लेकिन सरोज की सूची में नाम नहीं होने के कारण उन्हें टिकट नहीं मिल पाई। जिन निकायों में सरोज हस्तक्षेप करना चाहती थी, वहां उन्हें पूरा मौका मिला। यह सब देखकर माना जाने लगा है कि संगठन में भी सरोज का दबदबा रहेगा।
अब ट्रांसफर से दूर, बहुत दूर...
छत्तीसगढ़ की राज्य सेवा से आगे पढ़कर आईएएस तक पहुंचने वाले चन्द्रकांत उइके का कल एक बीमारी के चलते निधन हो गया। वे राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे, और इसलिए उनका अलग-अलग विभागों में तबादला होते रहता था। लेकिन जहां बाकी अफसरों का तबादला दो-तीन बरस में एक बार होता है, चन्द्रकांत का तबादला औसतन हर बरस होता था। वे बहुत हॅंसमुख थे, खुशमिजाज थे, और तबादलों का बुरा भी नहीं मानते थे। जनसंपर्क विभाग में तैनाती के बाद वे जब इस अखबार के दफ्तर में मिलने आए तो गर्मजोशी के साथ उन्होंने खुद ही मजा लेते हुए बताया कि वे अधिक समय इस कुर्सी पर नहीं रहेंगे, क्योंकि वे अधिक समय तक किसी भी कुर्सी पर नहीं रहे। न उन्होंने खुद होकर कहीं जाने की कोशिश की, न खुद होकर कहीं से जाने की कोशिश की, लेकिन अलग-अलग कई सरकारों ने उनको 21 बरस की नौकरी में 20 बार इधर-उधर किया। उनका हाल देखकर हरियाणा के एक आईएएस, अशोक खेमका की याद आती है कि चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, औसतन हर बरस उनका एक बार तबादला हो ही गया।
चन्द्रकांत उइके ने बताया था कि एक बार उनकी पोस्टिंग लोक आयोग में हो गई, और जब वे वहां पहुंचे, तो लोकायुक्त ने उन्हें देखते ही नापसंद कर दिया, और कहा कि वे अपना तबादला कहीं और करवा लें। लोकायुक्त ने इस अफसर से बात करते हुए कुर्सी पर बैठने भी नहीं कहा, और इस तरह चन्द्रकांत उइके इस दफ्तर से कुर्सी पर एक बार बैठे बिना ही निकल आए, और उनका दूसरी जगह तबादला हो गया। लेकिन उन्होंने आदतन इसका बुरा नहीं माना, और अगली पोस्ट पर फिर साल भर के लिए चले गए। अब यह हॅंसमुख अफसर राज्य सरकार की पहुंच से दूर ट्रांसफर पर चले गया है, और अब उसे सरकार कहीं नहीं भेज सकेगी।
नड्डा के नाम पर भी टिकट नहीं...
सुनील सोनी के सांसद बनने के बाद शहर जिला भाजपा की राजनीति में बड़ा बदलाव आया है। पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को सुनील सोनी से काफी बल मिला है। इसका नमूना रायपुर नगर निगम के वार्ड पार्षदों के प्रत्याशी चयन में देखने को मिला। रायपुर के वार्ड पार्षदों के प्रत्याशी चयन में बृजमोहन का दबदबा रहा। आधे से अधिक वार्डों में सुनील सोनी और बृजमोहन की पसंद के प्रत्याशी तय किए गए।
सुनते हैं कि महानंद नाम के एक वार्ड टिकट के दावेदार के लिए पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा के ऑफिस से सिफारिश आई थी, लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिली। प्रत्याशी चयन में शहर जिला अध्यक्ष राजीव अग्रवाल भी अपना दमखम दिखाने में कामयाब रहे। भाजपा टिकट के दावेदार सिंधी नेताओं को श्रीचंद सुंदरानी से काफी उम्मीदें थी। सुंदरानी की सलाह पर समाज के एक प्रतिनिधि मंडल ने पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह से भी मुलाकात की थी, लेकिन प्रतिनिधि मंडल के एक भी दावेदार को टिकट नहीं मिल पाई है। 66 वार्डों की सूची में एकमात्र सचिन मेघानी को ही टिकट मिली, उनके नाम की सिफारिश सुंदरानी के बजाए बृजमोहन अग्रवाल ने की थी।
श्रीचंद सुंदरानी के विरोधियों का मानना है कि खुद सुंदरानी ने सिंधी समाज के दावेदारों को टिकट दिलाने में रूचि नहीं ली। वे नहीं चाहते कि भाजपा में किसी और सिंधी नेता का कद बढ़े। ताकि उनका दबदबा कायम रहे। चेम्बर ऑफ कामर्स के उपाध्यक्ष भरत बजाज ने सोशल मीडिया में पहले ही ऐलान कर दिया था कि प्रतिनिधि मंडल में गए किसी भी नेता को टिकट नहीं मिलेगी। बजाज की भविष्यवाणी सही साबित हुई और समाज के नेता श्रीचंद को कोस रहे हैं।
एक न्यौता ऐसा भी
शादियों पर होने वाले अंधाधुंध खर्च के साथ-साथ अब रायपुर जैसे शहर में सड़कों पर मेहमानों की गाडिय़ां ऐसे ट्रैफिक जाम कर रही हैं कि पुलिस और प्रशासन महज चेतावनी देते रह जाते हैं, और शादियों के महूरत पर लगता है कि मैरिज गार्डन वाले ही इस शहर के माई-बाप हैं। अभी एक शादी में जब एक मेहमान परिवार बाहर निकला तो पाया कि उनकी गाड़ी सड़क किनारे चारों तरफ गाडिय़ों के बीच फंसी हुई है। काफी देर तक इंतजार के बाद भी जब रास्ता नहीं खुला, तो उन्होंने फोन करके टैक्सी बुलवाई, और उसमें एक दूसरी शादी में चले गए। वहां से निपटाकर निकले तो फिर टैक्सी बुलवाई और पहली शादी में आए कि अपनी गाड़ी ले जाएं। लेकिन तब तक भी रास्ता नहीं खुला था, तो गाड़ी वहीं छोड़कर टैक्सी से ही घर चले गए, और अगली सुबह ड्राइवर भेजकर गाड़ी बुलवाई।
जो विवाह स्थल दस-दस, बीस-बीस लाख रूपए वसूलते हैं, उन पर पुलिस और प्रशासन का कोई काबू नहीं है। शादियों के मौसम के पहले हर बार बैठक ली जाती है, चेतावनी दी जाती है, और फिर हर बार की तरह मौके पर भैंस पानी में चली जाती है। ऐसी फिजूलखर्ची और ऐसी दिक्कतों के बीच अभी एक किसी परिवार का शादी का कार्ड वॉट्सऐप पर मिला जिसमें पिछले हफ्ते हुई शादी का अलग किस्म का न्यौता था। परिवार ने लिखा कि उनके बेटे ने यह सोच-समझकर तय किया कि वह रजिस्टर्ड पद्धति से शादी करना चाहता है, और शादी पर मां-बाप का पसीने का पैसा फिजूल खर्च करना नहीं चाहता है। शादी में आने वाले रिश्तेदार दस मिनट के समारोह के लिए तीन-तीन दिन का सफर, समय, और पैसा खर्चते हैं जिसकी जरूरत नहीं है। इसलिए आपसे अनुरोध है कि 28 नवंबर 2019 को शुभ समय पर हम घर पर ही चंद लोगों की मौजूदगी में रजिस्टर्ड विवाह करने जा रहे हैं, आप जहां भी हों वहीं से हमें आशीर्वाद दीजिए, हमारी भावनाओं का सम्मान कीजिए।
एकतरफा मोहब्बत में सावधान...
इन दिनों मोबाइल फोन पर तरह-तरह के मैसेंजर की मेहरबानी से लोग एक-दूसरे से बड़ी अंतरंग बातचीत भी करने लगते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि ऐसे सारे संदेश किसी ऐसे के फोन पर दर्ज होते रहें जो कि उनसे नाखुश हो, तो उनका भांडाफोड़ भी किया जा सकता है। मैसेंजर पर परेशान करने वाले कुछ लोगों के लिए आए दिन कोई न कोई महिला फेसबुक पर यह लिखते दिखती है कि वह जल्द ही कुछ लोगों के संदेशों के स्क्रीनशॉट उजागर करेगी। ऐसा ही एक स्क्रीनशॉट अभी सामने आया है जो एक समर्पित एकतरफा आशिक का दिख रहा है। इसलिए किसी को अंतरंग संदेश भेजते हुए लोग सावधान रहें कि वे किसी पर बोझ तो नहीं हैं, वरना किसी भी दिन सरेआम कपड़े उतर जाएंगे। ([email protected])
दिल मिलने की ओर?
पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह की वीरेन्द्र पाण्डेय के साथ बैठक की राजनीतिक हल्कों में जमकर चर्चा है। अटकलें यह भी लगाई जा रही हैं कि वीरेन्द्र पाण्डेय भाजपा में शामिल हो सकते हैं। पाण्डेय पिछले 11 साल से भाजपा से बाहर हैं और उन्होंने विचारक गोविंदाचार्य के मार्गदर्शन में स्वाभिमान पार्टी का गठन किया है। इन सबके बावजूद रमन सिंह की वीरेन्द्र पाण्डेय से मेल मुलाकात के राजनीतिक निहितार्थ हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि रमन सिंह और वीरेन्द्र पाण्डेय के बीच सामान्य बोलचाल भी करीब एक दशक से बंद थी। वीरेन्द्र पाण्डेय, रमन सिंह के बड़े आलोचक रहे हैं और पिछली सरकार के भ्रष्टाचार के प्रकरणों को लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाईयां लड़ीं। अविभाजित मप्र की जनता पार्टी सरकार में संसदीय सचिव रह चुके वीरेन्द्र पाण्डेय, भाजपा के संस्थापक सदस्य रहे हैं। आज भले ही उनके पास अपेक्षाकृत जनसमर्थन नहीं है, लेकिन उन्हें राजनीतिक-प्रशासनिक हल्कों में गंभीरता से लिया जाता है। करीब 2 साल पहले रमन सिंह के एक मंत्री के खिलाफ सिर्फ इस बात को लेकर शिकायत केन्द्रीय नेतृत्व से हुई थी कि वे वीरेन्द्र पाण्डेय को मदद कर रमन सिंह के लिए परेशानी खड़ी कर रहे हैं।
खैर, रमन सिंह ने वीरेन्द्र पाण्डेय के साथ अपनी खटास को दूर करने के लिए खुद पहल की है। दिवंगत नेता ओमप्रकाश पुजारी की श्रद्धांजलि सभा में दोनों की मुलाकात हुई। रमन सिंह ने उनसे गर्मजोशी से मुलाकात की और फिर चाय पर घर आने का न्यौता दिया। इसके बाद डॉ. कमलेश अग्रवाल, वीरेन्द्र पाण्डेय को लेकर डॉ. रमन सिंह के घर गए और तीनों के बीच करीब 2 घंटे तक राजनीतिक और अन्य विषयों पर सामान्य चर्चा हुई।
सुनते हैं कि रमन सिंह अच्छी छवि वाले नेताओं को साथ लाना चाहते हैं। ताकि भूपेश सरकार के खिलाफ लड़ाई मजबूती से लड़ी जा सके। वे कुछ मामलों को लेकर कानूनी लड़ाई भी लडऩा चाहते हैं। ऐसे में वीरेन्द्र पाण्डेय जैसे नेता उनके लिए मददगार हो सकते हैं।
अभी हाल यह है कि नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने नान प्रकरण की जांच रोकने के लिए दायर जनहित याचिका की जिसको लेकर काफी किरकिरी हो रही है। बिलासपुर हाईकोर्ट की स्थापना के बाद अपनी तरह की पहली जनहित याचिका है, जो कि किसी जांच को रोकने के लिए लगाई गई है। रमन समर्थकों का मानना है कि इस तरह की याचिका वीरेन्द्र पाण्डेय जैसे लोगों ने लगाई होती, तो इसका कुछ अलग ही वजन होता। अब वीरेन्द्र पाण्डेय, रमन सिंह की मुहिम का हिस्सा बनते हैं या नहीं, यह देखना है।
जितनी ऊंची जाति, उतना जुर्माना...
छत्तीसगढ़ की राजधानी के एक पेट्रोल पंप पर दो दिन पहले की एक तस्वीर सरकार के नियम-कायदे को धता बताते हुए अपने जातिगत अहंकार का सुबूत भी है। मामला तब और गंभीर हो जाता है जब यह पेट्रोल पंप प्रदेश के आरटीओ मंत्री मो. अकबर का हो। राजधानी की पुलिस कमजोर लोगों को पकडऩे का काम तो रोज करती है, लेकिन ऐसे दुस्साहसी लोग महंगी और तेज आवाज करती मोटरसाइकिलों को अनदेखा ही करते चलते हैं कि जिसकी इतनी हिम्मत हो, उससे क्यों उलझा जाए। लेकिन नंबर प्लेट पर अहंकार का यह अकेला मामला नहीं है, कांग्रेस-भाजपा से लेकर मीडिया तक के लोग नंबर की जगह अपना घमंड लिखाकर चलते हैं। कुछ लोग इस घमंड को गाडिय़ों के शीशों पर लिखवा लेते हैं, जो कि नंबर प्लेट के मुकाबले तो फिर भी बेहतर जगह है। अभी कुछ हफ्ते पहले भिलाई की एक फोटो आई जिसमें एक कार पर स्टिकर लगा था- भीतर कुर्मी है।
ऐसे स्टिकर दिल्ली की याद दिलाते हैं जहां- भीतर जाट है जैसे स्टिकर दिख ही जाते हैं। महंगी मोटरसाइकिलों को छूने से रायपुर की ट्रैफिक पुलिस हीनभावना की शिकार दिखती है, और उनसे दूर रहती है। इन दिनों जितनी महंगी गाड़ी, उतना ही अधिक ट्रैफिक नियमों को तोडऩा। लेकिन पुलिस बड़े लोगों से उलझने के बजाय बाकी कामों में लगी दिखती है, और ऐसी नंबर प्लेटों वाली गाडिय़ां चौराहों को धड़ल्ले से पार करती रहती हैं। जो जितनी ऊंची जाति समझी जाती है, उस पर नंबर प्लेट देखकर उतना ही बड़ा जुर्माना लगाना चाहिए।
भाजपा टिकट के लिए राज्यपाल की भी सिफारिश?
भाजपा में नगरीय निकाय पार्षद टिकट के लिए जमकर खींचतान चल रही है। चर्चा है कि कुछ दावेदारों के लिए राज्यपालों की भी सिफारिशें आई हैं। सुनते हैं कि एक विवाह समारोह में जिले के एक बड़े पदाधिकारी से एक राज्यपाल ने पूछ लिया कि उनके नामों का क्या हुआ? चर्चा तो यह भी है कि बिलासपुर के दो वार्डों में राज्यपाल की सिफारिश पर प्रत्याशी तय किए गए। रायपुर नगर निगम से लेकर बलौदाबाजार और अन्य जगहों पर भी एक राज्यपाल ने अपनी तरफ से नाम भेजे हैं। इनमें से कई नामों पर सहमति नहीं बन पाई है, लेकिन टिकट काटने की हिम्मत भी पार्टी नेता नहीं जुटा पा रहे हैं। ([email protected])
सवाल महंगा पड़ गया?
पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने नान प्रकरण में महंगे वकीलों की सेवाएं लेने पर सवाल क्या खड़े किए, बवाल मच गया। सुनते हैं कि सीएम सदन में जवाब देने से पहले ब्रीफिंग ले रहे थे, तो उनके पास भुगतान को लेकर ऐसी-ऐसी जानकारियां आईं कि वे चकित रह गए। रमन सरकार में तो कई वकीलों ने जमकर चांदी काटी थी। ऐसे ही एक प्रकरण की जांच भी चल रही है। हुआ यूं कि रमन सरकार की तेंदूपत्ता नीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हुई थी और इसमें सरकार की पैरवी तत्कालीन महाधिवक्ता ने की थी। चूंकि महाधिवक्ता सरकार के विधि अधिकारी होते हैं। उनका वेतन भत्ता तय रहता है। ऐसे में उन्हें शासन की पैरवी के लिए अतिरिक्त भुगतान नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके महाधिवक्ता को 13 लाख रूपए लघु वनोपज संघ से भुगतान कर दिया गया। सरकार बदलने के बाद एक आरटीआई कार्यकर्ता ने इसकी पूरी जानकारी निकलवाई और अलग-अलग स्तरों पर इसकी शिकायत की। संघ ने इस पूरे मामले में विधि विभाग से मार्गदर्शन मांगा है। विधि विभाग में पिछले छह महीने से फाइल पड़ी है, अब विधानसभा में सवाल उठा, तो इस पर भी निगाहें गईं।
एक प्रकरण में तो एक जूनियर वकील को स्टैंडिंग कॉउंसिल बनाने पर विधि विभाग ने विपरीत टिप्पणी की थी, बावजूद इसके उनकी नियुक्ति कर दी गई। कमल विहार योजना के खिलाफ तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में दर्ज प्रकरणों की पैरवी के लिए वकीलों पर ही करीब 13 करोड़ रूपए खर्च कर दिए गए। ऐसे ही ढेरों वकीलों को पिछली सरकार के दौरान भुगतान की जानकारी वर्तमान सीएम के पास पहुंची, तो वे पहले से ही भरे थे और जब पूर्व सीएम ने सरकार पर सरकारी खजाना लुटाने का आरोप लगाया, तो भूपेश बघेल भड़क गए। उनके तेवर देख पुराने सीएम भी ज्यादा कुछ नहीं बोल पाए और उल्टे उन्हें सीएम सर, सीएम मैडम के नाम पर काफी कुछ सुनना पड़ गया।
आईएएस बिरादरी खफा...
पूर्व सीएम रमन सिंह के एक और सवाल को लेकर आईएएस बिरादरी गुस्से में है। उन्होंने पूछ लिया कि पिछले पांच साल में कितने आईएएस अफसर विदेश यात्रा पर गए थे। सबसे ज्यादा यात्राएं ऋचा शर्मा ने की, वे 24 बार विदेश प्रवास पर रहीं। कुल मिलाकर 63 आईएएस अफसर 129 बार विदेश टूर पर गए। दिलचस्प बात यह है कि खुद रमन सिंह ने इसकी अनुमति दी थी।
आईएएस के वाट्सएप ग्रुप में पूर्व सीएम के सवाल पर तीखी प्रतिक्रियाएं आई है। एक आईएएस ने लिखा कि विदेश यात्रा पर आपत्ति थी, तो उन्होंने (रमन सिंह) ने अनुमति क्यों दी? सबसे ज्यादा खफा ऋचा शर्मा बताई जा रही हैं, जिन्हें नियम-कायदे मानने वाली और ईमानदार अफसर माना जाता है। उनके पति राजकमल दुबई में एक निजी कंपनी में हैं। वे भी छत्तीसगढ़ कैडर के आईएएस रहे हैं, जिन्होंने बाद में नौकरी छोड़कर निजी कंपनी ज्वाईन कर ली। सुनते हंै कि ऋचा जब भी विदेश गई, उन्होंने सीएम से अनुमति ली। चूंकि उनका परिवार दुबई में रहता है, यह तत्कालीन सीएम की जानकारी में था और हर बार उन्होंने अनुमति दी। ऐसे में उनकी निजी यात्राओं को सार्वजनिक तौर पर उठाने से उनकी नाराजगी स्वाभाविक है। इनमें से हर यात्रा उन्होंने अपने निजी खर्च से की थी।
एक अन्य आईएएस ने पोस्ट किया कि निजी यात्राओं के लिए आईएएस अफसरों को अब परमिशन की जरूरत नहीं रह गई है। एक अन्य अफसर ने लिखा कि निजी कंपनी के लोग एक साल में कई बार विदेश प्रवास पर जाते रहते हैं, ऐसे में आईएएस अफसरों की निजी यात्राओं पर सवाल खड़े करना पूरी तरह गलत है। वैसे भी दुबई और अन्य एशियाई देशों में आने-जाने में कोई ज्यादा खर्च नहीं होता। चर्चा तो यह भी है कि एक-दो अफसर पूर्व सीएम के राडार पर हैं, और उनकी विदेश यात्राओं पर सवाल उठाकर उन्हें घेरने की रमन सिंह की रणनीति है। चाहे कुछ भी हो, पूर्व सीएम अब आईएएस अफसरों के पसंदीदा नहीं रह गए हैं, कम से कम आईएएस अफसरों के मैसेज देखकर तो यही लगता है।
कुछ आईएएस अफसरों का यह कहना है कि अगर वे निजी विदेश प्रवास पर जा रहे हैं, तो यह जानकारी निजी है, और सरकार को इसे बाहर किसी को देने का कोई हक भी नहीं है, यह निजता का उल्लंघन है। सरकार खुद चाहे तो इस खर्च का हिसाब मांग ले, लेकिन बाकी दुनिया को यह जानने का हक क्यों होना चाहिए कि वे निजी प्रवास पर किस-किस देश जाते हैं?
केंद्र और राज्य की बदली तस्वीरें
बस्तर में 2012 में सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के सुरक्षाकर्मियों ने जिस तरह 17 बेकसूर आदिवासियों को थोक में मार डाला था, वह मामला आज राज्य में एकदम गर्म है। एक अजीब सी बात यह है कि उस वक्त राज्य में तो भाजपा की रमन सरकार थी, लेकिन केंद्र में यूपीए की सरकार में कांगे्रस के पी चिदंबरम गृहमंत्री थे जो कि सीआरपीएफ को नियंत्रित करने वाला मंत्रालय भी था। अब आज राज्य की भूपेश सरकार अगर इस हत्याकांड के हत्यारों को सजा दिलाती है, तो उस वक्त के गृहमंत्री के नाम पर भी आंच तो आएगी। लेकिन चिदंबरम आज जेल में हैं, और यूपीए की उस वक्त की सरकार के गृहमंत्री की छवि बचाना भूपेश सरकार की प्राथमिकता भी नहीं है। सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ मीडिया और कांगे्रस के छत्तिसगढिय़ा नेताओं का दबाव कार्रवाई के लिए है, और कार्रवाई करने की बात मुख्यमंत्री ने कल ही सार्वजनिक रूप से कही भी है। छत्तीसगढ़ में उस वक्त के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने इस फर्जी मुठभेड़ को पूरी तरह सही करार दिया था, और अब उनका वह सार्वजनिक बयान राजनीतिक रूप से उनके लिए भारी पड़ रहा है क्योंकि उन्हीं की शुरू करवाई गई न्यायिक जांच ने मुठभेड़ को फर्जी और मारे गए लोगों को बेकसूर बताया है। ([email protected])