विचार / लेख

किस रास्ते बंगाल?
04-Feb-2021 7:54 PM
किस रास्ते बंगाल?

-ईश्वर सिंह दोस्त

कुल मिलाकर भाजपा ने खुद को बंगाल में इतना मजबूत तो कर ही लिया है कि वह रस्साकशी का एक छोर बन सके। वहीं अगर माकपा एक बारगी खुद को यह समझा ले कि वह बंगाल में कभी सत्ता में थी ही नहीं, और वह एक ताजा शुरूआत कर रही है, तो उसके लिए राह आज भी कहीं ज्यादा आसान होगी।

बंगाल चुनाव अगर भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनने के रास्ते में एक और पड़ाव पार करना है तो तृणमूल कांग्रेस के लिए यह करो या मरो का सवाल है। क्योंकि बंगाल का चुनावी अतीत यही बताता है कि जो सत्तारूढ़ पार्टी हारती है उसके इतिहास बनने की संभावना ज्यादा रहती है। वहीं माकपा इस चुनाव को बंगाल में अपने पुनर्जीवन का अंतिम मौका मान कर चल रही है।

देश के उदारवादी- सेकुलर विमर्श के लिए भी यह करो या मरो वाला चुनाव है। भाजपा का बिहार में आना सेकुलरवाद के लिए इतना बड़ा झटका नहीं था, जितना बंगाल में आना होगा। बंगाल का महत्त्व त्रिपुरा से कई सौ गुना ज्यादा है। बंगाल भले ही एक छोटा राज्य हो, मगर भारत के वैचारिक विमर्श में उसकी जगह कई गुनी बड़ी है। भाजपा की रीति-नीति बंगाल की सांस्कृतिक विरासत का प्रतिलोम मानी जाती रही है। इसे जीतना उसे अभूतपूर्व आत्मविश्वास देगा। बंगाल में भाजपा के झंडे का फहरना भारत के हिंदू राज्य होने का मार्ग आसान कर देगा।

दीपंकर भट्टाचार्य वाली भाकपा माले से लेकर बहुत से वामपंथी बुद्धिजीवी तक तीसरी ताकत के रूप में उभरने के माकपा-कांग्रेस के अरमानों और दावों पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि क्या यह राज्य को थाली में रखकर भाजपा को देने के बराबर नहीं होगा। बंगाल के भीतर भी वाम व उदारवादी बुद्धिजीवियों में बड़ी बेचैनी है। वहीं माकपा के लिए भी बंगाल में यह जीवन-मरण का सवाल है।

जाहिर है कि अलग-अलग दलों और वैचारिक खेमों के लिए बंगाल में दांव काफी बड़ा है। फिलहाल दिखाई यही दे रहा है कि टक्कर टीएमसी और भाजपा के बीच हो रही है। अगर कोई बड़ा उलटफेर नहीं होता है तो सरकार ममता की ही बनेगी और भाजपा दूसरे नंबर पर रहेगी।

यह मानने की सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा ने 2019 में केंद्र के चुनाव में जो प्रदर्शन किया, उसके पहले और बाद के हर विधानसभाई चुनाव में उसका वोट प्रतिशत दस से सत्रह प्रतिशत तक नीचे आया है। बंगाल में कुछ अलग होगा, यह सोचने की अब तक कोई वजह पैदा नहीं हुई है। 2016 के पिछले विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनावों की तुलना करें तो पता चलता है कि टीएमसी ने अपना वोट प्रतिशत बरकरार रखा था। सिर्फ एक प्रतिशत बदलकर यह पैंतालीस से चवालीस प्रतिशत हो गया था। वहीं भाजपा के वोट ने 11 प्रतिशत से 41 प्रतिशत की छलांग लगाई थी। इसका नुकसान वाम मोर्चे व कांग्रेस को हुआ। वाम का वोट 27.3 से घटकर 7 प्रतिशत पर और कांग्रेस का 12.3 से 6 प्रतिशत पर आ गया। वाम व कांगेस को 27 प्रतिशत नुकसान और भाजपा को 30 प्रतिशत फायदा हुआ। भाजपा की उम्मीदें इसी प्रदर्शन पर कायम हैं। मगर लगता यह है कि भाजपा का वोट फिर कम होगा और वाम व कांग्रेस का कुछ बढ़ेगा। यह परिवर्तन छह से पंद्रह प्रतिशत तक हो सकता है। इसीलिए भाजपा की कोशिश ध्रुवीकरण की है, ताकि वोट उसके व टीएमसी के बीच ही बंटें। मगर एंटी-इंकमबेंसी की बातों के बावजूद टीएमसी का जनाधार खिसकता नहीं दिख रहा है। 

बंगाल में सांप्रदायिक और सेकुलर दोनों धाराएं मौजूद रही हैं। सांप्रदायिक सतह के नीचे और सेकुलर सतह के ऊपर। मगर बंगाली राष्ट्रवाद की धारा भी मौजूद रही है, जो बंगाली संस्कृति की विशिष्टता व गौरव के आख्यान में अभिव्यक्ति पाती रही है। जब देश भर में केंद्रीकरण के विरूद्ध संघीय या क्षेत्रीय भावनाएं भी उभार पर हैं, तब खास तौर पर विधानसभा के चुनाव में बंगाली मतदाता बंगाल की पार्टी टीएमसी के ऊपर हिंदी इलाके की पार्टी भाजपा को तरजीह देगा, इसकी वजह नजर नहीं आती। भाजपा जाने अनजाने बंगाली गौरव के मामले में एक के बाद एक गलती भी करती जा रही है। 

भाजपा की उम्मीदें तीन और कारकों पर टिकी हैं। एक है औवेसी और उनके मददगार। ये सिर्फ ममता के वोट काट कर ही नहीं बल्कि बिहार की तर्ज पर मुसलिम लामबंदी का हौवा खड़ा कर हिंदू ध्रुवीकरण करने में भी मददगार हो सकते हैं। दिलचस्प बात है कि जो सेकुलर पार्टियां भाजपा के लिए सूडो-सेकुलर थी, वे ही अब औवैसी के लिए भी सूडो-सेकुलर हैं। भाजपा के वोट तो लोकसभा की तुलना में कम होंगे ही, अगर ममता के वोट भी कम होते हैं तो भाजपा की बात बन सकती है।

भाजपा के जीतने की दूसरी वजह वाम-कांग्रेस गठजोड़ को तीसरी ताकत के रूप में तरजीह मिलना हो सकती है। मगर माकपा की तमाम नेकनीयती के बावजूद इसकी सूरत नजर नहीं आती। बंगाल की राजनीति की एक और विचित्र खासियत है वर्चस्व की राजनीति, जिसका चेहरा शहरों में तो मतदाता की सहमति हासिल करने का रहता है, मगर गाँवों में यह सहमति के वर्चस्व और चौधराहट, दोनों का रूप भी ले लेता है। माकपा ने निश्चित ही एक दशक पहले जमीन गंवाने की शुरुआत अपनी किसान समर्थक छवि की वैधता को न संभाल पाने से की थी। मगर बाद में इसे जिस बात से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ, वह है गांवों में नागरिक समाज या कानून की निष्पक्षता का वाम शासन में भी मजबूत नहीं हो पाना।

हम याद कर सकते हैं कि इसी रवायत के चलते ही सत्ता परिवर्तन की बेला में वाम दलों से टीएमसी में जाने वालों की भीड़ खड़ी हो गई थी। टीएमसी ने इसके बाद गांवों में जैसी जोर-जबरदस्ती की और चौधराहट कायम की, उससे यह और बढ़ी। माकपा कार्यकर्ताओं पर कई जगह हमले हुए। हालत यहाँ तक आ गई कि माकपा कार्यकर्ता को अपना बचाव करना है तो या तो वह टीएमसी में जाए या मार खाते हुए संघर्ष के लिए तैयार रहे। इसी मुकाम पर 2014 के बाद भाजपा ने खुद को केंद्र सरकार की सरपरस्ती में दमखम के साथ पेश किया और गांवों के कई वाम समर्थक बचने के लिए भाजपा में भी गए।

यह भाजपा के लिए तीसरी उम्मीद है कि जैसे लोग पहले वाम से टीएमसी की तरफ गए थे, अब टीएमसी से भाजपा की तरफ आएंगे। बंगाल में यह होना आश्चर्यजनक नहीं होगा। मगर अभी लोग अपने आप नहीं जा रहे हैं, सौदेबाजी की भूमिका है। अभी तक टीएमसी के सत्रह विधायकों, एक सांसद और कांग्रेस के एक, माकपा के एक और भाकपा के एक विधायक का ‘ट्रांजेक्शन’ नक्की हो चुका है, निश्चित ही कुछ और पाइपलाइन में आ गए होंगे। मगर जनता के बड़े हिस्से में ममता की वैधता या कहें गांवों का ममता-सिस्टम अब तक दरका नहीं दिखता है। अगर जनता ममता के साथ रही तो ये दलबदलू नेता प्रभावहीन हो जाएंगे। 

वहीं एक चौथा सवाल भी है। यह कि किसान आंदोलन का बंगाल के जनमानस पर क्या असर पड़ेगा? किसान बंगाल की राजनीति के केंद्र में रहा है। यह सही है कि पुराने किसान ध्रुवीकरण के बरक्स सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी मैदान में उतारा जा चुका है। मगर भाजपा की सफलता इस बात पर भी निर्भर होगी कि बंगाल में किसान विमर्श व किसान मानस कितना कमजोर पड़ता है। भाजपा की खूबी यह है कि वह अपना वर्ग चरित्र छिपाने का कोई प्रयास नहीं करती। मगर बंगाल में पुरानी वर्ग चेतना मद्धिम पड़ चुकी है।

फिर भी किसान चेतना अब तक बंगाली चित्त में फंसी हुई है। टीएमसी अगर बंगाली गौरव और किसान चेतना को आपस में प्रभावी ढंग से बुन पाई तो यह विमर्श सतह पर उतना मजबूत न दिखते हुए भी निर्णायक हो सकता है। 

कुल मिलाकर भाजपा ने खुद को बंगाल में इतना मजबूत तो कर ही लिया है कि वह रस्साकशी का एक छोर बन सके। वहीं अगर माकपा एक बारगी खुद को यह समझा ले कि वह बंगाल में कभी सत्ता में थी ही नहीं, और वह एक ताजा शुरूआत कर रही है, तो उसके लिए राह आज भी कहीं ज्यादा आसान होगी। चौंतीस सालों की सत्ता को गंवा बैठने और फिर टीएमसी की दबंगई से अपने कार्यकर्ताओं को न बचा पाने का अपमान वर्तमान को देखने में बाधा भी बनता है। माकपा इकाइयां कितनी भी ईमानदारी से फिर से जमीन की राजनीति की कोशिश करें, उन पर चौंतीस सालों के शासन का ताना और बोझ रहता ही है।

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