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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प. बंगाल सीएम-राज्यपाल के रिश्ते भारत-पाक से भी खराब
18-Jun-2024 5:41 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  प. बंगाल सीएम-राज्यपाल के रिश्ते भारत-पाक से भी खराब

पश्चिम बंगाल राज्य सरकार और राजभवन के बीच एक अभूतपूर्व और असाधारण तनातनी देख रहा है। राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने राज्य पुलिस से राजभवन परिसर छोडक़र चले जाने के लिए कहा है, लेकिन पुलिस अपनी ड्यूटी पर जमी हुई है। इसकी शुरूआत अभी बंगाल में चुनावी-हिंसा के शिकार लोगों के राजभवन आने के मुद्दे पर हुई, जिन्हें राज्यपाल ने आने की लिखित इजाजत दी थी, लेकिन राजभवन पर तैनात पुलिस ने वहां लागू धारा 144 का हवाला देकर लोगों को आने देने से मना कर दिया। इस पर राजभवन की ओर से पुलिस से गेट पर उनकी चौकी खाली करके जाने के लिए कहा गया, लेकिन वहां तैनात पुलिसवालों ने अपने अफसरों के हुक्म बिना ड्यूटी छोडऩे से मना कर दिया। राज्यपाल पुलिस चौकी की जगह पर ही लोगों से मिलने-जुलने के लिए एक जनमंच बनाना चाहते हैं, लेकिन पुलिस के बने रहने से वह काम नहीं हो पाया। राज्यपाल की निजी सुरक्षा सीआरपीएफ की ओर से जेड कैटेगरी की है, और कोलकाता पुलिस सिर्फ बाहरी हिफाजत का इंतजाम करती है। राज्यपाल बोस के साथ सरकार की तनातनी का खासा अरसा हो चुका है जब राजभवन की एक महिला कर्मचारी ने उनकी पर यौनशोषण का आरोप लगाया, और उसकी एफआईआर पर कोलकाता पुलिस ने राजभवन के कुछ कर्मचारियों को गवाही के लिए बुलाया। राज्यपाल ने वहां के सभी कर्मचारियों को मना कर दिया कि उनमें से कोई भी गवाही देने न जाएं। इसके साथ-साथ राज्यपाल ने उन पर आरोप लगाने वाली महिला कर्मचारी के खिलाफ चुनिंदा मीडिया को इकट्ठा करके उन्हें राजभवन के ऐसी सीसीटीवी रिकॉर्डिंग दिखाई जिनमें शिकायतकर्ता महिला की पहचान भी उजागर हो रही है। अब राज्यपाल और राष्ट्रपति को किसी भी शिकायत के खिलाफ एक संवैधानिक हिफाजत मिली हुई है, इसलिए वे उस कवज के पीछे से उस महिला पर हमला करते रहे, और बचे भी रहे। लेकिन बीते दस से अधिक बरसों से हम देख रहे हैं, मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का हर राज्यपाल से एक टकराव चलते रहता है, और यह सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं लेता। 

भारत जैसे संघीय गणराज्य में केंद्र और राज्यों के बीच एक अनिवार्य संबंध रहते हैं, जिनके बिना काम चल नहीं सकता। और ऐसे संबंधों में राज्यपाल नाम का एक संवैधानिक पद केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंट की तरह राज्य की पीठ पर सवार रहता है। इसे केंद्र की मर्जी से नियुक्त किया जाता है और कभी भी हटाया जा सकता है। सुविधाओं से भरी इस कुर्सी पर बने रहने के लिए पहले से छांटे गए पूरी तरह वफादार लोग आमतौर पर विपक्षी राज्य सरकार का जीना हराम किए रहते हैं, और महाराष्ट्र इसकी एक ताजा मिसाल है जहां पर राज्यपाल पार्टी तोडऩे के लिए हथौड़े की तरह इस्तेमाल होते रहे। देश में तकरीबन तमाम राज्यपाल केंद्र सरकार के भाड़े के हत्यारे की तरह राज्य में संवैधानिक व्यवस्था और लोकतंत्र खत्म करने के लिए मानो सुपारी लेकर आते हैं। राज्य में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करना, केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के राज्य-प्रमुख की तरह काम करना, और सरकार को घेरे रखना, यही राज्यपाल का बुनियादी काम रह गया है। हम बहुत पहले से यह बात लिखते आ रहे हैं कि राजभवन नाम की यह संस्था भारत की गरीब जनता की छाती पर राजनीतिक साजिश करने वाले भूतपूर्व नेताओं के पुनर्वास के लिए नहीं चलानी चाहिए। राजभवन खत्म कर देने चाहिए, और इसका कोई आसान, किफायती, लोकतांत्रिक विकल्प ढूंढ लेना चाहिए ताकि देश में संविधान के नाम पर लोकतंत्र खत्म करने का सिलसिला न चले। 

भारत में हाल के दशकों में किसी निर्वाचित राज्य सरकार को भंग करके राष्ट्रपति शासन लगाना बंद हो चुका है। देश की सबसे अलोकतांत्रिक पार्टियां भी ऐसी कार्रवाई की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं, जबकि कुछ राज्य सरकारें ऐसी नौबत के कगार तक पहुंच चुकी हैं। जब ऐसी व्यवस्था की आमतौर पर कोई जरूरत नहीं है, तो राज्यपाल खत्म करने की जरूरत है, ताकि उसके कंधों पर बंदूक रखकर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपनी जंग न चलाती रहें। पश्चिम बंगाल में दोनों तरफ का यह टकराव इस नई सदी की सबसे गंभीर मिसाल है। इसका अध्ययन करके देश में एक बेहतर लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था बनाने की जरूरत है ताकि केंद्र और राज्य के संबंध इस दर्जे की दुश्मनी तक न पहुंचे। राज्यपाल को बनाया इसीलिए गया था कि वे इन दोनों के बीच तालमेल बनाए रखेंगे, लेकिन वे हवन करवा रहे किसी पंडित की तरह आग में घी डालने का काम कर रहे हैं, और लोकतंत्र में इसकी कोई न तो जरूरत है, न ही गुंजाइश।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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