विचार/लेख
-अपूर्व गर्ग
मुझ बच्चे की बात मानिये और अपनी सोच बदलिए.
सारी समस्या आपकी सोच की वजह से आ खड़ी हुई है. सबसे पहले अपने शब्दकोश बदलिए. कम से कम शब्दकोश में जो बुज़ुर्ग, बूढ़े, वृद्ध, अधेड़ जैसे जो शब्द हैं उन्हें निकाल फेकिये.
इंसान बूढ़ा नहीं होता. उम्रदराज़ होना बूढ़ा होना नहीं होता. हिमाचल के 105 साल के श्याम सरन नेगी वोट देते हैं उसके बाद ही वो शरीर त्यागते हैं. 105 साल तक लोकतंत्र के प्रति आस्था रखते हुए नेगीजी अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करते रहे. ऐसे नेगी जी को कभी 80 साल में वृद्ध कहा ही गया होगा, जो हमारी संस्कृति है, आदत में शुमार है.
इसके बाद भी नेगी जी 25 वर्षों तक युवा रहते हैं.
इस दुनिया में मौजूद ऐसे सभी नेगियों और सक्रिय 80 + वालों को वृद्ध घोषित कर उनके प्रति हम इतने निर्मम क्यों हो जाते हैं ?
आपकी परिभाषा के अनुसार युवा लोग चुनाव के दिन घर बैठे हॉलिडे एन्जॉय करते हैं और ऐसे करोड़ों लोग वोट तक नहीं डालते, लाइन में खड़े होना नहीं चाहते, सोचिये युवा कौन ? बुज़ुर्ग कौन ?
105 साल की एथलीट मान कौर दौड़ती रहीं थीं रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड बनती रहीं थीं. जब 'मम्माज़ डार्लिंग बेबी बाबा ...रजाई में दुबके रहते थे तब मान कौर फील्ड में पसीना बहा रही होती थीं ये और बात है इस समाज ने उन्हें भी 35 - 40 बरस पहले बूढी धावक करार दे दिया होगा ....इस सोच को बदलिए ..
बीजेपी ने भी 2014 में मार्गदर्शक मंडल बनाकर कम ज़ुल्म नहीं किया. सोचिये, आज आडवाणीजी 95 के आसपास हैं और 85 के आस-पास ही उन्हें और उनके साथियों को बुज़ुर्ग बना दिया, जबकि आज भी 95 साल की उम्र में आडवाणीजी पुराने तेवर में लौटने को आतुर दीखते हैं.
अभी -अभी LIC के जुझारू नेता चंद्रशेखर बोस का 101 वां जन्मदिन मनाया गया और आगे न जाने कितने मनाये जाते रहेंगे. ये 44 साल पहले रिटायर हुए होंगे इन्हे भी बुज़ुर्ग माना गया होगा. सौ बरस की उम्र में उन्होंने मीटिंग को भी सम्बोधित किया था, आगे भी ये करेंगे.
पहले भी मैंने 104 बरस के बॉडी बिल्डर मनोहर आइच की कसरत से लेकर खुशवंत सिंह के 92 बरस होने पर उन्होंने आत्मकथा लिखी ये बताया था. हबीब मियां जो खूब जिए और ज़िंदादिली से जिए 2008 में 138 बरस की उम्र में चल बसे थे, ये लिखा था. ऐसे उदाहरण अब हमारे आस-पास ही बहुत हैं, अब बताने की ज़रूरत नहीं है.
ज़रूरत इस बात की है अब समय आ गया समाज अपनी सोच बदले.
सुनिए,
सबसे पहले रिटायरमेंट को बुढ़ापे से लिंक मत करिये. रिटायरमेंट कोई आधार नहीं है जिसे किसी पेन से लिंक किया जाए !
कोई इंसान जब रिटायर होता है तो वो सब कुछ करना चाहता है जो नौकरी के दौरान नहीं कर पाता. उन्हें एन्जॉय करने दीजिये. रिटायरमेंट शब्द को भूल कर आँखें खोल के देखिये 60 बरस के लोग कितने नौजवान, फिट, सुंदर सुडौल और सक्रिय हैं. दरअसल, ये नौजवानी कई दहलीज़ में कदम रख रहे हैं और अब शरीर कई बनावट ऐसी होती जा रही कि बुज़ुर्ग जैसा कोई गैर ज़रूरी शब्द इन पर 40 बरस बाद ही उपयोग किया जा सकेगा.
अधेड़ उम्र घोषित करने की बहुत इच्छा है तो 70 के बाद वालों के लिए सुरक्षित रखिये. आप अगर अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलकर 70 साल वालों पर सर्वे करेंगे तो उनकी अपार-असीम ऊर्जा, फिटनेस और सक्रियता देखकर चकित रह जायेंगे. वो दिन बरसों पहले हवा हुए जब 70 के उम्र दराज़ होते थे. सावधान रहिये आज सत्तर वाले पूरे मट्ठर हैं.. वो लड़ना-भिड़ना ही नहीं ऐसे-ऐसे असंभव काम में जुटे हैं जो कल्पनातीत हैं.
इसलिए, बुढ़ापे, अधेड़ावस्था का सर्टिफिकेट बांटने की हड़बड़ी मत करिये. खासकर, ये रोग मीडिया के लोगों को बहुत है. कुछ अखबार तो खुल्लम -खुल्ला अवमानना करते हैं. 45 साल के बच्चों को अधेड़ लिख देते हैं ..65 को वृद्ध...बहुत नाइंसाफी है ठाकुर !!
समय आ चुका उम्र के साथ अवस्था जोड़ने कई आदत बदल लेना चाहिए . वर्ना आगे और शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी जब 70 वाले यूथ फेस्टिवल मनाएंगे और 80 वाले फनी गेम खेलते मिलेंगे और डेस्टिनेशन ...करते भी !
दुनिया बदल रही नहीं बदल चुकी . लोगों ने खूब जीने कई ही नहीं ज़िंदादिली से जीने कई ठान ली .अब कोरोना का बाप भी आये तो हमारे 60 -70 साल के नौजवान लात मारेंगे ऐसी सभी बीमारियों को और बता देंगे ...अभी तो पार्टी शुरू हुई है .. ऐसी मुझ 'बच्चे ' की स्पष्ट राय है और दिन के उजाले में साफ़-साफ़ देख रहा हूँ कि लोग बूढ़ा, वृद्ध अधेड़ जैसे शब्दों को त्याग कर शरीर कितना फिट है उस लिहाज़ से ज़िंदगी जी रहे हैं. और सुनिए, अधेड़ वो है जो घरवालों के धक्का देने पर कुछ वाकिंग करता है वो भी धीरे-धीरे स्मार्ट फ़ोन के अंदर घुसकर.
बूढ़ा वो है जिस पर सुबह दो बाल्टी पानी भी डाला जाये तो भी रज़ाई उससे छूटती नहीं. न कसरत करेगा, न घर के काम. इन्हे वोट देने कहेंगे तो राजनीति को गाली देगा , काम करने कहेंगे तो हर काम छोटा नज़र आएगा. इनसे मिलना है तो जगह -जगह मिलेंगे स्मार्ट फ़ोन के अंदर झुकी कमर के साथ ...
अकबर इलाहाबादी ने कहा है :
''जवानी की दुआ लड़कों को ना-हक़ लोग देते हैं
यही लड़के मिटाते हैं जवानी को जवाँ हो कर ''
और ..
नौजवानों से मिलना है तो सुबह-सुबह और शाम किसी भी मैदान में बगीचे में गुलाब के फूल की तरह ख़ुशबू बिखेरते दौड़ते भागे जगह-जगह मिलेंगे.
नौजवानों की इस ललक -महक और ख़ुशबू को पहचानिये और शब्दकोष से परे सोचिये .अपनी पीढ़ियों से चली आ रही पुरानी सोच बदलिए, शब्दावली बदलिए. आपके आस-पास जो 80, 90 के लोग हैं उनकी हिम्मत, हौंसले और आत्म विश्वास को टूटने मत दीजिये. वो हैं इसलिए हम भी हैं . कल हम भी वही होंगे और तभी बच्चों से ऐसी उम्मीद कर पाएंगे.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान में राहुल गांधी ने अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई की जमकर वकालत कर दी। राहुल ने कहा कि भाजपा अंग्रेजी की पढ़ाई का इसलिए विरोध करती है कि वह देश के गरीबों, किसानों, मजदूरों और ग्रामीणों के बच्चों का भला नहीं चाहती है। भाजपा के नेता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में क्यों पढ़ाते हैं? राहुल ने जो आरोप भाजपा के नेताओं पर लगाया, वह ज्यादातर सही ही है लेकिन राहुल जरा खुद बताए कि वह खुद और उसकी बहन क्या हिंदी माध्यम की पाठशाला में पढ़े हैं?
देश के सारे नेता या भद्रलोक के लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में इसीलिए भेजते हैं कि भारत दिमागी तौर पर अभी भी गुलाम है। उसकी सभी ऊँची नौकरियां अंग्रेजी माध्यम से मिलती हैं। उसके कानून अंग्रेजी में बनते हैं। उसकी सरकारें और अदालतें अंग्रेजी में चलती हैं। भाजपा ने अपनी नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा को स्वभाषा के माध्यम से चलाने का आग्रह किया है, जो कि बिल्कुल सही है। लेकिन भाजपा और कांग्रेस, दोनों की कई प्रांतीय सरकारें अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को प्रोत्साहित कर रही हैं।
किसी विदेशी भाषा को पढऩा एक बात है और उसको अपनी पढ़ाई का माध्यम बनाना बिल्कुल दूसरी बात है। मैंने पहली कक्षा से अपनी अंतरराष्ट्रीय पीएच.डी. तक की परीक्षाएं हिंदी माध्यम से दी है। स्वभाषा के माध्यम से पढऩे का अर्थ यह नहीं है कि आप विदेशी भाषाओं का बहिष्कार कर दें। मैंने हिंदी के अलावा संस्कृत, जर्मन, रूसी और फारसी भाषाएं भी सीखीं। अंग्रेजी तो हम पर थोप ही दी जाती है। राहुल का यह तर्क सही है कि गरीब और ग्रामीण वर्ग के बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में नहीं पढ़ते, इसलिए वे पिछड़ जाते हैं। वे भी अंग्रेजी पढ़ें और अमेरिका जाकर अमेरिकियों को भी मात करें।
राहुल की यह बात मुझे बहुत पसंद आई लेकिन मैं पूछता हूं कि हमारे कितनी विद्यार्थी अमेरिका या विदेश जाते हैं? कुछ हजार छात्रों की वजह से करोड़ों छात्रों का दम क्यों घोटा जाए? जिन्हें विदेश जाना हो, वे साल-दो साल में उस देश की भाषा जरूर सीख लें लेकिन किसी विदेशी भाषा को 16 साल तक अपनी पढ़ाई का माध्यम बनाए रखना और उसे करोड़ों बच्चों पर थोप देना कौनसी अक्लमंदी है?
हिरण पर घांस क्यों लादी जाए? यदि हमारे नेता लोग चाहते हैं कि गरीबों, ग्रामीणों, पिछड़ों, किसानों और मजदूरों के बच्चों को भी जीवन में समान अवसर मिलें तो देश में सभी बच्चों के लिए स्वभाषा-माध्यम की पढ़ाई अनिवार्य होनी चाहिए। अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई पर कठोर प्रतिबंध होना चाहिए। विदेशी संपर्कों के लिए हमें सिर्फ अंग्रेजी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
विदेश-व्यापार, विदेश नीति और उच्च-शोध के लिए अंग्रेजी के साथ-साथ फ्रांसीसी, जर्मन, चीनी, रूसी, अरबी, हिस्पानी, जापानी आदि कई विदेशी भाषाओं की पढ़ाई भी भारत में सुलभ होनी चाहिए। दुनिया के किसी भी संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र में छात्र-छात्राओं की पढ़ाई का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काबुल में पिछले साल तालिबान की सरकार क्या कायम हुई, पाकिस्तान समझने लगा कि उसकी पौ-बारह हो गई, क्योंकि पिछले दो-ढाई दशक से तालिबान और उसके पहले अफगान मुजाहिदीन को शै देनेवाला पाकिस्तान ही था। तालिबान ने पहले अपने हिमायती अमेरिका को सबक सिखाया और अब वह पाकिस्तान के छक्के छुड़ा रहा है। आए दिन तालिबानी और पाकिस्तानी सीमा-रक्षकों के बीच गोलीबारी की खबरें आती रहती हैं। अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत के बीच जब सर मोर्टिमोर डूंरेड ने 1893 में डूंरेड-रेखा खींची थी, तभी से एक के बाद एक अफगान सरकारों ने उसे मानने से मना कर दिया था।
अब जबकि पाक-सरकार 2700 किमी की इस डूंरेड रेखा पर खंभे गाडऩे की कोशिश कर रही है, तालिबान सरकार उसका विरोध कर रही है। हजारों अफगान और पाकिस्तानी नागरिक पासपोर्ट और वीज़ा के बिना एक-दूसरे के देश में रोज आते-जाते हैं। दोनों देशों के बीच तनाव इतना बढ़ गया है कि उप-विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार को काबुल जाकर बात करनी पड़ी। काबुल में पाक दूतावास के एक वरिष्ठ राजनयिक की हत्या का भी असफल प्रयास हुआ। इसके पहले अल-क़ायदा के नेता अल-जवाहिरी की काबुल में अमेरिका ने जो हत्या की थी, उसके लिए भी पाकिस्तान की सांठ-गांठ बताई गई थी।
यह अभियान प्रकट तौर पर काबुल के तालिबान नहीं चला रहे हैं। इसे चला रहे हैं- ‘तहरीक़े-तालिबान-ए-पाकिस्तान’ के लोग। वे हैं तो पाकिस्तानी लेकिन उन्होंने आजकल काबुल को अपना ठिकाना बना लिया है। वे इमरान और शाहबाज शरीफ सरकारों से मांग करते रहे हैं कि पाकिस्तान का शासन इस्लामी उसूलों पर चले। काबुल के तालिबान दिखाने के लिए इस्लामाबाद और तहरीक के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे हैं लेकिन वे पूरी तरह से ‘तहरीक’ के साथ हैं।
उन्होंने दोनों के बीच 5-6 माह का युद्ध-विराम भी करवा दिया था लेकिन तालिबान की ही नहीं, औसत पठानों की भी मान्यता है कि पाकिस्तान के पंजाबी हुक्मरान उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं। मुझे पेशावर और काबुल में दोनों पक्षों से खुलकर बात करने के मौके कई बार मिले हैं। मैंने कुछ पाकिस्तानी दोस्तों को यह कहते हुए भी सुना है कि देखिए, अफगान कितने नमकहराम हैं? रूसी कब्जे के वक्त लाखों अफगानों को हमने शरण दी लेकिन वे अब भी पेशावर पर कब्जा करना चाहते हैं।
उधर अफगान कहते हैं कि ये पंजाबी लोग हमारी ज़मीन पर लगभग डेढ़-सौ साल से कब्जा किए हुए हैं और हमारे साथ चोरी और सीनाजोरी करते हैं। पाकिस्तान सरकार को अब पता चल रहा है कि उसने अफगान आतंकवाद को बढ़ावा देकर अपने लिए गहरी खाई खोद ली है। अब वे ही अफगान पाकिस्तान के सिरदर्द बन गए हैं। मियाँ की जूतियाँ मियाँ के सिर पड़ रही हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
मौसम में कुछ ठंडक है, और सियासत में उमस। पदयात्राओं के लिए आदर्श। दिसम्बर में पदयात्रा करने से साल भर का अनुशेष कम होने के साथ सेहत सुधरती है। अविभाजित आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाय एस राजशेखर रेड्डी की बेटी राजनीतिक सेहत सुधारने के लिए मकर संक्रांति से फिर पदयात्रा आरंभ करेंगी। पिछले दिनों तेलंगाना के मुख्यमंत्री की लाडली कविता पर आरोप मढ़ते हुए तैश में आकर तेलंगाना (अब भारत राष्ट्र पार्टी) के दफ्तर में कार चढ़ाने पर पुलिस ने हिरासत में लिया था।
भाई जगन आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री है। तेलंगाना की मुख्यमंत्री बनने के लिए जारी पदयात्रा की आवागमन में बाधा नहीं डालने की शर्त पर अदालत ने अनुमति दी है। शर्मिला इन दिनों डाक्टरों की सलाह पर आराम कर रही हैं। ईसाई समुदाय ने शर्मिला से सावधान रहने कहा है। उनका आरोप है कि वायएसआर तेलंगाना पार्टी अध्यक्ष राजनीतिक स्वार्थ के लिए सांप्रदायिक ताकतों के हाथ में खेल रही हैं। इसका जरूर सदमा लगा होगा। दिवंगत राजशेखर रेड्?डी के दामाद और जगन्मोहन के जीजा ईसाई पादरी हैं।
पंडित और पठान
कहा तो यही जाता है कि काकटेल का नशा गहरा होता है। यही सोचकर समीर वानखेड़े ने शाहरुख पुत्र आर्यन को घेरा था। अदालत ने आर्यन को बेकसूर साबित किया और छापामार समीर को प्रशासन ने। अपनी राय थोपने का नशा राजनीति से बढक़र होता है। इस तरह के नशे का आनंद लेने वालों ने पठान के बहाने एक बार फिर शाहरुख खान पर हमला बोला है। दोनों में सही कौन है और गलत कौन? इसका फैसला अदालत करे, राजनीतिक, केन्द्र सरकार या प्रदेश प्रशासन? जिसे करना है, करता रहे। जाड़े के मौसम से जुड़ी अपनी चिंता औरों के लिए है। यूक्रेन पर हमले के बाद रूस ने भारत को तेल देकर प्रधानमंत्री और भारत सरकार से दोस्ती गाढ़ी कर ली है। इस दोस्ती का आनंद दोगुना करने के लिए भारत में शानदार वोदका देश में उपलब्ध होगी। वोदका रूसी मादक पेय है जो गर्मी, जोश और जाने क्या क्या देने के लिए जग भर में प्रसिद्ध है। विदेशी शराब निर्माता कंपनी के साथ तीन हिन्दुस्तानी दोस्तों ने वोदका वितरण और बिक्री का करार किया है। 25 वर्षीय आर्यन और दो दोस्त वडवाइजर और कोरोना बीअर भी बेचेंगे।
अच्छे दिन
प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल में उलटफेर किए बिना ताश कर गड्डी फेंटी। 35 मंत्रियों के अच्छे दिन आए। छोटे परदे से लेकर बड़े मंत्रिमंडल तक महत्वपूर्ण स्मृति ईरानी, ज्योतिरादित्य से पहले शपथ लेने वाले डा वीरेन्द्र कुमार, न्यायपालिका को आए दिन नसीहत देने वाले किरेन रिजीजू आगे की कतार में बैठेंगे।
हिमाचल प्रदेश में सरकार जाने से पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की साख पर जो भी असर पड़ा हो, संवाद माध्यमों पर नजऱ रखने वाले अनुराग सिंह ठाकुर का मान बढ़ा है। इन सबको लोकसभा में नए आवंटित किए हैं। तेलंगाना सरकार को हड़ाकने वाले किशन रेड्?डी, अपना दल-पटेल की अनुप्रिया और स्वास्थ्य राज्य मंत्री डा भारती प्रवीण पवार इस लोकसभा में आगे के आसनों पर बैठने लगी हैं। इस तरह समझिए कि स्मृति ईरानी पहले पहले भी पहली कतार में 188 नंबर के आसन में यानी तीसरे खंड में बैठती थी। अब वे दूसरे खंड में आसन क्रमांक-99 में मुस्कराती और लताड़ पिलाती नजर आएंगीं। और आसानी से समझ लें। वे प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और गृह मंत्री के अधिक निकट आ गई हैं जो खंड-एक में विराजमान होते हैं।
पर कुतरें?
संसद और विधानमंडलों के अधिवेशन क्रिसमस तक चलेंगे या नहीं? यह बताने वाले हम कौन होते हैं? अधिकांश होटलों पर क्रिसमस का रंग चढ़ चुका है। दिल्ली में तो कथित शराब घोटाले का नशा भी उतरने लगा है। भले ही इसमें उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया से लेकर तेलंगाना के मुख्यमंत्री की विधायक बेटी तक आरोपों के दायरे में क्यों न हों? दिल्ली नगरनिगम चुनाव में आम आदमी पार्टी जीती। सरदार पटेल मार्ग पर किराए की इमारत में भारत राष्ट्र पार्टी का दफ्तर खुला। आबकारी नीति घोटाले पर कल्पना की तरंग में उड़ते खबरिया चैनलों का नशा दिल्ली उच्च न्यायालय ने उतारा।
अदालत ने चेतावनी दी कि केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की अधिकृत प्रेस विज्ञप्ति के दायरे में रहो। चैनलों के संगठन न्यूज ब्राडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टेंडर्ड ने असहायता दिखाई। कहा-हमें नियंत्रण का अधिकार नहीं है। न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा ने दो टूक सवाल किया-संगठन बर्खास्त क्यों न कर दिया जाए? कार्रवाई रपट अदालत में पेश करने का निर्देश दिया। यह जानते हुए कि वर्ष 2019-20 में एनबीडीए के अध्यक्ष रजत शर्मा थे। सोचो।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-आनंद बहादुर
विश्व कप फुटबॉल के कल के फाइनल में अर्जेंटीना और फ्रांस की भिड़ंत की तुलना प्राचीन काल के रोम के एम्फिथिएटर में होने वाले ग्लेडिएटरों की भिड़ंत से की जा सकती है, इसकी और कोई उपमा नहीं दी जा सकती। ठीक वैसा ही दृश्य था, सारी दुनिया एक बहुत बड़े एम्फिथिएटर में बदल गई थी, गोल! गोल! गोल! गगनभेदी शोर उठ रहा था, ऐसा लगता था कि मानो खून की प्यासी भीड़ चिल्ला रही हो- मारो! मारो! किल हिम ! ऐसा जुनून ऐसा तमाशा ऐसी टक्कर!
आमतौर पर फाइनलें बहुत नीरस और उबाऊ हुआ करती हैं। टीमें नापतोल कर प्रतिद्वंदी की ताकत को आजमाते हुए, गोल किसी हालत में नहीं खाने की सौ तिकड़में में लगाते हुए, खेलती हैं; और जब तक वे किसी ठोस नतीजे तक पहुंचती हैं, समय निकल जाता है, और पेनल्टी से फैसला करना पड़ता है। फैसला यहां भी पेनल्टी शूटआउट से ही हुआ, मगर किन मुकामों से गुजर कर!
इसका कारण लियोनेल मेस्सी नामक एक ऐसा शख्स है, जो पिछले दो दशक से फुटबॉल का देवता बना हुआ है, मगर अगर वह इस विश्वकप को जीत नहीं लेता, तो उसका सारा कैरियर कूड़े के ढेर से बढ़कर कुछ नहीं होता, क्योंकि फुटबॉल का देवता हो और विश्वकप नहीं जीत पाए, ऐसी शर्मनाक जिंदगी खुदा किसी को ना दे! दूसरी ओर एमबापे नामक एकदम ताजा टटका जुनून से भरा बेखौफ नौजवान, बोरिस बेकर टाइप का खिलाड़ी, जिसके रहते धूम धड़ाका न हो यह हो ही नहीं सकता। नतीजे में मिला विश्व का सर्वश्रेष्ठ फाइनल!
मैं बचपन से फुटबॉल का दीवाना रहा हूं, स्कूल के दिनों में खेलता भी था, और बड़ा होने पर अपने शहर देवघर के सबसे प्रसिद्ध फुटबॉलर, बुलबुल दा के साथ दो-चार बार खेलने का मौका मुझे मिला था। खेलना क्या, हमारे शहर के उस लीजेंड के आगे-पीछे भाग-दौड़ करने का! बुलबुल दा, आप को सलाम, कि आपसे फुटबॉल खेलना भले न सीख पाया, लेकिन फुटबॉल की दीवानगी आज भी रग रग में बसी हुई है!
इसीलिए जब दोनों टीमों का राष्ट्रगान हो रहा था, तो पहली बार मैंने अपने देश से अलग किन्हीं अन्य देशों के राष्ट्रगानों को इस तरह सुना मानो वह देश भी मेरा ही देश हो। और मैं शिद्दत के साथ राष्ट्र गान गाते मेस्सी के चेहरे को देखता रहा... फ्रांस के प्रेसिडेंट इमानुएल मैक्राॅन भी उस समय स्टेडियम में मौजूद थे, उनकी तस्वीर टीवी पर आई, तो मैंने सहानुभूति के साथ सोचा, आज आप निराश होने वाले हैं।
मगर सच बात तो यह है कि मैच से पहले ज्यादातर फुटबॉल के पंडित अर्जेंटीना को कोई खास ज्यादा चांस नहीं दे रहे थे। दिल ही दिल में सब चाह रहे थे, मगर हर कोई जानता था कि फ्रांस का पलड़ा भारी है। इधर क्या है? बूढ़ा होता हुआ, अपने ही सपनों के मकड़जाले में फंसा मेस्सी... और उधर? उधर है 23 साल का तेजतर्रार, एक विश्व कप पहले से जीत चुका एमबापे, जेरू और ग्रीजमैन...
लेकिन सभी आकलनों को चकनाचूर करते हुए शुरू से ही अर्जेंटीना खेल पर हावी हो गया और लगभग 75 मिनट तक इस कदर हावी रहा कि उसने फ्रांस को गोल पर एक शाॅॅट लेने तक का मौका नहीं दिया। सारे मूव अर्जेंटीना ने बनाए, सारे कॉर्नर अर्जेंटीना को मिले, सारे ऑफसाइड अर्जेंटीना के विरुद्ध दिए गए।
इस ताबड़तोड़ हमले का परिणाम यह निकला कि पहले तो अर्जेंटीना को पेनल्टी मिली जिस पर मेस्सी ने गोल कर 1-0 की बढ़त दिलाई, उसके बाद डी मारियो ने शानदार फील्ड गोल कर 2-0 कर दिया।
मेस्सी जिस अंदाज में पेनल्टी शाॅट लेते हैं वह बिल्कुल मध्ययुग के संतों की याद दिलाता है, संतों की तरह की निश्चिंतता के साथ, और ऐसा लगता है मानो वे बाॅल को किक नहीं कर रहे, दुलार रहे हों, उसे आशीर्वाद दे रहे हों कि जाओ, अमर हो जाओ। वे बहुत धीमे से बाॅल को दुलारते हैं, और पांव से अबूझ दिशा देते हुए नेट में डाल देते हैं। बेचारा गोलकीपर किसी दूसरी ओर छितराया हुआ पड़ा होता है। ऐसा दर्शनीय होती है मेस्सी की पेनाल्टी! अन्य मामलों में उनके कई प्रतिद्वंदी हैं, लेकिन पेनल्टी लेने के मामले में तो मेस्सी अद्वितीय हैं।
दूसरे हाफ में भी शुरू में अर्जेंटीना खेल पर हावी रहा उसने अपनी रणनीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। फ्रांस की टीम 4-4-2 के फॉरमेशन से उतरी थी, जो मेरे ख्याल से फ्रांस के ऑफ कलर खेल का सबसे बड़ा कारण था। ऐसा लग रहा था जैसे फ्रांस मेस्सी से बिल्कुल अभिभूत हो, वह मेस्सी का तोड़ नहीं खोज पा रहा था, और उसके महान खिलाड़ी अपना स्वाभाविक खेल नहीं खेल पा रहे थे, जेरू और ग्रीजमैन इत्यादि कोई प्रभाव नहीं डाल पा रहे थे। उनका समूचा खेल मेस्सी के चारों तरफ नाच रहा था। जबकि मेस्सी इन बातों से बेखबर अपना स्वाभाविक खेल खेल रहे थे। उनको एमबापे की कोई चिंता नहीं थी। एमबापे पूरी तरह से मेसी की छाया में थे, पता ही नहीं चल रहा था कि जादूई खेल वाले एमबापे कहां चले गए?
उधर अर्जेंटीना की ओर से बाएं फ्लैंक में डी मारियो भी बहुत शानदार खेल खेल रहे थे। बल्कि यह तो उन्हीं का तेज गति का सधा हुआ अनुभव से लबरेज खेल था जो अंतर ला रहा था। एक ओर फ्रांस के खिलाड़ी मेसी के दबाव में थे, दूसरी ओर डी मारियो बहुत तेज गति से छकाते हुए बार-बार डी में घुसकर क्राॅस पास दे रहे थे, और बाद में उन्हीं को गिराए जाने पर पहली पेनाल्टी मिली, जिसे मेस्सी ने कन्वर्ट करके गोल किया। मेस्सी के रहते हुए भी कहा जा सकता है कि एक तरह से पहले 60-70 मिनट के अर्जेंटीना के मुख्य खिलाड़ी डी मारियो थे।
अर्जेंटीना के खिलाड़ी अपने उस विश्व प्रसिद्ध साउथ अमेरिकन स्किल का बेहतरीन मुजाहरा कर रहे थे, उन्होंने कई बार बैक फ्लिप से गेंद एक दूसरे को दिया और अनेक बार शानदार वन-टच खेल खेलते हुए फ्रांस को झांसे में रखा।
मगर फिर जैसा फुटबॉल में होता है, कि कोई चूक होती है, और अचानक परिवर्तन आ जाता है, खेल का सारा समीकरण बदल जाता है। ठीक ऐसा ही हुआ। कोई 70-75 मिनट खेल के बाद जब अर्जेंटीना के कोच स्केलोनी ने, मेरे ख्याल से बहुत बड़ी चूक करते हुए, मैच के अपने सबसे अच्छा खेल रहे खिलाड़ी डी मारियो को वापस बुला लिया, तो मैंने हताशा में अपना सर ठोंक लिया। और सचमुच, डी मारियो के जाते ही अर्जेंटीना का लेफ्ट फ्लैंक इतना कमजोर हो गया, कि फ्रांस के लिए खेल बिल्कुल खुल गया, और उसके बाद तो एमबापे और उसके फ्रांस ने ऐसा खेल दिखाया कि जिसका बयान मुश्किल है।
और अब्ब! जैसे खेल ही बदल गया है... फुटबॉल पर्दे से हट गया है... रोम के एंफिथियेटर के ग्लेडिएटर सामने आ गए हैं... बड़े-बड़े खूंखार, रथों पर सवार महारथी दौड़ रहे हैं... प्रचंड रूप से चीखते... हाथ में भाला, बल्लम, सिक्कड़ से बंधी कांटे वाली दानवाकार गेंद घुमाते.... मार्कस ऑरिलियस का चेहरा सामने आता है...चला जाता है... मैक्सिमस आता है... भीड़ चीख रही है... मैक्सिमस मैक्सिमस मैक्सिमस... मेस्सी मेस्सी मेस्सी... दृश्य बदल जाता है धड़फड़ धड़फड़ धड़फङ... यह क्या? यह तो मेरे बचपन का बच्चों वाला फुटबॉल हो गया है... फ्रांस अर्जेंटीना कुछ नहीं रह गया... सब होशो हवास खोकर पल भर में इधर से उधर भाग रहे हैं... फिर उधर से इधर भाग रहे हैं... मेरे बचपन के हीरो बुलबुल दा किक लगा रहे हैं.... वाह वाह वाह... आह आह आह... क्या बात है... क्या बात है... कुछ नहीं दाल-भात है... अभी सब कुछ दाल-भात था... अभी-अभी सब कुछ खिचड़ी हो गया है... खिचड़ी हलवे में बदल गई है... एक्स्ट्रा टाइम, एक्स्ट्रा टाइम... मेस्सी ने गोल ठोंक दिया है... एमबापे ने गोल ठोंक दिया है... टाइम अप-टाइम आप! शूटआउट-शूटआउट!
...अब मार्टिनेज़ का समय है.... अब केवल मार्टीनेज़ दिखाई दे रहे हैं... वही रक्षक हैं, वही सुपर हीरो हैं... बाकी सब भक्षक हैं... कोच स्केलोनी, डिफेंडर रोड्रिगो, एमिलियानो, किंग्सले कोमान, ऑरेलियन टोचामेनी... मार्टीनेज़ मार्टीनेज़ नहीं रह गए.... कैसियस क्ले... मोहम्मद अली में बदल गए हैं... ही लुक्स लाइक ए बटरफ्लाई स्टिंग्स लाइक ए बी... रस्से ऊपर "रोप ए डोप" वाला नर्तन करते... किक लगाने वाले को छकाते मार्टीनेज़... इधर-उधर शॉट मारने को मजबूर करते... केवल एमबापे के पास उनका तोड़ है, और किसी के पास नहीं, एमबापे जो फ्रेजियर है, मुहम्मद अली को भी चित कर देने वाला...
...जीत गया जी, जीत गया.. जीत गया जी... जीत गया... फुलबन की सेज सजाऊं सखी री... आज मोरे घर मोहन आया...
... और अब स्टेडियम अंधेरे में डूब गया है... यह क्या? अरे धुत्त, यह तो तैयारी है... प्राइज सेरेमनी की... स्टेडियम उजाले से भर गया है... इधर से उधर, कहां से कहां, मैदान के टर्फ का रंग दौड़ रहा है... अजीब अजीब रंग दौड़ रहे हैं... ऐसी सुंदर आतिशबाजी... न कभी हुई, न कभी किसी ने देखी...
और देखो देखो... वह हैं मेस्सी! अब मेराडोना के बराबर हो गए हैं... क्या जाने पेले से कितनी दूर हैं! 9 नंबर जर्सी वाले रोनाल्डो के कितने पास हैं...
मुझे याद आ रहे हैं, पिछले विश्व कपों में हारकर आंसुओं से तरबतर, वापस जाते मेस्सी... अपने रिटायरमेंट की घोषणा करते मेस्सी...
और ये हैं बिश्ट पहने हुए वर्ल्ड कप हाथ में उठाए मेस्सी... मानो रोमन देवता अपोलो ने पृथ्वी को कंधे पर उठा रक्खा हो!
-शशांक तिवारी
वैसे तो मेरा कई बार गुजरात आना-जाना हुआ है लेकिन ज्यादातर मौकों पर अहमदाबाद से बाहर झांकने का मौका नहीं मिला। मगर इस बार अपने परिवार के साथ धार्मिक यात्रा पर जाने का संयोग बना और फिर ऐतिहासिक महत्व के तीर्थ स्थलों के दर्शन के लिए निकल पड़ा। हमारे 40 सदस्यीय दल के ज्यादातर रायपुर के ही थे।
हम रायपुर से ट्रेन से गुजरात पहुंचे तो वहां हमारा पहला पड़ाव अहमदाबाद ही था। देशभर में वाइब्रेंट गुजरात की धूम मची है। कुछ दिन पहले ही उग्र हिन्दुत्व के पैरोकार भूपेंद्र पटेल की अगुवाई में भाजपा की सरकार दो तिहाई बहुमत से फिर से सत्तासीन हुईं । ऐसे में हिन्दू धर्मस्थलों को लेकर संवेदनशील मानी जाने वाली भाजपा सरकार के इंतजामों को करीब से परखने का मौका भी था।
अहमदाबाद में तो अक्षरधाम मंदिर तक सीमित रहे और फिर अगली सुबह बस से साबरमती रिवरफ्रंट को निहारते हुए सोमनाथ के लिए रवाना हो गए। अहमदाबाद से सोमनाथ तक करीब साढ़े 4 सौ किलोमीटर की यात्रा तय कर रात्रि करीब 8 बजे सोमनाथ पहुंच। हम सब सोमनाथ भगवान के दर्शन के लिए इतने उत्सुक थे कि हमने होटल में विश्राम करने के बजाए सीधे मंदिर जाने का फैसला लिया।
भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से सर्वप्रथम समुद्र तट पर स्थित भगवान सोमनाथ मंदिर के दर्शन मात्र से हमारी यात्रा की सारी थकान जाती रही। मंदिर पर ही लेजर शो के जरिए सोमनाथ मंदिर की ऐतिहासिक गाथा दिखाई गई। अमिताभ बच्चन की आवाज में सुनना और देखना वाकई अदभुत था।
सोमनाथ मंदिर पर हमले की गाथा सुनकर विदेशी आक्रमणकारियों के प्रति हमारे मन में गुस्से का ज्वार रह-रहकर उमड़ रहा था तो यह जानकर कि कई मुसलमानों ने भी मंदिर को बचाने के लिए अपनी जान गंवाई थी और पुनर्निर्माण में जामनगर के ढेबर भाईयों का योगदान यह बताने के लिए काफी था कि सर्व धर्म सदभाव की नींव सदियों पुरानी है। सोमनाथ मंदिर यात्रा के बाद अगले दिन हम बस से द्वारिका के लिए निकल गए। भगवान कृष्ण की नगरी द्वारिका का जिक्र पुराणों में है । सनातन धर्म के चार धाम में से एक द्वारिका की काफी मान्यता है। रोजाना हजारों की संख्या में लोग द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए आते हैं।
गोमती नदी के किनारे स्थित द्वारिकाधीश मंदिर को लेकर एक मान्यता यह भी है कि भगवान कृष्ण के पड़पोते वद्रनाभ ने भगवान कृष्ण के मूल आवासीय महल पर ही मंदिर का निर्माण कराया था। मगर मंदिर का मूल स्वरूप 15 वीं शताब्दी में चालुक्य शैली में बना है।
द्वारिका पहुंचते ही हमारी नजर गोमती नदी पर पड़ी, जो कि प्रदूषण की मार झेल रही देश की बाकी नदियों की तरह दिखी । रात्रि विश्राम के बाद अलसुबह मंदिर जाने से पहले गहरी सांस लिए पवित्र गोमती के स्नान के लिए पहुंचा । वहां तट पर गंदगी से दो- चार होना पड़ा । देश में स्वच्छ भारत अभियान जोर शोर से प्रचारित है और पीएम इसके अगुवा हैं। वहां उनके गृह राज्य के पवित्र गोमती तट की गंदगी चौंकाने वाली थी ।
खैर, सभी बातों को नजरअंदाज कर नदी में स्नान किया। कंपकंपाती ठंड में स्नान के बाद मेरी ठंड एक तरह से गायब हो गई। फिर भी नदी के पानी के आचमन का जोखिम नहीं उठा सका,फिर द्वारिकाधीश के दर्शन के निकल पडा़।
मंदिर के बाहर सुबह से ही भीख मांगने वालों की कतार थी । यह स्थिति सोमनाथ और गुजरात के हर मंदिरों के बाहर देखने को मिली। मन ही मन सोच रहा था कि क्या भिक्षा वृत्ति को रोकने के लिए केन्द्र सरकार की भिक्षुक पुनर्वास योजना गुजरात में नहीं चल रही है ?
फिर एक ठंडी सांस लेकर मन को एकाग्र कर मंदिर की ओर बढ़ा और
द्वारिकाधीश के दर्शन किए। इसके बाद यात्रा का अगला पड़ाव गोपी तालाब था । गोपी तालाब भी द्वारिका तहसील में है।
गोपी तालाब के पीछे मान्यता यह है कि भगवान कृष्ण के विरह में गोपियों ने जल समाधि ली थी। उबड़- खाबड़ सडक़ से होते हुए हम जब गोपी तालाब पहुंचे तो ऐतिहासिक और पुरातत्व के महत्व के इस तालाब की दुर्दशा देख कर सभी हतप्रभ रह गए। आसपास के मकान के सीवरेज का पानी तालाब में जा रहा था। वहां गाइड, और पुरोहित तालाब की महत्ता बता पानी से शुद्धिकरण के लिए कह रहे थे। ऐसा करने की हमारी इच्छा भी थी। लेकिन सीवरेज को देखकर हममें से ज्यादा इसका साहस नहीं कर सके। कुछ खरीददारी के बाद हम वहां आगे निकल गए।
गोपी तालाब के बाद हम बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के लिए रवाना हुए। ये भी द्वारिका जिले में है। यहाँ भी सालभर श्रदालुओं की भीड़ रहती रही है। लेकिन यह धार्मिक स्थल शासन- प्रशासन की उपेक्षा का शिकार रहा है। मंदिर के आसपास भारी गंदगी देखने को मिली। थोड़ी दूर पर सैकड़ों गौवंश कचरा निगलते देखे। जबकि मंदिर के बाहर सामाजिक संस्थाएं गोवंश की रक्षा के लिए स्टाल लगा कर मुक्त हस्त से दान की अपील करते हैं और लोग दान भी देते नजर आ रहे थे ।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की उपेक्षा से हमारी तरह कई श्रद्धालु नाखुश हैं । कुछ स्थानीय लोग बताते हैं कि पहले हाल तो और बुरा था। बाद में टी- सीरीज के संस्थापक गुलशन कुमार ने पांच करोड़ रुपए दान कर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।
पीएम नरेंद्र मोदी हर साल सोमनाथ मंदिर दर्शन के लिए जाते हैं, लेकिन पीएम बनने के बाद नागेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन के लिए नहीं गए। पीएम को शिवभक्त माना जाता है। उन्होंने गुजरात सीएम रहते प्राकृतिक आपदा से क्षति ग्रस्त केदारनाथ मंदिर की मरम्मत का प्रस्ताव दिया था मगर उनके अपने गृह राज्य स्थित ज्योतिर्लिंग की सुध नहीं ली। यद्यपि नौ साल पहले सीएम रहते उन्होंने द्वारिका को जामनगर से अलग कर नया जिला बनवाया था। बावजूद यहां के धार्मिक स्थलों की दुर्दशा साफ दिखाई देती है,वह भी तब जब पिछले 27 साल से हिन्दू वादी भाजपा की सरकार गुजरात में राज कर रही है। कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि यदि पीएम एक दफा भी यहाँ आ जाते तो नागेश्वर उपेक्षित नहीं रहते।
हमें भी लगता है मोदी जी एक बार नागेश्वर दर्शन कर लेते ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो और कांग्रेस के मालिक राहुल गांधी के बयानों पर भारत में तीखी प्रतिक्रियाएं हो रही हैं। पता नहीं, इन दोनों पार्टी-मालिकों के बयानों पर भाजपाइयों को इतने नाराज होने की जरुरत क्या है? जहां तक बिलावल का सवाल है, वह जब छोटा बच्चा था तो अपनी मां बेनजीर के साथ मुझसे मिलने अक्सर दुबई में आया करता था। अब वह अचानक पार्टी का मुखिया और विदेश मंत्री बन गया है। उसके मुंह से यदि कोई अग्निवर्षक बयान नहीं निकलेगा तो पाकिस्तान में उसे कौन गांठेगा?
वह अपने नाना जुल्फिकार अली भुट्टो से भी आगे निकलना चाहता है। इसीलिए उसने अपना उपनाम अपने पिता जरदारी का रखने की बजाय अपने नाना भुट्टो का रख लिया है। भुट्टो कहा करते थे कि भारत से यदि हजार साल भी लडऩा पड़े तो वे लड़ते रहेंगे लेकिन वे कश्मीर लेकर रहेंगे। बेनजीर से मैं जब-जब भी मिला तो मैंने उनसे कहा कि आप कश्मीर लेने के चक्कर में पाकिस्तान खो बैठेंगी। फौज के तले दबे हुए पठान, बलूच और सिंधी आपके देश के कई टुकड़े कर देंगे। मुझे विश्वास था कि बिलावल बड़ा होकर इस मुद्दे पर ध्यान देगा लेकिन उसने न्यूयार्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना कुख्यात आतंकवादी उसामा बिन लादेन से कर दी। अब जबकि प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ और पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान काफी संतुलित बयान दे रहे हैं, बिलावल ने ऐसा अतिवादी बयान देकर अपन छवि बनाई या बिगाड़ी है, वह जरा खुद सोचें।
इसी तरह राहुल गांधी ने तवांग में हुई छुटपुट भारत-चीन मुठभेड़ के बारे में कुछ ऐसी बातें कह दी है कि जो उल्टे बांस बरेली जैसी लगती हैं। उन्होंने पूछा है कि गलवान घाटी कांड के और उसके पहले चीन ने जो हमारी जमीन छीनी है, उसके बारे में मोदी चुप क्यों हैं? राहुल को शायद पता नहीं कि उसके परनाना नेहरुजी के जमाने में हमारी लगभग 38 हजार किमी जमीन पर चीन ने कब्जा कर लिया था और 1962 के युद्ध में भारत को भारी शार्मिंदगी उठानी पड़ी थी। पिछले पांच-छह दशक के शासन-काल में क्या कांग्रेस पार्टी ने उस जमीन की वापसी के लिए कभी कोई ठोस कोशिश की? राहुल के पिताजी प्रधानमंत्री राजीव गांधी तो चीनी नेताओं से गल-मिलव्वल के लिए 1988 में चीन भी पहुंच गए थे। कांग्रेस ने मोदी से तवांग पर सात सवाल पूछे हैं, उनमें से कुछ तो बिल्कुल सही हैं, जो विरोधी दलों को उठाना ही चाहिए लेकिन ये सवाल जिस तरह से पूछे गए हैं, वे भारत के राष्ट्रहितों का अहित तो करते ही हैं और बहादुर फौजियों का मनोबल भी गिराते हैं। कांग्रेस की राजीव गांधी फाउंडेशन का चीन से जो लेन-देन रहा है, वह भी इन बयानों से बराबर उजागर होता है। इसीलिए बिलावल भुट्टो और राहुल गांधी, जैसे युवा नेताओं को इस तरह के विवादास्पद बयान देते समय कुछ अनुभवी सलाहकारों से परामर्श जरुर कर लेना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय मूल के लगभग दो करोड़ लोग इस समय विदेशों में फैले हुए हैं। लगभग दर्जन भर देश ऐसे हैं, जिनके राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री वगैरह भारतीय मूल के हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक तो इसके नवीनतम उदाहरण हैं। भारतीय लोग जिस देश में भी जाकर बसे हैं, वे उस देश के हर क्षेत्र में सर्वोच्च स्थानों तक पहुंच गए हैं। इस समय दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति और महासंपन्न देश अमेरिका हैं।
अमेरिका में इस समय 50 लाख लोग भारतीय मूल के हैं। दुनिया के किसी देश में इतनी बड़ी संख्या में जाकर भारतीय लोग नहीं बसे हैं। इसके कारण भारत से प्रतिभा-पलायन जरुर हुआ है लेकिन अमेरिका के ये भारतीय मूल के नागरिक सबसे अधिक संपन्न, सुशिक्षित और सुखी लोग हैं, ऐसा कई सर्वेक्षणों ने सिद्ध किया है। यदि अमेरिका में 200 साल पहले से भारतीय बसने शुरु हो जाते तो शायद अमेरिका भी मोरिशस, सूरिनाम वगैरह की तरह भारत-जैसा देश बन जाता।
लेकिन भारतीयों का आव्रजन 1965 में शुरु हुआ लेकिन इस समय मेक्सिको के बाद वह दूसरा देश है, जिसके सबसे ज्यादा लोग जाकर अमेरिका में बसते हैं। मेक्सिको तो अमेरिका का पड़ौसी देश है। लेकिन भारत उससे हजारों कि.मी. दूर है। भारत के आप्रवासी प्राय: उत्साही नौजवान ही होते हैं। जो वहां पढऩे जाते हैं, वे या तो वहीं रह जाते हैं या फिर यहां से अनेक सुशिक्षित लोग बढिय़ा नौकरियों की तलाश में अमेरिका जा बसते हैं। उनके साथ उनके माता-पिता भी वहीं बसने की कोशिश करते हैं।
इसके बावजूद भारतीय आप्रवासियों की औसत आयु 41 वर्ष है, जबकि अन्य देशों के आप्रवासियों की 47 वर्ष है। भारत के कुल आप्रवासियों में से 80 प्रतिशत लोग कार्यरत रहते हैं। अन्य विदेशी आप्रवासियों में से जबकि 15 प्रतिशत ही सुशिक्षित होते हैं, भारत के 50 प्रतिशत से अधिक लोग स्नातक स्तर तक पढ़े हुए होते हैं। भारतीय मूल के लोगों की औसत प्रति व्यक्ति आय डेढ़ लाख डॉलर प्रति वर्ष होती है, औसत अमेरिकियों और अन्य आप्रवासियों की वह आधी से भी कम याने सिर्फ 70 हजार डॉलर होती है।
भारतीय लोगों को आप आज के दिन अमेरिका के हर प्रांत और शहर में दनदनाते हुए देख सकते हैं। अब से लगभग 50-55 साल पहले जब मैं न्यूयॉर्क की सडक़ों पर घूमता था तो कभी-कदाक कोई भारतीय ‘टाइम्स स्कवाएर’ पर दिख जाता था लेकिन अब हर बड़े शहर और प्रांत में भारतीय भोजनालयों में भीड़ लगी रहती है। विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों और अध्यापकों की भरमार है।
अमेरिका की कई कंपनियों और सरकारी विभागों के सिरमौर भारतीय मूल के लोग हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज से 24 साल पहले मैंने जो लिखा था, वह भी शीघ्र हो ही जाए। ब्रिटेन की तरह अमेरिका का शासन भी किसी भारतीय मूल के व्यक्ति के हाथ में ही हो। (नया इंडिया की अनुमति से)
-तारण प्रकाश सिन्हा
बगिया के फूल ल सबो भौंरा जुठारे हे साहेब।
कहां ले आरुग फूल लान के चढावंव साहेब।।
गाय के गोरस ल बछरू जुठारे हे ।
कहां के आरूग गोरस लानव साहेब।।
कोठी के अन्न ल सुरही जुठारे हे।
कहां के आरुग चाउर के तस्मई बनानंव साहेब।।
नदिया के पानी ल मछरी जुठारे हे ।
कहा के आरुग जल मय लानव साहेब ।।
आरूग हवे हमर हिरदय के भाव साहेब ।
ओही ल सरधा से तोर चरन म चढावंव साहेब ।।
फूलों को भौरे ने झूठा कर दिया है, दूध को बछड़े ने, अनाज को कीटों ने, नदी के पानी को मछलियों ने...। तो ऐसा क्या है जिसे कोई जूठा न कर सका ? जो पवित्र है ?
वह हृदय के भाव ही हैं, उसे ही गुरु के चरणों में चढ़ाना ठीक होगा।
ये पंथी-गीत के बोल हैं, उसी के भाव हैं।
गुरु की अर्चना का यह तरीका बाबा गुरु घासीदास जी द्वारा बताए गए धर्म के मार्ग जितना ही सरल है। उन्हीं के उपदेशों से हृदय में उत्पन्न होने वाले भावों को उन्हीं को अर्पित कर देने से अच्छा और क्या हो सकता है ? उन्होंने जिन भावों से हृदय को ओत-प्रोत कर दिया है, वे दया, करुणा, ममता, प्रेम, परस्परता के भाव हैं।
बिरले ही संत होंगे जिन्होंने इतनी सहजता के साथ लोगों को बता दिया कि वास्तव में धर्म क्या है। गुरु घासीदास ने कहा- मनखे-मनखे एक समान। इस एक वाक्य में न कोई अलंकार है, न कोई चमत्कार। सीधी-साधी भाषा है, और सीधे-साधे शब्द। लेकिन यह सदियों के आध्यात्मिक अनुभवों का निचोड़ है। जिस बात को वसुधैव कुटुंबकम् कहकर नहीं समझाया जा सका, उसे गुरु घासीदास ने लोक को उसी की बोली में समझा दिया। उन्होंने धर्म के आचरण के बहुत सरल सूत्र दिए, सत्य पर भरोसा कीजिए, सत्य का आचरण कीजिए, प्राणियों के साथ हिंसा मत कीजिए, नशा-व्यभिचार मत कीजिए।
गुरु घासीदास जी ने उपदेश दिया कि जाति-पाति के प्रपंच में मत पड़ो। जिसने इस सृष्टि को बनाया है, वही सतनाम है, उसी को पूजो, उसी की आराधना करो। वे जो कह रहे थे, वह इतना आसान और ग्राह्य था कि देखते ही देखते लाखों लोग उनके अनुयायी हो गए। उनके संदेशों की खुशबू न केवल छत्तीसगढ़ की बल्कि देश की सीमाओं को भी लांघकर बिखर गई। गुरु घासीदास ऐसे समय में हुए, जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। उन्होंने मोक्ष का कोई मंत्र नहीं बताया, स्वर्ग की सीढ़ियां नहीं दिखाई, कहा कि खुद से खुद को मुक्त कर लो, फिर खुद भीतर उतर जाओ, सत्य वहीं पर बसता है। वहीं पर सतनाम है।
बाबा गुरु घासीदास जी को उनकी जयंती पर शत-शत वंदन
-चंदन कुमार जजवाड़े
नशा मुक्ति का जिस प्रकार से नीतीश कुमार ने अभियान चलाया है। आने वाली पीढिय़ों को बचाने के लिए उन्होंने जो बीड़ा उठाया है, मैं उनका बहुत-बहुत अभिनंदन करता हूं बधाई देता हूं।
-नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत (5 जनवरी, 2017)
हमने साथ दिया है आज भी हम साथ हैं और शराबबंदी के पक्ष में हैं। लेकिन इस तरह की शराबबंदी जिसमें लाखों लोगों को जेल जाना पड़े और पूरा राज्य पुलिस राज्य में बदल जाए, उसकी समीक्षा तो मुख्यमंत्री जी को करनी चाहिए।
-सुशील मोदी, राज्यसभा सांसद, बीजेपी (15 दिसंबर, 2022)
दोनों नेता यूं तो भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं। दोनों के नाम में मोदी है। दोनों शराबबंदी के पक्ष में हैं। पर पाँच साल के अंतराल में बिहार के इस क़ानून की तारीफ़ के बाद मामला समीक्षा तक पहुँच चुका है।
एक अहम फर्क ये भी है कि 2017 में नीतीश बीजेपी के साथ बिहार की सत्ता में थे। वहीं 2022 में जब सुशील मोदी ने शराबबंदी कानून की समीक्षा की बात की तो बीजेपी राज्य में नीतीश के खिलाफ यानी विपक्ष में है।
यही वजह है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बीजेपी के बयान में राजनीति की बू आ रही है। और वो ये मानने को तैयार नहीं कि बिहार में शराबबंदी कानून की समीक्षा की जरूरत है।
इसके लिए साफ़ शब्दों में उन्होंने भले ही इनकार नहीं किया, लेकिन पिछले दो दिन के बयान यही दर्शाते हैं।
16 दिसंबर को नीतीश कुमार ने कहा, शराब पीकर और भी राज्यों में लोग मर रहे हैं। शराब पीना गलत है। हम तो कह रहे हैं जो पिएगा, वो मरेगा। दारू पीकर मरने वालों को हम कोई मुआवजा देंगे इसका सवाल ही नहीं उठता।
15 दिसंबर को उन्होंने साफ कहा था कि इस कानून से राज्य की महिलाएं काफ़ी खुश हैं।
शराबबंदी कानून
बिहार राज्य में साल 2016 से शराबबंदी कानून लागू है। बिहार में शराब पीने से लेकर इसे खरीदने बेचने पर भी पाबंदी है।
यहां तक कि कोई व्यक्ति बाहर से भी खऱीदकर अपने पास शराब नहीं रख सकता है।
बिहार में शराब के अवैध कारोबार को रोकने के लिए पुलिस और आबकारी विभाग को जिम्मेदारी सौंपी गई है।
समय और सख़्ती के बावज़ूद भी बिहार में शराबबंदी क़ानून को तोडऩे के मामले कम होने की जगह हर साल बढ़ते जा रहे हैं।
जहरीली शराब से मौतें
यही नहीं बिहार में जहरीली शराब पीकर कई बार लोगों की मौत भी हो रही है।
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार में शराबबंदी लागू होने के बाद से अब तक करीब 300 लोगों की मौत ज़हरीली शराब पीने से हुई है।
बिहार के औरंगाबाद में इसी साल जहरीली शराब पीने से कई लोगों की मौत हो गई थी।
पिछले साल भी अक्टूबर-नवंबर महीने में राज्य के गोपालगंज, सिवान, और चंपारण में एक महीने के अंदर जहरीली शराब पीने से 65 से ज़्यादा लोगों की मौत के मामले सामने आए थे।
इसमें सबसे नया मामला सारण जिले के छपरा का है जहां सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जहरीली शराब से अब तक 30 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और कई लोग गंभीर रूप से बीमार हैं।
इनका इलाज छपरा और पटना के हॉस्पिटल में चल रहा है। आशंका जताई जा रही है इसमें कई लोग बच भी गए तो उनकी आंख की रोशनी ख़त्म हो सकती है।
राजस्व का नुकसान
शराबबंदी की समीक्षा की वकालत करने वाले बिहार को इससे होने वाले राजस्व नुक़सान को भी इसकी एक वजह बताते हैं।
नीतीश कुमार के पुराने सहयोगी और अब जेडीयू से अलग हो चुके आरसीपी सिंह का आरोप है कि शराबबंदी से बिहार को हर महीने करीब छह हजार करोड़ के राजस्व का नुक़सान हो रहा है।
विपक्ष में रहते हुए उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी शराबबंदी से बिहार को हो रहे राजस्व के नुक़सान का मामला उठा चुके हैं।
वहीं बीजेपी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने एक ट्वीट में आरोप लगाया है कि नीतीश कुमार के ही कार्यकाल में बिहार में शराब का टर्नओवर दो सौ करोड़ से चार हजार करोड़ तक पहुंचा था।
कई लोग ऐसा भी मानते हैं कि बिहार में उन अपराधियों की बड़ी कमाई हो रही है जो शराब का अवैध कारोबार करते हैं।
यानी जो राजस्व सरकार के पास पहुंचना था उसका एक बड़ा हिस्सा अपराधियों की जेब में जा रहा है।
बिहार में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल का आरोप है कि इसमें बहुत कमाई है, इसलिए शॉर्टकट में पैसे कमाने के लिए कम उम्र के बच्चे भी शराब की खेप यहां से वहां पहुंचा रहे हैं।
यूं तो इससे पहले आरजेडी अध्यक्ष और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी शराबबंदी को लेकर कई बार सवाल उठा चुके हैं और इसे पूरी तरह फ़ेल बता चुके हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी तो ताड़ी को शराब की कैटेगरी में ही रखने के ख़िलाफ़ हैं।
हाल में शराबबंदी क़ानून पर आरजेडी के विधायक और पूर्व कृषि मंत्री सुधाकर सिंह ने भी सवाल उठाए हैं। उन्होंने इस मामले की जांच सिटिंग जजों की कमेटी के कराने की मांग की है।
इससे पहले वो सदन में नीतीश कुमार के गुस्से को भी ग़लत बता चुके हैं। सुधाकर सिंह कैमूर की रामगढ़ सीट से विधायक हैं।
उनके पिता जगदानंद सिंह आरजेडी के मुख्य रणनीतिकारों में गिने जाते हैं और बिहार आरजेडी के अध्यक्ष भी हैं।
महिलाओं का फायदा
हालांकि नीतीश कुमार सरकार के इस नुक़सान को दूसरी तरह देखते हैं। वो कई बार कह चुके हैं कि शराबबंदी से कई परिवारों का जीवन बेहतर हुआ है।
इससे महिलाओं के ऊपर घरेलू हिंसा कम हुई है और लोग खान-पान या बच्चों की पढ़ाई पर अच्छा ख़र्च कर पा रहे हैं।
नीतीश कुमार शराबबंदी के फैसले को लेकर काफ़ी भावुक भी नजर आते हैं। बुधवार को बिहार विधानसभा में शराबबंदी के मुद्दे पर वो बीजेपी पर बरसते भी नजर आए थे।
वो कई बार शराब पीने पर पाबंदी को गांधी जी की इच्छा से भी जोड़ते रहे हैं।
लेकिन यह भी माना जाता है कि बिहार में महिलाएं नीतीश कुमार के लिए हमेशा से बड़ा बोट बैंक रही हैं। साल 2006 में नीतीश कुमार ने राज्य में महिलाओं के लिए साइकिल योजना की शुरुआत की थी।
पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण की घोषणा करने वाला भी बिहार ही था। उसके बाद ही दूसरे राज्यों में लागू हुआ।
माना जाता है कि इस वजह से महिलाओं ने बड़ी संख्या में नीतीश कुमार के पक्ष में मतदान किया था। साल 2010 के विधानसभा चुनाव के दौरान बिहार में महिला मतदाताओं ने पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा मतदान भी किया था।
महिलाओं का साथ
साल 2016 में नीतीश सरकार ने शराबबंदी क़ानून लागू किया था और इसके पीछे भी वो महिलाओं की मांग ही बताते हैं।
नीतीश कुमार शराबबंदी के पीछे पुरुषों का शराब पीकर घर आना और झगड़े करना, बड़ी वजह बताते हैं।
सीएसडीएस के संजय कुमार बताते हैं, आंकड़ों से दिखता है कि शराबबंदी की शुरुआत में नीतीश कुमार के पक्ष में महिला वोटरों ने वोटिंग की थी। लेकिन पिछले कुछ चुनावों में ऐसा नजर नहीं आ रहा है।
जनता दल यूनाइटेड-बीजेपी गठबंधन को सबसे बड़ी जीत साल 2010 में मिली थी। तब गठबंधन को 39।1 फीसदी मत मिले थे।
सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक़ 2010 के चुनाव में एनडीए को 39 प्रतिशत महिलाओं का वोट मिला था, जो उनके औसत वोट जितना ही था।
2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के राजद से हाथ मिलाया और प्रभावी जीत दर्ज की।
उस चुनाव में 41।8 फीसदी मतों के साथ वो सत्ता में आए। इस चुनाव में भी गठबंधन को, जिसका चेहरा नीतीश कुमार ही थे, 42 फीसदी महिलाओं का ही वोट मिला।
शराबबंदी के बाद महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध?
शराबबंदी के पक्ष में नीतीश कुमार अक्सर यह भी कहते हैं कि इससे महिलाओं के खिलाफ अपराध कम हुए हैं।
गुरुवार को भी नीतीश ने कहा कि पहले शराब पीकर लोग आते थे और घर में महिलाओं के साथ मारपीट करते थे, हमने महिलाओं की मांग पर शराबबंदी की है, वो इससे बहुत खुश हैं।
दूसरी तरफ एनसीआरबी के आंकड़ों को देखें तो 2016 में जिस साल शराबबंदी लागू हुई उस साल महिलाओं के खिलाफ अपराध कम मामले सामने आए थे। लेकिन बाद में ऐसे मामले बढ़ते गए।
भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाले कुल अपराधों में बिहार का प्रतिशत 2016 में घटकर 4 फीसदी हो गया था।
लेकिन फिर वह 2019 में बढक़र 4।6 फ़ीसदी पर पहुंच गया। इस हिसाब से भारत में बिहार राज्य महिलाओं के खिलाफ अपराध में आठवें पायदान पर पहुँच गया।
हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि सरकारी योजनाओं और स्वयं सहायता समूहों की वजह से महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही हैं, इसलिए अब अपने खिलाफ होने वाले अपराध को दर्ज कराने लगी हैं।
राजनीतिक नुकसान
बिहार की राजनीति पर पकड़ रखने वाले जानकार मानते हैं कि कुढऩी उप-चुनाव में शराबबंदी कानून नीतीश कुमार के खिलाफ गया।
वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी ने कुढऩी विधानसभा के नतीजों के बाद बीबीसी से बातचीत में कहा था, शराबबंदी के बाद गिरफ्तार किए गए लोगों में बड़ी संख्या कमज़ोर तबके के लोगों की है। पिछड़े वर्ग के लाखों लोग जेल में हैं और यह नाराजगी कुढऩी में हुई वोटिंग में भी रही है।
इतना ही नहीं बिहार में आबकारी विभाग और पुलिस ने शराबबंदी कानून को तोडऩे के जुर्म में अब तक साढ़े छह लाख से ज़्यादा लोगों को गिरफ्तार किया है। इनमें करीब चालीस हजार लोग फिलहाल जेल में हैं।
इन मामलों में सजा की दर भी काफी कम है। इंडियन एक्सप्रेस अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस पकड़े गए लोगों में से पांच फीसदी से कम को सजा दिला पाती है।
इस तरह के लाखों मामलों में पुलिस, आरोपी, गवाह या सूचना देने वाले की कोर्ट में गवाही होती है। इस तरह से कोर्ट के समय का बर्बाद होना भी बिहार में एक बड़ी समस्या बताई जाती है।
जहरीली शराब पीकर मरने वाले हों या अवैध शराब के कारोबार में जेल जाने वाले, इनमें बड़ी तादाद गरीबों और दलितों की होती है। सारण में हुई घटना में भी ऐसे लोग सबसे ज़्यादा पीडि़त हुए हैं।
इस वजह से धीरे धीरे नीतीश कुमार को इसका राजनीतिक नुक़सान हो रहा है।
पटना में पीटीआई के पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, शराबबंदी कानून में लोगों की गिरफ्तारी के अलावा जो लोग ज़हरीली शराब से मरते हैं, उन्हें कोई सरकारी मुआवजा भी नहीं मिलता है क्योंकि शराब पीना गैर-कानूनी है। ये सारी बातें अब बैकफायर कर रही हैं। इसलिए नीतीश कुमार को खुद इस बहस में उतरना पड़ा है। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने रिश्वतखोर सरकारी नौकरों के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है। अब उनका अपराध सिद्ध करने के लिए ऐसे प्रमाणों की जरूरत नहीं होगी कि रिश्वत देनेवाला और लेनेवाला खुद स्वीकार करे कि मैंने रिश्वत दी है और मैंने रिश्वत ली है। यदि वे खुद स्वीकार न करें या अपने कथन से पलट जाएं या उनमें से कोई मर जाए तो भी अदालत को न्याय जरूर करना होगा। अदालतों को चाहिए कि वे दूसरे प्रमाणों की खोज भी करें।
जैसे गवाहों से पूछें, बैंक के खाते तलाशें, रिश्वतखोरों की चल अचल-संपत्तियों का ब्यौरा इक_ा करवाएं, उनके परिवारों के रहन-सहन और खर्चों का कच्चा चि_ा तैयार करवाएं, सरकारी कागजातों को खंगलवाएं आदि कई प्रमाणों के आधार पर रिश्वत के लेन-देन को पकड़ा जा सकता है। अब तक रिश्वत के कई मामले रास्ते में ही बिखर जाते रहे हैं, लेकिन रिश्वत विरोधी कानून की इस नई व्याख्या के कारण अब ज्यादा मामले पकड़े जा सकेंगे।
लेकिन भारत में रिश्वतखोरी याने भ्रष्टाचार तो राजनीतिक शिष्टाचार बन चुका है। इसका बोलबाला तो हमारे पड़ौसी देशों में इतना ज्यादा है कि हम भारतीय उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। कुछ देशों के नेताओं, फौजियों और अफसरों के ठाठ-बाट देखकर आप अपने आप से पूछेंगे कि ये लोग क्या अरबपति या खरबपति हैं? नेताओं की चोटी से निकली भ्रष्टाचार की वैतरणी नदी सरकार के चपरासी तक सबको गंदा करती चली जाती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति पर गंभीर चिंता जताई है। स्वयं न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार की इस वैतरणी में गोता खाने से बाज नहीं आ पाई है। भ्रष्टाचार ने हमारी राजनीति, प्रशासन, न्याय और सार्वजनिक जीवन को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल जो कानूनी सुधार सुझाया है, उसका थोड़ा-बहुत असर जरूर होगा लेकिन भ्रष्टाचार को यदि जड़-मूल से खत्म करना है तो हमें कई अत्यंत कठोर कदम उठाने होंगे।
सबसे पहले तो नेताओं और अफसरों और उनके परिजन की चल-अचल संपत्ति तथा आय-व्यय का ब्यौरा प्रतिवर्ष सार्वजनिक करना अनिवार्य किया जाए। दूसरा, भ्रष्ट नेताओं और अफसरों पर चलनेवाले मुकदमों के फैसलों की समयावधि तय की जाए। तीसरे, कुछ अत्यंत भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और भ्रष्टाचार करनेवालों को आजीवन कारावास और फांसी की सजा भी दी जाए ताकि भावी भ्रष्टाचारियों के रोंगटे खड़े हो जाएं। चौथा, देश में सादगी और अपरिग्रह के आदर्शों का प्रचार खुद राजनेता, संपन्न सेठ लोग, नौकरशाह, धर्मध्वजीगण भी करें और अपना जीवन वैसा ही बनाकर लोगों के सामने जीवंत उदाहरण भी पेश करें। (नया इंडिया की अनुमति से)
वैसे गेरुआ तो महात्मा बुद्ध के कासाय का मोहक का रंग है! जोगिया तो नाथ सिद्ध जोगियों का खिलता हंसता रंग है।! राजस्थान के रण बांकुरों का बलिदानी रंग है केसरिया!
जोगनों का रंग है जोगिया। यशोधरा गेरुआ पहन कर प्रतीक्षा करती थी अपने सिद्धार्थ की! पढ़ो और देखो रंग के मामले में पुराने लोग कितने स्वायत्त हैं।
भगही वालों का भगवा बौद्धों से लिया उधार है। यह कासाय रंग श्रमण परंपरा की देन है। संत परंपरा में गेरुआ की अवधारणा नहीं थी। संन्यास में मुंडित होकर कैसे भी वस्त्र पहनने की प्रथा थी। नाथ सम्प्रदाय के जोगी सनातन के संन्यासियों से अलग दिखने के लिए ऐसा बाना धारण किए!
दुर्वासा केवल चिथड़े पहनते थे। "दुर वासन" यानी चिथड़े पहनने वाला ! उनको चिथड़े कहां से मिलते रहे होंगे? किसी भी साधु, संत सन्यासी, फकीर को कपड़े और भोजन गृहस्थ ही देते हैं। दुर्वासा को जोगिया या बाघंबर पहनाना उनका अपमान है। लेकिन इस पर भी आजादी है कि पहनाने वाला कुछ भी पहनाए!
तुम्हारी नैतिकता को धक्का न लगे तो बुद्ध को आम्रपाली भी वस्त्र दान देती थी और महात्मा बुद्ध ने ससम्मान उसे ग्रहण किया है। तुम चाहो तो आम्रपाली को कुछ भी मानो लेकिन वह बुद्ध के लिए आदरणीया थी। बुद्ध भी केवल एक रंग में नहीं बंधे थे। जब जैसा मिला पहना। उनके सामने हीनयान महायान और अन्य मत विभाजन नहीं हुए थे!
हमारी सौंदर्य परंपरा में नायिकाएं हर रंग पहनती रही हैं। वस्त्र भी ऋतु के हिसाब से पहने जाते थे। सीता का जिस दिन हरण हुआ वे गाढ़े पीले रंग की साड़ी पहने थीं। गाढ़ा पीला जोगिया ही है भाई!
अब हम कहें कि रावण जब सीता का हरण करेगा तो सिनेमा वाले उनको जोगिया या पीला कपड़ा नहीं पहनाएं! गजब करते हो भाई। कहां से लाते हो इतना अविवेक?
अब यह बताए कोई कि ये कौन लोग हैं? जो हर चीज के माई बाप बन बैठे हैं! इनके पापा का देश है क्या? इनसे पूछ कर पहनो पहनाओ। इनसे पूछ कर खाओ खिलाओ। इनसे पूछ कर पढ़ो पढ़ाओ। इनसे पूछ कर मिलो मिलाओ। इनसे पूछ कर आओ जाओ। इनसे पूछ कर उठो बैठो। जैसे देश इनके पापा की जागीर हो! और संविधान इनकी खाप से चलता है! ये हैं कौन!
सीता वनवास में हों या अयोध्या में या लंका में, किसी दशरथ राम या रावण की हैसियत नहीं हुई उनके वस्त्र तय करने की! तुम कौन हो! जिस देवी, जिस मां, जिस लड़की, जिस स्त्री, जिस हीरोइन, जिस डांसर, जिस धाविका, जिस तैराक को जो पहनना होगा पहनेगी! तुम निर्धारित करने वाले कौन हो? यह अधिकार कहां से मिला है?
हमारे यहां तो न पहनने की भी आजादी रही है। लाखों "नागा" संत नहीं पहनते। लेकिन वे भस्म पहनते हैं। चाहें तो वह भी न पहने! जो कुछ नहीं पहनते हमने उनको आकाश रूपी वस्त्र पहना दिया है। वे हमारे आदरणीय "दिगम्बर" कहे जाते हैं!
नागा और दिगम्बर एक ही हैं। बस दो विचार परंपरा में हैं! बुद्ध का श्रमण और नाथ सम्प्रदाय का जोगी एक ही रंग में रंगे हैं। किंतु विचार भिन्न है। हम इस विचार भिन्नता को ऐसे नहीं मिटने देंगे। यही हमारा लोकतंत्र हमको देता है।
अपने एक महात्मा ने लंदन के साम्राज्य और वैभव का सामना एक धोती या कहें लंगोटी पहन कर किया था। जब हमारे उस पुरखे ने सम्राटों के वस्त्र विन्यास और नियमावली की फिक्र नहीं की बल्कि अपने विचार पर अडिग रहा। तो हम क्यों करें?
जान लो वस्त्र बोझ और बंधन नहीं बल्कि सौंदर्य, सुविधा और सोच का विषय भी है। कपड़े का रंग, क्वालिटी, आकार, रूप कभी किसी संकट का कारण नहीं हो सकता!
इसलिए कह रहा हूं, चलो कुछ पढ़ो लिखो! इतना अधिक जाहिल होना लोकतंत्र और तुम सब के घरेलू स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं!
-बोधिसत्व, मुंबई
-दिनेश चौधरी
अर्जेंटीना फुटबॉल में अपना दोस्त है और हॉकी में दुश्मन। वह शायद विश्वकप का कोई मैच था, जिसमें भारतीय हॉकी टीम को सेमी फायनल में पहुँचने के लिए अर्जेंटीना को हराना जरूरी था। अर्जेंटीना ने मैच ड्रा खेलकर भारत को बाहर कर दिया और इसके बाद से अपन ने उस मुल्क को दिल से माफ नहीं किया।
मैराडोना बहुत बाद में आए। कहा, ‘जाने भी दो! ऐसी दुश्मनी ठीक नहीं।’ तब से उनसे दोस्ती रही पर सिर्फ फुटबॉल के मैदान में। हॉकी में अब भी भिड़ंत होती है और अपना पसंदीदा खेल वही है। भला हो नवीन पटनायक का, जिनके चलते अपन अब जीतने भी लगे हैं। पता नहीं सिर्फ आस्ट्रेलिया के सामने क्या हो जाता है?
फुटबॉल से अपना कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। किसी के भी हारने पर जबरन दु:खी हो सकते हैं और किसी के भी जीतने पर खुशियाँ मना सकते हैं। और इसका भी मन न हो तो सन्यासियों की तरह के तटस्थ भाव से इस खेल को वैसे देख सकते हैं, जैसे वे इस असार-संसार को देखते हैं। वे शोक, दु:ख, प्रसन्नता, राग-विराग से ऊपर उठ जाते हैं। ‘बाजीचा-ए-अतफाल है दुनिया मिरे आगे/ होता है शब-ओ-रोज तमाशा मिरे आगे।’ मिर्जा गालिब ने यह शेर वल्र्ड कप फुटबॉल देखते हुए ही लिखा था।
फुटबॉल अपने बचपन का खेल है। गिल्ली-डंडा और दीगर देसी खेलों के अलावा अपने गाँव में यही एक खेल था जो ‘इंटरनेशनल’ था। दूसरे गाँवों से टीमें आती थीं और हारकर जाती थीं। इन जीतों के कारण अपन ने उन्हीं दिनों में 56 इंच का सीना हासिल कर लिया था जो गैरों को बहुत बाद में मिला। अपना हीरो सरजू था। फुल बैक। बारिश के दिनों में उसकी दिलचस्पी खेलने में कम और फिसलने में ज्यादा होती थी। वह उन गेंदों पर भी हैडिंग लगाता था, जिस पर दूसरे खिलाड़ी किक लगाते हैं। आगे फुटबॉल का मतलब बस मोहन बागान और ईस्ट बंगाल रहा, जिनके हारने-जीतने की खबरें अपन ‘खेल-समाचार’ में इंदु वाही से सुन लिया करते थे। अब अर्जेंटीना और फ्रांस भी अपने लिए ईस्ट बंगाल और मोहन बागान की तरह ही है। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर!
आगे जसदेव सिंह के कारण हॉकी से दोस्ती हुई। अपना पसंदीदा खेल आज तक यही है, हालांकि विदेशी टीमों ने एशियाई हॉकी को खत्म करने के लिए इस खेल को भी फुटबॉल की तरह का बना डाला। वरना वो भी क्या दिन थे जब इधर मोहम्मद शाहिद होते थे और उधर हसन सरदार। अशोक और गोविंदा का जिक्र तब अमोल पालेकर की ‘गोल माल’ में भी हो जाया करता था। हॉकी आम हिंदुस्तानी का खेल है। जशपुर, रायगढ़, भोपाल से ढेर खिलाड़ी निकल आते थे। बाजार को आम भारतीयों का खेल पसन्द नहीं आया। उसने ‘भगवान’ और ‘रत्न’ गढ़े और खेलों को खेल के मैदान से बाहर कर दिया।
बहरहाल, आधी रात को नींद खराब करने की मेरी बात का ‘फीफा’ ने गंभीरता से संज्ञान लिया है और अब आगे के मैच शाम साढ़े आठ बजे होंगे। आप चाहें तो मुझे दिल से धन्यवाद दे सकते हैं!
-राम पुनियानी
इंडियन एक्सप्रेस (3 दिसंबर 2022) में प्रकाशित अपने लेख ‘नो योर हिस्ट्री’ में आरएसएस नेता राम माधव लिखते हैं कि राहुल गांधी, अम्बेडकर और सावरकर को नहीं समझते। वे राहुल गांधी द्वारा मध्य प्रदेश के महू में दिए गए भाषण की भी आलोचना करते हैं। अम्बेडकर की जन्मस्थली महू में बोलते हुए राहुल ने कहा था कि आरएसएस अम्बेडकर के प्रति नकली और झूठा सम्मान दिखा रहा है और असल में तो उसने अम्बेडकर की पीठ में छुरा भोंका था।
राहुल गांधी को गलत बताते हुए राम माधव, अम्बेडकर के पत्रों और लेखों आदि के हवाले से बताते हैं कि दरअसल गांधी, नेहरू और पटेल जैसे कांग्रेस नेता, अम्बेडकर के विरोधी थे। राम माधव ने लिखा कि राहुल गांधी के दावे के विपरीत कांग्रेस ने अम्बेडकर की छाती में चाकू भोंका था। राम माधव ने अपने लेख की शुरूआत संसद में नेहरू के उस भाषण के हिस्सों से की जिसमें वे अम्बेडकर को श्रद्धांजलि दे रहे हैं और इस आधार पर यह दावा किया कि नेहरू अम्बेडकर के प्रति तनिक भी सम्मान का भाव नहीं रखते थे।
माधव ने जानबूझकर नेहरू के भाषण के उन हिस्सों को छोड़ दिया जिनमें वे अम्बेडकर की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। जिस भाग को माधव ने छोड़ दिया है उसमें नेहरू कहते हैं, ‘‘...परंतु वे एक घनीभूत भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे उन दमित वर्गों की भावनाओं के प्रतीक थे जिन वर्गों को हमारे देश की पुरानी सामाजिक प्रणालियों के कारण बहुत कष्ट भोगने पड़े। हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि यह एक ऐसा बोझा है जिसे हमें ढोना होगा और हमेशा याद रखना होगा...परंतु मुझे नहीं लगता कि भाषा और अभिव्यक्ति के तरीके के अतिरिक्त उनकी भावनाओं की सच्चाई को कोई भी चुनौती दे सकता है। हम सबको इस भावना को समझना और अनुभव करना चाहिए और शायद इसकी जरूरत उन लोगों को ज्यादा है जो उन समूहों और वर्गों में नहीं थे जिनका दमन हुआ।’ इससे यह साफ है कि नेहरू भारत में सामाजिक परिवर्तन के मसीहा अम्बेडकर का कितना सम्मान करते थे।
गांधीजी और अम्बेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट को अक्सर कांग्रेस और अम्बेडकर के बीच कटु संबंध होने के प्रमाण के रूप में उद्धत किया जाता है। जहां अंग्रेज ‘बांटो और राज करो’ की नीति के अंतर्गत अछूतों को 71 पृथक निर्वाचन मंडल देना चाहते थे, वहीं पूना पैक्ट के अंतर्गत उनके लिए 148 सीटें आरक्षित की गईं। यरवदा जेल, जहां अम्बेडकर, महात्मा गांधी से मिलने गए थे, वहां दोनों के बीच संवाद उनके मन में एक-दूसरे के प्रति सम्मान के भाव को प्रदर्शित करता है। महात्मा गांधी ने कहा, ‘‘डॉक्टर, मेरी तुम से पूरी सहानुभूति है और तुम जो कह रहे हो उसमें मैं तुम्हारे साथ हूं।’ इसके जवाब में अम्बेडकर ने कहा, ‘‘हां महात्मा जी, अगर आप मेरे लोगों के लिए अपना सब कुछ दे देंगे तो आप सभी के महान नायक बन जाएंगे।’
गोलमेज सम्मेलन के पहले अम्बेडकर ने महाड चावदार तालाब आंदोलन किया। इस आंदोलन को ‘सत्याग्रह’ कहा गया जो कि प्रतिरोध का महात्मा गांधी का तरीका था। मंच पर केवल एक फोटो थी जो कि महात्मा गांधी की थी। यहीं पर मनुस्मृति की प्रति भी जलाई गई। यह वही मनुस्मृति है जिसकी प्रशंसा में सावरकर और गोलवलकर ने जमीन-आसमान एक कर दिया था। सावरकर और गोलवलकर, माधव के विचारधारात्मक पूर्वज हैं। मनुस्मृति के बारे में सावरकर ने लिखा ‘‘मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है। यह ग्रंथ प्राचीनकाल से ही हमारी संस्कृति और परंपरा तथा आचार-व्यवहार का आधार रहा है। यह पुस्तक सदियों से हमारे देश के आध्यात्मिक जीवन की नियंता रही है। आज भी करोड़ों हिन्दुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है, वे मनुस्मृति पर ही आधारित हैं। आज भी मनुस्मृति हिन्दू विधि है। यह बुनियादी बात है।’
यह सही है कि अम्बेडकर ने पतित पावन मंदिर के दरवाजे सभी के लिए खोलने और अंतर्जातीय सहभोजों को प्रोत्साहन देने के लिए सावरकर की प्रशंसा की थी। परंतु इसे मनुस्मृति के प्रति सावरकर की पूर्ण प्रतिबद्धता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सावरकर के ये दो सुधार उनके व्यक्तिगत प्रयास थे। उनके सचिव ए. एस. भिड़े ने अपनी पुस्तक ‘विनायक दामोदर सावरकर्स वर्लविंड प्रोपेगेंडा’ में लिखा है कि सावरकर ने इस बात की पुष्टि की थी कि उन्होंने ये काम अपनी निजी हैसियत से किए हैं और वे इनमें हिन्दू महासभा को शामिल नहीं करेंगे।
जहां तक मंदिरों में अछूतों के प्रवेश का प्रश्न था, उसके बारे में लिखते हुए सावरकर ने 1939 में कहा कि ‘‘हम पुराने मंदिरों में अछूतों इत्यादि को आवश्यक रूप से प्रवेश की इजाजत देने से संबंधित किसी कानून का न तो प्रस्ताव करेंगे और न ही उसका समर्थन करेंगे। अछूतों को वर्तमान परंपरा के अनुरूप उस सीमा तक ही प्रवेश की इजाजत दी जा सकती है जिस सीमा तक गैर-हिन्दू प्रवेश कर सकते हैं।’’
राम माधव को शायद याद नहीं है कि अम्बेडकर ने सावरकर और जिन्ना की तुलना करते हुए लिखा था कि ‘‘यह अजीब लग सकता है परंतु सच यही है कि एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर एक-दूसरे के विरोधी होते हुए भी दरअसल मिस्टर सावरकर और मिस्टर जिन्ना इस मुद्दे पर पूर्णत: एकमत हैं। वे न केवल एकमत हैं वरन् जोर देकर कहते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं- हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र।’
जहां तक अम्बेडकर को देश की पहली कैबिनेट में शामिल किए जाने का प्रश्न है, माधव का कहना है कि जगजीवन राम के जोर देने पर अम्बेडकर को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। सच यह है कि नेहरू और गांधी दोनों का यह दृढ़ मत था कि आजादी कांग्रेस को नहीं वरन् पूरे देश को मिली है और इसलिए पांच गैर-कांग्रेसियों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था।
गांधीजी न केवल चाहते थे कि अम्बेडकर कैबिनेट का हिस्सा बनें वरन् वे यह भी चाहते थे कि अम्बेडकर संविधान सभा की मसविदा समिति के मुखिया हों।
माधव के पितृ संगठन आरएसएस ने नए संविधान की कड़ी आलोचना की थी। संविधान पर तीखा हमला बोलते हुए संघ के मुखपत्र ‘आर्गनाईजर’ के 30 नवंबर 1949 के अंक में प्रकाशित संपादकीय में कहा गया था, ‘परंतु हमारे संविधान में प्राचीन भारत की अद्वितीय संवैधानिक विकास यात्रा की चर्चा ही नहीं है। स्पार्टा के लाइकरर्जस और फारस के सोलन से काफी पहले मनु का कानून लिखा जा चुका था। आज भी दुनिया मनुस्मृति की तारीफ करती है और वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है। परंतु हमारे संविधान के पंडितों के लिए इसका कोई अर्थ ही नहीं है।’
अम्बेडकर को उनके द्वारा तैयार किए गए हिन्दू कोड बिल को कमजोर किए जाने से गहरी चोट पहुंची थी। कांग्रेस के भी कुछ तत्व इसके खिलाफ थे, परंतु मुख्यत: आरएसएस के विरोध के कारण हिन्दू कोड बिल के प्रावधानों को कमजोर और हल्का किया गया। इससे इस महान समाजसुधारक को गहन पीड़ा हुई और अंतत: उन्होंने इसी मुद्दे पर मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दे दिया।
अम्बेडकर को यह स्पष्ट एहसास था कि हिन्दू धर्म के आसपास बुना हुआ राष्ट्रवाद प्रतिगामी ही होगा। भारत के विभाजन पर अपनी पुस्तक के दूसरे संस्करण में वे लिखते हैं, ‘‘अगर हिन्दू राज यथार्थ बनता है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह भारत के लिए सबसे बड़ी विपदा होगी। हिन्दू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है और इसी कारण वह प्रजातंत्र से असंगत है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’
अम्बेडकर जाति के विनाश के हामी थे जबकि आरएसएस ने विभिन्न जातियों के बीच समरसता को प्रोत्साहन देने के लिए सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की है। आज राम माधव की संस्था भले ही अम्बेडकर की मूर्तियों पर माल्यार्पण कर रही हो परंतु राहुल गांधी ने जो कहा है वह तार्किक है। हमें इतिहास का अध्ययन तर्क और तथ्यों के आधार पर और सभी परिस्थितियों और स्थितियों को समग्र रूप से देखते हुए करना चाहिए। इतिहास के कुछ चुनिंदा हिस्सों के आधार पर और मूलभूत तथ्यों को नजरअंदाज कर हम किसी का भला नहीं करेंगे। (navjivanindia.com)
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
-अपूर्व गर्ग
लाइब्रेरी से एक-एक कर किताबें जब अलमारी से उतारता हूँ तो अपने पापा के साथ यादों का सफर शुरू हो जाता है. दरअसल , किताबें वो टिकट हैं जो स्मृति की यात्रा करवाती हैं.
बरसों से घर का हिस्सा रहीं किताबों में वो यादें वो सपने होते हैं जो न रहे लोगों के बिलकुल साथ होने का अहसास दिलाते हैं.
हमारा घर सिर्फ रेत, ईंट, काँक्रीट से नहीं किताबों से ज़्यादा बना है. किताबें बहुत पुरानी हैं इसलिए घर की बुनियाद भी पक्की है. विविध तरह की किताबें एक साथ बहुत ख़ूबसूरती से हैं इसलिए खूबसूरत से घर में विविधता है, एकता है ..
घर ज़रूर बदला आगे भी बदल सकता है पर किताबें साथ रहीं. घर के लोग न रहे पर उनकी महक हर अच्छी पुस्तक में हम महसूस करते हैं.
किताबों को हमेशा यथा संभव प्राथमिकता दी गयी. सरकारी घर में रहते वहां की दीवारें और वातावरण कई बार प्रतिकूल था किताबों को नुक़सान भी पहुंचा फिर भी अपनी तरफ से पूरी कोशिशें की.
घर जब बनवाया तो पहले लाइब्रेरी का काम हुआ, दरअसल लाइब्रेरी के लिए बेसमेंट बनवाना तय किया था ...ये और बात है एक बार फिर लाइब्रेरी को लेकर प्रयासरत हैं.
हमारी लाइब्रेरी में सारी किताबें नहीं हैं. ढेर सारी जो बेहद ज़रूरी हैं ऐसी किताबें भी नहीं हैं पर इसके बावज़ूद बहुत महत्वपूर्ण किताबें ज़रूर हैं. आज़ादी से पहले से लेकर अब तक की अच्छी ज्ञानवर्धक, विचारोत्तेजक किताबें साहित्य मौजूद है.
120 साल पुरानी पुस्तकें भी हैं. जैसे God and the agnostics 1903 में लंदन से Swan sonnenschein & co से प्रकाशित हुआ था.. इसकी प्रिंटिंग देखिये, 120 बरस बाद भी क्वालिटी देखिये, मान जायेंगे. इसी तरह John Mulgan -Davin की इंग्लिश लिटरेचर जो ऑक्सफ़ोर्ड से 1947 को प्रकाशित हुई थी, हर दृष्टि से लाजावाब है.
लंदन ही नहीं अपने देश में देखिये आज़ादी से पहले 'नया साहित्य' पत्रिका किताब के रूप में प्रकाशित होती है ,जिसके संपादन मंडल में नरेंद्र शर्मा, अमृत लाल नागर, यशपाल, शिवदान सिंह चौहान, शमशेर आदि थे. इस 'नया पथ ' के स्तर को शायद ही आज तक कोई पत्रिका-लघु पत्रिका छू पायी हो, प्रिंटिंग और पन्नों की क्वालिटी भी शानदार.
सुप्रसिद्ध साहित्यकार लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक राजेंद्र यादव कविता भी लिखते थे कभी. राजेंद्र यादव का कविता संग्रह 'आवाज़ तेरी है ' 1960 में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हुआ था.
ये पुस्तक उन्होंने घनश्याम अस्थाना को समर्पित की थी. इसी तरह उन्होंने लौरेंस बिनयन की पुस्तक 'अकबर' का अनुवाद 1963 में किया था. ये पुस्तकें क्या आपने पढ़ी ? कितने लोगों के पास होंगी ऐसी दुर्लभ पुस्तकें ?
ऐसी ही ढेर पुस्तकें हमारी लाइब्रेरी की एक -एक पवित्र ईंट की तरह है जिस पर हमारी लाइब्रेरी आधारित है.
जो 'हिन्दू राष्ट्र का नव निर्माण' करना चाहते हैं, आचार्य चतुरसेन की 1948 में प्रकाशित जैसी पुस्तकें हैं तो सोवियत रूस के रादुगा -प्रगति प्रकाशन की सभी पुस्तकें भी हैं, एक सूची मैंने पोस्ट भी की थी. जब सरकारी घर में थे तो एक समय ऐसा भी आया जब कभी-कभी इस पोस्ट के साथ लगी तस्वीर सा दृश्य भी बनता था. बनता क्या था ये मेरे उस घर की ही तस्वीर समझिये. तब ये तय हुआ फिलहाल और किताबें नहीं आएँगी नए घर में लाइब्रेरी बनने के बाद ही आएँगी. पर उस ज़माने में रद्दी के कारोबार से जुड़े लोग जानते थे शहर में अच्छी-दुर्लभ पुस्तकें किसी दी जाए. लिहाज़ा कॉलेज से आते वक़्त वो पापाजी को पुस्तकें देते और ये पुस्तकें फल और सब्ज़ियों के बीच करीने से रखी जातीं ताकि किसी को ख़बर न हो पर इनका प्रवाह रुका नहीं .... तस्वीर से ये भी जानिये कि इस स्थिति में आने के बाद भी पुस्तकों का शुभागमन होता रहा. इसके बावज़ूद एक बार दूसरे शहर 'दार्जलिंग चाय ' की पेटियां आयीं. चाय की पेटियां थीं कोड वर्ड 'चाय ' थी ....समझ सकते हैं पेटियों में कौन सा अनमोल खज़ाना होगा ?
लाइब्रेरी जो बेहद परिश्रम, प्यार और मेहनत से बनी इसकी छोटी सी कहानी इसलिए सुनाई ताकि कुछ लोग /दोस्त समझ सकें " किताबें भी प्रेम की कैंची है"
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र सरकार ने एक 13 सदस्यीय आयोग बना दिया है, जिसका काम यह देखना है कि देश में जितनी भी अंतरजातीय और अन्तर्धामिक शादियां होती हैं, उन पर कड़ी निगरानी रखी जाए। यदि उनके रिश्तेदारों या पति-पत्नी के बीच हिंसा या अनबन की शिकायतें आएं तो उन पर ध्यान दिया जाए। इस आयोग की अध्यक्षता भाजपा के महिला और बालविकास मंत्री मंगलप्रभात लोढ़ा करेंगे। इस आयोग का उद्देश्य यह बताया जा रहा है कि इस तरह की शादियों पर कड़ी निगरानी रखकर यह आयोग उनके विवादों को सुलझाने की कोशिश करेगा और औरतों के अधिकारों की रक्षा करेगा।
यह आयोग उक्त प्रकार की शादियों की सारी जानकारियां और आंकड़े भी इक_े करेगा। इस अपने ढंग के आयोग की स्थापना देश में पहली बार महाराष्ट्र सरकार ने की है, जो भाजपा और शिवसेना (नई) के गठबंधन से बनी है। इन दोनों पार्टियों ने लव-जिहाद के खिलाफ जिहाद छेड़ रखा है। वास्तव में छल-कपट से कोई भी शादी करे और धर्म-परिवर्तन की कोशिश करे तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई जरूरी है। लेकिन जो शादियां शुद्ध प्रेम और पारस्परिक आकर्षण के आधार पर होती हैं, क्या उनके लिए भी यह आयोग अभिशाप नहीं बन जाएगा?
पता नहीं महाराष्ट्र की श्रद्धा वालकर और आफताब की शादी के पीछे असली प्रेरणा क्या थी? यह आयोग बनाया ही गया है, श्रद्धा वालकर और आफताब कांड के संदर्भ में। इस आयोग के घोषित उद्देश्य में तो कोई बुराई नहीं दिखती लेकिन ऐसा लगता है कि इससे जितने लाभ हो सकते हैं, उनसे ज्यादा हानियां होंगी। यह आयोग गलत धारणाओं पर ही आधारित है। सबसे पहला प्रश्न यह है कि क्या औरतों पर जुल्म तभी होता है, जबकि उनकी शादी गैर-जाति या गैर-धर्म के आदमी से होती है? क्या समजातीय और समधार्मिक विवाहों में किसी स्त्री पर कोई जुल्म नहीं होता?
यदि भाजपा और शिवसेना के नेता स्त्री के अधिकारों के प्रति सजग हैं तो सिर्फ विषम विवाहों पर ही उनकी कोप-दृष्टि क्यों है? यदि वे विषम विवाहों के आंकड़े इक_े करेंगे तो उनके कारण परिवारों में विषमता की दुर्भावना बढ़ेगी और उनकी संतानों के भावी जीवन को भी वह प्रभावित करेगी। वास्तव में हमें ऐसे शक्तिशाली और एकात्म भारत का निर्माण करना है, जिसमें जाति और धर्म से भी ज्यादा महत्व मनुष्य का हो।
कोई भी मनुष्य अपनी मर्जी से जाति या धर्म में पैदा नहीं होता है। ये तो उस पर तब से थोप दिए जाते हैं, जब उसे खुद अपने नाम का भी पता नहीं होता। यह आयोग मनुष्य को जातीय और धर्म के सींखचों में बांधे रखने का एक नया पैंतरा सिद्ध होगा। जाति और धर्म से ऊपर उठकर शुद्ध प्रेम या आकर्षण से प्रेरित होकर शादी करनेवाले लोग डर के मारे दुबक जाएंगे। बेहतर तो यही हो कि हमारी सरकारें अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाहों को पुरस्कृत, प्रोत्साहित और समाद्दत करें ताकि भारत एक सशक्त, संपन्न और भेदभावरहित देश बन सके। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
समझ में नहीं आता कि तवांग क्षेत्र में हुई भारतीय और चीनी फौजियों की मुठभेड़ पर विपक्ष ने संसद में इतना हंगामा क्यों खड़ा कर दिया। यदि चीनी सैनिक हमारी सीमा में घुस जाते और हमारी जमीन पर कब्जा कर लेते तो यह हमारी चिंता का विषय जरुर होता लेकिन यदि इसमें भी सरकार की लापरवाही या कमजोरी होती तो विपक्ष का हंगामा जायज होता। 9 दिसंबर को घटी इस घटना की खबर ने एक सप्ताह बाद तूल पकड़ा है, यह तथ्य ही यह बताता है कि इसे लेकर संसद की कार्रवाई का बहिष्कार करना ज़रा ज्यादा चतुराई दिखाना है।
इन दिनों सरकार को लताड़ने के लिए कांग्रेस और विपक्ष के पास कोई खास मुद्दे नहीं हैं। इसीलिए तवांग के मामले को तूल दिया जा रहा है। विपक्ष का काम सरकार को निरंतर पिन चुभाते रहना है, इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन उसे यह भी सोचना चाहिए कि चीन से पिटने की मनमानी व्याख्या का प्रचार करने से हमारे सैनिकों पर कितना बुरा असर पड़ेगा। गलवान, तवांग, लद्दाख, अरूणाचल जैसे बर्फीले इलाकों में हमारे सैनिकों ने चीनी घुसपैठियों को जिस तरह से खदेड़ा है, उसके कारण उनका उत्साहवर्द्धन करने की बजाय हमारी संसद से उल्टा संदेश जाना कहां तक उचित है?
रक्षा मंत्री राजनाथसिंह ने संसद में जो तथ्य पेश किए हैं, उनसे तो लगता है कि चीनी सैनिकों ने तवांग में घुसपैठ की जो कोशिश की थी, वह तो विफल हो ही गई है बल्कि यह भी हुआ है कि चीनी फौजी घायल हुए हैं और उनके बहुत-से हथियार छोड़कर उन्हें अपनी सीमा में भागना पड़ा है। मुठभेड़ के बाद दोनों फौजों के कमांडरों के बीच संवाद भी हुआ है और चीन सरकार के प्रवक्ता का कहना है कि चीन सीमांत पर अब शांति है लेकिन हमारा विपक्ष पता नहीं क्यों अशांत है?
जैसे हमारे विपक्ष को कुछ न कुछ शोर मचाने के लिए कोई न कोई बहाना चाहिए, ऐसे ही अमेरिका को कोई न कोई मुद्दा चाहिए, जिसके आधार पर भारत-चीन तनाव का अलाव जलता रहे। भारत और चीन कह रहे हैं कि तवांग पर शांति है लेकिन बाइडन-प्रशासन मुठभेड़ का राग अलाप रहा है। यही रवैया उसका ताइवान पर भी रहा है। भारत सरकार काफी बुद्धिमानी और संयम से काम ले रही है। हमें चीन का मुकाबला करने के लिए सदैव तैयार रहना है लेकिन किसी भी हालत में किसी महाशक्ति का मोहरा नहीं बनना है।
यह सच है कि भारत-चीन सीमांत के क्षेत्रों में चीन अपनी फौजी तैयारी में इधर काफी मुस्तैदी दिखा रहा है लेकिन भारत की तैयारी भी कम नहीं है। भारत-चीन सीमांत इतना सुपरिभाषित नहीं है, जितनी कि कभी ‘बर्लिन वाॅल’ थी, इसीलिए दोनों तरफ से कभी-कभी जान-बूझकर और कभी अनजाने ही अतिक्रमण हो जाता है। इन स्थानीय मुठभेड़ों को जरूरत से ज्यादा तूल देना ठीक नहीं है। दोनों तरफ के फौजियों के बीच संवाद का होना तो अच्छी बात है लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि इस मुद्दे पर मोदी और शी चिन फिंग के बीच, जो गलबहिया मित्र रहे हैं, सीधी बातचीत क्यों नहीं हो रही है? (नया इंडिया की अनुमति से)
-संजय पाण्डेय
कल एक नाटक देखने पृथ्वी थिएटर (जुहू , मुंबई ) गया था नाटक शुरू होने में थोड़ा वक्त था तो तब तक वहाँ की लायब्रेरी में कुछ किताबें ख़रीदने चला गया, जब किताबों का बिल दे रहा था तो वहाँ काउंटर पे एक सज्जन उस बंदे से बात कर रहे थे जो काउंटर पे बैठा था, वो पूछ रहे थे कि यहाँ जो किताबें बिकने के लिए आती हैं वो आप लोग किससे लेते हैं कोई व्यक्ति अपनी लिखी किताब यहाँ आके बेच सकता है या पब्लिशर्स के ज़रिए आना पड़ता है? उसने कहा सर हम पब्लिशर्स के द्वारा ही किताब लेते हैं किसी व्यक्ति से नहीं, वो थोड़ा उदास हुए और उनने कहा एक मेरी लिखी किताब है पर किसी बड़े पब्लिशर्स ने नहीं छापी है और मुझे यहाँ बुक स्टॉल पर बेचने के लिए देनी है, क्या करना होगा उसके लिए ?
...कैशियर मेरी किताबों की बिलिंग कर रहा था और मैं उन सज्जन को चुपचाप देख रहा था और उनकी बातें सुन रहा था. जब नहीं रहा गया तो मैंने धीरे से पूछ लिया कौन सी किताब लिखी है आपने ? वो धीरे से बोले - इरफ़ान, मैंने कहा अभिनेता इरफ़ान के ऊपर लिखी है, वो बोले हाँ . अब तक मेरा उत्साह बढ़ चुका था, वो बोले पर इरफ़ान की आत्मकथा नहीं है उनके साक्षात्कार हैं, मैंने कहा - मैं देख सकता हूँ? उन्होंने अपने थैले में हाथ डाला और एक प्रति निकाली, मैंने जब लेखक का नाम पढ़ा तो लगा ये नाम तो पढ़ा और सुना हुआ है - अजय ब्रम्हात्मज ..मैं हतप्रभ सा था समझ नहीं आ रहा था कि ये स्वयं अजयजी हैं या कोई और, पत्रकारिता की दुनियाँ का एक बड़ा नाम हैं अजयजी, मैंने फ़िल्मों को ले के इनकी समीक्षाएँ पढ़ीं हैं, मैं सकते में था, मैं उन्हें चुपचाप देख रहा था और उस काउंटर वाले पे ग़ुस्सा भी आ रहा था, फिर मैंने उनसे कहा कि मैं एक प्रति इस किताब की ख़रीद सकता हूँ वो बोले हाँ ले लीजिए, मैंने पूछा आप कहाँ से हैं वो बोले बिहार से ..किताब की क़ीमत 299/ थी, और मैंने उन्हें 500 का नोट दिया और उनने 200 लौटाये. मैं चलने को हुआ तो उन्होंने रोका - जनाब आपके 1 रुपये बचे हैं वो लेते जाइये, मैं उन्हें धन्यवाद बोलके चला आया और आज उसे पढ़ना शुरू किया ..
-Suresh Ediga
·
It's a Messi situation
He is probably one of the greatest to have ever taken to the football field, one of the greatest to ever have touched the ball, dribbled the ball, passed the ball, shot the ball and above all the greatest ever goal scorer.
But greatness came at a heavy cost
At the age of 7-8, he was diagnosed with a growth-hormone deficiency, the treatment of which was expensive.
At the age of 13, Messi left his home country, Argentina, to play in for Barca (FC Barcelona) in Spain
FC Barcelona had also agreed to pay for an expensive growth-hormone treatment that Messi needed.
Messi, also left his three siblings and his mother, while his father accompanied him to Spain
At the age of 17 he scored his first goal for FC Barcelona.
He scored the first hattrick at the age of 19.
FC Barcelona was the only club he ever played for until 2021 when they both separated.
Messi in his very early days for playing for the Argentine national team, had to unlearn and learn.
In his first game for Argentina, he was shown a red card, in just 5 minutes.
If European (Spain) football was all about organized play, South American (Argentine) football was all about creativity and was anything but organized. If you lose the ball to the opponent you have to win it back.
Despite leading the national team to world cup finals in 2014, taking the national team to several Copa America cup finals, the lack of a major international championship cup, has earned Messi a great deal of critics back home in the football frenzy nation.
His effigies were burnt, he was accused of being an immigrant, being European, being Spanish but not an Argentine. After losing the Copa America finals in 2016, he even quit the National team. The agony, the pain, the constant scrutiny despite having done so much, it was just too much for Messi. But Messi came back in 2018 and led the team to the world cup finals when they were on the verge of failing to qualify.
In 2021, Messi led the team to win the Copa America cup.
Now, here in 2022, Messi has taken the team to yet another world cup final.
The sheer joy he brings to all those watching this 90 minute, sometimes exhilarating and sometimes not so, dance of the feet is unparalleled and second to none. The dipping free kicks to the extreme corners evading the high flying and outstretched goalkeepers, the little nudges through the legs, the swirls, the twists, the jerks, the sudden bursts outrunning everyone else.
It's a 90 minute love affair with the football where the football feels secure with Messi, doesn't want to leave him no matter what, until they both reach the final destination - the goal. And even when he does pass the ball, he does with meticulous accuracy, it's as If he doesn't want the football to feel bad that he was letting it go - the player receiving it does so without slowing down, without changing direction and without interrupting his play.
As they say, "Football owes Messi the world cup", for all that he has done for the game and continues to do so every single occasion he takes to the field for yet another display of love and dance with the football, a situation that only Messi can create because it is a Messi situation.
-डॉ. लखन चौधरी
पिछले कुछ सालों से देश में डिजिटल लेनदेन तेजी के साथ बढ़े हैं, बल्कि कहा जाये कि लगातार तेजी के साथ बढ़ रहे हैं। इसमें कोई दो-मत नहीं है। लेकिन सरकार के दावे के बीच यह खबर भी चौंकाने वाली है कि देश में तीन-चौथाई से अधिक यानि 76 फीसदी परिवार अभी भी किराना सामानों की खरीदारी नकदी में कर रहा है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के 342 जिलों के 76 फीसदी लोग किराना, रेस्टोरेंट का बिल और फूड डिजिटल का भुगतान नकदी में कर रहे हैं। फिर सरकार के दावे का क्या है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या डिजिटल लेनदेन की तेजी से बढ़ोतरी को विकास का सूचक माना जा सकता है ? क्या इसे विकास का पैमाना माना जाना चाहिए ? हकीकत यह है कि किसी अर्थव्यवस्था में डिजिटल लेनदेन का बढ़ना विकास का सूचक नहीं होता है।
डिजिटल भुगतान यानि डिजिटल लेनदेन के मामले में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में से एक है। सरकार दावा कर रही है कि डिजिटल भुगतान में भारत विश्वगुरु बन रहा है। देश में रोजाना 28-30 करोड़ डिजिटल लेनदेन हो रहे हैं। सरकार का कहना है कि डिजिटल भुगतान और डीबीटी यानि डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के मामले में भारत विश्व गुरु बन गया है। यहां तक कि जर्मनी जैसा विकसित देश भी डिजिटल तरीके से डीबीटी भुगतान के मामले में भारत से पीछे है। वर्ष 2021-22 में रोजाना 90 लाख से अधिक डीबीटी भुगतान हुए हैं। मंत्रालय के मुताबिक भारत में प्रतिदिन औसतन 28-29 करोड़ डिजिटल ट्रांजेक्शन किया जा रहा है, जो दुनिया में सर्वाधिक है। डिजिटल ट्रांजेक्शन के मामले में चीन दूसरे नंबर पर तो अमेरिका तीसरे नंबर पर है।
डिजिटल भुगतान क्षेत्र में देश में 2022 की दूसरी तिमाही में 36.08 लाख करोड़ रुपये के 20.57 अरब लेन-देन हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार छोटे लेनदेन में भी यूपीआई की बड़ी मात्रा में उपस्थित दर्ज हुई है। रिपोर्ट में बताया गया कि जून 2022 में यूपीआई क्यूआर कोड की संख्या वार्षिक आधार पर 92 फीसदी बढ़कर 19.52 करोड़ के करीब पहुंच गई है। ऑनलाइन क्षेत्रों जैसे ई-कॉमर्स, गेमिंग, यूटिलिटी और वित्तीय सेवाओं में मात्रा के अनुसार 86 फीसदी और मूल्य में 47 फीसदी से अधिक डिजिटल भुगतान हुआ है, जबकि शिक्षा, यात्रा, आतिथ्य और सरकारी क्षेत्र में मात्रा में 14 फीसदी और मूल्य में 53 फीसदी डिजिटल भुगतान हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक सबसे अधिक डिजिटल लेनदेन महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल में हो रहे हैं। शहरों में सबसे अधिक डिजिटल लेनदेन हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, मुंबई और पुणे में हो रहे हैं।
यह तो डिजिटल लेनदेन का पक्ष है, लेकिन असल सवाल यह है कि क्या इसे विकास का पैमाना माना जा सकता है ? क्योंकि अर्थव्यवस्था में विकास के पैमानों से संबंधित जिस तरह की खबरें लगातार आ रही हैं। इससे तो अर्थव्यवस्था में असल विकास की जगह दिखावटी विकास अधिक दिखते हैं। सीएमआईई की रिपोर्ट है कि कोरोना कालखण्ड के पिछले तीन सालों में देश में वेतनभोगियों की संख्या नौ करोड़ से घटकर साढ़े आठ करोड़ रह गई है। वहीं निजी कंपनियों में वेतन तीन गुना बढ़ गया है। इसका मतलब है कि कर्मचारियों की संख्या घटने या कम होने के बावजूद वेतन पर होने वाले खर्चों में भारी वृद्धि हो रही है। दूसरी ओर देश की आधी आबादी महिने में पांच हजार रू. भी नहीं कमा पा रही है। कोरोना कालखण्ड के बाद देश के असंगठित क्षेत्र के तीन-चौथाई कामगारों के वेतन में भारी कमी देखने को मिल रही है।
इधर चौंकाने वाली खबर है कि मनरेगा के अंतर्गत काम मांगने वालों की संख्या में गिरावट देखी जा रही है। इसका तात्पर्य है कि अब लोग मनरेगा या गांवों में काम नहीं करना चाहते हैं, और काम की तलाश में एक बार फिर तेजी से शहरों की ओर पलायन बढ़ने लगा है। देश में बेरोजगारी लगातार 8 फीसदी से उपर बनी हुई है। आंकड़ें यह भी बताते हैं कि देश में मात्र 10 फीसदी लोग हैं जो महिने में एक लाख रू. से अधिक कमाते हैं, और इन्हीं लोगों के वेतन में बढ़ोतरी हो रही है। बाजार में उपभोग-खपत मांग इसी वर्ग की वजह से बढ़ रही है, जिसे सरकार विकास मानने लगी है। यही लोग बढ़चढ़ कर डिजिटल लेनदेन कर रहे हैं। कोरोना कालखण्ड के बाद देश के लोगों की बचत खत्म हो गई है। घरेलु बचत सिमटकर 10 फीसदी से नीचे चली गई है। बचीखुची कसर महंगाई से पूरी हो जा रही है। ऐसे में विकास की परिभाषाएं बदल कर ढ़िंढ़ोरा पिटना कितना सही है ? सवाल खड़ा करता है।
रेलवे में 80 फीसदी टिकट बुकिंग ऑनलाईन यानि डिजिटल हो रही है, इधर पिछले एक-डेढ़ साल में सरकार ने हजारों रेलों या रेल यात्राओं को निरस्त करते हुए सैकड़ों करोड़ रू. कमा लिए हैं। आमजनता को भारी परेशानी हुई एवं हो रही है, वह अलग मसला है, लेकिन असली मसला यह है कि टिकट बुकिंग से सरकार जोरदार कमाई कर रही है। पेट्रोल-डीज़ल के दाम से 28-30 लाख करोड़ की कमाई कर चुकी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड एवं प्राकृतिक गैस लगातार घट रहे हैं। क्रूड के दाम 80 डॉलर से नीचे चले गये हैं, इसके बावजूद पेट्रोल-डीज़ल और गैस की कीमतें कम करने पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है। तात्पर्य यह है कि डिजिटल लेनदेन के नाम पर सरकार अपनी तिजोरी भर रही है, मगर आमजन को कोई खास फायदा नहीं हो रहा है।
डिजिटल लेनदेन से बड़े कारोबारियों, बड़े पूंजीपतियों, बड़ी कंपनियों को बड़ा फायदा हो रहा है, लेकिन इससे छोटे व्यापारियों, छोटे कारोबारियों की कमर टूट रही है। डिजिटल लेनदेन बढ़ने से ऑनलाईन धोखाधड़ी में हजारों गुनी बढ़ोतरी हो चुकी है, जिसकी रोकथाम के लिए सरकार के पास कोई पुख्ता उपाय नहीं है। देश में आर्थिक असमानताएं तेजी के साथ बढ़ रहीं हैं, जिसकी ओर सरकार का ध्यान कतई नहीं है। इन आर्थिक असमानताओं एवं डिजिटल लेनदेन के बढ़ने से देश में आर्थिक एवं सामाजिक अपराध द्रुत गति से बढ़ने लगे हैं। बढ़ती आत्महत्याएं एवं बढ़ता मानसिक अवसाद समाज को बीमार करने लगा है। मगर सरकार इन तमाम सामाजिक सरोकारों की अनदेखी करते हुए केवल और केवल चुनाव जीतने एवं सरकार बनाने में अपनी पूरी ताकत लगाने में लगी हुई है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्णं और विकास के लिए बहुत विनाशकारी है। महज डिजिटल लेनदेन का बढ़ना विकास का सूचक नहीं होता है, सरकार को यह समझने एवं समझाने की दरकार है।
-ध्रुव गुप्त
कभी आपने सोचकर देखा है कि कुछ अपवादों को छोड़कर सृष्टि के समय से लेकर आजतक हमारी दुनिया इस क़दर अराजक, अव्यवस्थित, क्रूर, हिंसक और अमानवीय क्यों रही है ? यह शायद इसीलिए है कि दुनिया को बनाने, चलाने और मिटाने वाला ईश्वर हमेशा से पुरुष ही रहा है। दुनिया के किसी भी धर्म ने स्त्री को ईश्वर बनाने के लायक नहीं समझा। बावज़ूद इसके कि प्रेम, वात्सल्य, दया, करुणा, क्षमा जैसे ईश्वर के जो गुण बताए गए हैं वे बहुतायत से स्त्रियों में ही मौज़ूद हैं। ईश्वर की प्रतिनिधि के रूप में जीवन की श्रृंखला को आगे वे ही बढ़ाती रही हैं। एक ईश्वर ही क्यों, ईश्वर के तमाम अवतार, पैगंबर, देवदूत, फ़रिश्ते और संदेशवाहक पुरुष ही रहे हैं। और तो और, दुनिया के किसी भी धर्म के धर्मगुरु आज तक पुरुष ही बनते या बनाए जाते रहे हैं। धर्म यह तो मानते हैं कि स्त्री ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है और इसीलिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन सच्चाई यह है कि धर्मों ने स्त्रियों की स्वतंत्र सोच, इच्छा और व्यक्तित्व को कुंठित कर उसे पुरुषों की इच्छाओं के अनुरूप चलाने की साज़िशें भी कम नहीं की हैं।
पुरुषवादी सोच की विकृतियां सुख, मुक्ति और स्वर्ग का रास्ता बताकर स्त्रियों पर लादी जाती रही हैं और स्त्रीत्व के आभूषण मानकर वे खुशी-खुशी इन्हें स्वीकार भी करती रही हैं और अपनी अगली पीढ़ियों को हस्तांतरित भी। गड़बड़ी यही हो गई। जो पुरुष अपने छोटे-से घर तक को व्यवस्थित नहीं रख सकता, उसे आप दुनिया भर की ख़ुदाई दे देंगे तो दुनिया का वही हाल होना है जो अपने चारो तरफ़ हम देखते आए हैं। ज़मीन से आसमान तक पुरुष की निरंकुश सत्ता ने हमारी इस खूबसूरत दुनिया को बहुत बदसूरत बनाया है। इस सिलसिले को अब उलटने की ज़रुरत है। वक़्त आ गया है कि आसमान में पुरुष ईश्वर को सृष्टि के सर्वोच्च पद से बेदख़ल कर उसकी जगह वहां किसी स्त्री ईश्वर को स्थापित किया जाय और यहां ज़मीन पर नीतियों के निर्धारण और इस दुनिया को चलाने की ज़िम्मेदारी पूरी तरह स्त्रियों को सौंप दी जाय।
आप मानें या न मानें, इस दुनिया को बचाने और उसे व्यवस्थित करने का अब एक ही रास्ता बचा है-ज़मीन औरत की, आकाश औरत का !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मध्यप्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष राज पटेरिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘हत्या’ करने की बात कह दी और अब वे सफाई देते फिर रहे हैं कि उनका हत्या से मतलब था- मोदी को हराना। वे अपने बचाव में कह रहे हैं कि वे गांधीभक्त और लोहियाभक्त हैं। उनके इस निरंकुश बयान ने उन्हें गिरफ्तार तो करवा ही दिया है, नरेंद्र मोदी के प्रति लोगों के सदभाव को भी मजबूत बना दिया है।
यदि आज गांधी और लोहिया जिंदा होते तो वे अपना माथा कूट लेते। न सिर्फ भाजपा के नेता पटेरिया की भर्त्सना कर रहे हैं, बल्कि कई कांग्रेसी नेता भी उनकी इस गिरावट की भर्त्सना कर चुके हैं। वे म.प्र. के वरिष्ठ नेता हैं, विधायक और मंत्री भी रह चुके हैं। उनके इस बयान से मोदी के लिए शुभकामनाओं की बयार बहने लगी है और कांग्रेस को गहरा नुकसान हो रहा है।
क्या पटेरिया को याद नहीं है कि सोनिया गांधी के जन्मदिन पर मोदी ने उन्हें दीर्घायुष्य की शुभकामना दी थी और उनके उत्तम स्वास्थ्य की कामना की थी। यदि कांग्रेसी नेता और कुछ प्रांतीय नेता मोदी से नाखुश हैं तो वे उनका डटकर विरोध जरूर करें लेकिन उनकी हत्या की बात कहना और अपने आप को गांधीवादी बताना तो उल्टे बांस बरेली पहुंचाना है। यह गांधीवादी होना नहीं है। यह गोड़सेवादी होना है।
इस तरह के बयान क्या सिद्ध करते हैं? क्या यह नहीं कि कांग्रेसी लोग घनघोर निराशा के दलदल में फंस चुके हैं। उन्हें लग रहा है, खास तौर से बुजुर्गों को कि उनके जीवन-काल में मोदी को कोई हटा नहीं सकता। इसीलिए अब यह घुटन इतने गर्हित बयानों में प्रकट हो रही है। मेरी याददाश्त में आज तक किसी प्रधानमंत्री के खिलाफ इस तरह का ज़हरीला बयान कभी नहीं दिया गया। दुर्भाग्य तो यह है कि यह बयान उस कांग्रेस के नेता की तरफ से आया है, जिस कांग्रेस के दो प्रधानमंत्रियों की हत्या हुई और जिसका तीसरा नेता भी दुर्घटना का शिकार हुआ।
इस तरह का बयान जारी करना उस बयानबाज़ की बीमार मानसिकता का सबूत तो देता ही है, वह यह भी बताता है कि जो नेता अपने आप को अनुभवी कहते हैं, उन्हें देश की राजनीति की कितनी समझ है। मोदी पर देश के टुकड़े करने के आरोप लगाना और यह कहना कि सिर्फ कांग्रेस ही ‘देश जोड़ो’ की बात कर रही है, बिल्कुल हास्यास्पद है। संविधान की रक्षा के लिए मोदी की हत्या को जरूरी बताना राहुल की भारत-जोड़ो यात्रा पर पानी फेरने से कम नहीं है।
म.प्र. की सरकार ने इस कांग्रेसी नेता को जेल भेज दिया है, यह तो न्यूनतम सजा है। बेहतर तो यह है कि कांग्रेस अपनी इज्जत बचाने के लिए ऐसे नेताओं को पार्टी से तुरंत निकाल बाहर करे। इस निरंकुश बयानबाजी की दुखद घटना से सभी पार्टियों के नेताओं को सबक लेना होगा कि वे जो कुछ बोलें, सोच-समझकर बोलें। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय फौज से गुलामी के प्रतीकों को हटाने के अभियान का तहे-दिल से स्वागत किया जाना चाहिए। दो सौ साल का अंग्रेजी राज तो 1947 में खत्म हो गया लेकिन उसका सांस्कृतिक, भाषिक और शैक्षणिक राज आज भी भारत में काफी हद तक बरकरार है। जो पार्टी याने कांग्रेस दावा करती रही भारत को आजादी दिलाने का, उसने अंग्रेज की दी हुई राजनीतिक आजादी को तो स्वीकार कर लिया, लेकिन उसे जो खुद करना था याने देश के हर क्षेत्र से गुलामी को दूर करना, उसमें उसका योगदान बहुत ही शिथिल रहा। यह काम अब भाजपा सरकार भी कुछ हद तक जरूर कर रही है। उसके नेताओं को यदि उस गुलामी की पूरी समझ हो तो वे इस अमृत महोत्सव वर्ष में ही संपूर्ण पराधीनता मुक्त अभियान की शुरुआत कर सकते हैं।
फिलहाल हमारी फौज में पराधीनता के एक प्रतीक को हटाया गया उस समय, जब विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत को समुद्र में छोड़ा गया। उस जहाज पर लगे हुए सेंट जार्ज के प्रतीक को हटाकर उसकी जगह शिवाजी का प्रतीक लगाया गया। यह मामला सिर्फ प्रतीकों तक ही सीमित नहीं है। जातियों के नाम पर सेना की टुकडिय़ों के भी नाम तुरंत बदले जाने चाहिए। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम से घबराए अंग्रेज शासकों ने भारतीय लोगों को जातियों में बांटने की तरकीबें शुरु की थीं, उनमें से यह भी एक बड़ी तरकीब थी। उन्होंने शहरों और गांवों के नाम भी अंग्रेज अफसरों के नाम पर रख दिए थे। जगह-जगह उनके पुतले खड़े कर दिए थे। मुझे याद है कि अब से लगभग 50 साल पहले अहमदाबाद में लगा किसी अंग्रेज का पुतला मैंने तोड़ा था, वह भी राजनारायणजी (इंदिरा गांधी को हरानेवाले) के कंधे पर चढक़र! कांग्रेस सरकारों ने सडक़ों के कुछ नाम तो बदले लेकिन हमारी फौज में अभी भी अंग्रेजों का ढर्रा चल रहा है। कांग्रेस सरकार के रक्षा मंत्रालय की हिंदी समिति के सदस्य के नाते मैंने अंग्रेजी में छपी फौज की सैकड़ों नियमावलियों को हिंदी में बदलवाया ताकि साधारण फौजी भी उन्हें समझ सकें।
इस समय फौज में डेढ़ सौ ऐसे नियम, नाम, इनाम, परपराएं, रीति-रिवाज और तौर-तरीके हैं, जिनका भारतीयकरण होना जरुरी है। ‘बीटिंग द रिट्रीट’ समारोह में ‘एबाइड विथ मी’ गाने की जगह लता मंगेशकर के ‘ऐ, मेरे वतन के लोगों’ को शुरु करना तो अच्छा है लेकिन जहां तक फौज के भारतीयकरण का प्रश्न है, उसे अंग्रेजों के रीति-रिवाज से मुक्त करवाना जितना जरुरी है, उतना ही जरुरी है, अपनी फौज को आत्म-निर्भर बनाना! आज भी भारत को अपने अत्यंत महत्वपूर्ण शस्त्रास्त्रों को विदेशों से आयात करना पड़ता है। उन पर अरबों रु. खर्च करने होते हैं। यदि आजादी के शताब्दि वर्ष तक हम पूर्णरूपेण आत्म-निर्भर हो जाएं और अमेरिका तथा यूरोपीय राष्ट्रों की तरह शस्त्रास्त्रों के निर्यातक बन जाएं तो भारत को महाशक्ति होने से कौन रोक सकता है? (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. संजय शुक्ला
चुनावों को लोकतंत्र की आत्मा कही जाती है लेकिन हाल के वर्षों में चुनाव के दौरान जिस तरह धर्म,जाति, धनबल, बाहुबल और मुफ्त रेवड़ी बांटकर जनता के वोट हासिल किए जा रहे हैं उससे लोकतंत्र की मर्यादा तार - तार हो रही है। हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों के मुद्दों पर गौर करें तो इसमें आम आदमी से जुड़े महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, बीमारी और अशिक्षा जैसे बुनियादी मसले हाशिए पर रहे। हालांकि सभी विपक्षी राजनीतिक दलों ने चुनाव के पहले इन मुद्दों को खूब हवा दिया लेकिन ढाक के तीन पात अंततः चुनाव परिणामों में ये मुद्दे हवा हो गए। बहरहाल यह देश के जनता के लिए विडंबना में ऐन चुनावों के दौरान केंद्र में रहने वाले मतदाता बाद में में सत्ता द्वारा छले जा रहे हैं। गौरतलब है कि
अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन परिभाषित किया है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होता है और उसकी अनुमति से शासन होता है, जनता की प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य होता है। देश का एक वैचारिक समूह और राजनीतिक विचारधारा बीते कुछ सालों से लगातार "लोकतंत्र खतरे में है" का हल्ला बोल रहा है। इस सियासी शोरगुल के बीच अब यह विचार मंथन जरूरी है कि क्या वर्तमान राजनीतिक परिवेश में देश लोकतंत्र के बुनियादी लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब हो पाया है ?लोकतंत्र में लोक यानि आम आदमी की भूमिका कितनी है? क्या भारतीय लोकतंत्र बीते दशकों में आम आदमी को वह मौलिक अधिकार और समान अवसर उपलब्ध करा सका है जिसका जिक्र हमारे संविधान में है? क्या देश में अभिव्यक्ति और असहमति का मौलिक अधिकार अब सत्ता के मुट्ठियों में कैद होने लगा है? क्या देश का लोकतंत्र सचमुच में खतरे में है?इन सवालों के जवाब के लिए देश की राजनीतिक परिस्थितियों और नागरिकों की भूमिका का विश्लेषण आवश्यक है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं।
चुनाव को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है जिसमें जनता लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले संसद और विधानसभाओं के लिए अपना प्रतिनिधि चुनती है। बीते दशकों की बात करें तो इस दौर में चुनाव और लोकतंत्र के मंदिर दोनों की गरिमा, पवित्रता, निष्पक्षता और मर्यादा खंडित हुई है। इन परिस्थितियों के लिए नि: संदेह हमारे राजनीतिक दल और राजनेता के साथ-साथ आम जनता भी जिम्मेदार हैं। आज के दौर में हर राजनीतिक दल ऐन-केन प्रकारेण चुनावों में तमाम हथकंडे अपना कर सत्ता हासिल करना चाहती हैं। सियासी दल चुनावी नतीजे अपने पक्ष में करने के मतदाताओं के साथ साम,दाम, दण्ड और भेद की रणनीति अपना रहे हैं। सत्ता को सेवा का माध्यम बताने वाले सियासी दल हर हाल में कुर्सी हथियाने के लिए थोक में दलबदल करा कर जनादेश बदल रहे हैं फलस्वरूप जनता अपने आपको छला महसूस कर रहे हैं।
भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का दायित्व होता है कि वे संसद और विधानसभाओं में आम नागरिकों के आकांक्षाओं के अनुरूप नीतियां और योजनाएं बनाएं। देश के संसदीय इतिहास पर गौर करें तो अब हमारी विधायिका लगातार जन-सरोकारों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं इसके लिए सत्ता और विपक्ष दोनों जवाबदेह हैं। विडंबना है कि संसद और विधानसभाओं की बैठकें हंगामे की भेंट चढ़ रही हैं जिसके एक-एक मिनट का खर्च जनता के खून-पसीने की कमाई का है। संसद और विधानसभाओं में सदस्यों का आचरण उनके निर्वाचकों को शर्मसार कर रहा है। विडंबना है कि देश का आम आदमी, मजदूर, किसान महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरी,गरीबी, बीमारी और प्रदूषण जैसी त्रासदी से जूझ रहा है लेकिन लोकतंत्र के मंदिर में सत्ता और विपक्ष के पास इन मुद्दों पर बहस और मुबाहिसों के लिए समय ही नहीं है। सत्ता की नीयत जहां बहुमत के बल पर असहमति को खारिज करने की बनते जा रही है वहीं विपक्ष अपनी भूमिका सिर्फ विरोध, हंगामे और बहिर्गमन तक ही सीमित कर चुकी है जबकि उसका दायित्व सरकार को रचनात्मक सुझाव देना भी है।
बहरहाल संसदीय लोकतंत्र के क्षीण होती मर्यादा के लिए हमारी चुनावी राजनीति जिम्मेदार है, हर हाल में सत्ता पाने की हनक के चलते राजनीतिक पार्टियां आपराधिक पृष्ठभूमि वाले बाहुबलियों और धनपतियों को उम्मीदवार बनाने में परहेज नहीं कर रहीं हैं विडंबना है कि ऐसे दागी लोग संसद और विधानसभाओं में पहुंच रहे हैं फलस्वरूप वहां की मर्यादा खंडित हो रही है। बेशक इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार वे मतदाता भी हैं जो मजहबी और जातिगत भावनाओं के ज्वार में अथवा मुफ्तखोरी के लालच या भय में उन्हें वोट कर रहे हैं। चुनावी राजनीति अब पूरी तरह से धर्म और जाति पर निर्भर हो चुकी है तथा आम आदमी के बुनियादी मसले हाशिए पर हैं।
इतिहास गवाह है कि दुनिया में कोई भी बदलाव युवाओं ने लाया है यह तब संभव है जब युवा व्यवस्था का हिस्सा बनें।लोकतंत्र की गंदा होती गंगोत्री को साफ करने की जिम्मेदारी देश के करोड़ों युवाओं पर है लेकिन वे इस दिशा में लगातार उदासीन नजर आ रहे हैं। आजाद भारत में 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए संपूर्ण क्रांति और 2011 में हुए अन्ना आंदोलन में युवाओं और छात्रों की सक्रिय भागीदारी ने राष्ट्र के सामने यह आस पैदा की थी कि यह तरुणाई देश के अधिनायकवादी और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को बदलने का सामर्थ्य रखता है लेकिन यह कारवां आगे नहीं बढ़ पाया। दरअसल युवाओं के राजनीति के प्रति उदासीनता की प्रमुख वजह युवाओं का वर्तमान राजनीति से मोहभंग होना और सियासी दलों में जारी वंशवाद के साथ-साथ सुरक्षित भविष्य की तलाश भी है। लोकतंत्र और वंशवाद पूर्णतः विपरीत विचार हैं लेकिन देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में वंशवाद की जड़ें लगातार गहरी होती जा रहीं हैं।
बहरहाल लोकतंत्र में नागरिकों की सहभागिता केवल चुनावों के दौरान ही नहीं होना चाहिए अपितु उसका दखल सरकार के हर फ़ैसलों पर दृष्टिगोचर होना चाहिए। बीते दशकों के दौरान सरकारों के अनेक जनविरोधी फैसलों और कानूनों का देश की सिविल सोसाइटी और संगठनों ने खिलाफत किया है जिसके आगे सत्ता को झुकना भी पड़ा है। असहमति और अभिव्यक्ति का अधिकार लोकतंत्र का स्थायी और अभिन्न पहलू है लेकिन इस अधिकार के प्रति सभी राजनीतिक दलों और आम नागरिकों को जवाबदेह होना भी आवश्यक है। विचारणीय है कि हमारे संविधान ने हमें अनेक मौलिक अधिकार दिए हैं लेकिन इन अधिकारों के साथ नागरिक कर्तव्यों का पालन भी आवश्यक है। लोकतंत्र की जीवंतता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक निष्पक्ष और शत-प्रतिशत मतदान के प्रति अपनी जवाबदेही का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करें। लोकतंत्र में जनता की सीमित होती भूमिका के बीच सोशल मीडिया हालिया दौर में आम आदमी का संसद बन चुका है और इस माध्यम से अमूमन सभी राजनीतिक दल और राजनेता जुड़े हुए हैं। सोशल मीडिया देश और दुनिया के राजनीति और चुनाव परिणामों को काफी हद तक प्रभावित कर रहे हैं।देश के युवाओं और आम नागरिकों को इस सशक्त माध्यम का भरपूर इस्तेमाल संवाद और असहमति के लिए किया जाना चाहिए। नि: संदेह सोशल मीडिया विचारों के अभिव्यक्ति का सबसे प्रभावी माध्यम है लेकिन इसके उपयोग के प्रति आम जनता को सतर्क और जवाबदेह भी रहना होगा क्योंकि इसका दुरूपयोग लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर बुरा असर डाल सकता है।बहरहाल भारत जैसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र की मजबूती, जीवंतता और सार्थकता तब है जब सत्ता और सियासत जनता के मुद्दों को अपने सर्वोच्च प्राथमिकता में लाएं।
- रमेश अनुपम
प्रदेश की राजनीति की दृष्टि से भानुप्रतापपुर विधानसभा उपचुनाव कई मायने में एक अभूतपूर्व चुनाव साबित हुआ है। इस चुनाव में पहली बार खुले आम सर्व आदिवासी समाज ने दस्तक देकर आगामी वर्ष 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में बस्तर की 12 विधानसभा सीटों का रास्ता कांग्रेस के लिए काफी कठिन कर दिया है।
भानुप्रतापपुर में सर्व आदिवासी समाज ने इस बात का भी स्पष्ट संकेत दे दिया है कि बस्तर की 12 विधानसभा सीटें आसानी के साथ कांग्रेस की झोली में नहीं जाने वाली है।
जिस तरह डॉ. रमन सिंह की भाजपा सरकार में अजीत जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस को अपनी बी.टीम. बनाकर छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने का काम बखूबी करती रही है, सुना है कि भानुप्रतापुर विधानसभा चुनाव में अब वही खेल भाजपा सर्व आदिवासी समाज के साथ खेल रही थी।
जाहिर है अगले वर्ष छत्तीसगढ़ राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा अपने इस खेल को न केवल खुल कर खेलेगी वरन बस्तर में होने वाले चुनाव में एक निर्णायक भूमिका में भी होगी।
सर्व आदिवासी समाज की शक्ति को और स्वयं इसके चुनाव में हिस्सेदारी को बस्तर में इतना आसान नहीं समझना चाहिए, बल्कि पिछले कुछ वर्षों में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के प्रति उनकी नाराजगी को आज गंभीरतापूर्वक समझे जाने की जरूरत है।
पिछले कुछ वर्षों से बस्तर के आदिवासियों में सरकार के खिलाफ असंतोष साफ-साफ दिखाई दे रहा है। इस असंतोष की चिंगारी को कारगर रूप से उसका हल निकालकर बुझा दिया जाए ऐसी कोई कोशिश प्रदेश के कांग्रेस सरकार द्वारा नहीं की गई है।फलस्वरूप यह असंतोष एक दावानल के रूप में बढ़ती चली जा रही है।
दक्षिण बस्तर के दुर्गम इलाके सुकमा क्षेत्र में हुए सिलगेर आंदोलन कई महीनों तक स्वत: स्फूर्त ढंग से चलने वाला एक आदिवासी आंदोलन है, जो नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों पर हो रहे दमन के खिलाफ आंदोलन है। सिलगेर में सी.आर.पी.एफ. के जवानों ने नक्सलवादियों के नाम पर पांच निर्दोष लोगों की निर्मम हत्या कर दी थी जिसमें एक गर्भवती आदिवासी महिला भी शामिल है। इस कांड की जांच करवाए जाने और दोषी जवानों पर हत्या का मुकदमा चलाए जाने की मांग से जुड़ा हुआ इस आंदोलन को अब तक गंभीरता से नहीं लिया गया है।
पिछले दिनों नारायणपुर सहित बस्तर के अनेक जिलों में इस तरह के आंदोलन चलते रहे हैं।
इसी वर्ष 24 मार्च को बस्तर के सैंकड़ों आदिवासी विधानसभा घेरने के लिए बस्तर से जत्थों में निकल पड़े थे। जिन्हें ले दे कर धमतरी से आगे रायपुर जगदलपुर मार्ग पर पुरूर के पास रोककर किसी तरह समझा-बुझा कर वापस भेजा गया था।
यह अच्छा हुआ कि बोधघाट परियोजना जैसे विवादास्पद प्रोजेक्ट को कांग्रेस ने ठंडे बस्ते में डाल दिया। बोधघाट परियोजना में कितने गांव और जंगल उजड़ जाते जिसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। बोधघाट परियोजना भी कांग्रेस के लिए गले की हड्डी साबित होती।
उम्मीद थी कि कांग्रेस के राज में जैसा कि शपथ लेते ही बस्तर के लोहंडीगुड़ा की अधिग्रहित जमीन आदिवासियों को पुन: वापस कर दी गई थी, इसी तरह के आदिवासियों के हित में जुड़े हुए अनेक फैसलों को भी कांग्रेस सरकार द्वारा अंजाम दिया जाएगा। पर दुर्भाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
विश्वास यह भी था कि भूपेश बघेल की नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में खासकर पुलिस और नक्सलवादियों के बीच मारे जा रहे या झूठे केस में फंसाए जा रहे आदिवासियों को वाजिब न्याय मिलेगा। उनके जल, जंगल और जमीन पर केवल उनका अधिकार होगा। ग्रामसभा की अनुमति के बगैर किसी तरह के निर्माण कार्य को अंजाम नहीं दिया जाएगा। इसमें पुलिस कैंप और सडक़ों का निर्माण भी शामिल है।
जो बिना ग्रामसभा की अनुमति से पुलिस के पहरे में आज जोर जबरदस्ती किए जा रहे हैं।
बस्तर में आदिवासियों के विकास के नाम पर जो कुछ भी एक लंबे अरसे से किया जा रहा है वह बस्तर के आदिवासियों के लिए विकास कम विनाश का सबब ज्यादा है। यह कटु सत्य है कि बिना आदिवासियों की रायशुमारी के हम जो भी तथाकथित विकास कार्य को अंजाम देंगे वह बिचौलियों, लुटेरों और शोषकों के लिए ही सबसे अधिक फायदेमंद सिद्ध होगा।
इस सत्य को पूरी ईमानदारी से समझे जाने की जरूरत है कि छत्तीसगढ राज्य बनने के बीते 21 वर्षों में बस्तर का अंधेरा और घना और विकराल ही हुआ है। सलवा जुडूम से लेकर जो-जो नए प्रयोग हुए हैं उन सारे जख्मों को बस्तर के आदिवासियों के चेहरों पर साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। उनकी गरीबी मुफलिसी के किस्से पुराने हैं और आदिवासियों को हमारे जैसे इंसान नहीं मानने की परम्परा भी इसी तरह पुरानी है।