विचार / लेख
-रमेश अनुपम
ज्ञानरंजन हमारी पीढ़ी के लिए किसी प्रकाश स्तंभ से कम नहीं हैं। आठवें दशक में छत्तीसगढ़ में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में उनकी सर्वाधिक और महत्वपूर्ण भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।
ज्ञानरंजन की पहल के फलस्वरूप आठवें दशक के प्रारंभ में ही ‘पहल’ जैसी इस महादेश की अनिवार्य पत्रिका का संपादन-प्रकाशन जबलपुर से प्रारंभ हो चुका था। आपातकाल में ज्ञानरंजन और ‘पहल’ दोनों सरकार के निशाने पर थे। ‘पहल’ का वैचारिक ताप बड़े घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं और उनके संपादकों को रास नहीं आ रहा था। सो ज्ञानरंजन को निशाना बनाया जाना उनके लिए जरूरी ही था
‘पहल’ ने हम जैसे अनेक युवाओं को एक नई रोशनी दी और वामपंथ की शानदार समझ भी प्रदान की।
बहरहाल ‘पहल’ के शानदार 125 अंक अब हिंदी साहित्य की धरोहर है। व्यक्तिगत प्रयासों से हिंदी साहित्य में कोई साहित्यिक पत्रिका के 125 अंक निकाल पाया हो और वह भी एक उत्कृष्ट और संग्रहणीय रूप में, जिसमें हर श्रेष्ठ लेखक और कवि प्रकाशित होना चाहे मेरी जानकारी में दूर-दूर तक नहीं है।
ज्ञानरंजन आठवें दशक से हम लोगों के हीरो हैं। मैं सन 1975 में एम. ए. हिंदी का विद्यार्थी था। दुर्गा कॉलेज का नियमित छात्र। मुझे एक दिन क्लास में मेरे प्राध्यापक विभु कुमार जो स्वयं अच्छे लेखक थे ने बताया कि ज्ञानरंजन जी रायपुर आए हुए हैं और वे मुझसे मिलना चाहते हैं साथ में यह सूचना भी दी कि वे कटोरा तालाब में विनोद कुमार शुक्ल के घर पर ठहरे हुए हैं।
ज्ञान जी से तब तक मेरे पत्र व्यवहार का सिलसिला शुरू हो चुका था। पहल’ 3 से मैं ‘पहल’ का पाठक बन चुका था। जयस्तंभ चौक पर कोटक बुक स्टॉल से मैं नियमित रूप से ‘पहल’ और ’कल्पना’ खरीद लेता था।
मैं क्लास समाप्त होते ही विनोद जी के घर भागा। उन दिनों विनोद कुमार शुक्ल डॉक्टर श्रीवास्तव के मकान में किराए से रहते थे। मैं उनके घर जाकर एकाधिक बार मिल भी चुका था। विनोद जी के घर पर ज्ञानरंजन जी से रू-ब-रू यह मेरी पहली मुलाकात थी।
इसके बाद ज्ञानरंजन जी से मुलाकातों और खतों का सिलसिला परवान चढऩे लगा। ज्ञानरंजन की सक्रियता और खतों का जलवा ऐसा कि छत्तीसगढ़ का हर पढऩे-लिखने वाला युवा ज्ञान जी का मुरीद हो चला। ‘पहल’ पढऩा और उस पर चर्चा करना हमारी प्राथमिकता में शामिल होती चली गई।
यह ज्ञान जी के मोहब्बत का ही असर था कि मुझ जैसे आलसी और नकारा से अरुंधति रॉय के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘अपार खुशी का घराना’ पर लंबी समीक्षा लिखवा ली। इसी तरह अशोक कुमार पाण्डेय की किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ तथा रणेंद्र के उपन्यास ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ पर भी लिखवा कर छोड़ा।
ज्ञानरंजन जी का साहित्यिक अवदान अद्भुत है। उनके कहानियों के बिना हिंदी कथा साहित्य का मूल्यांकन अधूरा है। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और सक्रियता में उनके योगदान को भुला पाना मुश्किल है। ज्ञान जी स्वयं अपने आप में एक संगठन हैं।
काश और काश छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ ज्ञानरंजन पर एकाग्र कोई सुंदर सा आयोजन रायपुर या भिलाई या बिलासपुर में आयोजित करता। हम सबके बेहद अजीज़ और बेमिसाल शख्सियत ज्ञान जी पर।
बहरहाल आज ज्ञानरंजन जी का जन्मदिन है। ज्ञानरंजन जी को इस देश के तमाम तरक्की पसंद साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी उनके 87 वें जन्मदिन पर सलाम करते हैं और खूब सारी बधाई देते हैं। बहुत-बहुत बधाई ज्ञान जी। आप हमारे लिए आज भी एक रौशन स्तंभ हैं और हमेशा रहेंगे।