अंतरराष्ट्रीय
रूस ने यूक्रेन पर 'विशेष सैन्य कार्रवाई' का पहला चरण पूरा होने का एलान किया है. हालांकि यूक्रेनी शहरों पर हमला अब भी जारी है. इस बीच यूक्रेनी सेना ने कई इलाकों में मजबूत वापसी की है.
रूसी सेना के उप प्रमुख ने शुक्रवार शाम को कहा कि उनके सैनिकों ने पहले दौर के प्रमुख लक्ष्यों को हासिल कर लिया है. ऐसा लगता है कि रूसी सेना ने अपना ध्यान जमीनी युद्ध से हटाने के साथ ही अलगाववादी इलाके डोनबास की तरफ मोड़ दिया है. फिलहाल यह तो नहीं कहा जा सकता कि व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन में अपने लक्ष्यों से पीछे हट रहे हैं, लेकिन रूसी सेना की गतिविधियों से संकेत मिल रहे हैं कि वह रूसी शहरों में जमीनी युद्ध लड़ने के पक्ष में नहीं हैं.
राजधानी कीव के पास दो रूसी बख्तरबंद बटालियन अब भी शहर के उत्तर-पश्चिम और पूरब में अटके हुए हैं. रूसी सेना ज्यादा से ज्यादा मिसाइलों और हवाई हमलों का ही सहारा ले रही है. जमीन पर उसे यूक्रेन के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है. जमीन पर रूस को ज्यादा कामयाबी नहीं मिल सकी है. तकरीबन चार हफ्ते से ज्यादा की लड़ाई के बाद भी रूस किसी बड़े यूक्रेनी शहर पर नियंत्रण नहीं कर सका है.
रूस की सेना को कई इलाकों में कड़े प्रतिरोध के कारण अपने कदम वापस खींचने पड़े हैं. बीते हफ्तों में अमेरिका और दूसरे देशों ने यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति तेज कर दी है. इस युद्ध में रूसी सेना को भी भारी नुकसान हुआ है. बड़ी संख्या में सैनिकों की मौत के साथ ही उसे टैंक, जहाज, हैलीकॉप्टर और दूसरे सैन्य उपकरणों के लिहाज से भारी क्षति हुई है.
हालांकि यूक्रेनी शहरों पर मिसाइलों और लड़ाकू विमानों से हमला लगातार जारी है. यूक्रेन के डोनबास इलाके में रूस समर्थित अलगाववादी 2014 से ही कुछ इलाकों पर अपना नियंत्रण रखे हुए हैं. रूस अब इसी इलाके पर अपना ध्यान केंद्रित कर युद्ध का नया दौर शुरू कर रहा है.
रूसी सैनिकों ने बेलारूस की सीमा के पास मौजूद स्लावुटिश को अपने कब्जे में ले लिया है. यहां चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट के कर्मचारी रहते हैं. कीव के गवर्नर ने शनिवार को यह जानकारी दी है. उन्होंने यह भी बताया कि रूसी सैनिकों ने एक अस्पताल पर कब्जा करने के साथ ही शहर के मेयर का अपहरण कर लिया है.
युद्ध खत्म करने की अपील
यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने शुक्रवार को फिर रूस से युद्ध खत्म करने की अपील की. हालांकि इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि शांति के लिए वह अपना इलाका नहीं छोड़ेंगे.
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की शनिवार को कतर के दोहा फोरम में वीडियो लिंक के जरिए शामिल हुए. अपने भाषण में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र और दुनिया के ताकतों से उनके देश की मदद के लिए आगे आने को कहा. जेलेंस्की ने मारियोपोल में हुई तबाही की तुलना सीरिया की जंग में अलेप्पो की तबाही से की.
जेलेंस्की ने कहा, "वे हमारे बंदरगाहों को तबाह कर रहे हैं. यूक्रेन से निर्यात रुक गया तो पूरी दुनिया में समस्या होगी." जेलेंस्की ने देशों से ऊर्जा का निर्यात बढ़ाने की भी मांग की. यह खासतौर से बेहद अहम है, क्योंकि कतर दुनिया में प्राकृतिक गैस का बड़ा निर्यातक है. जेलेंस्की ने रूस की आलोचना करते हुए कहा कि रूस परमाणु हथियारों से सबको डरा रहा है.
तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोवान ने शुक्रवार टेलिफोन पर यूक्रेनी राष्ट्रपति से बात की है. इस दौरान यूक्रेन की हालत और रूस-यूक्रेन के बीच सुलह के लिए हो रही बातचीत पर चर्चा की गई. एर्दोवान ने जेलेंस्की को बताया कि उन्होंने नाटो की हाल की बैठक में यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता के लिए समर्थन जताया है. तुर्की के रूस और यूक्रेन के साथ करीबी संबंध हैं और वह इस युद्ध में किसी का पक्ष ना लेकर, मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाहता है.
युद्ध अपराध के सबूत
युद्ध के प्रचण्ड दौर में ही संभावित युद्ध अपराध के सबूतों को जमा करने के लिए तैयारी चल रही है. पुतिन ने यूक्रेन पर जब पहला बम गिराया था, तभी अमेरिका ने कह दिया था कि रूसी सैनिक युद्ध के अंतरराष्ट्रीय कानूनों को तोड़ रहे हैं, जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखे गए थे. हालांकि यह साफ नहीं है कि इनके लिए किसे जिम्मेदारा ठहराया जाएगा और कैसे?
यूक्रेन में जिन संभावित युद्ध अपराधों की चर्चा हो रही है उनमें घरों को गिराना, सुरक्षित गलियारों से निकलने की कोशिश कर रहे लोगों पर गोलीबारी, अस्पतालों को निशाना बनाना, कल्स्टर बम जैसे हथियारों का नागरिक इलाकों में इस्तेमाल करना, परमाणु बिजली केंद्र पर हमला और जान बूझ कर भोजन, पानी जैसी मानवीय सहायता का रास्ता रोकना शामिल है. हालांकि इसमें भी नीयत की भूमिका बड़ी है. केवल अस्पताल को ध्वस्त कर देना ही काफी नहीं है. यह भी दिखाना होगा कि ऐसा जान बूझ कर किया गया.
समाचार एजेंसी एपी ने स्वतंत्र रूप से यूक्रेन के कम से कम 34 अस्पतालों या इलाकाई केंद्रों पर हमले की रिपोर्ट दी है. एजेंसी के पत्रकारों ने नागरिक ठिकानों पर रूसी हमलों से हुई तबाही को खुद जा कर देखा. इन हमलों के शिकार बने बच्चों और दूसरे लोगों को दफनाए जाने की घटनाओं को भी इन पत्रकारों ने दर्ज किया है.
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयुक्त ने कम से कम 1035 आम लोगों के मौत की पुष्टि की है. जिनमें 90 बच्चे भी शामिल हैं. इसके अलावा 1650 से ज्यादा लोग इस युद्ध में घायल भी हुए हैं. हालांकि माना जा रहा है कि असल संख्या इसकी तुलना में बहुत ज्यादा है.
मारियोपोल की मुसीबत
इधर मारियोपोल की सड़कों पर लड़ाई की खबरें आ रही हैं. मारियोपोल के मेयर वादिम बोइशेंको का कहना है कि रूसी घेराबंदी में रह रहे शहर की हालत अब भी खराब है और शहर के केंद्र में सड़कों पर लड़ाई चल रही है.
मारियोपोल से आ रही तस्वीरों में हर तरफ तबाही के निशान और मलबे के ढेर दिख रहे हैं. टूटी-फूटी या पूरी तरह ध्वस्त इमारतें, जली हुई गाड़ियां दिख रही हैं. सदमे में डूबे लोग नजर आ रहे हैं जो पानी और खाना खोजने के लिए जगह-जगह मारे फिर रहे हैं. यहां लोगों को सामूहिक कब्रों में दफनाया जा रहा है.
इस बीच यूक्रेन के उप प्रधानमंत्री इरिना वेरेशचुक ने शनिवार को कहा कि 10 मानवीय गलियारा बनाने के लिए सहमति हुए है, ताकि नागरिकों को युद्ध वाले इलाकों से बाहर निकाला जा सके. वेरेशचुक ने यह भी कहा कि मारियोपोल से बाहर निकने वाले लोगों को निजी कारों में जाना होगा, क्योंकि रूसी सेना बसों को चेक प्वाइंट से नहीं गुजरने दे रही है. इन दावों की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं हो सकी है.
तटवर्ती शहर होने के कारण रूस की मारियोपोल पर नजर है और वो किसी भी तरह से इस पर कब्जा करना चाहता है. हालांकि तबाही के बाद भी यूक्रेन यह इलाका रूस को सौंपने के लिए तैयार नहीं है. 4 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहर में अब भी एक लाख से ज्याद आम नागरिक फंसे हुए हैं.
एनआर/आरएस (एपी, एएफपी, रॉयटर्स)
रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से दुनिया के कई देशों में खाद्य असुरक्षा का संकट बढ़ गया है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, हम जो कुछ खाते हैं, उसका स्थायी और स्थानीय तौर पर उत्पादन करके से जलवायु परिवर्तन से लड़ा जा सकता है.
डॉयचे वैले पर स्टुअर्ट ब्राउन की रिपोर्ट-
रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के जल्द खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे हैं. जैसे-जैसे युद्ध का समय बढ़ रहा है, वैसे-वैसे दुनिया के सामने खाद्य सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. मध्य पूर्वी और उत्तरी अफ्रीकी देशों के लिए अनाज की ज्यादातर आपूर्ति रूस और यूक्रेन से ही होती है. मिस्र को दुनिया का सबसे बड़ा गेहूं आयातक देश माना जाता है. मिस्र ने पिछले साल अपने गेहूं का 80 फीसदी हिस्सा इन्हीं दो देशों से खरीदा था. वहीं संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम का भी कहना है कि वह दुनिया में जरूरतमंद लोगों को खिलाने के लिए जो अनाज खरीदता है, उसका 50 फीसदी हिस्सा यूक्रेन से आता है.
ग्लोबल अलायंस फॉर द फ्यूचर ऑफ फूड (जीएएफएफ) की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, खाद्य असुरक्षा और आयात पर निर्भरता की वजह अस्थिर खाद्य प्रणालियां हैं. इससे वैश्विक स्तर पर तापमान भी बढ़ता है. इस रिपोर्ट से पता चलता है कि दुनिया में ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) के एक तिहाई उत्सर्जन के लिए खाद्य प्रणालियां जिम्मेदार हैं. ज्यादातर राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों (एनडीसी) में अब तक खाद्य प्रणालियों की वजह से होने वाले उत्सर्जन को शामिल नहीं किया गया है.
रिपोर्ट में इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया है कि किस तरह कार्बन का ज्यादा इस्तेमाल करने वाले मोनोकल्चर खेती पर आधारित खाद्य प्रणालियां कई स्तरों पर जलवायु परिवर्तन को तेज कर रही हैं. इनमें वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान से लेकर खाद्यान को हजारों किलोमीटर दूर तक आयात करना शामिल हैं. ये खाद्य प्रणालियां न तो जलवायु परिवर्तन के हिसाब से अनुकूल हैं और न ही युद्ध के लिहाज से.
बर्लिन स्थित क्लाइमेट थिंक टैंक, क्लाइमेट फोकस के वरिष्ठ सलाहकार और रिपोर्ट के प्रमुख लेखक हसीब बख्तरी ने कहा, "खाद्य प्रणालियों पर स्थानीय और वैश्विक स्तर पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.” उन्होंने इसके समाधान पर बात करते हुए कहा कि स्थानीय स्तर पर ऐसी खाद्य प्रणाली विकसित करनी होगी जो जलवायु के अनुकूल हो और आयात पर निर्भरता कम करे. साथ ही भोजन की बर्बादी रोकनी होगी और कार्बन का कम इस्तेमाल करने वाले भोजन को बढ़ावा देना होगा.
बख्तरी इस बदलाव को ‘प्रकृति के लिहाज से ज्यादा अनुकूल' बताते हैं. उनके मुताबिक, वैश्विक स्तर पर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने का जो लक्ष्य रखा गया है, उसे पूरा करने में इस बदलाव का अहम योगदान हो सकता है. इस बदलाव को लागू करने से कार्बन उत्सर्जन में 20 फीसदी से ज्यादा की कमी हो सकती है.
जीएएफएफ के अध्ययन से पता चलता है कि मिस्र में इस साल के नवंबर में आयोजित होने वाले कॉप27 में 14 देश किस तरह से खाद्य प्रणाली में बदलाव की बात को शामिल कर सकते हैं.
चार देशों में तो बदलाव की प्रक्रिया पहले से जारी है.
1. बांग्लादेश
मौसमी चक्रवात और ज्वार से बांग्लादेश के बाढ़ प्रभावित हिस्से में नियमित नुकसान होता है. इसी इलाके में मछली पालन और धान की खेती होती है. हाल के दिनों में आयी बाढ़ ने दुनिया के इस तीसरे सबसे बड़े चावल उत्पादक देश को मजबूर कर दिया कि उसे बाहर से अनाज का आयात बढ़ाना पड़ा.
बांग्लादेश समुद्रतल से ऊंचाई के मामले में दुनिया के सबसे निचले देशों में से एक है. यहां के हर दसवें आदमी के सामने भोजन का संकट है. अब इस देश में बाढ़ प्रभावित इलाकों का बेहतर प्रबंधन किया जा रहा है. इससे बांग्लादेश जलवायु के हिसाब से खुद को बदल भी रहा है और चावल-मछली को एक साथ पैदा करने की प्रणाली को भी बेहतर बना रहा है. परंपरागत रूप से यहां की आबादी का मुख्य भोजन चावल-मछली ही है.
साल के पांच महीने, मानसून के मौसम में फ्लड प्लेन का इस्तेमाल मछली पालन के लिए किया जा रहा है. जब पानी का स्तर कम होने पर धान की खेती की जा रही है.
खाद्य सुरक्षा पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था ‘वर्ल्ड फिश' अब चावल-मछली की समुदाय-आधारित स्थायी उत्पादन प्रणाली बांग्लादेश में लागू कर रही है. जिसके तहत कृत्रिम उर्वरकों का इस्तेमाल बंद करके, मछली के अवशेषों का इस्तेमाल प्राकृतिक उर्वरक के तौर पर किया जा रहा है. साथ ही, मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले जैविक पदार्थों के विघटन को रोकने के लिए बाढ़ के मैदानों में पानी को जमा रखा जा रहा है.
मिट्टी में जैविक पदार्थ और नमी बरकरार रहने से देसी मछलियों की प्रजातियों को भी विकसित होने का मौका मिलता है. इस तरह से खाद्य प्रणाली को विकसित करने पर पोषण में भी सुधार होगा और आयात पर निर्भरता भी कम होगी.
2. मिस्र
मिस्र का लगभग 96 फीसदी हिस्सा रेगिस्तान है. इस देश में खेती योग्य भूमि और ताजा पानी की काफी कमी है. जलवायु परिवर्तन की वजह से गर्म हो रहे मौसम के कारण यह समस्या और बढ़ जा रही है. मिस्र में यह भी अनुमान लगाया गया है कि कृषि योग्य भूमि के 12 से 15 फीसदी हिस्से पर समुद्र के स्तर में वृद्धि होने की वजह से खारे पानी का बुरा प्रभाव होगा.
ऐसे में आयात किए जाने वाले भोजन और विशेष रूप से अनाज पर लगातार बढ़ रही निर्भरता से तभी मुकाबला किया जा सकता है, जब इस रेगिस्तान को हरा-भरा बनाने की पहल की जाए. जीएएफएफ की रिपोर्ट के अनुसार, 1970 के दशक से मिस्र के रेगिस्तान में टिकाऊ विकास पहल- एसईकेईएम चलाई जा रही है. इसके तहत, जलवायु के अनुकूल खेती करके शुष्क रेगिस्तान की तस्वीर बदली जा रही है.
यहां पेड़-पौधे लगाए जा रहे हैं. नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा दिया जा रहा है. नाइट्रोजन को बढ़ाने वाले पौधे लगाकर मिट्टी की उर्वरता में सुधार किया जा रहा है, ताकि कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता खत्म हो जाए. एसईकेईएम का दावा है कि 2020 तक उसके फार्म नवीकरणीय ऊर्जा से संचालित होंगे.
कंपोस्ट खाद की मदद से खेती करना जैविक खेती का हिस्सा है. इसका मकसद ऐसे समय में खाद्य पर आत्मनिर्भरता बढ़ाना है, जब संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने मिस्र में 2050 तक गेहूं का उत्पादन 15 फीसदी और मक्का का उत्पादन 19 फीसदी कम हो जाने की बात कही है.
खाद्य उत्पादन के लिए एसईकेईएम ने "एक नए उदाहरण पेश करने की कल्पना” की है. इसका नाम है- वहाट ग्रीनिंग द डेजर्ट पायलट प्रोजेक्ट. इस प्रोजेक्ट के तहत मिस्र के रेगिस्तान में 10 वर्ग किलोमीटर से अधिक के क्षेत्र को उपजाऊ खेत में बदलने के लिए काम किया जा रहा है.
3. सेनेगल
पश्चिम अफ्रीकी देश सेनेगल जलवायु लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए कृषि-पारिस्थितिक खाद्य प्रणाली को अपनाने और स्थायी तौर पर खाद्य उत्पादन की दिशा में काम करने वाले कुछ देशों में से एक है. वजह है देश में ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन के 40 फीसदी हिस्से के लिए कृषि का जिम्मेदार होना. सेनेगल के खाद्य क्षेत्र के उत्सर्जन में कटौती से न केवल जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिलेगी, बल्कि ऐसी खाद्य प्रणाली को सुधारने में मदद मिलेगी, जो हसीब बख्तरी के शब्दों में, ‘जलवायु के असर के प्रति संवेदनशील और नाजुक' है.
सेनेगल अफ्रीका के पश्चिमी साहेल क्षेत्र में है, जहां का तापमान वैश्विक औसत के मुकाबले 1.5 गुना तेजी से बढ़ रहा है. सेनेगल में भी खाद्य असुरक्षा और कुपोषण एक बड़ी समस्या है. 2020 में, 17 फीसदी आबादी को "अत्यधिक रूप से खाद्य असुरक्षित" माना गया था. उस वक्त यहां के 7.5 फीसदी लोग कुपोषित थे.
सेनेगल हाल के वर्षों में मछली का बड़ा निर्यातक रहा है. लेकिन यह देश चावल, गेहूं, मक्का, प्याज, ताड़ का तेल, चीनी और आलू सहित अपने मुख्य खाद्य पदार्थों का लगभग 70 फीसदी हिस्सा आयात करता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि सेनेगल का एनडीसी भी स्थायी और स्थानीय तौर पर पैदा किए जाने वाले पौष्टिक खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देकर इस निर्भरता को दूर करने का प्रयास कर रहा है.
4. अमेरिका
अमेरिका खाद्य असुरक्षा की तुलना में खाने की बर्बादी से ज्यादा प्रभावित है. यहां जरूरत से 30 से 50 फीसदी ज्यादा खाद्य पदार्थों का उत्पादन होता है. इसका मतलब है कि इनमें से ज्यादातर हिस्से को फेंक दिया जाता है.
बख्तरी कहते हैं कि अगर 2030 तक अमेरिका में खाद्य पदार्थों की बर्बादी को आधा कर दिया जाता है, तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सड़क पर चलने वाली 1.6 करोड़ कारों के सालाना उत्सर्जन के बराबर कटौती होगी.
अमेरिका में ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन के 10 फीसदी हिस्से के लिए कृषि जिम्मेदार है. इसका काफी ज्यादा असर पर्यावरण पर पड़ता है. ऐसे में स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए, कम जैव विविधता वाले, कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भर रहने वाले मोनोकल्चर फॉर्मों पर ध्यान देना होगा.
वहीं, जीएएफएफ की रिपोर्ट के अनुसार शाकाहारी भोजन को बढ़ावा देने वाली खाद्य प्रणाली के इस्तेमाल से उत्सर्जन में 32 फीसदी की कमी आ सकती है. खाने की बर्बादी को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रयास पहले से ही चल रहा है. राष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था रेफेड उपभोक्ताओं के व्यवहार में बदलाव करने, खाद्य पदार्थों के वितरण में बढ़ोतरी करने जैसे उपाय अपनाकर अमेरिका में भोजन की बर्बादी को रोकने का प्रयास कर रहा है. रेफेड का मानना है कि खाने की बर्बादी व्यावस्था से जुड़ी समस्या है. इसे दूर करने के लिए पूरी खाद्य श्रृंखला में बदलाव करना होगा. (dw.com)
अफ्रीकी महाद्वीप जलवायु से जुड़ी वित्तीय मदद के संकल्प को पूरा करने के लिए अमीर देशों पर जोर डाल रहा है. जमीनी स्तर पर अनुभव की कमी से अहम जलवायु अनुकूलन परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं.
डॉयचे वैले पर नगाला किलियन चिमटोम की रिपोर्ट-
अफ्रीकी महाद्वीप, दक्षिण से लेकर पूरब तक जलवायु परिवर्तन की मार से घिरा है. दक्षिण में चक्रवातों की विपदा है तो पूर्व में बाढ़ और सूखा. वैश्विक ग्रीन हाउस उत्सर्जन में अफ्रीकी भागीदारी न्यूनतम है- महज 3.8%. फिर भी वो उस संकट की एक बड़ी गंभीर कीमत चुका रहा है जिसमें उसका कोई हाथ नहीं.
कई विशेषज्ञ इस बात को मानते हैं कि अफ्रीका को पैसो की मदद बहुत जरूरी है जिससे वो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के लिहाज से खुद को ढाल सके. एक दशक पहले, अमीर देशों ने 2020 तक इसी मकसद को पूरा करने की खातिर विकासशील देशों को 100 अरब डॉलर की धनराशि देने का संकल्प किया था.
इस डेडलाइन को दो साल बीत चुके हैं- और विकसित देशों का अनुमान है कि वे 2023 से पहले तो अपना वादा पूरा नहीं कर पाएंगे. उन पर अपना वादा पूरा करने का दबाव लगातार बढ़ रहा है.
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के लिए अफ्रीका से जलवायु परिवर्तन समन्वयक रिचर्ड मुनांग ने डीडब्लू को बताया, "हमें ये समझने की जरूरत है कि अफ्रीका पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा तेजी से गरम हो रहा है. खाद्य असुरक्षा की चुनौतियां और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां जिनसे हम आज जूझ रहे हैं वे ना सिर्फ बनी रहेंगी बल्कि अफ्रीका को बहुत जोखिम भरी और दुविधा वाली स्थिति में डालेंगी.”
जरूरतें बढ़ती जा रही हैं
2100 तक विश्व आबादी में अफ्रीकी योगदान 17 फीसदी से बढ़कर 40 फीसदी हो जाने का अनुमान है. इसे देखते हुए जलवायु अनुकूलन परियोजनाओं के लिए करो या मरो की स्थिति आ गई है. टिकाऊ विकास लक्ष्यों (एडीजी) पर अपनी गति बनाए रखने के लिए अफ्रीकी महाद्वीप की जद्दोजहद भी जारी है. संयुक्त राष्ट्र के तमाम सदस्य देशों ने 2030 तक गरीबी के खात्मे और जलवायु मामलों में लचीलापन बढ़ाने के लिए 2015 में इन विकास लक्ष्यों को पूरा करने का संकल्प लिया था. उन्हीं के साथ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) भी शामिल किए गए थे.
मुनांग बताते हैं कि, "अफ्रीका को एनडीसी पर अमल के लिए दो खरब डॉलर की दरकार है और एसडीजी के लिए 1.2 खरब डॉलर चाहिए होंगे. इसीलिए ये कतई जरूरी है कि जलवायु लचीलापन हासिल करने में अफ्रीका की मदद की जाए.”
हाल की प्राकृतिक विपदाओं की ओर साक्ष्य के तौर पर इशारा करते हुए मुनांग का कहना है कि विश्व बिरादरी को यथाशीघ्र अपने वादों पर अमल करना चाहिए.
वो कहते हैं, "आप देख रहे हैं, मांएं भूखी हैं, फसल बर्बाद हो रही है, लोग बाढ़, सूखे की मार झेल रहे हैं और विस्थापन को विवश हैं...ये सारी वास्तविकताएं जलवायु परिवर्तन के तहत बढ़ने ही वाली हैं.”
क्यों नहीं मिलता है पैसा
लेकिन इस पूरी बहस में अफ्रीकी द्वंद्व की सिर्फ आंशिक झलक ही मिलती है. जलवायु परिवर्तन न्यूनीकरण परियोजनाओं के लिए जारी कुछ फंड जब महाद्वीप में पहुंचता है तो अक्सर ये साफ नहीं होता कि उसका ठीक ठीक क्या इस्तेमाल हो रहा है और आखिर उसे हासिल कैसे किया जा सकता है.
कैमरून की वानिकी तकनीशियन और एनजीओ लीडर एडलीन टेंगम कहती हैं कि उन्होंने कई दफा जलवायु के लिए जारी इस पैसे तक पहुंचने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहीं.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "स्थानीय समुदायों की रोजीरोटी के स्तर में सुधार के जरिए हमारा विचार है बर्बाद इलाकों की पुनर्बहाली. इस किस्म के प्रोजेक्टों के लिए पैसा चाहिए और उसके लिए हमें जूझना पड़ रहा है. हर बार मैं जब प्रोजेक्ट जमा करती हूं, उसे घटिया बता कर खारिज कर दिया जाता है.”
ये अकेली टेंगम की लड़ाई नहीं है. संयुक्त राष्ट्र वन फोरम से जुड़े पीटर गोंडो कहते हैं कि जलवायु का पैसा मिलने में कठिनाई, पूरे अफ्रीकी महाद्वीप में एक जानी पहचानी समस्या है. वो कहते है कि घूम फिर कर सारा मामला, परियोजनाओं के प्रस्तावों के निरूपण में अनुभव की कमी पे आकर अटक जाता है.
वो कहते हैं, "अभ्यर्थियों को ये दिखाना होता है कि उनके प्रस्तावित प्रोजेक्ट, जलवायु परिवर्तन न्यूनीकरण और अनुकूलन में किस तरह योगदान करते हैं. इस प्रस्तुति में बहुत सारे विस्तृत, सटीक डाटा की जरूरत पड़ती है जिससे ये अनुमान लगाया जा सके कि अगर आप अपना प्रोजेक्ट चालू करते हैं तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की कटौती में आप कितना योगदान करने वाले हैं. कई देशों में जरूरी दक्षता वाले पर्याप्त जानकार हैं ही नहीं.”
बेहतर भविष्य का प्रशिक्षण
ज्यादा से ज्यादा जलवायु परियोजनाएं हासिल करने और उन्हे लागू करने के लिए अफ्रीकी वन फोरम ने ग्लोबल फॉरेस्ट फाइनेन्सिंग फेसिलिटेशन नेटवर्क (जीएफएफएफएन) के साथ भागीदारी की है. दोनों मिलकर पब्लिक सेक्टर और स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधियों के लिए, जलवायु कोष और ठोस परियोजनाएं तैयार करने के बारे में प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन करते हैं.
टेंगम ने दोआला में ऐसी ही एक वर्कशॉप में भाग लिया था. वहां उन्हें ना सिर्फ ये जानकारी मिली कि उनके पास किस तरह की फंडिंग के अवसर हैं बल्कि ये भी जाना कि फंड की जरूरतों को पूरा करने वाले प्रोजेक्टों को कैसे ड्राफ्ट करना है. वो कहती हैं कि वो भविष्य के प्रस्तावों को जमा करने के बारे में अब ज्यादा आश्वस्त हुई हैं.
"मैंने वो तरीका सीख लिया है कि जो मुझे समस्या से समाधान की ओर ले जाएगा, हमारे वित्तीय मददगार यही चाहते हैं.”
आखिरकार, इस अभियान का मकसद ये सुनिश्चित करना है कि अफ्रीका को मौजूदा और आगामी अंतरराष्ट्रीय जलवायु संबंधित आर्थिक मदद आसानी से हासिल होती रहे. सेक्टर से जुड़े साझेदारों का कहना है कि उचित वित्तीय सहायता और प्रस्तावों की ड्राफ्टिंग और प्रस्तुति में अनुभव के साथ अफ्रीकी महाद्वीप उत्सर्जन में कमी और जलवायु-अनुकूल भविष्य के रास्ते पर आगे बढ़ सकेगा. (dw.com)
रूस का दावा है कि उसने यूक्रेन में हाइपरसोनिक मिसाइलों का इस्तेमाल किया है. पारंपरिक बैलिस्टिक मिसाइलों के मुकाबले अत्यधिक तीव्र रफ्तार वाली ये मिसाइलें लंबे समय तक रडार की पकड़ में नहीं आती हैं
डॉयचे वैले पर कार्ला ब्लाइकर की रिपोर्ट-
यूक्रेन-रूस युद्ध को करीब एक महीना हो चला है, इस बीच पिछले शुक्रवार को हुआ रूसी हमला, पहले से काफी अलग था. रोमानिया से लगती यूक्रेन की सीमा से से 100 किलोमीटर दूर डेलियाटिन नाम के एक छोटे से गांव में हथियार और गोलाबारूद के भूमिगत डिपो को निशाना बनाया गया था.
हमले में ठिकाना नेस्तनाबूद हो गया. लेकिन बात इतनी सी नहीं थी, बात ये भी थी कि रूस ने इस लड़ाई में पहली दफा हाइपरसोनिक मिसाइल छोड़ी थी.
रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने, 2018 में हाइपरसोनिक मिसाइलों के जखीरे का उद्घाटन करते हुए इन्हें, "अपराजेय” कहा था.
प्रचार के मकसद से उन्होंने शायद तारीफ बढ़ा चढ़ा कर कर दी हो लेकिन उसमें कुछ सच्चाई भी थी. हाइपरसोनिक मिसाइले कई लिहाज से पारंपरिक बैलिस्टिक मिसाइलों से अलग होती हैं क्योंकि वे मिसाइल रक्षा प्रणालियों की पकड़ में नहीं आ पाती हैं. वे बहुत तेज रफ्तार होती हैं और बहुत कम ऊंचाई से भी मार कर सकती हैं.
कितनी तेज होती हैं हाइपरसोनिक मिसाइलें?
हाइपरसोनिक मिसाइलें ध्वनि की रफ्तार से पांच से दस गुना ज्यादा तेज गति से उड़ान भरती हैं. उस गति को कहा जाता है माक 5 और माक 10. ध्वनि की कोई एक निर्धारित गति नहीं होती क्योंकि वो वेरिअबल्स यानी परीवर्तनीय चीजों पर निर्भर करती है, खासकर माध्यम पर और उस माध्यम के तापमान पर- जिसके जरिए कोई वस्तु या ध्वनितरंग गुजरती है.
हालांकि एक तुलना के रूप में देखें, तो कॉनकोर्ड का विमान ध्वनि की दोगुना गति से उड़ान भरता था. वो एक सुपरसोनिक विमान था जिसकी अधिकतम रफ्तार 2180 किलोमीटर प्रति घंटा थी याना माक 2.04. इस लिहाज से हाइपरसोनिक उड़ानें उसके मुकाबले कम से कम तीन गुना रफ्तार वाली होती हैं.
डेलियाटिन गांव के हथियार डिपो पर गिराई गई रूस की हाइपरसोनिक मिसाइल का नाम है किन्जाल यानी खंजर. उसकी लंबाई आठ मीटर है.
कुछ जानकारों का कहना है कि इस किस्म की मिसाइल 6,000 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ती है यानी उसकी गति करीब माक 5 की होगी. जबकि कुछ जानकारों के मुताबिक वो माक 9 या माक 10 की गति से भी मार कर सकती है.
हर लिहाज से उसकी गति बहुत तेज है. अमेरिकी वेबसाइट मिलेट्री डॉट कॉम के मुताबिक इस हथियार की स्पीड इतनी तेज है कि उसके सामने वायु दबाव, एक प्लाज्मा बादल निर्मित कर देता है, जो रेडियो तरंगों को सोख लेता है.
इसी के चलते किन्जाल यानी खंजर मिसाइल और दूसरे हाइपरसोनिक हथियार रडार प्रणालियों की पकड़ में नहीं आ पाते हैं. उनकी इस खूबी को और मजबूत बना देती है उनकी नीची उड़ान.
कम ऊंचाई
हाइपरसोनिक मिसाइलें पारंपरिक बैलेस्टिक मिसाइलों के मुकाबले कम ऊंचाई में उड़ती हैं.
वे एक निम्न वायुमंडलीय-मुक्त प्रक्षेप पथ में उड़ान भरती हैं. इसका मतलब ये है कि जब तक रडार आधारित मिसालइल रक्षा प्रणाली उन्हें चिन्हित कर पाती है तब तक वे अपने लक्ष्य के इतना करीब पहुंच चुकी होती हैं कि कई मामलों में तो उन्हें भेद पाने के लिए बहुत देर हो चुकी होती है.
रही-सही कसर, हाइपरसोनिक मिसाइलों की, बीच रास्ते में उड़ान की दिशा बदलने की खासियत से पूरी हो जाती है.
उनकी रेंज क्या है?
यूक्रेन में इस्तेमाल की गई रूसी हाइपरसोनिक मिसाइल को हवा से दागा गया था. बहुत संभव है किसी मिग-31 लड़ाकू विमान से.
हाइपरसोनिक हथियार जहाजों और पनडुब्बियों से भी छोड़े जा सकते हैं. वे अपने साथ परमाणु विस्फोटक भी ले जा सकते हैं.
किन्जाल मिसाइल 2000 किलोमीटर दूर से मार कर सकती है. दूसरी हाइपरसोनिक मिसाइलें करीब 1000 किलोमीटर दूर जा सकती हैं.
अगर हाइपरसोनिक मिसाइलें रूसी प्रांत कालिनिनग्राद में तैनात की जातीं तो यूरोप के बहुत से शहर उनकी जद में आ जाते. कालिनिनग्राद रूसी मुख्य भूमि से दूर और पोलैंड, लिथुआनिया और बाल्टिक सागर के पास है. वहां से जर्मन राजधानी बर्लिन महज 600 किलोमीटर दूर है.
लेकिन कुछ विश्लेषकों का कहना है कि यूक्रेन के डेलियाटिन गांव में हुआ हमला एक अलग घटना थी और हाइपरसोनिक मिसाइलों के तमाम फायदों के बावजूद रूस अंधाधुंध तरीके से अपने "अपराजेय” हथियारों का इस्तेमाल करने से परहेज करेगा. (dw.com)
यूरोप को ऊर्जा की आपूर्ति की बात हो तो स्पेन की बड़ी महत्वाकांक्षाएं हैं. स्पेन, अफ्रीका और यूरोप के बीच हाइड्रोजन की ढुलाई की धुरी बन सकता है. हालांकि पहले उसे पाइरेनीज पर्वतों में एक पाइपलाइन में फ्रांस की मदद चाहिए.
डॉयचे वैले पर स्टेफानी मुलर की रिपोर्ट-
यूक्रेन पर व्लादिमीर पुतिन के हमले से नॉर्ड स्ट्रीम 2 यानी रूस और जर्मनी के बीच गैस पाइपलाइन परियोजना को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल देने से यूरोप की ऊर्जा सुरक्षा खतरे में है.
हालांकि युद्ध के अलावा कुछ दूसरी राजनीतिक स्थितियों ने भी कई मायनों में स्पेन के लिए चीजों को बदल रखा है. मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के साथ इसके लंबे आर्थिक संबंध और इन जगहों पर चल रहे कई सौर और पवन ऊर्जा पार्क अचानक ध्यान आकर्षित करने लगे हैं. स्पेन में छह लिक्विफाइड नेचुरल गैस (LNG) टर्मिनल हैं और सातवां बन रहा है. इसके अलावा, यह नाइजीरिया और कच्चे माल के दूसरे सप्लायरों के साथ संबंधों को मजबूत करना चाहता है.
इबेरियन प्रायद्वीप का यह सबसे बड़ा देश अक्षय स्रोतों से अपनी सकल ऊर्जा खपत का 21 फीसदी से ज्यादा उत्पन्न करता है और इसलिए मौजूदा स्थिति में भी उसे आपूर्ति की कोई समस्या नहीं है. तमाम चीजों को मिलाकर, कई लोग स्पेन को भविष्य में यूरोप में ऊर्जा की आपूर्ति के लिए एक महाशक्ति बनने के लिए एक बड़े अवसर के रूप में देखते हैं.
मिडकैट को पुनर्जीवित करना ?
स्पेन पर्यटन पर बहुत ज्यादा निर्भर है. इसलिए कोविड महामारी की वजह से लॉकडाउन और यात्रा प्रतिबंधों के दौरान इसे खासा नुकसान हुआ है. अब स्पेन अपनी अर्थव्यवस्था के हरित रूपांतरण के लिए यूरोपीय संघ के नेक्स्ट जेनरेशन फंड से 154 अरब डॉलर का उपयोग करना चाहता है. इसमें ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन भी शामिल है.
यूरोपीय आयोग की प्रमुख उर्सुला वॉन डेर लेयन कई बार स्पेन की राजधानी मैड्रिड जा चुकी हैं और इस बात से वो भी सहमत हैं. वह मिडकैट पाइपलाइन परियोजना को पुनर्जीवित करने में भी दिलचस्पी रखती हैं जो स्पेन और फ्रांस के बीच एक गैस लिंक है. स्पेन के इलाके में 80 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन के निर्माण के बाद साल 2019 में यह निर्माण कार्य बंद हो गया था. यदि यह पूरा हो जाता है तो पाइपलाइन में 7.5 अरब क्यूबिक मीटर गैस की क्षमता होगी और यह एक बड़े कार्यक्रम की शुरुआत हो सकती है. नॉर्ड स्ट्रीम 1 से तुलना करें, तो यह परियोजना एक साल में 55 अरब क्यूबिक मीटर गैस को संभाल सकती है.
मौजूदा समय में सिर्फ दो छोटी पाइपलाइनें हैं जो नावरा और बास्क देश से फ्रांस तक गैस लेकर आती हैं. स्पेन की पर्यावरण मंत्री टेरेसा रिबेरा ने हाल ही में फ्रांस की इसलिए आलोचना की है क्योंकि वह मिडकैट परियोजना को पुनर्जीवित करने में भाग नहीं लेना चाहता है.
उत्तरी अमेरिकी मामलों की विशेषज्ञ इग्नासियो केंब्रेरो कहती हैं, "यह मुख्य रूप से वित्तपोषण के बारे में है. हालांकि, नॉर्ड स्ट्रीम2 की विफलता ने इस मामले को फिर से प्रासंगिक बना दिया है.”
घरेलू ऊर्जा की कीमतों को कम करना होगा
स्पेन के प्रधान मंत्री पेड्रो सांचेज को पहले अपने देश में ऊर्जा की कीमतों को अल्पावधि में नीचे लाना होगा. COVID-19 महामारी, बर्फबारी जैसी आपदाओं, मुद्रास्फीति और अब अत्यधिक सूखे से त्रस्त देश में ज्यादातर लोग परेशान हैं.
स्पेन में बिजली पर मूल्य वर्धित कर पहले ही कम किया जा चुका है लेकिन सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं है. तेजी से बढ़ रही गैस की कीमतों का सामना करते हुए, सांचेज यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि पनबिजली, सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे ऊर्जा के हरित स्रोत ज्यादा लोकप्रिय बनाए जाएं. अपनी योजना को आगे बढ़ाने के लिए सांचेज ने अब यूरोपीय सद्भावना यात्रा शुरू की है.
वे चाहते हैं कि इस बारे में यूरोपीय संघ में आम सहमति बने. कुछ पर्यवेक्षक इसे स्पेन के लिए आर्थिक और राजनीतिक मौके के रूप में देखते हैं. हालांकि कई लोग इसके खिलाफ भी हैं और ऊर्जा आपूर्तिकर्ता बनने के उसके लक्ष्य को भ्रामक समझते हैं.
स्पेन में ऊर्जा के आंकड़ों से संबंधित एक पत्रिका के मुख्य संपादक लुई मेरिनो कहती हैं, "यह स्पष्ट है कि अपने कई पवन और सौर ऊर्जा पार्कों की वजह से हम साल 2025 तक पचास यूरो प्रति मेगावाट की दर से बिजली हासिल कर सकते हैं जबकि इतनी ही बिजली के लिए जर्मनी और फ्रांस के लोगों को साठ से सत्तर यूरो का भुगतान करना पड़ेगा. निश्चित तौर पर यह स्पेन को ऊर्जा निर्यातक के रूप में और अधिक आकर्षक बना देगा.”
रणनीति बदलने में समय लगेगा
ऊर्जा के परिवहन के मामले में स्पेन को पहले से ही काफी अनुभव है. जनवरी 2022 में स्पेन ने फ्रांस को आयात की तुलना में बिजली का निर्यात ज्यादा किया.
वेलेंसिया के यूरोपीय विश्वविद्यालय में ऊर्जा मामलों के जानकार रॉबर्टो गोम्ज कालवेट कहते हैं, "कम जनसंख्या घनत्व के कारण हमारे पास ज्यादा संख्या में हाइड्रोलिक सिस्टम बनाने और भू-तापीय ऊर्जा जैसे स्रोतों में निवेश करने के काफी अवसर हैं. लेकिन मौजूदा सरकार की जो रणनीति है, वह सही तो है, लेकिन उसके पूरा होने में अभी कई साल लगेंगे.”
उनका मानना है कि कुछ साल पहले कोयले को पीछे छोड़ना मौजूदा स्थिति को देखते हुए एक गलती थी. स्पेन में पांच परमाणु ऊर्जा संयंत्र चल रहे हैं और आने वाले वर्षों में इन्हें ग्रिड से हटा दिया जाएगा. काल्वेट कहते हैं कि अब यह बीतों दिनों की चीजें हो चुकी हैं और खासकर तब यह और जरूरी हो जाता है जबकि स्पेन वास्तव में एक बड़ा ऊर्जा निर्यातक बनना चाहता है.
मयोर्का का हरित हाइड्रोजन कारखाना
ऊर्जा विशेषज्ञ कहते हैं कि ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन बहुत महंगा है और बहुत ज्यादा उपयोगी भी नहीं है.
काल्वेट कहते हैं, "लेकिन तेल और गैस की जगह लेने के लिए फिलहाल हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है. यही कारण है कि मयोर्का में पहली हरित हाइड्रोजन फैक्ट्री अभी-अभी शुरू हुई है और यह उद्योग के लिए गिनी पिग साबित होगा. फिलहाल, यह अभी भी एक तरह की प्रयोगशाला है.”
स्पेनिश गैस कंपनी एनागास के एक पूर्व प्रबंधक रॉबर्टो सेंटेनो कहते हैं कि स्पेन को एक प्रमुख ऊर्जा उत्पादक के रूप में बदलने के सांचेज के सपने को साकार करने के लिए बड़े पैमाने पर अमेरिका से गैस का आयात करना होगा. वो कहते हैं, "पहले हम फ्रांस से जुड़ना चाहते थे लेकिन रूसी गैस को स्पेन में लाने के लिए हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है.”
स्पेन में इस समय यूरोपीय संघ के कुल तरल गैस भंडार का 35 फीसदी हिस्सा है. पुर्तगाल के पास एक तरल प्राकृतिक गैस टर्मिनल भी है और वो सांचेज के सपने का समर्थन करता है और अपने देश के लिए वैकल्पिक ऊर्जा में और अधिक निवेश करने का अवसर देता है.
केम्ब्रेरो इस मामले में वर्तमान भू-राजनीतिक स्थिति में ना सिर्फ लाभ देखती हैं बल्कि कहती हैं कि समस्याएं वास्तव में आस-पास हैं. उनके मुताबिक, "अल्जीरिया से मोरक्को के लिए गैस कनेक्शन को राजनीतिक विवादों के चलते रोक दिया गया था. इसका इस्तेमाल स्पेन अपनी गैस आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करता था. अल्जीरिया के साथ ऊर्जा संबंधों को फिर से शुरू करके, मोरक्को और स्पेन अफ्रीका में इस्लामी आतंकवादियों के समर्थन और पश्चिमी सहारा जैसी स्थिति पैदा करने की गलती कर रहे हैं.” (dw.com)
चीन के विदेश मंत्री वांग यी गुरुवार की सुबह अपनी विदेश यात्रा पर काबुल पहुंचे. यहां उन्होंने तालिबान के वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की.
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता अपने हाथों में लेने के बाद वांग यी पहली बार वहां का दौरा कर रहे थे.
तालिबान के सत्ता में आने के बाद से अब तक, चीन की ओर से काबुल पहुंचने वाले वे चीन सरकार के सर्वोच्च अधिकारी हैं.
तालिबान के विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्ताकी ने काबुल एयरपोर्ट पर उनका स्वागत किया. विदेश मंत्रालय में बैठक के बाद, वांग यी ने तालिबान के पहले उप प्रधानमंत्री अब्दुल ग़नी बरादर और तालिबान के गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी से भी मुलाक़ात की.
गुरुवार की शाम को ही, रूसी राष्ट्रपति के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव भी काबुल पहुंचे. उन्होंने तालिबान के पहले उप प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विदेश मंत्री सहित तालिबान नेतृत्व के अधिकारियों के साथ बात की.
किन मुद्दों पर हुई बातचीत?
रूसी प्रतिनिधिमंडल में रक्षा, गृह, अर्थव्यवस्था, उद्योग और ऊर्जा मंत्रालयों के प्रतिनिधि भी शामिल थे और कहा जा रहा है कि दोनों पक्षों के बीच राजनीतिक, आर्थिक, एक दूसरे के यहां आने जाने और क्षेत्रीय कनेक्टिविटी के मुद्दों पर चर्चा हुई.
यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के शुरुआती दिनों में, तालिबान के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि उनकी विदेश नीति "तटस्थ" है और उन्होंने इस मामले के हल के लिए दोनों पक्षों से बातचीत का आह्वान किया था.
तालिबान के विदेश मंत्री के रूस स्थित दूत ने इस दौरान मध्य पूर्व और दुनिया में संतुलित नीति अपनाने के लिए संयुक्त अरब अमीरात की प्रशंसा की थी.
तालिबान प्रशासन के गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी ने रूसी दूत से कहा कि तालिबान अपनी सभी प्रतिबद्धताओं पर कायम है और अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल किसी देश पर हमले के लिए नहीं किया जाएगा. उन्होंने रूसी प्रतिनिधिमंडल से तालिबान सरकार को मान्यता देने का आह्वान किया.
वैसे सरकार में आने से पहले सिराजुद्दीन हक्कानी खुद अमेरिकी फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन यानी एफ़बीआई के वांछितों में शामिल थे. रूसी प्रतिनिधिमंडल ने तालिबान के विदेश मंत्री और प्रथम उप प्रधानमंत्री के साथ विदेश मंत्रालय में अलग-अलग बैठकें की हैं. यह दल पूर्व अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करजई से उनके आवास पर भी जाकर मिला.
चीन किस बात से चिंतित है?
वहीं चीन के विदेश मंत्री वांग यी तालिबान नेतृत्व से मुलाकात के काबुल पहुंचने वाले तीसरे विदेश मंत्री हैं. उनसे पहले पाकिस्तान और क़तर के विदेश मंत्री काबुल का दौरा कर चुके हैं.
चीन के विदेश मंत्री इस्लामाबाद में इस्लामिक सहयोग संगठन की उद्घाटन बैठक में भाग लेने और प्रधान मंत्री इमरान ख़ान और पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल बाजवा के साथ बातचीत करने के बाद काबुल पहुंचे थे.
उनकी इस यात्रा के दौरान अफ़ग़ानिस्तान सबसे अहम मुद्दा रहा. काबुल के बाद वांग यी गुरुवार की शाम काबुल से दिल्ली के लिए रवाना हो गए.
चीन और तालिबान के विदेश मंत्रियों ने दोनों देशों के बीच राजनीतिक, आर्थिक और एक दूसरे के साथ आवागमन के मुद्दों, हवाई कॉरिडोर, चीन को सूखे फल निर्यात, छात्रवृत्ति और चीनी निवेशकों के लिए वीजा जैसे मुद्दों पर चर्चा की.
यह यात्रा चीन में एक सप्ताह बाद चीन में प्रस्तावित बैठक से ठीक पहले हुई है. चीन की मेजबानी वाली बैठक में तालिबान के विदेश मंत्री भी शामिल होंगे.
दरअसल, इन दिनों चीन, तालिबान के नियंत्रण वाले अफ़ग़ानिस्तान में वीगर मुस्लिम ईस्ट तुर्किस्तान मूवमेंट के सदस्यों की गतिविधियों को लेकर चिंतित है. हालांकि चीन ने इस दौरान तालिबान के साथ संबंधों को कायम रखा है. उल्लेखनीय है कि तालिबान के उप प्रधानमंत्री अब्दुल गनी बरादर ने तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण से पहले बीजिंग का दौरा किया था.
हाल के महीनों में, तालिबान ने चीनी निवेश का स्वागत किया है, हालांकि अफ़ग़ानिस्तान के अभूतपूर्व आर्थिक और मानवीय संकट के दौर में भी बीजिंग ने अब तक केवल सीमित वित्तीय और मानवीय सहायता प्रदान की है.
वांग ने अपनी इस यात्रा के दौरान तालिबान के पहले उप प्रधान मंत्री अब्दुल गनी बरादर से मुलाकात की, जो आर्थिक मामलों के प्रभारी भी हैं.
बताया जा रहा कि इस बैठक में अयनाक तांबा खनन परियोजना को फिर से शुरू करने और अन्य खानों में खनन करने और इसके लिए अफ़ग़ान कर्मियों को प्रशिक्षित करने में मदद पर बातचीत हुई है.
इससे पहले, तालिबान के खनन और पेट्रोलियम मंत्रालय ने लोगार स्थित विशाल अयनाक तांबे की खदान पर काम शुरू करने के लिए चीन की कंपनी के साथ बातचीत की घोषणा की थी.
पाकिस्तान के साथ तोरखम सीमा पार से देश के उत्तर में स्थित हेराटन के बंदरगाह तक एक रेलवे ट्रैक का निर्माण हो रहा है. अफ़ग़ानी मंत्रालय और चीन की कंपनी के बीच 400 मेगावॉट पावर का थर्मल पावर प्लांट, देश के अंदर अयनाक कॉपर रोड का निर्माण और कॉपर प्रोसेसिंग पर भी चर्चा हुई है.
इमरान ख़ान से हुई बातचीत
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के विस्तार पर चर्चा करने के लिए इस्लामाबाद में वांग यी से मुलाकात की.
पाकिस्तान यात्रा के बाद चीनी दूतावास द्वारा जारी एक बयान में विशेष रूप से अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर कहा गया है, "इमरान ख़ान ने चीन-अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान के आपसी सहयोग की अफ़ग़ानिस्तान की स्थिरता और क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने में भूमिका की प्रशंसा की है."
साथ ही पाकिस्तान चीन के साथ रोड बेल्ट सहयोग को आगे बढ़ाने और अफ़ग़ानिस्तान में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का विस्तार में सहयोग देने के लिए तैयार है.
इमरान खान तालिबान सरकार के साथ आर्थिक सहयोग के लिए चीन और रूस जैसी क्षेत्रीय शक्तियों की मदद मांग रहे हैं. वांग यी ने पाकिस्तान की सेना के प्रमुख क़मर जावेद बाजवा से भी अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर बात की.
उन्होंने इस्लामाबाद स्थित चीनी दूतावास में एक बयान में कहा, "अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे को दबाव या प्रतिबंधों के जरिए नहीं सुलझाया जाना चाहिए, बल्कि संवाद और संचार को बढ़ावा देकर सुलझाया जाना चाहिए."
चीन के विदेश मंत्री ने कहा कि, 'चीन और पाकिस्तान दोनों को, एक खुली और समावेशी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करने, उदार और विवेकपूर्ण घरेलू और विदेशी नीतियों को आगे बढ़ाने और आतंकवाद के सभी रूपों से लड़ने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान शासकों को प्रोत्साहित करना चाहिए.'
उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आर्थिक विकास के लिए सही रास्ता खोजने, लोगों के जीवन स्तर को सुधारने और आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में अफ़ग़ानिस्तान की मदद करनी चाहिए.
पूर्वी तुर्किस्तान आंदोलन की गतिविधियों को लेकर चीन चिंतित
बीजिंग प्रशासन ने इस दौरान तालिबान से विशेष रूप से पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट के साथ संबंधों से दूर होने की अपील की है. चीन शिनजियांग के पश्चिमी क्षेत्र में हमलों के लिए इसी समूह को ज़िम्मेदार ठहराता रहा है.
हाल ही में, चीनी राजदूत ने कहा कि, 'अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सैनिक बलों की वापसी ने सुरक्षा व्यवस्था को लेकर एक शून्य पैदा कर दिया है. इस शून्य ने आतंकवादी ताक़तों को अराजकता का लाभ उठाने का अवसर दिया है."
दो महीने पहले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विश्लेषण की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्वी चीन तुर्किस्तान इस्लामिक आंदोलन के क़रीब 200 से 700 सदस्य अफ़ग़ानिस्तान में रह रहे हैं.
तालिबान पर इस्लामाबाद में इस्लामिक सहयोग संगठन के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की एक बैठक में बोलते हुए वांग यी ने कहा कि चीन अफ़ग़ानिस्तान में समावेशी राजनीतिक व्यवस्था और उदारवादी सरकार की स्थापना और शांति और पुनर्निर्माण का नया अध्याय खोलने का समर्थन करता है. (bbc.com)
खाड़ी क्षेत्र के एक विवादास्पद गैस फ़ील्ड को डेवलप करने पर सऊदी अरब और कुवैत के बीच हुए समझौते को लेकर ईरान ने शनिवार को नाराज़गी जताई है. ईरान ने दोनों देशों के बीच हुए समझौते को अवैध करार दिया है.
ईरान इस गैस फ़ील्ड के दोहन पर अपना दावा जताता है.
कुवैत के आधिकारिक बयान के अनुसार, दोनों देशों के ऊर्जा मंत्रियों ने सोमवार को अरश गैस फ़ील्ड को विकसित करने को लेकर समझौते पर दस्तखत किए थे.
समाचार एजेंसी एएफ़पी की रिपोर्ट के अनुसार, यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद दुनिया भर में गैस की क़ीमतें जिस तरह से बढ़ रही हैं, उसे देखते हुए कुवैत और सऊदी अरब ने ये समझौता किया है.
ईरान के विदेश मंत्रालय ने शनिवार को इस समझौते को अवैध करार देते हुए बयान जारी किया. उसका कहना है कि कुवैत और सऊदी अरब के बीच हुआ समझौता अतीत में हुई बातचीत और निर्धारित प्रक्रियाओं का उल्लंघन है.
ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सईद ख़ातिबज़ादेह ने कहा, "ईरान अरश गैस फ़ील्ड के दोहन के अपने अधिकार को सुरक्षित रखता है. इस गैस फ़ील्ड को विकसित करने की दिशा में कोई भी कार्य तीनों देशों के बीच समन्वय स्थापित करके ही की जानी चाहिए." अरश गैस फ़ील्ड को लेकर साठ के दशक से ही विवाद रहा है. (bbc.com)
यूक्रेन पर जापान द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों से नाराज़ रूस ने कहा है कि वो दोनों देशों के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से विवादित रहे द्वीपों में सैन्य अभ्यास शुरू करेगा.
रूस ने ये एलान दोनों देशों के बीच चल रही शांति वार्ता से दूरी बनाने के कुछ दिन बाद किया है.
दोनों देशों के बीच चार द्वीपों को लेकर विवाद है. इन द्वीपों को रूस सदर्न कुरिल्स कहता है और जापान नॉर्दन टेरिटरीज़. दोनों के बीच ये विवाद करीब 70 साल पुराना है.
इस विवाद की वजह से ही रूस और जापान ने अभी तक द्वितीय विश्वयुद्ध को ख़त्म करने के लिए हुए एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं.
इस सप्ताह की शुरुआत में रूस ने कहा था कि वो जापान के साथ इस समझौते को लेकर चल रही वार्ता से अलग हो रहा है. रूस के अनुसार यूक्रेन पर रूस की कार्रवाई के बाद तोक्यो के कड़े रुख की वजह से ये निर्णय लिया गया है.
अब रूस की ईस्टर्न मिलिट्री डिस्ट्रिक्ट ने कहा है कि वो 3000 से अधिक सैनिकों और सैकड़ों सैन्य उपकरणों के साथ इन द्वीपों में सैन्याभ्यास करेगी.
इससे पहले शांति वार्ता से अलग होने और विवादित द्वीपों में संयुक्त आर्थिक परियोजनाओं को रोकने को लेकर जापान ने रूस की आलोचना की थी.
बर्लिन, 26 मार्च। दुनियाभर के 16 देशों की महिला विदेश मंत्रियों ने शुक्रवार को कहा कि वे अफगान लड़कियों को माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ने की अनुमति नहीं दिए जाने को लेकर ‘‘बहुत निराश हैं’’ और उन्होंने तालिबान से अपने इस फैसले को पलटने की अपील की।
दुनिया के 10 देशों के राजनयिकों ने भी संयुक्त राष्ट्र में इसी प्रकार का संदेश दिया।
उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान में तालिबानी शासकों ने बुधवार को अप्रत्याशित रूप से छठी से ऊपर की कक्षाओं को लड़कियों के लिए दोबारा खोलने से इनकार कर दिया था।
अल्बानिया, अंडोरा, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, बोस्निया, कनाडा, एस्टोनिया, जर्मनी, आइसलैंड, कोसोवो, मालावी, मंगोलिया, न्यूजीलैंड, स्वीडन, टोंगो और ब्रिटेन की विदेश मंत्रियों ने कहा, ‘‘महिला और विदेश मंत्री होने के नाते हम इस बात से निराश और चिंतित हैं कि इस वसंत से अफगानिस्तान में लड़कियों को माध्यमिक स्कूलों तक पहुंच देने से इनकार किया गया है।’’
विदेश मंत्रियों ने कहा कि यह फैसला, ‘‘खासतौर पर परेशान करने वाला है क्योंकि हम सभी बच्चों के लिए सभी स्कूल खोलने की प्रतिबद्धता के बारे में बार-बार सुन रहे थे।’’
उन्होंने कहा, ‘‘हम तालिबान से हाल में लिया गया फैसला पलटने और देश के सभी प्रांतों में हर स्तर पर शिक्षा में समान अवसर देने की अपील करते हैं।’’
न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में सुरक्षा परिषद ने इस मामले पर बंद कमरे में चर्चा की। इसके शुरू होने से पहले अल्बानिया, ब्रिटेन, ब्राजील, फ्रांस, गैबॉन, आयरलैंड, मैक्सिको, नॉर्वे, अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात के राजदूत तालिबान के फैसले का विरोध करने के लिए एक साथ खड़े हुए।
परिषद की वर्तमान अध्यक्ष एवं संयुक्त अरब अमीरात की राजदूत लाना नुसीबेह ने एक संयुक्त बयान को पढ़ते हुए कहा, ‘‘यह बहुत चिंतित करने वाला’’ कदम है। (एपी)
कीव, 26 मार्च। अमेरिका के एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी ने अनुमान जताया है कि यूक्रेन की राजधानी कीव पर रूसी सैन्य हमले रोक दिए गए हैं और रूस देश के अन्य हिस्सों में हमला करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।
अधिकारी ने अपनी पहचान गोपनीय रखने की शर्त पर शुक्रवार को बताया कि ऐसा प्रतीत होता है कि रूस कम से कम फिलहाल के लिए कीव पर कब्जा करने के लक्ष्य के बजाय यूक्रेन के पूर्वी डोनबास क्षेत्र में कब्जा करने पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रहा है।
क्रेमलिन भी शुक्रवार को योजना में आए बदलाव की पुष्टि करता नजर आया। रूसी जनरल स्टाफ के उप प्रमुख कर्नल जनरल सर्गेई रुडस्कोई ने कहा कि अभियान के पहले चरण का मुख्य लक्ष्य यानी यूक्रेन की लड़ने की क्षमता को कम करने का लक्ष्य ‘‘मुख्यतय: पूरा कर लिया गया है’’, जिसके बाद रूसी बल ‘‘मुख्य लक्ष्य, डोनबास की आजादी’’ पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
डोनबास यूक्रेन का पूर्वी औद्योगिक शहर है, जहां बड़ी संख्या में रूसी बोलने वाले लोग रहते हैं। डोनबास में 2014 के बाद से रूस समर्थित अलगाववादी यूक्रेनी बलों से लड़ रहे हैं। (एपी)
कीव, 26 मार्च। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने रूस से युद्ध को समाप्त करने के लिए फिर से बातचीत करने की अपील की है, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि यूक्रेन शांति के लिए अपने किसी भी क्षेत्र को छोड़ने के लिए सहमत नहीं होगा।
जेलेंस्की राष्ट्र के नाम शुक्रवार रात अपने वीडियो संबोधन में रूसी जनरल स्टाफ के उप प्रमुख कर्नल जनरल सर्गेई रुडस्कोई को जवाब देते हुए दिखाई दिए। रुडस्कोई ने कहा था कि रूसी सेना अब ‘‘मुख्य लक्ष्य, डोनबास की मुक्ति’’ पर ध्यान केंद्रित करेगी। रूस समर्थित अलगाववादियों का 2014 से पूर्वी यूक्रेन के डोनबास क्षेत्र के हिस्से पर नियंत्रण है और रूसी सेना यूक्रेन से और अधिक क्षेत्र को नियंत्रण में करने के लिए जूझ रही है, जिसमें मारियुपोल शहर भी शामिल है।
जेलेंस्की ने उल्लेख किया कि रूसी सेना ने हजारों सैनिकों को खो दिया है लेकिन अब भी वह कीव या खारकीव पर कब्जा करने में सक्षम नहीं है। (एपी)
-फ़्रैंक गार्डनर
यूक्रेन पर रूस के हमले के एक महीने पूरे हो चुके हैं. अब तक की इस लड़ाई में यूक्रेन ने कई बाधाओं को पार किया है.
टैंक, सेना, एयरक्राफ़्ट समेत बाकी हर आंकड़े में रूस से कहीं पीछे होने के बावजूद यूक्रेन के आम नागरिकों ने सेना को मज़बूती दी. कई जगहों पर उन्होंने रूसी सैनिकों से टक्कर भी ली.
रूस-यूक्रेन युद्ध में डीपफ़ेक राष्ट्रपति का भी हो रहा है इस्तेमाल
यूक्रेन से जंग में क्या रूस की सेना ने ग़लतियां की हैं?
यूक्रेन ने कई हिस्से गवाएं हैं, ख़ासकर क्राइमिया के आसपास वाला क्षेत्र. क्राइमिया पर रूस ने साल 2014 में ही क़ब्ज़ा कर लिया था.
मौजूदा हमले में रूस का असली मक़सद था यूक्रेन की राजधानी कीएव समेत दूसरे बड़े शहरों पर जल्द से जल्द क़ब्ज़ा और सरकार का इस्तीफ़ा लेकिन इस मक़सद में रूस साफ़तौर पर नाकाम रहा है.
अभी भी पासा यूक्रेन के ख़िलाफ़ पलट सकता है. यूक्रेन की सेना एंटी-टैंक, एंटी एयरक्राफ़्ट मिसाइल जैसे हथियारों की कमी से जूझ रही है, जो लगातार बढ़ती आ रही रूस की सेना को रोकने के लिए ज़रूरी हैं.
यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में सैनिकों के घिरने और मार दिए जाने का ख़तरा है. साथ ही देश की एक चौथाई आबादी अपने घरों को छोड़कर जा चुकी है, जो लोग बचे हैं वो अपने शहर को रूसी हथियारों और बमबारी की वजह से बंजर में तब्दील होता देख रहे हैं.
इन सब फ़ैक्टर्स के बाद भी युद्ध में यूक्रेन की सेना कई स्तरों पर रूस की सेना से बेहतर प्रदर्शन कर रही है.
इसी हफ्ते पेंटागन के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने यूक्रेन की तारीफ़ करते हुए कहा था कि वो बहुत चालाकी, फ़ुर्ती और क्रिएटिव तरीक़े से अपने देश के अलग-अलग हिस्सों की सुरक्षा कर रहे हैं.
1. प्रेरणा से भरपूर
रूस और यूक्रेन इन दोनों ही देशों की सेनाओं के मनोबल में बड़ा अंतर है. यूक्रेन के लोग अपने देश के अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं, वो अपने देश को संप्रभु राष्ट्र के तौर पर देखते रहना चाहते हैं.
युद्ध शुरू होने से ठीक पहले पुतिन ने अपने भाषण में कहा था कि यूक्रेन मूल रूप से सिर्फ़ एक कृत्रिम रूसी निर्माण है.
यूक्रेन के लोग अपनी सरकार और राष्ट्रपति के साथ खड़े हैं. यही कारण है कि जिन आम नागरिकों के पास मिलिट्री का कोई अनुभव नहीं है वो भी हथियार उठाकर अपने शहर और कस्बों की सुरक्षा के लिए तैयार हैं. वो भी ऐसे वक़्त में जब उनका सामना रूस की तरफ़ से होने वाली भारी गोलीबारी से है.
शीत युद्ध के दौरान जर्मनी में बतौर ब्रिटिश आर्मी ऑफिसर 35 साल काम करने वाले ब्रिगेडियर टॉम फॉक्स कहते हैं, ''लोग अपने अस्तित्व के लिए इसी तरह लड़ते हैं. वो अपनी मातृभूमि और परिवार की रक्षा ऐसे ही करते हैं. उनका साहस, शानदार और चौंकाने वाला दोनों है.''
वहीं अगर रूस की बात करें तो इसके उलट ज़्यादातर रूसी सैनिक स्कूल से अभी-अभी पासआउट हुए युवा हैं. उन्हें लगा था कि वो सिर्फ़ एक अभ्यास पर जा रहे हैं अब वो ख़ुद को युद्ध क्षेत्र में पाकर भ्रमित हैं.
ज़्यादातर रूसी सैनिक इस तरह की लड़ाई के लिए तैयार नहीं थे या उनके पास बिलकुल थोड़ा अनुभव था. ऐसे में खाने की कमी, और लूटपाट जैसी ख़बरें सामने आ रही हैं.
2. आदेश और नियंत्रण
ऐसा अनुमान था कि रूसी साइबर अटैक की वजह से यूक्रेन के संचार तंत्र पूरी तरह से बर्बाद हो जाएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बजाय इसके, यूक्रेन ने युद्ध के मोर्चे पर प्रभावी समन्वय बनाए रखने में कामयाबी हासिल की है.
यूक्रेन की सरकार कीएव में सक्रिय दिख रही है और लगातार नज़रों में भी है.
वहीं रूस की सेना के पास किसी भी तरह का एकीकृत नेतृत्व नहीं है. अलग-अलग युद्ध के मोर्चे के बीच समन्वय की भी कमी है. इससे रूसी सैनिकों के मनोबल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने का अनुमान है.
ऐसा माना जा रहा है कि रूस के कम से कम पांच जनरल की मौत की वजह भी ये है कि वो सैनिकों को फंसने से बचाने के लिए युद्ध के मोर्चे के काफ़ी क़रीब पहुंच गए थे.
नॉन कमीशन्ड ऑफिसर (एनसीओ) जो होते हैं, जैसे कॉरपोरेल और सार्जेंट रैंक के सैनिक, वो रूस के नियमों के हिसाब से कोई पहल ख़ुद नहीं कर सकते हैं, सभी जूनियर रैंक के जवानों को ऊपर से आदेश का इंतज़ार करना होता है.
किंग्स कॉलेज लंदन के मिलिट्री एक्सपर्ट प्रोफ़ेसर माइकल क्लार्क कहते हैं कि रूसी एनसीओ भ्रष्टाचार और अक्षमता से घिरे हुए हैं.
3.युद्ध में सैनिकों और हथियारों का बेहतर इस्तेमाल
यूक्रेन के सैनिकों की संख्या रूस के सैनिकों के मुक़ाबले कहीं कम है लेकिन इसके बाद भी वो ज़मीन और अपने हथियारों का इस्तेमाल रूस से बेहतर कर रहे हैं.
एक तरफ़ रूस है जो कतारों में सैनिकों और सैन्य वाहनों को रखता है. धीमी गति से वो एक साथ आगे बढ़ते हैं तो दूसरी तरफ़ यूक्रेन के सैनिक छापामार तरीक़े का युद्ध कर रहे हैं.
वो 'हिट एंड रन' नीति अपना रहे हैं, वो चुपके से एंटी-टैंक मिसाइल को फ़ायर करते हैं और रूस की जवाबी कार्रवाई आने से पहले ही निकल जाते हैं.
इस लड़ाई से पहले अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा के नेटो ट्रेनर्स यूक्रेन में लंबा वक़्त गुज़ार चुके हैं. ऐसे में वो यूक्रेन के सैनिकों को रक्षात्मक युद्ध में तेज़ी लाने के बारे में और मिसाइल सिस्टम का बेहतर इस्तेमाल करने के बारे में निर्देश दे चुके हैं. जैसे जेवलीन और स्वीडिश डिज़ाइन NLAW एंटी टैंक हथियारों का इस्तेमाल कैसे करना है या एंट्री-एयरक्राफ़्ट मिसाइल का इस्तेमाल कैसे करना है.
प्रोफ़ेसर क्लार्क कहते हैं, ''यूक्रेनी सैनिक, रूसी सैनिकों की तुलना में ज़्यादा चालाक हैं.'' क्लार्क ये बताते हैं कि यूक्रेनी सैनिक ड्रोन, टैंक और दूसरे हथियारों समेत सभी सैन्य उपकरणों का पूरा इस्तेमाल कर चुके हैं जैसा कि हमला करने आए रूसी सैनिक अभी नहीं कर सके हैं.
अमरीका, रूस और चीन में ये हथियार बनाने की लगी है होड़
भविष्य की जंग की तस्वीर क्या होगी और इसके लिए दुनिया कितनी तैयार?
एक और सैन्य रणनीतिकार जस्टिन क्रंप कहते हैं कि यूक्रेनी सैनिक, रूसी सेना के कमज़ोर बिंदुओं को तलाशने में और उस पर कड़ी चोट देने में माहिर हैं.
वो कहते हैं, ''यूक्रेन ने अत्यधिक प्रभावी रणनीति का इस्तेमाल किया है.'' जिसमें रूस की कमज़ोर कड़ियों पर हमला करना शामिल है जैसे सप्लाई करने वाले काफ़िले पर हमला. इसके अलावा सटीक और अधिक प्रभावी टारगेट के लिए नेटो के हथियारों का भी यूक्रेन से बेहद अच्छी तरह इस्तेमाल किया है.
इस वक्त हताहतों के सटीक आंकड़े की जानकारी हासिल कर पाना मुश्किल है. पेंटागन के आंकड़ों के हिसाब से रूस के 7000 सैनिकों ने जान गंवाई है. ये संख्या सिर्फ़ एक महीने के युद्ध के बाद सामने आ रही है. अफ़ग़ानिस्तान में 10 साल की लड़ाई में सोवियत संघ के जितने लोग मारे गए थे ये संख्या उसकी आधा है.
इतने सारे रूसी जनरल फ्रंट लाइन पर कैसे मारे गए, इसको लेकर ब्रिगेडियर टॉम फॉक्स का तर्क है, ''ये मुझे जानबूझकर चलाया गया अत्यधिक सफल स्नाइपर कैंपेन की तरह लगता है, जिससे रूसी कमांड स्ट्रक्चर को धक्का लग सकता है.''
4. सूचना के मोर्चे पर 'युद्ध'
और आख़िर में बात सूचना के मोर्चे पर युद्ध की. यूक्रेन इस मोर्चे पर पूरी दुनिया में जीतता दिख रहा है. हालांकि, रूस में नहीं क्योंकि यहां पर ज़्यादातर मीडिया पर क्रेमलिन का ही नियंत्रण है.
जस्टिन क्रंप कहते हैं, ''यूक्रेन ने घरेलू और दुनिया के स्तर पर बढ़त हासिल करने के लिए सूचना के क्षेत्र का ज़बरदस्त इस्तेमाल किया है.''
किंग्स कॉलेज लंदन में पोस्ट-सोवियत स्टडीज़ की सीनियर लेक्चरर डॉक्टर रूथ डेयरमंड कहती हैं, ''यूक्रेनी सरकार ने साफ़तौर पर दुनियाभार में युद्ध के नैरेटिव पर सफलतापूर्वक नियंत्रण हासिल किया है. यूक्रेन की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के लिए इस संघर्ष ने जो किया है वो बेहद उल्लेखनीय है.''
लेकिन, मौजूदा वक़्त में एक महीने के जिंदगी और मौत का संघर्ष भी यूक्रेन को युद्ध से उबारने के लिए पर्याप्त नहीं है. बड़ी संख्या में रूसी सैनिकों की मौजूदगी, यूक्रेन के पक्ष में नहीं है. अगर किसी भी स्थिति में पश्चिम से मिलने वाले हथियारों की आपूर्ति रुक जाती है तो यूक्रेन ज़्यादा समय तक रूस के सामने टिक नहीं पाएगा. (bbc.com)
-अनंत प्रकाश
पाकिस्तान में सियासी हालात बेहद तेज़ी के साथ बदलते दिख रहे हैं. सरकार से लेकर विपक्षी दलों तक सभी अलग-अलग स्तर पर बैठकों में व्यस्त हैं.
जहां एक ओर इमरान ख़ान सरकार अविश्वास प्रस्ताव की चुनौती से पार पाने की कोशिश कर रही है. वहीं, दूसरी ओर विपक्षी दल इमरान ख़ान सरकार को सत्ता से बेदखल करने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं.
पाकिस्तान के विपक्षी दल पहले ही सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाने का एलान कर चुके हैं. यही नहीं, विपक्षी दल आने वाले दिनों में सड़क पर उतरने का भी एलान कर रहे हैं.
माना जा रहा है कि शुक्रवार को नेशनल असेंबली में सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जा सकता है.
अविश्वास प्रस्ताव कितनी बड़ी समस्या
इस प्रस्ताव को पेश कराने से लेकर उसे पारित कराने के बीच विपक्ष को एक लंबा सफ़र तय करना है क्योंकि 342 सांसदों वाली पाकिस्तानी संसद में अविश्वास प्रस्ताव पारित कराने के लिए विपक्ष को कम से कम 172 सांसदों के समर्थन की ज़रूरत होगी. फ़िलहाल पाकिस्तान के तमाम विपक्षी दलों के पास इतने सांसद नहीं हैं.
वहीं, इमरान सरकार के पास 155 सांसद हैं और सहयोगी दलों के साथ मिलकर कुल 176 सांसद हैं.
ऐसे में विपक्षी दल इमरान सरकार के घटक दलों को अपने साथ मिलाने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं, सरकार भी अपने सहयोगियों को अपने साथ जोड़े रखने की कोशिश कर रही है.
लेकिन घटक दलों की ओर से कुछ सासंदों द्वारा सरकार के ख़िलाफ़ बयानबाजी करने के बाद सरकार सकते में आ गई है.
सरकार के सामने संकट ये है कि अगर इन सांसदों ने, जिनकी संख्या कम से कम 12 बताई जा रही है, अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में वोट दे दिया तो सरकार ख़तरे में पड़ सकती है.
सरकार ने इसी समस्या के समाधान के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था. लेकिन सरकार को सुप्रीम कोर्ट के हाथों निराशा हाथ लगी है.
ऐसे में सवाल उठता है कि अब इमरान ख़ान सरकार के पास क्या विकल्प शेष हैं और आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं?
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने अविश्वास प्रस्ताव से पहले इस्तीफ़ा देने से इनकार करते हुए कहा है कि वह अपने पत्ते जल्द खोलेंगे.
जहां विपक्षी दल 26 मार्च को इस्लामाबाद पहुंचने की बात कर रहे हैं, वहीं इमरान ख़ान भी 27 मार्च को इस्लामाबाद में ही एक बड़ी रैली करने जा रहे हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार के लिए आने वाले दिन कितनी बड़ी चुनौती लेकर आ सकते हैं.
गुरुवार को पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट में मौजूद रहे बीबीसी उर्दू सेवा के संवाददाता शहज़ाद मलिक बताते हैं, "ये बात सही है कि सरकार के लिए आने वाले दिन आसान नहीं होंगे क्योंकि पाकिस्तान के तमाम विपक्षी दल एकजुट हैं, और ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि सरकार अविश्वास प्रस्ताव में मात खा सकती है."
बाग़ी सांसदों को वापस बुलाने की कोशिश
इमरान सरकार ने अपने ख़िलाफ़ बयानबाज़ी करने वाले सांसदों को कारण बताओ नोटिस जारी किया था. इस नोटिस में पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 63 (ए) का ज़िक्र था जो कि दलबदल से जुड़ा है.
सरकार इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी गई जहां उसने 63 (ए) को लेकर स्पष्टीकरण मांगा है कि क्या सरकार के ख़िलाफ़ मतदान करने पर इन सांसदों को आजीवन चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है.
इसे सरकार द्वारा बाग़ी सांसदों पर दबाव बनाने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है. लेकिन इस कोशिश में इमरान ख़ान सरकार को असफलता हाथ लगी है.
शहज़ाद बताते हैं, "पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले में कहा है कि जो अपराध हुआ ही नहीं है, उसके आधार पर हम कैसे किसी को अपराधी घोषित कर सकते हैं.''
इसके साथ ही अदालत ने कहा है कि अगर सांसदों को मतदान नहीं करने दिया गया तो ये उनके साथ अन्याय होगा. अदालत के मुताबिक़ सांसद वोट डाल भी सकते हैं और स्पीकर उनके मतों की गिनती करने के लिए बाध्य भी हैं.
लेकिन पाकिस्तान की सियासी सरगर्मियों पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हारून रशीद मानते हैं कि सरकार फ़िलहाल कुछ समय हासिल करने की कोशिश में लगी हुई है.
वह कहते हैं, "पाकिस्तान संसद की एक रवायत रही है कि जब किसी संसद सदस्य का निधन हो जाता है तो संसद की कार्यवाही शुरू होने पर उनके लिए दुआएं करने के बाद संसद स्थगित हो जाती है. लेकिन विपक्षी दल जैसे पीपल्स पार्टी आदि कह रहे हैं कि भले ही शुक्रवार को सत्र न चले, लेकिन इसके अगले दिन या जल्द ही स्पीकर को संसद का सत्र बुलाना चाहिए ताकि अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हो सके.
लेकिन सरकार की सूरते-ए-हाल देखें तो ऐसा लगता है कि सरकार चाहती है कि उसे अपने बचाव के लिए कुछ वक़्त मिल जाए. लेकिन विपक्ष ने एलान किया है कि कुछ लोगों का मार्च 26 मार्च को इस्लामाबाद के लिए बढ़ेगा. इस तरह विपक्षी दल भी सरकार पर दबाव डालना चाहते हैं कि जल्द से जल्द संसद का सत्र बुलाया जाए.
इमरान ख़ान 27 मार्च को इस्लामाबाद में एक बहुत बड़ा जलसा करने वाले हैं जिसके बारे में वह पाकिस्तान के लोगों से कह रहे हैं कि वे आएं और बताएं कि वे किसके साथ खड़े हैं. ऐसे में राजनीतिक खींचतान का दौर जारी है.
और इमरान ख़ान सरकार चाहती है कि इस मामले में मतदान रमज़ान के बाद हो लेकिन मुझे नहीं लगता कि अब विपक्ष सरकार को इतना लंबा समय देगा. उनकी कोशिश ये होगी कि अगर वे 26 तारीख़ से आकर इस्लामाबाद में बैठना शुरू हो जाएंगे तो ये जल्द से जल्द यानी रमज़ान से पहले ही निपट जाए तो बेहतर है."
ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तान में जिस भी पार्टी की हुक़ूमत हो, उसमें पाकिस्तानी सेना का दखल रहता है और पाकिस्तान के विपक्षी दल एक लंबे समय तक इमरान ख़ान को 'सेलेक्टेड पीएम' कहते रहे हैं.
लेकिन सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और सेना के बीच संबंध में दूरियां आ गई हैं क्योंकि इस मुद्दे पर अब तक सेना की ओर से इमरान ख़ान को राहत पहुंचाने वाला बयान नहीं आया है.
हारून रशीद कहते हैं, "पाकिस्तान के इतिहास से अलग इस बार पाकिस्तानी सेना ने इस मामले में एक तटस्थ रुख़ अख़्तियार किया हुआ है. अफ़वाहें जो भी उड़ रही हों लेकिन अब तक सेना ने खुलकर इस मामले में कुछ भी नहीं कहा है."
ऐसे में जानकारों का यही मानना है कि आनेवाला समय इमरान ख़ान के लिए आसान नहीं होगा. मौजूदा संकट से उबरने के लिए उन्हें काफ़ी सियासी मशक्कत करनी पड़ सकती है और और वो नहीं चाहेंगे कि उनकी सरकार किसी भी सूरत में गिर जाए. (bbc.com)
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने ब्रसेल्स में यूरोपीय परिषद के शिखर सम्मेलन को संबोधित किया.
अपने संबोधन में उन्होंने बताया कि रूस ने उनके देश में कितनी भारी तबाही मचाई है. साथ ही उन्होंने यूक्रेन के समर्थन में एकजुट होने के लिए यूरोपीय देशों का शुक्रिया अदा किया.
इसके बाद अपनी स्पष्टवादी शैली में ज़ेलेंस्की ने यूरोपीय नेताओं से कहा कि उन्होंने रूस को रोकने के लिए बहुत देर से काम शुरू किया.
उन्होंने कहा, ''आपने प्रतिबंध लगाया. हम उसके लिए आभारी हैं. ये शक्तिशाली क़दम है. लेकिन इसमें थोड़ी देर हो गई. पहले ऐसा करने का एक मौका था.‘’
उन्होंने कहा कि अगर प्रतिबंध पहले लग गए होते तो शायद रूस युद्ध शुरू नहीं करता.
उन्होंने नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन की ओर भी इशारा करते हुए कहा कि अगर इसे पहले ब्लॉक कर दिया गया होता, तो "रूस ने गैस का संकट पैदा नहीं किया होता"
ज़ेलेंस्की ने इसके बाद पड़ोसी देशों से यूक्रेन को यूरोपीय संघ में शामिल करने का अनुरोध किया.
उन्होंने कहा- ''मैं आपसे कहता हूं- देर मत कीजिए.‘’ (bbc.com)
चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने गुरुवार को काबुल का दौरा किया, अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद ये चीन के विदेश मंत्री का पहला दौरा था.
अफ़ग़ानिस्तान के स्थानीय न्यूज़ चैनल टोलो न्यूज़ के मुताबिक़ इस दौरे का मुख्य मक़सद आर्थिक, राजनीतिक और निवेश के मुद्दों पर चर्चा करना था.
गुरुवार को एक रूसी प्रतिनिधिमंडल भी कई मुद्दों पर चर्चा करने के लिए काबुल पहुंचा.
चीनी विदेश मंत्री ने सबसे पहले उप प्रधानमंत्री, मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर और विदेश मामलों के कार्यवाहक मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताकी से मुलाक़ात की.
अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मामलों के प्रवक्ता अब्दुल क़हर बल्खी ने कहा,"दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने राजनीतिक, आर्थिक और पारगमन के मुद्दों, एयर कॉरिडोर, शैक्षणिक छात्रवृत्ति, वीज़ा जारी करने, खदानों के क्षेत्र में काम शुरू करने जैसे महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा की."
चीन के विदेश मंत्री वांग यी का काबुल दौरा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया के देश तालिबान सरकार को मान्यता देने से कतरा रहे हैं. ऐसे में गुरुवार को चीनी विदेश मंत्री का औचक दौरा अहम माना जा रहा है.
इससे पहले वांग यी पाकिस्तान में मौजूद थे जहां उन्होंने दो दिवसीय ओआईसी की बैठक में हिस्सा लिया. इसके बाद उन्हें भारत दौरे पर आना था. लेकिन वे इससे पहले अचानक काबुल पहुंच गए.
ओईआसी की बैठक में भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर को लेकर चीन के विदेश मंत्री ने टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा, ‘’कश्मीर के मुद्दे पर हम कई इस्लामी दोस्तों की आवाज़ सुन रहे हैं, चीन की भी इसे लेकर यही इच्छा है.‘’
इस बयान पर भारत ने कड़ा एतराज़ जताया है.
वांग यी इस वक़्त भारत के दौरे पर हैं. (bbc.com)
यूक्रेन-रूस युद्ध के बीच भारत सरकार ने वित्त मंत्रालय के नेतृत्व में कई मंत्रालयों का एक समूह गठित किया है. ये समूह रूस से व्यापार में आ रही चुनौतियों के समाधान को लेकर काम कर रहा है. इस बात की जानकारी विदेश मंत्री एस जयशंकर ने संसद में दी. अंग्रेज़ी अख़बारद हिंदूने इस ख़बर को प्रमुखता से जगह दी है.
विदेश मंत्री के बयान से ये संकेत मिलता है कि 40 से अधिक देशों का प्रतिबंध झेल रहे रूस के साथ भारत के व्यापार संबंधों को बनाए रखने के लिए सरकार की तरफ़ से बड़े कदम उठाए जा रहे हैं.
दरअसल, राज्यसभा में रूस और यूक्रेन पर भारत के रुख़ को लेकर कई सवाल पूछे गए. इनमें से कुछ में संयुक्त राष्ट्र में भारत के मतदान से परहेज़ करने, साथ ही व्यापार और अमेरिका के साथ संबंधों पर भारतीय नीति को लेकर चिंता जताई गई. जवाब में एस जयशंकर ने कहा कि भारत का रुख़ दृढ़ और स्पष्ट रहा है और ये शांति के पक्ष में है. उन्होंने कहा कि विदेश नीति के फ़ैसले हमेशा ''राष्ट्रीय हित'' में लिए जाते हैं. उन्होंने ये भी कहा कि यूक्रेन की स्थिति को व्यापार से जोड़ने का सवाल नहीं उठता.
एक सवाल के जवाब में विदेश मंत्री ने कहा कि भारत, रूस से बहुत कम कच्चा तेल आयात करता है जो एक फ़ीसदी से भी कम है और कई देश भारत से 20 गुना ज़्यादा तेल रूस से आयात करते है. उन्होंने कहा कि भारत रूस-यूक्रेन को ध्यान में रखते हुए भुगतान समेत कई पहलुओं पर गौर कर रहा है और इसके लिए कई मंत्रालयों को मिलाकर एक समूह का गठन भी किया गया है. (bbc.com)
क़तर में आयोजित एक रक्षा प्रदर्शनी में ईरान के मिलिट्री अफ़सरों के भाग लेने के बाद अमेरिकी विदेश विभाग ने प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दी है.
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा, "क़तर में आयोजित दोहा डिफ़ेंस शो में ईरान के मिलिट्री अधिकारियों और इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स के अफ़सरों की मौजूदगी को लेकर हम काफ़ी निराश और परेशान हैं."
ईरान को खाड़ी क्षेत्र की सामुद्रिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते हुए नेड प्राइस ने कहा, "हम डिफ़ेंस शो में उनकी मौजूदगी और उनके नौसैनिक साज़ोसामान के प्रदर्शन को पूरी तरह से खारिज करते हैं.
ईरान ने दोहा डिफ़ेंस शो में अपने विमान, मिसाइल और दूसरे सैनिक साज़ोसामान देखने के लिए रखा है. इस प्रदर्शनी में दुनिया के कई देशों ने अपने नौसैनिक जहाजों को भी शामिल किया है.
समाचार एजेंसी एएफ़पी की रिपोर्ट के अनुसार, क़तर अमेरिका का क़रीबी सहयोगी है लेकिन जिस अल-उदेद एयरबेस पर ये डिफ़ेंस शो हो रहा है, वहीं पर अमेरिकी रक्षा मंत्रालय (पेंटागन) के सेंट्रल कमांड का क्षेत्रीय मुख्यालय है.
अमेरिका खाड़ी क्षेत्र में यूएस नेवी के जहाजों के आवागमन पर निगरानी रखता है.
अमेरिका ने ईरान की सेना के साथ किसी भी तरह के संबंध रखने पर कड़े प्रतिबंध लगा रखे हैं. ख़ासकर रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स को अमेरिका एक चरमपंथी संगठन करार देता है.(bbc.com)
पाकिस्तान में इमरान ख़ान हुकूमत के ख़िलाफ़ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर आज प्रस्तावित बहस अब नेशनल असेंबली की कार्यवाही स्थगित हो जाने के कारण सोमवार तक के लिए टल गई है.
सत्र के स्थगन पर पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने कहा कि यह एक संसदीय परंपरा है कि सदन के किसी सदस्य की मृत्यु की स्थिति में उनके लिए प्रार्थना के बाद अगली बैठक तक के लिए कार्यवाही स्थगित कर दी जाती है.
उन्होंने कहा कि नेशनल असेंबली का अगला सत्र अब सोमवार, 28 मार्च को होगा. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री इमरान खान के ख़िलाफ़ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर प्रक्रिया के मुताबिक़ कार्रवाई की जाएगी.
बीबीसी संवाददाता शहजाद मलिक के मुताबिक, शुक्रवार सुबह हुई बैठक में विपक्ष के 159 सदस्य मौजूद थे और उनमें से कुछ ने स्पीकर की घोषणा पर नाराजगी जताई.
असद कैसर द्वारा बैठक स्थगित करने के बाद, विपक्ष के नेता ने व्यवस्था के मुद्दे पर बोलने की कोशिश की, लेकिन अध्यक्ष ने इसे नजरअंदाज कर दिया. (bbc.com)
बीजिंग, 25 मार्च। चीन के तलाशी दल को एक दूसरा ब्लैक बॉक्स मिला है, जिसके बारे में माना जा रहा है कि यह दुर्घटनाग्रस्त हुए यात्री विमान का डेटा रिकॉर्डर है। चीन सरकार के आधिकारिक मीडिया ने शुक्रवार को यह जानकारी दी।
चाइना डेली की खबर के अनुसार दूसरे ब्लैक बॉक्स का पता लगा लिया गया है।
अधिकारियों ने बताया कि ‘कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर’ (सीवीआर) के रूप में बरामद किये गए पहले ब्लैक बॉक्स का बीजिंग स्थित प्रयोगशाला में विश्लेषण किया जा रहा है।
दूसरा ब्लैक बॉक्स विमान के पीछे के हिस्से में था और उसे ‘फ्लाइट डेटा रिकॉर्डर’ (एफडीआर) बताया जा रहा है। एफडीआर में विमान की गति, ऊंचाई और दिशा के अलावा पायलट द्वारा की गई कार्रवाई और महत्वपूर्ण प्रणालियों का प्रदर्शन दर्ज होता है। चाइना ईस्टर्न एयरलाइन्स की उड़ान संख्या एमयू5735, करीब 29,100 फुट की ऊंचाई से दो मिनट 15 सेकंड के भीतर 9,075 फुट की ऊंचाई पर आ गई थी और पर्वतीय इलाके में विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया थ, जिसके बाद से सीवीआर मिलने की प्रतीक्षा की जा रही थी।
चीन के नागर विमानन प्रशासन के विमान सुरक्षा कार्यालय के प्रमुख झू ताओ ने कहा कि वर्तमान में इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि सीवीआर की डेटा भंडारण इकाई नष्ट हो गई होगी। वुझु शहर के एक गांव में सोमवार को दुर्घटनाग्रस्त हुए बोईंग 737-800 विमान पर 132 यात्री सवार थे और इनमें से कोई भी जीवित नहीं बचा। (भाषा)
ल्वीव (यूक्रेन), 25 मार्च। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने यूक्रेन का साथ देने और रूस पर प्रतिबंध लगाने के लिए यूरोपीय संघ के नेताओं का शुक्रिया अदा किया।
इन प्रतिबंधों में, नई नॉर्ड स्ट्रीम-2 पाइपलाइन के माध्यम से रूस को यूरोप में प्राकृतिक गैस पहुंचाने से रोकने का जर्मनी का निर्णय भी शामिल है।
जेलेंस्की ने, हालांकि इन कदमों के पहले न उठाए जाने पर अफसोस जताया और कहा कि ऐसा करने पर रूस आक्रमण करने से पहले दो बार सोचता।
ब्रसेल्स में बृहस्पतिवार को यूरोपीय संघ (ईयू) की बैठक के दौरान जेलेंस्की ने कीव से वीडियो के जरिये उपस्थित नेताओं से यूक्रेन को संघ में शामिल करने के आवेदन पर तेजी से कार्रवाई करने की अपील भी की। उन्होंने कहा, ‘‘मैं, आपसे विलंब न करने का आवेदन करता हूं। हमारे लिए यही एक मौका है।’’
उन्होंने जर्मनी और विशेष रूप से हंगरी से यूक्रेन की इस कोशिश को अवरुद्ध न करने की भी अपील की।
जेलेंस्की ने हंगरी के राष्ट्रपति विक्टर ओरबान से कहा, ‘‘विक्टर, क्या आपको पता है मारियुपोल में क्या हो रहा है? मैं चाहता हूं कि आप फैसला करें कि आप किसके साथ हैं।’’
यूरोपीय संघ में शामिल देशों के नेताओं में से ओरबान को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का बेहद करीबी माना जाता है।
जेलेंस्की ने कहा कि यूक्रेन निश्चित रूस से एक ‘‘निर्णायक क्षण में है और जर्मनी भी जरूर हमारे साथ आएगा।’’ (एपी)
सियोल, 25 मार्च। उत्तर कोरिया ने अपने नेता किम जोंग-उन के आदेशानुसार अपनी सबसे बड़ी अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम) के परीक्षण की पुष्टि की है।
ऐसा माना जा रहा है कि अमेरिका के साथ ‘‘लंबे समय से टकराव’’ के मद्देनजर तैयारी करते हुए उत्तर कोरिया अपनी परमाणु क्षमता का विस्तार कर रहा है।
उत्तर कोरिया की सरकारी मीडिया की ओर से शुक्रवार को एक खबर में इस प्रक्षेपण की पुष्टि की गई। इससे एक दिन पहले, दक्षिण कोरिया तथा जापान ने कहा था कि 2017 के बाद से अपने पहले लंबी दूरी के परीक्षण में उत्तर कोरिया ने राजधानी प्योंगयांग के पास एक हवाई अड्डे से एक आईसीबीएम का प्रक्षेपण किया है।
उत्तर कोरिया की आधिकारिक ‘कोरियन सेंट्रल न्यूज एजेंसी’ (केसीएनए) ने बताया कि ह्वासोंग-17 (आईसीबीएम) 6,248 किलोमीटर (3,880 मील) की अधिकतम ऊंचाई पर पहुंची और उत्तर कोरिया तथा जापान के बीच समुद्र में गिरने से पहले उसने 67 मिनट में 1,090 किलोमीटर (680 मील) का सफर तय किया।
एजेंसी ने दावा किया कि परीक्षण ने वांछित तकनीकी उद्देश्यों को पूरा किया और यह साबित करता है कि आईसीबीएम प्रणाली को युद्ध की स्थिति में तुरंत इस्तेमाल किया जा सकता है।
दक्षिण कोरियाई और जापानी सेनाओं ने भी ऐसे ही प्रक्षेपण विवरण दिये थे। उसके बार में विशेषज्ञों का कहना है कि मिसाइल 15,000 किलोमीटर (9,320 मील) तक के लक्ष्य को निशाना बना सकती है, अगर उसे एक टन से कम वजन वाले ‘वारहेड’ (मुखास्त्र) के साथ सामान्य प्रक्षेप-पथ पर दागा जाए।
‘केसीएनए’ ने मिसाइल के प्रक्षेपण की कुछ तस्वीरें भी साझा कीं। तस्वीरों में देश के नेता किम जोंग-उन मुस्कराते हुए ताली बजाते नजर आ रहे हैं।
एजेंसी ने किम के हवाले से कहा कि उनका नया हथियार उत्तर कोरिया की परमाणु ताकतों के बारे में दुनिया को एक स्पष्ट संदेश देगा। उन्होंने (किम ने) अपनी सेना को एक विकट एवं तमाम तकनीक से लैस सेना बनाने का संकल्प किया, जो किसी भी सैन्य खतरे तथा धमकी से न डरे और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ लंबे समय से चले आ रहे टकराव का सामना करने के लिए खुद को पूरी तरह से तैयार कर ले।
दक्षिण कोरियाई सेना ने जल, थल और हवा से अपनी मिसाइल का परीक्षण कर उत्तर कोरिया के मिसाइल परीक्षण का जवाब दिया था।
दक्षिण कोरिया ने यह भी कहा है कि उत्तर कोरियाई मिसाइल परीक्षण केन्द्र और इसके कमान एवं सुविधा केन्द्र पर सटीक निशाना साधने की पूरी तैयारी है।
संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत लिंडा थॉमस ने अमेरिका में पत्रकारों से कहा कि इस प्रक्षेपण पर शुक्रवार को सुरक्षा परिषद में एक बैठक होने की उम्मीद है।
यह इस साल उत्तर कोरिया का 12वां प्रक्षेपण था। गत रविवार को उत्तर कोरिया ने समुद्र में संदिग्ध गोले दागे थे।
विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तर कोरिया अपने शस्त्रागार को आधुनिक बनाने के लिए तेजी से कार्रवाई कर रहा है और ठप पड़ी परमाणु निरस्त्रीकरण वार्ता के बीच अमेरिका पर रियायतें देने के लिए इसके जरिये दबाव डालना चाहता है।
उत्तर कोरिया, 2017 में तीन आईसीबीएम उड़ान परीक्षणों के साथ अमेरिका की सरजमीं तक पहुंचने की क्षमता का प्रदर्शन कर चुका है।
विशेषज्ञों का कहना है कि सबसे बड़ी मिसाइल ह्वासोंग-17 विकसित करने का मकसद, उत्तर कोरिया द्वारा मिसाइल रक्षा प्रणालियों को और आगे बढ़ाने के लिए उसे कई हथियारों से लैस करना भी हो सकता है। ह्वासोंग-17 मिसाइल के बारे में सबसे पहले अक्टूबर 2020 में दुनिया को पता चला था। (एपी)
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने दुनिया भर के लोगों से गुरुवार को यूक्रेन के लिए अपना समर्थन दिखाते हुए सड़कों पर उतरने की अपील की.
उन्होंने अपने नए वीडियो संबोधन में ये बात कही. युद्ध शुरू होने से लेकर अब तक ये पहली बार है जब उन्होंने अंग्रेजी में संबोधन किया.
उन्होंने कहा, ‘’रूस का युद्ध सिर्फ़ यूक्रेन के खिलाफ़ नहीं है, बल्कि हर जगह लोगों की आज़ादी के खिलाफ़ है, और दुनिया को रूस के बर्बर बल प्रयोग को रोकने की ज़रूरत है.
उन्होंने दुनिया भर के लोगों से अपील करते हुए कहा, ‘’अपने कार्यालयों, अपने घरों, अपने स्कूलों और विश्वविद्यालयों से बाहर आइए, शांति के नाम पर बाहर आइए, यूक्रेन का समर्थन करने के लिए, स्वतंत्रता का समर्थन करने के लिए, जीवन का समर्थन करने के लिए यूक्रेनी प्रतीकों के साथ सड़कों पर उतरिए."
ज़ेलेंस्की का संबोधन ब्रसेल्स में नेटो के शिखर सम्मेलन से कुछ घंटे पहले सामने आया है, जहाँ पश्चिमी देशों के बीच पूर्वी यूरोप के कुछ हिस्से की सुरक्षा को मज़बूत करने पर सहमति होने की उम्मीद है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन रूसी आक्रमण के एक महीने पूरे होने पर इस बैठक में भाग लेंगे. (bbc.com)
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने पूरे देश से अपील की है कि वे राजधानी इस्लामाबाद में रविवार में होने वाली सभा में शामिल हों और देश को ये संदेश दें कि वे ख़रीद फ़रोख़्त के ख़िलाफ़ हैं. गुरुवार को एक वीडियो संदेश में इमरान ख़ान ने कहा कि एक ख़ास ग्रुप पिछले 30 वर्षों से इस देश को लूट रहा है और अब ये लोग इस पैसे का इस्तेमाल खुले तौर पर जन प्रतिनिधियों के विवेक को ख़रीदने के लिए कर रहे हैं.
इमरान ख़ान ने क़ुरान का भी हवाला दिया और कहा कि अल्लाह का हुक़्म है क़ुरान में कि अच्छाई के साथ खड़े होना है और बुराई के ख़िलाफ़ खड़े होना है. उन्होंने कहा कि देश को सांसदों के विवेक को ख़रीदने वालों से स्पष्ट कर देना चाहिए कि वे इसके ख़िलाफ़ हैं और कोई भी ख़रीद फ़रोख़्त के माध्यम से देश के लोकतंत्र को नुक़सान नहीं पहुँचा सकता. बुधवार को भी इमरान ख़ान ये कह चुके हैं कि विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव नाकाम होगा. उन्होंने ये भी स्पष्ट किया है कि वे इस्तीफ़ा नहीं देंगे और सेना के साथ उनके अच्छे संबंध हैं.
पाकिस्तान की विपक्षी पार्टियों ने आठ मार्च को अविश्वसास प्रस्ताव पेश किया था. उन्होंने पीएम इमरान ख़ान पर कुप्रबंधन और अर्थव्यवस्था को ख़राब करने का आरोप लगाया था. पाकिस्तान की नेशनल असेंबली की बैठक 25 मार्च को होने वाली है. लेकिन इमरान ख़ान का कहना है कि वे किसी भी परिस्थिति में इस्तीफ़ा नहीं देंगे. इमरान ख़ान ने ये भी स्पष्ट किया कि उनके सेना के साथ अच्छे संबंध हैं. उन्होंने कहा कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति में सेना की ग़लत तरीक़े से आलोचना की गई. अविश्वास प्रस्ताव पास कराने के लिए 342 सदस्यीय नेशनल असेंबली में विपक्ष को 172 सांसदों के समर्थन की आवश्यकता है. लेकिन सत्ताधारी तहरीक़े इंसाफ़ पार्टी का आरोप है कि विपक्ष सांसदों को इमरान सरकार के ख़िलाफ़ वोट करने के लिए रिश्वत दे रहा है.
तालिबान ने अफगानिस्तान में लड़कियों के माध्यमिक स्कूलों को फिर से खोलने के कुछ ही घंटों बाद अचानक बंद करने का आदेश दे दिया. कट्टरपंथी इस्लामी समूह द्वारा नीति उलटने पर अब भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है.
समाचार एजेंसी एएफपी ने जब तालिबान के प्रवक्ता इनामुल्लाह समांगानी से इस बारे में पूछा कि क्या लड़कियों को स्कूलों से घर जाने का आदेश दिया गया है तो उन्होंने कहा, "हां, यह सच है." एएफपी की एक टीम जरघोना हाईस्कूल के पास वीडियो बना रही थी, तब एक शिक्षक ने सभी छात्राओं को घर जाने का आदेश दिया.
पिछले साल अगस्त में तालिबान द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के बाद पहली बार कक्षा में वापस आईं छात्राओं ने अपना बस्ता समेटा और आंसुओं के साथ घर की ओर लौट गईं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने नए तालिबान शासन की सहायता और मान्यता पर बातचीत में सभी के लिए शिक्षा के अधिकार को बातचीत के मुख्य बिंदु में रखा है.
तालिबान के प्रवक्ता समांगानी ने तत्काल स्कूलों को बंद करने का कारण नहीं बताया. इस बीच शिक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता अजीज अहमद रायन ने कहा, "हमें इस पर टिप्पणी करने की इजाजत नहीं है." काबुल में उमरा खान गर्ल्स स्कूल की टीचर पलवाशा ने कहा, "मैंने अपनी छात्राओं को रोते हुए और कक्षाएं छोड़ने के लिए अनिच्छुक देखा. लड़कियों को रोते हुए देखना बहुत ही दर्दनाक है."
संयुक्त राष्ट्र की दूत डेब्राह लियोन्स ने स्कूलों को बंद करने की रिपोर्ट को "परेशान" करने वाला बताया. उन्होंने ट्वीट किया, "अगर सच है, तो संभवतः क्या कारण हो सकता है?"
पिछले साल जब तालिबान ने सत्ता संभाली थी, तब कोविड-19 महामारी के कारण स्कूल बंद थे, लेकिन दो महीने बाद केवल लड़कों और छोटी लड़कियों की कक्षाएं फिर से शुरू करने की अनुमति दी थी.
तालिबान ने 1996 से 2001 से अफगानिस्ता पर राज किया था. उस दौरान देश में शरिया यानी इस्लामिक कानून लागू कर दिया गया था और महिलाओं के काम करने, लड़कियों के पढ़ने और बिना किसी पुरुष के अकेले घर से बाहर जाने जैसी पाबंदियां लगा दी गई थीं.
बुधवार को लड़कियों के माध्यमिक स्कूलों को फिर से शुरू करने का आदेश केवल मामूली रूप से देखा गया, देश के कुछ हिस्सों से ऐसी रिपोर्टें भी आईं कि कक्षाएं अगले महीने से शुरू होंगी, इसमें तालिबान के आध्यात्मिक गढ़ कंधार भी शामिल है.
शिक्षा मंत्रालय का कहना है कि कि स्कूलों को फिर से खोलना हमेशा से सरकार का उद्देश्य था और तालिबान अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे नहीं झुक रहा है. मंगलवार को शिक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता रायन ने कहा था, "हम अपने छात्रों को शिक्षा और अन्य सुविधाएं प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी के तहत ऐसा कर रहे हैं."
तालिबान ने जोर देकर कहा था कि वह यह सुनिश्चित करना चाहता है कि 12 से 19 साल की लड़कियों के लिए स्कूल अलग-अलग हों और इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार काम करें.
इससे पहले तालिबान सरकार ने महिलाओं को बिना पुरुषों के लंबी यात्रा करने पर प्रतिबंध लगा दिया था. तालिबान के आदेश के मुताबिक जो महिलाएं लंबी दूरी की यात्रा करना चाहती हैं उनके साथ कोई नजदीकी पुरुष रिश्तेदार होना जरूरी है.
एए/सीके (एएफपी, एपी)
यूक्रेन युद्ध के बीच रूस के खिलाफ रुख लेने के लिए भारत पर पश्चिमी देशों का दबाव बढ़ता जा रहा है. भारत भी पश्चिमी खेमे से लगातार बातचीत कर रहा है और युद्ध की समाप्ति की मांग पर जोर दे रहा है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
इसी क्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 मार्च को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से फोन पर बातचीत की. एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि दोनों नेताओं ने यूक्रेन पर विस्तार से चर्चा की और मोदी ने युद्ध की समाप्ति और बातचीत के रास्ते पर लौट आने के लिए बार बार की गई भारत की अपील को दोहराया.
उन्होंने जोर दिया कि भारत का विश्वास है कि अंतरराष्ट्रीय कानून और सभी देशों की टेरिटोरियल अखंडता और संप्रभुता के प्रति सम्मान ही समकालीन वैश्विक व्यवस्था का आधार है. दोनों नेताओं ने भारत-ब्रिटेन द्विपक्षीय संबंधों पर भी चर्चा की और आपसी सहयोग को और बढ़ाने की संभावना पर सहमति व्यक्त की.
भारत से "बहुत निराश"
मोदी ने जॉनसन को भारत आने का निमंत्रण भी दिया. इस बातचीत को मोदी द्वारा यूक्रेन युद्ध पर भारत के रुख को लेकर ब्रिटेन की चिंताओं को शांत कराने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है.
अमेरिका की तरह ब्रिटेन ने भी कई बार भारत के रुख से असंतुष्टि का संकेत दिया है और रूस के खिलाफ पश्चिमी देशों की कार्रवाई में साथ देने की अपील की है. बल्कि ब्रिटेन की व्यापार मंत्री ऐन-मेरी ट्रेवेल्यान ने कुछ ही दिनों पहले कहा कि ब्रिटेन भारत के रूख से "बहुत निराश" है.
उसके बाद भारत के रूस से कच्चा तेल खरीदने की खबरों के बीच अमेरिकी विदेश मंत्रालय की वरिष्ठ अधिकारी विक्टोरिया नुलैंड भारत आईं और भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला से मिलीं. उनकी यात्रा के बीच ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने वॉशिंगटन में बयान दिया कि यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर भारत का रुख "ढीला" है.
परीक्षा की घड़ी
नुलैंड ने भारतीय मीडिया संस्थानों को दिए साक्षात्कार में कहा कि "लोकतांत्रिक देशों को एक साथ रहना चाहिए" और "रूस-चीन एक्सिस भारत के लिए अच्छा नहीं है." 23 मार्च को वॉशिंगटन में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने एक ताजा बयान में अमेरिका-भारत साझेदारी पर जोर दिया.
उन्होंने कहा कि भारत क्वॉड देशों के समूह में एक स्वच्छंद और खुले भारत-प्रशांत प्रांत के साझा सपने को साकार करने में अमेरिका के लिए एक आवश्यक पार्टनर है. उन्होंने भी नुलैंड की तरह कहा कि भारत के रूस के साथ ऐतिहासिक रूप से जो सुरक्षा संबंध हैं, अब अमेरिका भारत के साथ उस तरह के संबंधों के लिए तैयार है.
स्पष्ट है कि रूस के प्रति भारत के रुख में बदलाव लाने को लेकर पश्चिमी देशों की बेचैनी बढ़ रही है. ऐसे में भारत के लिए रूस और पश्चिम के बीच संबंधों में संतुलन बनाए रखना मुश्किल होता जा रहा है.
बुधवार 23 मार्च को भारत एक बार फिर परीक्षा की घड़ी का सामना करेगा जब संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन युद्ध पर एक के बाद एक तीन प्रस्ताव लाए जाएंगे. पूर्व में भारत ने रूस की आलोचना करने वाले प्रस्तावों पर मत डालने से खुद को बाहर रखा है. देखना होगा इस बार भारत की क्या रणनीति रहती है. (dw.com)