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कोरोना-लॉकडाउन से गरीब हिंदुस्तानी टीबी मरीजों की जिंदगी छोटी..
20-Aug-2020 9:16 AM
कोरोना-लॉकडाउन से गरीब हिंदुस्तानी टीबी मरीजों की जिंदगी छोटी..

photo credit : PTI

नई दिल्ली, 20 अगस्त ( एजेंसी ) | कोरोना वायरस को काबू करने के लिए जब भारत में लॉकडाउन लगा तो रातों रात बेरोजगार हुए ब्रजेश के लिए फैसला करना मुश्किल हो गया. उन्हें वापस गांव चले जाना चाहिए या फिर दिल्ली में अपनी टीबी की दवा मिलने का इंतजार करना चाहिए?

जब टीबी सेंटर जाने का कोई साधन नहीं बचा तो उन्होंने अपना बोरिया बिस्तर बांधा और अपने गांव की तरफ निकल पड़े जो दिल्ली से 1,100 किलोमीटर दूर पूर्वी बिहार में है.

दिल्ली के बाहरी इलाके में कबाड़ी का काम करने वाले 44 साल के ब्रजेश कहते हैं, "सब कुछ बंद हो गया, इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि मुझे अपनी टीबी की दवा मिलेगी. मेरे पास बहुत कम बचत थी. मुझे चिंता सताने लगी कि अपनी पत्नी और बेटी को क्या खिलाऊंगा. इसलिए हडबड़ी में मैं दिल्ली से निकला." उन्होंने दरभंगा जिले से टेलीफोन पर थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के साथ बातचीत में यह बात कही.

टीबी के मरीजों की संख्या के मामले में भारत दुनिया भर में सबसे ऊपर आता है. इसलिए यह मुश्किल ब्रजेश जैसे बहुत से लोगों के सामने थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि 2018 में दुनिया भर में एक करोड़ लोगों को टीबी हुई जबकि 15 लाख लोग इससे मारे गए. इनमें से 27 प्रतिशत नए मामले भारत में दर्ज किए गए जबकि इससे मरने वालों की संख्या 45 हजार के आसपास रही.

महामारी की मार

भारत में मार्च के आखिर में 70 दिनों का सख्त लॉकडाउन लगाया गया, जिससे भारत के लाखों टीबी मरीजों के लिए दवा पाना, डॉक्टर को दिखाना और इलाज पाना मुश्किल हो गया. स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि कोरोना महामारी ने पहले ही बोझ तले भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए हालात और मुश्किल बना दिए. ज्यादातर स्वास्थ्यकर्मी और चिकित्सा सेवाएं कोरोना संक्रमण को रोकने में जुट गए. ऐसे में, टीबी के मरीजों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था.

हालांकि जून में लॉकडाउन में ढील देनी शुरू की गई, लेकिन लोग अभी भी अस्पतालों में जाने से डर रहे हैं या फिर उन्हें वहां आने नहीं दिया जा रहा है. कई जगह स्टाफ की कमी है तो कई जगहों पर कोविड-19 और टीबी की बीमारी में फर्क करना मुश्किल हो रहा है. दोनों ही बीमारियों में खांसी, कभी बलगम वाली खांसी, छाती में दर्द, कमजोरी और बुखार की शिकायत होती है. सर्वाइवर्स अगेंस्ट टीबी नाम की संस्था से जुड़े चपल मेहरा कहते हैं, "पहले एक-दो महीने तो कोविड-19 और टीबी में बहुत भ्रम की स्थिति रही. इस महामारी ने एक फिर बता दिया है कि हमारी स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था ऐसे संकटों का सामना करने के लिए तैयार नहीं है."

टीबी से बचाने के लिए नई वैक्सीन

कोरोना के सबसे ज्यादा मामले वाले देशों में भारत अमेरिका और ब्राजील के बाद तीसरे नंबर पर है. टीबी के मरीजों की देखभाल पर इस महामारी का सबसे ज्यादा असर पड़ा. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि जनवरी से जून के बीच टीबी के नए मामलों के रजिस्ट्रेशन में 25 फीसदी की कमी देखी गई है. इस कमी की वजह उचित देखभाल और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी को माना जा रहा है. स्वास्थ्य विशेषज्ञों को चिंता है कि इससे 2025 तक टीबी को पूरी तरह खत्म करने का भारत का लक्ष्य पटरी से उतर सकता है. वैश्विक स्तर पर 2030 तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य है.

इलाज बना चुनौती

वहीं भारत की केंद्रीय टीबी डिविजन के प्रमुख कुलदीप सिंह सचदेव कहते हैं कि महामारी की वजह से टीबी देखभाल पर बहुत असर पड़ा है, लेकिन इससे टीबी को खत्म करने की समयसीमा प्रभावित नहीं होगी. उनका कहना है कि कोरोना महामारी की वजह से मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल से टीबी को फैलने से रोकने में भी मदद मिलेगी, जो खांसी और छींक के जरिए फैलती है.

उनका कहना है कि सरकार का अनुमान था कि टीबी के मामले कम दर्ज होंगे. लेकिन वह कहते हैं कि आने वाले महीनों में उनका पता लगा लिया जाएगा.

सचदेव के मुताबिक उनका विभाग कोशिश कर रहा है कि कोविड-19 के साथ साथ टीबी का भी टेस्ट किया जाए. अब तक ऐसे 50 हजार टेस्ट हो चुके हैं. सचदेव का कहना है कि टीबी को लेकर कई तरह के जागरूकता अभियान चलाए गए हैं. उनका दावा है कि जिन लोगों का इलाज लॉकडाउन से पहले शुरू हुआ, उनके घर जाकर उन्हें दवा डिलीवर की गई है.

उधर, टीबी से ग्रस्त जेनेंद्र कहते हैं कि उन्हें घर पर दवाएं तो मुहैया नहीं कराई गई हैं, लेकिन लॉकडाउन की वजह से उनका इलाज प्रभावित नहीं हुआ है. वहीं 32 साल की मंजु कहती हैं कि उन्हें अपनी दवाएं दोबारा शुरू करनी हैं क्योंकि लॉकडाउन की वजह से वे दो हफ्तों तक दवाएं नहीं ले पाई थीं. वह उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में रहती हैं. उनके पति राम छैला ने बताया, "आने जाने का कोई साधन नहीं था, और बाहर निकलने पर पुलिस भी पीट रही थी."

एके/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)(dw)

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