विचार / लेख
-अपूर्व गर्ग
दोनों हिन्दुस्तानी कहानीकार ..एक बाद में विवश होकर पाकिस्तान गए .
दोनों सबसे बड़े गालीबाज .
दोनों सबसे विद्रोही और सताए कहानीकार .
एक उर्दू का महान अफ़साना निगार तो दूसरा हिंदी का .
दोनों की ज़िंदगी में शराब में डूबी रही .
सआदत हसन मंटो गले तक डूबे रहे
तो पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र ' उदर तक !
दोनों को सबसे अश्लील कहानीकार माना गया .
दोनों बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में रहे ..
मंटो लम्बा रहे और बड़ी हस्तियों के साथ रहे जबकि उग्र जी 124 A के तहत अंग्रेज़ों के खिलाफ राजद्रोह के आरोपी थे , फरारी काटने के दौरान फिल्मों से जुड़े पर जल्दी पकडे गए .
दोनों ने जिस्म मंडियों को जिस तरह देखा, भोगा उसी तरह लिखा ...
जो देखा वो लिखा ,इसलिए सबसे फसादी लेखक रहे और बहिष्कृत, तिरस्कृत होकर दुर्दिन देखे, भयानक गरीबी देखी .
एक को बार -बार पागलखाने में शरण लेनी पड़ी तो दूसरे ज़िंदगी भर गुस्सैल ओर उग्र रहे ...ये हाल बनाया इस समाज ने दो सबसे महान कहानीकारों का .
टॉलस्टॉय ,गोर्की ,शेक्सपियर ,मिल्टन जैसे लेखकों के नाम उनके देशों ने सब कुछ समर्पित कर दिया ..मूर्तियाँ छोड़िये उनके नाम के नगर भी छोड़िये उनके लेखन और व्यक्तित्व को जितने सम्मान से रखा गया उतना ही अपमान इस देश में हिंदी -उर्दू साहित्यकारों के साथ हुआ .
मणिकर्णिका घाट की ओर 20-25 लोग प्रेमचंद की अर्थी लेकर चलते हैं और पूछने पर बताते हैं कोई मास्टर था !
मंटो एक बैरिस्टर के बेटे ज़रूर रहे पर बहुत जल्दी घर छोड़ा और पूरा जीवन जूझते रहे .
पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' के पैदा होने से पहले उनके एक दर्ज़न से ज़्यादा भाई बहन दम तोड़ चुके थे .
उनके पैदा होने के बाद उनकी माँ जयकली ने महज़ एक टके में बेच दिया और ये हमेशा 'बेचन ' कहलाये .
मंटो की ठंडा गोश्त, काली सलवार, हतक, बू जैसी कहानियों को अश्लील घोषित कर मंटो को हर तरह से पीड़ा दी गई तो पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र ' की 'चॉकलेट' के खिलाफ अश्लीलता फैलाने का प्रचार कर उनके साहित्य को 'घासलेटी साहित्य' घोषित कर मुहिम चलाई गयी .
बनारसीदास चतुर्वेदी ने इस मुहिम की अगुवाई ही नहीं की, गांधीजी से हस्तक्षेप की मांग की .
गांधीजी ने बाक़ायदा पढ़कर चतुर्वेदी जी की मुहिम की हवा निकाल दी और उन्हें पत्र भी लिखा था जो कभी सामने नहीं लाया गया .
मंटो अमृतसर में फैज़ के शिष्य थे, अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़े .
दिल्ली के रेडियो स्टेशन में मंटो नौकरी पर थे. मंटो के नाटक नियमित प्रसारित होते .
मंटो अपनी दुनिया में रहते, अकेला महसूस करते पर उनका एक साहित्यिक सर्किल था जिसमें
दुश्मनों के साथ कृष्ण चन्दर, बेदी, शाहिद लतीफ़, इस्मत चुगताई जैसे कई थे
बम्बई में मंटो टॉप के फिल्म अभिनेताओं, अभिनेत्रियों, निर्माताओं की संगत में थे.
निर्माता एस. मुखर्जी, अशोक कुमार, श्याम, देविका रानी, हिमांशु रॉय, नरगिस, नूरजहां ..
मंटो के साथ उनकी हमसफ़र सफ़िया थीं उनके बच्चे भी थे ...
पर एक टके में बिकने के बाद ठोकरें खाते बेचन ...उग्र के सिर्फ एक बड़े भाई थे जो उन पर जम कर ज़ुल्म करते और ऐसी ठोकरें खाकर पांडेय बेचन शर्मा काफी 'उग्र ' बने.
बाद में बेऔलाद चाचा ने बेचन को गोद ज़रूर लिया पर बाद में अपनी औलाद होते ही बेचन को बाहर कर दिया .
'अपनी ख़बर ' लेते हुए उग्र जी ने लिखा भी है 'सच तो ये है शिक्षा शब्द मेरे निकट आते-आते भिक्षा बन जाया करता था .
इसी कड़वाहट के साथ लड़ते भिड़ते पढ़ते रहे. बाद में कभी दैनिक आज में तो कभी कलकत्ता के मतवाले में रहे फ़िल्मी लेखन किया तो चॉकलेट ,,चंद हसीनों के खतूत, फागुन के दिन चार दिल्ली का दरबार, शराबी पीली इमारत, ग़ालिब और उग्र जैसी ढेरों पुस्तकें लिखीं .
हरिशंकर परसाई ने उग्रजी के लिए लिखा है -'बेचन शर्मा उग्र फक्कड़, लीजेंड थे. अक्खड़, फक्कड़ और बदज़बान. जीवन के अँधेरे से अँधेरे कोने में वे घुसे थे और वहां से अनुभव लाये थे .''
परसाई जी बताते हैं एक प्रकाशक ने कहानी संग्रह तैयार करने को कहा. संग्रह में उनकी एक कहानी 'उसकी माँ ' लेना तय हुआ .उग्रजी को लिखा गया प्रकाशक सौ रुपये भेजेगा. प्रकाशक ने संग्रह छापने का विचार छोड़ दिया. 5 महीने बाद उग्रजी का पत्र मिला कि पुस्तक छापकर कोर्स में लग गयी होगी ...प्रकाशक और तुम खूब पैसे कमा रहे होंगे पर मुझे सौ रुपये नहीं भेजे .
मैं तुम जैसे हरामज़ादे, कमीने, बेईमान, लुच्चे लेखकों को जानता हूँ ...परसाई जी ने जवाब दिया -' प्रकाशक ने वह पुस्तक नहीं छापी ...इसलिए आपको पैसे नहीं भेजे गए, जहाँ तक मुझे दी गयी आपकी गालियों का सवाल है, मैंने काफी गालियां आपसे ही सीखी हैं.......''
इसके बाद उग्र जी का पोस्ट कार्ड आया -" वाह पट्ठे ''
अश्कजी ने मंटो को 'मंटो मेरा दुश्मन' में याद कर लिखा है कैसे 'आठ दिन ' की शूटिंग के दौरान मंटो उन्हें गालियां देते हैं और थोड़ी देर बाद हाथ दबाकर माफ़ी भी मांग लेते हैं .
कृष्ण चन्दर ने लिखा है --''मंटो एक बहुत बड़ी गाली था। उसका कोई दोस्त ऐसा नहीं था, जिसे उसने गाली न दी हो । कोई प्रकाशक ऐसा न था, जिससे उसने लड़ाई मोल न ली हो, कोई मालिक ऐसा न था, जिसकी उसने बेइज्ज़ती न की हो। प्रकट रूप से वह प्रगतिशीलों से खुश नहीं था, न अप्रगतिशीलों से, न पाकिस्तान से, न हिन्दुस्तान से, न चचा सैम से, न रूस से। जाने उसकी बेचैन और बेक़रार आत्मा क्या चाहती थी। उसकी ज़बान बेहद तल्ख थी।''
पाकिस्तान जाने के बाद मंटो रेडियो पर प्रतिबंधित थे पर उनकी मौत के बाद रेडियो पाकिस्तान ने आधे घंटे का कार्यक्रम रखा .
उग्रजी पर हरिवंश राय बच्चन ने सबसे सुंदर संस्मरण लिखा है :
बच्चनजी ने उग्र के व्यक्तित्व पर लिखा है '' उग्र महात्मा थे -महान. उनके सम्बन्धियों जाति भाइयों, उनके मित्रों ने भी उन्हें गलत समझा था, उनके साथ बहुत अन्याय किया था. वे अपने को अकेले पाते पर अकेलेपन की हीनता से पीड़ित मैंने उन्हें कभी नहीं देखा ........
एक बार उनके बीमारी की ख़बर पढ़कर मैंने उन्हें कुछ भेजने की आज्ञा चाही थी .उन्होंने मेरे पत्र का उत्तर ही नहीं दिया. मिलने पर उन्होंने कहा था तुमसे पैसे लेकर तुम्हारे सामने कभी आने पर मुझे अहसानमंद होना पड़ता, वह मैं किसी के सामने नहीं हुआ हूँ ........अहसानमंद तो मैं अपनी लाश उठाने वाले का भी न होना चाहूंगा ..... जब मैं मरुँ और तुमको ख़बर मिले तो मेरी लाश हरिजनों से उठवाकर बस्ती से दूर किसी नदी में फिकवा देना .''
बच्चन जी ने आगे लिखा है '' उनके मरने की ख़बर मुझे मिली थी ...मृत्यु के पश्चात मैंने बहुत से चेहरे देखे ,लेकिन जितनी शान्ति उग्र के चेहरे पर थी ,उतनी मैंने किसी मृतक के चेहरे पर न देखी थी. मृत्यु में सच कहूं तो उनका चेहरा सुंदर हो गया था ...''
उग्र निराला से कैसे भिड़ते कैसे पेश आते इसका ज़्यादा ज़िक्र है, पर यही उग्र निराला से दुर्व्यहार करने वाले प्रकाशक महादेव प्रसाद सेठ को विवश करते हैं वो निरालाजी से माफ़ी मांगे . इसके बाद निराला 'मतवाले ' के दरवाज़े पर आकर उग्र से कहते हैं ' तुम मर्द हो ' किसे याद है.
मंटो और उग्र की ज़बान जितनी खराब और ऊपर जितने सख़्त दीखते, अंदर से उतने ही कोमल थे.
मंटो और उग्र की कहानी कुछ बदलाव के साथ एक जैसी रही. मुझे मंटो उर्दू कहानियों के उग्र तो
उग्र हिंदी कहानी के मंटो भी नज़र आते हैं.