विचार / लेख

दुनिया इतनी संकीर्ण कि आदमी की सिर्फ एक ही पहचान को स्वीकार कर सकती है ?
29-Jan-2021 6:19 PM
दुनिया इतनी संकीर्ण कि आदमी की सिर्फ एक ही पहचान को स्वीकार कर सकती है ?

-महेन्द्र सिंह

कई बार सोचता हूँ कि मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है कि इस देश की सबसे ऊंची और सम्मानजनक कही जानी वाली सरकारी सेवा के दूसरे सबसे ऊंचे पद पर होने के बाद भी किसी भी तरह से छुट्टी लेकर, मैं लगभग दो महीने घर से दूर एक बांस की झोंपड़ी में बिताता हूँ, वहाँ सर्दी, गर्मी, वर्षा में खेत में सारा दिन और काफी बार रात में भी काम करता हूँ जिससे मेरे हाथों में छाले पड़ जाते हैं और पैरों में बिवाइयाँ फटकर खून बहने लगता है। न केवल अपना वरन दस-बारह तक मजदूरों का भी खाना खुद बनाता हूँ ।

इतना सब करने के बावजूद मुझे हर साल लगभग एक लाख रुपए का घाटा हो जाता है जो कि स्वाभाविक है कि मेरे वेतन से जाता है। मुझसे कई गुना ज्यादा मजदूर खटते हैं। उनके भी हिस्से में भी मात्र या तो सिर्फ 250 रुपए प्रतिदिन की मजदूरी आती है या फिर छह महीने से ज्यादा सपरिवार मेहनत करने पर लगभग छह महीने का धान और पशुओं के लिए पुआल मिल पाता है। अगर वो इसे मजदूरी में मापें तो वह 250 रुपए प्रतिदिन की एक तिहाई भी नहीं बनेगी।

इस बार तो दफ्तर काफी समय बंद रहने के कारण यह समय लगभग दुगुना हो गया। इस बार खुद खेती की तो खेत में नाले से पानी लाते वक्त पत्थर की चोट से एक उंगली स्थाई रूप से क्षतिग्रस्त हो गई और साँप ने भी काटा , हालांकि वो जहरीला नहीं था लेकिन 25 इंजेक्सन और उनके साइड इफैक्ट तो झेलने पड़े। हाड़तोड़ मेहनत के बाद इस बार फसल बहुत अच्छी हुई थी और पहली बार कुछ लाभ की उम्मीद थी लेकिन जब पकने लगी तो एक सप्ताह तक हाथियों के एक दल ने रात-रात भर फसल को खाया कम और बर्बाद ज्यादा किया; हमारी रात की पहरेदारी से भला क्या भागते गजराज;  फिर वो ही एक लाख रुपए का घाटा।

फसल बीमा की राशि काट लेने के बाद भी जब बाढ़ या किसी अन्य कारण से फसल को नुकसान होता है तो कोई मुआवजा नहीं मिलता। तर्क दिया जाता है कि जब तक पूरे जिले की आधी से ज्यादा फसल नष्ट नहीं होगी, कोई मुआवजा नहीं मिलेगा।

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान बेचना किसी दुस्वपन से कम नहीं है। रजिस्ट्रेशन से लेकर धान को मंडी में ले जाने तक एक असीम कष्ट और अत्याचार है। मंडियों में खरीदने, ना खरीदने का फैसला सरकारी अधिकारी नहीं, मिल मालिक करते हैं और अधिकारी , मिल मालिक सब किसान को कीड़ा-मकौड़ा समझकर असभ्य भाषा में बात करते हैं। बहुत से किसानों का सैंपल में पास किया हुआ धान भी वापस भेज दिया जाता है, मेरा  भी भेजा गय। जो धान लिया भी जाता है, उसमें से भी 5 से 10 किलो प्रति क्विंटल काट लिया जाता है और प्रति क्विंटल लगभग 50 रुपए के दो बोरे भी रख लिए जाते हैं जिन्हें मिल-मालिक फिर से इन किसानों को ही बेचते हैं।

ये सब मेरे जैसे शिक्षित, कानून के जानकार आदमी के साथ हो रहा है तो आम किसान के साथ क्या हो रहा  होगा, सोचिए ।

जो लोग यह समझते हैं कि किसान कोई दान नहीं करता, अपने लाभ के लिए खेती करता है; उनकी सूचना के लिए बता दूँ कि असल में सरकार को अपनी दमन कारी नौकरशाही और फौजों के लिए सस्ता अनाज चाहिए होता है और इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण है जबकि किसानों ने अतिरिक्त अनाज पैदा करना बंद कर दिया तो सरकारों ने उनको पकड़-पकड़ कर, बाध्य करके अतिरिक्त अनाज उगवाया। मेरी किशोर अवस्था में प्रत्येक किसान को एक निश्चित मात्रा में अनाज  हर बीघा की खेती के हिसाब से बाजार मूल्य से कम पर सरकार को देना पड़ता था जिसे लेवी  कहा जाता था। यह तब भी देना पड़ता था जब फसल खराब हो जाए।ना देने पर जमीन जब्ती तक के प्रावधान थे। इसलिए बहुत से किसानों को बाजार से ऊंचे दाम पर अनाज खरीद कर सरकार को कम दाम पर लेवी देनी पड़ती थी।

इसलिए अगर किसान यह फैसला कर ले कि वे पुराने जमाने के आत्मनिर्भर गांवों की ओर चला जाएगा और सिर्फ अपनी जरूरत की ही फसलें पैदा करेगा तो उसका सबसे ज्यादा असर भी शहरी लोगों और सरकारी तंत्र  पर पड़ेगा और ये ही सारा लोकतंत्र और चयन की छूट का राग भूलकर इस कदम का विरोध करेंगे। हो सकता है कि पर्यावरण संकट के कारण ऐसा दौर भी शीघ्र ही आ जाए कि खाने के लिए अनाज सिर्फ उसी को मिले जिसके पास अनाज उगने लायक जमीन है ।

इस सबके बीच एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या मैं एक किसान हूँ ? किसान-आंदोलन के विरोधियों के अनुसार तो बिल्कुल भी नहीं लेकिन जब मैं बैंक में किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने गया था तो बैंक के कृषि अधिकारी ने भी मुझे किसान मानने से इंकार कर दिया था ।

क्या यह दुनिया इतनी संकीर्ण हो गई है कि एक आदमी की  सिर्फ एक ही पहचान को स्वीकार कर सकती है ?(लेखक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी है)

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