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भूपेश बघेल : जनता की बढ़ती उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती
15-Dec-2020 7:23 PM
भूपेश बघेल : जनता की बढ़ती उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती

-डॉ राजू पाण्डेय 

छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्न द्रष्टाओं और राज्य निर्माण हेतु निरंतर संघर्ष करने वाले मनीषियों ने छत्तीसगढ़ के मुखिया की जैसी छवि अपने हृदय में गढ़ी होगी वह छवि श्री भूपेश बघेल की तरह ही रही होगी-  छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान के लिए मर मिटने को तैयार एक ठेठ छत्तीसगढ़िया व्यक्तित्व जिसके पास प्रदेश के विकास के ढेरों सपने हैं और इन सपनों को पूरा करने का संकल्प भी। भूपेश 'छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़िया प्रथम' के नारे को चरितार्थ करने में लगे हैं। भूपेश का छत्तीसगढ़वाद इतर-प्रांतवासियों और अन्य भाषा भाषियों को बहिष्कृत करने वाली संकीर्ण अवधारणा नहीं है बल्कि यह उन्हें छत्तीसगढ़ में समाविष्ट करने वाला- उन्हें छत्तीसगढ़ के रंग में रंग देने वाला एक उदार विचार है।
 
भूपेश को पता है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जनकल्याण करना और जनकल्याण करते दिखना दोनों ही आवश्यक हैं। यही कारण है कि उन्होंने शासकीय योजनाओं और शासन की उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। गाँव, किसान और गरीब उनकी योजनाओं के केंद्र में हैं- भूपेश जानते हैं कि छत्तीसगढ़ महतारी का असली निवास कहाँ है। 

भूपेश ने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पारी की शुरुआत अपने चुनावी वादों को पूरा करने से की। किसानों की कर्ज माफी, 2500 रुपए प्रति क्विंटल पर धान खरीदी, सभी परिवारों को 35 किलो चावल, 400 यूनिट तक बिजली बिल हाफ, जैसे निर्णय लोकप्रिय बनाने वाले तो थे किंतु इनके दूरगामी वित्तीय प्रभावों के दबाव का सामना भूपेश को निरंतर करते रहना पड़ेगा। लोहंडीगुड़ा के किसानों को उनकी भूमि लौटाने का ऐतिहासिक फैसला लिया गया और उस पर अमल कर भूपेश ने अपनी किसान हितैषी छवि को और पुख्ता किया।

भूपेश सरकार द्वारा नगरीय क्षेत्रों में छोटे भूखंडों की रजिस्ट्री प्रारंभ हुई। कलेक्टर दर में 30 प्रतिशत की कमी की गई, भूखंडों को फ्री होल्ड करने का निर्णय लिया गया। गुमाश्ता एक्ट में संशोधन किया गया। स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच लोगों तक बढ़ाने के लिए मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लीनिक योजना, शहरी क्षेत्रों में मुख्यमंत्री शहरी स्लम स्वास्थ्य योजना, कुपोषण मुक्ति के लिए सुपोषण अभियान प्रारंभ किए गए। वन अधिकार पट्टा देने का कार्य छत्तीसगढ़ में पुनः प्रारंभ किया गया। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी योजना प्रारम्भ की गई।

वर्ष 2020 में भूपेश अनेक ऐसी योजनाएं लाए हैं जो आदिवासियों के कल्याण को समर्पित हैं- समर्थन मूल्य पर 7 के स्थान पर 25 वनोपजों की खरीद की व्यवस्था, महुआ का समर्थन मूल्य 17 रुपए से बढ़ाकर 30 रुपए करना, 856 हाट बाजारों में लघु वनोपजों की खरीद की व्यवस्था, 139 वन धन विकास केंद्रों में लघु वनोपजों के प्रसंस्करण का प्रबंध, तेंदूपत्ता संग्रहण में पारिश्रमिक दर 2500 रुपए से बढ़ाकर 4000 रूपए करना आदि। छत्तीसगढ़ सरकार का कहना है कि यह योजनाएं 13 लाख आदिवासी परिवारों की आय में वृद्धि करेंगी। सरकार का दावा है कि उसने लॉक डाउन की अवधि में वनवासी हितग्राहियों को 30 करोड़ रुपए का भुगतान किया है और लॉक डाउन में हुई वनोपजों की कुल खरीद का 98 प्रतिशत छत्तीसगढ़ द्वारा किया गया है। 

भूपेश सरकार ने किसानों को लेकर  राजीव गांधी किसान न्याय योजना प्रारंभ की जिसके तहत धान, मक्का और गन्ना के 19 लाख किसानों के खाते में 5700 करोड़ रुपए का भुगतान 4 किश्तों में किया जाना है। सरकार इस योजना को किसानों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करती रही है। किसानों और उनके पशुधन के लिए छत्तीसगढ़ सरकार अन्य अनेक योजनाएं लेकर आई है। खुले में घूमते पशुओं द्वारा खेतों की चराई की समस्या से छुटकारा दिलाने के लिए राज्य सरकार गौठान बना रही है। छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क विभाग के अनुसार 2200 गौठान बन चुके हैं और इस वर्ष के अंत तक 5000 गौठान बनकर तैयार हो जाएंगे। गौठान समितियों को 10000 रुपए प्रतिमाह सहायता का प्रावधान किया गया है और हर गौठान में गोवंश के लिए चारे-पानी की व्यवस्था होगी। गोठानों से गोबर गैस और अन्य उत्पाद निर्मित किए जाएंगे, गोठानों के निकट कुक्कुट पालन का प्रबंध भी होगा।

ऐसा नहीं है कि भूपेश के यह दो वर्ष निर्विवाद रहे हैं। भ्रष्टाचार इन दो वर्षों में निरंतर चर्चा में रहा है। तबादलों में भ्रष्टाचार ने सुर्खियां बटोरी हैं। मुख्यमंत्री की प्रिय नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी योजना में गौठान निर्माण और इनकी देखरेख में जमकर भ्रष्टाचार की शिकायतें मिल रही हैं। यह शिकायतें लगभग हर जिले से आ रही हैं। प्रशासनिक अमला निरंकुश होकर कार्य कर रहा है। मुख्यमंत्री को उनके प्रिय अधिकारी वही तस्वीर दिखा रहे हैं जो कि वह देखना चाहते हैं न कि वह तस्वीर जो वास्तविक है। स्वाभाविक है जो योजनाएं मुख्यमंत्री के हृदय के निकट हैं उनके लिए फण्ड उदारता से दिया जाता है। इस फण्ड का दुरुपयोग करने के अवसर भ्रष्ट प्रशासनिक तंत्र निकाल ही लेता है। 

मुख्यमंत्री की विकास की अवधारणा मानव केंद्रित है। भूपेश कहते हैं- “सेवा ही हमारा सनातन धर्म है। इसी रास्ते पर चलते हुए हमें आर्थिक मंदी और कोरोना संकट काल में अर्थव्यवस्था को बचाये रखने में सफलता मिली है।

छत्तीसगढ़ में हमने अपनी संस्कृति, अपने खेतों, गांवों, जंगलों, वनोपजों, प्राकृतिक संसाधनों, लोककलाओं, परंपराओं और इन सबके बीच समन्वय से अपना रास्ता बना लिया। हमें गर्व है कि अर्थव्यवस्था का हमारा छत्तीसगढ़ी मॉडल संकट मोचक साबित हुआ। हमने बड़े और महंगे निर्माण से अर्थव्यस्था के संचालन का मिथक तोड़ दिया है। स्थानीय जनता की सोच से विकास का रास्ता अपनाया है जिसके कारण निवेश और विकास हमराही बन गए हैं। विकास की हमारी सोच, नीति और क्रियान्वयन के बीच इतना गहरा नाता है कि दो वार्षिक बजट काल पूरा होने के पहले ही हम इस दौरान देश के सबसे बड़े रोजगार सृजक राज्य बन गए हैं।' (स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन,2020)।

निश्चित ही भूपेश का ध्यान किसी स्थान पर भौतिक संरचनाओं का ढेर लगाने से अधिक उस स्थान पर निवासरत लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने पर है। किंतु मानव विकास के सूचकांकों पर विकास की सुनिश्चित और सकारात्मक दिशा हासिल करना एक समय साध्य कार्य है। इसके लिए योजनाओं में वैज्ञानिक दृष्टि का समावेश, वस्तुनिष्ठता और पारदर्शिता आवश्यक है। इससे भी बड़ी आवश्यकता योजनाओं को क्रियान्वित करने वाले प्रशासनिक अमले और योजना से लाभान्वित होने वाले आम जनों को जागरूक, संवेदनशील और उत्तरदायी बनाने की है। नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी जैसी योजनाएं निश्चित ही गांव-गरीब, खेती-किसानी और पशुपालन को विमर्श के केंद्र में लाने में सहायक रही हैं। लेकिन समाज की अंतिम पंक्ति के आखिरी आदमी को राहत पहुंचाने के लिए इनमें अभी बहुत संशोधन, परिष्कार और सुधार की आवश्यकता है। जिस प्रकार भ्रष्ट तंत्र इन योजनाओं हेतु आबंटित राशि की बंदरबांट में लगा है और शीर्ष अधिकारी आंकड़ों की बाजीगरी दिखा रहे हैं इन योजनाओं के शैशवावस्था में दम तोड़ने की आशंका अधिक लगती है।
 
लोगों में एक आम धारणा यह भी बनती दिखती है कि प्रदेश में राज्य शासन के उत्तरदायित्व वाली सड़कों की स्थिति बदतर हुई है। राज्य सरकार द्वारा अधोसंरचना निर्माण के कार्यों में शिथिलता आई है। कुल मिलाकर एक ठहराव और बिखराव की अनुभूति अनेक प्रेक्षकों को हो रही है। यद्यपि राज्य सरकार के दावे कुछ अलग हैं। राज्य सरकार के अनुसार उसने पिछले 2 वर्ष में सड़क और पुलों के निर्माण तथा उनकी मरम्मत के 4 हजार 50 कामों के लिए 13 हजार 230 करोड़ रूपए की स्वीकृति प्रदान की है। इसके साथ ही प्रदेश के पहुंच विहीन सभी महत्वपूर्ण स्थानों तक सड़क निर्माण के लिए जून 2020 में प्रारंभ की गई सुगम सड़क योजना के तहत 2 हजार 169 कार्यों के लिए 252 करोड़ रूपए आबंटित किए गए हैं। छत्तीसगढ़ सड़क विकास निगम के अधीन 768 कार्यों के लिए 8 हजार 400 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। सरकारी दावों और जमीनी अनुभव के मध्य के गहरे अंतर को मिटाने में भूपेश कितनी जल्दी कामयाब होते हैं इसकी सभी को प्रतीक्षा रहेगी।

अपने मूल्यांकन के दौरान हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भूपेश सरकार के दूसरे वर्ष पर कोरोना महामारी की छाया रही है और यह भी कि कई अन्य प्रदेशों की तुलना में छत्तीसगढ़ ने कोविड काल में आर्थिक गतिविधियों का बेहतर संचालन किया है। लेकिन यह भी सत्य है कि छत्तीसगढ़ की आर्थिक संरचना ने इस कोविड काल में भूपेश की बड़ी सहायता की है। छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में कृषि और वानिकी की केंद्रीय भूमिका है। देश के कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन इस वैश्विक महामारी के दौरान कहीं बेहतर रहा है। प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र के विषय में भूपेश ने अपने स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन 2020 में कहा- 'कोरोना काल में भी छत्तीसगढ़ में 26 लाख मीट्रिक टन लौह इस्पात सामग्रियों के उत्पादन और आपूर्ति से सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे देश को सहारा मिला है।' छत्तीसगढ़ का औद्योगिक ढांचा ऊर्जा उत्पादक इकाइयों और स्टील उत्पादक कारखानों पर आधारित है। इन्हीं से जुड़ी माइनिंग की गतिविधियां हैं। जैसे ही अनलॉक की प्रक्रिया प्रारंभ हुई पॉवर और स्टील उद्योग तथा माइनिंग पटरी पर वापस लौटने वाली पहली गतिविधियां थीं। जबकि ऐसे प्रदेश जो सेवा या पर्यटन क्षेत्रों पर निर्भर थे अभी भी कोविड-19 की मार झेल रहे हैं। बहरहाल भूपेश की इस बात के लिए तो प्रशंसा होनी ही चाहिए कि उन्होंने कोविड-19 के प्रबंधन में केंद्र से बेहतर तालमेल बनाए रखा और कुछ अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तरह  हठधर्मी रुख अपनाते हुए केंद्र से टकराव और आरोप-प्रत्यारोप का रास्ता नहीं चुना। 

प्रदेश की वित्तीय स्थिति और कर्ज के बढ़ते बोझ को लेकर विपक्ष लगातार हमलावर रहा है और विकास कार्यों की धीमी गति के लिए प्रदेश की दयनीय वित्तीय हालत को उत्तरदायी ठहराता रहा है। भूपेश सरकार द्वारा रिज़र्व बैंक से कर्ज लेने की खबरें तब चर्चा का विषय बनी थीं जब सरकार ने वर्ष 2019 के प्रारंभ में जनवरी माह में कर्ज माफी, धान खरीदी और उस पर दिए जाने वाले बोनस के भुगतान के लिए आरबीआई से 2000 करोड़ रुपए का कर्ज लिया था। इसके बाद अगस्त 2020 में राजीव गाँधी किसान न्याय योजना की दूसरी क़िस्त के भुगतान के लिए प्रदेश सरकार ने 4 साल की प्रतिभूतियों की नीलामी का निर्णय लिया जिससे 1300 करोड़ रुपए प्राप्त हुए इसमें 200 करोड़ की अतिरिक्त राशि मिलाकर कुल 1500 करोड़ रुपए का कर्ज हासिल किया गया। फरवरी 2020 में विधानसभा में सदस्यों द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में मुख्यमंत्री ने बताया था कि दिसंबर 2018 से 31 जनवरी 2020 तक राज्य सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक से 16400 करोड़ रुपए, राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक से 934.38 करोड़ रुपए तथा केंद्र सरकार के माध्यम से एशियन डेवलपमेंट बैंक व विश्व बैंक से 394.74 करोड़ रुपए, कुल 17729 करोड़ रुपए का ऋण लिया  है। उक्त कर्ज पर 31 जनवरी 2020 तक 582.25 करोड़ ब्याज चुकाया जा गया है।  मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बताया कि राज्य सरकार पर कुल 57,848 करोड़ रुपये का कर्ज है। इस प्रकार कर्ज की यह राशि बजट के आधे से भी अधिक हो गई है।
 
अर्थशास्त्रियों का एक समूह यह विश्वास करता है कि छत्तीसगढ़ सरकार के वित्तीय घाटे के बढ़ने का सीधा अर्थ है कि सरकार की उधारी बढ़ेगी। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार सरकार के बांड बेचने और बार- बार ऋण लेने से विकास कार्यों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। सरकार बांड बेचकर जो ऋण ले रही है वह उसे मय ब्याज  चुकाना पड़ेगा। इसके लिए सरकार को स्वयं पूंजी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। हाल ही में नवंबर 2020 में राजीव गाँधी किसान न्याय योजना की तीसरी क़िस्त के भुगतान के लिए सरकार ने पुनः 1000 करोड़ रुपए का कर्ज लिया जिसके लिए भी आरबीआई ने राज्य सरकार के फिक्स्ड डिपॉजिट्स की नीलामी की। कहा यह जा रहा है कि राज्य सरकार को जीएसटी क्षतिपूर्ति के रूप में जो चार हजार करोड़ की तीन किस्तें मिलनी थीं, वह अब तक नहीं मिली हैं। यही कारण है कि सरकार को कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ रही है।

कर्ज के यह आंकड़े चिंता तो उत्पन्न करते हैं लेकिन यदि ब्लूमबर्ग क्विंट की मानें  तो भूपेश सरकार कर्ज लेने के बावजूद फिस्कल रैंकिंग में बेहतरीन प्रदर्शन करने में कामयाब रही है और वह महाराष्ट्र के बाद दूसरे स्थान पर है। छत्तीसगढ़ के बाद ओडिशा, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश का स्थान है। फिस्कल रैंकिंग की गणना फिस्कल डेफिसिट, स्वयं की टैक्स रेवेन्यू तथा स्टेट डेट की ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट में प्रतिशत हिस्सेदारी के आधार पर की जाती है। वित्तीय वर्ष 2019 के आंकड़ों पर आधारित फिस्कल रैंकिंग में शानदार प्रदर्शन करने वाले भूपेश अपने साथी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से बिल्कुल अलग नजर आते हैं क्योंकि पंजाब और राजस्थान 16 वें और 17 वें स्थान पर हैं। जीएसटी कलेक्शन में छत्तीसगढ़ 24 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी के साथ देश में दूसरे पायदान पर है। इज ऑफ डूइंग बिज़नेस की नवीनतम रैंकिंग में छत्तीसगढ़ का स्थान छठवां है।

भूपेश के अब तक के कार्यकाल में कुछ घटनाएं ऐसी रही हैं जिन्होंने नकारात्मक सुर्खियां बटोरी हैं। भूपेश सरकार पर प्रेस की स्वतंत्रता के हनन के आरोप लगते रहे हैं। अंबिकापुर नगर निगम द्वारा किसानों की पकने को तैयार धान की खड़ी फसल पर जेसीबी चलवाना और इसके बाद इस घटना की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराना सरकार की गरीबों के प्रति संवेदनशीलता की गर्वोक्तियों एवं प्रेस की आजादी के पैरोकार होने के उसके दावों पर गंभीर प्रश्न उठाने वाला मामला है। कांकेर के एक पत्रकार को सत्ताधारी दल के नेताओं द्वारा पीटने और धमकी देने का मामला अब तक शांत नहीं हुआ है। यह तो हालिया घटनाएं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण पिछले 2 वर्ष में देखने को मिले हैं जब छत्तीसगढ़ सरकार ने पत्रकारों के प्रति दमनकारी रवैया अपनाया है। 
पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने का वादा करके सत्ता में आए भूपेश अब इसी माँग के लिए पत्रकारों के आंदोलन का सामना कर रहे हैं। दुर्भाग्य यह है पत्रकारों के दमन की सर्वाधिक घटनाएं बस्तर में हुई हैं जहाँ पत्रकार अपनी जान जोखिम में डाल कर सच उजागर करने का कार्य कर रहे हैं। नक्सलियों द्वारा कभी उन्हें मुखबिर और प्रशासन का दलाल मान लिया जाता है और कभी पुलिस उन्हें नक्सल समर्थक होने के शक में प्रताड़ित करती है। 

मोटे तौर पर पत्रकारों का यह मानना रहा है कि नक्सल प्रभावित बस्तर में कांग्रेस की सरकार आने के बाद कुछ बदला नहीं है। सरकार ने निर्दोष ग्रामीणों पर लगे झूठे मामले हटाने का अपना वादा पूरा नहीं किया है। बस्तर में ग्रामीणों के असंतोष के बावजूद पुलिस कैम्पों की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई है। चाहे वे सोनी सोरी हों या आदिवासियों के हितों के लिए कार्य करने वाले अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ता,  प्रशासन का रुख इनके प्रति संवेदनहीन ही रहा है और इन्हें संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा है। भूपेश के कार्यकाल में सरकार की नक्सल नीति में बड़े बदलाव की उम्मीद थी क्योंकि बतौर विपक्षी नेता भूपेश ने नक्सल समस्या के समाधान में निर्दोष आदिवासियों के हितों को सर्वोपरि प्राथमिकता देने और उनके जल-जंगल-जमीन को सुरक्षित रखने की बात बारंबार कही थी। किंतु ऐसा होता नहीं दिखता। प्रदेश के अन्य जिलों में भी जहाँ माइनिंग की गतिविधियां होनी हैं, यह जानते हुए भी कि इनका परिणाम आदिवासियों और वन वासियों के विस्थापन और विनाश के रूप में होगा अडानी समेत अन्य औद्योगिक घरानों के प्रति छत्तीसगढ़ सरकार का रुख अतिशय उदार रहा है और इन्हें मनचाहे ढंग से नियमों को तोड़ने मरोड़ने की छूट मिली हुई है।

ऐसा बिल्कुल नहीं है कि छत्तीसगढ़ सरकार नक्सल मोर्चे पर एकदम नाकाम रही है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हालात सुधरे हैं,आदिवासियों के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए उनकी वनोपजों तथा कलाकृतियों की ब्रांडिंग और मार्केटिंग  की अनेक नई योजनाएं भी प्रारंभ हुई हैं किंतु इन योजनाओं के जोर शोर से किए जा रहे प्रचार से हटकर जमीनी स्तर पर आकलन करने पर इनका प्रभाव बहुत अधिक नहीं दिखता और इनका स्वरूप प्रतीकात्मक अधिक लगता है। छत्तीसगढ़  सरकार का दावा रहा है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जनकल्याणकारी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन, पुलिस एवं जिला प्रशासन के मध्य बेहतर समन्वय तथा प्रशासनिक चुस्ती के कारण नक्सल घटनाओं में वर्ष 2018 की तुलना में वर्ष 2019 में 40 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। पुलिस मुख्यालय द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार इस अवधि में नक्सल घटनाओं में कमी के साथ ही सुरक्षाबलों की शहादत में 62 प्रतिशत और आम नागरिकों की हत्याओं में 48 प्रतिशत की कमी आयी है। सरकार यह भी कहती रही है कि 2020 में नक्सल घटनाओं में कमी का यह ट्रेंड जारी है। किंतु नक्सली हिंसा की घटनाएं हुई हैं और बड़ी संख्या में लोग मारे भी गए हैं। वर्ष 2020 में 22 मार्च को नक्सलियों से मुठभेड़ में 17 जवान शहीद हुए थे। इधर एक नई चिंताजनक प्रवृत्ति भी देखी जा रही है।  बस्तर के पुलिस अधिकारियों के अनुसार नक्सलियों में पनप रहा विवाद गैंगवार का रूप धारण कर रहा है। इसका मुख्य कारण नक्सलियों द्वारा मुखबिरी के शक में की जा रहीं ग्रामीणों की हत्याओं और कैडर सदस्यों के लगातार आत्मसमर्पण को माना जा रहा है। अधिकारियों द्वारा साझा की गई सूचनाएं यह बताती हैं कि नक्सलियों ने 2020 में करीब 60 ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर बताकर मौत के घाट उतार दिया। कारण जो भी हो मारे तो आदिवासी ही जा रहे हैं। 

इन दो वर्षों में प्रदेश में अनेक ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुई हैं जिन पर जम कर राजनीति हुई है और विपक्ष ने सरकारी तंत्र पर असंवेदनशीलता तथा सम्पूर्ण विफलता के आरोप लगाए हैं। इसी माह केन्द्री में एक युवक ने अपने परिवार के चार सदस्यों की हत्या के बाद स्वयं आत्महत्या कर ली। लॉक डाउन के कारण बेरोजगारी से परेशान युवक का परिवार अनेक बीमारियों से भी ग्रस्त था जिनका इलाज नहीं हो पा रहा था। पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देकर भूपेश सरकार पर आक्रमण करते रहे हैं। वर्ष 2019 में छत्तीसगढ़ में आत्महत्या के मामलों में 8.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह वृद्धि 3.4 प्रतिशत थी। वर्ष 2019 में छत्तीसगढ़ 7629 आत्महत्याओं के साथ देश में नवें क्रम पर रहा। भाजपा वर्ष 2019 में 233 किसानों और 1679 मजदूरों की आत्महत्या को कांग्रेस सरकार की विफलता के रूप में प्रस्तुत करती रही है। अभी हाल ही में किसान आत्महत्या के ऐसे मामले सामने आए जिनमें किसानों की फसल नकली कीटनाशकों के प्रयोग से बर्बाद हो गई और हताश किसानों ने आत्महत्या कर ली। सौभाग्य से इन सभी मामलों में सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने प्रभावित परिवार की पीड़ा कम करने की कोशिश की है और समस्या को नकारने के बजाए उसकी तह तक जाने का प्रयास किया है।

भूपेश ने उम्मीदें खूब जगाई हैं। भाजपा की छत्तीसगढ़ के गठन में केंद्रीय भूमिका रही। जबसे राज्य बना है तब से अधिकांश समय भाजपा सत्ता पर काबिज रही है और जो छत्तीसगढ़ आज हम देख रहे हैं उसे गढ़ने  में निश्चित ही राज्य की भाजपा सरकारों की भूमिका भी रही है। किंतु आम छत्तीसगढ़िया को यह अनुभूति पहली बार हो रही है कि वह खुद सत्ता में है। वह भूपेश के साथ तादात्म्य स्थापित करने में सफल रहा है। भूपेश भी अंधविश्वासी करार दिए जाने के खतरों के बावजूद ठेठ छत्तीसगढ़िया नायक की छवि को पुख़्ता करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं- वे प्रदेश की सुख समृद्धि के लिए गोवर्धन पूजा के दौरान कोड़े खाने वालों की कतार में भी खड़े होने को भी तैयार हैं।

किंतु भूपेश यह भी जानते हैं कि केवल करिश्मा ही काफी नहीं है, विकास भी आवश्यक है। उनके दिमाग में जो योजनाएं हैं उनमें छत्तीसगढ़ की भौगोलिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना की गहरी समझ स्पष्ट दिखती है। प्रचार पर उनका खूब विश्वास है। चतुर से चतुर राजनेता भी यह भांप नहीं पाता कि उसके अच्छे कार्यों की पब्लिसिटी ने कब प्रोपेगंडा का रूप ले लिया है। उस बहुचर्चित उक्ति को झुठला पाना सफलतम राजनेताओं के लिए भी आसान नहीं रहा है जिसके अनुसार प्रोपेगंडा का सबसे बड़ा शिकार उसे रचने वाला ही होता है। यह आशा की जानी चाहिए कि भूपेश इस मामले में अपवाद सिद्ध होंगे। 

जैसे जैसे प्रदेश की कांग्रेस सरकार पुरानी होती जाएगी, वांछित पद और लाभ पाने से वंचित, हाशिए पर धकेल दिए गए पार्टी कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ती जाएगी और जैसे जैसे अगले चुनाव निकट आएंगे उनका असंतोष भी मुखर होकर सामने आने लगेगा। भाजपा के साथ भी यह होता है किंतु भाजपा का संगठन मजबूत है और सत्ता की मुख्यधारा में जिन कार्यकर्ताओं को जगह नहीं मिल पाती उन्हें संगठन में महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व दे दिए जाते हैं। भूपेश को भी संगठन को मजबूत बनाना ही होगा। 

आज जब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व साम्प्रदायिकता और उग्र हिंदुत्व के उभार से हतप्रभ और दिग्भ्रमित दिखता है तब भूपेश के सामने यह अवसर रहेगा कि साम्प्रदायिक सौहार्द के छत्तीसगढ़ मॉडल को देश के लिए उदाहरण के तौर पर गढ़ें। लेकिन यदि वह मानते हैं कि उग्र हिंदुत्व की काट छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों से गुजरने वाले राम वन गमन पथ में 51 स्थानों पर मंदिर बनाने जैसे कदमों द्वारा संभव है तो वे गलती पर हैं। यह आशा करनी चाहिए कि वे अपने भाषणों में जितने प्रखर सांप्रदायिकता विरोधी हैं उसी प्रकार अपनी  नीतियों और निर्णयों में भी वे निर्णायक और स्पष्ट रूप से सेक्युलरिज्म के पोषक सिद्ध होंगे।

भूपेश का सफल होना आवश्यक है क्योंकि उनकी विफलता आम छत्तीसगढ़िया की योग्यता और प्रशासनिक कौशल पर प्रश्न चिह्न खड़ा करने हेतु प्रयुक्त की जा सकती है जो कदापि छत्तीसगढ़ के हित में न होगा।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)

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