विचार / लेख

मेरठ दंगे में बशीर बद्र के परिवार को त्यागी-तनेजा ने ऐसे बचाया
03-Feb-2021 5:18 PM
मेरठ दंगे में बशीर बद्र के परिवार को त्यागी-तनेजा ने ऐसे बचाया

RAHAT BADR

-भोपाल से शुरैह नियाजी, मेरठ से अजय चौहान

कभी हिंदी-उर्दू मुशायरों की शान रहे मशहूर शायर बशीर बद्र आजकल भोपाल के अपने घर में गुमसुम ही रहते हैं. वैसे तो उनकी उम्र 85 साल की है, लेकिन याददाश्त के साथ नहीं देने की वजह से उनकी सक्रियता कम हो गई.

पुरानी बातें उनके जेहन से जा चुकी हैं. लेकिन इंसानियत और भाईचारे में विश्वास रखने वाला हर कोई उनके लिखे एक शेर को शायद ही कभी भूल सकता है.

उनका लिखा ये शेर है, "लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में."

दो पंक्तियों के शेर में वो सब है, जो हिंसा पर उतारू सांप्रदायिक भीड़ से जान बचाने वाला आदमी अपनी पूरी उम्र सोचता रहता है. बशीर बद्र भी यही सोचते रहे, वे जब तक अपने पूरे होशो हवास में रहे, उनकी आंखों के सामने वह मंज़र रह रहकर कौंधता ही रहा.

उन्होंने यह शेर तब लिखा था, जब 1987 के मेरठ में सांप्रदायिक दंगों के दौरान उनके घर को आग लगा दिया गया था. इन दंगों ने बशीर साहब को उस वक़्त तोड़ कर रख दिया. यह ऐसा वाक़या था, जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा नहीं था.

हालाँकि इस हादसे के उलट, दूसरी ओर इंसानी भाईचारे की मिसाल भी देखने को मिली, जब बशीर बद्र के घर और उनके परिवार को बचाने के लिए उनके पड़ोसी सामने आए.

त्यागी-तनेजा बने मिसाल
बशीर बद्र उस वक्त मेरठ कॉलेज में पढ़ाते थे और उनका परिवार मेरठ के शास्त्रीनगर इलाक़े में विकास कॉलोनी के मकान संख्या डी- 120 में रहता था. उनके पड़ोस में रहने वाले अनिल त्यागी बताते हैं, "पूरे शहर में दंगे हो रहे थे. लोग एक दूसरे की जान के प्यासे थे."

मेरठ में अप्रैल, 1987 से ही दंगे शुरू हो गए थे, जो तीन महीने तक चलते रहे और इसमें 100 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. हिंसा की शुरुआत होते ही बशीर बद्र अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चले गए थे. लेकिन घर में उनका छोटा बेटा था.

AJAY CHAUHAN

उस वाक़ये को याद करते हुए अनिल त्यागी बताते हैं, "घटना के दिन सुबह के समय अचानक कॉलोनी के दक्षिण छोर से कुछ अनाज लोगों की भीड़ घुस आई, सुबह का समय था, अधिकतर लोग अपने घरों के अंदर थे. कालोनी में घुसे उपद्रवियों ने बशीर बद्र के मकान पर हमला बोल दिया. गनीमत ये रही कि उस समय मकान में कोई नहीं था."

"बशीर बद्र अपने परिवार के साथ दंगे के दौरान तनाव के माहौल को देखकर पहले ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चले गए थे, घर पर उनका छोटा बेटा था, जिसे कालोनी में सब लोग बीनू के नाम से बुलाते थे. बीनू उस समय घर के बाहर पार्क में था, तभी भीड़ ने उनके घर पर हमला बोला दिया."

अनिल त्यागी के मुताबिक, "घर के अंदर जमकर तोड़फोड़ की गई, आगजनी की गई, कछ लोग उनका सामान भी लूट कर ले जाने लगे. इसी दौरान कॉलोनी के लोग इकट्ठा हो गए और बशीर बद्र के घर को बचाने के लिए उन उपद्रवियों से भिड़ गए. मैंने कई लोगों का सामना किया. कॉलोनी में जिन लोगों के पास लाइसेंसी बंदूक थी, उन्होंने फ़ायरिंग कर उपद्रवियों को वहाँ से भगाया. लेकिन तब तक काफ़ी नुक़सान घर को हो चुका था."

अनिल त्यागी ने बताया, "तनाव के माहौल को देखते हुए हमने बशीर साहब के बेटे बीनू को अपने घर में पनाह दे रखी थी. रात में वह हमारे घर में ही ऊपर की ओर बने कमरे में सोता था. जिस सुबह उनके घर पर हमला हुआ, उस पहली रात भी वह हमारे ही घर में सोया था."

कालोनी में रह रहे सुनील तनेजा ने बताया कि कॉलोनी के लोगों को इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं था कि उपद्रवी उनकी कॉलोनी में आकर हमला कर सकते हैं.

VANI PRAKASHAN

वे बताते हैं, "हमने बशीर बद्र के परिवार को सुरक्षित रखने का प्रयास किया था. उपद्रवियों को कॉलोनी से भगाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई लड़ी थी. बाद में जब शहर के हालात सामान्य हुए, तब बशीर बद्र का परिवार वापस आया. कुछ समय तो वह यहाँ रहा, लेकिन इस घटना के एक साल बाद वर्ष 1988 में वे इस घर को बेचकर भोपाल चले गए."

इस घटना के बारे में बशीर बद्र इन दिनों कुछ बताने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन उनकी पत्नी राहत बद्र ने बीबीसी को बताया कि 1987 के दंगे में उनके घर परिवार की सुरक्षा करने के लिए उनके हिंदू पड़ोसी ही सामने आए थे.

राहत बद्र ने बीबीसी हिंदी से बताया, "बद्र साहब की याददाश्त जब ठीक थी, तब वे कई बार उस वाक़ये को याद करते थे. समाज में जब भी कहीं तनाव की बात आती, तो वे हमें बताते थे कि कैसे त्यागी और तनेजा परिवार ने हमलोगों की मदद की थी. अनिल त्यागी, सुनील तनेजा और दूसरे लोगों का ज़िक्र करते थे."

हालाँकि परिवार की सुरक्षा को देखते हुए बशीर बद्र ने अपना मेरठ का मकान दंगों के एक साल बाद ही बेच दिया था, जो उसके बाद भी बिकते हुए तीसरे-चौथे मालिक के पास पहुँच चुका है.

बशीर बद्र भले ही मेरठ से भोपाल चले गए हों, लेकिन उनके दिल में हिंसा की वो याद बनी रही.

दूसरी तरफ़ हिंसा के समय 22-23 साल के जवान रहे अजय त्यागी और सुनील तनेजा की उम्र अब 56-57 साल की होने जा रही है. इन लोगों में आज भी बशीर बद्र के मेरठ छोड़कर भोपाल में बस जाने की कसक दिखती है.

AJAY CHAUHAN

सुनील तनेजा का कहना है कि कुछ लोग नहीं चाहते कि लोग अमन चैन से साथ साथ रहे, ये ऐसे कुछ लोग ही अपने स्वार्थ के लिए एक दूसरे से लड़ाते हैं. लेकिन आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो धर्म और जाति का भेदभाव भुलाकर एक दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़े रहते हैं.

इंडिया टुडे की एक विशेष रिपोर्ट के मुताबिक़ मेरठ में तीन महीने तक चले दंगे में कम से कम 150 लोगों की मौत हुई थी और एक हज़ार से ज़्यादा लोग घायल हुए थे.

उस वक्त उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का शासन था और वीर बहादुर सिंह राज्य के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. मेरठ की सांप्रदायिक हिंसा में ही हाशिमपुरा में हुए नरसंहार का ज़िक्र भी होता है, जिसमें पुलिस और पीएसी की जवानों पर 42 मुस्लिम युवाओं की हत्या का आरोप लगा था.

हालाँकि सबूतों के अभाव में अदालत ने इस मामले में सभी 16 अभियुक्त पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया था.

बशीर बद्र की पीएचडी
वैसे बशीर बद्र को इस महीने के शुरु में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने पीएचडी की उपाधि दी है. यह डिग्री उन्हें पीएचडी करने के लगभग 46 साल बाद दी गई है. बशीर बद्र ने 1973 में पीएचडी कर ली थी. लेकिन थीसिस जमा करने के बाद अपनी व्यस्तता की वजह से वो उसे कभी ले ही नहीं पाए.

लेकिन उनकी पत्नी डॉ. राहत बद्र और बेटे तैयब बद्र ने इसके लिए काफ़ी कोशिश की, जिसके बाद उन्हें इस महीने डिग्री मिल गई. बशीर बद्र की पीएचडी का विषय था 'आज़ादी के बाद की ग़ज़ल का तनकीदी मुताला.'

बशीर बद्र स्वास्थ्य वजहों से बीते 15 सालों से मुशायरों में शिरकत नहीं कर पाए हैं, लेकिन इसके बावजूद आज भी अगर उनका शेर उनके बेटे पढ़ते हैं, तो उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और कई बार तो वो ख़ुद उसे मुकम्मल कर देते हैं. (bbc.com)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news