विचार / लेख
राजीव गुप्ता
पाकिस्तान से 1947 के विभाजन के समय आए लोगों को भारत सरकार ने उत्तर भारत के अलग-अलग शहरों में रिफ्यूज कैम्पों में रहने और खाने की व्यवस्था की थी। बड़ी आबादी में लोग आकर वहाँ रुके भी थे। अपनी जान किसी तरह बचाकर आए इन लोगों के पास कुछ भी नहीं था, यहां तक की खाने के लिए भी की कुछ नहीं था। बहुतों ने अपने परिवार के सदस्यों को अपनी आँखों के सामने मरते देखा था। लाखों लोग बगैर हिंसा के भी मारे गए थे ।
बात सन 1951 की पहली जनगणना की है । भारत सरकार द्वारा बनाए गए सभी रिफ्यूजी कैम्पों में जनगणना की टीम पहुंची तो सारे रिफ्यूजी कैंप खाली मिले। मुख्यत: पाकिस्तान से विस्थापित अधिकतर पंजाबी समुदाय के लोग अपनी-अपनी क्षमता अनुसार काम पर लग गए थे। उन्होंने सरकार के भरोसे रहना स्वीकार नहीं किया था। इन लोगों ने दिल्ली के ऑफिसों के बाहर सामान बेचने, खाना बनाकर बेचने का काम शुरू कर दिया था। इसके गवाही उस दौर के लोग आपको देंगे। लेखक यशपाल की किताब में इसका विस्तार से जिक्र है। सिर्फ संदर्भ के लिए 1971 के पाकिस्तान युद्ध के बाद विस्थापितों के कैंप आज 50 साल तक आबाद हैं ।
विभाजन के समय पाकिस्तान से अधिकतर पंजाबी लोग भारत आए थे क्योंकि बहुत छोटा सा हिस्सा पंजाब का अभी हमारे पास है। बड़ा हिस्सा पाकिस्तान विभाजन में पाकिस्तान चला गया था। विभाजन की त्रासदी झेल चुके लोगों को सरकार की उपेक्षा डिगा पाएगी इसकी संभावना बहुत कम है । ऐसी कौम जिसने अपने खून से इस माटी को सींचा है उसके साथ सरकार का ऐसा व्यवहार अत्यंत दुखदायी है। अगर किसानों में असंतोष है तो उनकी बात जरूर सुनी जानी चाहिए। सत्रह दिनों से दिल्ली की कपकपाती ठंड में खुले आसमान में किसान सडक़ों में बैठे हंै और सरकार बातें सुनने का ढोंग कर रही है। लगभग रोज हो रही मौतों और कोरोना महामारी के बीच आंदोलनकारी विचलित नहीं हो रहे ये बड़ी बात है।
हिंदुस्तान और विश्व इतिहास में इस आंदोलन को हमेशा एक असरदार आंदोलन के रूप में याद रखा जाएगा और ये बेनतीजा भी खत्म नहीं होगा इसका मौजूदा स्वरूप ये बता रहा है।
इस आंदोलन के तरीके को देखकर अगर किसी को संतोष हो रहा होगा तो वो निसंदेह महात्मा गाँधी को हो रहा होगा।