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छत्तीसगढ़ एक खोज : किशोर नरेन्द्र की रायपुर यात्रा
31-Jan-2021 6:21 PM
  छत्तीसगढ़ एक खोज : किशोर नरेन्द्र की रायपुर यात्रा

-रमेश अनुपम

पूरे रास्ते वृक्षों की अटूट श्रृंखला, जंगली बेल और लताएं, भांति-भांति  के विहंगमों का अविरल कलरव, निर्जन पथ,  बैलों की गले में बंधी हुई घंटियों की सुमधुर ध्वनि, बाहें पसारे विशाल पर्वत श्रेणियां, अनंत निरभ्र आकाश और हरीतिमा की चादर ओढ़े शस्य श्यामला धरती किसी भी मनुष्य के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकती थी। किशोर नरेन्द्र भी अपने ह्रदय में कुछ ऐसा ही अनुभव कर रहे थे। नरेन्द्र के ह्रदय के तार भी प्रकृति की सुषमा को देखकर झंकृत हो उठे थे।

 रायपुर में नरेन्द्रनाथ दत्त ( स्वामी विवेकानंद) की रायपुर यात्रा की चर्चा से पहले रायपुर नगर की भी थोड़ी चर्चा कर लेना मुनासिब होगा। रायपुर एक प्राचीन नगर है। ‘ The Imperial  Gazetteer of India vol-XXI (  New Ed,  1908 ) P.60 में उल्लेखित कथन पर विश्वास करें तो रायपुर नगर का अस्तित्व नवमीं शताब्दी से है। अर्थात् आज से ग्यारह सौ वर्ष पहले से रायपुर एक नगर के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। लेकिन तब वह रायपुर के नाम से नहीं किसी और नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में इस शहर का नाम रायपुर रखा गया।

अंग्रेज विद्वान D.R Leckie द्वारा सन् 1790 में लिखित सुप्रसिध्द ग्रथ  'Journal of a route to Nagpur by way of Cuttac , Burrasamber and Southern Burjare Ghaut in the year  1790’ (1880 ) श्च.180  के पृष्ठ का अवलोकन करें तो उस समय रायपुर प्राचीन नगर होने के साथ-साथ संपन्न तथा व्यावसायिक केन्द्र के रूप में संपूर्ण मध्य भारत में प्रसिध्द हो चुका था। अनेक विदेशी विद्वानों ने भी अपने-अपने ग्रंथ में इस प्राचीन नगर के वैभव का अपने-अपने तरीके से वर्णन किया है।  'Madhya Pradesh District Gazetteer : Raipur’ ( Bhopal,  1978 ) P.397

छत्तीसगढ़ पूर्व में हैहयवंशी कल्चुरी राजाओं के अधीन रहा है। सन् 1758 में कल्चुरी राजाओं को पराजित कर मराठा शासकों द्वारा छत्तीसगढ़ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया गया। सन् 1817-19 में इतिहास ने पुन: एक बार करवट ली जिसके चलते मराठों को परास्त कर अंग्रेजों ने छत्तीसगढ़ को अपने आधिपत्य में ले लिया।

कैप्टन एडमंड सन् 1818 में छत्तीसगढ़ के प्रथम अधीक्षक नियुक्त किए गए। उनके निधन के उपरांत  उनके स्थान पर कैप्टन एगेन्यु छत्तीसगढ़ के अधीक्षक बनाए गए। कैप्टन एगेन्यु ने सन् 1824-25 के मध्य रतनपुर के स्थान पर रायपुर को अपना हेडक्वार्टर बनाया। एगेन्यु ने जयपुर की तरह ही रायपुर को भी सुव्यवस्थित एवं सुंदर बनाने का कार्य किया।

उस समय रायपुर घने जंगलों से आच्छादित एक ऐसा दुर्गम नगर माना जाता था जहां जाने के लिए अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी के मन में भय का संचार होता था। सन् 1861 में Central  का पुर्नगठन किया गया। सन् 1862 में Central Provinces  के नए चीफ कमिश्नर U Sir Richard Temple  का रायपुर आगमन हुआ। सन् 1870 तक रायपुर शहर की पहचान छत्तीसगढ़ सहित समग्र मध्य देश में एक प्रमुख शहर के रूप में होने लगी।

सन् 1877 तक रायपुर आने-जाने के लिए कोई सुविधाजनक मार्ग नहीं था, न हीं सडक़ मार्ग और न ही रेल मार्ग। उस समय कोलकाता से आने वाले यात्री इलाहाबाद, जबलपुर होते हुए नागपुर पहुंचते थे फिर नागपुर से बैलगाडिय़ों से उन्हें रायपुर तक की यात्रा करनी पड़ती थी।

इस यात्रा में कई दिन लग जाते थे। नागपुर से रायपुर तक की यात्रा उस समय 183 मील की होती थी। नागपुर से भंडारा तक 40 मील का रास्ता पक्का रास्ता था। भंडारा से रायपुर तक की यात्रा जो लगभग 143 मील का रास्ता था, कच्चे मार्ग से करना पड़ता था। भंडारा के पास बहने वाली नदी वेनगंगा पर उस समय तक अंग्रेजों द्वारा पुल का निर्माण किया जा चुका था।

हमारे इस प्रथम कड़ी के नायक, महानायक, उन्नीसवीं शताब्दी के भारत के तेजस्वी सूर्य स्वामी विवेकानंद अर्थात् किशोर नरेन्द्रनाथ दत्त का आगमन भी इन्हीं दिनों रायपुर में संभव हुआ। सन् 1877 में चौदह वर्षीय किशोर नरेन्द्र अपने पिता विश्वनाथ दत्त, मां श्रीमती भुवनेश्वरी देवी, दस वर्षीया छोटी बहन जोगेन बाला तथा आठ वर्षीय भाई महेन्द्रनाथ दत्त के साथ पहली बार ट्रेन से इलाहाबाद, जबलपुर होते हुए नागपुर आए। नागपुर से बैलगाडिय़ों में बैठकर नरेन्द्रनाथ दत्त अपने पूरे परिवार के साथ अनेक दिनों की यात्राएं कर रायपुर पहुंचे थे।

एक अन्य बैलगाड़ी पर रायपुर के सुप्रसिध्द वकील तथा विश्वनाथ दत्त के मित्र भूतनाथ डे, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती एलोकेसी डे तथा उनका छ: माह का पुत्र हरिनाथ डे, जो कालांतर में विश्व के महानतम जीनियस के रूप में विख्यात हुए सवार थे। अन्य बैलगाडिय़ों पर खाने-पीने का सामान, नौकर-चाकर तथा रसोइया सवार थे।   जंगली जानवरों से सुरक्षा और चोर लुटेरों के डर से एक बंदूकधारी सिपाही भी सुरक्षा के लिए उनके साथ था। इस तरह  वे दस-पंद्रह बैलगाडिय़ों के  कारवां  के साथ नागपुर से रायपुर के लिए निकल पड़े।

बैलगाडिय़ों का यह कारवां शाम ढलते-ढलते किसी पूर्व निर्धारित गांव में थम जाता। वहां रसोइया भोजन बनाते, सब लोग भोजन कर उसी गांव में विश्राम करते, तत्पश्चात् सुबह स्नान आदि के पश्चात् पुन: यात्रा प्रारंभ हो जाती। दोपहर में फिर किसी गांव में रूककर भोजन और विश्राम के पश्चात् यह कारवां आगे की यात्रा में निकल पड़ता और सूर्यास्त होने के पश्चात् फिर किसी गांव में ठहर जाता।

कोलकाता के मेट्रोपोलिटन स्कूल के तीसरी कक्षा में पढऩे वाले छात्र नरेन्द्र के लिए जो उस समय उदर रोग से पीडि़त थे और जिसका ज्यादातर वक्त बिस्तर पर लेटे हुए बीत जाता था,  यह यात्रा एक अलौकिक अनुभव से भरी हुई यात्रा  सिद्ध हुई। 14 वर्षीय नरेन्द्र अपने पिता, मां, भाई-बहन के साथ पहली बार इतनी लम्बी यात्रा पर निकले थे।

पूरे रास्ते वृक्षों की अटूट श्रृंखला, जंगली बेल और लताएं, भांति-भांति  के विहंगमों का अविरल कलरव, निर्जन पथ,  बैलों की गले में बंधी हुई घंटियों की सुमधुर ध्वनि, बाहें पसारे विशाल पर्वत श्रेणियां, अनंत निरभ्र आकाश और हरीतिमा की चादर ओढ़े शस्य श्यामला धरती किसी भी मनुष्य के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकती थी। किशोर नरेन्द्र भी अपने ह्रदय में कुछ ऐसा ही अनुभव कर रहे थे। नरेन्द्र के ह्रदय के तार भी प्रकृति की सुषमा को देखकर झंकृत हो उठे थे।

(अगली किस्त कल)

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