विचार/लेख
-By Justice Markandey Katju
Many people, including the Indian External Affairs Ministry, have criticised the famous singer Rihanna for having supported the Indian farmers, saying it is the internal affair of India.
But by that logic, no one outside Germany should have criticised the persecution of the Jews in Germany during the Nazi era.
By that logic no one outside Pakistan should criticise the persecution of Ahmadis, Hindus, Sikhs, and Christians in Pakistan.
By that logic no one outside India should criticise the lynching and other atrocities on Muslims in India, or the massacre of Sikhs in 1984.
By that logic nobody outside America should criticise racialism in several parts of America and bad treatment of blacks.
By that logic no one outside China should criticise the persecution of the Uighur Muslim minority in China.
By that logic no one outside South Africa should have condemned apartheid and denial of the right to vote to blacks in South Africa when apartheid was prevailing.
By that logic no one outside Burma should have criticised the persecution of Rohingyas in Burma.
After all, these were all internal affairs of those countries.
-ईश्वर सिंह दोस्त
कुल मिलाकर भाजपा ने खुद को बंगाल में इतना मजबूत तो कर ही लिया है कि वह रस्साकशी का एक छोर बन सके। वहीं अगर माकपा एक बारगी खुद को यह समझा ले कि वह बंगाल में कभी सत्ता में थी ही नहीं, और वह एक ताजा शुरूआत कर रही है, तो उसके लिए राह आज भी कहीं ज्यादा आसान होगी।
बंगाल चुनाव अगर भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनने के रास्ते में एक और पड़ाव पार करना है तो तृणमूल कांग्रेस के लिए यह करो या मरो का सवाल है। क्योंकि बंगाल का चुनावी अतीत यही बताता है कि जो सत्तारूढ़ पार्टी हारती है उसके इतिहास बनने की संभावना ज्यादा रहती है। वहीं माकपा इस चुनाव को बंगाल में अपने पुनर्जीवन का अंतिम मौका मान कर चल रही है।
देश के उदारवादी- सेकुलर विमर्श के लिए भी यह करो या मरो वाला चुनाव है। भाजपा का बिहार में आना सेकुलरवाद के लिए इतना बड़ा झटका नहीं था, जितना बंगाल में आना होगा। बंगाल का महत्त्व त्रिपुरा से कई सौ गुना ज्यादा है। बंगाल भले ही एक छोटा राज्य हो, मगर भारत के वैचारिक विमर्श में उसकी जगह कई गुनी बड़ी है। भाजपा की रीति-नीति बंगाल की सांस्कृतिक विरासत का प्रतिलोम मानी जाती रही है। इसे जीतना उसे अभूतपूर्व आत्मविश्वास देगा। बंगाल में भाजपा के झंडे का फहरना भारत के हिंदू राज्य होने का मार्ग आसान कर देगा।
दीपंकर भट्टाचार्य वाली भाकपा माले से लेकर बहुत से वामपंथी बुद्धिजीवी तक तीसरी ताकत के रूप में उभरने के माकपा-कांग्रेस के अरमानों और दावों पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि क्या यह राज्य को थाली में रखकर भाजपा को देने के बराबर नहीं होगा। बंगाल के भीतर भी वाम व उदारवादी बुद्धिजीवियों में बड़ी बेचैनी है। वहीं माकपा के लिए भी बंगाल में यह जीवन-मरण का सवाल है।
जाहिर है कि अलग-अलग दलों और वैचारिक खेमों के लिए बंगाल में दांव काफी बड़ा है। फिलहाल दिखाई यही दे रहा है कि टक्कर टीएमसी और भाजपा के बीच हो रही है। अगर कोई बड़ा उलटफेर नहीं होता है तो सरकार ममता की ही बनेगी और भाजपा दूसरे नंबर पर रहेगी।
यह मानने की सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा ने 2019 में केंद्र के चुनाव में जो प्रदर्शन किया, उसके पहले और बाद के हर विधानसभाई चुनाव में उसका वोट प्रतिशत दस से सत्रह प्रतिशत तक नीचे आया है। बंगाल में कुछ अलग होगा, यह सोचने की अब तक कोई वजह पैदा नहीं हुई है। 2016 के पिछले विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनावों की तुलना करें तो पता चलता है कि टीएमसी ने अपना वोट प्रतिशत बरकरार रखा था। सिर्फ एक प्रतिशत बदलकर यह पैंतालीस से चवालीस प्रतिशत हो गया था। वहीं भाजपा के वोट ने 11 प्रतिशत से 41 प्रतिशत की छलांग लगाई थी। इसका नुकसान वाम मोर्चे व कांग्रेस को हुआ। वाम का वोट 27.3 से घटकर 7 प्रतिशत पर और कांग्रेस का 12.3 से 6 प्रतिशत पर आ गया। वाम व कांगेस को 27 प्रतिशत नुकसान और भाजपा को 30 प्रतिशत फायदा हुआ। भाजपा की उम्मीदें इसी प्रदर्शन पर कायम हैं। मगर लगता यह है कि भाजपा का वोट फिर कम होगा और वाम व कांग्रेस का कुछ बढ़ेगा। यह परिवर्तन छह से पंद्रह प्रतिशत तक हो सकता है। इसीलिए भाजपा की कोशिश ध्रुवीकरण की है, ताकि वोट उसके व टीएमसी के बीच ही बंटें। मगर एंटी-इंकमबेंसी की बातों के बावजूद टीएमसी का जनाधार खिसकता नहीं दिख रहा है।
बंगाल में सांप्रदायिक और सेकुलर दोनों धाराएं मौजूद रही हैं। सांप्रदायिक सतह के नीचे और सेकुलर सतह के ऊपर। मगर बंगाली राष्ट्रवाद की धारा भी मौजूद रही है, जो बंगाली संस्कृति की विशिष्टता व गौरव के आख्यान में अभिव्यक्ति पाती रही है। जब देश भर में केंद्रीकरण के विरूद्ध संघीय या क्षेत्रीय भावनाएं भी उभार पर हैं, तब खास तौर पर विधानसभा के चुनाव में बंगाली मतदाता बंगाल की पार्टी टीएमसी के ऊपर हिंदी इलाके की पार्टी भाजपा को तरजीह देगा, इसकी वजह नजर नहीं आती। भाजपा जाने अनजाने बंगाली गौरव के मामले में एक के बाद एक गलती भी करती जा रही है।
भाजपा की उम्मीदें तीन और कारकों पर टिकी हैं। एक है औवेसी और उनके मददगार। ये सिर्फ ममता के वोट काट कर ही नहीं बल्कि बिहार की तर्ज पर मुसलिम लामबंदी का हौवा खड़ा कर हिंदू ध्रुवीकरण करने में भी मददगार हो सकते हैं। दिलचस्प बात है कि जो सेकुलर पार्टियां भाजपा के लिए सूडो-सेकुलर थी, वे ही अब औवैसी के लिए भी सूडो-सेकुलर हैं। भाजपा के वोट तो लोकसभा की तुलना में कम होंगे ही, अगर ममता के वोट भी कम होते हैं तो भाजपा की बात बन सकती है।
भाजपा के जीतने की दूसरी वजह वाम-कांग्रेस गठजोड़ को तीसरी ताकत के रूप में तरजीह मिलना हो सकती है। मगर माकपा की तमाम नेकनीयती के बावजूद इसकी सूरत नजर नहीं आती। बंगाल की राजनीति की एक और विचित्र खासियत है वर्चस्व की राजनीति, जिसका चेहरा शहरों में तो मतदाता की सहमति हासिल करने का रहता है, मगर गाँवों में यह सहमति के वर्चस्व और चौधराहट, दोनों का रूप भी ले लेता है। माकपा ने निश्चित ही एक दशक पहले जमीन गंवाने की शुरुआत अपनी किसान समर्थक छवि की वैधता को न संभाल पाने से की थी। मगर बाद में इसे जिस बात से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ, वह है गांवों में नागरिक समाज या कानून की निष्पक्षता का वाम शासन में भी मजबूत नहीं हो पाना।
हम याद कर सकते हैं कि इसी रवायत के चलते ही सत्ता परिवर्तन की बेला में वाम दलों से टीएमसी में जाने वालों की भीड़ खड़ी हो गई थी। टीएमसी ने इसके बाद गांवों में जैसी जोर-जबरदस्ती की और चौधराहट कायम की, उससे यह और बढ़ी। माकपा कार्यकर्ताओं पर कई जगह हमले हुए। हालत यहाँ तक आ गई कि माकपा कार्यकर्ता को अपना बचाव करना है तो या तो वह टीएमसी में जाए या मार खाते हुए संघर्ष के लिए तैयार रहे। इसी मुकाम पर 2014 के बाद भाजपा ने खुद को केंद्र सरकार की सरपरस्ती में दमखम के साथ पेश किया और गांवों के कई वाम समर्थक बचने के लिए भाजपा में भी गए।
यह भाजपा के लिए तीसरी उम्मीद है कि जैसे लोग पहले वाम से टीएमसी की तरफ गए थे, अब टीएमसी से भाजपा की तरफ आएंगे। बंगाल में यह होना आश्चर्यजनक नहीं होगा। मगर अभी लोग अपने आप नहीं जा रहे हैं, सौदेबाजी की भूमिका है। अभी तक टीएमसी के सत्रह विधायकों, एक सांसद और कांग्रेस के एक, माकपा के एक और भाकपा के एक विधायक का ‘ट्रांजेक्शन’ नक्की हो चुका है, निश्चित ही कुछ और पाइपलाइन में आ गए होंगे। मगर जनता के बड़े हिस्से में ममता की वैधता या कहें गांवों का ममता-सिस्टम अब तक दरका नहीं दिखता है। अगर जनता ममता के साथ रही तो ये दलबदलू नेता प्रभावहीन हो जाएंगे।
वहीं एक चौथा सवाल भी है। यह कि किसान आंदोलन का बंगाल के जनमानस पर क्या असर पड़ेगा? किसान बंगाल की राजनीति के केंद्र में रहा है। यह सही है कि पुराने किसान ध्रुवीकरण के बरक्स सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी मैदान में उतारा जा चुका है। मगर भाजपा की सफलता इस बात पर भी निर्भर होगी कि बंगाल में किसान विमर्श व किसान मानस कितना कमजोर पड़ता है। भाजपा की खूबी यह है कि वह अपना वर्ग चरित्र छिपाने का कोई प्रयास नहीं करती। मगर बंगाल में पुरानी वर्ग चेतना मद्धिम पड़ चुकी है।
फिर भी किसान चेतना अब तक बंगाली चित्त में फंसी हुई है। टीएमसी अगर बंगाली गौरव और किसान चेतना को आपस में प्रभावी ढंग से बुन पाई तो यह विमर्श सतह पर उतना मजबूत न दिखते हुए भी निर्णायक हो सकता है।
कुल मिलाकर भाजपा ने खुद को बंगाल में इतना मजबूत तो कर ही लिया है कि वह रस्साकशी का एक छोर बन सके। वहीं अगर माकपा एक बारगी खुद को यह समझा ले कि वह बंगाल में कभी सत्ता में थी ही नहीं, और वह एक ताजा शुरूआत कर रही है, तो उसके लिए राह आज भी कहीं ज्यादा आसान होगी। चौंतीस सालों की सत्ता को गंवा बैठने और फिर टीएमसी की दबंगई से अपने कार्यकर्ताओं को न बचा पाने का अपमान वर्तमान को देखने में बाधा भी बनता है। माकपा इकाइयां कितनी भी ईमानदारी से फिर से जमीन की राजनीति की कोशिश करें, उन पर चौंतीस सालों के शासन का ताना और बोझ रहता ही है।
-रति सक्सेना
क्या अगला युद्ध पानी के लिए होगा, अन्दाजा तो यही लग रहा है, जिस तरह से पानी की खपत बढ़ती जा रही है, और पानी का स्तर कम होता जा रहा है। खासतौर से मुझ जैसे को लगता है, जिसका बचपन राजस्थान के उन इलाकों से गुजरा, जहां पानी के नाम पर रेत थीं, बीकानेर आदि में आस पास को पानी से जूझते हुए देखा है, मां कहा करती थी कि जब वे जयपुर ब्याह के आईं थी तो घरों में नल नहीं थे, भिश्ती नहाने धोने का पानी मशक में भर कर रोजाना के हिसाब से पहुंचाता था, और खाने पकाने के लिए दो बाल्टी पानी महरी लाया करतीं थीं, मां भोपाल की थीं, जहां का ताल मशहूर है,फिर भी वे जल्द ही पानी को बचाना सीख गईं थीं।
घर पखारते वक्त, कपड़े धोते वक्त कितना कम पानी उपयोग में लाया जाता था , आज तो उसकी कल्पना करना ही मुश्किल है। फिर जयपुर में घरों घर नल आये, लेकिन मोटरे नहीं लगीं थी, तो समय पर पानी भरना सहेजना जरूरी था। पानी को ऐसे सहेजा जाता था जैसे कि जिन्दगी को बचाया जा रहा हो।
राजस्थान के शहर- शहर भटकते हुए हमने पानी के भी सभी रंग देखे। लेकिन जब केरल आई तो पानी बहुतायत से था, आसमान में भी और नलों में भी,फिर भी पानी बहाते मन कसकता था। जब मेरी बाहरी दुनिया खुली तो मुझे पर अक्सर ताना दिया गया कि राजस्थान में तो सारे अनपढ़ ही हैं, और मैं कहती कि मेरी मां तक पढ़ी-लिखी हैं, तो वे आंकड़े दिखाते। तब मेरा यही सवाल होता कि यदि तुम्हें रोजाना दस मील दूर से पानी भर कर लाना पड़े तो तुम पढ़ोगे या पानी लाओगे, यही नहीं पानी की कमी के कारण जब बच्चों तक को रात- रात जग कर खेतों में पम्प चलाना पड़े तो तुम स्कूल में सोओगे ही ना?
लेकिन अहंकार बहुत बुरा होता है, मुझे याद है कि एक बार त्रिवेन्द्रम में बड़ी पाइप लाइन टूट गई।
शहर में दो दिन तक पानी नहीं था, लेकिन सरकार टेंकर भेज रही थी, जहां से साझा पानी भरना होता था। उन दो दिनों में ही अखबार में खबर आई कि पानी न होने के कारण पति पत्नी में तकरार हुई, दोनों नौकरी शुदा थे, लड़ाई इतनी बढ़ी कि पत्नी ने फांसी लगा ली।
घटना दुखद थी, लेकिन मैंने पूछा, भई दो दिन भी पानी की कमी को नहीं सह पाये, हमारे यहां तो कुछ गांवों के बच्चों ने बरसात के दर्शन भी नहीं किए।
आज केरल में पानी की स्थति बहुत अजीब है, जहां मैं रहती हूँ , उस इलाके में बहुत कम समय के लिए पानी आता है, वह तो नई प्रणाली के तहत टंकिया लग गईं, मोटर लगा दी गईं। वहीं पूरे तीन सालों से लगातार बाढ़ आ रही है वह भी केरल के लगभग साठ प्रतिशत इलाकों में। यानी कि पानी की संयोजना ही खतरनाक हो रही है। यह अजीब स्थिति है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
क्या कभी कोई कल्पना कर सकता था कि मास्को से व्लादिवस्तोक तक दर्जनों शहरों में हजारों लोग सडक़ों पर उतर आएंगे और ‘पुतिन तुम हत्यारे हो’, ऐसे नारे लगाएंगे? लेकिन आजकल पूरा रूस जन-प्रदर्शनों से खदबदा रहा है। नर-नारी और बच्चे-बूढ़े भयंकर ठंड की परवाह किए बिना रूस की सडक़ों पर डंडे खा रहे हैं और गिरफ्तारियाँ दे रहे हैं। व्लादिमीर पुतिन के एक छत्र राज्य में यह सब क्यों हो रहा है ? यह हो रहा है, एलेक्सेइ नवाल्नी के नेतृत्व में। नवाल्नी कौन है ? यह 46 साल का चिर-युवा है, जिसने सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ देश व्यापी अभियान चला रखा है और जिसे अगस्त 2020 में जहर देकर मारने की कोशिश की गई थी।
नवाल्नी यों तो 2008 से ही कई सरकारी कंपनियों और नेताओं के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए रूस में प्रसिद्ध हो गए थे लेकिन पिछले दिनों जब एक हवाई यात्रा के दौरान वे अचानक बेहोश हो गए तो उन्हें इलाज के लिए जर्मनी ले जाया गया। जर्मन डाक्टरों ने सिद्ध किया कि उन्हें जहर दिया गया था। इसी तरह का ‘नोविचेक’ नामक जहर रूसी जासूस सर्गेइ स्कृपाल को भी देकर मारा गया था।
यूरोपीय संघ ने नवाल्नी के मामले में कई रूसी संस्थाओं पर प्रतिबंध भी लगा दिए हैं। वैसे नवाल्नी को कोई प्रभावशाली नेता नहीं माना जाता था लेकिन उसके उग्र राष्ट्रवादी तेवरों और भ्रष्टाचार-विरोध के कारण रूसी नौजवान उसके तरफ आकर्षित होने लगे थे। 2011 के चुनावों में उसका असर भी दिखाई पडऩे लगा। पुतिन की ‘यूनाइटेड रशिया’ पार्टी को वह ‘गुंडों और चोरों का अड्डा’ कहने लगा।
उसे दो-तीन बार जेल भी हुई लेकिन वह डरा नहीं। अब उसने पुतिन के भ्रष्टाचार पर सीधा आक्रमण शुरु कर दिया है। अब पुतिन की तरह उसे भी सारी दुनिया जानने लगी है। जर्मनी से इलाज करवाकर लौटने पर उसे दुबारा जेल में डाल दिया गया है।
नवाल्नी की रिहाई के लिए हजारों प्रदर्शनकारी गिरफ्तारियां दे रहे हैं। ‘ब्लेक सी’ पर अरबों रु. से बने महल को पुतिन का बताया जा रहा है। इन आरोपों को पुतिन बराबर रद्द करते आ रहे हैं और कह रहे हैं कि वे रूस में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में कोई कसर नहीं रखेंगे। पश्चिमी राष्ट्र रूस की इस मुसीबत का मजा ले रहे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-मैथ्यू हिल, डेविल कैंपेनेल और जोएल गुंटर
चीनी प्रशासन की ओर देश में वीगर मुसलमानों के लिए बनाए गए 'री-एजुकेशन' कैंपों में महिलाओं के साथ पूरी योजना के साथ रेप किया जा रहा है. उन्हें यौन प्रताड़ना का शिकार बनाया जा रहा है और भीषण यातनाएं दी जा रही हैं. बीबीसी की पड़ताल में ये नई बातें सामने आई हैं. बलात्कार, यातनाओं और बुरी तरह प्रताड़ित करने के ये वाकये आपको विचलित कर देंगे.
वे लोग (पुरुष) हमेशा मास्क पहने रहते थे. कोरोना का डर हो न हो, वे हमेशा मास्क पहने ही दिखते थे. वे सूट पहने दिखते थे. वे पुलिस की वर्दी में नहीं होते थे.
आधी रात के बाद किसी भी वक्त वे सेल में आ जाते और कुछ औरतों को उठा ले जाते थे. ये लोग उन्हें कॉरिडोर से घसीटते हुए 'ब्लैक रूम' में ले जाते थे. वहां कोई सर्विलांस कैमरा नहीं होता था.
जियावुदुन ने बताया,"कई रातों को यहां से इसी तरह महिलाओं को उठाकर ले जाया गया."
वह कहती हैं, "शायद ही मैं अपनी ज़िंदगी के इन डरावने हादसों को भूल पाऊंगी. अब तो मुंह से इन घटनाओं के बारे में एक शब्द नहीं निकालना चाहती. मेरे लिए इनका ज़िक्र तक करना मुश्किल है."
दस लाख महिला-पुरुषों को क़ैद रखने वाले कैंप
तुरुसुने जियावुदुन वीगर मुसलमानों को कैद कर रखने के लिए बनाए गए विशाल शिविरों के गुप्त नेटवर्कों में नौ महीने रह चुकी हैं. ये कैंप शिनजियांग प्रांत में बनाए गए हैं. स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक़, चीन सरकार की ओर बनाए गए बड़े इलाकों में फैले इन शिविरों में दस लाख से अधिक महिला-पुरुषों को कैद कर रख गया है. चीन का कहना है कि ये शिविर वीगर लोगों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को दोबारा शिक्षित करने यानी 'री-एजुकेट' करने के लिए बनाए गए हैं.
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि चीन की सरकार ने धीरे-धीरे वीगर लोगों की धार्मिक और दूसरी आज़ादियां छीन ली हैं. अब उन पर सामूहिक रूप से निगरानी रखी जाती है. उन्हें हिरासत में ले लिया जाता है. उनके विचार बदलने की कोशिश की जाती और यहां तक कि उनकी जबरदस्ती नसबंदी भी कर दी जाती है.
वीगर लोगों के ख़िलाफ़ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यह अभियान शुरू किया था. 2014 में शिनजियांग में वीगर अलगाववादियों की ओर से चरमपंथी हमले हुए थे. न्यूयॉर्क टाइम्स की ओर से लीक किए दस्तावेज़ों से ज़ाहिर होता है कि इसके बाद ही उन्होंने अधिकारियों को बिल्कुल भी 'दया न दिखाने' का निर्देश दिया था.
पिछले महीने अमेरिकी सरकार ने कहा था चीन की कार्रवाई नरसंहार की तरह है. जबकि चीन का कहना है कि उसके ऊपर लोगों को सामूहिक रूप से कैंपों में बंद रखने और ज़बरदस्ती नसंबदी करने के लगाए जा रहे आरोप बिल्कुल झूठे और बकवास हैं.
तुरुसुने जियावुदुन
कैंप में महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार के आरोप
इन कैंपों के अंदर जो रहा है उनका सीधा आंखों देखा ब्योरा तो बहुत कम है लेकिन यहां रखे गए कई लोगों और एक सुरक्षा गार्ड ने बीबीसी को बताया कि यहां व्यवस्थित तरीकों से महिलाओं के साथ रेप हो रहे हैं. वे यौन प्रताड़नाओं की शिकार बनाई जा रही हैं. उन्हें यातनाएं दी जा रही हैं.
इसी तरह के एक कैंप से रिहा होने के बाद तुरुसुने जियावुदुन शिनजियांग से भागकर अमेरिका पहुंच गईं. उन्होंने कहा कि महिलाओं को 'हर रात' सेल से उठा लिया जाता था. इसके बाद उनके साथ मास्क पहना कोई आदमी बलात्कार करता था. महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी होता था. खुद जियावुदुन के साथ यह सब हुआ. जियावुदुन ने कहा कि उन्हें प्रताड़ित किया गया. उनके साथ तीन बार सामूहिक बलात्कार हुआ. हर बार दो या तीन पुरुषों ने उनके साथ बलात्कार किया.
जियावुदुन इसके पहले भी मीडिया को यह बता चुकी हैं. लेकिन इस तरह के ब्योरे उन्होंने कज़ाकिस्तान से दिए थे. हर वक़्त वापस चीन भेज दिए जाने के डर के बीच वह कज़ाकिस्तान में रह रही थीं. उन्होंने कहा कि अगर उन्होंने इन कैंपों में यौन प्रताड़नाओं, यातनाओं और बलात्कार का ज़्यादा ज़िक्र किया होता तो शिनजियांग लौटने पर उन्हें और ज़्यादा यातनाएं मिलतीं. उन्हें यह सब कहते हुए शर्म आ रही थी.
जियावुदुन जो कह रही हैं, उसकी पूरी तरह जांच करना तो मुश्किल है क्योंकि चीन में रिपोर्टरों पर भारी पाबंदी है. हालांकि उन्होंने बीबीसी को जो यात्रा दस्तावेज और इमिग्रेशन रिकॉर्ड मुहैया कराए हैं उनसे उनके ब्योरे की टाइमलाइन मिलाई गई है. उन्होंने शिनजुआन काउंटी ( वीगर में इसे कुनेस काउंटी कहा जाता है) में इन शिविरों के जो ब्योरे दिए हैं वे उन सेटेलाइट तस्वीरों से मेल खाते हैं, जिनका बीबीसी ने विश्लेषण किया है. जियावुदुन ने कैंप के अंदर की ज़िंदगी और वहां यातनाओं, प्रताड़नाओं के जो ब्योरे दिए हैं वे दूसरे कैदियों के ब्योरे से मिलते हैं.
बीबीसी को 2017 और 2018 के कुनेस काउंटी की न्याय व्यवस्था से जुड़े कुछ आंतरिक दस्तावेज मिले थे. बीबीसी को ये दस्तावेज एद्रियन जेंज ने मुहैया कराए थे, जो शिनजियांग में चीन की नीतियों के बड़े विशेषज्ञ हैं. इन दस्तावेजों में कुछ 'प्रमुख समूहों' को 'शिक्षा के ज़रिये बदलने' की विस्तृत योजनाओं और इन पर आने वाले ख़र्च का ज़िक्र है. चीन में वीगरों के विचारों को बदलने के लिए प्रमुख समूहों' को 'शिक्षा के ज़रिये बदलने' जैसे जुमलों का इस्तेमाल किया जाता है. चीन प्रशासन के मुताबिक़, इसका मतलब "वीगरों के ब्रेन वॉश, हृदय-परिवर्तन, न्याय परायणता को मज़बूत करने और बुराइयों को हटाने' की प्रक्रिया से है."
बीबीसी ने चीन के इन शिविरों में 18 महीने तक रही एक कजाख महिला से बात की थी. उन्होंने कहा था कि उन्हें वीगर महिलाओं के कपड़े उतारने और उन्हें हथकड़ी लगाने के लिए बाध्य किया गया. उस दौरान वहां चीनी पुरुष थे. इसके बाद उन्हें कमरों को साफ़ करना पड़ा था.
गुलरिजा औलखान नाम की इस महिला ने कहा, "मेरा काम उनके कमर से ऊपर के कपड़ों को उतारने और उन्हें हथकड़ी लगाने का था ताकि वह हिल-डुल न सकें. उन्होंने यह बताने कि लिए अपनी कलाइयों को सिर के पीछे किया. महिलाओं के कपड़े उतारने के मामलों की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा, "मैं उन्हें कमरे में छोड़ कर निकल आती थीं, इसके बाद एक आदमी वहां आता था. फिर बाहर से कुछ लोग या पुलिसकर्मी आते थे. मैं चुपचाप दरवाजे पर बैठी रहती थी. जब कमरे में घुसे लोग चले जाते थे तो महिलाओं को नहलाने के लिए ले जाती थी."
उन्होंने कहा "वहां आने वाले चीनी पुरुष उन महिला कैदियों में से सबसे युवा और सुंदर महिलाओं को पेश करने के लिए पैसे देते थे."
इन शिविरों में रहने वाले कुछ कैदियों ने भी बताया था कि उन्हें भी इन सुरक्षा-गार्ड्स की मदद के लिए बाध्य किया गया. ऐसा न करने पर सज़ा की धमकी दी जाती थी. औलखान ने कहा कि वह लाचार थीं. न वह विरोध करती सकती थीं और न इन मामलों में दख़ल देने की ताक़त उनके पास थी.
उनसे पूछा गया कि क्या वहां व्यवस्थित ढंग से रेप करने का सिस्टम था? उन्होंने कहा, हां, रेप होता था.
उन्होंने कहा, "उन लोगों ने मुझे कमरे में जाने के लिए मजबूर किया. उन्होंने मुझे उन महिलाओं के कपड़े उतारने को बाध्य किया और उनके हाथ बांधने को कहा. इसके बाद मुझे कमरे से जाने के लिए कहा गया. "
जियावुदुन ने बताया कि कुछ महिलाओं को सेल से रात को कहीं और ले जाया गया और फिर वे लौट कर नहीं आईं. जिन महिलाओं की सेल में वापसी हुई थी, उन्हें कहा गया था कि उनके साथ जो हुआ वो किसी को न बताएं.
उन्होंने कहा, किसी को यह बताने की इजाज़त नहीं थी कि उनके साथ क्या हुआ. आप सिर्फ़ वहां चुपचाप पड़े रह सकते थे. यह सब वहां हर शख़्स की आत्मा को कुचलने के लिए किया जा रहा था.
बीबीसी की रिपोर्ट अब तक का सबसे खौफ़नाक सबूत
जेंज ने बीबीसी की इस रिपोर्ट के लिए जुटाए गए सुबूतों को अब तक का सबसे ख़ौफ़नाक सुबूत बताया है. उन्होंने कहा कि वीगरों पर जब से अत्याचार शुरू हुए हैं तब से अब तक के ये सबसे भयावह सुबूत हैं.
जेंज ने कहा, "इन सबूतों से यह साफ़ हो गया है हम सब अब तक सबसे ख़ौफ़नाक यातनाओं के बारे में सुनते आए हैं, वो सही हैं. अब महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन दुर्व्यवहार और यातनाओं के आधिकारिक और विस्तृत सुबूत मिल चुके हैं. हम जो सोचते थे उससे भी भयावह अत्याचार हुए हैं."
वीगर लोग ज़्यादातर मुस्लिम तुर्की अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं. उत्तर-पश्चिम चीन के शिनजियांग प्रांत में उनकी आबादी एक करोड़ दस लाख है. कज़ाकिस्तान से लगे इस इलाक़े में जातीय कजाख लोग भी रहते हैं. 42 साल की जियावुदुन वीगर हैं. उनके पति कजाख हैं.
जियावुदुन कज़ाकिस्तान में पांच साल रहने के दौरान 2016 के आख़िर में पति के साथ शिनजियांग लौटी थीं. यहां पहुंचने पर उनसे पूछताछ की गई. दोनों के पासपोर्ट ज़ब्त कर लिए गए. कुछ महीनों के बाद पुलिस ने उन्हें एक मीटिंग में आने को कहा. वहां और भी वीगर और कजाख लोगों को बुलाया गया था. इन सभी लोगों लेकर जाकर बंद कर दिया गया.
पहले डिटेंशन सेंटर में उनकी ज़िंदगी थोड़ी आसान थी. खाना अच्छा मिलता था और फ़ोन की भी सुविधा थी. लेकिन एक महीने बाद उन्हें पेट में अल्सर हो गया. इसके बाद उन्हें छोड़ दिया गया. उनके पति का पासपोर्ट लौटा दिया और वे काम करने कज़ाकिस्तान लौट गए. लेकिन अधिकारियों ने जियावुदुन को शिनजियांग में ही रोके रखा.
रिपोर्टों के मुताबिक़, लोग इन सबके ख़िलाफ़ ज़्यादा न बोलें इसलिए उन्हें रोके रखा जाता है. उनके रिश्तेदारों को एक ख़ास किस्म की ट्रेनिंग से गुज़ारा जाता है. 9 मार्च 2018 जियावुदुन को स्थानीय पुलिस थाने में रिपोर्ट करने को कहा गया. उस दौरान उनके पति कज़ाकिस्तान में ही थे. जियावुदुन ने कहा कि उन्हें 'और एजुकेशन' की जरूरत है.
जियावुदुन ने इस जगह की शिनाख्त की है. यहीं पर उन्हें रखा गया था. इसे एक स्कूल के तौर पर दिखाया गया है.
री-एजुकेशन के नाम पर यातनाओं का सिलसिला
जियावुदुन के मुताबिक़, उन्हें फिर उसी जगह भेज दिया गया है, जहां पहले कैद कर रखा गया था यानी कुनेस काउंटी में. लेकिन उस जगह को अब काफी बदल दिया गया था. इलाक़े को काफी बढ़ा दिया गया था. इस जगह पर बसों की लाइनें लगी थीं और इनसे लगातार हिरासत में लिए गए लोगों को उतारा जा रहा था.
महिलाओं से उनके गहने उतरवा कर रख लिए जा रहे थे. जियावुदुन के कान की बालियां खींच कर निकाल ली गई थीं. उनके कान से खून बहने लगा. उन्हें वहां से लेकर जा कर एक कमरे में ठूंस दिया गया,जहां पहले से ही कुछ महिलाएं कैद थीं. इनमें एक बुजुर्ग महिला थीं. जियावुदुन की बाद में उनसे दोस्ती हो गई.
कैंप के सुरक्षा गार्ड्स ने उस महिला के सिर पर बंधे कपड़े को खींच कर निकाल दिया. महिला ने लंबी ड्रेस पहन रखी थी और चीनी सुरक्षा गार्ड उन पर चिल्ला रहे थे. लंबी ड्रेस पहनना वहां धार्मिक रीति-रिवाज का हिस्सा है. लेकिन उस साल वीगरों को उसके लिए गिरफ़्तार किया जा रहा था. चीन सरकार की नज़र में यह अपराध था.
जियावुदुन ने कहा कि उस बुजुर्ग महिला के सारे कपड़े उतरवा दिए गए. उनके शरीर पर सिर्फ इनरवेयर रह गए थे. उन्होंने अपने हाथ से अपने शरीर को ढकने की कोशिश की.
"उन लोगों की यह हरकत देखकर मैं खूब रोई. उन बुजुर्ग महिला के तो आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. "
महिलाओं से कहा गया कि वे अपने जूते और बटन और इलास्टिक लगे सभी कपड़े सौंप दें. इसके बाद उन्हें उन्हें अलग-अलग ब्लॉक में बने सेल में ले जाया गया. किसी भी छोटे चीनी इलाक़े में ऐसी बिल्डिंग की कतार आपको दिख जाएगी.
पहले एक दो महीने कुछ नहीं हुआ. उन्हें सेल में चीन के प्रोपेगैंडा कार्यक्रम देखने को बाध्य किया जाता था. उनके बाल जबरदस्ती काट कर छोटे कर दिए गए थे.
फिर एक दिन पुलिस ने जियावुदुन से उनके पति के बारे में पूछना शुरू कर दिया. पुलिस वालों ने उन्हें ज़मीन पर गिरा दिया. विरोध करने पर उनके पेट पर लात मारी गई.
जियावुदुन ने बताया, "पुलिस वालों के जूते बेहद भारी और कड़े थे. इसलिए शुरू-शुरू में मुझे लगा कि वह किसी दूसरी भारी चीज़ से मुझे मार रहे हैं. लेकिन बाद में पता चला कि वह मेरे पेट को कुचलने की कोशिश कर रहे हैं. मैं लगभग बेहोश हो गई. ऐसा लगा रहा था मेरे अंदर से कोई गर्म लहर गुज़र गई होगी."
कैंप के एक डॉक्टर ने कहा कि हो सकता है मेरे शरीर के अंदर खून का थक्का जमा हो गया हो गया. जब मेरी कोठरी में मेरे साथ रहने वाली महिला ने बताया कि मुझे रक्तस्राव हो रहा है तो जवाब मिला यह सामान्य बात है. महिलाओं को तो रक्तस्राव तो होता ही है.
जियावुदुन के मुताबिक़, हर सेल में 14 महिलाओं को रखा जाता था. दो मंजिला बिस्तर थे. खिड़कियों पर छड़ें लगाई गई थीं. और ज़मीन में गड्ढे वाला एक शौचालय था. जब पहली बार उन्होंने एक महिला को बाहर ले जाते देखा तो समझ नहीं पाई कि क्या हो रहा है. उन्हें लगा कि उन महिलाओं को वहां से हटा कर कहीं और कैद में रखने के लिए ले जाया जा रहा है.
फिर 2018 को मई में किसी समय (जियावुदुन का कहना था तारीख़ ठीक से याद नहीं, क्योंकि क़ैद में तारीख़ का पता नहीं चलता) जियावुदुन और उनके सेल में रहने वाली 20-25 साल की महिला को बाहर ले जाया गया. उन्हें पहले मास्क पहने एक चीनी पुरुष के सामने पेश किया गया. उनके साथ रहने वाली महिला को दूसरे कमरे में ले जाया गया.
"जैसे ही वह अंदर गई वहां से चिल्लाने की आवाज़ आने लगी. मैं बता नहीं सकती आपको क्या कहूं. मैंने सोचा कि वे लोग उसे यातना दे रहे हैं. लेकिन यह नहीं सोचा था कि वे उस महिला के साथ बलात्कार कर रहे हैं."
जो महिला जियावुदुन को सेल से यहां लाई थी, उसने चीनी पुरुषों को उसके रक्तस्राव के बारे में बताया. लेकिन वो लोग महिला को गाली देने लगे. मास्क पहले चीनी आदमी ने मुझे डार्क रूम में भेजने के लिए कहा.
"महिला मुझे अगले कमरे में ले गई. वह लड़की भी वहीं थी. उनके हाथ में एक बिजली की छड़ी थी. मुझे नहीं पता था कि क्या चीज़ थी लेकिन उन्होंने इसे मेरे जननांग में घुसेड़ दिया. इसमें करंट था."
जो महिला मुझे यहां पकड़ कर ले आई थी, उसने जब कहा कि मेरी हालत खराब हो रही है और मुझे मेडिकल मदद की ज़रूरत है, तब जाकर उस रात डार्क रूम में मेरी यातनाओं को सिलसिला खत्म हुआ. मुझे मेरे सेल में ले जाया गया. लगभग एक घंटे के बाद मेरे साथ की लड़की को भी ले आया गया.
वो लड़की पूरी तरह बदल गई थी. वह किसी से बात नहीं कर रही थी. वह चुपचाप बैठ कर शून्य में देखा करती थी. जियावुदुन ने कहा, "वहां कई ऐसे लोग थे जो अपना दिमागी संतुलन खो बैठे थे."
सबक याद न करने पर खाना बंद
इन कैंपों में बने सेल के अलावा एक और अहम चीज़ थी. और वह थे उनके क्लासरूम. यहां शिक्षकों को इन कैदियों को 'री-एजुकेट' करने के लिए नियुक्त किया गया था. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह वीगर और दूसरे अल्पंख्यक लोगों की संस्कृति, भाषा और धर्म छीन लेने और उन्हें मुख्यधारा की चीनी संस्कृति में दक्ष करने की प्रक्रिया है.
शिनजियांग में रहने वाली उज़बेक महिला केलबिनुर सादिक चीनी भाषाओं की उन टीचरों में शामिल हैं जिन्हें ज़बरदस्ती इन कैदियों को पढ़ाने के लिए लाया गया था. लेकिन सादिक भाग गईं और सार्वजनिक तौर पर यहां के अनुभवों को बारे में बताने लगीं.
सादिक ने बीबीसी को बताया कि इन कैंपों पर काफी कड़ा नियंत्रण रहता है. वह रेप के बारे में सुन रही थीं. उन्हें रेप की अफ़वाह और चिह्न दिखे थे.
एक दिन सादिक नज़र बचा कर वहां एक चीनी महिला पुलिसकर्मी के पास पहुंच गईं. सादिक ने पूछा, "मैं यहां रेप के भयावह मामलों के बारे में सुन रही हूं. तुम्हें इसके बारे में कुछ पता है? उस महिला कर्मचारी ने कहा कि वह लंच के वक़्त बताएगी."
सादिक ने बताया, "फिर मैं कैंप के आंगन में चली गई. वहां बहुत ज्यादा कैमरे नहीं लगे थे. उस महिला पुलिसकर्मी ने बताया, "वहां रेप रूटीन बन गया है. रेप नहीं गैंगरेप होता है. चीनी पुलिस वाले न सिर्फ़ उन महिलाओं का रेप करते है बल्कि बिजली का करंट भी देते थे. उन पर भयावह अत्याचार हो रहे हैं."
सेटेलाइट तस्वीरों में शिनजियांग के नज़दीक दबानचेंग में तेज़ी से एक बड़े कैंप का निर्माण होते हुए दिख रहा है.
वीगर ह्यूमन राइट्स प्रोजेक्ट को सादिक ने बताया था कि उन्होंने बिजली के करंट वाली छड़ी के बारे में सुना है. महिलाओं को यातनाएं देने के लिए यह छड़ी उनके जननांगों में घुसेड़ दिया जाता है. यह बात जियावुदुन के बयानों से मिलती है. उन्होंने बिजली के करंट वाली छड़ी के इस्तेमाल की बात बताई थी.
सादिक ने कहा, "महिलाओं की चीख से पूरी बिल्डिंग गूंजती रहती थी, लंच और कभी-कभी मैं जब क्लास में होती थी तब भी ये चीखें सुनाई पड़ती थीं."
कैंप में काम करने लिए मजबूर की गईं एक और महिला टीचर सायरागुल सॉतबे ने बीबीसी से कहा, रेप तो आम हो गया था. गार्ड जिन लड़कियों और महिलाओं को अपने साथ ले जाना चाहते थे, उठाकर ले जाते थे."
सॉतबे कहती हैं कि कैंप में एक 20-21 साल की महिला का सबके सामने गैंगरेप होते उन्होंने ख़ुद देखा था. लगभग 100 क़ैदियों के सामने यह ख़ौफ़नाक हादसा हुआ था. उस महिला से सबके सामने गलती मानने को कहा गया.
सॉतबे ने बताया, "गलती मान लेने के बाद पुलिसवालों ने सबके सामने बारी-बारी से उसका रेप किया. जब वो ये सब कर रहे थे तो हर किसी को यह देखने के लिए बाध्य किया गया. जिसने भी विरोध किया, उसकी कलाइयां बांध दी गईं. आंखों पर पट्टी डाल दी गई. दूसरी ओर देखने के लिए कहा गया और सज़ा देने के लिए ले जाया गया. यह बेहद भयावह था. मुझे लगा मैं मर जाऊंगी. वास्तव में तो मर ही चुकी थी."
नसबंदी, टीके और बेहोश करने वाली दवाएं
उधर, कुनेस के कैंप में जियावुदुन को रहते हुए पहले हफ़्तों और फिर महीनों होने लगे. यहां रहने वाले क़ैदियों के बाल काट कर छोटे कर दिए गए थे. उन्हें क्लास में जाना पड़ता था. मेडिकल टेस्ट कराना पड़ता. इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता था कि ये टेस्ट क्यों कराए जा रहे हैं. हर 15 दिन पर ज़बरदस्ती गोलियां खिला दी जाती थीं. टीका लगवाना पड़ता था, जिससे बेहोशी छा जाती थी और शरीर के अंग सुन्न पड़ जाते थे.
महिलाओं को ज़बरदस्ती आईयूडी (गर्भनिरोधक उपकरण) लगा दी जाती था या फिर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी. एक 20 साल की महिला के साथ भी ऐसा ही हुआ. हमने उसकी ओर से दया की भीख मांगी."
एसोसिएटेड प्रेस की खोजी रिपोर्ट के मुताबिक, शिनजियांग में बड़े पैमाने पर लोगों की नसबंदी की जा रही है. लेकिन चीन की सरकार ने बीबीसी से कहा कि ये सरासर बेबुनियाद आरोप हैं.
लोगों को जबरदस्ती दवा देने, नसबंदी करने और टीका लगाने के अलावा जियावुदुन के कैंप में कैदियों से घंटों देशभक्ति गीत गवाए जाते थे. राष्ट्रपति शी जिनपिंग से जुड़े देशभक्ति टीवी कार्यक्रम देखने को बाध्य किया जाता था.
जियावुदुन ने कहा,"हम कैंप के बाहर की दुनिया के बारे में सोचना भूल चुके थे. मुझे पता नहीं कि उन्होंने हमारा ब्रेनवॉश किया या फिर यह टीकों और दवाओं का असर था. भरपेट खाने के अलावा हम कुछ सोच ही नहीं पाते थे. हमें इतना कम खाना मिलता था कि हम पूरा खाना खाने के बारे में ही सोचते रहते थे."
इन शिविरों में काम कर चुके एक गार्ड ने बीबीसी से एक वीडियो लिंक पर बात करते हुए बताया, "क़ैदियों का खाना रोक दिया जाता था. अगर क़ैदी किताबों का पूरा पाठ याद नहीं कर पाते या शी जिनपिंग की किताबों के सबक जस का तस नहीं सुना पाते तो उन्हें भूखा रखा जाता था."
यह गार्ड अब चीन से बाहर किसी और देश में रहता है.
जब कैदी टेस्ट में फेल हो जाते थे तो उन्हें अलग-अलग रंग के कपड़े पहनने को बाध्य किया जाता था. कपड़ों के रंग इस आधार पर बदले जाते थे कि आप कितनी बार फेल हुए हैं. एक बार फेल होने पर एक रंग और दो या तीसरी बार फेल होने पर दूसरे रंगों के कपड़े पहनने को दिए जाते थे. इसी आधार पर सज़ा का लेवल भी तय था. इसमें खाना रोकने से लेकर पिटाई तक शामिल थी.
गार्ड ने कहा,"मैं इन शिविरों में अंदर तक गया हूं. मैं पकड़े गए लोगों को यहां पहुंचा चुका हूं. अपनी आंखों से मैंने उन बीमार और दुखी लोगों को देखा है. निश्चित तौर पर उन्हें अलग-अलग यातनाओं से गुज़रना पड़ा होगा. मैं यह पक्के तौर पर कह सकता हूं."
तुरुसुने जियावुदुन
गार्ड के इस बयान की अलग से स्वतंत्र रूप से जांच तो संभव नहीं है लेकिन उसने कुछ ऐसे दस्तावेज मुहैया कराए जिनसे यह लगता है कि वह इन शिविरों में उस दौरान काम करता रहा था. उसने नाम न जाहिर होने की शर्त पर बीबीसी से यह बात की थी.
गार्ड ने कहा कि उसे सेल वाले इलाकों में होने वाले बलात्कारों के बारे में कुछ भी पता नहीं है. उससे पूछा गया कि क्या कैंप में कैदियों को बिजली का करंट दिया जाता था. इस पर उसने कहा, हां ऐसा होता था. करंट लगे औजारों का इस्तेमाल वे करते थे.
यातनाओं के बाद कैदियों को अलग-अलग 'अपराधों' में गलती कबूलने कहा जाता था. गार्ड ने कहा, "उनसे जो कबूलनामा लिया जाता वे मेरे दिल में हैं."
कैदियों वाले इन शिविरों में हर जगह शी जिनपिंग थे. उनकी तस्वीरें, नारों से ये पटे हुए थे. 'री-एजुकेशन' प्रोग्राम के वे केंद्र में थे. चीन में काम कर चुके ब्रिटिश राजनयिक और अब रॉयल यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट के सीनियर एसोसिएट फेलो चार्ल्स पार्टन का कहना है कि वीगर लोगों के ख़िलाफ़ इस नीति का यह ढांचा बनाने वाले जिनपिंग ही हैं.
पार्टन कहते हैं, "इसके केंद्र में राष्ट्रपति ही हैं. यह नीति ऊपर से बनी हुई है. इसमें कोई शक नहीं कि यह शी जिनपिंग की ही नीति है. ऐसा नहीं है कि शी या पार्टी के उच्च अधिकारियों ने रेप या यातनाओं को मंजूरी दी है लेकिन निश्चित तौर पर उन्हें इन चीजों के बारे में पता होगा."
पार्टन कहते हैं, "मुझे लगता है टॉप लेवल पर वे इन चीज़ों के प्रति आंख मूंद लेना ही सही समझते हैं. चूंकि पार्टी लाइन कहती है कि इस नीति को बेहद कड़ाई से लागू किया जाए, लिहाजा ऐसा ही हो रहा है. इस नीति का पालन करने में कोई संयम नहीं बरता जा रहा है. मुझे नहीं लगता कि इस तरह की यातनाएं रोकने के निर्देश दिए जाएंगे."
हर किसी को ख़त्म कर देने की साज़िश
जियावुदुन का भी कहना है कि ज़ुल्म ढाने वालों ने इसे बंद नहीं किया है. वह कहती हैं, वे न सिर्फ़ रेप करते हैं बल्कि महिलाओं के शरीर को जहां-तहां काट खाते हैं मानों वो आदमी न होकर जानवर हों. यह कहते-कहते जियावुदुन की आंखों से आंसू बहने लगते हैं. टिशु पेपर से आंख पोंछते हुए उन्होंने खुद को शांत करने के लिए कुछ देर रुकना पड़ता है.
वह कहती हैं, उन्होंने हमारे शरीर के किसी हिस्से को नहीं छोड़ा. हर जगह काट खाया और अब इन भयावह चिह्नों को देख कर नफरत होती है.
"मेरे साथ ऐसा तीन बार हुआ. ऐसा नहीं कि एक आदमी ने ये सब किया. मेरे साथ हमेशा दो या तीन आदमियों ने ऐसा किया.
जियावुदुन ने बताया, "सेल में मेरे नज़दीक सोई एक महिला ने मुझे बताया उसे ज्यादा बच्चा पैदा करने के जुर्म में यहां लाया गया है. वह अचानक तीन दिन के लिए गायब हो गई. जब वह लौटी तो उसके सारे शरीर में निशान बने हुए थे."
उसकी मुंह से आवाज़ नहीं निकल रही थी. मेरी गर्दन में बांह डाल कर वह लगातार सिसकती रही. वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी.
शिविर में रेप और यातनाओं के इन आरोपों पर पूछने पर चीन सरकार ने बीबीसी के सवालों का सीधा जवाब नहीं दिया. इसके बजाय एक महिला प्रवक्ता ने बयान जारी कर कहा कि शिनजियांग में जो कैंप हैं, वे कैदियों को बंद करने की जगह नहीं है. ये 'वोकेशनल और ट्रेनिंग सेंटर' हैं.
प्रवक्ता ने कहा, चीन की सरकार अन्य नागरिकों की तरह ही जातीय अल्पसंख्यकों लोगों के अधिकारों और हितों को पूरा संरक्षण देती है. सरकार महिलाओं के अधिकारों की रक्षा को काफी अहमियत देती है."
जियावुदुन को 2018 के दिसंबर महीने में छोड़ दिया गया. उन्हें उन लोगों के साथ छोड़ा गया जिनके पति या पत्नी या फिर रिश्तेदार कज़ाकिस्तान में थे. जियावुदुन सरकार की नीति में इस बदलाव को अभी तक समझ नहीं पाई हैं.
जियावुदुन वाशिंगटन डीसी से थोड़ी दूर पर स्थित एक उपनगरीय इलाके में रहती हैं. उनकी मकान मालिक वीगर समुदाय की ही हैं.
सरकार ने उनका पासपोर्ट लौटा दिया. फिर वह कज़ाकिस्तान भाग गईं और फिर वहां से वीगर ह्यूमन राइट्स प्रोजेक्ट के सहयोग से अमेरिका चली गईं. वहां रहने के लिए आवेदन कर रही हैं.
वह वाशिंगटन डीसी से थोड़ी दूर पर स्थित एक उपनगरीय इलाक़े में रहती हैं. उनकी मकान मालिक वीगर समुदाय की ही हैं. दोनों महिलाएं साथ में खाना बनाती हैं और घर के बाहर की गलियों का चक्कर लगाती हैं. ज़िंदगी धीमी चल रही है.
जियावुदुन अपने घर में धीमा रोशनी रखती हैं क्योंकि कैंप में काफी चमकदार बल्ब लगे थे. अमेरिका पहुंचने के एक सप्ताह बाद उन्हें सर्जरी करानी पड़ी. उनका गर्भाशय हटा दिया गया है. उनके गर्भाशय को कुचल दिया गया था. वह कहती हैं, "मैं अब मां नहीं बन पाऊंगी." वह चाहती हैं उनके पति भी उनके साथ अमेरिका आ जाएं. अभी वह कज़ाकिस्तान में ही हैं."
कैंप से रिहा होने के बाद जियावुदुन कुछ वक्त तक शिनजियांग में ही थीं. वह लोगों को इस पूरे सिस्टम में फंसते और कैंप से रिहा होते देखती रहीं. उन्होंने देखा कि उनके समुदाय के लोगों पर इस नीति का कैसा असर पड़ रहा है. एक स्वतंत्र रिसर्च में कहा गया है चीन सरकार की इस नीति से पिछले कुछ वर्षों के दौरान शिनजियांग में जन्म दर घट गई है. विश्लेषकों ने इसे 'आबादी का कत्लेआम' करार दिया है.
जियावुदुन कहती हैं कि बहुत से लोग और महिलाएं यातनाओं, प्रताड़नाओं से तंग आकर शराब पीने के आदी हो चुकी हैं.
उन्होंने अपने सेल में रहने वाली एक कैदी को सड़क पर पड़े देखा. वह वही युवा महिला थी जिसे उनके सेल से ले जाया गया था. उसी महिला की चीख उन्हें वहां सुनाई दी थी. महिला नशे की आदी हो चुकी थी. उसका सिर्फ़ शारीरिक वजूद बचा हुआ. वैसे तो वह मर ही चुकी है. बलात्कार ने उसे खत्म कर दिया है.
जियावुदुन कहती हैं, "कहा जाता है कि लोग कैंप से रिहा हो रहे हैं. लेकिन मेरी नज़र में कैंप से निकलने वाले तो पूरी तरह ख़त्म हो चुके हैं."
वह कहती हैं, "यह सब एक सुनियोजित साज़िश है. निगरानी, कैद, कैंप में सरकारी विचारों की घुट्टी पिलाना, अमानवीय बर्ताव, नसबंदी और रेप. सब कुछ योजना बना कर होता है. इन सबका एक ही मकसद है- एक-एक को बरबाद कर दो. और हर किसी को उनके इस मकसद के बारे में पता है." (bbc.com)
-रिचर्ड महापात्रा
देश में प्रतिदिन 2,000 किसान खेती छोड़ रहे हैं, कृषि परिवारों के युवाओं का भी इस प्राथमिक व्यवसाय से मोहभंग हो गया है। इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि शायद अगली पीढ़ी में कोई किसान नहीं बचेगा
महामारी के दौरान कृषि एकमात्र ऐसा क्षेत्र रहा, जिसने वृद्धि दर्ज की है। भारत ने खरीफ सीजन में बंपर फसल भी दर्ज की। वहीं, इस बीच देश अपने ही प्रमुख किसानों के विरोध प्रदर्शनों का भी साक्षी बन रहा है। प्रदर्शन करने वाले इन अहम किसानों की मांग क्या है? वे सिर्फ उनकी उपज के लिए न्यूनतम मूल्य का आश्वासन चाहते हैं। यकीनन, हाल के इतिहास में पहली बार हम खेत, खेती और किसानों पर एक राष्ट्रीय बहस का विषय अनुभव कर रहे हैं। यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि देश में हर चौथा मतदाता एक किसान है, जो आर्थिक पतन के कारण संकटग्रस्त किसान बन चुका है।
इसमें कोई संदेह नहीं बचा है कि भारत की कृषि को दोबारा जीवित करना देश का सबसे प्रमुख एजेंडा है। लेकिन जैसे ही हम इस क्षेत्र के बारे में ज्यादा बातचीत करते हैं, हम इसमें और अधिक बीमारियों की तलाश कर लेते हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो अब हमें परेशान करता है, वह यह है कि आखिर कौन इस प्राथमिक आजीविका वाली गतिविधि को आगे बढ़ाएगा? देश में शायद अगली पीढ़ी में कोई किसान नहीं बचा होगा। जनगणना 2011 के अनुसार देश में हर दिन 2,000 किसान खेती छोड़ देते हैं। वहीं, कृषक समुदायों के बीच के युवा शायद ही कृषि में रुचि रखते हैं। यहां तक कि कृषि विश्वविद्यालयों से स्नातक करने वाले अधिकांश छात्र अन्य व्यवसायों में चले जाते हैं। इसे “भारतीय कृषि के समृद्ध दिमागों का पलायन” (एग्रो ब्रेन ड्रेन) कहा जाता है।
जब कृषि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है तो इसका काला साया खेत और गैर-कृषि कार्यबल दोनों पर पड़ रहा है। दिल्ली की एक बिजनेस इन्फॉर्मेशन कंपनी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2018-19 में कृषि में सकल मूल्य बीते 14 वर्षों में सबसे कम है जबकि कोविड-19 महामारी इस स्थिति को और गंभीर बनाने जा रही है।
मसलन, वर्ष 2018-19 में अनुमानित 91 लाख नौकरियां ग्रामीण भारत में और 18 लाख नौकरियां शहरी भारत में खत्म हो गईं। रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण भारत देश की कुल आबादी का दो-तिहाई है लेकिन इसमें 84 फीसदी की नौकरी छूट गई है। इससे पहले नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की उजागर हुई पीरियडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18 की रिपोर्ट में बताया गया था कि 2011-12 और 2017-18 के बीच 3 करोड़ कृषि मजदूरों सहित कुछ 3.4 करोड़ अनौपचारिक मजदूरों ने ग्रामीण इलाकों में नौकरियां खो दीं। यह कृषि कार्यबल में 40 फीसदी की गिरावट थी।
भारत मुख्य रूप से ग्रामीण से शहरी अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है। इससे लोगों के व्यवसाय और आकांक्षाओं में भी बदलाव आता है। तात्कालिक चिंता यह है कि क्या भारत की खेती-किसानी से जुड़ी आबादी पहले की तरह डटी रहेगी या यह गैर-कृषि व्यवसायों में स्थानांतरित हो जाएगी। दूसरा बड़ा सवाल यह है कि क्या कृषि अपने किसानों-मजदूरों के अस्तित्व के लिए पर्याप्त आकर्षक होने के कारण जीवित रहेगी? बहुत कुछ ग्रामीण-शहरी स्थिति पर निर्भर होगा।
जनगणना की परिभाषा के मुताबिक, एक बस्ती को तब शहरी (नगरपालिका, निगम, छावनी बोर्ड और एक अधिसूचित नगर क्षेत्र समिति को छोड़कर) घोषित किया जाता है जब उसकी न्यूनतम आबादी 5,000 हो और कम से कम 75 फीसदी कामकाजी पुरुष आबादी गैर-कृषि कार्यों में लगी हुई हो। साथ ही जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी हो। ऐसी बस्तियों को सेंसस टाउन भी कहा जाता है। 2001 और 2011 की जनगणना के बीच ऐसे सेंसस टाउन की संख्या 1,362 से बढ़कर 3,894 हुई है। यह इंगित करता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग खेती छोड़ रहे हैं या गैर-कृषि आजीविका में शामिल हो रहे हैं।
इतिहास में पहली बार हुआ कि 2011 की जनगणना के दौरान ग्रामीण भारत की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट दर्ज की गई है। ऐसे संकेत मिलते हैं कि कई ग्रामीण बेरोजगार होने की दशा में और छोटी भूमि होने के बावजूद खेती नहीं कर रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है कि भारत एक बड़े बदलाव की कगार पर है। यदि आर्थिक पहलू और रोजगार के नजरिए से देखें तो ग्रामीण भारत अब कृषि प्रधान नहीं है। नीति आयोग के लिए एक शोध पत्र में अर्थशास्त्री रमेश चंद (सरकारी थिंक टैंक के सदस्य) ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन का विश्लेषण किया है। उन्होंने अपने निष्कर्ष में कहा कि वर्ष 2004-05 के बाद से भारत एक गैर-कृषि अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है।
किसान खेती छोड़ रहे हैं और गैर-कृषि नौकरियों में शामिल हो रहे हैं। यह एक आर्थिक निर्णय है जो उन्होंने लिया है क्योंकि वे बाद वाले विकल्प से अधिक कमाते हैं। एक किसान की आय एक गैर-किसान के पांचवें हिस्से के आसपास है। यह संरचनात्मक परिवर्तन 1991-92 में आर्थिक सुधारों के बाद आया। चंद के शोध से पता चलता है कि 1993-94 और 2004-05 के बीच कृषि क्षेत्र में वृद्धि 1.87 प्रतिशत तक घट गई जबकि गैर-कृषि अर्थव्यवस्था में विकास दर 7.93 प्रतिशत तक बढ़ गई। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान में भारी गिरावट के साथ आया।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 1993-1994 में जहां 57 फीसदी था, वहीं 2004-05 में यह 39 प्रतिशत ही बचा। कृषि आय की तुलना में अन्य आय तेजी से बढ़ रही है। कृषि और गैर-कृषि आय के बीच का अंतर 1980 के मध्य में 1:3 के अनुपात से बढ़कर 2011-12 में 1: 3.12 हो गया है। 2004-05 तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि से अधिक गैर-कृषि बन गई। यह चलन अब भी जारी है।
दशकों से ज्यादातर सरकारी नीतियां खेती छोड़ने वाले लोगों को गैर-कृषि क्षेत्रों में खपाने पर केंद्रित हैं। समकालीन नीतिगत ध्यान इन क्षेत्रों में बेरोजगारी से निपटने के लिए है और उन लोगों के लिए आजीविका सुनिश्चित करने के लिए है जो कृषि में जीवित रहने में सक्षम नहीं हैं। उदाहरण के लिए ग्रामीण भारत में गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों के सृजन में निर्माण क्षेत्र की वर्ष 2004-05 और 2011-12 के बीच हिस्सेदारी 74 फीसदी थी। बुनियादी ढांचे में निवेश पर सरकार की राजनीतिक समझ इसलिए विकसित हुई है क्योंकि यह वो क्षेत्र है जो ग्रामीण काम करने वालों को जगह देता है। लेकिन यहां एक समस्या है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव के बावजूद गैर-कृषि क्षेत्र नौकरी चाहने वालों को खपाने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि वे आवश्यक दर पर रोजगार पैदा करने में सक्षम नहीं हैं। मिसाल के तौर पर सुधार के पहले चरण के दौरान ग्रामीण रोजगार में 2.16 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई थी। उच्च आर्थिक वृद्धि के बावजूद सुधार के बाद के चरण में इसमें गिरावट हो गई। इसलिए सरकार का 5 खरब डॉलर अर्थव्यवस्था का मुख्य लक्ष्य भले ही हासिल हो जाए लेकिन यह उन क्षेत्रों में नौकरियों का सृजन नहीं करेगा जहां आवश्यकता है।
मौटे तौर पर यह एक बिना नौकरियों का विकास होगा और एक संकट के रूप में सामने आएगा। ऐसे में सवाल उठता है कि खेती छोड़ने वाले वे लोग कहां खपाए जाएंगे जो वर्तमान में बड़ी संख्या में या तो बेरोजगार हैं या फिर आधे-अधूरे रोजगार में लगे हैं। वे यह जानते हुए भी कृषि से चिपके रहते हैं कि यह लाभकारी नहीं है। लेकिन कोई कब तक नुकसान उठाने वाली आजीविका के भरोसे रह सकता है? सरकार की रणनीति है कि ऐसी ग्रामीण आबादी जो रोजगार की मांग करती है, उसे गैर-कृषि क्षेत्र में स्थानांतरित किया जाए। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 2004-05 और 2011-12 के दौरान लगभग 3.4 करोड़ किसान कृषि से बाहर चले गए। खेती छोड़ने की वार्षिक दर 2.04 प्रतिशत है। नीति आयोग के अनुमान के अनुसार, यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो 2022 यानी जिस वर्ष तक आय दोगुनी करनी है, उस वर्ष तक कुल कार्यबल में किसानों की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत तक होगी।
भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में किसानों की घटती आबादी और कृषि स्रोतों से कम होती आय को लेकर इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट की ओर से हाल ही में जारी “द 2019 रूरल डेवलपमेंट रिपोर्ट” में ग्रामीण युवाओं के बीच बेरोजगारी को लेकर एक नया आयाम जोड़ा गया है। रिपोर्ट में आबादी की प्रवृत्तियों की गणना के कई अध्ययनों को शामिल किया है, साथ ही वैश्विक स्तर पर ग्रामीण युवाओं के आर्थिक भविष्य की भी बात की गई है। रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि ग्रामीण युवाओं की आबादी पूरी दुनिया में बढ़ रही है। खासतौर से एशिया और अफ्रीका के विकासशील और विकसित होने की दहलीज पर खड़े देशों में ऐसा दिख रहा है। वहीं, ग्रामीण युवा आबादी में यह वृद्धि ऐसे समय में आई है, जब इन क्षेत्रों में न तो प्रभावशाली आर्थिक विकास हुआ है और न ही आजीविका के विविध साधन हैं। अब प्रश्न उठता है कि इन्हें कहां रोजगार मिलेगा? इस पर विचार करें। करीब तीन-चौथाई ग्रामीण युवा उन देशों में रहते हैं, जहां कृषि मूल्य-संवर्धन सबसे कम है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है, “युवा लोगों के पास इन देशों में कृषि गतिविधियों में संलग्न होकर गरीबी से बचने का काफी कठिन समय है। अधिकांश बेहतर जीवन यापन करने के लिए अन्य क्षेत्रों में जाएंगे। यही प्रवृत्ति भारत में भी देखी गई है।” देश में ग्रामीण युवा बेरोजगारों का एक बड़ा प्रतिशत उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पाया जाता है। मुख्य रूप से कृषि से जुड़े राज्यों में युवा आबादी बहुत बड़ी है जो खेती की तुलना में वैकल्पिक आजीविका स्रोतों की तलाश में है। अफ्रीकी देशों की तुलना में भारत में गैर कृषि रोजगार का स्तर काफी ऊंचा है। ठीक इसी समय पर अध्ययन में तर्क दिया गया है कि कृषि क्षेत्र में नए कार्यबल को जगह देने की भरपूर क्षमता है। करीब 67 फीसदी ग्रामीण युवा आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां कृषि की संभावनाएं हैं।
इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलमेंट (आईएफएडी) के अध्यक्ष गिलबर्ड एफ होंगबो ने कहा कि यदि हम इस पर कार्रवाई करने में विफल होते हैं तो यह बिना आशा और दिशा के मौजूद युवा आबादी को एक गुमराह पीढ़ी तैयार करने का जोखिम पैदा करती है। इसलिए कृषि की संभावना ग्रामीण युवाओं के लिए खेती को एक व्यवसाय के रूप में लेने के लिए विवश करने वाला कारक नहीं बची है। वे न तो अच्छी फसल पाते हैं और न ही कीमतें जो उनके खेती से मुंह मोड़ने का मुख्य कारण है। (downtoearth.org.in/hindistory)
-संध्या झा
कोदो, जिसे अंग्रेजी में कोदो मिलेट या काउ ग्रास के नाम से जाना जाता है, में कई औषधीय गुण हैं
आपने अक्सर बुजुर्गो को कहते सुना होगा – “नहाए के बाल और खाए के गाल अलग नजर आ जाते हैं। कहने को ये बहुत साधारण सी बात है, लेकिन इसके मायने बहुत गहरे हैं”। जैसा आपका खान-पान होता है चेहरे पर चमक भी वैसी ही होती है।
हमारी सेहत एक तरह का इनवेस्टमेंट (निवेश) है। जैसा निवेश करेंगे, रिटर्न भी वैसा ही मिलेगा। यानी जितना अच्छा खाना खाएंगे, सेहत उतनी ही अच्छी रहेगी। अच्छे खाने से मतलब संतुलित आहार से है। यानी आपके खाने में वो तमाम ज़रूरी पोषक तत्व होना लाज़मी हैं, जिसकी आपके शरीर को ज़रूरत है।
अफसोस की बात है कि ज़्यादातर लोग चटर-पटर, तला-भुना तो खूब खाते हैं, परंतु संतुलित आहार नहीं लेते। इसकी भी कई वजह हैं। पहली वजह तो यही है कि हम हर समय दौड़ते-भागते रहते हैं।हमारे पास हरेक काम करने का समय होता है, लेकिन, सुकून से खाना खाने का टाइम बिल्कुल नहीं होता।
लिहाजा जो मिलता है, आनन-फानन में वही खा कर सिर्फ पेट भर लेते हैं। कई लोगों को ये पता ही नहीं होता कि उन्हें कौन सी चीज़ खाने से कौन सा पोषक तत्व मिल सकता है। हम सभी खुद को कैसे तंदुरुस्त और सेहतमंद रखें, इसके लिए कई तरह की रिसर्च की जा रही हैं।
वैज्ञानिकों ने ऐसी सौ चीजों की लिस्ट बनाई है, जिन्हें खान-पान का हिस्सा बनाकर हम अपने शरीर को सभी ज़रूरी पोषक तत्व दे सकते हैं। इसी क्रम में चलिए, कोदो मिलेट से आपको रूबरू कराते हैं।
कोदो, जिसे अंग्रेजी में कोदो मिलेट या काउ ग्रास के नाम से जाना जाता है। कोदो के दानों को मिलेट के रूप में खाया जाता है और कोदो का वानस्पतिक नाम पास्पलम स्कोर्बीकुलातम हैं। कोदो औषधीय महत्व की फसल है। इसे शुगर फ्री चावल के नाम से ही पहचान मिली है। यह मधुमेह के रोगियों के लिए उपयुक्त आहार है।
स्वास्थ्य और खाद्य पदार्थों के विशेषज्ञ, वन्य आधारित खेती के जनक मिलेट मेन ऑफ़ इंडिया के नाम से जाने जाते हैं खादर वली। वली बताते हैं, “मिलेट स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए वरदान हैं, जिनके माध्यम से आधुनिक जीवन शैली की बीमारियों (मधुमेह, रक्तचाप, थायराइड, मोटापा, गठिया, एनीमिया और 14 प्रकार के कैंसर) को ठीक किये जा सकते हैं”।
वर्ष 2009 में जर्नल ऑफ एथनोफार्माकोलोजी में प्रकाशित एक शोध कोदो को मधुमेह के रोगियों के लिए स्वास्थ्यवर्धक पाता है। वहीं, वर्ष 2005 में फूड केमिस्ट्री नामक जर्नल में प्रकाशित शोध के अनुसार कोदो में फाइबर काफी अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, जो लोगों को मोटापे से बचाता है।
वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तक हीलिंग ट्रडिशंस ऑफ द नॉर्थवेस्टर्न हिमालयाज के अनुसार कोदो बुरे कोलेस्ट्रोल घटाने में भी मददगार साबित होता है।
कोदो क्या है?
कोदो का पौधा धान के पौधे जैसा ही होता है, लेकिन खास बात यह है कि इसकी खेती में धान से बहुत कम पानी की जरूरत होती है। लोग कोदो के बारे में इतना ही जानते हैं, लेकिन कोदो का पौधा 60-90 सेमी तक ऊंचा व सीधा होता है।
इसके बीज चमकीले, गहरे बैंगनी रंग के, छोटे, सफेद, गोल सरसों के समान होते हैं। इसका रंग श्यामला होता है। कोरोना काल ने लोगों के खानपान की आदत को भी बदला है और अब स्वाद के साथ लोग सेहत पर भी ध्यान दे रहे हैं।
प्राचीन इतिहास
खाद्यान्न फसलों में कोदों (पेस्पैलम स्कोर्बिकुलेटम) भारत का एक प्राचीन अन्न है, जिसे ऋषि अन्न का दर्जा प्राप्त है । ऐसा माना जाता है कि जब महर्षि विश्वामित्र जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो सबसे पहले उन्होंने कोदों अन्न की उत्पत्ति की थी।
यह एक जल्दी पकने वाली सबसे अधिक सूखा अवरोधी आदिवासी प्रिय फसल है। यह गरीबों की फसल मानी जाती है, क्योंकि इसकी खेती अनउपजाऊ भूमियों में बगैर खाद-पानी के की जाती है।
एक अनुमान के मुताबिक 3,000 साल पहले इसे भारत लाया गया। दक्षिणी भारत में, इसे कोद्रा कहा जाता है और साल में एक बार उगाया जाता है। यह पश्चिमी अफ्रीका के जंगलों में एक बारहमासी फसल के रूप में उगता है और वहां इसे अकाल भोजन के रूप में जाना जाता है। अकसर यह धान के खेतों में घास के समान उग जाता है।
कहां पाया जाता है?
भारत में कोदो पैदा करने वाले राज्य महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक, तमिलनाडु के कुछ भाग, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल के कुछ भाग, बिहार, गुजरात एंव उत्तर प्रदेश है। और यह भारत के अलावा मुख्य रूप से फिलिपींस, वियतनाम, मलेशिया, थाईलैंड और दक्षिण अफ्रीका में उगाया जाता है। दक्कन के पठारी क्षेत्र को छोड़कर भारत के अन्य हिस्सों में इसे बहुत ही छोटे रकबे में उगाया जाता है।
औषधीय गुण
एंटी मधुमेह
कोदो के नियमित सेवन से ब्लड में उपस्थित ग्लूकोस के स्तर को कम किया जा सकता हैं, क्योंकि कोदो में मधुमेह विरोधी कंपाउंड क्वेरसेटिन, फेरुलिक एसिड, पी-हाइड्रॉक्सीबेन्जोइक एसिड, वैनिलिक एसिड और सीरिंजिक एसिड पाया जाता हैं।
एंटीऑक्सिडेंट और एंटी-माइक्रोबियल गतिविधि
कोदो में पॉलीफेनोल और एंटीऑक्सिडेंट गुण होते हैं। पॉलीफेनॉल्स मानव शरीर में पाए जाने वाले बैक्टीरिया जैसे स्टैफिलोकोकस ऑरियस, ल्यूकोनोस्ट ल्यूकोनोस्टोक मेसेन्टेरोइड्स, बेसिलस सेरेस और एंटरोकोकस फेसेलिस के खिलाफ लड़ने में सहायक होता हैं।
मोटापा विरोधी
कोदो में उच्च में फाइबर है जिससे यह वजन को बढ़ने से रोकता है। यह कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड के स्तर में वृद्धि को रोकने में भी मदद करता है और वजन का प्रबंधन करने और वजन घटाने को बढ़ावा देता है।
कोलेस्ट्रॉल और उच्च रक्तचाप विरोधी
हृदय रोग के लक्षण, उच्च रक्तचाप और उच्च कोलेस्ट्रॉल के स्तर से पीड़ित महिलाओं के लिए कोदो बहुत फायदेमंद है। (downtoearth.org.in)
-भोपाल से शुरैह नियाजी, मेरठ से अजय चौहान
कभी हिंदी-उर्दू मुशायरों की शान रहे मशहूर शायर बशीर बद्र आजकल भोपाल के अपने घर में गुमसुम ही रहते हैं. वैसे तो उनकी उम्र 85 साल की है, लेकिन याददाश्त के साथ नहीं देने की वजह से उनकी सक्रियता कम हो गई.
पुरानी बातें उनके जेहन से जा चुकी हैं. लेकिन इंसानियत और भाईचारे में विश्वास रखने वाला हर कोई उनके लिखे एक शेर को शायद ही कभी भूल सकता है.
उनका लिखा ये शेर है, "लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में."
दो पंक्तियों के शेर में वो सब है, जो हिंसा पर उतारू सांप्रदायिक भीड़ से जान बचाने वाला आदमी अपनी पूरी उम्र सोचता रहता है. बशीर बद्र भी यही सोचते रहे, वे जब तक अपने पूरे होशो हवास में रहे, उनकी आंखों के सामने वह मंज़र रह रहकर कौंधता ही रहा.
उन्होंने यह शेर तब लिखा था, जब 1987 के मेरठ में सांप्रदायिक दंगों के दौरान उनके घर को आग लगा दिया गया था. इन दंगों ने बशीर साहब को उस वक़्त तोड़ कर रख दिया. यह ऐसा वाक़या था, जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा नहीं था.
हालाँकि इस हादसे के उलट, दूसरी ओर इंसानी भाईचारे की मिसाल भी देखने को मिली, जब बशीर बद्र के घर और उनके परिवार को बचाने के लिए उनके पड़ोसी सामने आए.
त्यागी-तनेजा बने मिसाल
बशीर बद्र उस वक्त मेरठ कॉलेज में पढ़ाते थे और उनका परिवार मेरठ के शास्त्रीनगर इलाक़े में विकास कॉलोनी के मकान संख्या डी- 120 में रहता था. उनके पड़ोस में रहने वाले अनिल त्यागी बताते हैं, "पूरे शहर में दंगे हो रहे थे. लोग एक दूसरे की जान के प्यासे थे."
मेरठ में अप्रैल, 1987 से ही दंगे शुरू हो गए थे, जो तीन महीने तक चलते रहे और इसमें 100 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. हिंसा की शुरुआत होते ही बशीर बद्र अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चले गए थे. लेकिन घर में उनका छोटा बेटा था.
AJAY CHAUHAN
उस वाक़ये को याद करते हुए अनिल त्यागी बताते हैं, "घटना के दिन सुबह के समय अचानक कॉलोनी के दक्षिण छोर से कुछ अनाज लोगों की भीड़ घुस आई, सुबह का समय था, अधिकतर लोग अपने घरों के अंदर थे. कालोनी में घुसे उपद्रवियों ने बशीर बद्र के मकान पर हमला बोल दिया. गनीमत ये रही कि उस समय मकान में कोई नहीं था."
"बशीर बद्र अपने परिवार के साथ दंगे के दौरान तनाव के माहौल को देखकर पहले ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चले गए थे, घर पर उनका छोटा बेटा था, जिसे कालोनी में सब लोग बीनू के नाम से बुलाते थे. बीनू उस समय घर के बाहर पार्क में था, तभी भीड़ ने उनके घर पर हमला बोला दिया."
अनिल त्यागी के मुताबिक, "घर के अंदर जमकर तोड़फोड़ की गई, आगजनी की गई, कछ लोग उनका सामान भी लूट कर ले जाने लगे. इसी दौरान कॉलोनी के लोग इकट्ठा हो गए और बशीर बद्र के घर को बचाने के लिए उन उपद्रवियों से भिड़ गए. मैंने कई लोगों का सामना किया. कॉलोनी में जिन लोगों के पास लाइसेंसी बंदूक थी, उन्होंने फ़ायरिंग कर उपद्रवियों को वहाँ से भगाया. लेकिन तब तक काफ़ी नुक़सान घर को हो चुका था."
अनिल त्यागी ने बताया, "तनाव के माहौल को देखते हुए हमने बशीर साहब के बेटे बीनू को अपने घर में पनाह दे रखी थी. रात में वह हमारे घर में ही ऊपर की ओर बने कमरे में सोता था. जिस सुबह उनके घर पर हमला हुआ, उस पहली रात भी वह हमारे ही घर में सोया था."
कालोनी में रह रहे सुनील तनेजा ने बताया कि कॉलोनी के लोगों को इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं था कि उपद्रवी उनकी कॉलोनी में आकर हमला कर सकते हैं.
VANI PRAKASHAN
वे बताते हैं, "हमने बशीर बद्र के परिवार को सुरक्षित रखने का प्रयास किया था. उपद्रवियों को कॉलोनी से भगाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई लड़ी थी. बाद में जब शहर के हालात सामान्य हुए, तब बशीर बद्र का परिवार वापस आया. कुछ समय तो वह यहाँ रहा, लेकिन इस घटना के एक साल बाद वर्ष 1988 में वे इस घर को बेचकर भोपाल चले गए."
इस घटना के बारे में बशीर बद्र इन दिनों कुछ बताने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन उनकी पत्नी राहत बद्र ने बीबीसी को बताया कि 1987 के दंगे में उनके घर परिवार की सुरक्षा करने के लिए उनके हिंदू पड़ोसी ही सामने आए थे.
राहत बद्र ने बीबीसी हिंदी से बताया, "बद्र साहब की याददाश्त जब ठीक थी, तब वे कई बार उस वाक़ये को याद करते थे. समाज में जब भी कहीं तनाव की बात आती, तो वे हमें बताते थे कि कैसे त्यागी और तनेजा परिवार ने हमलोगों की मदद की थी. अनिल त्यागी, सुनील तनेजा और दूसरे लोगों का ज़िक्र करते थे."
हालाँकि परिवार की सुरक्षा को देखते हुए बशीर बद्र ने अपना मेरठ का मकान दंगों के एक साल बाद ही बेच दिया था, जो उसके बाद भी बिकते हुए तीसरे-चौथे मालिक के पास पहुँच चुका है.
बशीर बद्र भले ही मेरठ से भोपाल चले गए हों, लेकिन उनके दिल में हिंसा की वो याद बनी रही.
दूसरी तरफ़ हिंसा के समय 22-23 साल के जवान रहे अजय त्यागी और सुनील तनेजा की उम्र अब 56-57 साल की होने जा रही है. इन लोगों में आज भी बशीर बद्र के मेरठ छोड़कर भोपाल में बस जाने की कसक दिखती है.
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सुनील तनेजा का कहना है कि कुछ लोग नहीं चाहते कि लोग अमन चैन से साथ साथ रहे, ये ऐसे कुछ लोग ही अपने स्वार्थ के लिए एक दूसरे से लड़ाते हैं. लेकिन आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो धर्म और जाति का भेदभाव भुलाकर एक दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़े रहते हैं.
इंडिया टुडे की एक विशेष रिपोर्ट के मुताबिक़ मेरठ में तीन महीने तक चले दंगे में कम से कम 150 लोगों की मौत हुई थी और एक हज़ार से ज़्यादा लोग घायल हुए थे.
उस वक्त उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का शासन था और वीर बहादुर सिंह राज्य के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. मेरठ की सांप्रदायिक हिंसा में ही हाशिमपुरा में हुए नरसंहार का ज़िक्र भी होता है, जिसमें पुलिस और पीएसी की जवानों पर 42 मुस्लिम युवाओं की हत्या का आरोप लगा था.
हालाँकि सबूतों के अभाव में अदालत ने इस मामले में सभी 16 अभियुक्त पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया था.
बशीर बद्र की पीएचडी
वैसे बशीर बद्र को इस महीने के शुरु में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने पीएचडी की उपाधि दी है. यह डिग्री उन्हें पीएचडी करने के लगभग 46 साल बाद दी गई है. बशीर बद्र ने 1973 में पीएचडी कर ली थी. लेकिन थीसिस जमा करने के बाद अपनी व्यस्तता की वजह से वो उसे कभी ले ही नहीं पाए.
लेकिन उनकी पत्नी डॉ. राहत बद्र और बेटे तैयब बद्र ने इसके लिए काफ़ी कोशिश की, जिसके बाद उन्हें इस महीने डिग्री मिल गई. बशीर बद्र की पीएचडी का विषय था 'आज़ादी के बाद की ग़ज़ल का तनकीदी मुताला.'
बशीर बद्र स्वास्थ्य वजहों से बीते 15 सालों से मुशायरों में शिरकत नहीं कर पाए हैं, लेकिन इसके बावजूद आज भी अगर उनका शेर उनके बेटे पढ़ते हैं, तो उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और कई बार तो वो ख़ुद उसे मुकम्मल कर देते हैं. (bbc.com)
-रुचिर गर्ग
मीना हैरिस ने भी किसानों के आंदोलन का समर्थन किया है और इसे दबाने की सरकार की साजिशों के खिलाफ गुस्सा ज़ाहिर किया है. मीना हैरिस वही अपनी कमला हैरिस की भांजी !
विश्व गुरु दुनिया में बहुत बदनाम हो रहे हैं ! दुनिया अब वो वाली नहीं रही भाई।
मीना हैरिस ने ही यह भी लिखा है कि फ़ासिज़्म कहीं भी हो वो लोकतंत्र के लिए हर जगह खतरा है! दुनिया इस खतरे की पदचाप सुन रही है।
दुनिया सिर्फ जनविरोधी सत्ताधीशों की नहीं है,दुनिया जनहितैषी लोगों से भरी पड़ी है।
दुनिया में लोकतंत्र के हिमायती जिस तादाद में है ना उसका अंदाज़ दरअसल कुंए के मेंढकों को है नहीं।
ये दुनिया को अर्नब गोस्वामियों की नज़र से ही पहचानते हैं।
इन्हें पॉप सिंगर रिहाना या पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग की आवाज़ की ताकत का अनुमान नहीं है।
दुनिया ऐसे संगीतकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, कवियों, चित्रकारों, जनहितैषी शासकों, राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों, पत्रकारों से भरी पड़ी है।
दुनिया भक्ति में लीन नहीं है।
दुनिया पढ़ रही है, जान रही है, लड़ रही है ...और रच रही है!
यहां मुंह बंद करोगे, इंटरनेट बन्द करोगे तो आवाज़ दुनिया के किसी और कोने से उठेगी, किसान की छाती पर यहां कीलें ठोकोगे तो दर्द दुनिया के किसी और कोने में होगा, रक्त किसी और कोने में निकलेगा और चीख किसी और कोने से सुनाई देगी !
विश्व गुरू जी दुनिया ट्रंप के साथ खत्म नहीं हो गई है ! दुनिया तो तब भी लड़ रही थी,रच रही थी जब इंटरनेट नहीं था।
1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने कुचल तो दिया था क्योंकि क्रांतिकारियों की मामूली तलवारों का मुकाबला अंग्रेजों की तोप से था लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ इस महान विद्रोह ने आज़ादी की जो चेतना पैदा की थी उस इतिहास को ज़रूर जान लेना चाहिए।
प्रबंधन में गहरी आस्था रखने वाले हे गुरुओं संघर्ष को कुचलने के जतन ज़रूर प्रबंधन का कौशल हो सकते हैं लेकिन संघर्ष तो दिलों से, विचारों से और इरादों से होता है।
लोकतंत्र ज़िद से नहीं चलता, ज़िद तो फ़ासिस्टों की पहचान है !
म्यांमार की सर्वोच्च नेता रहीं आंग सान सू ची
म्यांमार की सेना ने सोमवार सुबह देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची समेत उनकी सरकार के बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके तख़्तापलट कर दिया है.
म्यांमार की राजधानी नेपिडॉ और यंगून में सड़कों पर सैनिक तैनात हैं. कई अंतरराष्ट्रीय टीवी चैनलों का प्रसारण प्रभावित हुआ है और माहौल में एक तरह की अनिश्चतता का माहौल है.
इसी बीच अमेरिका, ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र की ओर से म्यांमार की सेना की निंदा की गई है.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने ट्वीट करके कहा है, "मैं म्यांमार में तख़्तापलट और आंग सान सू ची समेत आम नागरिकों की गिरफ़्तारी की निंदा करता हूं. लोगों के मत का सम्मान किया जाना चाहिए और आम लोगों के नेताओं को रिहा किया जाना चाहिए."
वहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने म्यांमार पर नए प्रतिबंध लगाने की धमकी दी है.
लेकिन जहां एक ओर वैश्विक शक्तियां म्यांमार सेना पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दे रही हैं. वहीं, भारत की ओर से इस घटना पर काफ़ी सधी हुई टिप्पणी की गई है.
भारत सरकार की ओर से इस घटनाक्रम पर बेहद सधे शब्दों में बयान जारी किया है जिसमें सेना की निंदा नहीं की गई है. भारत के विदेश मंत्रालय ने म्यांमार की स्थिति पर 'गहरी चिंता' जताते हुए कहा है कि वो 'स्थिति पर नज़र रख रहा है'.
विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में कहा है कि "म्यांमार का घटनाक्रम चिंताजनक है. म्यांमार में लोकतांत्रिक परिवर्तन की प्रक्रिया में भारत ने हमेशा अपना समर्थन दिया है. हमारा मानना है कि क़ानून का शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बरकरार रखना चाहिए. हम स्थिति पर नज़र रख रहे हैं."
सोमवार सुबह तख़्तापलट की ख़बरें आने के बाद से एक सवाल खड़ा हुआ है कि दक्षिण एशिया में हुए इस घटनाक्रम का भारत पर क्या असर पड़ेगा.
बीबीसी संवाददाता सारिका सिंह ने म्यांमार में भारत के राजदूत रहे जी. पार्थसारथी से बात करके इस विषय को समझने की कोशिश की है.
लोकतांत्रिक मूल्यों से ज़्यादा अहम सुरक्षा?
जी. पार्थसारथी मानते हैं कि म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार से लेकर सेना तक सभी भारत से अच्छे रिश्ते रखना चाहते हैं.
वे कहते हैं, "भारत और म्यांमार के बीच 1,640 किलोमीटर की सीमा है. इस सीमा पर ऐसे कई कबाइली समूह हैं जो कि अलगाववादी हैं. ये म्यांमार की सरकार और भारत सरकार के ख़िलाफ़ रहते हैं. इनमें से कुछ गुटों को चीन का समर्थन भी है."
"क्योंकि भौगोलिक स्तर पर यहां एक त्रिकोण बनता है, भारत, म्यांमार और चीन का. अराकन सेना, काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी समेत 26 ऐसे और गुट हैं जो यहां लोगों को परेशान करते हैं. ये अलगाववादी गुटों से मिलते-जुलते गुट हैं. चीन इन गुटों को प्रोत्साहन देता है. ऐसे में वहां चाहें सैनिक सरकार हो या चुनी हुई सरकार हो, उसके साथ हमारे रिश्ते ठीक रहते हैं. हम म्यांमार के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देते हैं."
"चीन चाहता है कि वहां एक सरकार हो जो कि उसके राष्ट्रहितों को देखे, वह चाहता है कि उसे म्यांमार के पास बंगाल की खाड़ी तक हमारी सागरीय सीमा तक आने दिया जाए."
"हम आंग सान सू ची का समर्थन करते हैं. लेकिन इससे पहले हमारे अपने राष्ट्रीय हित हैं जो कि हमारे लिए ज़रूरी हैं. हमारे अंतरराष्ट्रीय हित इसमें है कि इन अलगाववादी समूहों को खुली छूट न दी जाए. क्योंकि इसका हमारी सीमा पर असर पड़ेगा. ऐसे में दिल्ली में कोई भी सरकार हो, वह उनके अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देती है. लेकिन जब कभी निजी तौर पर बातचीत होती है तब हम ज़रूर कहते हैं कि यह उनके ही राष्ट्रीय हित में होगा अगर उनके यहां लोकतांत्रिक सरकार आए."
चीन के तरफ़ झुकाव का ख़तरा
भारत की तरह चीन की ओर से भी इस तख़्तापलट को लेकर आक्रामक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है.
जी. पार्थसारथी बताते हैं, "चीन चाहता है कि वहां एक ऐसी सरकार हो जो कि उसके राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखे. चीन एक सैन्य सरकार चाहता है. चीन चाहता है कि वह म्यांमार के रास्ते से बंगाल की खाड़ी तक पहुंचे. ऐसे में हमें इन चीजों का ध्यान रखना चाहिए और हम ध्यान रखते भी हैं. हमारे रिश्ते म्यांमार के साथ बहुत अच्छे रहे हैं."
Myanmar-Map social media
"इतने अच्छे हैं कि हमने उनकी नौसेना को एक पनडुब्बी भी दी है. जब ज़रूरी पड़ती है तब सैन्य सहायता भी दी है. हमारे लिए उनकी एकता सर्वप्रथम है."
पार्थसारथी मानते हैं कि सू ची के प्रति भारत सरकार अपना समर्थन बनाए रखेगी लेकिन म्यांमार के साथ रिश्ते ख़राब करने के बारे में वो नहीं सोचेगी.
वे कहते हैं, "जब मैं राजदूत था तब हमने सैन्य प्रतिनिधियों से बात करके सू ची की रिहाई को लेकर कई बार बात की. लेकिन हम इन बातों को सार्वजनिक नहीं बनाते हैं. हम नहीं चाहते हैं कि किसी भी सरकार के साथ वहां हमारे संबंध बिगड़े हुए रहें. क्योंकि हमारे राष्ट्रीय हित एक दूसरे से मिलते हैं."
अंतरराष्ट्रीय मामलों को कवर करने वाली वरिष्ठ पत्रकार सुहासिनी हैदर ने द हिंदू में इस मुद्दे पर प्रकाशित एक लेख में बताया है कि अगर भारत की ओर से भी वैसा ही रिएक्शन आता है जैसा कि अमेरिकी सरकार ने दिया है तो इससे म्यांमार सेना के चीन की तरफ झुकने का ख़तरा पैदा हो जाता है.
अपने लेख में वह लिखती हैं कि रणनीतिक चिंताओं से आगे बढ़कर भारत म्यांमार के साथ मिलकर विकास के कार्यों से जुड़ी कई परियोजनाओं पर काम कर रहा है. इनमें इंडिया म्यांमार थाइलैंड ट्राइलैटरल हाइवे और कालादन मल्टीमॉडल ट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट नेटवर्क के साथ-साथ सिट्वे डीप वॉटर पोर्ट पर विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने की कार्ययोजना शामिल है. (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के पड़ौसी देश म्यांमार (बर्मा या ब्रह्मदेश) में आज सुबह-सुबह तख्ता-पलट हो गया। उसके राष्ट्रपति बिन मिन्त और सर्वोच्च नेता श्रीमती आंग सान सू की को नजरबंद कर दिया गया है और फौज ने देश पर कब्जा कर लिया है। यह फौजी तख्ता-पलट सुबह-सुबह हुआ है जबकि अन्य देशों में यह प्राय: रात को होता है। म्यांमार की फौज ने यह तख्ता इतनी आसानी से इसीलिए पलट दिया है कि वह पहले से ही सत्ता के तख्त के नीचे घुसी हुई थी।
2008 में उसने जो संविधान बनाया था, उसके अनुसार संसद के 25 प्रतिशत सदस्य फौजी होने अनिवार्य थे और कोई चुनी हुई लोकप्रिय सरकार भी बने तो भी उसके गृह, रक्षा और सीमा-इन तीनों मंत्रालयों का फौज के पास रखा जाना अनिवार्य था। 20 साल के फौजी राज्य के बावजूद जब 2011 में चुनाव हुए तो सू की की पार्टी ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ को स्पष्ट बहुमत मिला और उसने सरकार बना ली।
फौज की अड़ंगेबाजी के बावजूद सू की की पार्टी ने सरकार चला ली लेकिन फौज ने सू की पर ऐसे प्रतिबंध लगा दिए कि सरकार में वह कोई औपचारिक पद नहीं ले सकीं लेकिन उनकी पार्टी फौजी संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग करती रही। नवंबर 2020 में जो संसद के चुनाव हुए तो उनकी पार्टी ने 440 में से 315 सीटें 80 प्रतिशत वोटों के आधार पर जीत लीं। फौज समर्थक पार्टी और नेतागण देखते रह गए। अब 1 फरवरी को जबकि नई संसद को समवेत होना था, सुबह-सुबह फौज ने तख्ता-पलट कर दिया। कई मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और मुखर नेताओं को भी उसने पकडक़र अंदर कर दिया है। यह आपातकाल उसने अभी अगले एक साल के लिए घोषित किया है। उसका आंरोप है कि नवंबर 2020 के संसदीय चुनाव में भयंकर धांधली हुई है। लगभग एक करोड़ फर्जी वोट डाले गए हैं। म्यांमार के चुनाव आयोग ने इस आरोप को एकदम रद्द किया है और कहा है कि चुनाव बिल्कुल साफ-सुथरा हुआ है। अभी तक फौज के विरुद्ध कोई बड़े प्रदर्शन आदि नहीं हुए हैं लेकिन दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने इस फौजी तख्ता-पलट की कड़ी भत्र्सना की है और फौज से कहा है कि वह तुरंत लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करे, वरना उसे इसके नतीजे भुगतने होंगे। भारत ने भी दबी जुबान से लोकतंत्र की हिमायत की है लेकिन चीन साफ़-साफ़ बचकर निकल गया है। वह एकदम तटस्थ है। उसने बर्मी फौज के साथ लंबे समय से गहरी सांठ-गांठ कर रखी है। बर्मा 1937 तक भारत का ही एक प्रांत था। भारत सरकार का विशेष दायित्व है कि वह म्यांमार के लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी हो।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
-पुष्य मित्र
अभी जो नये कानून को लेकर विरोध है, वह एक क्षणिक मसला नहीं है। यह उस बड़ी लड़ाई का हिस्सा है, जो वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ की वैश्विक नीतियों के खिलाफ है। वे नीतियां जो दुनिया की हर सरकार की लोक कल्याणकारी नीतियों को खत्म कर देना चाहती है। जो मानती है कि दुनिया में बेहतरी सिर्फ पूंजीवाद और कारपोरेट के विकास से ही हो सकती है।
वे नीतियां जो गरीबों की मदद के लिए खर्च होने पर एक-एक पैसे पर रोक लगाना चाहती है। जो चाहती है कि सरकारें सिर्फ ऐसी नीतियां बनायें, जिससे कारपोरेट को अपना व्यापार तेजी से बढ़ाने में मदद मिले। वे नीतियां जो हर सरकारी सेवा की पूरी कीमत उस देश के गरीब नागरिकों से वसूलना चाहती है। जो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के बुनियादी सवालों को सरकार से लेकर कारपोरेट को सौंपना चाहती हैं। और इसे रिफार्म का नाम देती है।
यह सिर्फ इन तीन कानूनों का सवाल नहीं है, जो खेतिहार किसानों के नाम पर बड़ी कंपनियों के हित में बने हैं। यह सवाल उन तमाम नीतियों, कानूनों और फैसलों के लिए है, जो सरकारी कंपनियों को कमजोर करके उसे कारपोरेट को औने-पौने दाम पर सुपुर्द कर रही हैं। जो कालेजों की फीस बढ़ा रही है, रेल को गरीबों की सवारी के बदले पैसे वालों की सवारी बनाने पर तुली है। जो बीएसएनएल की कमाई को जिओ को और ओएनजीसी के बदले रिलायंस को देश के संसाधनों को सौंप रही है। जो सरकारी अस्पतालों के बदले अपोलो और मैक्स जैसे कारपोरेट अस्पतालों के आगे बढऩे के पक्ष में नीतियां बना रही हैं।
हमारा विरोध उन नीतियों से भी है जो ऑटोमेशन को बढ़ावा देती है और सरकारी पदों पर भर्ती नहीं करना चाहती। जो कारपोरेट और उद्योगों के हित में मजदूरों को 8 के बदले 12 घंटे तक काम करने के लिए विवश करना चाहती है। जो आंगनबाड़ी और राशन की दुकानों को बंद कराना चाहती है, जबकि देश के करोड़ों बच्चे कुपोषण और एनीमिया से ग्रस्त हैं।
यह सिर्फ भारत में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हो रहा है और ऐसा नहीं कि भारत में यह सिर्फ इसी सरकार के समय में हो रहा है, पिछले दो दशकों से यह लगातार हो रहा है। हां, यह जरूर सच है कि अब तक चोरी-छिपे और शर्मिंदगी के साथ होता था। अब पूरी बेशर्मी के साथ देश के संसाधनों को बेचा जा रहा है। पहली दफा कोई सरकार कह रही है कि मेरे खून में व्यापार है। सरकार सभी भारतीय कंपनियों को बेचने की प्लानिंग कर रही है। कालेजों की फीस, रेल का किराया, अस्पतालों का खर्च सब बेशर्मी के साथ बढ़ाया जा रहा है।
मजदूरों की मुसीबतें बढ़ रही हैं। छोटे व्यापारियों को परेशान किया जा रहा है। सरकारी स्कूलों और अस्पतालों को बंद करने की योजनाएं बोर्ड पर हैं। पेट्रोल के दाम बढ़ाये जा रहे हैं। गरीबों को दी जाने वाली हर तरह की सब्सिडी खत्म की जा रही है।
किसानों पर जो हमला हुआ है, वह इसी की एक कड़ी है। लक्ष्य है कृषि क्षेत्र का जो थोड़ा बहुत मुनाफा है, उसे छीन कर कारपोरेट को सौंपना। बड़ी कंपनियों को अपने हिसाब से खेती करवाने की छूट देना। उन्हीं सस्ती कीमत पर किसानों की फसल खरीद लेने की रियायत देना और वे जितना चाहें उतना माल समेट कर स्टोर कर लेने की इजाजत देना। यह सब उसी कड़ी का हिस्सा है।
यह एक अमूर्त किस्म का हमला है, जिसे देश की बड़ी आबादी समझ नहीं पा रही। उसे अंदाजा नहीं है कि आखिरकार इन सबका नुकसान उन्हें ही झेलना है। उनके ही बच्चों को ऊंची फीस चुकानी है और 8 के बदले 12 घंटे की नौकरी करनी है। अस्पतालों का लाखों का बिल भरना है। महंगे खाने के सामान को खरीदने के लिए मजबूर होना है। कुपोषित और एनीमिक होकर जीना है। अब रेल यात्रा स्वप्न होने जा रही है। यह सब गरीबों और मध्यम वर्ग को झेलना है। मगर उन्हें हिंदुत्व का अफीम थमा दिया गया है और वे उसे ही चाट कर मग्न है।
इस सरकार की यही सफलता है कि वह आहिस्ता-आहिस्ता लोगों का गला भी रेत रही है और लोग मगन भी हैं। उसका जयकारा भी लगा रहे हैं। कारपोरेट को ऐसा एजेंट फिर कहां मिलेगा।
मगर जो यह सब होता हुआ देख रहे हैं, वह कैसे चुप हो सकते हैं। इसलिए लड़ रहे हैं।
कबीर दास कह गये हैं-
सुखिया सब संसार है, खाये और सोये।
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये।
-नम्रता जोशी
उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ को अगर कोई सामान्य परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश के ही एक मल्टीप्लेक्स में देखे, जैसा कि मैं देख रही थी, तो शायद एक समानांतर नैरेटिव को बुन डाले।
वैश्विक कोरोना महामारी और उसके कारण लगने वाले लॉकडाउन ने हमें कई तरह से प्रभावित किया है जिनमें से एक है तारीखों को लेकर हमारे दिमाग में अत्याधिक सजगता का होना। मार्च, 2020 में मेरे लिए जो अत्यधिक महत्वपूर्ण तारीख थी, वह थी शुक्रवार 13 मार्च, 2020। सन 2020 में वह अंतिम दिन था जब मैं किसी मल्टीप्लेक्स में गई थी। मैं उस दिन होमी अदजानिया की फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ देखने गई थी। और मेरे जहन में कहीं कोई ख्याल भी नहीं था कि अति प्रतिभावान कलाकार इरफान खान की यह वह अंतिम फिल्म होगी जिसे मैं बड़े पर्दे पर देखूंगी और इसके बाद मेरे आगे एक सूखा बंजर महीना होगा जब मुझे थिएटर के इस अंधियारे में मद्धिम और तेज होती रोशनी में पर्दे पर चलते-फिरते चित्रों को समोसे और कॉफी के साथ आनंद लेते हुए दोबारा देखने का मौका नहीं मिलेगा।
मुझे याद भी नहीं पड़ रहा है कि अतीत में मैं कभी सिनेमाघर से एक लंबे समय तक दूर रहने के लिए इस तरह से बाध्य हुई थी। जब फिल्में मेरे लिए बतौर पत्रकार और एक समालोचक के, रोटी कमाने का जरिया बनी, उससे भी पहले से हर हफ्ते में एक फिल्म तो तय ही थी। फिल्मों से मेरे संबंधों के बीच में कभी बोर्ड परीक्षाओं जैसी महत्वपूर्ण और डरावनी चीज भी नहीं आ सकी। यहां तक कि स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म की बढ़ती पकड़ भी मुझे बड़े पर्दे के प्रति मेरी प्रतिबद्धता से डिगा नहीं सकी।
लेकिन जैसे-जैसे जुदाई के महीने बढ़ने लगे, वैसे-वैसे पर्दे की गैरमौजूदगी और खालीपन को भरने की कोशिशें बढ़ने लगीं। जिंदगी ने ओटीटी की पूर्वानुमानित दिशा की ओर रुख किया। अगर ‘गु लाबो-सिताबो’ और ‘शकुंतला देवी’ फिल्मों ने ओटीटी को अपना घर बनाने का निश्चय किया तो मुझे भी उनका दरवाजा खटखटाना ही था। सितंबर में कहीं जब टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह ऑनलाइन चल रहा था तो शिफ्ट 72 नाम के एक नए जीव ने मुझे अपनी तरफ आकर्षित किया। ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग फ्लेटफॉर्म ने मुझे अपनी गिरफ्त में धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (डीआईएफएफ) के प्रथम ऑनलाइन संस्करण के बादसे जकड़े रखा। अचानक से मुझे फिल्मों की यादों ने सताना बंदकर दिया।
मैंने हाल में ही वर्जुअल माध्यम से फिल्मों को देखने का और मार्केट में सबसे मिलने-जुलने का इतना असल जैसा अनुभव किया जैसा कि एनएफडीसी फिल्म बाजार में संभव होता। और जब इन गतिविधियों का समय समाप्त होने लगता है तो मैं सन डांस फिल्म समारोह में उपस्थित होने के लिए तैयार हो जाती हूं। यह फिल्म समारोह वादा करता है कि वह हमारे निजी स्क्रीन पर सामुदायिक रूप से देखने के अनुभव को दोबारा पैदा कर देगा, चाहे हम उन्हें दुनिया अलग-अलग कोनों से अलग- अलग समय पर देख रहे हों।
सुनने में चाहे यह बहुत खराब लगे लेकिन फिल्मों से हमारे प्रेम में वैश्विक महामारी आड़े नहीं आई। बेशक हम अपनी रोज की जगहों पर रोज के तरीकों से नहीं मिल सके लेकिन हमारी मुलाकात और बहुत सी जगहों पर होती रही, जैसे कि– विमियो, सिनानडो, फेस्टिवल स्कोप...। हां, यह इतना रोचक नहीं है जितना कि बाहर जाना, सफर करना, फिल्मों को ढूंढना होता है। लेकिन अगर सारी दुनिया की फिल्में स्वयं ही सारे जहान से चलकर आपके लिविंग रूम में आ जाएं तो कौन शिकायत करेगा।
इस दौरान हाल के व्यक्तिगत इतिहास में फिल्मों को लेकर कोई बड़ी घटना ऐसे सरकती रही जैसे कोई धागा हो। करीब- करीब नौ माह बाद मैंने 10 दिसंबर, 2020 को बड़े पर्दे पर एक फिल्म देखी- दीपा मेहता की ‘फनी बॉय’। यह मैंने ओपन एयर स्क्रीनिंग में सोशल डिस्टेन्सिंग के सारे नियमों का पालन करते हुए देखी। 20 दिसंबर, 2020 को मैंने डरते-डरते मल्टीप्लेक्स में कदम रखा लेकिन किसी फिल्म को देखने के लिए नहीं बल्कि सरमद की फिल्म ‘जिंदगी तमाशा’ पर हुए एक पैनल डिस्कशन में हिस्सा लेने के लिए। इस फिल्म को पाकिस्तान की ओर से ऑस्कर के लिए आधिकारिक तौर पर भेजा गया था। और फिर अचानक से शुक्रवार 22 जनवरी, 2021 को, यानी पूरे दस माह नौ दिन बाद, मैंने घर के पास के ही एक मल्टीप्लेक्स में सुभाष कपूर की फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ देखने का मन बनाया। ऐसा नहीं था कि मैं इस फिल्म को देखने के लिए मरी जा रही थी लेकिन उस समय मैंने ऐसा महसूस किया कि कुछ सीमाओं को लांघने की जरूरत होती है और कुछ बाधाओं पर– चाहे शारीरिक हों या मानसिक– विजय पाना आवश्यक होता है। यह पूर्णरूप से मेरा व्यक्तिगत निर्णय था और यह कदम मैंने सामान्य जीवन की ओर बहुत सतर्कता के साथ मास्क और सेनिटाइजर से लैस होकर उठाया था। यह एक ऐसा निर्णय जो शायद कोई और लेना पसंदन करे। यहां तक कि मैं भी शायद थोड़े समय के लिए दोबारा ऐसा फैसला न लूं। इन दिनों हम सभी के लिए दिमाग एक ऐसी उलझन बन गया है जिसके लिए फिल्में महत्वपूर्ण हैं भी और नहीं भी।
एक बिल्कुल चकाचक चमकती लेकिन खाली लॉबी, सुनसान पड़े स्नैक्स काउंटर, जोश से खाली द्वारपाल और दर्शकों में अपने सिवाय दो और लोग। यह वैश्विक महामारी का एक और नजारा था जो भविष्य की सूचना दे रहा था। सेनिटाइजर के लगातार छिड़काव के बीच सुनीता तोमर जो स्क्रीन पर भारत की तरफ से तंबाकू विरोधी अभियान का चेहरा हैं, से स्क्रीन पर दोबारा मुलाकात एक अजीब तरह से आश्वस्त करती है जबकि हमें पता है कि वह 2015 में गुजर चुकी हैं।
उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ को अगर कोई सामान्य परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश के ही एक मल्टीप्लेक्स में देखे, जैसा कि मैं देख रही थी, तो शायद एक समानांतर नैरेटिव को बुन डाले, विशेषकर तब जब इसका मुख्य किरदार उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती से प्रेरित हो। छोटे बालों वाली और चतुराई से खेल खेलने वाली ऋचा चड्ढा को क्या अपने होम ग्राउंड में स्वीकृति के स्वर सुनाई देते या विरोधके नारे? इस फिल्म में शायद वह एक अकेला महत्वपूर्ण क्षण है जब राज्य के दो पीड़ित समुदाय– दलित और मुस्लिम– स्टेज पर एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाते हैं। इस क्षण को लेकर जनता से कैसी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़तीं?
यह फिल्म जब जाहिर तौर पर जाति विभाजनों के मुद्दे पर बुरी तरह लड़खड़ा रही थी और धर्म तथा जेंडर की राजनीति पर बहुत ही खराब मिले-जुले से संदेश दे रही थी, तब मैं हालात को लेकर केवल अंदाजा लगा सकती थी कि किस तरह से जाति, धर्म और जेंडर का मुखौटा लगाकर राजनीतिक ताकत के भूखे लोग उसे पाने के लिए कैसे-कैसे खेल खेलते हैं। वैसे, इस फिल्म ने हमें इसकी मात्र सतही तस्वीर दिखाई है। क्या यह हमने बहुत बार पहले नहीं देखा है? (navjivanindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आज दो बादल छाए हुए लगते हैं। एक तो सरकारों का बनाया हुआ और दूसरा अदालत का! उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की पुलिस ने उन छह पत्रकारों के खिलाफ रपट लिख ली है, जिन पर देशद्रोह, सांप्रदायिकता, आपसी वैमनस्य और अशांति भडक़ाने के आरोप हैं। इन आरोपों का कारण क्या है ? कारण है, 26 जनवरी के दिन उनकी टिप्पणियाँ, टीवी के पर्दों पर या ट्विटर पर! इन पत्रकारों पर आरोप है कि इन्होंने दिल्ली पुलिस पर दोष मढ़ दिया कि उसने एक किसान की गोली मारकर हत्या कर दी जबकि वह ट्रेक्टर लुढक़ने के कारण मरा था। लेकिन आरोप लगानेवाले यह क्यों भूल गए कि उन्हें जैसे ही मालूम पड़ा कि वह किसान ट्रैक्टर लुढक़ने की वजह से मरा है, पत्रकारों ने अपने बयान को सुधार लिया। इसी प्रकार उन पर यह आरोप लगाना उचित नहीं है कि उन्हीं के उक्त दुष्प्रचार के कारण भडक़े हुए किसान लाल किले पर चढ़ गए और उन्होंने अपना झंडा वहाँ फहरा दिया। पत्रकारों की टिप्पणियों के पहले ही किसान लाल किले पर पहुँच चुके थे। जऱा यह भी सोचिए कि इतना बड़ा दुस्साहसपूर्ण षडय़ंत्र क्या इतने आनन-फानन रचा जा सकता है?
जिन पत्रकारों के विरुद्ध पुलिस ने रपट लिखवाई है, उन्हें देशद्रोही या विघटनकारी आदि कहना तो एक फूहड़ मज़ाक है। उनमें से कई तो अत्यंत प्रतिष्ठित और प्रामाणिक हैं, हमारे नेताओं से भी कहीं ज्यादा। इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय का उसके फैसलों से कुछ असहमत होनेवाले और कुछ व्यंग्यकारों से नाराज़ होना भी मुझे ठीक नहीं लगता। हमारे न्यायाधीशों की बुद्धिमत्ता और निष्पक्षता विलक्षण और अत्यंत आदरणीय है लेकिन उनके फैसले एकदम सही हों, यह जरुरी नहीं हैं। यदि ऐसा ही होता तो ऊँची अदालतें अपनी नीची अदालतों के कई फैसलों को रद्द क्यों करती हैं और सर्वोच्च न्यायालय अपने ही फैसलों पर पुनर्विचार क्यों करता है ? कई फैसलों को देखकर मुझे खुद लगता रहा है कि हमारे जज अंग्रेज का बनाया मूल कानून तो बहुत अच्छा जानते हैं लेकिन भारत में न्याय क्या होता है, यह गांव का एक बेपढ़ा-लिखा सरपंच ज्यादा अच्छा बता देता है। इसके अलावा हमारे न्यायाधीशों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनके हर फैसले को सरकार और जनता सदा सिर झुकाकर स्वीकार करती है। वह अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूज़वेल्ट (1933-45) की तरह अपनी सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं कहती कि यह आपका फैसला है, अब आप ही इसे लागू करें। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश में अराजकता फैलाने और अदालत का अपमान करने की आजादी दे देनी चाहिए। हमारी अदालतों और नेताओं को कबीर के इस दोहे को हीरे के हार में जड़ाकर अपने गले में लटकाए रखना चाहिए:-
निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
कल एक महत्वपूर्ण खबर दब गई... दरअसल कल मध्यप्रदेश की बालाघाट पुलिस ने बूचडख़ाने में ले जाने के लिए गाय-बैलों की तस्करी कर रहे कुछ लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया विवेचना में पता लगा कि इनमें बीजेपी की छात्र इकाई भारतीय जनता युवा मोर्चा (क्चछ्वङ्घरू) के स्थानीय नेता भी शामिल हैं।
मामले की जाँच कर रहे पुलिस अधिकारी ने कहा, कि ‘मुख्य आरोपी मनोज और अरविंद गायों और अन्य जानवरों की मौबाजार (बालाघाट में पशुबाजार) से खरीदी करते थे। बाद में ये चरवाहों की मदद से मवेशियों को महाराष्ट्र सीमा पर मौजूद बोदालकासा गांव में ले जाते थे। यहां से एक व्यापारी पशुओं को महाराष्ट्र के बूचडख़ानों में भेजता था।’
बालाघाट पुलिस के एसपी अभिषेक तिवारी ने कहा, ‘हम मामले की जांच कर रहे हैं। यह गायों की तस्करी का संगठित गिरोह है। पुलिस आरोपियों को पकडऩे की कोशिश में है।’ मनोज परधी भाजयुमो का एक महासचिव बताया जाता है।
शायद आपको याद हो कि मशहूर पत्रकार निरंजन टाकले ने लगभग दो साल पहले अनेक पत्रकारों के सामने अपने एक उद्बोधन में यह खुलासा किया था कि संघ से जुड़े बजरंग दल के लोगों द्वारा चलाया गया जबरन वसूली नेटवर्क पशु व्यापारियों से पैसे कैसे वसूलता है !
इस सच्चाई का पता लगाने के लिए, उन्होंने खुद को लगभग 3 महीने तक रफीक कुरैशी नाम के एक मुस्लिम पशु व्यापारी के रूप में पेश किया .....ओर स्वंय इस नेटवर्क का हिस्सा बनकर राजस्थान और गुजरात के जानवर मंडी से मवेशियों को लाने ले जाने में शामिल रहे।
इस तीन महीनों के दौरान उन्होंने यह देखा कि बजरंग दल ट्रकों को रोककर जबरन वसूली में लगा है। अगर गाय का ट्रक लेकर पार करना है, तो साढ़े चौदह हजार से पंद्रह हजार तक देना होता है। भैंस का ट्रक पार करने के लिए साढ़े छह हजार और पारों के लिए पांच हजार तक की रकम देनी पड़ती है।।
निरंजन टाकले ने यह भी खुलासा किया कि जैसे बजरंग दल के नेता और उनके लोग अपनी इस उगाही को कायम रखने के लिए बीच-बीच में किसी को भी मार देते हैं, ताकि इस व्यापार पर उनका कब्जा बना रहे लोगों में डर बना रहे और उनका कारोबार चलता रहे।
यह है इन तथाकथित गौसेवकों की सच्चाई.....
-रमेश अनुपम
पूरे रास्ते वृक्षों की अटूट श्रृंखला, जंगली बेल और लताएं, भांति-भांति के विहंगमों का अविरल कलरव, निर्जन पथ, बैलों की गले में बंधी हुई घंटियों की सुमधुर ध्वनि, बाहें पसारे विशाल पर्वत श्रेणियां, अनंत निरभ्र आकाश और हरीतिमा की चादर ओढ़े शस्य श्यामला धरती किसी भी मनुष्य के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकती थी। किशोर नरेन्द्र भी अपने ह्रदय में कुछ ऐसा ही अनुभव कर रहे थे। नरेन्द्र के ह्रदय के तार भी प्रकृति की सुषमा को देखकर झंकृत हो उठे थे।
रायपुर में नरेन्द्रनाथ दत्त ( स्वामी विवेकानंद) की रायपुर यात्रा की चर्चा से पहले रायपुर नगर की भी थोड़ी चर्चा कर लेना मुनासिब होगा। रायपुर एक प्राचीन नगर है। ‘ The Imperial Gazetteer of India vol-XXI ( New Ed, 1908 ) P.60 में उल्लेखित कथन पर विश्वास करें तो रायपुर नगर का अस्तित्व नवमीं शताब्दी से है। अर्थात् आज से ग्यारह सौ वर्ष पहले से रायपुर एक नगर के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। लेकिन तब वह रायपुर के नाम से नहीं किसी और नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में इस शहर का नाम रायपुर रखा गया।
अंग्रेज विद्वान D.R Leckie द्वारा सन् 1790 में लिखित सुप्रसिध्द ग्रथ 'Journal of a route to Nagpur by way of Cuttac , Burrasamber and Southern Burjare Ghaut in the year 1790’ (1880 ) श्च.180 के पृष्ठ का अवलोकन करें तो उस समय रायपुर प्राचीन नगर होने के साथ-साथ संपन्न तथा व्यावसायिक केन्द्र के रूप में संपूर्ण मध्य भारत में प्रसिध्द हो चुका था। अनेक विदेशी विद्वानों ने भी अपने-अपने ग्रंथ में इस प्राचीन नगर के वैभव का अपने-अपने तरीके से वर्णन किया है। 'Madhya Pradesh District Gazetteer : Raipur’ ( Bhopal, 1978 ) P.397
छत्तीसगढ़ पूर्व में हैहयवंशी कल्चुरी राजाओं के अधीन रहा है। सन् 1758 में कल्चुरी राजाओं को पराजित कर मराठा शासकों द्वारा छत्तीसगढ़ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया गया। सन् 1817-19 में इतिहास ने पुन: एक बार करवट ली जिसके चलते मराठों को परास्त कर अंग्रेजों ने छत्तीसगढ़ को अपने आधिपत्य में ले लिया।
कैप्टन एडमंड सन् 1818 में छत्तीसगढ़ के प्रथम अधीक्षक नियुक्त किए गए। उनके निधन के उपरांत उनके स्थान पर कैप्टन एगेन्यु छत्तीसगढ़ के अधीक्षक बनाए गए। कैप्टन एगेन्यु ने सन् 1824-25 के मध्य रतनपुर के स्थान पर रायपुर को अपना हेडक्वार्टर बनाया। एगेन्यु ने जयपुर की तरह ही रायपुर को भी सुव्यवस्थित एवं सुंदर बनाने का कार्य किया।
उस समय रायपुर घने जंगलों से आच्छादित एक ऐसा दुर्गम नगर माना जाता था जहां जाने के लिए अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी के मन में भय का संचार होता था। सन् 1861 में Central का पुर्नगठन किया गया। सन् 1862 में Central Provinces के नए चीफ कमिश्नर U Sir Richard Temple का रायपुर आगमन हुआ। सन् 1870 तक रायपुर शहर की पहचान छत्तीसगढ़ सहित समग्र मध्य देश में एक प्रमुख शहर के रूप में होने लगी।
सन् 1877 तक रायपुर आने-जाने के लिए कोई सुविधाजनक मार्ग नहीं था, न हीं सडक़ मार्ग और न ही रेल मार्ग। उस समय कोलकाता से आने वाले यात्री इलाहाबाद, जबलपुर होते हुए नागपुर पहुंचते थे फिर नागपुर से बैलगाडिय़ों से उन्हें रायपुर तक की यात्रा करनी पड़ती थी।
इस यात्रा में कई दिन लग जाते थे। नागपुर से रायपुर तक की यात्रा उस समय 183 मील की होती थी। नागपुर से भंडारा तक 40 मील का रास्ता पक्का रास्ता था। भंडारा से रायपुर तक की यात्रा जो लगभग 143 मील का रास्ता था, कच्चे मार्ग से करना पड़ता था। भंडारा के पास बहने वाली नदी वेनगंगा पर उस समय तक अंग्रेजों द्वारा पुल का निर्माण किया जा चुका था।
हमारे इस प्रथम कड़ी के नायक, महानायक, उन्नीसवीं शताब्दी के भारत के तेजस्वी सूर्य स्वामी विवेकानंद अर्थात् किशोर नरेन्द्रनाथ दत्त का आगमन भी इन्हीं दिनों रायपुर में संभव हुआ। सन् 1877 में चौदह वर्षीय किशोर नरेन्द्र अपने पिता विश्वनाथ दत्त, मां श्रीमती भुवनेश्वरी देवी, दस वर्षीया छोटी बहन जोगेन बाला तथा आठ वर्षीय भाई महेन्द्रनाथ दत्त के साथ पहली बार ट्रेन से इलाहाबाद, जबलपुर होते हुए नागपुर आए। नागपुर से बैलगाडिय़ों में बैठकर नरेन्द्रनाथ दत्त अपने पूरे परिवार के साथ अनेक दिनों की यात्राएं कर रायपुर पहुंचे थे।
एक अन्य बैलगाड़ी पर रायपुर के सुप्रसिध्द वकील तथा विश्वनाथ दत्त के मित्र भूतनाथ डे, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती एलोकेसी डे तथा उनका छ: माह का पुत्र हरिनाथ डे, जो कालांतर में विश्व के महानतम जीनियस के रूप में विख्यात हुए सवार थे। अन्य बैलगाडिय़ों पर खाने-पीने का सामान, नौकर-चाकर तथा रसोइया सवार थे। जंगली जानवरों से सुरक्षा और चोर लुटेरों के डर से एक बंदूकधारी सिपाही भी सुरक्षा के लिए उनके साथ था। इस तरह वे दस-पंद्रह बैलगाडिय़ों के कारवां के साथ नागपुर से रायपुर के लिए निकल पड़े।
बैलगाडिय़ों का यह कारवां शाम ढलते-ढलते किसी पूर्व निर्धारित गांव में थम जाता। वहां रसोइया भोजन बनाते, सब लोग भोजन कर उसी गांव में विश्राम करते, तत्पश्चात् सुबह स्नान आदि के पश्चात् पुन: यात्रा प्रारंभ हो जाती। दोपहर में फिर किसी गांव में रूककर भोजन और विश्राम के पश्चात् यह कारवां आगे की यात्रा में निकल पड़ता और सूर्यास्त होने के पश्चात् फिर किसी गांव में ठहर जाता।
कोलकाता के मेट्रोपोलिटन स्कूल के तीसरी कक्षा में पढऩे वाले छात्र नरेन्द्र के लिए जो उस समय उदर रोग से पीडि़त थे और जिसका ज्यादातर वक्त बिस्तर पर लेटे हुए बीत जाता था, यह यात्रा एक अलौकिक अनुभव से भरी हुई यात्रा सिद्ध हुई। 14 वर्षीय नरेन्द्र अपने पिता, मां, भाई-बहन के साथ पहली बार इतनी लम्बी यात्रा पर निकले थे।
पूरे रास्ते वृक्षों की अटूट श्रृंखला, जंगली बेल और लताएं, भांति-भांति के विहंगमों का अविरल कलरव, निर्जन पथ, बैलों की गले में बंधी हुई घंटियों की सुमधुर ध्वनि, बाहें पसारे विशाल पर्वत श्रेणियां, अनंत निरभ्र आकाश और हरीतिमा की चादर ओढ़े शस्य श्यामला धरती किसी भी मनुष्य के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकती थी। किशोर नरेन्द्र भी अपने ह्रदय में कुछ ऐसा ही अनुभव कर रहे थे। नरेन्द्र के ह्रदय के तार भी प्रकृति की सुषमा को देखकर झंकृत हो उठे थे।
(अगली किस्त कल)
-सुशोभित
गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल ने लिखा है- 30 जनवरी को जब गांधीजी की हत्या हुई तो खबर सुनते ही नेहरू और पटेल दौड़े चले आए। नेहरूजी गांधीजी की चादर में मुंह छुपाकर बच्चों की तरह रोने लगे। सरदार पटेल, जो अभी चंद मिनटों पहले तक गांधीजी से बतिया रहे थे, पत्थर की मूरत की तरह अडोल बैठे रहे।
लॉर्ड माउंटबेटन पहुंचे। उन्होंने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से कहा, ‘गांधीजी ने अपनी अंतिम बातचीत में मुझसे कहा था, जवाहर और सरदार को समझाइयेगा कि उन दोनों की दोस्ती आज देश के लिए सबसे ज़रूरी है। वो तो अब मेरी सुनते नहीं, शायद आपका कहा मान लें।’ यह सुनते ही नेहरू और पटेल एक-दूसरे के गले से लिपटकर रो पड़े। कुछ समय बाद किसी ने कहा-‘प्रधानमंत्री जी, हमें अंतिम यात्रा की तैयारियां करना है। कार्यक्रम कैसे होगा, आप निर्देश दें।’
नेहरूजी ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। फिर किंचित प्रकृतिस्थ हुए तो चंद पल सोचकर बोले-‘जरा रुको, बापू से पूछकर आता हूं!’ और फिर, भूल से यह क्या कह गए, सोचते ही अवाक हो गए।
प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक ‘पूर्णाहुति’ के दूसरे खण्ड में इसका वृत्तांत देते हुए लिखा है-‘बीते तीस-पैंतीस सालों में हम सब अपनी तमाम दुविधाओं और समस्याओं और प्रश्नों को बापू के पास ले जाने के इतने आदी हो चुके थे कि हम भूल ही गए कि अब ऐसा कभी हो नहीं सकेगा।’
उस रात राष्ट्र के नाम अपने संदेश में नेहरूजी ने रूंधे गले से ठीक ही कहा था- ‘हमारे जीवन से रौशनी चली गई!’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जो किसान आंदोलन 25 जनवरी तक भारतीय लोकतंत्र की शान बढ़ रहा था, वही अब दुख और शर्म का कारण बन गया है। हमारे राजनीतिक नेताओं के बौद्धिक और नैतिक दिवालिएपन को इस आंदोलन ने उजागर कर दिया है। 26 जनवरी को जो हुआ, सो हुआ लेकिन उसके बाद सरकार को किसान नेताओं से दुबारा संवाद शुरू करना चाहिए था लेकिन उसने किसान नेताओं के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करनी शुरु कर दी। वह यह भूल गई कि कई प्रमुख किसान नेताओं ने सरकारी नेताओं से भी ज्यादा कड़ी भत्र्सना उन उपद्रवियों की की है, जिन्होंने लाल किले पर एक सांप्रदायिक झंडा फहराया और पुलिसवालों के साथ मारपीट की।
सरकार को अपनी बदइंतजामी बिल्कुल नजर नहीं आई। उसके गुप्तचर विभाग और पुलिस को उसने ठीक से मुस्तैद तक नहीं किया, वरना उपद्रवियों की क्या मजाल थी कि वे दिल्ली में घुस आते और लाल किले पर चढ़ जाते ! अब किसान नेताओं के पासपोर्ट जब्त करने में कौनसी तुक है ? पिटाई के डर से हमने पूंजीपतियों और नेताओं को विदेश भागते हुए तो देखा है लेकिन किसानों के बारे में तो ऐसी बात कभी सुनी भी नहीं है।
विरोधी दलों ने भी गजब की मसखरी की है। उन्होंने किसानों के समर्थन में संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार कर दिया है। वे सत्ता में होते तो वे तो शायद भिंडरावाला-कांड कर देते। हमारा दब्बू और मरियल विपक्ष इस वक्त चाहता तो सत्ता पक्ष से भी अच्छी भूमिका निभा सकता था। वह किसानों और सरकार के बीच निष्पक्ष मध्यस्थ बन सकता था। किसानों को धरना से हटाकर घर लौटने को कह सकता था और उन्हें विश्वास दिला सकता था कि वह उनकी लड़ाई अब संसद में लड़ेगा लेकिन वह किसानों के चूल्हे पर अपनी रोटियाँ सेंकने पर आमादा है। इसका नतीजा क्या होगा ? अब किसान आंदोलन हमारे हताश राजनीतिक नेताओं के लिए आशा की किरण बनकर उभरेगा। उन्हें बयान देने और फोटो छपाने के मौके मिलेंगे। वे चाहेंगे कि बड़े पैमाने पर हिंसा हो, लोग मरें और सरकार बदनाम हो जाए। अभी ताजा खबर यह है कि किसानों के धरना-स्थलों पर किसानों और स्थानीय ग्रामीणों के बीच जबर्दस्त झड़पें हुई हैं। स्थानीय ग्रामीण अपने रास्ते और काम-काज रुकने पर क्रुद्ध हैं। उन्हें किसानों के खिलाफ कौन उकसा रहा है ? सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आगे होकर किसान नेताओं से दुबारा बातचीत शुरु करे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
नोआखली में एक बूढ़ा महात्मा अकेला घूम रहा है. देश पागल हो चुकी भीड़ में तब्दील हो गया है. वह बूढ़ा पागल भीड़ को समझा रहा है. भीड़ में यह नहीं पता है कि कौन किसके खून का प्यासा है लेकिन धरती खून से लाल हो रही है. उस बूढ़े व्यक्ति का जर्जर शरीर अपने को उस खून से लथपथ महसूस कर रहा है. वह पूछ रहा है कि जिन इंसानों के लिए हमने आजादी चाही थी, जिनके लिए सब त्याग दिया था, जिनकी स्वतंत्रता हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य थी, वे पाशविकता के गुलाम कैसे हो गए?
कोई किसी की नहीं सुन रहा है. लोग वहशी हो गए हैं. बूढ़ा महात्मा लाठी लिए पहुंचता है. उन्हें समझाता है. भीड़ ईंट पत्थर और शीशे फेंक रही है. बूढ़ा अचानक भीड़ की तरफ बढ़ा और एकदम सामने आ गया. भीड़ इस साहस से स्तब्ध हो गई. बूढ़े ने कहा, मैं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हूं. अगर आप अपने होश-हवास खो बैठे हैं, तो यह देखने के लिए मैं जिंदा नहीं रहना चाहता हूं. भीड़ शांत हो गई.
दिल्ली में ताजपोशी हो रही थी. बूढ़ा अकेले नोआखली की पगडंडियों, गलियों, कूचों, सड़कों पर लोगों से मनुष्य बने रहने की मांग कर रहा था. यह सिलसिला यहीं नहीं रुका.
नोआखली से कलकत्ता, कलकत्ता से बिहार, बिहार से दिल्ली, दिल्ली से पंजाब, पंजाब से दिल्ली... वह महात्मा अकेला बदहवास भाग रहा था. नेहरू, पटेल, माउंटबेटन... सब हथियार डाल चुके थे. महात्मा के जीवन भर के सत्य और अहिंसा के आदर्श इस आग में जला दिए गए थे. जिन्ना दूर से इस धधकती आग में अपना हाथ सेंक रहे थे.
महात्मा अनवरत सफर में था. वह गाड़ी रोककर सड़क पर उतरता, गीता के कुछ श्लोक पढ़ता, ईश्वर से प्रार्थना करता कि प्रभु हमारे देश को बचा लीजिए और फिर आगे बढ़ जाता.
खून खराबे की निराशा के बीच एक उम्मीद की किरण फिर भी थी कि लोगों की आत्मा जाग सकती है. वह महात्मा दिल्ली में हिंसक जानवरों को रोकने के लिए अनशन पर बैठ गया. जो लोग इंसानों का खून बहाने में सबसे आगे थे, अब वे महात्मा के खून के ही प्यासे हो गए. छह हमलों के बाद अंतत: उन्हें सफलता भी मिल गई.
हिंसक और घृणास्पद लोग ऐसे ही कायर होते हैं. एक निहत्थे बूढ़े को मारने के लिए उन्हें भगीरथ प्रयास करना पड़ा. महात्मा का अशक्त और अकेला शरीर मर गया. भारत से लेकर पाकिस्तान तक स्तब्धता छा गई. लेकिन असली चमत्कार उसके बाद हुआ. महात्मा अमर हो गया.
जिस पाकिस्तान का बहाना लेकर महात्मा को मारा गया, वह पाकिस्तान भी रो पड़ा और हिंदुस्तान के पगलाए हिंदू भी. दंगे शांत हो गए. दुनिया एक सुर में बोल पड़ी, यह किसी शरीर की क्षति नहीं है. यह तो मानवता की क्षति है. हत्यारे सुन्न हो गए कि हमने जिसे मारा, वह अमर कैसे हो गया?
हिंसा और घृणा मनुष्य को मानवता की समझ से बहुत दूर कर देती है. इसीलिए महात्मा उनके लिए आज भी अनसुलझी पहेली है. वे अंदर से घृणा करते हैं, बाहर से महात्मा के सामने सिर झुकाए खड़े रहते हैं. महात्मा पहले की तरह बस मुस्कराता रहता है.
टैगोर का वह महात्मा जो अपने आखिरी दिनों में इस दुनिया की हिंसा से निराश, बदहवास, विक्षिप्त और अकेला था, मौत के बाद पूरी दुनिया का महात्मा हो गया. जब भारत के लोग सत्ता का स्वागत कर रहे थे, उस महात्मा ने अकेलापन चुना था और नोआखली से दिल्ली तक भागकर मनुष्यता को बचा लिया था.
अब वह हमारा, हमारे देश का महात्मा है, वह हमारा राष्ट्रपिता है, हम उससे हर दिन सीखते हैं और अपनी जिंदगी को छोटा महसूस करते हैं. वह हमारा प्यारा बापू है, हमारे भारत का विश्वपुरुष महात्मा गांधी.
गांधी की हत्या पर मिठाइयां बांटने वाले नरपिशाच आज दुनिया में कहीं भी चले जाएं, गांधी वहां पहले से मौजूद रहता है, हिंसा के नायकों की छाती पर मूंग दलते हुए भारत के प्रतिनिधि पुरुष के रूप में.
गांधी मानवता का नाम है. गांधी दुनिया के लिए दुख उठाने का नाम है. गांधी त्याग का नाम है, गांधी प्रेम का नाम है, गांधी एकता और अखंडता का नाम है. गांधी मानव जीवन के मूल्यों का नाम है.
आज जो इन मूल्यों पर हमला कर रहे हैं, वे एक दिन फिर से हार जाएंगे. गांधी इन मूल्यों का नाम है, मानवता जब तक जिंदा रहेगी, गांधी जिंदा रहेगा. हत्याओं के आकांक्षियों को यह दुनिया अब भी पशुओं की श्रेणी में रखती है, आगे भी रखेगी. गांधी मानवता का महानायक है, वह फिर जीत जाएगा.
-पंकज मुकाती
आज महात्मा की शहादत का दिन है। आज ही के दिन नाथूराम गोडसे ने अहिंसा के पुजारी की गोली मारकर हत्या कर दी। ये हमारी मानसिकता पर धब्बे जैसा है, और हमेशा रहेगा। ये भी एक दुर्योग है कि इंदौर भी आज के दिन ऐसे ही एक धब्बे के लिए चर्चा में है। इंदौर नगर निगम की मलबा लादने वाली गाडी में शहर के बेसहारा बुजुर्गों को जबरिया पटककर शहरी सीमा से बाहर छोड़ने का मामला उजागर हुआ है। देश के सबसे स्वच्छ शहर पर ये एक धब्बा हमेशा रहेगा। गोडसे जैसी सोच हमेशा समाज में ज़िंदा रही है, और रहेगी। बापू की अहिंसा की सोच को हिंसा से मिटाने की कोशिश की तरह ही है इंदौर की स्वच्छता की सोच को ऐसे लांछन से मिटाने की कोशिश।
इंदौर की स्वच्छता के पीछे इंदौर की जनता है। उसे इसका पूरा श्रेय है। आज सुबह से लोग पूछ रहे हैं-इंदौर में ये क्या हो रहा है। आखिर इन सवालों के जवाब कौन देगा ? क्या दो अदने से हुकुम बजाने वाले कर्मचारियों की बर्खास्तगी से ये जवाब मिल जाएगा? आखिर इन्हे भी किसी ने आदेश दिया होगा? या वे बिना किसी के आदेश के नगर निगम की कई टन वजनी बिना रजिस्ट्रेशन वाली गाडी निकालकर चल दिए। बुजुर्गों को उठाकर ठिकाने लगाने। यदि ऐसा है तो ये तो
और भी बड़ी नाकामी है इस सिस्टम की। ऐसा सिस्टम जिसका कोई रखवाला ही नहीं।
वीडियो वायरल होते ही हमेशा की तरह राजनीति सक्रिय हुई। मुख्यमंत्री ने गुस्सा जताया। निगम और जिला प्रशासन ने कर दी कार्रवाई। दो अदने कर्मचारी और उनके उपर के एक उप आयुक्त पर। इंदौर में ऐसी ही कार्रवाइयां हो रही है। पिछले एक साल में किसी बड़े जिम्मेदार पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। चाहे कोरोना काल में गाड़ियों की अनुमति का मामला हो या महाराजा यशवंत राव चिकित्सालय में लापरवाही का।
गाड़ियों वाले मामले में तोमर नपे तो अस्पताल में डॉक्टर जड़िया को इतना लापरवाह बताया कि वे रो पड़े। ऐसी दर्जनों गर्दनें प्रशासन ने अपने दफ्तरों में सजा रखी। जब जैसी जरुरत पड़ी एक गर्दन आगे खिसका दी। आखिर अच्छे की शाबाशी लेने वाले, ऐसे मामलों में अपना गुनाह कबूलने में पीछे क्यों ? सरकार भी इन पर ही क्यों मेहरबान? क्या इंदौर को शर्मसार करने वाली इस घटना पर कोई बड़ी कार्रवाई होगी ? आखिर मुख्यमंत्री के सपनों के शहर में भावनाओं पर डाका पड़ा है। (POLITICSWALA.COM)
-पुष्य मित्र
मैं आज के दिन हुई गांधी की हत्या को उनकी शहादत के तौर पर देखता हूं। वे आजादी और बंटवारे के बाद पूरे देश में फैले सांप्रदायिक उन्माद को खत्म करने के लिए शहीद हुए थे। कई इतिहासकारों ने लिखा है कि गांधी की हत्या का समाचार जब पूरे देश में फैलने लगा तो दंगे अपने-आप बंद होने लग गये। उस शहादत ने भले ही वक्ती तौर पर मगर भारत के लोगों के मन में भरे सांप्रदायिक उन्माद को तो खत्म कर ही दिया। उसके बाद लंबे समय तक शांति छायी रही।
दिलचस्प है कि गांधी यह सब जानते थे। उन्हें भरोसा था कि अगर मेरी शहादत इस काम में हो गयी तो शायद लोगों के मन में जड़ जमा चुके नफरत को खत्म किया जा सकता है। 1946 के आखिर में जब वे नोआखली गये तभी से उन्होंने इस बात को कहना शुरू कर दिया था। वे कहते थे कि अगर मुझे मार देने से आपके मन का नफरत खत्म हो सकता है तो मुझे मार दीजिये। फिर आने वाले दिनों में उन्होंने खुद भी इस बात को कई दफा दुहराया। बिहार में भी जहां नोआखली का बदला लेने के लिए भीषण दंगे हुए थे और आखिरी दिनों में दिल्ली प्रवास के दौरान भी, वे बार-बार इस बात को दुहराते रहे।
वे सिर्फ अपने लिए यह बात नहीं कहते थे, बल्कि उनके साथ जो भी लोग थे। सभी से यही कहते। मेरे साथ हो तो तुम्हें बलिदान देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। जब मनुबेन नोआखली आयी तो उनसे भी यही कहा। यह मैं उनके आखिरी संघर्ष के बारे में कह रहा हूं। जो उन्होंने नोआखली से शुरू किया था, फिर बिहार गये, फिर कोलकाता गये और दिल्ली के बिरला हाउस में खत्म किया। उन्होंने शहादत दी और इस जंग को जीत लिया।
यह उस जंग की कहानी है, जो उन्होंने अपने ही देश के लोगों के खिलाफ लड़ी। अगर गांधी के शब्दों में कहें तो उस बुराई के खिलाफ लड़ी जो उनके अपने देश के लोगों को शैतान बना रही थी। वे लोगों के खिलाफ तो लड़ते नहीं थे, वे तो हमेशा बुराईयों के खिलाफ लड़ते थे। पापी से नहीं, पाप से नफरत करो। वे हमेशा कहते थे। इसलिए जहां उन्होंने चंपारण सत्याग्रह से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चार-पांच बड़े आंदोलन किये, वहीं उन्होंने अपने देश के लोगों की बुराईयों के खिलाफ भी दो बड़े आंदोलन किये। पहला अस्पृश्यता निवारण अभियान और दूसरा सांप्रदायिकता के खिलाफ नोआखली से दिल्ली तक चला अभियान।
दोनों अभियानों में उनके देश के लोग ही उनके खिलाफ खड़े थे। उनका बार-बार अपमान करते, हमले करते और अंत में हत्या भी कर दी। मगर उन्होंने दोनों आंदोलनों को पूरी इमानदारी से निभाया। अपमान सहते, मार खाते हुए लोगों का हृदय परिवर्तन करने की कोशिश करते रहे।
ये दोनों आंदोलन खास तौर पर हम सब को इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि दुश्मन हमेशा बाहरी नहीं होता, दुश्मन हमारे अंदर भी बैठा होता है, उसके खिलाफ भी लडऩा पड़ता है। और बहुमत हमेशा सही नहीं होता, कई दफा बहुमत भी अराजक, हिंसक और पर-पीडक़ होता है। ऐसे में बहुमत के खिलाफ अकेले भी खड़ा होना पड़ता है। कई दफा गांधी रवींद्रनाथ टैगोर की उन पंक्तियों को गाते ‘एकला चलो रे’ खास तौर पर सांप्रदायिकता के खिलाफ अभियान में जब वे जुटे थे। कट्टर हिंदू भी उनके खिलाफ थे और कट्टर मुसलमान भी। देश सांप्रदायिकता की भीषण आग में जल रहा था, राजनेता आने वाली सत्ता के लिए राजनीति करने में व्यस्त थे और वह बूढ़ा व्यक्ति अकेले इस आग को बुझाने की कोशिश कर रहा था।
उसके इस अभियान का असर पड़ा। नोआखली में बलवा थमा। बिहार के इलाकों में लोगों ने वादा किया कि अब वे ऐसा नहीं करेंगे। और फिर जब आजादी के दिन वे कोलकाता गये तो वहां चमत्कार हुआ। उसे सभी लोग कलकत्ते का चमत्कार ही कहते हैं। गांधी ने मुस्लिम लीग के बड़े नेता सुहारावर्दी को साथ लिया और एक ही घर में रहने लगे। फिर वे लोगों को समझाते, उनसे बातें करते। अचानक दंगे बंद हो गये।
उस वक्त के वायसराय माउंटबेटेन ने लिखा है, बंटवारे की आग में भारत की दोनों सीमाएं जल रही थीं। पंजाब और बंगाल दोनों तरफ से हिंसक खबरें आ रही थीं। जहां पंजाब की तरफ हमने फौजें लगा दी थीं, वहीं बंगाल की तरफ अकेले गांधी थे। पंजाब के इलाके में फैले रक्तपात और हिंसा को हम रोक नहीं पाये। मगर जो काम लाखों लोगों की फौज नहीं कर पायी, उसे एक अकेले गांधी ने कर दिया। बंगाल में नफरत की आंधी थम गयी थी।
फिर गांधी को दिल्ली आना पड़ा। दिल्ली में उन दिनों जब गांधी आते थे तो दलितों की बस्ती में ठहरते थे। मगर सुरक्षा की वजहों से उन्हें बिरला हाउस में ठहराया गया। वहां भी उनपर हमले होते रहे, लोग बहस करते रहे। मगर गांधी ने शहादत का मन बना लिया था, इसलिए वे सुरक्षा बढ़ाने का विरोध करते थे। फिर गांधी की हत्या हो गयी।
दुखद तो यह है कि गांधी की हत्या न बंगाल के लोगों ने की, न बिहार के लोगों ने, न दिल्ली वालों ने। न पाकिस्तान से आय़े किसी शरणार्थी ने। एक शरणार्थी उस साजिश में शामिल जरूर था, मदन लाल पाहवा। मगर हत्यारा वह नहीं था।
गांधी की हत्या एक मराठी व्यक्ति ने की, जिस महाराष्ट्र में उस वक्त कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हो रहा था। नथुराम गोडसे, जो बापू का हत्यारा था, वह मराठा प्राइड का नुमाइंदा था। वह नफरत की उस स्कूल का छात्र था, जो पुणे में लंबे समय से चल रहा था, जिसके मुखिया सावरकर थे।
नफरत के उस स्कूल ने जरूर सोचा होगा कि वे गांधी को खत्म कर देंगे। मगर गांधी की शहादत के बाद सावरकर की वैचारिक मौत हो गयी। अगले 70 सालों तक उसके अनुयायियों को छुपकर छद्म तरीके से अपना अभियान चलाना पड़ा। मगर गांधी और उनके विचार अमर हो गये। आज सावरकर के अनुयायियों को भी गांधी के आगे शीश नबाना पड़ता है। आज हमारा देश एक धार्मिक देश नहीं है, सांप्रदायिकता यहां का विचार नहीं है। धर्मनिरपेक्षता ही यहां का असल सिद्धांत है। यही गांधी की शहादत का हासिल है। इसलिए इसे मैं अनोखी शहादत कहता हूं। और बार-बार सोचता हूं कि गांधी की इस आखिरी जंग से हम सबको सीखने की जरूरत है।
-डॉ राजू पाण्डेय
जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए जब गांधी जी को अपना परिचय देने की आवश्यकता पड़ी और हर बार उन्होंने स्वयं की पहचान किसान ही बताई। 1922 में राजद्रोह के मुकद्दमे का सामना कर रहे गांधी अहमदाबाद में एक विशेष अदालत के सामने स्वयं का परिचय एक किसान और बुनकर के रूप में देते हैं। पुनः नवंबर 1929 में अहमदाबाद में नवजीवन ट्रस्ट के लिए दिए गए घोषणापत्र के अनुसार भी गांधी स्वयं को पेशे से किसान और बुनकर बताते हैं। बहुत बाद में सितंबर 1945 में गाँधी जी भंडारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च पूना की यात्रा करते हैं। उनके साथ सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजकुमारी अमृत कौर भी हैं। पुनः संस्थान की विजिटर्स बुक में गांधी अपना परिचय एक किसान के रूप में देते हैं।
1904 में दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के एक शाकाहारी मित्र हेनरी पोलाक ने उन्हें रस्किन की अनटो दिस लॉस्ट भेंट की थी। गांधी जी ने रस्किन के विचार- एक श्रम प्रधान जीवन, भूमि में हल चलाने वाले किसान या किसी हस्तशिल्पकार का जीवन ही अनुकरणीय है- को अपना मूल मंत्र बना लिया। फीनिक्स आश्रम (1904) से खेती उनके आश्रमों की जीवन चर्या का एक अंग बन गई। भारत लौटने के बाद अहमदाबाद के सत्याग्रह आश्रम(1915) में फलों और सब्जियों की खेती होती रही। बाद में जब वर्धा से कुछ दूरी पर 1936 में सेवाग्राम आश्रम की स्थापना हुई तब भी गांव और किसान गाँधी जी की प्राथमिकताओं के केंद्र बिंदु रहे। अनेक विद्वानों ने सेवाग्राम आगमन के पश्चात पहली प्रार्थना सभा में ही गांधी जी को यह कहते उद्धृत किया है कि हमारी दृष्टि देहली नहीं देहात की ओर होनी चाहिए। देहात हमारा कल्प वृक्ष है।
गांधी जी की दृष्टि में किसान और हिंदुस्तान एक दूसरे के पर्याय हैं। अहिंसा और निर्भयता किसान का मूल स्वभाव हैं और शोषण तथा दमन के विरुद्ध सत्याग्रह उनका बुनियादी अधिकार। हिन्द स्वराज(1909) में वे लिखते हैं- आपके विचार में हिंदुस्तान से आशय कुछ राजाओं से है किंतु मेरी दृष्टि में हिंदुस्तान का मतलब वे लाखों लाख किसान हैं जिन पर इन राजाओं का और आपका अस्तित्व टिका हुआ है। ------मैं आपसे विश्वासपूर्वक कहता हूं कि खेतों में हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं। जबकि अंग्रेज और आप वहां सोने के लिए आनाकानी करेंगे।-----किसान किसी की तलवार के बस न तो कभी हुए हैं और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते और न ही वे किसी की तलवार से भय खाते हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोने वाली महान प्रजा हैं। उन्होंने मृत्यु का भय छोड़ दिया है। तथ्य यह है कि किसानों ने, प्रजा मंडलों ने अपने और राज्य के कारोबार में सत्याग्रह को काम में लिया है। जब राजा जुल्म करता है तब प्रजा रूठती है। यह सत्याग्रह ही है।(हिन्द स्वराज, नवजीवन, अहमदाबाद,पृष्ठ 58-59)।
आज की हमारी सरकार भले ही किसानों की योग्यता और बुद्धिमत्ता पर संदेह करती हो और किसानों के साथ चर्चा करने वाले अनेक वार्ताकार उन्हें नासमझ के रूप में चित्रित करते हों किंतु गांधी जी उनमें एक आजाद, जाग्रत और प्रबुद्ध नागरिक के दर्शन करते हैं- इन भारतीय किसानों से ज्योंही तुम बातचीत करोगे और वे तुमसे बोलने लगेंगे त्योंही तुम देखोगे कि उनके होंठों से ज्ञान का निर्झर बहता है। तुम देखोगे कि उनके अनगढ़ बाहरी रूप के पीछे आध्यात्मिक अनुभव और ज्ञान का गहरा सरोवर भरा पड़ा है। भारतीय किसान में फूहड़पन के बाहरी आवरण के पीछे युगों पुरानी संस्कृति छिपी पड़ी है। इस बाहरी आवरण को अलग कर दें, उसकी दीर्घकालीन गरीबी और निरक्षरता को हटा दें तो हमें सुसंस्कृत, सभ्य और आजाद नागरिक का एक सुंदर से सुंदर नमूना मिल जाएगा। (हरिजन 28 जनवरी 1939)।
गांधी जी किसानों के शोषण को देश की सबसे गंभीर समस्या मानते थे और उन्होंने बारंबार अपने लेखों और भाषणों में इसे देश की स्वतंत्रता के मार्ग में बाधक बताया है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर 6 फरवरी 1916 को दिए गए ऐतिहासिक भाषण में गांधी जी कहते हैं, "जब कहीं मैं कोई आलीशान इमारत खड़ी हुई देखता हूं; तब ही मन में आता है; हाय यह सारा रुपया किसानों से ऐंठा गया है। जब तक हम अपने किसानों को लूटते रहेंगे या औरों को लूटने देंगे, तब तक स्वराज्य की हमारी तड़पन सच्ची नहीं कही जा सकती है. देश का उद्धार किसान ही कर सकता है।'
आज से लगभग 77 वर्ष पूर्व गांधी यह उद्घोष करते हैं कि जमीन उसी की होनी चाहिए जो उस पर खेती करता है न कि किसी जमींदार की। वे किसानों को जमींदारों और पूंजीपतियों के शोषण से बचने के लिए सहकारिता की ओर उन्मुख होने का परामर्श देते हैं। वे खेतिहर मजदूरों के हकों की चर्चा करते हैं। आज तो भूमिहीन किसान और कृषि मजदूर चर्चा से ही बाहर हैं और सहकारिता को खारिज करने की हड़बड़ी सभी को है। गांधी जी के अनुसार- किसानों का- फिर वे भूमिहीन मजदूर हों या मेहनत करने वाले जमीन मालिक हों - स्थान पहला है। उनके परिश्रम से ही पृथ्वी फलप्रसू और समृद्ध हुई है और इसलिए सच कहा जाए तो जमीन उनकी ही है या होनी चाहिए, जमीन से दूर रहने वाले जमींदारों की नहीं। लेकिन अहिंसक पद्धति में मजदूर किसान इन जमींदारों से उनकी जमीन बलपूर्वक नहीं छीन सकता। उसे इस तरह काम करना चाहिए जमींदार के लिए उसका शोषण करना असंभव हो जाए। किसानों में आपस में घनिष्ठ सहकार होना नितांत आवश्यक है। इस हेतु की पूर्ति के लिए जहां वैसी समितियां ना हों वहां वे बनाई जानी चाहिए और जहां हों वहां आवश्यक होने पर उनका पुनर्गठन होना चाहिए। किसान ज्यादातर अनपढ़ हैं। स्कूल जाने की उम्र वालों को और वयस्कों को शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा पुरुषों और स्त्रियों दोनों को दी जानी चाहिए। वहीं खेतिहर मजदूरों की मजदूरी इस हद तक बढ़ाई जानी चाहिए कि वे सभ्यजनोचित जीवन की सुविधाएं प्राप्त कर सकें यानी उन्हें संतुलित भोजन और आरोग्य की दृष्टि से जैसा चाहिए वैसे घर और कपड़े मिल सकें।(द बॉम्बे क्रॉनिकल,28-10-1944)
आज हम देख रहे हैं कि केंद्र सरकार द्वारा जबरन थोपे गए तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध देश के किसान आंदोलित हैं। किसानों को मिलते जन समर्थन और आंदोलन के देशव्यापी स्वरूप के कारण केंद्र सरकार भयभीत है और वह साम-दाम-दंड-भेद किसी भी विधि से किसानों को परास्त करना चाहती है। गांधी जी ने बहुत पहले ही हमें चेताया था कि यदि किसानों की उपेक्षा और शोषण एवं दमन जारी रहा तो हालात विस्फोटक बन सकते हैं। उन्होंने लिखा- यदि भारतीय समाज को शांतिपूर्ण मार्ग पर सच्ची प्रगति करनी है तो धनिक वर्ग को निश्चित रूप से स्वीकार कर लेना होगा कि किसान के पास भी वैसी ही आत्मा है जैसी उनके पास है और अपनी दौलत के कारण वे गरीब से श्रेष्ठ नहीं हैं। यदि पूंजीपति वर्ग काल का संकेत समझकर संपत्ति के बारे में अपने इस विचार को बदल डाले कि उस पर उनका ईश्वर प्रदत्त अधिकार है तो जो सात लाख घूरे आज गांव कहलाते हैं उन्हें आनन-फानन में शांति, स्वास्थ्य और सुख के धाम बनाया जा सकता है। -------- केवल दो मार्ग हैं जिनमें से हमें अपना चुनाव कर लेना है, एक तो यह कि पूंजीपति अपना अतिरिक्त संग्रह स्वेच्छा से छोड़ दें और उसके परिणाम स्वरूप सब को वास्तविक सुख प्राप्त हो जाए। दूसरा यह कि अगर पूंजीपति समय रहते न चेते तो करोड़ों जाग्रत किंतु अज्ञानी और भूखे रहने वाले लोग देश में ऐसी गड़बड़ मचा दें जिसे एक बलशाली हुकूमत की फौजी ताकत भी नहीं रोक सकती। मैंने यह आशा रखी है कि भारत इस विपत्ति से बचने में सफल होगा।( यंग इंडिया 5 दिसंबर 1929)
गांव की उपेक्षा और किसानों को मालिक से मजदूर बनाकर जबरन शहरी कारखानों की ओर धकेलना आधुनिक विकास प्रक्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा है। गांधी जी ने बहुत पहले ही इसे भांप लिया था - "मेरा विश्वास है और मैंने इस बात को असंख्य बार दुहराया है कि भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांव में बसा हुआ है. लेकिन हम भारतवासियों को ख्याल है कि भारत शहरों में ही है और गांव का निर्माण शहरों की जरूरतें पूरी करने के लिए ही हुआ है। हमने कभी यह सोचने की तकलीफ ही नहीं उठाई कि उन गरीबों को पेट भरने जितना अन्न और शरीर ढकने जितना कपड़ा मिलता है या नहीं। (हरिजन 4 अप्रैल 1935)।
गांधी जी ने स्वयं किसान आंदोलनों का सफल नेतृत्व किया। उनकी प्रेरणा से अनेक किसान आंदोलन प्रारंभ हुए और उनके मार्गदर्शन में कामयाब भी हुए। अहिंसा और सत्याग्रह इन किसान आंदोलनों के मूलाधार थे। अप्रैल 1917 का चंपारण सत्याग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि आज की परिस्थितियों से यह बहुत अधिक समानता दर्शाता है। चंपारण के गरीब किसानों, भूमिहीन कृषकों एवं कृषि मजदूरों को खाद्यान्न के बजाए नकदी फसल लेने के लिए बाध्य किया जाता था। चंपारण के किसानों का शोषण बहुस्तरीय था- बागान मालिक जमींदार और अंग्रेज। नील की खेती के लिए बाध्य करने के तीन क्रूर तरीके और छियालीस प्रकार के अवैध कर – उस समय लगभग 21900 एकड़ कृषि भूमि उससे प्रभावित थी। गाँधी जी के मार्गदर्शन में 2900 गाँवों के तेरह हजार किसानों की समस्याओं को लिपिबद्ध किया गया। गाँधी जी के वैज्ञानिक अहिंसक आंदोलन को विफल करने हेतु तुरकौलिया के ओल्हा कारखाने में अग्निकांड किया गया। किन्तु गाँधी जी संकल्प डिगा नहीं बल्कि दृढ़ ही हुआ। तब बिहार के अंग्रेज डिप्टी गवर्नर एडवर्ड गेट ने चंपारण एग्रेरियन कमिटी का गठन किया। गाँधी जी इसके सदस्य थे। इस समिति की सिफारिशों के आधार पर तीन कठिया प्रथा( प्रति बीघा यानी 20 कट्ठा में 3 कट्ठा में नील की खेती की अनिवार्यता) को समाप्त किया गया, लगान की दरें कम की गईं और कुछ मुआवजा भी किसानों को मिला। यह सत्याग्रह का देश में प्रथम सफल प्रयोग था। उस काल के अंग्रेज शासकों की भांति आज की नवउपनिवेशवादी शक्तियां किसानों की भूमि पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग द्वारा अपना नियंत्रण कर उनसे अपनी मनचाही फसलों की खेती कराना चाहती हैं। गांधी जी के अहिंसक आंदोलन को नाकामयाब करने के लिए हिंसा पर आधारित कुटिल प्रयास किए गए थे।26 जनवरी 2021 को भी कुछ वैसे ही षड्यंत्र रचे गए। किंतु गांधी जी ने धैर्य न खोया, आंदोलन का अहिंसक और पारदर्शी स्वरूप बरकरार रहा। सत्ता के सारे षड्यंत्र विफल हुए और किसानों की जीत हुई।
गांधी जी की प्रेरणा से भी अनेक सत्याग्रह आंदोलन हुए। यह आंदोलन किसानों की समस्याओं से संबंधित थे। सरदार पटेल ने इन आंदोलनों का सफल संचालन किया था। खेडा(1918), बोरसद(1922-23) और बारडोली(1928) जैसे आंदोलनों की सफलता का रहस्य गांधी जी के अनुसार किसानों का राजनीतिक उपयोग करने की घातक प्रवृत्ति से पूरी तरह दूरी बनाए रखना था। गांधी जी के अनुसार यह आंदोलन इसलिए सफल रहे क्योंकि ये किसानों की बुनियादी और अनुभूत दैनंदिन समस्याओं पर अपने को केंद्रित रख सके और इनमें राजनीति को प्रवेश का अवसर नहीं मिल पाया। पुनः गांधी जी इन आंदोलनों के अहिंसक स्वरूप पर बल देते हैं। उनके अनुसार जिस दिन किसान अपनी अहिंसक शक्ति को पहचान लेंगे, उस दिन दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें रोक नहीं सकती।
(कंस्ट्रक्टिव प्रोग्राम: इट्स मीनिंग एंड प्लेस, नवजीवन, अहमदाबाद, पृष्ठ 22-23)। बारडोली सत्याग्रह के संबंध में गांधी जी ने कहा- 'किसान जो धरती की सेवा करता है वही तो सच्चा पृथ्वीपति है उसे जमींदार या सरकार से क्यों डरना है।'
वर्तमान किसान आंदोलन के नेतृत्व को गांधी जी की यह सीखें बार बार स्मरण करनी चाहिए। आंदोलन का स्वरूप सदैव अहिंसक रहे। आंदोलन पूर्णतः अराजनीतिक हो। आंदोलनकारियों का फोकस पूरी तरह किसानों की समस्याओं पर बना रहे। सबसे बढ़कर किसानों को अपनी अहिंसक शक्ति पर विश्वास हो तो सफलता अवश्य मिलेगी।
किसानों का मार्ग दुरूह है, संघर्ष लंबा चलेगा किंतु गांधी जी ने स्वतन्त्रता पूर्व जो मंत्र दिया था उसका अक्षर अक्षर आज प्रासंगिक है- 'अगर विधानसभाएं किसानों के हितों की रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध होती हैं तो किसानों के पास सविनय अवज्ञा और असहयोग का अचूक इलाज तो हमेशा होगा ही। लेकिन ----अंत में अन्याय या दमन से जो चीज प्रजा की रक्षा करती है वह कागजों पर लिखे जाने वाले कानून, वीरता पूर्ण शब्द या जोशीले भाषण नहीं है बल्कि अहिंसक संघटन, अनुशासन और बलिदान से पैदा होने वाली ताकत है।' (द बॉम्बे क्रॉनिकल 12 जनवरी 1945)
एक प्रश्न किसानों की सत्ता में भागीदारी का भी है। इस संबंध में गांधी जी ने अपनी राय बड़ी बेबाकी और साफगोई से रखी थी। प्रसिद्ध किसान नेता एन जी रंगा को किसानों की समस्याओं पर दिए गए विस्तृत साक्षात्कार में गांधी जी ने कहा- मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि हमें लोकतांत्रिक स्वराज्य हासिल हो - और यदि हमने अपनी स्वतंत्रता अहिंसा से पाई हो- तो जरूर ऐसा ही होगा तो उसमें किसानों के पास राजनीतिक सत्ता के साथ हर किस्म की सत्ता होनी चाहिए।(द बॉम्बे क्रॉनिकल 12 जनवरी 1945)। किसानों के हाथों में सत्ता के सूत्र सौंपने की गांधी जी की उत्कट अभिलाषा जीवन के अंत तक बनी रही। 29 जनवरी 1948 को उन्होंने प्रार्थना सभा के दौरान कहा- “मेरा बस चले तो हमारा गवर्नर-जनरल किसान होगा, हमारा बड़ा वजीर किसान होगा, सब कुछ किसान होगा, क्योंकि यहां का राजा किसान है। मुझे बाल्यकाल से एक कविता सिखाई गई - “हे किसान, तू बादशाह है।” किसान भूमि से पैदा न करे तो हम क्या खाएंगे? हिंदुस्तान का वास्तविक राजा तो वही है। लेकिन आज हम उसे ग़ुलाम बनाकर बैठे हैं। आज किसान क्या करे? एमए बने? बीए बने? ऐसा किया तो किसान मिट जाएगा। पीछे वह कुदाली नहीं चलाएगा। किसान प्रधान बने, तो हिंदुस्तान की शक्ल बदल जाएगी। आज जो सड़ा पड़ा है, वह नहीं रहेगा।“
किसानों को स्वतंत्रता के बाद सत्ता में वैसी केंद्रीय भूमिका नहीं मिल पाई जैसी गांधी जी की इच्छा थी। बल्कि सत्ता में किसानों की भागीदारी में उत्तरोत्तर कमी ही आई। जो किसान सत्ता पर काबिज भी हुए उनका व्यवहार किसानों जैसा खालिस और देसी नहीं रहा। सत्ता की चकाचौंध ने उन्हें दिग्भ्रमित किया। वे गांवों और खेती की उपेक्षा करते और शहरों और उद्योगों की वकालत करते नजर आए। सत्ता और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण के महत्व को वे पहचान न पाए। यदि सत्ता में किसानों की भागीदारी नगण्य है और सत्ता का आचरण किसान विरोधी है तो इसके लिए मतदाता के रूप में किसानों का व्यवहार भी कम उत्तरदायी नहीं है। किसान मतदाता के रूप में जातीय, धार्मिक और दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनते रहे हैं।
आज गांधी जी का स्मरण और उनका पुनर्पाठ इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि किसान आंदोलन को कमजोर करने के लिए जो रणनीति अपनाई जा रही है वह दरअसल गांधी के सपनों के भारत को खंडित करने वाली है। यह घृणा और विभाजन की रणनीति है। जाति-धर्म और संप्रदाय की संकीर्णता को इस किसान आंदोलन ने गौण बना दिया था। किंतु अब इसे धार्मिक पहचान वाले पृथकतावादी आंदोलन के रूप में रिड्यूस किया जा रहा है। विभाजन, संदेह और घृणा के नैरेटिव के अनंत शेड्स देखने में आ रहे हैं। पंजाब-हरियाणा के किसान विरुद्ध सारे देश के किसान का नैरेटिव इस आंदोलन के राष्ट्रीय स्वरूप को महत्वहीन करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। सम्पन्न बड़े किसान विरुद्ध छोटे और मझोले गरीब किसान का विचार इसलिए विमर्श में डाला गया है जिससे इस आंदोलन से बड़ी आशा लगाए करोड़ों किसानों के मन में संदेह पैदा हो। ईमानदार और जिम्मेदार मध्यम वर्ग विरुद्ध अराजक और अनपढ़ किसान की चर्चा इसलिए की जा रही है कि उदारीकरण और निजीकरण के आघातों की पीड़ा भूलकर मध्यम वर्ग किसान विरोध में लग जाए। हिंदू-मुसलमान और हिंदू-सिख तथा राष्ट्रभक्त- देशद्रोही जैसे पुराने विभाजनकारी फॉर्मूले भी धीरे धीरे अपनी जगह बना रहे हैं। देशवासी एक दूसरे को शत्रु मानकर आपस में संघर्ष कर रहे हैं। यह गांधी का भारत तो नहीं है। गांधी अब नहीं हैं किंतु उनकी सीखें हमारे पास हैं। यदि हम अहिंसा, सत्याग्रह,त्याग, बलिदान, प्रेम, करुणा और सहिष्णुता पर अपनी आस्था बनाए रख सके तो देश को हर संकट से मुक्ति दिला सकते हैं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
26 जनवरी की घटनाओं ने सिद्ध किया कि सरकार और किसान दोनों अपनी-अपनी कसौटी पर खरे नहीं उतर पाए लेकिन अब असली सवाल यह है कि आगे क्या किया जाए? किसान लोग 1 फरवरी को संसद पर प्रदर्शन नहीं कर पाएंगे, यह मैंने लाल किले का काला दृश्य देखते ही लिख दिया था लेकिन अब उनके धरने का क्या होगा? किसान नेताओं ने वह प्रदर्शन तो रद्द कर दिया है लेकिन अब वे 30 जनवरी को एक दिन का अनशन रखेंगे। यह तो मैंने किसान नेताओं को पहले ही सुझाया था लेकिन यह एक दिवसीय अनशन इसलिए भी अच्छा है कि लाल किले की घटना पर यह पश्चात्ताप की तरह होगा। यह किसानों के अहिंसक और अपूर्व आंदोलन की छवि को सुधारने में भी मदद करेगा। किसान नेताओं में अब मतभेद उभरने लगे हैं। दो संगठनों ने तो अपने आप को इस आंदोलन से अलग भी कर लिया है।
उनके अलावा कई अन्य किसान नेता भी लाल किले की घटना और तोड़-फोड़ से काफी विचलित हैं। कुछ किसान नेताओं द्वारा उक्त खटकर्मों के लिए सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। कई किसानों ने धरनों से लौटना भी शुरु कर दिया है। इसमें शक नहीं कि इन सब घटनाओं ने सरकार की इज्जत में इज़ाफा कर दिया है, खास तौर से इसलिए कि इतना सब होते हुए भी सरकार ने असाधारण संयम का परिचय दिया। लेकिन इस संयम का दूसरा पहलू ज्यादा गंभीर है। उससे यह उजागर हुआ है कि सरकारी नेताओं को जन-आंदोलनों की पेचीदगियों का अनुभव नहीं है। उन्हें 1922 के चोरीचौरा, 1966 के गोरक्षा और 1992 के बाबरी मस्जिद कांड का ठीक से पता होता तो वे इस प्रदर्शन की अनुमति ही नहीं देते और यदि दी है तो उसके नियंत्रण का पुख्ता इंतजाम भी करते।
खैर, अब सवाल यह है कि किसान और सरकार क्या-क्या करे ? दोनों अपनी-अपनी अकड़ छोड़ें। वैसे सरकार ने तो जरुरत से ज्यादा नरमी दिखाई है। उसने किसानों को पराली जलाने और बिजली-बिल के कानूनों से छूट दे दी और उसके साथ-साथ डेढ़ साल तक तीनों कृषि कानूनों को ताक पर रखने की घोषणा भी कर दी। अब किसान चाहें तो उनमें इतने संशोधन सुझा दें कि उनकी सब चिंताएं दूर हो जाएं।
भारत की कोई सरकार, जो आज कल 30-32 करोड़ वोटों से बनती है, वह अपने 50-60 करोड़ किसानों को नाराज़ करने का खतरा कभी मोल नहीं लेगी। सरकार यह घोषणा भी तुरंत क्यों नहीं करती कि कृषि राज्यों का विषय है। अत: वे ही तय करें कि वे अपने यहाँ इन कानूनों को लागू करेंगे या नहीं करेंगे ? देखें, फिर यह मामला हल होता है या नहीं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-महेन्द्र सिंह
कई बार सोचता हूँ कि मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है कि इस देश की सबसे ऊंची और सम्मानजनक कही जानी वाली सरकारी सेवा के दूसरे सबसे ऊंचे पद पर होने के बाद भी किसी भी तरह से छुट्टी लेकर, मैं लगभग दो महीने घर से दूर एक बांस की झोंपड़ी में बिताता हूँ, वहाँ सर्दी, गर्मी, वर्षा में खेत में सारा दिन और काफी बार रात में भी काम करता हूँ जिससे मेरे हाथों में छाले पड़ जाते हैं और पैरों में बिवाइयाँ फटकर खून बहने लगता है। न केवल अपना वरन दस-बारह तक मजदूरों का भी खाना खुद बनाता हूँ ।
इतना सब करने के बावजूद मुझे हर साल लगभग एक लाख रुपए का घाटा हो जाता है जो कि स्वाभाविक है कि मेरे वेतन से जाता है। मुझसे कई गुना ज्यादा मजदूर खटते हैं। उनके भी हिस्से में भी मात्र या तो सिर्फ 250 रुपए प्रतिदिन की मजदूरी आती है या फिर छह महीने से ज्यादा सपरिवार मेहनत करने पर लगभग छह महीने का धान और पशुओं के लिए पुआल मिल पाता है। अगर वो इसे मजदूरी में मापें तो वह 250 रुपए प्रतिदिन की एक तिहाई भी नहीं बनेगी।
इस बार तो दफ्तर काफी समय बंद रहने के कारण यह समय लगभग दुगुना हो गया। इस बार खुद खेती की तो खेत में नाले से पानी लाते वक्त पत्थर की चोट से एक उंगली स्थाई रूप से क्षतिग्रस्त हो गई और साँप ने भी काटा , हालांकि वो जहरीला नहीं था लेकिन 25 इंजेक्सन और उनके साइड इफैक्ट तो झेलने पड़े। हाड़तोड़ मेहनत के बाद इस बार फसल बहुत अच्छी हुई थी और पहली बार कुछ लाभ की उम्मीद थी लेकिन जब पकने लगी तो एक सप्ताह तक हाथियों के एक दल ने रात-रात भर फसल को खाया कम और बर्बाद ज्यादा किया; हमारी रात की पहरेदारी से भला क्या भागते गजराज; फिर वो ही एक लाख रुपए का घाटा।
फसल बीमा की राशि काट लेने के बाद भी जब बाढ़ या किसी अन्य कारण से फसल को नुकसान होता है तो कोई मुआवजा नहीं मिलता। तर्क दिया जाता है कि जब तक पूरे जिले की आधी से ज्यादा फसल नष्ट नहीं होगी, कोई मुआवजा नहीं मिलेगा।
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान बेचना किसी दुस्वपन से कम नहीं है। रजिस्ट्रेशन से लेकर धान को मंडी में ले जाने तक एक असीम कष्ट और अत्याचार है। मंडियों में खरीदने, ना खरीदने का फैसला सरकारी अधिकारी नहीं, मिल मालिक करते हैं और अधिकारी , मिल मालिक सब किसान को कीड़ा-मकौड़ा समझकर असभ्य भाषा में बात करते हैं। बहुत से किसानों का सैंपल में पास किया हुआ धान भी वापस भेज दिया जाता है, मेरा भी भेजा गय। जो धान लिया भी जाता है, उसमें से भी 5 से 10 किलो प्रति क्विंटल काट लिया जाता है और प्रति क्विंटल लगभग 50 रुपए के दो बोरे भी रख लिए जाते हैं जिन्हें मिल-मालिक फिर से इन किसानों को ही बेचते हैं।
ये सब मेरे जैसे शिक्षित, कानून के जानकार आदमी के साथ हो रहा है तो आम किसान के साथ क्या हो रहा होगा, सोचिए ।
जो लोग यह समझते हैं कि किसान कोई दान नहीं करता, अपने लाभ के लिए खेती करता है; उनकी सूचना के लिए बता दूँ कि असल में सरकार को अपनी दमन कारी नौकरशाही और फौजों के लिए सस्ता अनाज चाहिए होता है और इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण है जबकि किसानों ने अतिरिक्त अनाज पैदा करना बंद कर दिया तो सरकारों ने उनको पकड़-पकड़ कर, बाध्य करके अतिरिक्त अनाज उगवाया। मेरी किशोर अवस्था में प्रत्येक किसान को एक निश्चित मात्रा में अनाज हर बीघा की खेती के हिसाब से बाजार मूल्य से कम पर सरकार को देना पड़ता था जिसे लेवी कहा जाता था। यह तब भी देना पड़ता था जब फसल खराब हो जाए।ना देने पर जमीन जब्ती तक के प्रावधान थे। इसलिए बहुत से किसानों को बाजार से ऊंचे दाम पर अनाज खरीद कर सरकार को कम दाम पर लेवी देनी पड़ती थी।
इसलिए अगर किसान यह फैसला कर ले कि वे पुराने जमाने के आत्मनिर्भर गांवों की ओर चला जाएगा और सिर्फ अपनी जरूरत की ही फसलें पैदा करेगा तो उसका सबसे ज्यादा असर भी शहरी लोगों और सरकारी तंत्र पर पड़ेगा और ये ही सारा लोकतंत्र और चयन की छूट का राग भूलकर इस कदम का विरोध करेंगे। हो सकता है कि पर्यावरण संकट के कारण ऐसा दौर भी शीघ्र ही आ जाए कि खाने के लिए अनाज सिर्फ उसी को मिले जिसके पास अनाज उगने लायक जमीन है ।
इस सबके बीच एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या मैं एक किसान हूँ ? किसान-आंदोलन के विरोधियों के अनुसार तो बिल्कुल भी नहीं लेकिन जब मैं बैंक में किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने गया था तो बैंक के कृषि अधिकारी ने भी मुझे किसान मानने से इंकार कर दिया था ।
क्या यह दुनिया इतनी संकीर्ण हो गई है कि एक आदमी की सिर्फ एक ही पहचान को स्वीकार कर सकती है ?(लेखक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी है)
दुनिया में कोविड वैक्सीन की भारी मांग मौजूदा सप्लाई पर भारी पड़ रही है. निराश लोगों ही नहीं बल्कि सरकारों को भी यह नहीं समझ आ रहा है कि तुरंत और ज्यादा से ज्यादा वैक्सीन आखिर कैसे मिले.
वैक्सीन विशेषज्ञ मारिया एलेना बोटाजी का कहना है, "यह सूप में पानी मिला कर उसे बढ़ाने जैसा काम नहीं है." कोविड-19 की वैक्सीन बनाने वालों को करोड़ो डोज तैयार करने के लिए हर काम सही तरीके से करना होगा और इसमें मामूली सी बाधा भी देरी का कारण बनेगी. वैक्सीन में इस्तेमाल होने वाली कुछ चीजें अब से पहले कभी भी इतनी बड़ी मात्रा में तैयार नहीं की गईं.
एक बहुत साधारण सी बात जो आसानी से समझी जा सकती है कि पहले से मौजूद फैक्ट्रियों में नई तरह की वैक्सीन तैयार करने के लिए रातोंरात बदलाव कर पाना संभव नहीं है. इसी हफ्ते फ्रेंच दवा कंपनी सनोफी ने घोषणा की है कि वह अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनी फाइजर और उसकी जर्मन सहयोगी बायोन्टेक को वैक्सीन के लिए बोतल और पैकेट बनाने में मदद करेगी. हालांकि वैक्सीन के ये डोज बहुत कोशिश करने पर भी गर्मियों से पहले लोगों तक नहीं पहुंच सकेंगे. दूसरी बात यह है कि सनोफी की जर्मनी में मौजूद फैक्ट्री में इसकी गुंजाइश इसलिए है क्योंकि उसकी अपनी वैक्सीन में देरी हो रही है. दुनिया में वैक्सीन की सप्लाई के लिए यह देरी अच्छी बात नहीं है.
फिलाडेल्फिया के चिल्ड्रेंस हॉस्पिटल के डॉ पॉल ऑफिट अमेरिकी सरकार के वैक्सीन सलाहकार हैं. उनका कहना है, "हम सोचते हैं कि यह आदमी के शर्ट की तरह है. हमें इसे बनाने के लिए किसी और जगह की जरूरत होगी. यह इतना आसान नहीं है."
हर वैक्सीन का अलग फॉर्मूला
कोविड-19 के लिए जो अलग अलग देशों में वैक्सीन इस्तेमाल हो रही हैं वो सभी शरीर को इस बात के लिए तैयार करती हैं कि वह कोरोना वायरस की पहचान करे यानी उस स्पाइक प्रोटीन की जो उसके ऊपर मौजूद रहता है. हालांकि इसके लिए इन वैक्सीनों को अलग तकनीक, कच्चे सामान, और उपकरणों की जरूरत के साथ ही विशेषज्ञता की जरूरत होती है.
अमेरिका में जिन दो वैक्सीनों को मंजूरी मिली है वो एक खास जेनेटिक कोड का इस्तेमाल कर बनाए गए हैं जिन्हें एमआरएन कहा जाता है. इसमें वसा की छोटी सी गेंद के भीतर स्पाइक प्रोटीन के लिए निर्देश रहते हैं. रिसर्च लैब के भीतर छोटी मात्रा में एमआरएन आसानी से बनाई जा सकती है लेकिन इससे पहले किसी ने भी एमआरएन की अरबों डोज तैयार नहीं की है. पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के डॉ ड्रियू वाइजमन का कहना है, "अब से पहले तो 10 लाख डोज भी नहीं बनाई गई है." ज्यादा डोज बनाने का मतलब ज्यादा मात्रा में कच्चे माल को मिलाना भर नहीं है. एमआरएनए बनाने के लिए जेनेटिक बिल्डिंग ब्लॉक और एन्जाइमों के बीच रासायनिक प्रतिक्रिया करानी होती है और वाइजमन का कहना है कि एंजाइम बड़ी मात्रा में उतनी कुशलता के साथ काम नहीं करते.
एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन ब्रिटेन और कई दूसरे देशों में इस्तेमाल हो रही है. इसके अलावा जॉन्सन एंड जॉन्सन की भी जल्दी ही तैयार होने वाली है. ये दोनों वैक्सीन एक कोल्ड वायरस से बनाई गई हैं जो शरीर में स्पाइक प्रोटीन की जीन को हटा देता है.
इन्हें बनाने का तरीका बिल्कुल अलग है. पहले जीवित कोशिकाओं को एक बड़े बायोरिएक्टर में विकसित किया जाता है और फिर इनसे कोल्ड वायरस को अलग कर के शुद्ध किया जाता है. वाइजमन बताते हैं, "अगर कोशिकाएं पुरानी बूढ़ी हो जाएं, थक जाएं या फिर बदलना शुरू कर दें तो आपको कम वायरस मिलेंगे."
एक वैक्सीन बहुत पुराने तरीके से भी तैयार की गई है जो चीन ने बनाई है. इसमें एक कदम और ज्यादा चलना पड़ता है ज्यादा कठोर जैवसुरक्षा की जरूरत पड़ती है क्योंकि ये मरे हुए कोरोनावायरस से तैयार की जाती हैं.
एक बात तो सारी वैक्सीनों के लिए जरूरी है कि उन्हें कड़े नियमों के तहत, खास तरीकों से निगरानी की जाने वाली फैक्ट्रियों में और हर कदम पर लगातार टेस्ट की जा सकने वाली प्रक्रियाओं के जरिए बनाया जाना है. हर बैच की वैक्सीन के लिए यह सब सुनिश्चित करना एक समय लगने वाला काम है.
सप्लाई चेन की मुश्किलें
उत्पादन निर्भर करता है पर्याप्त मात्रा में कच्चे माल की सप्लाई पर. फाइजर और मोडेर्ना का दावा है कि उनके पास भरोसेमंद सप्लायर हैं. ऐसा होने पर भी अमेरिकी सरकार के प्रवक्ता का कहना है कि ढुलाई के विशेषज्ञ सीधे वैक्सीन बनाने वालों के साथ काम कर रहे हैं ताकि किसी भी बाधा के उत्पन्न होने पर उसे दूर किया जा सके.
मोडेर्ना के सीईओ स्टेफाने बान्सेल मानते है कि इसके बाद भी चुनौतियां कायम हैं. फिलहाल काम 24 घंटे और सातों दिन की शिफ्टों में चल रहा है. उन्होंने कहा, अगर किसी दिन "कोई एक भी कच्चा सामान नहीं हो तो हम उत्पादन शुरू नहीं कर सकते और फिर हमारी क्षमता हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी क्योंकि हम उसकी भरपाई नहीं कर सकते." फाइजर ने तात्कालिक रूप से यूरोप में कई हफ्तों से डिलीवरी घटा दी है. इस बीच में वह बेल्जियम की अपनी फैक्ट्री को अपग्रेड करना चाहता है ताकि ज्यादा उत्पादन किया जा सके. कभी कभी किसी बैच में कमी हो जाती है. इसी बीच एस्ट्राजेनेका ने नाराज यूरोपीय संघ से कहा है कि वह भी डिलीवरी उतनी तेजी से नहीं कर सकेगा जितनी की उम्मीद थी. उसका कहना है कि यूरोप में कुछ जगहों पर उत्पादन उतना नहीं हो रहा है.
कितनी वैक्सीन बन रही है?
यह संख्या देशों पर निर्भर करती है. मोडेर्ना और फाइजर दोनों अमेरिका को मार्च के आखिर तक 10 करोड़ डोज देंगी. इसके बाद अगली तिमाही के आखिर तक 10 करोड़ डोज और. इससे आगे जा कर जो बाइडेन ने घोषणा की है कि उनकी योजना गर्मियों तक और ज्यादा वैक्सीन खरीदने की है. आखिरकार 30 करोड़ अमेरिकी लोगों के लिए पर्याप्त वैक्सीन मिल जाने तक यह सिलसिला जारी रहेगा.
फाइजर के सीईओ ने इस हफ्ते एक कांफ्रेंस में बताया कि उनकी कंपनी मार्च के आखिर तक 12 करोड़ डोज डिलिवर करने की तैयारी कर रही है. यह काम तेज उत्पादन की वजह से नहीं हुआ बल्कि स्वास्थ्यकर्मियों को हर वायरल से एक खास सिरिंज के जरिए अतिरिक्त डोज निकालने की अनुमति मिलने से हुआ.
फाइजर का यह भी कहना है कि बेल्जियम की फैक्ट्री में अपग्रेड से थोड़े समय के लिए उत्पादन पर असर हुआ है लेकिन लंबे समय में यह फायदा देगा. जो अपग्रेड हो रहा है उसके बाद फाइजर इस साल 2 अरब डोज तैयार कर सकेगी. पहले सिर्फ 1.3 अरब डोज तैयार करने की ही बात कही जा रही थी.
इसी तरह मोडेर्ना ने भी घोषणा की है कि वह 2021 में 60 करोड़ डोज की सप्लाई दे सकेगा जो पहले के 50 करोड़ डोज से करीब 20 फीसदी ज्यादा है. क्षमता बढ़ाने की जो तैयारी चल रही है उससे मोडेर्ना की उम्मीदें एक अरब डोज तक तैयार करने की थी.
इन सब के बावजूद वैक्सीन की ज्यादा डोज पाने का सबसे आसान तरीका तो यही है कि जो वैक्सीन अभी तैयार होने की राह में हैं वो काम की साबित हों जैसे कि जॉन्सन एंड जॉन्सन की वन डोज वाली वैक्सीन या फिर नोवावैक्स जो परीक्षण के आखिरी दौर में है.
दूसरे विकल्प
कई महीनों से अमेरिका और यूरोप की प्रमुख वैक्सीन कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट मैन्यूफैक्चरर से संपर्क जोड़ रही हैं जो उन्हें डोज तैयार करने और उन्हें बोतलबंद करने में मदद कर सकें. उदाहरण के लिए मोडेर्ना स्विटजरलैंड की लोंजा के साथ काम कर रही है. अमीर देशों से अलग भारत के सीरम इंस्टीट्यूट ने भी एस्ट्रा जेनेका के लिए एक अरब डोज तैयार करने का करार किया है. सीरम इंस्टीट्यूट वैक्सीन बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में है और वह विकासशील देशों के लिए प्रमुख सप्लायर की भूमिका निभा सकता है.
हालांकि ऐसी कुछ कोशिशों को झटका भी लगा है. ब्राजील के दो रिसर्च इंस्टीट्यूट एस्ट्राजेनेका और सिनोवैक की करोड़ों डोज तैयार करने की योजना बना रहे थे. लेकिन उन्हें चीन से कच्चे माल की सप्लाई में देरी होने से झटका लगा है.
एनआर/एमजे(एपी)