विचार/लेख
लगभग 70 साल के नचिकेता देसाई , नारायण देसाई के पुत्र और महादेव देसाई के नाती हैं। उनके दादा गांधीजी के सचिव रहे। पटेल की जीवनी लिखी। खुद नचिकेता कई बड़े अखबारों में काम कर चुके। बेटा टाईम्स ऑफ इंडिया में काम कर रहा था, वह पिछले साल छंटनी का शिकार होकर बेरोजगार हो गया है, अब वे फेसबुक पर पोस्ट करके काम मांग रहे हों।
-पंकज मुकाती
दो दिन पहले फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी। जिसने अंदर तक झकझोर दिया। ये पोस्ट एक वरिष्ठ पत्रकार ने लिखी है। जिनका नाम है नचिकेता देसाई।
#Nachiketa Desai वरिष्ठ पत्रकार हैं। नचिकेता जी की पीड़ा इस देश के तमाम ईमानदार पत्रकाओं की पीड़ा है। नचिकेता को इस उम्र में बीमारी के बावजूद काम की तलाश है। क्योंकि कोरोना के बाद हुई स्टाफ की कटौती में उनके बेटे को भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया से बाहर कर दिया गया।
-वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता देसाई फ़ेसबुक पर लिखते हैं-
We are facing dire financial crisis. My son, also a journalist, lost his job last year January when the Times of India laid off hundreds of journalists across the country. Right now, I am the only earning member who slogs as an editor, writer, translator for anyone who needs their work to be done. Both my son and I can take up writing, editing, translation (from Gujarati to English, Hindi to English and vice versa). Please spread the word – we are up for hire.
यानी वे सीधे-सीधे आजीविका के लिए काम की तलाश में हैं। पिता-पुत्र दोनों गहरे आर्थिक संकट में हैं। नचिकेता देसाई ने देश के नामी मीडिया घरानों में काम किया है। कई बड़े पत्रकारों और मेरे पत्रकारिता की पढाई के दिनों में मैं उनका नाम सुनता रहा हूँ। कई गांधीवादी लोग नचिकेता जी और पिता के कामों और उनकी ईमानदारी के किस्से सुनाते रहे हैं।
ये महात्मा गांधी के अनन्य सहयोगी रहे महादेव देसाई के पोते हैं। इनके नाना ओडिशा के मुख्यमंत्री रहे हैं। ऐसे नामी घराने और गांधीवादी जीवन, ईमानदार पत्रकारिता वाले नचिकेता को आज तंगी से गुजरना पड़ रहा है। वे फेसबुक पर काम मांग रहे हैं। उनके पास घर चलाने का कोई इंतजाम नहीं है।
नचिकेताजी ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि -वे आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। उनका बेटा टाईम्स ऑफ इंडिया में नौकरी करता था, छंटनी का शिकार हो गया, तबसे बेरोजगार है। नचिकेता देसाई गुजराती और हिंदी से अंग्रेजी में ट्रांसलेशन करते हैं, लेकिन उनको काम नहीं मिल रहा है।
नचिकेता देसाई के परिवार की गांधीवादी विचारकों और गांधीवाद को मानने वालों के बीच बड़ी प्रतिष्ठा है। उनके बाबा महादेव देसाई गांधीजी के सचिव थे। उन्होंने सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ बारडोली सत्याग्रह चलाया।
सत्याग्रह पर लिखी गई महादेव भाई की किताब से ही सरदार की उपलब्धियों का पता चलता है। सरदार पटेल की जीवनी भी महादेव देसाई ने ही लिखी। पटेल के जिंदा रहते लिखी गई ये पहली जीवनी है। संभवत: इस जीवनी के बाद ही पटेल की लौह पुरुष की छवि और मजबूत होकर सामने आई।
नचिकेता देसाई के पिता नारायण देसाई भी गांधीवादी थे। उन्होंने भी तमाम किताबें लिखीं जिसमें महादेव देसाई की जीवनी भी शामिल है। नारायण देसाई ने इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन किया और जनता पार्टी के साथ गए।
वह महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने इतने बड़े और पढ़े लिखे और अंग्रेजों के दौर में नोटों में खेलने वाले सरदार पटेल और महादेव देसाई जैसे लोगों को खादी पहनकर घूमने को बाध्य कर दिया। वह गांधी ही थे जिन्होंने इतने उच्च स्तर के पढ़े-लिखे लोगों को निजी सम्पदा नहीं बनाने दिया, न खुद निजी सम्पदा बनाई।
आज गांधी, पटेल के सहयोगी और ओडिसा के मुख्यमंत्री रहे परिवार को ऐसा संकट झेलना पड़ रहा है। इस पर कोई यकीन करेगा ? यकीनन नहीं। पर ये संभव है। बहुत से चेहरे जो ईमानदारी से पत्रकारिता में हैं उनके पास आज वाकई रोजी-रोटी तक का संकट है।
ऐसे कई लोगों को मैं जानता हूँ जो लिखने-पढऩे के अपने पेशे से जुड़े हुए है, पर आजीविका के लिए कोई ऐसा काम कर रहे हैं, जो उनके लिए बेहद मजबूरी और आत्मग्लानि का है। पर कोई और चारा रह नहीं जाता।
मैं नाम नहीं लिखूंगा पर पिछले तीन साल में ऐसे कई पत्रकार, फोटोग्राफर साथियों को देखा है। ऐसी लम्बी फेहरिस्त है जिसमे ईमानदार पत्रकार और फोटो जर्नलिस्ट नाश्ते की दूकान चलाते, अचार बेचते, किसी शॉपिंग मॉल में काउंटर पर खड़े रहने की नौकरी कर रहे हैं। क्योंकि उनके पास आजीविका का कोई
साधन नहीं है।
पर इन सबने पत्रकारिता को फिर भी नहीं छोड़ा है क्योंकि इन्हे अपने पेशे से प्यार है। ये भले इस पेशे में आई तंगहाली को लेकर तल्ख टिपण्णी करते हों। इस के ब्लैकमेलर, गिरोह वाले स्वरुप में खुद को फिट नहीं पाते हो, पर अंत में यही कहते हैं- पत्रकारिता करते रहेंगे।
ऐसे जज्बे वाले लोगों के साथ ये संकट निश्चित हो सकता है। क्योंकि ईमानदार और ऊपर से सच्चा पत्रकार हमेशा खुद्दारी से जीता है। उसे किसी के आगे हाथ
फैलाने में आत्मग्लानि का भाव रहता है। वो ये मानता है कि मैं जिस पेशे में रहा हूँ वहां मैंने कई लोगों की सेवा की है। अब मैं हाथ कैसे फैला दूँ।
निश्चित ही नचिकेता जी ने बहुत मुश्किल से इस पोस्ट के लिए खुद के मन को राजी किया होगा। बावजूद इसके उन्होंने किसी से पैसे नहीं काम माँगा है, यही एक ईमानदारी है, इस पेशे की ईमानदार कौम की।
कई लोगों ने नचिकेता जी को पैसे की मदद का ऑफर किया पर उन्होंने अपनी अगली पोस्ट में लिखा है। मुझे पैसे या दया नहीं चाहिए मुझे काम चाहिए।
नचिकेता जी की दूसरी पोस्ट -
A couple of friends offered money after they read my post that my family is in a money crisis as there is no work for me and my son. I am not seeking alms, I am seeking work that pays.
ये अकेले नचिकेता देसाई की ही समस्या नहीं है। अपने आसपास देखेंगे तो आपको मीडिया के कई ऐसे चेहरे मिलेंगे जो मुस्कुराते हुए दिखेंगे पर उनके भीतर बड़ा सा सूखा दौड़ रहा होगा। काम का, सम्मान का पैसे का।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यूक्रेन के मामले में भारत मौका चूक गया। पिछले ढाई महिने से मैं बराबर लिख रहा था कि यूक्रेन-विवाद शांत करने के लिए भारत की पहल सबसे ज्यादा सार्थक हो सकती है लेकिन जो पहल हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को करनी थी, वह संयुक्तराष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतरेस ने कर दी और वे काफी हद तक सफल भी हो गए। गुतरेस खुद जाकर पूतिन और झेलेंस्की से मिले। उन्होंने दोनों खेमों को समझाने-बुझाने की कोशिश की। संयुक्तराष्ट्र की सुरक्षा परिषद, महासभा और मानव अधिकार परिषद में रूस के खिलाफ जब भी कोई प्रस्ताव रखा गया तो ज्यादातर सदस्यों ने उसका डटकर समर्थन किया। बहुत कम राष्ट्रों ने उसका विरोध किया लेकिन भारत हर प्रस्ताव पर तटस्थ रहा। उसने उसके पक्ष या विपक्ष में वोट नहीं दिया।
भारत के प्रधानमंत्री पिछले हफ्ते जब यूरोप के सात देशों के नेताओं से मिले तो हर नेता ने कोशिश की कि भारत रूस की भर्त्सना करे लेकिन भारत का रवैया यह रहा कि भर्त्सना से क्या फायदा होगा? क्या युद्ध बंद हो जाएगा? इतने पश्चिमी राष्ट्रों ने कई बार रूस की भर्त्सना कर ली, उसके खिलाफ प्रस्ताव पारित कर लिये और उस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए, फिर भी यूक्रेन युद्ध की ज्वाला लगातार भभकती जा रही है। भारत की नीति यह थी कि रूस का विरोध या समर्थन करने की बजाय हमें अपनी ताकत युद्ध को बंद करवाने में लगानी चाहिए। अभी युद्ध तो बंद नहीं हुआ है लेकिन गुतेरस के प्रयत्नों से एक कमाल का काम यह हुआ है कि सुरक्षा परिषद में सर्वसम्मति से यूक्रेन पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया है। उसके समर्थन में नाटो देशों और भारत जैसे सदस्यों ने तो हाथ ऊँचा किया ही है, रूस ने भी उसके समर्थन में वोट डाला है। सुरक्षा परिषद का एक भी स्थायी सदस्य किसी प्रस्ताव का विरोध करे तो वह पारित नहीं हो सकता।
रूस ने वीटो नहीं किया। क्यों नहीं किया? क्योंकि इस प्रस्ताव में रूसी हमले के लिए ‘युद्ध’, ‘आक्रमण’ या ‘अतिक्रमण’ जैसे शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। उसे सिर्फ ‘विवाद’ कहा गया है। इस ‘विवाद’ को बातचीत से हल करने की पेशकश की गई है। यही बात भारत हमेशा कहता रहा है। इस प्रस्ताव को नार्वे और मेक्सिको ने पेश किया था। यह प्रस्ताव तब पास हुआ है, जब सुरक्षा परिषद का आजकल अमेरिका अध्यक्ष है। वास्तव में इसे हम भारत के दृष्टिकोण को मिली विश्व-स्वीकृति भी कह सकते हैं। यदि हमारे नेताओं में आत्म-विश्वास होता तो इसका श्रेय भारत को मिल सकता था और इससे सुरक्षा-परिषद की स्थायी सदस्यता मिलने में भी भारत की स्थिति मजबूत हो जाती। इस प्रस्ताव के बावजूद यूक्रेन-युद्ध अभी बंद नहीं हुआ है। भारत के लिए अभी भी मौका है। रूस और नाटो राष्ट्र, दोनों ही भारत से घनिष्टता बढ़ाना चाहते हैं और दोनों ही भारत का सम्मान करते हैं। यदि प्रधानमंत्री मोदी अब भी पहल करें तो यूक्रेन-युद्ध तुरंत बंद हो सकता है।
(डॉ. वैदिक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का असली स्वरूप कौन सा है ? केंद्र की सत्ता में आठ साल और उसके पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में बारह साल गुज़ार लेने के बाद भी इस बात का ठीक से पता लगना कठिन है कि मोदी अपने असली अवतार में क्या हैं ! क्या वे वही हैं जो विदेश यात्राओं में अन्य शासनाध्यक्षों से मुलाक़ातों के दौरान या उन देशों में रहने वाले भारतीय समुदाय के लोगों से बातचीत में दिखाई पड़ते हैं या फिर वैसे हैं जब अपने ही देश के साधारण नागरिकों के बीच उनका प्रकटीकरण होता है ?
आने वाले सालों में जब किसी एक दिन मोदी भारत राष्ट्र के प्रधानमंत्री के पद पर नहीं होंगे तब इतिहासकारों द्वारा उनके लम्बे कार्यकाल के हरेक तरह के निष्पक्ष मूल्यांकनों में शायद यह भी शामिल रहेगा कि अपनी दर्जनों विदेश यात्राओं के दौरान दूसरे शासनाध्यक्षों और उन देशों के मूल नागरिकों के बीच अपने व्यक्तित्व और वक्तृत्व की वे कैसी छाप छोड़ पाए ! विदेश यात्राओं के दौरान उनके द्वारा गढ़ी जाने वाली भारत की छवि की तुलना उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के विदेश दौरों से भी की जाएगी।इतिहासकारों के मूल्यांकनों में सम्भवतः यह भी शामिल रहेगा कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के प्रति किस तरह का स्पष्ट सम्मान या अप्रत्यक्ष असम्मान उन्होंने पराई ज़मीनों पर दर्शाना उचित समझा।
प्रसिद्ध लेखिका और अंग्रेज़ी की पत्रकार सागरिका घोष ने अपनी फेसबुक वॉल पर नेहरू युग के प्रतिष्ठित राजनयिक 98-वर्षीय एम के रसगोत्रा से हुई मुलाक़ात का ज़िक्र किया है। अटलजी पर लिखी अपनी किताब की प्रति उन्हें भेंट करने के दौरान रसगोत्रा ने सागरिका के साथ वह क़िस्सा शेयर किया जब वे 1950 के दशक में भारतीय राजनयिक के तौर पर न्यूयॉर्क में कार्यरत थे। प्रधानमंत्री नेहरू के सहयोगी एम ओ मथाई ने एक दिन फ़ोन करके उन्हें सूचना दी कि अटल जी अमेरिका की यात्रा करने वाले हैं और प्रधानमंत्री चाहते हैं कि उनका परिचय सभी प्रमुख अमेरिकी और अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों से करवाया जाए। अटलजी का अच्छे से ख़याल भी रखा जाए।
रसगोत्रा द्वारा अटलजी के सम्मान में आयोजित किए गए रात्रि भोज में जब एक अधिकारी ने प्रधानमंत्री नेहरू की गुट-निरपेक्ष नीति की आलोचना की तो अटलजी ने नाराज़ होकर जवाब दिया कि आपको पंडितजी के बारे में इस तरह की बात नहीं करना चाहिए। आज़ादी मिलने के समय हमारे पास कुछ भी नहीं था। हमारे पास अपनी कोई स्वतंत्र विदेश नीति नहीं थी।हमारे पास आज जो कुछ भी है उसकी बुनियाद में नेहरू ही हैं।
मोदी जब हाल ही में तीन देशों की यात्रा पर गए तो बर्लिन में भारतीय समुदाय के कोई हज़ार-बारह सौ लोगों को अपने उद्बोधन में नेहरू के नाती और देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बारे में उनका बग़ैर नाम लिए जो कुछ कहा उसने भारत के उस गौरवशाली अतीत को कटघरे में खड़ा कर दिया जिसका कि ज़िक्र रसगोत्रा ने सागरिका से किया था।
किसी जमाने में अकाल और भुखमरी के लिए कुख्यात रहने वाले उड़ीसा के कालाहांडी ज़िले की वर्ष 1985 में प्रधानमंत्री के तौर पर यात्रा के दौरान राजीव गांधी ने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर तकलीफ़ ज़ाहिर की थी कि दिल्ली से भेजा जाए वाला एक रुपया जरूरतमंदों तक पहुँचने तक पंद्रह पैसे रह जाता है।
अपनी सरकार द्वारा गवर्नेंस में तकनीकी के उपयोग के ज़रिए धन की राशि लाभार्थियों तक सीधे पहुँचाने का ज़िक्र करते हुए मोदी ने अपने उद्बोधन में कटाक्ष किया : 'अब किसी प्रधानमंत्री को यह कहना नहीं पड़ेगा कि मैं दिल्ली से एक रुपया भेजता हूँ और नीचे पंद्रह पैसे पहुँचते हैं।’
प्रधानमंत्री यहीं नहीं रुके। अपने दाहिने हाथ के पंजे को फैलाकर उसे बाएँ हाथ की अंगुलियों से कुछ क्षणों तक घिसते हुए मोदी ने पूछा:’ वह कौन सा पंजा था जो 85 पैसा घिस लेता था ?
वर्तमान प्रधानमंत्री जब एक विदेशी ज़मीन पर अपने ही देश के पूर्व प्रधानमंत्री का बग़ैर नाम लिए मज़ाक़ उड़ा रहे थे उनके सामने बैठे हुए भारतीय मूल के हज़ार से अधिक सम्भ्रांत नागरिक खिलखिलाते हुए तालियाँ बजा रहे थे।
देश की जनता और विपक्ष प्रधानमंत्री के इतने सालों के शासन के बाद भी समझ नहीं पा रहा है कि मोदी अपने आपको दुनिया के नायकों की क़तार में किस स्थान पर खड़ा हुआ देखने की आकांक्षा रखते हैं या फिर राष्ट्र के जीवन में अपने किस योगदान के लिए विश्व इतिहास में जगह सुरक्षित करना चाहते हैं !
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अगस्त 1955 में सऊदी अरब के किंग सऊद की भारत यात्रा के बाद से पिछले सात दशकों में दुनिया भर के सैंकड़ों राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष भारत की यात्रा पर आए होंगे पर (शायद ही)किसी एक ने भी हमारी ज़मीन का उपयोग अपने देश में उपस्थित राजनीतिक विरोधियों की किसी भी रूप में आलोचना करने या उन पर कटाक्ष के लिए नहीं किया होगा। न ही ऐसा किसी भी पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री ने अपनी औपचारिक विदेश यात्राओं में किया होगा।
यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि विदेशों में बसे भारतीय समुदाय के लोग ह्यूस्टन में ‘अब की बार, ट्रम्प सरकार’ के नारे भी मोदी के साथ लगा लेते हैं और जब प्रधानमंत्री बर्लिन में बग़ैर नाम लिए राजीव गांधी की खिल्ली उड़ाते हैं तो उस पर भी तालियाँ बजा देते हैं। भारतीय मूल के कोई दो लाख नागरिक इस समय जर्मनी में रह रहे हैं।
कम से कम दो प्रधानमंत्रियों—अटलजी और डॉ. मनमोहन सिंह—के मीडिया दल में अमेरिका सहित कुछ देशों की यात्राएँ करने का मुझे अवसर प्राप्त हो चुका है। दोनों ही लोकप्रिय नेताओं ने अपनी यात्राओं के दौरान शीर्ष वार्ताओं के साथ-साथ भारतीय मूल के नागरिकों के समूहों से भी संवाद किया है। याद नहीं पड़ता कि किसी एक भी अवसर पर उन्होंने उन देशों की घरेलू राजनीति अथवा भारत में अपने राजनीतिक विरोधियों को लेकर कोई अप्रिय टिप्पणी की होगी।
इस तरह के आरोपों से इनकार किया जाना कठिन होगा कि मोदी की विदेश यात्राओं का उपयोग भारत को एक मज़बूत प्रजातांत्रिक राष्ट्र के रूप में विदेशी जन-मानस के बीच स्थापित करने के बजाय प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि को मज़बूत करने के लिए ज़्यादा किया जाता है और इस काम में मदद देश का वह मीडिया ही करता है जिसकी विश्वसनीयता पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है।
यह भी कोई कम चौंकाने वाली बात नहीं कि प्रधानमंत्री स्वयं के देश में तो पत्रकारों के सवालों के जवाब देने से इनकार करते ही हैं, अपनी विदेश यात्राओं में भी वहाँ के शासनाध्यक्षों के साथ संयुक्त प्रेस वार्ताएँ नहीं करते। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वे उन प्रश्नों का सामना नहीं करना चाहते जिनके अप्राप्त उत्तर विदेशों में बसने वाले उन भारतीयों के लिए आँखें नीची करने की बाध्यता नहीं बन जाएँ जो प्रधानमंत्री के उद्बोधनों के दौरान ‘मोदी है तो मुमकिन है के नारे लगते नहीं थकते।
इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण ‘संयोग’ ही माना जाना चाहिए कि जिस समय प्रधानमंत्री विदेशी धरती पर खड़े होकर भारतीय समुदाय के लोगों के बीच एक रुपए और पचासी पैसे वाली बात करके राजीव गांधी के कहे का मज़ाक़ बना रहे होते हैं लगभग उसी दौरान भारत में उनकी पार्टी का मीडिया सेल और भक्त बिरादरी दिवंगत प्रधानमंत्री के बेटे राहुल गांधी की एक विवाह समारोह में भाग लेने के लिए की गई निजी नेपाल यात्रा को लेकर चरित्र-हनन की ओछी राजनीति में जुटी रहती है !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना से मरने वाले भारतीयों की जो संख्या जताई है, यदि वह ठीक हो तो वह भारत के लिए बहुत ही चिंता और लज्जा का विषय है। उसके आंकड़े अगर प्रामाणिक हों तो भारत सरकार कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेगी। भारत सरकार का कहना है कि कोरोना के दो वर्षों में भारत में मौतों की संख्या 4 लाख 81 हजार रही है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट कहती है कि यह संख्या 40 लाख 74 हजार है। याने सरकार ने जितनी बताई है, उससे लगभग दस गुना है।
यह एक और दस का अंतर क्या बताता है? क्या यह नहीं कि या तो वह विश्व संस्था झूठ बोल रही है या भारत सरकार ने झूठ बोला है? यह तो ठीक है कि जब ऐसी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो दुनिया की सभी सरकारें उन्हें कम करके दिखाना चाहती हैं ताकि लोगों पर उनकी यह छवि बने कि उन्होंने जनहित के खातिर कितना जबर्दस्त काम कर दिखाया है लेकिन क्या कोई सरकार इतनी बड़ी धांधली कर सकती है कि वह 10 को 1 में बदल दे?
भारत-जैसे खुले देश में ऐसा करना संभव नहीं है। भारत कोई रूस, चीन या उत्तर कोरिया जैसा देश नहीं है, जहां खबरपालिका प्राय: लकवाग्रस्त होती है। भारत में संसद है, विपक्ष है और हमारे नौकरशाह भी इतने मरियल नहीं है कि कोई सरकार इतनी बड़ी धांधली करे और वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। इसके अलावा भारत की जनता हालांकि उद्दंड नहीं है लेकिन वह इतनी साहसी जरुर है कि वह किसी भी सरकार का निकम्मापन बर्दाश्त नहीं करेगी।
वास्तव में विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस रपट का मुख्य उद्देश्य यही सिद्ध करना है कि भारत में कोरोना की वजह से लोग मरते रहे और सरकार खर्राटे खींचती रही। यह ठीक है कि शुरु के कुछ दिनों में सरकार ने काफी लापरवाही दिखाई। 2020 में लगभग 40 लाख लोगों ने समुचित चिकित्सा के अभाव में प्राण त्यागे लेकिन वे सब क्या कोरोना के रोगी थे? क्या यह सत्य नहीं हैं कि भारत के डाक्टरों, नर्सों और अन्य कर्मचारियों ने अपनी जान पर खेलकर करोड़ों लोगों को जीवन-दान दिया है? तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने उस जानलेवा माहौल में जिस कर्मठता का परिचय दिया है, वह विलक्षण थी।
इसके अलावा हमारे आयुर्वेदिक काढ़े के करोड़ों पेकेटों और भारत के घरेलू मसालों ने कोरोना-युद्ध में कमाल कर दिखाया था। भारत के मुकाबले अमेरिका, यूरोप और चीन में जितने लोग मरे हैं, यदि जनसंख्या के अनुपात के हिसाब लगाएं तो वे कई गुना ज्यादा हैं। उन राष्ट्रों के शारीरिक स्वास्थ्य और श्रेय चिकित्सा-पद्धति के दावे को इस महामारी ने चूर-चूर कर दिया है। विश्व-स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों का भारत सरकार ने कई आधारों पर कड़ा प्रतिवाद किया है।
भारत में हताहतों की संख्या के आंकड़े प्रतिदिन प्रचारित किए जाते थे। उन्हें छिपाने का प्रश्न ही नहीं उठता। विश्व स्वास्थ्य संगठन की उप-महानिदेशक समीरा अस्मा ने, जो इस तरह के आंकड़े जारी करती हैं, कहा है कि भारत सरकार के विरोध पर वे जरुर ध्यान देंगी और अपने आंकड़ों की जांच करवाएंगी। भारत सरकार का विरोध अपनी जगह सही है लेकिन सच्चाई क्या है, यह सिद्ध करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत सरकार के बीच दो-टूक संवाद जरुरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अपने देश में कल दो घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिन्हें लेकर भारत के धर्मध्वजियों और नेताओं को विशेष चिंता करनी चाहिए। पहली घटना हैदराबाद में हुई और दूसरी गुजरात में। हैदराबाद में एक हिंदू नौजवान नागार्जू की हत्या इसलिए कर दी गई कि उसने सुल्ताना नामक एक मुसलमान लड़की से शादी कर ली थी। गुजरात के एक गांव में कुछ हिंदुओं ने दो अन्य हिंदुओं पर इसलिए हमला कर दिया कि वे अपने पूजा-पाठ को लाउडस्पीकर पर गुंजा रहे थे। ध्यान रहे कि यह हमला न तो मुसलमानों पर हिंदुओं का था और न ही हिंदुओं पर मुसलमानों का!
उक्त दोनों हमले अलग-अलग कारण से हुए और उनका चरित्र भी अलग-अलग है लेकिन दोनों में बुनियादी समानता भी है। दोनों हमलों में मौते हुईं और दोनों का मूल कारण एक ही है। वह कारण है— असहिष्णुता! यदि गांव के कुछ लोगों ने अनजाने या जान-बूझकर लाउडस्पीकर लगा लिया तो उससे कौनसा आसमान टूट रहा था? उन्हें रोकने के लिए मारपीट और गाली-गुफ्ता करने की क्या जरुरत थी। यदि सचमुच लाउडस्पीकर की आवाज कानफोड़ू थी और उससे आपके काम में कुछ हर्ज हो रहा था तो आप पुलिस थाने में जाकर शिकायत भी कर सकते थे लेकिन किसी की आवाज काबू करने के लिए आप उसकी जान ले लें, यह कहां कि इंसानियत है? इसके पीछे का सूक्ष्म कारण पड़ौसियों का अहंकार भी हो सकता है।
किसी कमतर पड़ौसी की यह हिम्मत कैसे पड़ गई कि वह पूजा-पाठ के नाम पर सारे मोहल्ले में अपने नाम के नगाड़े बजवाए? यदि हमलावर लोग कानून-कायदों का दूसरों से इतना सख्त पालन करवाना चाहते हैं तो उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि उन्होंने अपने पड़ौसी की हत्या करके कौनसे कानून का पालन किया है? जहां तक एक मुस्लिम लड़की का एक हिंदू लड़के से विवाह का सवाल है, दोनों की दोस्ती लंबी रही है। वह विवाह किसी धर्म-परिवर्तन के अभियान के तहत नहीं किया गया था। वह शुद्ध प्रेम-विवाह था। लेकिन भारत में आज कोई भी बड़ा नेता या बड़ा आंदोलन ऐसा नहीं है, जो अन्तरधार्मिक और अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करे। हम लोग अपने मजहबों और जातियों के कड़े सींखचों में अभी तक जकड़े हुए हैं। जो व्यक्ति इन संकीर्ण बंधनों से मुक्त है, वह ही सच्चा धार्मिक है।
वही सच्चा ईश्वरभक्त है। यदि ईश्वर एक ही है तो उसकी सारी संतान अलग-अलग कैसे हो सकती है? उनका रंग-रूप, भाषा-भूषा, खान-पान देश और काल के मुताबिक अलग-अलग हो सकता है लेकिन यदि वे एक ही पिता के पुत्र हैं तो आप उनमें भेद-भाव कैसे कर सकते हैं? यदि आप उनमें भेद-भाव करते हैं तो स्पष्ट है कि आप धार्मिक हैं ही नहीं। आप एक नहीं, अनेक ईश्वरों को मानते हैं। इसका एक गंभीर अर्थ यह भी है कि ईश्वर ने आपको नहीं, आपने ईश्वर को बनाया है। हर देश और काल में लोगों ने अपने मनपसंद ईश्वर को घड़ लिया है। ऐसे लोग वास्तव में ईश्वरद्रोही हैं। उनके व्यवहार को देखकर तर्कशील लोग ईश्वर की सत्ता में अविश्वास करने लगते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि कोविड का असर कम हो जाने के बाद नागरिकता संशोधन अधिनियम को लागू किया जाएगा. सीएए-एनआरसी को लेकर देश में पहले भी खासा विवाद हो चुका है.
भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) एक सच्चाई है और कोविड का असर कम हो जाने के बाद इसे लागू किया जाएगा. पश्चिम बंगाल में गुरुवार को एक जनसभा में उन्होंने यह बात कही, जिसके बाद सीएए का विवाद फिर से खड़ा होने की आशंका है.
क्या बोले अमित शाह?
सिलिगुड़ी में एक रैली में अमित शाह ने कहा, "ममता दीदी, आप तो यही चाहती हो कि घुसपैठ चलती रहे, मगर कान खोलकर तृणमूल वाले सुन लें, सीएए वास्तविकता था, वास्तविकता है और वास्तविकता रहने वाला है. इसलिए आप कुछ नहीं बदल सकते हो."
अमित शाह ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस पर कानून के बारे में अफवाह फैलाने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, "आज मैं उत्तर बंगाल में आया हूं. मैं आपको स्पष्टता करके जाता हूं, तृणमूल कांग्रेस सीएए के बारे में अफवाहें फैला रही है कि सीएए जमीन पर लागू नहीं होगा. मैं आज कहकर जाता हूं, कोरोना की लहर समाप्त होते ही सीएए को हम जमीन पर उतारेंगे."
सीएए विरोधी प्रदर्शन: यूपी में वसूले गए जुर्माने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब लौटाए जा रहे हैं
अमित शाह के इस बयान को ममता बनर्जी ने "गंदी बात” करार दिया. सीएए के संदर्भ में उन्होंने कहा, "यह उनकी योजना है. वे बिल को संसद में पेश क्यों नहीं कर रहे हैं? मैं आपको बता रही हूं कि हम किसी नागरिक के अधिकारों का उल्लंघन नहीं चाहते. हम चाहते हैं कि हम सब साथ रहें. एकता ही हमारी ताकत है. यही स्वामी विवेकानंद ने कहा था. एक साल बाद वह आए थे. हमने चुनाव में उनके साथ जो किया था, उसके बाद वह अपना मुंह छिपाए बैठे थे. हर साल आते हैं, गंदी बात करते हैं.”
सीएए पर विवाद
नागरिकता संशोधन कानून में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के प्रवासियों के लिए नागरिकता के नियमों को आसान बनाया गया है. लेकिन इस कानून से मुसलमानों को बाहर रखा गया है. पहले किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए कम से कम 11 साल देश में रहना अनिवार्य था जिसे घटाकर 6 साल किया गया है.
सीएए विधेयक को पहली बार 19 जुलाई 2016 को लोकसभा में पेश किया गया और 12 अगस्त 2016 को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया. 8 जनवरी 2019 को विधेयक को लोकसभा में पास किया गया लेकिन यह राज्यसभा में पेश नहीं किया जा सका. उसके बाद सरकार ने नए सिरे से इसे लोकसभा में पेश किया. 9 दिसंबर 2019 को लोकसभा में इसे पास किया गया और दो दिन बाद विधेयक राज्यसभा में भी पास हो गया. 21 दिसंबर 2019 को भारत के राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के साथ ही यह एक कानून बन गया.
असम में एनआरसी के दो साल बाद भी अधर में हैं लाखों लोगों का भविष्य
लेकिन इस दौरन बड़ी संख्या में जनता में यह धारणा रही कि ये कानून ठीक नहीं है. संसद में विधेयक पर बहस के दौरान विपक्ष के सभी सांसदों ने इसे असंवैधानिक बताया था. इसके विरोध में देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी प्रदर्शन हुए थे. यह कानून नागरिकता का अधिकार कुछ विशेष समुदायों को देता है, सिर्फ एक समुदाय - मुसलमानों - को छोड़ कर जबकि भारतीय संविधान में धर्म के आधार पर नागरिकता का प्रावधान नहीं है.
सीएए के विरोध में हुए प्रदर्शनों के दौरान हिंसा भी हुई जिसमें 83 लोग मारे गए. असम, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मेघालय और दिल्ली में विरोध प्रदर्शनों के दौरान हिंसा हुई थी. इसके अलावा दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं द्वारा कई महीने लंबा धरना भी दिया गया था, जिसेकोविड महामारी शुरू होने के बाद खत्म किया गया.
फिलहाल क्या है स्थिति?
सीएए लागू तो हो गया है लेकिन उस पर नियम बनाने का काम पूरा नहीं हो पाया है. नियमानुसार किसी भी कानून के लागू होने के छह महीने के भीतर उस पर नियम बनाने होते हैं. यदि संबंधित मंत्रालय ऐसा नहीं कर पाता है तो उसे संसद से अतिरिक्त समय लेना होता है, जो एक बार में तीन महीने से ज्यादा नहीं होता.
पिछले साल दिसंबर में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने लोकसभा को एक सवाल के जवाब में बताया था कि कानून की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और मामला अभी न्यायालय में है. कई राज्यों ने कानून को चुनौती दी है जिनमें राजस्थान और केरल की याचिका कोर्ट में है. मेघालय, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पंजाब विधानसभाओं ने इस कानून के खिलाफ प्रस्ताव पास किए हैं.
वीके/एए (रॉयटर्स)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हम लोग बड़ा गर्व करते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यह भी माना जाता है कि खबरपालिका लोकतंत्र का सबसे सक्षम स्तंभ है। खबरपालिका याने अखबार, टीवी, सिनेमा, इंटरनेट आदि। ये यदि स्वतंत्र नहीं हैं तो फिर वह लोकतंत्र खोखला है। लोकतंत्र की इस खूबी को नापनेवाली संस्था ‘रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स’ ने अपनी इस साल की रपट में बताया है कि भारत का स्थान 142 वां था। उससे नीचे खिसककर वह अब 150 वां हो गया है। दुनिया के 180 देशों में भारत से भी ज्यादा गिरे हुए देशों में म्यांमार, चीन, तुर्कमिनिस्तान, ईरान, इरिट्रिया, उत्तर कोरिया, रूस, बेलारूस, पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि आते हैं।
भारत के बारे में खोज-बीन करके इस संस्था ने माना है कि भारत का संचार तंत्र खतरे में है, क्योंकि पत्रकारों के खिलाफ हिंसा, मीडिया की सरकारपरस्ती और मीडिया का मु_ीभर मालिकों में सिमट जाना आजकल सामान्य-सी बात हो गई है। इस रपट में यह भी कहा गया है कि हिंदुत्व के समर्थक बड़े असहिष्णु हो गए हैं। वे अपने विरोधी विचारवालों पर आक्रमण कर देते हैं। सरकारें कानून का दुरुपयोग करके पत्रकारों को डराती और सताती हैं। ऊँची जातियों के हिंदू लोगों ने पत्रकारिता पर अपना कब्जा जमा रखा है। सरकार के पास मीडिया को काबू में रखने के लिए सबसे बड़ा हथियार है— विज्ञापन। वह 130 बिलियन रूपए का विज्ञापन हर साल बांटती है। अरबों रु. के इस विज्ञापन पर लार टपकानेवाला मीडिया ईमान की बात कैसे लिखेगा? सारे अखबार और पत्रकार खुशामदी हो गए हैं।
इस संगठन ने मीडिया की आजादी के जो पांच मानदंड बनाए हैं, उनमें से एक पर भी भारत सही नहीं उतरता है। ये हैं— राजनीतिक संदर्भ, कानून, आर्थिक स्थिति, सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ और पत्रकारों की सुरक्षा! इस संगठन के इस विश्लेषण को चबाए बिना कैसे निगला जा सकता है? इसके कुछ तथ्य तो ठीक मालूम पड़ते हैं। जैसे पत्रकारों के खिलाफ हिंसा लेकिन ऐसी छुट-पुट हिंसा की घटनाएं तो हर शासन-काल में होती रहती हैं। ऐसी घटनाएं पत्रकारिता क्या, हर क्षेत्र में ही होती हैं। यह ठीक है कि इन दिनों कई सिरफिरे अतिवादी हिंदुत्व के नाम पर पत्रकारों, मुसलमानों, विपक्षी नेताओं आदि के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं लेकिन भारत के अपने लोग इन्हें कोई महत्व नहीं देते हैं। यह सही है कि सत्तारुढ़ नेतागण इन उग्रवादी तत्वों का खुलकर विरोध नहीं करते हैं। यह कमी जरुर है लेकिन भारत के अखबार और टीवी चैनल उन्हें बिल्कुल नहीं बख्शते हैं। जहां तक अदालतों का सवाल है, उनकी निष्पक्षता निर्विवाद है।
वे उन्हें दंडित करने से नहीं चूकती हैं। यह ठीक है कि बड़े अखबारों और टीवी चैनलों के मालिक सरकार की गलत बातों की प्राय: खुलकर निंदा नहीं करते लेकिन यह तथ्य तो उन देशों में भी वैसा ही पाया जाता है, जो अपने लोकतंत्र का ढिंढोरा सारी दुनिया में पीटते रहते हैं। मैं पिछले 50-55 साल में दुनिया के दर्जनों देशों में रहकर और भारत में भी उनके अखबारों और चैनलों को देखता रहा हूं लेकिन मुझे आपात्काल 1975—77 के अलावा कभी ऐसा नहीं लगा कि भारत में पत्रकारिता पर कोई बंधन है। हां, यदि पत्रकार और खुद अखबारों के मालिक दब्बू या स्वार्थी हों तो उसका तो कोई इलाज नहीं है। यदि पत्रकार दमदार हो तो किसी अखबार के मालिक या सरकार की जुर्रत नहीं कि उसे वह किसी भय या लालच के आगे झुका सके। भारत में ऐसे सैकड़ों पत्रकार, अखबार और टीवी चैनल हैं जो अपनी निष्पक्षता और निर्भीकता में विश्व में किसी से भी कम नहीं हैं। इसीलिए भारत की पत्रकारिता को घटिया बतानेवाली यह रपट मुझे एकतरफा लगती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
संजीव भागवत गुप्ता
छत्तीसगढ़ अपने घने वनों के साथ-साथ प्रचुर प्राकृतिक संपदा के लिए भी जाना जाता है। लेकिन प्रकृति द्वारा प्रदत्त यह उपहार एक दूसरे के पूरक नहीं है। यदि आपको जमीन के भीतर छिपे खनिज को बाहर निकालना होगा तब वनों की बलि देनी होगी और यदि वन चाहते हैं तब आपको खनिज संपदा से दूर रहना होगा। यही इन दिनों सरगुजा क्षेत्र में हो रहा है। सरगुजा के घने जंगलों के नीचे बड़ी मात्रा मेंं कोयला छिपा हुआ और यह क्षेत्र पेड़ों तथा जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों को अपने भीतर समेटे हुए उन्हें पल्लवित और पोषित कर रहा है। क्षेत्र में कोयला खनन का विरोध करना यहां के निवासियों के लिए स्वाभाविक है क्योंकि खनन से वहां पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान होगा और अंतत:खामियाजा वहां निवास करने वाले मनुष्य और जीव-जंतु को ही भुगतना होगा।
अब सवाल उठता है कि ऐसे में किया जाए, क्योंकि यदि कोयला खनन नहीं हुआ तब बिजली नहीं मिलेगी और विकास कार्य ठप होगा। और यदि कोयला खनन हुआ तब सैकड़ों एकड़ में जंगल कटेंगे।
क्या यह केवल सरगुजा क्षेत्र, या छत्तीसगढ़, या केवल भारत की समस्या है। जवाब सीधा सा है कि पूरा विश्व इस समस्या से जूझ रहा है। मनुष्य के विकास में विज्ञान का प्रमुख योगदान रहा है और नए अविष्कारों ने मानव जीवन को आसान किया है। लेकिन इससे प्रकृति को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है।
अब फिर सवाल उठता है कि क्या हम इससे चेते या वही गलती लगातार कर रहे हैं। अभी की परिस्थिति में तो कहा जा सकता है कि हम नहीं चेते हैं।
अब इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है?
यह स्वाभाविक सी बात है कि जहां समस्या होगी वहां समाधान भी होगा। हां उस समाधान की तरफ हम कितना कदम बढ़ाते हैं यह हमारे ऊपर निर्भर करता है। प्रकृति ने धरती के भीतर यदि कोयला दिया है तब बाहर सूर्य का प्रकाश, हवा और पानी भी तो दिया है। विज्ञान ने सूरज की रोशनी, हवा और पानी से बिजली बनाने का अविष्कार तो कर ही लिया है, लेकिन सरकारें इसे क्यों नहीं प्रोत्साहित करती हैं?
यह प्रकृति का ही वरदान है कि भारत के कई राज्यों में साल भर पर्याप्त मात्रा में सूर्य की रोशनी रहती है और यहां के घर सौर ऊर्जा से रौशन हो सकते हैं। सरकार क्यों नहीं ऐसी योजना लाती है कि सभी घरों में सौर ऊर्जा लगाना अनिवार्य हो। इसके लिए सरकार सब्सिडी भी दे सकती है। इससे स्वाभाविक रूप से कोयला खदानों की निर्भरता कम होगी। यही योजना पवन और पन-बिजली के लिए भी ला सकते हैं। यह कार्य गांव, कस्बों और शहरों में सहकारी रूप में भी किया जा सकता है।
देश के वैज्ञानिक लगातार नई खोजों के लिए कार्य कर रहे हैं स्वाभाविक है कि इस ओर भी कार्य हो रहा होगा। यदि आप सवाल उठाएंगे कि सौर ऊर्जा खर्चीला है तब इसे कैसे आम आदमी की पहुंच के लिए आसान बनाया जाए इस पर भी विचार होने चाहिए। यदि सरकार और जनता चाहे तब यह असंभव नहीं है।
अब यदि धरती का सीना चीर कर कोयला निकालना और वनों को बर्बाद करना आसान और फायदेमंद लगता है तब यह समस्या आने वाले समय में और विकराल होती जाएगी।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट महिलाओं के हाथ से सुरक्षित गर्भपात का अधिकार लगभग पूरी तरह वापस लेने की सोच रखती है। डीडब्ल्यू की कार्ला ब्लाइकर इसे एक खतरनाक और क्रूर कदम बताती हैं, जिससे महिलाओं का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।
डॉयचे वैले पर कार्ला ब्लाइकर का लिखा-
अगर सुप्रीम कोर्ट की चले तो अमेरिका में ऐसी किसी भी औरत के लिए रहने लायक जगह नहीं बचेगी जिसका गर्भ ठहर सकता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के लीक हुए ड्राफ्ट से पता चला कि वह ऐतिहासिक रो वर्सेज वेड फैसले को पलटने की तैयारी में हैं। यह वही कानून है जिससे गर्भपात का राष्ट्रव्यापी अधिकार मिला था। सन 1973 में रो वर्सेज वेड मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर गर्भपात के अधिकार को संवैधानिक मान्यता मिली थी।
सन् 1992 के एक फैसले में इस अधिकार को बरकरार रखा गया था, उसे भी पलटे जाने की योजना है। यह बातें सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सैमुएल एलीटो के लिखे ओपिनियन में सामने आई है जिसे उजागर किया पोलिटिको नाम के प्रकाशन ने। ‘रो शुरु से ही भयंकर रूप से गलत है, इसे पलटने का वक्त आ गया है। अब समय आ गया है कि संविधान का पालन करें और गर्भपात का मुद्दा लोगों के द्वारा चुने प्रतिनिधियों के हाथ में दे दिया जाए।’
रिपब्लिकन राज्य कर रहे हैं गर्भपात पर प्रतिबंध लगने का इंतजार
अगर सुप्रीम कोर्ट इस रास्ते पर आगे बढ़ती है तो अमेरिका के सभी राज्य अपने यहां इससे जुड़े कानून बना सकेंगे। राज्यों के गवर्नर और राज्य विधायिकाएं चाहें तो राज्य में गर्भपात पर पूरी तरह रोक लगा सकेंगी। कई सालों से गर्भपात को लेकर अमेरिका में छिड़ी बहस को करीब से देखा है कार्ला ब्लाइकर ने।
रिपब्लिकन पार्टी के शासन वाले कई राज्यों ने पहले ही इसे साफ कर दिया है कि वो ऐसा करना चाहते हैं। टेक्सस और मिसीसिपी जैसे राज्य हाल में गर्भ गिराने से जुड़ी कई सख्तियां लेकर आए हैं। कंजर्वेटिव सांसदों को ऐसा करने से कोई भी रोक नहीं पाएगा अगर एक बार गर्भपात के केंद्रीय अधिकार को वापस ले लिया गया।
यानि अगर आप गर्भवती होने की उम्र और हालत में हैं तो साफ संदेश है कि अमेरिका की सबसे बड़ी अदालत को आपकी कोई परवाह नहीं है। आपके चुने प्रतिनिधि भी उसके फैसले को लागू करने में बिल्कुल भी समय नहीं गंवाएंगे। ना ही उन लोगों को आपकी पड़ी है जो किसी भी कीमत पर भ्रूण की जान बचाने के लिए ‘प्रो-लाइफ’ का नारा लाए और उसे राजनीति की मुख्य धारा में जगह दे दी।
इनमें से किसी ने एक बार भी उस महिला के जीवन के बारे में परवाह नहीं की जिसके गर्भ में वह भ्रूण पलेगा। महिलाओं के जीवन की ऐसी अनदेखी करना क्रूर है। आखिर, गर्भपात के लिए हर तरह का कानूनी रास्ते बंद करने के बाद भी वे किसी ना किसी तरह तो ऐसा करेंगी ही। सीधे तौर पर इसका मतलब होगा कि उन्हें दूसरे रास्ते, जो कि अकसर असुरक्षित होते हैं, अपनाने होंगे। जिसके पास सामथ्र्य होगी वह किसी डेमोक्रैट शासित राज्य में जाएगी। जहां उसे गर्भपात की सुविधा और देखभाल मिल सकती है। जिसके पास पैसे नहीं होंगे या अपना काम काज या स्कूल छोडक़र, छुट्टी लेकर किसी और राज्य में जाने की सुविधा भी नहीं होगी वह दूसरे रास्ते पकडऩे के लिए मजबूर हो जाएगी।
एक सुरक्षित, साफ सुथरे और कानूनी रास्ते को बंद कर असहाय लोगों को अवैध गर्भपात के रास्ते पर धकेलना कैसे सही ठहराया जा सकता है। इसमें तो कितनी ही जानें जाने का खतरा है।
क्यों नहीं होना है गर्भवती? बुरी बात
अमेरिका की हर लडक़ी, औरत और कोई भी जो गर्भवती हो सकती है, लेकिन नहीं होना चाहती, सोचिए उस पर कितना दबाव होगा। यही हाल उन सबका होगा जो सोच समझ कर अपना परिवार नियोजन करना चाहते हैं और किसी मेडिकल कारण से गर्भपात करवाना चाहते हैं। उनकी सोचिए जो यौन दुव्र्यवहार, बलात्कार वगैरह के चलते गर्भवती हुई हों। एक तो सदमा और ऊपर से गर्भ को पालने की मजबूरी- उन्हें किस हाल में छोड़ेगी।
गर्भ गिराने का कानूनी अधिकार ना होने से इसके लिए जो असुरक्षित रास्ते आजमाए जाएंगे, उनसे तो जान पर बन आना तय है। किसी और मामले में अगर महिला को कोख में पल रहे बच्चे को पूरे वक्त तक रखने की मजबूरी हो, तो उसकी मानसिक दशा पर कितना बुरा असर पड़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट से लीक हुई बात को अगर अमली जामा पहना दिया जाता है तो इसी के साथ पांच दशकों से महिलाओं को मिले उनके शरीर और जीवन से जुड़े यह अहम फैसला लेने का अधिकार छिन जाएगा। इसके बाद तो हर राज्य अपने अपने हिसाब से कानून बनाकर महिलाओं से इस चुनाव की सीमाएं तय करने को आजाद हो जाएगा।
यह वही आजादी और बहादुरी की धरती है जहां कंजर्वेटिव राज्यों में मुंह और नाक पर मास्क पहन कर रखने की मजबूरी को लोग अपनी निजी स्वतंत्रता के अधिकार का हनन मानते थे। उन्हीं राज्यों में अब गर्भवती होते ही किसी इंसान से उसके निजी अधिकार, शरीर पर अधिकार, अपने जीवन से जुड़े अहम फैसले लेने का अधिकार, सब हवा होने जा रहा है। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेसी नेता राहुल गांधी की काठमांडो-यात्रा पर दोनों तरफ से कितनी घटिया राजनीति हो रही है। राहुल गांधी का किसी नेपाली महिला पत्रकार की शादी में जाना क्या हुआ, जैसे भारत की राजनीति में तूफान आ गया। भाजपा के कई नेताओं ने बयानों के गोले दाग दिए। एक प्रवक्ता ने लिख मारा कि राहुल गांधी उस वक्त काठमांडो के किसी नाइट क्लब में मौज-मजे कर रहे हैं जबकि मुंबई में तूफान आ रहा है।
इस प्रवक्ता का इशारा ईद पर होने वाली मुठभेड़ की तरफ रहा होगा। प्रवक्ता ने यह भी लिख दिया कि कांग्रेस पार्टी बिखरने के कगार पर है और उसका नेता नाइट क्लब में अठखेलियां कर रहा है। ऐसा लगता है कि भाजपा को कांग्रेसियों से भी ज्यादा चिंता इस बात की है कि कांग्रेस बिखर रही है। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, जो राहुल के निर्वाचन क्षेत्र वायनाड में थीं, उन्होंने भी चुटकी लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनसे जब पत्रकारों ने पूछा कि केरल सरकार केंद्र सरकार की कई योजनाओं को जान-बूझकर क्यों लागू नहीं कर रही हैं तो उन्होंने कहा कि आप लोग राहुलजी को ढूंढ सको तो उनसे पूछो कि ऐसा क्यों हो रहा है?
दूसरे शब्दों में स्मृति ने भी जरा नरम शब्दों में राहुल की काठमांडो-यात्रा पर व्यंग्य कस दिया। यहां सवाल यही है कि क्या किसी विपक्षी नेता को विदेश-यात्रा करने का अधिकार नहीं है? यदि सिर्फ प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की विदेश यात्राओं से सारे विपक्षी नेताओं की यात्राओं की तुलना करें तो इन नेताओं की यात्राएं बहुत छोटी मालूम पड़ेगीं। यह ठीक है कि विपक्षी नेताओं की यात्रा प्राय: व्यक्तिगत होती हैं लेकिन उन यात्राओं के दौरान क्या वे राष्ट्रविरोधी हरकतें करते हैं? वे राष्ट्रहित की रक्षा में उतनी ही मुस्तैदी दिखाते हैं जितने सत्तारूढ़ नेता दिखाते हैं।
अटलजी के जमाने में संयुक्तराष्ट्र संघ में मेरे साथ गैर-भाजपाई नेता भी न्यूयार्क गए थे लेकिन मैंने देखा कि वे अपने भाषणों और व्यक्तिगत संवाद में सत्तारुढ़ नेताओं से भी अधिक सतर्क थे। यदि राहुल गांधी अपनी किसी नेपाली महिला मित्र की शादी में भाग लेने कांठमांडो गए तो इससे भारत-नेपाल संबंधों में प्रेमभाव बढ़ेगी ही। यदि राहुल की उम्र के नेता घर में ही कैद रहें तो क्या यह आदर्श स्थिति मानी जाएगी? उस महिला मित्र की मर्जी कि वह अपना विवाह समारोह किसी नाइट क्लब में मनाती है या किसी धर्मशाला में।
उस पार्टी में चीन की महिला राजदूत के दिखाई पडऩे पर भी एतराज किया गया। भाजपा के प्रवक्ता चीनी राष्ट्रपति और विदेश मंत्री के साथ मोदी और जयशंकर को देखकर आपत्ति क्यों नहीं करते? लेकिन अफसोस की बात है कि कांग्रेस के प्रवक्ताओं ने भाजपाइयों को भी इस घटियापन में मात कर दिया। उन्होंने प्रत्याक्रमण करते हुए कहा कि अरे, अपने नरेंद्र मोदी को देखो। वे नवाज शरीफ के यहां बिना बुलावे के ही शादी में केक काटने चले गए। यह बात कितनी बेसिर-पैर की है। मोदी को सस्म्मान बुलाया गया था, इस तथ्य की मुझे व्यक्तिगत जानकारी है।
उनके अलावा कुछ अन्य भारतीयों को भी बुलाया गया था। मोदी ने मियां नवाज के यहां जाकर बहुत अच्छी पहल की थी। दोनों देशों के संबंध पटरी पर आने लगे थे लेकिन पठानकोट में वायुसेना के अड्डे पर हुए हमले ने गाड़ी को पटरी से उतार दिया। यदि कांग्रेस के लोग भाजपाइयों की तर्कहीन टिप्पणी पर चुप रह जाते तो उनकी छवि बेहतर बनकर उभरती लेकिन दोनों पार्टियों ने ऐसी निरंकुश टिप्पणियां करके भारतीय राजनीति को घटिया पायदान पर उतार दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
विगत दिनों प्रधानमंत्री जी ने लाल किले से श्री गुरु तेग बहादुर जी के 400वें प्रकाश पर्व समारोह के मौके पर देश को संबोधित किया। उनके भाषण में 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस के रूप में मनाने के निर्णय, करतारपुर साहिब कॉरिडोर के निर्माण, गुरु गोविंद सिंह जी से जुड़े तीर्थ स्थानों पर रेल सुविधाओं के आधुनिकीकरण, ‘स्वदेश दर्शन योजना’ के जरिए पंजाब में सभी प्रमुख स्थानों को जोड़कर एक तीर्थ सर्किट के निर्माण की योजना, अफगान संकट के दौरान गुरु ग्रंथ साहिब के स्वरूपों को भारत लाने और वहां से आने वाले सिखों को नागरिकता संशोधन कानून के तहत नागरिकता मिलने का सविस्तार जिक्र था।
प्रतीकवाद की राजनीति में निपुण प्रधानमंत्री किसान आंदोलन के बाद पंजाब में अपनी और भाजपा की अलोकप्रियता से अवश्य चिंतित होंगे और एक शासक के रूप में अपने अनिवार्य कर्त्तव्यों को सिख समुदाय के प्रति अनुपम सौगातों के रूप में प्रस्तुत करना उनकी विवशता रही होगी।
बहरहाल उनके भाषण में कुछ अंश ऐसे हैं जिनका दूरगामी महत्व है और बतौर शासक देश के संचालन हेतु उनकी भावी कार्यप्रणाली एवं चिंतन प्रक्रिया के संकेत भी इनमें अंतर्निहित हैं।
उन्होंने कहा, "उस समय देश में मजहबी कट्टरता की आँधी आई थी। धर्म को दर्शन, विज्ञान और आत्मशोध का विषय मानने वाले हमारे हिंदुस्तान के सामने ऐसे लोग थे जिन्होंने धर्म के नाम पर हिंसा और अत्याचार की पराकाष्ठा कर दी थी। उस समय भारत को अपनी पहचान बचाने के लिए एक बड़ी उम्मीद गुरु तेगबहादुर जी के रूप में दिखी थी। औरंगजेब की आततायी सोच के सामने उस समय गुरु तेगबहादुर जी, ‘हिन्द दी चादर’ बनकर, एक चट्टान बनकर खड़े हो गए थे। इतिहास गवाह है, ये वर्तमान समय गवाह है और ये लाल किला भी गवाह है कि औरंगजेब और उसके जैसे अत्याचारियों ने भले ही अनेकों सिरों को धड़ से अलग कर दिया, लेकिन हमारी आस्था को वो हमसे अलग नहीं कर सका।"
मध्यकालीन भारत के इतिहास को इस्लाम और हिन्दू धर्म के संघर्ष के रूप में देखने का विचार श्री सावरकर के इतिहास विषयक लेखन में केंद्रीय स्थान रखता है और उनकी इतिहास दृष्टि बार बार हमें हिंसा,प्रतिशोध और घृणा को अपने दैनिक व्यवहार का सहज अंग बनाने की प्रेरणा देती है।
कट्टर हिंदुत्व की हिमायत करने वाली ताकतें सिख धर्म को हिन्दू धर्म का अंग सिद्ध करने का प्रयास करती रही हैं। सन 2000 में सरसंघचालक श्री के. सुदर्शन ने कहा था कि सिख धर्म हिन्दू धर्म का एक सम्प्रदाय है और खालसा की स्थापना हिंदुओं को मुग़लों के अत्याचार से बचाने के लिए हुई थी। वर्तमान संघ प्रमुख भी समय समय पर इसी मत का समर्थन करते रहे हैं।
कट्टर हिंदुत्व समर्थकों की बहुमुखी रणनीति की यह विशेषता है कि सरकार एवं संघ के वरिष्ठ नेता संयत भाषा में अल्पसंख्यक समुदाय को वही संदेश देते हैं जो सरकार,संघ या भाजपा से असम्बद्ध समूह बहुत उग्रता से धमकी के रूप में उन तक पहुंचाते हैं। इस प्रकरण में भी सिख धर्म को हिन्दू धर्म पर आश्रित बताने के लिए एक आक्रामक अभियान पिछले दो वर्षों से अनेक पोर्टल्स और सोशल मीडिया पर चलाया जा रहा है। किसान आंदोलन के बाद इस अभियान में तेजी आई है। इसमें इस कथित झूठ का पर्दाफाश किया गया है कि सिखों ने हिंदुओं की रक्षा के लिए अस्त्र उठाए थे और यह "खुलासा" किया गया है कि मुग़लों के अत्याचार से त्रस्त सिखों ने जब शस्त्र धारण करने का निर्णय किया तो उन्हें सैन्य प्रशिक्षण देकर पराक्रमी योद्धा बनाने वाले राजपूत राजा ही थे। इसी प्रकार यह भी बताया गया है कि सिख गुरुओं के निकट सहयोगी और संबंधी तो भीतरघात कर मुग़लों से मिल जाते थे किंतु हिन्दू उनके प्राणरक्षक बने रहे।
सिख समुदाय के सामने विकल्प स्पष्ट हैं जैसा प्रधानमंत्री और संघ प्रमुख के कथन बहुत सूक्ष्मता से इंगित करते हैं कि सिख मुसलमानों को अपना पारंपरिक शत्रु मान लें। वे अपनी धर्म परंपरा के एक आख्यान विशेष को - जिसके अनुसार गुरु तेगबहादुर को औरंगजेब के आदेश पर कश्मीरी पंडितों की धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन करने के लिए मृत्युदंड दिया गया था- अपने भावी आचरण के लिए मार्गदर्शक बना लें और उन सहस्रों घटनाओं की अनदेखी कर दें जब मुसलमान सिखों के सहायक और रक्षक बने थे। यदि सिख ऐसा करते हैं तो कट्टर हिंदुत्व समर्थक शक्तियां उन्हें हिंदुओं के रक्षक के रूप में महिमामण्डित करेंगी लेकिन सिख धर्म की स्वतंत्र पहचान उनसे छीन ली जाएगी।
किंतु यदि सिख हमारी समावेशी और उदार परम्परा का पालन करने की गलती करते हैं और गुरुग्राम की गुरुद्वारा परिषद की भांति गुरुद्वारा परिसर जुमे की नमाज के लिए उपलब्ध करा देते हैं या अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह की भांति कश्मीरी महिलाओं पर अशोभनीय टिप्पणी करने वाले कट्टर हिंदुत्व समर्थकों को चेतावनी देकर सिख समुदाय से कश्मीरी महिलाओं के सम्मान की रक्षा का आह्वान करते हैं तब कट्टर हिंदुत्व समर्थकों की दूसरी टोली सामने आती है। यह वही टोली है जिसने किसान आंदोलन को पाकिस्तान परस्त और खालिस्तान समर्थक कहने की शरारत की थी और जो सोशल मीडिया पर सिख मुस्लिम संबंधों के ऐतिहासिक उदाहरणों को इस तरह पेश करती है कि उनसे सिखों की राष्ट्र भक्ति पर संदेह हो।
सिख परंपरा के ही उद्धरण सिख गुरुओं और मुग़ल शासकों के बीच के संबंधों की जटिलता को दर्शाते हैं। गुरु नानक देव की अनेक जनम साखियों में यह उल्लेख मिलता है कि नानक (1469-1539) और बाबर (1483-1530) की मुलाकात हुई थी,शायद उन्हें बंदी भी बनाया गया था किंतु गुरु नानक की आध्यात्मिकता से प्रभावित बाबर ने उन्हें रिहा किया और गुरु नानक ने उसे कड़े शब्दों में आईना भी दिखाया। गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित गुरु नानक के चार सबद ऐसे हैं जिनमें बाबर की विनाशलीला चित्रित की गई है।
सिख परंपरा हमें यह भी बताती है कि हुमायूं ईरान की ओर पलायन करते समय खडूर में गुरु अंगद(1504-1552) की प्रतीक्षा करता है और उनसे आशीष प्राप्त कर ही आगे बढ़ता है। अकबर(1542-1605) को मोटे तौर पर सिख गुरुओं के प्रति सहिष्णु और उदार माना जा सकता है और उसके जीवन काल में गुरु अमर दास(1479-1574), गुरु रामदास (1534-1581) तथा गुरु अर्जुन (1563-1606) को सम्मान मिला।
किंतु जहाँगीर (1569-1627) अनुदार स्वभाव का था। जहाँगीर द्वारा गुरु अर्जुन को दिया गया मृत्युदंड सिख इतिहास के सर्वाधिक चर्चित एवं विवादित प्रसंगों में रहा है। मुग़ल कालीन भारत के विशेषज्ञ इतिहासकार रिचर्ड एच डेविस का मानना है कि सिख समुदाय के एक शक्तिशाली सामाजिक समूह में तबदील होने के बाद सिख गुरु राजनीतिक मामलों में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने लगे थे। गुरु अर्जुन को मुग़ल सत्ता संघर्ष में पराजित खेमे का साथ देने की सजा मिली। बेनी प्रसाद के अनुसार उदार और कोमल हृदय वाले गुरु अर्जुन ने जहाँगीर के ज्येष्ठ पुत्र विद्रोही खुसरो को आशीष देने की गलती की जिसका लाभ गुरु अर्जुन के शत्रुओं ने उठाया। उन्होंने इसे धार्मिक रंग भी दिया और राजद्रोह के रूप में भी चित्रित किया तथा जहाँगीर को अंततः बरगलाने में कामयाबी हासिल की यद्यपि वह प्रारम्भ में गुरु अर्जुन के साथ नरमी से पेश आने का मन बना रहा था।
किंतु जहाँगीरनामा की पर्ण संख्या 27बी-28ए में फ़ारसी भाषा में अंकित विवरण का व्हीलर एम थैकस्टन द्वारा किया गया अनुवाद एक अलग तस्वीर प्रस्तुत करता है- "ब्यास नदी के किनारों पर गोइंदवाल में अर्जुन नाम का एक हिन्दू हुआ करता था। आध्यात्मिक गुरु का स्वांग रचते हुए उसने अपने अनेक अनुयायी बना लिए थे। अनेक सीधे साधे हिन्दू और इनसे भी अधिक अज्ञानी और मूर्ख मुसलमान संत होने के उसके दावों से प्रभावित होकर उसके शिष्य बन गए थे। वे उसे गुरु का संबोधन दिया करते थे। अनेक मूर्ख लोग(दरवेश की वेशभूषा धारी उपासक) उसकी शरण में थे और उस पर असंदिग्ध आस्था रखते थे। पिछली तीन चार पीढ़ियों से इनका (गुरु अर्जुन एवं उनके पूर्वजों का) यह कार्यकलाप चल रहा था। एक लंबे अरसे से मैं यह सोच रहा था कि या तो यह गोरखधंधा बंद हो या इस व्यक्ति को इस्लाम की छत्रछाया में लाया जाए। अंततः जब खुसरो वहां से गुजर रहा था तब इस तुच्छ छोटे व्यक्ति ने उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करनी चाही। जब खुसरो उसके घर पर रुका तो यह व्यक्ति बाहर आया और उसने खुसरो से भेंट की। इसने खुसरो को इधर उधर से उठाए गए कुछ प्रारंभिक आध्यात्मिक उपदेश दिए और खुसरो के मस्तक पर चंदन से एक निशान बनाया जिसे हिन्दू भाग्यशाली मानते हैं। जब इस बात की जानकारी मुझे मिली तो मैं समझ गया कि वह कितना बड़ा धोखेबाज है और मैंने आदेश दिया कि उसे मेरे पास लाया जाए। मैंने उसके और उसके बच्चों के आवासों को मुर्तज़ा खान(लाहौर के गवर्नर) के अधिकार में दे दिया। और मैंने आदेश दिया कि उसकी संपत्ति एवं सामान को जब्त कर लिया जाए तथा उसे मृत्युदंड दिया जाए।"
जैसा इस उद्धरण से स्पष्ट है कि जहाँगीर एक लंबे समय से सिख धर्म के प्रति घृणा और विद्वेष की भावना रखता था और खुसरो की गुरु अर्जुनदेव से निकटता उसकी घृणा को चरम बिंदु तक ले गयी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जहाँगीर गुरु अर्जुन को हिन्दू का संबोधन देता है। वह सिख धर्म को अलग दर्जा देने को तैयार नहीं है - बिलकुल आज के आरएसएस विचारकों की भांति।
पशुरा सिंह ने अपने शोधपत्र "रीकॉन्सिडरिंग द सैक्रिफाइस ऑफ गुरु अर्जुन" में यह उल्लेख किया है कि जहाँगीर धर्म गुरुओं के प्रति बहुत आदर नहीं रखता था और उसका रवैया इनके प्रति अपमानजनक था। शेख निज़ाम थानेसरी नामक धर्म गुरु भी खुसरो से मिलते हैं और उसकी हौसलाअफजाई करते हैं किंतु जहाँगीर उन्हें राह खर्च देकर मक्का की यात्रा पर तीर्थाटन के लिए जाने का आदेश देता है। एक और अफगान धर्म गुरु शेख इब्राहिम के बढ़ते प्रभाव को देखकर जहाँगीर उन्हें चुनार के किले में तब तक बंधक रखने का आदेश देता है जब तक उनका असर खत्म न हो जाए। पशुरा सिंह यह रेखांकित करते हैं कि गुरु अर्जुन को मंगोल कानून यासा सियास्त के तहत यातनापूर्ण मौत की सजा देना और मुस्लिम धर्म गुरुओं को शरीया कानून के मुताबिक दंड देना जहाँगीर के अलग अलग धर्मावलंबियों के प्रति दोहरे रवैये को दर्शाता है।
बहरहाल गुरु अर्जुन के काल के अनेक ऐतिहासिक वृत्तांतों में इस बात का जिक्र मिलता है कि हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) की नींव गुरु अर्जुन देव के अनुरोध पर सूफी फ़क़ीर मियां मीर ने डाली थी।
गुरु अर्जुन की शहादत सिख समुदाय में बड़े बदलावों का सूत्रपात करती है और उनका स्थान लेने वाले गुरु हरगोबिंद सिखों के सैन्यकरण का प्रारंभ करते हैं। जहाँगीर गुरु हरगोबिंद को कैद कर लेता है और बाद में उन्हें रिहाई भी मिलती है। एक समय ऐसा आता है जब गुरु हरगोबिंद(1595-1644) और जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो जाते हैं और वे जहाँगीर के साथ कश्मीर और राजपूताना में सैन्य अभियानों में हिस्सा लेते हैं और नालागढ़ के ताराचंद को पराजित करते हैं जो लंबे समय से जहाँगीर के लिए सरदर्द बना हुआ था।
किंतु सिखों की बढ़ती सैन्य शक्ति मुग़लों को खटकती है, आपसी संबंधों में तनाव आता है और हम गुरु हरगोबिंद को रोहिल्ला की लड़ाई में गवर्नर अब्दुल खान की फौजों से लड़ते एवं जीतते देखते हैं। शाहजहाँ(1592-1666) का शासन 1627 से प्रारंभ होता है, कुछ उसकी असहिष्णुता और कुछ सिखों की बढ़ती सैन्य शक्ति की अपरिहार्य परिणति- गुरु हरगोबिंद शाहजहाँ की फौजों से अमृतसर और करतारपुर में संघर्ष करते हैं और अमृतसर की लड़ाई(1634) में विजयी भी होते हैं।
शाहजहाँ का बड़ा सुपुत्र दारा शिकोह अगले सिख गुरु हर राय(1630-1661) का प्रशंसक था। दारा शिकोह उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगजेब से पराजित हुआ और औरंगजेब के लंबे शासन काल (1658-1707) की शुरुआत हुई। गुरु हर राय पर दारा शिकोह को समर्थन देने का आरोप लगा। औरंगजेब द्वारा दिल्ली बुलाए जाने पर वे खुद नहीं गए बल्कि उन्होंने अपने पुत्र राम राय को भेजा। राम राय गुरु नानक की साखी की जानबूझकर गलत प्रस्तुति कर औरंगजेब को प्रसन्न करने में कामयाब हुए और इसके लिए उन्हें पिता की कड़ी फटकार का सामना करना पड़ा। गुरु हर राय के उत्तराधिकारी गुरु हरकिशन(1656-1664) पर भी औरंगजेब की नजर थी और उन्हें भी उसने दिल्ली बुलाया जहां चेचक से उनकी मृत्यु हो गई।
इसके बाद गुरु तेगबहादुर(1621-1675) का प्रकरण आता है। गुरु तेगबहादुर को दिए गए मृत्युदंड के कारण विशुद्ध रूप से धार्मिक नहीं थे बिलकुल उसी तरह जैसा हमने पहले देखा कि किस तरह गुरु अर्जुन को दी गई मौत की सजा के लिए सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक कारणों को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता।
सिखों की राजनीतिक और सैन्य शक्ति बढ़ रही थी। मुग़ल साम्राज्य की छोटी छोटी रियासतों के लिए सिख गुरु राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की भांति थे। बादशाह औरंगजेब तक भी यह खबरें पहुँच रही थीं।
गुरु तेगबहादुर की गुरु के रूप नियुक्ति से आहत गुरु पद के लिए स्वयं को योग्य समझने वाले राम राय द्वारा निरंतर उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचे गए। औरंगजेब को गुरु तेगबहादुर के विरुद्ध भड़काने में राम राय की साजिशों और दुष्प्रचार की अहम भूमिका थी।
गुरु तेगबहादुर की नेतृत्व क्षमता, साहस और सैन्य शक्ति के कारण वे सारे लोग जो किसी भी कारण से तत्कालीन शासन से असंतुष्ट थे उनसे जुड़ रहे थे। इस घटनाक्रम को गुरु तेगबहादुर के प्रतिद्वंद्वियों ने अतिरंजित रूप से गुरु तेगबहादुर के सुनियोजित षड्यंत्र के रूप में औरंगजेब के समक्ष चित्रित किया।
हमें यह भी भूलना नहीं चाहिए कि चांदनी चौक में गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद चांदनी चौक जेल कोतवाली के जेलर अब्दुल्ला ख्वाजा ने मुग़लों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था और वे गुरु तेगबहादुर को दिए गए मृत्युदंड का समाचार लेकर आनंदपुर साहिब पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे।
गुरु गोबिंद सिंह(1666-1708) और औरंगजेब के मध्य आजीवन संघर्ष चला। गुरु गोबिंद सिंह ने फ़ारसी भाषा में एक कवित्त औरंगजेब को भेजा जिसमें उसकी कठोर निंदा भी थी और उसे कड़ी चेतावनी भी दी गई थी। औरंगजेब ने उन्हें आपसी बातचीत के जरिए कोई हल निकालने के लिए अपने पास बुलाया किंतु दोनों की मुलाकात हो पाती इससे पहले ही औरंगजेब की मृत्यु हो गई। अगले बादशाह बहादुर शाह प्रथम का रवैया गुरु गोबिंद सिंह के प्रति नरम और दोस्ताना था और आपसी रिश्तों में सुधार की उम्मीद जगी भी थी किंतु गुरु गोबिंद सिंह की असामयिक मृत्यु हो गई और साथ ही गुरु परम्परा का अंत भी।
जसविंदर कौर बिंद्रा जैसे लेखकों के अनुसार बहादुर शाह ने गुरु गोबिंद सिंह के मित्र और फारसी भाषा के कवि नंदलाल के जरिए गुरु से मदद की याचना की थी। गुरु गोबिंद सिंह उसकी सहायता के लिए तैयार हो गए। बहादुर शाह ने उनसे यह वादा किया था कि सत्ता पर काबिज होते ही वह उनके साथ हुए जुल्मों का न्याय करेगा। गुरु गोबिंद सिंह ने भाई धर्म सिंह के अगुवाई में 200-250 योद्धा सिखों की एक टुकड़ी बहादुर शाह की सहायता के लिए भेजी। बहादुर शाह युद्ध में विजयी होकर सत्तासीन हुआ। इसके बाद उसके आमंत्रण पर गुरु गोविंद सिंह माता साहिब कौर के साथ आगरा भी गए एवं उन्होंने बहादुर शाह का आतिथ्य स्वीकार किया।
यह जानना आश्चर्यजनक है कि गुरु गोबिंद सिंह ने मुग़लों के साथ जितने युद्ध लड़े शायद उतने ही या उससे कुछ अधिक हिन्दू राजाओं से लड़े। जातिवाद के विरोध में खड़े गुरु गोबिंद सिंह के सिख धर्म के साथ नीची जातियों का बड़े पैमाने पर जुड़ना और सिख धर्म के माध्यम से ब्राह्मणवादी वर्चस्व से छुटकारा पाने की आशा रखना हिन्दू पहाड़ी राजाओं के लिए असहनीय था। कहलूर के राजा भीमचंद (शासनकाल-1665-1692) ने भंगाणी में गुरु गोबिंद सिंह से 1688 में युद्ध किया। भीम सिंह के उत्तराधिकारी अजमेर चंद ने अन्य हिन्दू राजाओं और औरंगजेब की सहायता लेकर गुरु गोबिंद सिंह पर तीन बार 1700,1703,1705 में आक्रमण किया।
यह जानना और भी रोचक है कि भंगाणी की इस लड़ाई में पीर बुद्धू शाह ने गुरु गोविंद सिंह की ओर से युद्ध किया था और उन्हें विजय दिलाई थी। इस लड़ाई में पीर बुद्धू शाह ने अपने दो पुत्रों अशरफ शाह और मोहम्मद शाह तथा भ्राता भूरे शाह सहित अपने 500 अनुयायियों को खोया था। बाद में 1704 में सढौरा के दरोगा उस्मान खां ने पीर बुद्धू शाह की सम्पूर्ण संपत्ति को आग के हवाले कर दिया तथा उन्हें छतबीड़ के जंगलों में ले जाकर उनके जिस्म के टुकड़े टुकड़े कर दिए।
यहां यह अनायास ही यह स्मरण हो आता है कि 1704 में वजीर खान की सेना से चमकौर में हुए युद्ध के बाद पलायन कर रहे गुरु गोबिंद सिंह को नबी खान और गनी खान नामक दो मुस्लिम भाइयों ने माछीवाड़ा में मुग़लों की घेरेबंदी से बचाने में अहम भूमिका निभाई थी।
यह विस्तृत विवेचन इसलिए किया गया है कि आम पाठक यह समझ सकें कि संदर्भों से कटा हुआ सरलीकृत इतिहास कितना भ्रामक और उत्तेजक हो सकता है, विशेषकर तब जब उसमें धार्मिक भावनाओं का तड़का लगा हुआ हो। जिस इतिहास को लेकर हम मरने मारने पर उतारू हैं वह या तो शासकों( मुग़ल, राजपूत, सिख आदि आदि) के दरबारी विद्वानों द्वारा लिखे गए चाटुकारिता प्रधान और अतिरंजनापूर्ण वृत्तांतों के रूप में है या धर्म परंपरा में वर्णित कथाओं एवं आख्यानों के रूप में है जिनमें आस्था और भावना को प्रधानता दी गई है और जिनमें कल्पना का अपरिहार्य मिश्रण है। कुछ यात्रा वृत्तांत भी हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों का वैसा ही चित्रण करते हैं जैसा कोई दूर देश से आया अनभिज्ञ पथिक कर सकता है।
बाद में औपनिवेशिक शासन प्रारंभ होता है और अंग्रेज एवं अन्य यूरोपीय इतिहासकार भारत की परिस्थितियों के विषय में लिखते हैं। इन्हें भी केवल इसलिए तटस्थ नहीं माना जा सकता कि ये इतिहास लेखन की कदरन वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित पद्धति का आश्रय लेते हैं। इनका मूल उद्देश्य यह रहा है कि वे अपने औपनिवेशिक शासन को न्यायोचित सिद्ध करें और ऐसा शासित देश को पिछड़ा और असभ्य सिद्ध कर ही संभव हो सकता है। फिर इन विद्वानों के सामने भाषा और संस्कृति संबंधी दिक्कतें तो थीं हीं।
यह इतिहास की विचित्रता है कि पक्षपात, भावना, अतिरंजना, कल्पना आदि जिन दोषों को इतिहास लेखन के लिए घातक माना जाता है बिना उनका आश्रय लिए इतिहास लिखा भी नहीं जा सकता।
मध्यकालीन भारत के इस इतिहास में हाड़ मांस के बने हुए बादशाह और राजे महाराजे हैं जिनकी अतिसामान्य कमजोरियों और अनेक बार गर्हित प्रवृत्तियों का शिकार बनने के लिए आम जन अभिशप्त हैं। क्रोध, घृणा, हिंसा, बैर, छल, कपट, वासना, व्यभिचार, प्रतिशोध, सत्ता लोलुपता आदि से संचालित यह राज पुरुष सौभाग्यशाली रहे हैं कि अब तक हम इन पर चर्चा कर रहे हैं।
यदि धर्म को मध्य काल की निर्णायक शक्ति नहीं भी मानें तब भी इसके प्रभाव को कम कर आंकना भूल होगी। किंतु धर्म बहुत कम बार शांति और प्रेम की स्थापना करता दिखता है। यह निकृष्ट कारणों(सत्ता विस्तार की भूख, उत्तराधिकार विषयक झगड़े आदि आदि) से हुए विवादों और युद्धों को उदात्तता का एक भ्रामक आवरण पहनाने में सहायक अवश्य रहा है। यह हिंसा रोकने का नहीं इसे महिमामण्डित करने का जरिया जरूर बना है।
सिख धर्म अपने पूर्ववर्ती अनेक धर्मों की भांति एक विद्रोही तेवर लिए ताज़ा हवा के झोंके की भांति आता है। स्थापित धर्म इस्लाम एवं हिन्दू धर्म- जिनकी जकड़न को यह तोड़ना चाहता है- अपने वर्चस्व पर इसके अतिक्रमण से नाखुश हैं। किंतु जैसा हर धर्म के साथ होता है(और यह दोष नहीं शायद धर्म की अनिवार्य परिणति है) कि सिख धर्म धीरे धीरे संस्थागत धर्म का रूप ले लेता है। हम देखते हैं कि गुरु पद के महत्व को देखकर अनेक निकट संबंधियों की महत्वाकांक्षा जाग्रत होती है और उत्तराधिकार को लेकर विवाद उत्पन्न होते हैं। यह असंतुष्ट परिजन षड्यंत्र रचते हैं और मुग़ल शासकों से जा मिलते हैं। इधर सिख समुदाय का सैन्यकरण होता है और एक विशाल वीर और जुझारू समाज तैयार होता है। मुग़ल और हिंदू शासकों से असंतुष्ट लोग इसके तले लामबंद होना चाहते हैं।कभी मुग़ल शासक इनकी वीरता से भयभीत होकर इनका दमन करने की कोशिश करते हैं तो कभी इनकी वीरता का उपयोग अपने शत्रुओं को कुचलने के लिए करने हेतु इनसे रणनीतिक मैत्री कर लेते हैं। यही रणनीति हिन्दू शासक भी अपनाते हैं। जब गुरु के पद में धार्मिक-आध्यात्मिक शक्तियों के अतिरिक्त राजनीतिक और सैन्य शक्तियां भी अंतर्निहित हो जाती हैं तब स्वाभाविक रूप से इन्हें सत्ता संघर्ष और युद्ध का हिस्सा बनना पड़ता है। सत्ता संघर्ष और युद्ध का अपना व्याकरण है और दुर्भाग्य से इसमें आध्यात्मिकता के लिए कोई स्थान नहीं है।
यूरोपीय मध्यकाल में सत्ता संघर्ष, उत्तराधिकार और धर्म युद्धों की कॉकटेल देखने को मिली थी। यहां भी मामला थोड़े बहुत हेरफेर के साथ वैसा ही है।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
श्रवण गर्ग
देश में चल रही धार्मिक हिंसा और नफरत की राजनीति के खिलाफ कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाहों और अन्य जानी-मानी हस्तियों के द्वारा प्रधानमंत्री के नाम खुली चि_ी लिखकर उनसे अपील की गई है कि वे अपनी चुप्पी तोडक़र तुरंत हस्तक्षेप करें पर मोदी इन पत्र-लेखकों को उपकृत नहीं कर रहे हैं। देश के कामकाज में किसी समय प्रतिष्ठित पदों पर कार्य करते हुए उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाले इन महत्वपूर्ण लोगों की चिंताओं का भी अगर प्रधानमंत्री संज्ञान नहीं लेना चाहते हैं तो समझ लिया जाना चाहिए कि उसके पीछे कोई बड़ा कारण या असमर्थता है और नागरिकों को उससे परिचित होने की तात्कालिक रूप से कोई आवश्यकता नहीं है।
कोई एक सौ आठ सेवानिवृत्त नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) ने जब भाजपा-शासित राज्यों में पनप रही ‘नफरत की राजनीति’ को खत्म करने के लिए खुली चिट्ठी के जरिए पीएम से अपनी गहरी चुप्पी को तोडऩे का निवेदन किया होगा तब उन्हें इस बात की आशंका नहीं रही होगी कि मोदी उनकी बात का कोई संज्ञान नहीं लेंगे। चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में कई या कुछ नौकरशाहों ने तो अपनी सेवानिवृत्ति के पहले वर्तमान सरकार के साथ भी काम किया है।
उल्लेख किया जा सकता है कि 108 नौकरशाहों द्वारा लिखी गई उक्त चिट्ठी पर पीएम ने तो अपनी खामोशी नहीं तोड़ी पर सरकार के समर्थन में उसका जवाब आठ पूर्व न्यायाधीशों, 97 पूर्व नौकरशाहों और सशस्त्र बलों के 92 पूर्व अधिकारियों की ओर से दे दिया गया। कुल 197 लोगों के इस समूह ने आरोप लगा दिया कि 108 लोगों की चि_ी राजनीति से प्रेरित और सरकार के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान का हिस्सा थी।
पिछले साल के आखिर में उत्तराखंड की धार्मिक नगरी हरिद्वार में आयोजित हुई विवादास्पद ‘धर्म संसद’ में कतिपय ‘साधु-संतों’ की ओर से मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं द्वारा हथियार उठाने की ज़रूरत के उत्तेजक आह्वान के तत्काल बाद भी इसी तरह से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को चि_ियाँ लिखी गईं थीं पर कोई नतीजा नहीं निकला। सुप्रीम कोर्ट के 76 वकीलों ने एन वी रमना को पत्र लिखकर हरिद्वार में दिए गए नफरती भाषणों का संज्ञान लेने का अनुरोध किया था। पत्र में कहा गया था कि पुलिस कार्रवाई न होने पर त्वरित न्यायिक हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है।
इसी दौरान सशस्त्र बलों के पाँच पूर्व प्रमुखों और सौ से अधिक अन्य प्रमुख लोगों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर माँग की थी कि सरकार ,संसद और सुप्रीम कोर्ट तत्काल प्रभाव से कार्रवाई करते हुए देश की एकता और अखंडता की रक्षा करे।
कहना होगा कि इन तमाम चि_ियों और चिंताओं के कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं निकले। हरिद्वार के बाद भी धर्म संसदों या धर्म परिषदों के आयोजन होते रहे और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरती हिंसा वाले उद्बोधन भी जारी रहे।
सेवानिवृत्त नौकरशाहों, राजनयिकों, विधिवेत्ताओं और सशस्त्र सेनाओं के पूर्व प्रमुखों की चिंताओं के विपरीत जो लोग सत्ता के नजदीक हैं उनका मानना है कि नफरत की राजनीति के आरोप अगर वास्तव में सही हैं तो प्रधानमंत्री को चि_ियाँ नागरिकों के द्वारा लिखी जानी चाहिए और वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। सत्ता-समर्थकों का तर्क है कि जो कुछ चल रहा है उसके प्रति बहुसंख्य नागरिकों में अगर प्रत्यक्ष तौर पर कोई नाराजगी नहीं है तो फिर उन मु_ी भर लोगों के विरोध की परवाह क्यों की जानी चाहिए जिन्हें न तो कोई चुनाव लडऩा है और न ही कभी जनता के बीच जाना है ? दांव पर तो उन लोगों का भविष्य लगा हुआ जिन्हें हर पाँच साल में वोट माँगने जनता के पास जाना पड़ता है। जो लोग नफरत की राजनीति को मुद्दा बनाकर विरोध कर रहे हैं जनता के बीच उनकी कोई पहचान नहीं है।जनता जिन चेहरों को पहचानती है वे बिल्कुल अलग हैं।
दूसरा यह भी कि ‘नफरत की राजनीति’ अगर सत्ता को मजबूत करने में मदद करती हो तो उन राजनेताओं को उसका इस्तेमाल करने से क्यों परहेज़ करना चाहिए जिनका कि साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों की शुद्धता के सिद्धांत में कोड़ी भर यकीन नहीं है ?
इस सच्चाई की तह तक जाना भी जरूरी है कि हरेक सत्ता परिवर्तन के साथ हुकूमतें नौकरशाहों और संवैधानिक संस्थानों के शीर्ष पदों पर पहले से तैनात योग्य और ईमानदार लोगों को सिर्फ इसलिए बदल देती हैं कि उनकी धार्मिक-वैचारिक निष्ठाओं को वे अपने एजेंडे के क्रियान्वयन के लिए संदेहास्पद मानती हैं। इसीलिए ऐसा होता है कि नफरत की राजनीति के खिलाफ चिट्ठी लिखने वाले नौकरशाह, ‘जो कुछ चल रहा है उसमें गलत कुछ भी नहीं है’ कहने वाले नौकरशाहों से अलग हो जाते हैं। इसे यूँ भी देख सकते हैं कि नफऱत की राजनीति ने नागरिकों को ऊपर से नीचे तक बाँट दिया है।
नफरत की राजनीति को सफल करने की जरूरी शर्त ही यही है कि सत्ता के एकाधिकारवाद की रक्षा में नागरिक ही एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाएँ या कर दिए जाएँ और सरकार चुप्पी साधे रहे, वह किसी के भी पक्ष में खड़ी नजर नहीं आए।यानी जो नौकरशाह नफरत की राजनीति को लेकर चिंता जता रहे हैं उन्हें भी वह चुनौती नहीं दे और जो उसके बचाव में वक्तव्य दे रहे हैं उनकी भी पीठ नहीं थपथपाए।
प्रधानमंत्री ने अपने इर्द-गिर्द जिस तिलिस्म को खड़ा कर लिया है उसकी ताकत ही यही है कि वे बड़ी से बड़ी घटना पर भी अपनी खामोशी को टूटने या भंग नहीं होने देते। खामोशी के टूटते ही तिलिस्म भी भरभराकर गिर पड़ेगा। मुमकिन है हरिद्वार की तरह की और भी कई धर्म संसदें देश में आयोजित हों जिनमें नफरत की राजनीति को किसी निर्णायक बिंदु पर पहुँचाने के प्रयास किए जाएँ और नौकरशाहों के समूह भी इसी तरह विरोध में चिट्ठीयाँ भी लिखते रहें। होगा यही कि हरेक बार प्रधानमंत्री या सत्ता की ओर से वे लोग ही सामने आकर जवाब देंगे जिनका कि सवालों या शिकायतों से कोई संबंध नहीं होगा। प्रधानमंत्री की खामोशी उस दिन निश्चित ही टूट जाएगी जिस दिन नफरत की राजनीति को लेकर नागरिक भी उन्हें चि_ियाँ लिखने की हिम्मत जुटा लेंगे। अत: प्रधानमंत्री की खामोशी तुड़वाने के लिए नौकरशाहों को पहले जनता के पास जाकर उसकी चुप्पी को तुड़वाना पड़ेगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
एक मुस्लिम महिला ने बड़ी हिम्मत का काम किया है। उसने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका लगाकर मांग की है कि किसी भी मुसलमान के लिए दूसरी शादी करने के पहले अपनी पहली बीवी की इजाजत लेना जरुरी हो। उसकी दूसरी मांग यह है कि दूसरी शादी के पहले उसके पास किसी न्यायाधीश का लिखित प्रमाण पत्र होना भी आवश्यक हों कि वह दोनों बीवियों को एक समान रख सकेगा। अदालत ने इस मुद्दे पर विधि मंत्रालय और अल्पसंख्यक आयोग की राय जानने का भी निर्देश जारी किया है।
इस मुस्लिम महिला के वकील ने पाकिस्तान में 1961 में पारित एक कानून का हवाला देते हुए कहा है कि वहां दूसरी शादी करने के लिए अपनी पहली बीवी की इजाजत लेना और दोनों या सभी बीवियों के साथ समान व्यवहार की गारंटी देना जरुरी है। भारत में सरकार समान नागरिकता कानून लाने का ढिढ़ौरा पीटती रहती है लेकिन औरतों की आजादी के मामले में वह पाकिस्तान से भी फिसड्डी है। भारत किसी इस्लामी देश से भी ज्यादा इस्लामी बना हुआ है।
इसका मूल कारण यह है कि भारत में इस्लाम की परंपरा को ठीक से समझा ही नहीं गया है। भारत के मुसलमानों को मुगल बादशाहों के आचरण ने जरुरत से ज्यादा प्रभावित किया है। वास्तव में कुरान शरीफ में एक पत्नीव्रत को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। उसमें चार पत्नियों की छूट इसलिए दी गई थी कि उहूद के युद्ध में बहुत-से मर्द मारे गए थे। उनकी पत्नियों और अनाथ बच्चों की रखवाली जरुरी थी। इसीलिए कुरान के अध्याय 4 और आयत 3 में कहा गया है कि अनाथ महिलाओं और बच्चों के खातिर तुम चार शादियां तक कर सकते हो लेकिन यह तुम तभी करना जब तुम सबके साथ न्याय कर सको।
जो मुसलमान अब एक से ज्यादा शादियां करते हैं, क्या उनका मकसद यही होता है? ज्यादातर बहुपत्नी विवाहों के पीछे कामुकता, यौन लिप्सा, लोभ और शक्ति पिपासा जैसे ही कारण ज्यादा होते हैं। बहुपत्नी विवाह करनेवाले मर्द कौन होते हैं? वे अक्सर मालदार और ताकतवर लोग होते हैं। पैगंबर मोहम्मद के पहले अरब देश में ऐसे लोगों के हरम में दर्जनों बीवियां रहा करती थीं। पैगंबर ने क्रांति की अधिक से अधिक चार बीवियों का समर्थन किया।
इस्लाम के कई नामी-गिरामी मौलानाओं ने एक पत्नीव्रत को आदर्श बताया है। मैं दर्जनों मुस्लिम देशों में रहा हूं। एकाध अपवाद के अलावा किसी भी मित्र की चार तो क्या, मैंने दो बीवियां भी नहीं देखीं। कई मुस्लिम देशों में बहुपत्नी प्रथा पर कड़ा प्रतिबंध है जैसे तुर्की और ट्यूनीसिया में! दर्जन भर से भी ज्यादा मुस्लिम देशों में एक से ज्यादा बीवी रखने पर तरह-तरह के अंकुश लगाए गए हैं। भारत में धर्म-निरपेक्षता के नाम पर बहुपत्नी प्रथा की छूट है लेकिन यह इतनी गई-गुजरी प्रथा है कि भारत में इसे माननेवाला मुसलमान आदमी हजारों में एक भी नहीं मिलता। अदालत को इसे शीघ्र ही ताक पर पहुंचाना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-शंभुनाथ
प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ करोड़ों लोगों ने पढ़ी होगी। यह एक बड़ी मार्मिक कहानी है। कहानी ऐसी चीज है कि वह सबकी होती है, धर्म- जाति से ऊपर उठकर सबको अपील करती है।
‘ईदगाह’ में बच्चे हामिद का मेले में चिमटा चुनना कई संकेतों से भरा है। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में जो कुछ चुनते हैं, उसके पीछे एक चेतना होती है। उनके समय बाजारवाद का वैसा प्रचंड रूप न था, जैसा आज है। ईद हो दिवाली हो, कोई त्यौहार हो बाजार ही खुशियों का स्रोत हो जाता है। इस कहानी का मार्मिक स्थल वह है, जब हामिद अमीना को चिमटा लाकर देता है और वह बच्चे को डांटती है, फिर रोने लगती है!
लेकिन ‘ईदगाह’ बड़े स्प्ष्ट ढंग से बताती है कि बाजार में दो तरह की चीजें होती हैं-‘प्रलुब्धकारी’ और ‘जरूरी’! हामिद तेज हवा में न बहकर प्रलुब्धकारी वस्तुओं की जगह जीवन में जो जरूरी है, वह चुनता है। इस तरह ‘ईदगाह’ मुख्यत: बाजारवाद या उपभोक्तावाद से विद्रोह की कहानी है।
आज हमारे जीवन में उपभोक्तावाद ने ‘प्रलुब्धकारी’ और ‘जरूरी’ का फर्क मिटा दिया है, जिस तरह राजनीति ने धर्म और सांप्रदायिकता का। फिलहाल इन विडंबनाओं से बाहर निकलने की राह सूझ नहीं रही है, फिर भी आपको ‘ईद मुबारक’ तो कह ही सकते हैं!
यह भी याद कर सकते हैं कि अक्षय तृतीया है आज। माना जाता है कि आज ही महाभारत युद्ध का अंत हुआ था! इसका एक और मतलब है, आज के दिन कोई नया काम करने के लिए पंचांग में शुभ मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती। पुरोहित हाशिए पर होते हैं। एक और कथा है, जो मुख्य है-आज के दिन पांडवों को सूर्य से अक्षय पात्र मिला था!
कोई पर्व हो, उसे आज अपना बटुआ खोलने का पर्व बना दिया जा रहा है या घर से लाठी- तलवार निकालने का, जबकि सारे पर्व होते हैं अपना दिल खोल देने के लिए!
आम मनुष्य को मनुष्यता के जन्म से जो अक्षय पात्र मिला है, वह है उसका हृदय, उसका विवेकी मन! इस पर कभी- कभी धर्मांधता और बाजार सभ्यता के आवरण चढ़ जाते हैं। पर क्या मनुष्य को अंतिम रूप से हृदयहीन और विवेकहीन किया जा सकता है? मानव विवेक अक्षय है!!
-सुसंस्कृति परिहार
एक तरफ समान नागरिक अधिकारों की बात सरकार द्वारा उठाई जा रही है जिसे लेकर हालांकि काफी विरोध के स्वर अभी से उठने लगे हैं जबकि अभी यह कानून बनकर सामने नहीं आया है। आज जब अलीराजपुर मध्यप्रदेश आदिवासी समाज से एक समाचार निमंत्रण पत्र के साथ सामने आया तो आंखें खुल गईं। सचमुच कितनी विविधताओं के मिले जुले स्वरुप से भारत बना हुआ है। जिसमें नागरिक अधिकार कितने अलग थलग हैं। संहिता बनाना सहज प्रक्रिया हो सकती है लेकिन लागू करना टेढ़ी खीर होगा।
नानपुर गांव मोरिफलिया अलीराजपुर के पूर्व सरपंच समरथ मौर्य के प्रेम प्रसंग का एक विचित्र मामला सामने आया है। समरथ नाम का 35 वर्षीय भिलाला युवक 15 साल तक अपनी तीन प्रेमिकाओं के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहा वे तीन क्रमश: 33,28 और 25वर्ष की हैं। इन तीनों से समरथ के छै बच्चे हैं। समरथ ने विगत 30 अप्रैल और 1 मई की दरमियानी रात्रि में परम्परागत तौर पर वैवाहिक पूरी रस्में करते हुए अपनी दुल्हन त्रयी के साथ फेरे लिए। विशेष बात ये उनके बच्चे बाराती बने हुए थे। इस शादी में बड़ी संख्या में समाज के स्त्री पुरुष शामिल रहे। हालांकि बड़ी यानि पहली पत्नी नानीबाई को विशेष रुप से सजा संवारा गया। शायद बड़ी होने के कारण।
सवाल इस बात का है कि भिलाला आदिवासी समाज में जब लिव इन रिलेशनशिप की छूट है दो तीन लड़कियों से संबंध रख बच्चे पैदा करने की भी छूट है तो फिर इतने वर्षों बाद शादी की जरूरत क्यों इन पड़ी? वस्तुत:भिलाला समाज ने एक परिपाटी बना रखी है जब तक वे शादी की रस्में पूरी नहीं करते तब तक उन्हें समाज के मांगलिक कार्यों से वंचित रखा जाता है जो अपमान जैसा है। इसीलिए इन शादियों की जरूरत पड़ी। उधर समरथ की माली हालत इतनी समर्थ नहीं थी कि वह तीन पत्नियों नानबाई, मेला और सकरी के साथ शादी का खर्चा वहन कर सके इसीलिए इतनी देर हो गई। अब जब वह समर्थ हुआ उसने बाकायदा शानदार निमंत्रण पत्र छपवाकर धूमधाम से शादी की। आदिवासी समाज में कम से कम प्रेम की महत्ता तो है और उसे निभाने का दुस्साहस भी।
आदिवासी समाज की ये शादी लोगों के बीच काफी चर्चित है लगता है लोग मुश्किल में ना पड़ जाएं। यकीनन समान नागरिक संहिता ना होने की वजह इस तरह की स्थितियां सामने आईं हैं। वस्तुस्थिति यह है कि शादी गैर संवैधानिक नहीं है भारतीय संविधान का अनुच्छेद 342 आदिवासी समाज के रीति-रिवाज एवं विशिष्ट सामाजिक परम्पराओं को संरक्षण देता है। इसलिए आदिवासी समाज में घटित इस घटना से विचलित ना हों।
जहां तक समान नागरिक संहिता की बात है वह एकाएक लागू नहीं की जा सकती है। इसके लिए बहुत गहरे अध्ययन और समझ के बाद ही बनाना चाहिए वरना स्थितियां बिगड़ते देर नहीं लगेगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह यूरोप-यात्रा बड़े नाजुक समय में हो रही है। वे सिर्फ तीन दिन यूरोप में रहेंगे और लगभग आधा दर्जन यूरोपीय देशों के नेताओं से मिलेंगे। वे जर्मनी और फ्रांस के अलावा डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे, आइसलैंड और फिनलैंड के नेताओं से भी भेंट करेंगे। उनके साथ हमारे विदेश मंत्री, वित्त मंत्री आदि भी रहेंगे। कोरोना महामारी के बाद यह उनकी पहली बहुराष्ट्रीय यात्रा होगी।
एक तो कोरोना महामारी और उससे भी बड़ा संकट यूक्रेन पर रूसी हमला है। इस मौके पर यूरोपीय राष्ट्रों से संवाद करना आसान नहीं है, क्योंकि यूक्रेन-विवाद पर भारत का रवैया तटस्थता का है लेकिन सारे यूरोपीय राष्ट्र चाहते हैं कि भारत दो-टूक शब्दों में रूस की भर्त्सना करे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सला वॉन देर लेयन ने भारत आकर बहुत कोशिश की वे भारत को अपनी तरफ झुका सकें। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री दोनों ने स्पष्ट कर दिया कि वे रूसी हमले का समर्थन नहीं करते हैं लेकिन उसका विरोध करना भी निरर्थक होगा।
अब मोदी की यूरोप-यात्रा के दौरान इस मुद्दे को उन राष्ट्रों के द्वारा बार-बार उठाया जाएगा लेकिन यह निश्चित है कि यूरोप के साथ बढ़ते हुए घनिष्ट आर्थिक और सामरिक संबंधों के बावजूद भारत अपनी यूक्रेन नीति पर टस से मस नहीं होगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत का यह सुदृढ़ रवैया इन यूरोपीय राष्ट्रों और भारत के बढ़ते हुए संबंधों के आड़े आएगा।
फ्रांस के साथ भारत का युद्धक विमानों का बड़ा समझौता हुआ ही है। जर्मनी और फ्रांस दोनों ही यूक्रेन के तेल और गैस पर निर्भर हैं। अभी तक वे उसकी वैकल्पिक आपूर्ति की व्यवस्था नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा जर्मनी के नए चान्सलर ओलफ शोल्ज़ से भी मोदी की मुलाकात होगी। नोर्डिक देशों के नेताओं से मिलकर भारत के व्यापार को बढ़ाने पर भी वे संवाद करेंगे। पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में लगभग सभी प्रमुख यूरोपीय राष्ट्रों ने सारे दक्षिण एशिया, खासकर भारत के कच्चे माल से अरबों-खरबों डालर बनाए हैं लेकिन आज इन सारे देशों का भारत के साथ सिर्फ 2 प्रतिशत का व्यापार है।
180 करोड़ लोगों के बीच इतने कम व्यापार के कई कारण हैं लेकिन उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे व्यापारी पूरी तरह अंग्रेजी पर निर्भर हैं। यदि इन देशों की भाषाएं वे जानते होते तो यह व्यापार 10-15 प्रतिशत आराम से फैल सकता है। यदि भारत और यूरोपीय देशों का राजनीतिक और सामरिक सहयोग बढ़ेगा तो उसका एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंदिता में भारत को किसी एक महाशक्ति या गुट के साथ नत्थी नहीं होना पड़ेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभी-अभी कुछ संकेत ऐसे मिले हैं, जिनसे लगता है कि पाकिस्तान की विदेश नीति में बड़े बुनियादी परिवर्तन हो सकते हैं। इन परिवर्तनों का लाभ उठाकर भारत और पाकिस्तान अपने आपसी संबंध काफी सुधार सकते हैं। जिस चीन से पाकिस्तान अपनी ‘इस्पाती दोस्ती’ का दावा करता रहा है, वह इस्पात अब पिघलता दिखाई पड़ रहा है। जो चीन 5 लाख करोड़ रु. खर्च करके पाकिस्तान में तरह-तरह के निर्माण-कार्य कर रहा था, उस प्रायोजना का भविष्य खटाई में पड़ गया है।
चीन अपने शिनच्यांग प्रांत से पाकिस्तान के ग्वादर नामक बंदरगाह तक 1153 किमी लंबी सडक़ बना रहा था ताकि अरब और अफ्रीकी देशों तक पहुंचने का उसे सस्ता और सुगम मार्ग मिल जाए लेकिन अब शाहबाज शरीफ की नई सरकार ने इस पाक-चीन गलियारे की योजना को क्रियान्वित करने वाले प्राधिकरण को भंग कर दिया है। इसे भंग करने के कई कारण बताए जा रहे हैं। एक तो बलूचिस्तान में से इस गलियारे की लंबाई 870 किमी है, जो कि सबसे ज्यादा है।
बलूच लोग इसके बिल्कुल खिलाफ हैं। उन्होंने दर्जनों चीनी कामगरों को मार डाला है। दूसरा, इसने बहुत वक्त खींच लिया है। इसके कई काम अधूरे पड़े हुए हैं। तीसरा कारण यह भी है कि पाकिस्तान अपने हिस्से का पैसा लगाने में बेहद हीले-हवाले कर रहा है। उसने 2000 मेगावाट के बिजलीघर में लगनेवाले 30 हजार करोड़ रु. का भुगतान चीनी कंपनी को नहीं किया है। इसी तरह शिनच्यांग से ग्वादर तक रेल्वे लाइन डालने का 55 हजार करोड़ रु. की प्रायोजना भी खटाई में पड़ गई है।
पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि वह कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और मालदार मुस्लिम राष्टों के आगे अपनी झोली फैलाने के लिए मजबूर है। ऐसी स्थिति में वह चीन से अगर विमुख होता है तो उसके पास अमेरिका की शरण में जाने के अलावा कोई चारा नहीं है। इस वक्त तो रूस और चीन दोनों की ही दाल पतली हो रही है। एक की यूक्रेन के कारण और दूसरे की कोरोना के कारण ! अमेरिका तो पाकिस्तान का सबसे बड़ा मददगार रहा है।
यदि शाहबाज शरीफ थोड़ी हिम्मत दिखाएं और नई पहल करें तो पाकिस्तान का उद्धार हो सकता है। यदि अमेरिका से उसके संबंध बेहतर होंगे तो भारत के साथ वे अपने आप सुधरेंगे। अमेरिका इस वक्त चीन से बेहद खफा है। उसके इस्पाती दोस्त पाकिस्तान को वह अपनी हथेली पर उठा लेगा। शाहबाज चाहें तो भारत के साथ बंद हुए सभी रास्तों को खोलने की भी कोशिश कर सकते हैं। अमेरिका अपने आप उसके लिए अपनी भुजाएं फैला देगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
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एक तरफ तो प्रधानमंत्री अपने निवास पर सिख-प्रतिनिधि मंडल का स्वागत कर रहे हैं और दूसरी तरफ पटियाला में सिखों और हिंदुओं के बीच धुआंधार मारपीट हो रही है। प्रधानमंत्री ने हाल ही में गुरु तेग बहादुर के 400 वें जन्म-समारोह के अवसर पर भारत की आजादी और समृद्धि में सिख समुदाय के अपूर्व योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और कल पटियाला में खालिस्तान की मांग को लेकर दंगल मचा हुआ था। हिंदू और सिख संगठन आपस में भिड़ गए, उनमें लाठियाँ, गोलियाँ चलीं और पटियाला में कर्फ्यू भी लगाना पड़ गया।
पटियाला में जो कुछ हुआ, उसकी जड़ में उग्रवाद, मंदबुद्धि और संकीर्णता के अलावा कुछ नहीं है। उसका गुरु नानक के सिख धर्म और हिंदू धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। वह अल्पमति लोगों का आपसी दंगल भर है। बिल्कुल ऐसा ही दृश्य अभी-अभी दिल्ली के द्वारका क्षेत्र में देखने को मिला। राजाराम नामक गोदुग्ध का धंधा करनेवाले एक गरीब आदमी की हत्या कुछ गोरक्षकों ने इसलिए कर दी कि उन्हें शक था कि उसने किसी गाय की हत्या कर दी थी। उसके घर से किसी गाय के अस्थि-पंजर देखकर उन्होंने यह क्रूरतापूर्ण कुकर्म कर दिया। क्या ऐसे लोगों को आप हिंदुत्व या गोमाता के रक्षक कह सकते हैं? ऐसे लोग आदमी को पशु से भी बदतर समझकर उसे मार डालते हैं।
पंजाब में जो उग्रवादी खालिस्तान की मांग कर रहे हैं, वे बताएं कि वे कितने खालिस हैं? क्या वे गुरु नानक के सच्चे भक्त हैं? क्या उन्होंने गुरुवाणी के सच्चे अर्थों को समझने की कोशिश की है? वे धार्मिक उतने नहीं हैं, जितने राजनीतिक हैं। सत्ता की भूख उन्हें दौड़ाती रहती है। वे सत्ता हथियाने के लिए देश के दुश्मनों से भी हाथ मिला लेते हैं। सिखों के साथ क्या भारत में कोई भेदभाव या अन्याय होता है? भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सिख समुदाय के रहे हैं। वे लोकसभा अध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश, राज्यपाल, मुख्यमंत्री आदि सभी पदों पर रहते आए हैं।
किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग को इतनी महत्ता भारत में नहीं मिली है, जितने सिखों को मिली है। क्या भारत में कोई ऐसा समुदाय भी है, जिसके सिरफिरे सदस्यों ने किसी प्रधानमंत्री की हत्या की हो? प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख लोगों पर जो अत्याचार हुआ है, उसकी निंदा किसने नहीं की है? सिख समुदाय अपनी भारत भक्ति और कठोर परिश्रम का पर्याय है। भारतीयों को उस पर गर्व है। जो बंधु खालिस्तान का नारा लगाते हैं, क्या उन्हें पता नहीं है कि 1947 में पाकिस्तान का नारा लगानेवालों ने बेचारे करोड़ों मुसलमानों की जिंदगी कैसे मुहाल कर रखी है। जो भारत में रह गए, उन करोड़ों मुसलमानों की जिंदगी भी उन खुदगर्ज नेताओं ने परेशानी में डलवा दी है। खालिस्तानियों को पाकिस्तान से मदद नहीं, सबक लेना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. जैन
वर्ष 1974 से ही इंदिरा जी की लोकप्रियता व उनके कुछ फैसलों, उनका समाजवादी नीतियों की तरफ झुकाव, अमेरिका की नाराजगी आदि को लेकर उन्हें अस्थिर करने की कुछ ताकतों द्वारा साजिशें रचनी शुरू कर दी गई थी।
ऐसा ही एक मामला रेलवे की हड़ताल का था। समाजवादी व ट्रेड यूनियन लीडर जॉर्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में पूरे देश के 17 लाख रेलवे कर्मचारी दिनांक 8 मई 1974 को रेलवे का चक्का जाम कर हड़ताल पर चले गये थे। रेलवे कर्मचारियों की सेवा शर्तों, व वेतनमान को लेकर यह हड़ताल हुई थी। रेलवे किसी भी देश की जीवन रेखा होती हैं तो समझा जा सकता है कि रेलवे का चक्का जाम होने से देश की क्या हालत हुई होगी। बिजलीघरों में कोयले की ढुलाई से लेकर, खाद्यान्न, औद्योगिक सामग्री आदि सब ठप्प हो गई थी। यातायात का सबसे सस्ता और सुगम साधन रेल सेवा ही थी तो यात्रियों को भी कितनी परेशानी हुई होगी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। तब तक हमारे देश के रोड ट्रांसपोर्ट की क्षमता भी बेहद सीमित थी तो हड़ताली नेताओं को लगा था कि उनकी मांगों के सामने सरकार एक दिन में ही घुटने टेक देगी और उनकी सारी मांगें मान लेगी।
यहां रेलवे यूनियन के नेता मार खा गये क्योंकि उन्होंने इंदिरा जी को आँकने में भारी भूल की थी। हड़ताल शुरू होते ही इंदिराजी ने सख्ती दिखाते हुए यूनियन के नेताओं को जेलों में डाल दिया और हड़ताली कर्मचारियों की सेवाएँ समाप्त करनी शुरू कर दी। उनसे रेलवे के क्वार्टर भी खाली कराने शुरू कर दिये। लगभग 30000 कर्मचारियों व यूनियन नेताओं को रेलवे की नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। आवश्यक वस्तुओं की माल ढुलाई के लिये सेना व रेलवे के रिटायर्ड कर्मचारियों तथा जो थोड़े कर्मचारी हड़ताल पर नहीं गये थे को लगाया गया ताकि आम जन जीवन प्रभावित न हो। प्रमुख रेल मार्गों की यात्री रेल सेवाएँ भी चालू रखवाई गई थी। कहने का मतलब यह है कि रेलवे हड़ताल से आम जनजीवन बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं होने दिया गया था।
सरकार ने हड़ताली कर्मचारियों व यूनियन नेताओं को यह स्पष्ट कर दिया था कि कर्मचारी बिना शर्त हड़ताल समाप्त कर काम पर लौटे तभी उनसे बात की जा सकती हैं। सरकार की सख्ती का नतीजा यह हुआ कि 20 दिनों तक हड़ताल करने के बाद भी उनकी कोई मांग नहीं मानी गई और सभी कर्मचारी काम पर लौट आये। जिन हड़ताली नेताओं व कर्मचारियों की सेवाएँ समाप्त की गई थी उनमें से कुछ को ही बहाल किया गया था। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी और उनके नेता जार्ज फर्नांडीज मंत्री बने तो बर्खास्त कर्मचारियों को उम्मीद थी कि उन्हें बहाल कर दिया जायेगा पर जनता पार्टी की सरकार भी उन्हें बहाल न कर सकी थी।
कर्मचारियों का अपनी माँगों को लेकर हड़ताल करने को मैं गलत नहीं मानता पर रेलवे जैसी आवश्यक सेवाओं, जिनसे पूरा देश प्रभावित हो सकता है, देश में अव्यवस्था फैल सकती हैं व देश की सुरक्षा तक खतरे में पड़ सकती है में हड़ताल करने को मैं गलत मानता हूँ। इंदिराजी यदि इस हड़ताल को सख्ती से नहीं कुचलती तो देश में भयानक अराजकता फैल सकती थी और स्वार्थी यूनियन नेताओं को अपनी मनमानी करने का रास्ता मिल जाता। इसी सख्ती के कारण रेलवे में फिर कभी दुबारा हड़ताल नहीं हुई भले ही उनकी सुविधाओं, सेवा शर्तों में कटौती ही क्यूँ न होती रही हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय राजनीति का यह अनिवार्य चरित्र बन गया है कि लोकहितकारी मुद्दों को भी सांप्रदायिक रंगों में रंग दिया जाता है। जैसे अवैध मकानों को गिराना और धर्मस्थलों की कानफोड़ू आवाज़ों को रोकना अपने आप में सर्वहितकारी कार्य हैं, लेकिन इन्हें ही लेकर आजकल देश में विभिन्न संप्रदायों के नेता और राजनीतिक दल आपस में दंगल पर उतारु हो गए है।
मुंबई में अब महाराष्ट्र नव-निर्माण सेना ने धमकी दे दी है कि 3 मई (ईद के दिन) तक यदि महाराष्ट्र सरकार ने मस्जिदों से लाउडस्पीकर नहीं हटाए तो वह मस्जिदों के सामने हनुमानचालीसा का पाठ करेंगे। यदि यह सेना सभी धर्मस्थलों- मस्जिदों, मंदिरों, गिरजों, गुरुद्वारों और साइनागोगों- के लिए इस तरह के प्रतिबंधों की मांग करती तो वह जायज होती लेकिन सिर्फ मस्जिदों को निशाना बनाना तो शुद्ध सांप्रदायिकता है या यों कहें कि थोक वोट की राजनीति है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इस कानफोड़ू आवाज के खिलाफ अभियान शुरु किया तो उसने किसी भी धर्मस्थल को नहीं बख्शा। उसने मंदिरों और मस्जिदों पर ही नहीं, जुलूसों पर भी तरह-तरह की मर्यादाएं लागू कर दी हैं। इसी तरह बुलडोजर मामा की तरह प्रसिद्ध हुए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने पिछले दिनों अवैध मकान ढहाने में कोई भेदभाव नहीं किया। उनके बुलडोजरों ने मुसलमानों के जितने मकान ढहाए, उससे कहीं ज्यादा हिंदुओं के ढहा दिए। अवैध मकानों को ढहाना तो ठीक है लेकिन सिर्फ दंगाइयों के ही क्यों, सभी अवैध मकानों को ढहाने का एकसार अभियान क्यों नहीं चलाया जाता? ढहाने के पहले उन्हें सूचित किया जाना भी जरुरी है।
इसके अलावा जो गलत ढंग से ढहाए गए हैं, उन मकानों को फिर तुरंत बना देना और उनका पर्याप्त हर्जाना भरना भी जरुरी है। अवैध मकानों को ढहाने का मामला हो या कानफोड़ू आवाज को काबू करना हो, कोई भी भेदभाव करना अनैतिक और अवैधानिक है। जहां तक मस्जिदों से उठनेवाली अजान की आवाजों या मंदिर की भजन-मंडलियों के बजनेवाले भौंपुओं का सवाल है, दुनिया के कई देशों में इन पर कड़े प्रतिबंध हैं। हमारे मुसलमान जऱा सउदी अरब और इंडोनेशिया की तरफ देखे।
इस्लाम की दृष्टि से एक सबसे महत्वपूर्ण और दूसरा, सबसे बड़ा देश है। सउदी अरब की मस्जिदों में लाउडस्पीकर हैं लेकिन वे उनकी 1/3 आवाज से ज्यादा नहीं चला सकते। इंडोनेशिया में इस तरह के प्रतिबंध और भी बारीकी से लगाए गए हैं। नाइजीरिया ने तो कानफोड़ू आवाज के चलते 70 गिरजों और 20 मस्जिदों को बंद कर दिया है। होटलों और दारुखानों को भी बंद किया गया है। कारों के भौंपुओं की आवाज भी सीमित की गई है।
अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस में भी मजहबियों को शोर मचाने की छूट नहीं दी गई है। यूरोप के लगभग दो दर्जन देशों ने मजहबी प्रतीक चिन्ह लगाकर बाहर घूमने पर भी प्रतिबंध लगा रखा है। लेकिन ये देश इन प्रतिबंधों को लगाते वक्त इस्लाम और ईसाइयत में फर्क नहीं करते। जब प्रतिबंध सबके लिए समान रूप से लगाए जाएं, तभी वे निरापद कहलाते हैं। धर्म के नाम पर चल रहे निरंकुश पाखंड और दिखावों को रोकने में भी इन प्रतिबंधों का उत्तम योगदान होगा । (नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
सलीम गौस के निधन की खबर पढ़ी और आँखों के आगे दूरदर्शन वाले पुराने दिन घूमने लगे। सन् 1987 की बात है। अपट्रान का ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था, जिसके दरवाजे स्लाइड करते हुए खुला करते थे। पिता को गुजरे सात साल हो गए थे। भाई दूसरे शहर जा चुके थे। पुराने घर में अतीत की भुतैली स्मृतियां ही डोला करती थीं, लिहाजा हम मां-बेटे सारा खाली वक्त उस टीवी के आगे ही बिताते थे।
उन्हीं दिनों 'सुबह' नाम का एक टीवी सीरियल शुरू हुआ था, जिसमें दो युवा दोस्तों की कहानी थी। उसके युवा अभिनेता ने अपनी बड़ी और भावप्रवण आँखों और गहरी आवाज़ से स्क्रीन पर आते ही खींच लिया। कॉलेज के युवाओं की यह कहानी धीरे-धीरे ड्रग्स की तरफ बढ़ गई। भरत रंगाचारी का निर्देशन था जो सिर्फ 42 साल की उम्र में गुजर गए। इस सीरियल में संवाद कम होते थे और दृश्य तब के चलन से अलग तरीके से शूट किए जाते थे।
सीरियल में एक मुकाम आता है जब नायक को ड्रग्स के लिए पैसे की जरूरत होती है और वह अपने बुजुर्ग अभिभावकों (शायद नाना-नानी) को ही मार देता है। तब के और आज के लिहाज से भी यह दृश्य विचलित करने वाला था। लिहाजा जब उस एपिसोड के बाद विरोध के स्वर उठे तो दूरदर्शन ने उसका प्रसारण रोक दिया।
बाद में सलीम गौस श्याम बेनेगल की 'भारत एक खोज' जब राम बने तो मुझे लगा कि राम ऐसे ही रहे होंगे। कैलेंडर वाले राम और अरुण गोविल से बिल्कुल अलग, सच्चे और वास्तविक। मैंने बस उसके बाद सलीम गौस को नहीं देखा। हालांकि बाद की कई फिल्मों में वे प्रभावशाली खलनायक बनकर आए।
वे पूना फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट से निकले अभिनेता थे। स्क्रीन पर महज अपनी उपस्थिति से बांध लेने की कला थी उनमें। ऐसा न होता तो इतने सालों में बाद जब जाने कितने लोग और बातें विस्मृत हो जाती हैं एक अभिनेता कैसा याद रह जाएगा भला?
यह 1992 से पहले की बात है और राम का अभिनय किसी सलीम ने किया था, उन दिनों इस बात पर कभी ध्यान नहीं गया था।
(फेसबुक से)
-सरोज सिंह
पश्चिम बंगाल के खडग़पुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी रैली को संबोधित कर रहे थे। भाषण के बीच में पास की मस्जिद से अजान की आवाज आती है। आवाज़ सुनते ही पीएम मोदी दो मिनट के लिए चुप हो जाते हैं।
उस चुप्पी के बाद अपना भाषण ये कहते हुए शुरू करते हैं, ‘हमारे कारण किसी की पूजा, प्रार्थना में कोई तकलीफ ना हो, इसलिए मंैने कुछ पल के लिए भाषण को विराम दिया।’
इसके बाद 2017 में गुजरात के नवसारी की एक सभा में भी पीएम मोदी अजान के समय भाषण देते हुए चुप हो गए थे।
साल 2018 में त्रिपुरा में भी ऐसा ही किया था। उस वक्त पीएम मोदी की इस ‘चुप्पी’ ने खूब तारीफ बटोरी थी।
उनके धुर विरोधी रहे समाजवादी पार्टी नेता आजम खान ने कहा, ‘इसे मुसलमानों का तुष्टीकरण नहीं कहना चाहिए, ये अल्लाह का खौफ है।’
दूसरी चुप्पी
बात साल 2022 की है।
देश के तकरीबन 100 पूर्व नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है। चिट्ठी में भारत में वर्तमान में चल रही मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के खिलाफ चल रही कथित नफरत की राजनीति पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठाया गया है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक चिट्ठी में लिखा गया है, ‘नफरत की राजनीति जो इस समय समाज झेल रहा है, उसमें आपकी चुप्पी (पीएम) कानों को बहरा करने वाली है।’
गौरतलब है कि पिछले कुछ दिनों से अजान और लाउडस्पीकर को लेकर देश के अलग अलग प्रदेशों में राजनीति गरमाई हुई है। महाराष्ट्र में जहाँ एक पार्टी ने सभी मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने के लिए तीन मई की समय सीमा निर्धारित की है। वहीं उत्तर प्रदेश में ध्वनि प्रदूषण का हवाला देते हुए मंदिर, मस्जिदों से तकरीबन 10 हजार लाउडस्पीकर हटाए गए हैं। इसके अलावा मीट बैन, हिजाब, शोभायात्रा पर देश के अलग अलग हिस्सों में जो हिंसा और राजनीति हुई, इसकी बातें किसी से छिपी नहीं हैं।
नौकरशाहों की चिट्ठी में पीएम मोदी की इन बातों पर ‘चुप्पी’ का ही जिक्र है।
चिट्ठी में लिखा गया है, ‘पूर्व नौकरशाह के रूप में हम आम तौर पर ख़ुद को इतने तीखे शब्दों में व्यक्त नहीं करना चाहते हैं, लेकिन जिस तेज गति से हमारे पूर्वजों द्वारा तैयार संवैधानिक इमारत को नष्ट किया जा रहा है, वह हमें बोलने और अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए मजबूर करता है।’
दोनों चुप्पी में अंतर
2016, 2017 और 2018 में पीएम मोदी अपने भाषण के दौरान अजान सुन कर जब ‘चुप’ हो जाते थे, तो उनके धुर विरोधी आजम खान तक तारीफ करते थे। लेकिन उनकी आज की चुप्पी सवालों के घेरे में है।
इस बार नौकरशाहों ने भी इस पर सवाल उठे, न्यायालय में भी मामला पहुँचा और राजनीतिक विरोधी तो सवाल पूछ ही रहे हैं।
बुधवार को नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला भी इन सब पर खूब बोले।
मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘सियासत के लिए एक गलत माहौल बनाया जा रहा है। कहा जा रहा है मस्जिदों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। क्यों भाई, जब मंदिरों में हो सकता है तो मस्जिदों में क्यों नहीं। दिन में पाँच बार नमाज होती है। इसमें गुनाह क्या है?
‘आप हमें कहते हैं कि हलाल मीट नहीं खाना चाहिए। आखिर क्यों? हमारे मजहब में कहा गया है। आप इस पर रोक क्यों लगा रहे हो। हम आपको मजबूर नहीं कर रहे हैं खाने को। मुझे बताइए किस मुसलमान ने किसी गैर मुसलमान को हलाल मीट खाने को मजबूर किया। आप अपने हिसाब से खाइए, हम अपने हिसाब से खाएंगे। हम आपसे नहीं कहते कि मंदिरों में माइक नहीं लगने चाहिए। मंदिरों में माइक नहीं लगते क्या?गुरुद्वारे में माइक नहीं लगता है क्या? लेकिन आपको केवल हमारा माइक दिखता है। हमारे कपड़े खटकते हैं, आपको सिर्फ हमारा नमाज पढऩे का तरीका पसंद नहीं है।’
पीएम से गुहार क्यों?
नौकरशाहों की तरफ से लिखी चिट्ठी पर 108 लोगों के हस्ताक्षर हैं। इनमें दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव सुजाता सिंह, पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई और पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव रहे टीकेए नायर शामिल हैं।
पीएम मोदी की चुप्पी के सवाल पर नजीब जंग ने कहा, ‘जिन ब्यूरोक्रेट्स ने ये चिट्ठी लिखी है, उसका नाम है ‘कॉन्स्टिट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप’। इसमें 200 नौकरशाह शामिल हैं। संविधान का जब कभी उल्लंघन होता है या दाग लगता हुआ हमें दिखता है, हम उस बारे में चिट्ठी लिखते रहते हैं।
पिछले आठ-दस महीनों में हमने महसूस किया है कि देश में सांप्रदायिकता का नया दौर चला है, जिसमें सरकार को जो कार्रवाई करनी चाहिए वो नहीं की गई है। राज्य के डीएम और एसपी को जो कार्रवाई करनी चाहिए वो बहुत चिंताजनक है। इससे अल्पसंख्यक समुदाय जैसे मुसलमान, सिख, ईसाई उनमें भय का माहौल बनता जा रहा है।’
हमारा मानना है कि हिंदुस्तान में एक शख्स है, जिसकी बात देश सुनता है, वो हैं प्रधानमंत्री मोदी। वो एक कद्दावर नेता हैं। वो एक इशारा कर देंगे तो ये वारदातें रूक जाएंगी। अगर रुकेंगी नहीं तो कम तो जरूर हो जाएंगी। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, उनको इशारा मिलेगा कि ऐसा नहीं चल सकता।’
पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई भी इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में से एक हैं।
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘भले ही सांप्रदायिक हिंसा के ये मामले राज्यों में हो रहे हों, हम राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी चिट्ठी लिख सकते थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी प्रभावशाली नेता हैं, उनकी एक लाइन बोलने से सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक संदेश पहुँच जाएगा।’
‘हमने इसका उदाहरण पहले भी देखा है। सीएए-एनआरसी विवाद के दौरान अमित शाह का एक बयान था कि जल्द ही एनआरसी लागू किया जाएगा, लेकिन दो दिन बाद जब प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि अभी इस पर फैसला नहीं लिया गया है, तो उसके बाद से अमित शाह की तरफ से एनआरसी पर कोई बयान नहीं आया। साफ है, उनके शब्दों का प्रभाव कितना है।’
चिट्ठी पर बीजेपी की प्रतिक्रिया
नौकरशाहों की चिट्ठी में कहा गया है कि पिछले कुछ सालों में कई राज्यों- असम, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में अल्पसंख्यक समुदायों, खासकर मुसलमानों के प्रति नफरत और हिंसा में बढ़ोतरी ने एक भयावह आयाम हासिल कर लिया है। पत्र में कहा गया है कि दिल्ली को छोडक़र इन राज्यों में भाजपा की सरकार है और दिल्ली में पुलिस पर केंद्र सरकार का नियंत्रण है।’
हालांकि बीजेपी ने इस चिट्ठी पर तीखी प्रतिक्रिया दी है।
बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा, ‘प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चलाई जा रही जनकल्याणकारी योजनाओं जैसे फ्री वैक्सीन, फ्री राशन, जनधन अकाउंट पर तो ये ग्रुप कभी कुछ नहीं कहता। पीएम मोदी के नेतृत्व में हमारी सरकार पॉजिटिव गवर्नेंस के एजेंडे पर काम कर रही है, जबकि इस तरह के ग्रुप नकारात्मकता फैलाने का काम कर रहे हैं।’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो चुप्पियों के अंतर पर बोलते हुए राम बहादुर राय कहते हैं,
‘पहली चुप्पी जो थी वो नरेंद्र मोदी के धर्मनिरपेक्षता में सर्वधर्म सम्भाव में आस्था की चुप्पी थी। आज की चुप्पी संवैधानिक संघ की जो मर्यादा है वो उसकी चुप्पी है।’
मतलब जो राज्यों में हो रहा है, उसकी जिम्मेदारी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की है। अगर प्रधानमंत्री कुछ बोलते हैं तो मुख्यमंत्री के कार्य में वो हस्तक्षेप होगा। कानून व्यवस्था राज्यों का विषय है। एक अनुभवी मुख्यमंत्री होने के नाते, पीएम मोदी को पता है कि कहाँ उनको बोलना है और कहाँ चुप रहना है।
‘जो लोग प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख रहे हैं वो कोई साम्प्रदायिक सहिष्णुता का उदाहरण नहीं दे रहे हैं। वो इस आग में अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं। जो कुछ अभी हो रहा है, वो आजादी के बाद 1967 के बाद पहली बार हुआ था। आज की परिस्थितियां अलग है। जो कुछ छिटपुट घटनाएं हो रही हैं, उसे राज्य सरकारें संभाल रही हैं। कोई नरसंहार नहीं हो रहा है। जैसे सुप्रीम कोर्ट ने कहा धर्म संसद रोको तो उत्तराखंड की सरकार ने रोक दिया। इसलिए हर बात में प्रधानमंत्री को घसीटना उचित नहीं है। बोलने से ज्यादा चुप रहने में धैर्य और बुद्धि की जरूरत होती है।’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो चुप्पियों के अंतर पर बोलते हुए सुधींद्र कुलकर्णी कहते हैं, ‘अजान के समय भाषणों में चुप रहने की परंपरा राजनीति में पुरानी है। मैं खुद उन कई मौकों का गवाह रहा हूँ, जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी किसी रैली में होते और अजान की आवाज सुन लेते तो वो चुप हो जाते थे। अगर प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ( 2016, 2017, 2018) में जारी रखा, ये बड़ी बात है। वो शायद अज़ान के समय चुप नहीं होना चाहते थे, लेकिन चूंकि परंपरा चली आ रही थी, तो उन्हें चुप रहना पड़ा।’
वो आगे कहते हैं, ‘इस साल नफरत के माहौल में पीएम मोदी का चुप रहना बड़ी बात है। प्रधानमंत्री होने के नाते जब सांप्रदायिक हिंसा इतनी फैल रही है, दिल्ली तक इससे अछूती नहीं रहती है, धर्म संसद के नाम पर नफरत वाले भाषण हो रहे हैं। लेकिन पीएम के मुँह से एक शब्द नहीं निकलता, ये चुप्पी बिना कुछ कहे, बहुत कुछ कह दे रही है। ये ज़्यादा निंदनीय है।’ (bbc.com/hindi)
आज के ज्ञानी-ध्यानी दिल्ली से देहरादून तक धर्मसंसदों में खड़े होकर तिलक, चंदन, भगवा धारण करने के बावजूद त्याग या अपरिग्रह या करुणा की बजाय अखंड सनातनी हिन्दू भारत की स्थापना और विधर्मियों तथा विपक्ष का समूल विनाश करने का संदेश मीडिया में फैला रहे हैं।
-मृणाल पाण्डे
पर्यटन शब्द पहाड़ में पिछले दशक में ही चलन में घुसा है। इससे पहले पहाड़ी लोग-बाग तो बाहर जाने को देशाटन कहा करते थे और मैदानी लोग हिमालय की तरफ आने को तीर्थाटन! चार धाम यात्रा का जगन्नाथी रथ तब बुलडोजरों से बने चार-छह लेन के राजमार्गों से हो कर नहीं जाता था। अधिकतर तीर्थयात्री तीर्थाटन को पवित्र शारीरिक श्रम से जोड़ कर देखते थे। थकान के हिसाब से लंबी डगरों पर चट्टियां बनी थीं जहां जरूरत का न्यूनतम सामान पाकर विश्राम किया जा सकता था। फिर पैदल हिमालयीन इलाके की सुंदरता निहारते हुए हम लोग आगे बढ़ते।
अभी पिछले हफ्ते अपने एक बीमार प्रियजन को देखने के लिए बरास्ते हरिद्वार, ऋषिकेश और फिर देहरादून जाना हुआ। इस दौरान यह पाया कि धार्मिक पर्यटन ने इलाके का नक्शा ही बदल डाला है। सरकार की असीम अनुकंपा से सारे इलाके का तीर्थाटन अब पैसे की वैतरणी का इलाके में अवतरण करवाने वाला पर्यटन का पैकेज बना कर बेचा जा रहा है। सैर-सपाटे के लिए दिल्ली के काफी पास पडऩे वाले इस कुदरती तौर से सुंदर इलाके में आकर मौज-मस्ती के साथ गंगा में डुबकी मार कर पाक-साफ हो जाने का ‘एक पंथ दो काज’ का न्योता देने वाले विज्ञापनों से देश भर का मीडिया पाट दिया गया है।
पर्यटक भारी तादाद में आने भी लगे हैं। ईस्टर से लेकर रमजान और हनुमान जयंती तक नाना उत्सवों की मेहरबानी से कामकाजियों के लिए यह एक लंबा सप्ताहांत था। कोविड के दौरान घरों में कैद पर्यटकों का एक इतना भारी हजूम इस इलाके में उमड़ पड़ा था जिसे लोकल लोग भी कहते थे, उनकी कल्पना से परे था। चिर गरीब पहाड़ों को पर्यटन उद्योग के विकास के जरिये धर्म और पर्यटकों का स्वर्ग बना देने पर अपनी पीठ थपथपाते दिल्ली और देहरादून उत्तराखंड के ऐसे टेढ़े-मेढ़े विकास पर चिंतित नहीं, कसीदे पढ़ते रहते हैं।
गौरतलब यह भी है कि टूर ऑपरेटर जो कि अधिकतर मैदानी लोग हैं, एयर कंडिशन्ड वाहनों से चारेक दिनों में आपको चार धाम की यात्रा करवाने का वादा करते हैं। इससे तेज रफ्तार वाहनों की आवाजाही और पानी, लोकल रिहायशी जगहों की गंदगी बेतरह बढ़ चुकी है। छोटे-छोटे बाजार सैलानियों के भीमाकार वाहनों के जाम से ठसाठस रहते हैं और सफाई होना नामुमकिन बन जाता है। कुल मिलाकर सारे बड़े पहाड़ी शहर आधारभूत ढांचा लाए बिना इस पर्यटन विस्फोट के शिकार बन गए हैं जो पहाड़ के नाजुक पर्यावरण या स्थानीय भावनाओं को ठेंगे पर धरने वाले पर्यटकों की बेतरतीब आवाजाही और पार्किंग से हर गर्मी में विशाल स्लम बन जाते हैं।
फिर भी सरकार को गर्व है कि बड़े बिल्डरों और हयात रीजेंसी जैसी पांच तारा होटल चेनों ने यहां योगा-भोगा के वास्ते विदेशियों और अनाप-शनाप कमा चुके हमारे दौलतियों के लिए स्वर्ग समान सुविधाएं उपलब्ध करा दी हैं। धर्म के नाम पर अपनी कमाई का एक अंश देकर पाप धोने और स्वर्गवासी होने का फार्मूला इन नगरियों में सरकारी अमले और उन पर्यटकों को जो डच बियर या स्कॉटलैंड की व्हिस्की पीते हुए बाल्कनी से गंगा की धारा निहारते हैं, कतई हास्यास्पद नहीं, विकास का सार्थक प्रमाण लगता है।
अंतिम बात से याद आया कि हरिद्वार से ऋषिकेश के रास्ते में मुनि की रेती इलाके में एक पुल के आर-पार भीषण जाम लगा था। बताया गया कि यह नियमित रूप से लगता है। वजह? बताया गया, अजी, यहां बस अड्डा तो है ही, साथ ही यहां पर धर्मस्थली देवभूमि उत्तराखंड की सबसे बड़ी शराब की दूकान है। सो पर्यटक और शराब के सारे इलाके के गाहक यहां रात गए तक जुटे रहते हैं। पर क्या देवभूमि को ड्राय एरिया नहीं घोषित किया गया है?
जिस अदा से कभी गोपियों ने कृष्ण से ‘नैन नचाय, कह्यो मुसुकाय, लला फिर आइयो खेलन होरी’ ... कहा होगा वैसे ही बातून उत्तरदाता बोला, ‘अजी यही तो मजे की बात है! यहां पर दो जनपदों की सीमा हुई, टिहरी गढ़वाल और ऋषिकेश। ऋषिकेश में शराब नहीं बिकेगी, पर यहां टिहरी गढ़वाल में शराबबंदी लागू नहीं होने वाली है। उनका अपना कानून है। इसीलिए टिहरी गढ़वाल में ये दूकान बनी है। देसी कहो तो देसी, बिदेसी कहो तो बिदेसी, सारा माल हुआ यहां पर! कमाई का क्या पूछते हो? हमने सुना इस साल पूरे नौ करोड़ पैंतीस लाख में इसका ठेका उठा है।
स्व. अनुपम मिश्र विनोबा भावे को कोट करते थे जो मस्ती से गाते थे, सारे जहां से अच्छा, ‘क्योंकि’ हिन्दुस्तां हमारा...। इस ‘क्योंकि’ को विहिप के संदर्भ में देखिए। किस सुथराई से जहांगीरपुरी दंगों की प्राथमिकी में दर्ज दंगा आयोजित करवाने वाले संगठन को शाम तक मेट कर कुछ अज्ञात दंगाइयों के खिलाफ बना दिया गया। ‘क्योंकि’ हिन्दुस्तां हमारा! क्या यह एक संयोग भर है कि एक भगवाधारी बाबा हरिद्वार और ऋषिकेश के बीच नाना उत्पाद बनाने वाला एक विशाल उपक्रम और औषधीय बाग लगवाते हैं। उनके उत्पादों की गुणवत्ता पर नाना सवालिया निशान लगते हैं, मिट जाते हैं। धंधा चुनाव दर चुनाव कुछ और चमक जाता है।
जब तक इस इलाके का रिश्ता ऋषि-मुनियों और धर्मवेत्ताओं और गांधी जी, काका कालेलकर या रवींद्रनाथ टैगोर सरीखे समाज सुधारकों और बौद्धिकों से रहा, तब तक यहां की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक ही नहीं, भौगोलिक सुंदरता भी बनी रही। जिस काल में हमारे बड़े-बड़े सम्राट और महारथी भी तमाम युद्ध जीतने के बाद पांडवों की तरह एक दिन वैभव के सारे बंधन तोडक़र अंतिम दिन बिताने यहां आते थे। उस काल की कुछ बची-खुची स्मृतियां आज भी चंद बूढ़ा केदार या काली कमलीवाले बाबा के स्थान की तरह लगभग उध्वस्त मंदिरों, चट्टियों, धर्मशालाओं में शेष हैं। काका कालेलकर ने बहुत सुंदर बात कही है कि पहाड़ों का संदेश रहा है ‘स्वावलंबन’ और ‘स्वराज’, बड़े-बड़े विशाल मैदानी महानगरों का संदेश है ‘साम्राज्य’।
वे लोग थे जो सीधे ध्यान चिंतन और अपरिग्रह की लंबी परंपरा से निकले थे। आज के ज्ञानी-ध्यानी दिल्ली से देहरादून तक धर्मसंसदों में खड़े होकर तिलक, चंदन, भगवा धारण करने के बावजूद त्याग या अपरिग्रह या करुणा की बजाय अखंड सनातनी हिन्दू भारत की स्थापना और विधर्मियों तथा विपक्ष का समूल विनाश करने का संदेश मीडिया में फैला रहे हैं। इस जहर के पसरने और निरंतर पहाड़ आकर भी नेट से राजनीति, फिल्म और कारपोरेट जगत की दुनिया के हालचाल पर जिंदा लोगों का अपने आस-पास के जिंदा लोगों और अपने गिर्द के पर्यावरण से मानवीय रिश्ता टूट रहा है। रास्ते भर सडक़ किनारे के होटलों में, शहरों की दूकानों, रेस्तराओं में तथाकथित धार्मिक पर्यटक मोबाइल कान में लगाए या उसका पर्दा स्क्रोल करते हुए दिखते हैं।
पहाड़ों से लौटते समय अपने क्षीणकाय रुग्ण परिजन के अलावा बहुत बातें मन में आती रहीं। आज भी कुछ जगहें हैं जहां यह बेकार के बेतार जड़ नहीं पकड़ पाते। उन जगहों पर गंगा की अविरल धारा के चारों ओर बने आस्था पथ पर घूमते हुए आप अपने दिवंगत पुरखों से संवाद करते हैं। पुरखे कहते हैं मौत से डरो मत। मा भै:। सूक्ष्म या स्थूल इन दोनों दुनियाओं का गणित तुमसे परे है। बोरिया-बिस्तर बांधना एक मुहावरा ही नहीं। वही खोजो जिसे हमारे मनीषियों ने कहा था, मम सत्य। मेरा सच। कविवर भवानी प्रसाद मिश्र कह गए, जीवन तुम्हारा धोबी नहीं। हमको खुद अपना धोबी बन कर जिंदगी की सफाई करनी पड़ेगी। (navjivanindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कराची विश्वविद्यालय में तीन प्रोफेसरों की हत्या हो गई। ये पाकिस्तानी नहीं थे। ये चीनी थे। ये कराची के कन्फ्यूशिस इंस्टीट्यूट में पढ़ाते थे। इन प्रोफेसरों ने बलूचों का क्या नुकसान किया था कि उन्होंने इनको मार दिया? सच्चाई तो यह है कि ये हत्याएं इसलिए की गई हैं कि बलूचिस्तान में चीन इतने अधिक निर्माण-कार्य कर रहा है कि उनसे बलूचिस्तान पर इस्लामाबाद का शिकंजा कसता चला जा रहा है। यह तथ्य ही बलूच बागियों के गुस्से का असली कारण है। बलूच लोग पाकिस्तान में नहीं रहना चाहते हैं। वे अपना अलग राष्ट्र बनाना चाहते हैं। कई बलूच नेताओं ने मुझे कराची, इस्लामाबाद और पेशावर में हुई भेंटों में बताया कि वे पाकिस्तान में कभी मिलना ही नहीं चाहते थे।
इसीलिए 1947 में कलात के खान ने कलात, लासबेला, खरान और मकरान को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था लेकिन 1948 में पाकिस्तानी फौज ने डंडे के जोर पर बलूचों को पाकिस्तान में मिला लिया। बलूच प्रांत आधे पाकिस्तान के बराबर बड़ा है और उसकी जनसंख्या मुश्किल से पाकिस्तान की जनसंख्या के 3.5 प्रतिशत के बराबर है। बलूच कहते हैं कि हम लोग सैकड़ों बरस से आजाद रहे हैं। अंग्रेज भी हमें गुलाम नहीं बना सके। हम अब पंजाबियों की गुलामी क्यों करे? बांग्लादेश की आजादी के बाद बलूच आजादी के आंदोलन ने काफी जोर पकड़ा लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो ने उसे निर्दयतापूर्वक कुचल डाला। मुशर्रफ के जमाने में प्रसिद्ध बलूच नेता नवाब अकबर खान बुगती को एक गुफा में बम से उड़ा दिया गया था। इसके बावजूद बलूच आंदोलन कभी ढीला नहीं पड़ा। कई बलूच नेता वाशिंगटन, लंदन, काबुल और तेहरान में बैठकर बागियों को हवा देते रहते हैं। बलूच आंदोलन पूर्णरूपेण हिंसक है।
उसके कार्यकर्त्ता पाकिस्तानी फौज और चीनी लोगों पर अब तक कई सीधे आक्रमण कर चुके हैं। उनमें अब तक दर्जनों पाकिस्तानी और चीनी लोग मारे गए हैं। कराची के चीनी वाणिज्य दूतावास पर और ग्वादर का बंदरगाह बनानेवाले चीनी कामगारों पर कई बार हमले हो चुके हैं। बलूच लोग इन्हें अपनी बंदूक की गोलियों का शिकार बनाते हैं। इस बार एक बलूच महिला ने आत्मघाती हमला करके नवीन परंपरा स्थापित की है। बलूच नहीं चाहते कि उनके ग्वादर के बंदरगाह का चीनी लोग इस्तेमाल करें। चीन चाहता है कि ग्वादर के जरिए वह अरब और अफ्रीकी देशों तक अपनी पहुंच बढ़ा ले। इसीलिए वह काराकोरम से ग्वादर तक पक्की सडक़ बना रहा है। पाकिस्तान का आरोप है कि भारत की सरकारें बलूच आंदोलन को भडक़ाती रहती हैं।
लेकिन मैं इतना कह सकता हूं कि आज तक जितने भी बलूच नेता मुझसे मिले हैं, मैं उनसे नम्रतापूर्वक कहता रहा हूं कि हिंसक आंदोलन न तो उचित है और न ही यह कभी सफल हो सकता है। आंदोलन हमेशा अहिंसक होना चाहिए। दूसरा, दक्षिण एशिया में अब नए-नए राज्य खड़े करने से उसके सिरदर्द बढ़ते चले जाएंगे। जरूरी यह है कि बलूचिस्तान और पख्तूनख्वाह जैसे प्रांतों को अधिकतम स्वायत्ता दी जाए, जो कि स्वाधीनता के बराबर ही हो। हर बलूच यह महसूस करे कि वह आजाद है। यदि हमें दक्षिण एशिया के देशों को सशक्त और संपन्न बनाना है तो उन्हें तोडऩे की बजाय जोडऩे की कोशिश करनी होगी। दक्षिण एशिया के लगभग हर राष्ट्र में अल्पसंख्यक लोग हैं। वे अलगाव की मृग-मरीचिका में फंसने की कोशिश करते हैं। लेकिन, देख लीजिए कि 1947 में भारत से अलग होकर पाकिस्तान को क्या मिला? (नया इंडिया की अनुमति से)
कांग्रेस प्रशांत किशोर (पीके) की समस्या से आज़ाद हो गई है। पार्टी ने तय किया है कि अपना घर ठीक करने के किए उसे किसी भी बाहरी विशेषज्ञ की ज़रूरत नहीं है। उसके पास अपने ही अनुभवी नेताओं की बड़ी फ़ौज है।प्रशांत एपिसोड के पटाक्षेप के बाद पार्टी के सेवेंटी-प्लस योद्धाओं में उत्साह की लहर है कि उनकी मेहनत आख़िरकार रंग ले लाई और वे चर्चित रणनीतिकार को ग्रैंड ओल्ड पार्टी से बाहर रखने में कामयाब हो गए।
इस बात की पहले से ही आशंका व्यक्त की जा रही थी कि एक सौ सैंतीस साल बूढ़ी पार्टी को पैंतालीस की उमर के प्रशांत किशोर की ज़रूरत हो ही नहीं सकती। मामला राहुल और प्रियंका के तैयार होने का नहीं बचा था जिन्हें कि सबसे ज़्यादा आपत्ति होनी चाहिए थी पर नहीं हुई। दिक़्क़त उन तमाम बुजुर्गों को थी जिनके हाथ अभी भी पार्टी और भविष्य में बन सकने वाली सरकारों का नेतृत्व करने के लिए कांप रहे हैं। इन नेताओं के तो बेटे-बेटियाँ भी अब प्रशांत किशोर की उमर के हो गए हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस का सफ़ाया हो गया और संसद में विपक्ष का नेता बनने के भी लाले पड़ गए तब राहुल गांधी ने पार्टी की हार की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए आरोप लगाया था कि कुछ बड़े नेता बजाय पार्टी की जीत के लिए काम करने के, अपने बेटे-बेटियों को जिताने में ही लगे रहे (‘दो मुख्यमंत्रियों और एक वरिष्ठ नेता ने अपने बेटों के हितों को पार्टी के हितों से ऊपर रखकर दबाव बनाया ,कांग्रेस से इस्तीफ़ा देने तक की धमकी दी थी।’)
हक़ीक़त यह है कि राहुल गांधी ने जिन नेताओं को लेकर उक्त टिप्पणी की थी वे चुनावों में पार्टी की हार के बाद संगठन में और ज़्यादा मज़बूत हो गए और वे (राहुल) कुछ नहीं कर पाए।प्रशांत किशोर मामले में सोनिया गांधी भी इन्हीं नेताओं के साथ चर्चाएँ करतीं रहीं। समूचे घटनाक्रम में अच्छी बात यह रही कि प्रशांत किशोर सीरियल के अंतिम एपिसोड के वक्त अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए राहुल गांधी नई दिल्ली में उपस्थित नहीं थे। उन्हें बातचीत के नतीजों की जानकारी पहले से हो चुकी थी।
कांग्रेस पार्टी को किसी भी क़ीमत पर बदलने नहीं दिया जाए इस षड्यंत्र में निहित स्वार्थों की एक बहुत बड़ी लॉबी की रुचि और भागीदारी हो सकती है। यह लॉबी किसी भी ऐसी होनी को अनहोनी में बदलने के लिए बड़ी से बड़ी सुपारी बाँटने के लिए भी तैयार बैठी हो सकती है। कांग्रेस के मज़बूत होने का मतलब राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता परिवर्तन की शुरुआत भी माना जा सकता है। इस लॉबी में बड़े औद्योगिक घरानों और कांग्रेस-विरोधी दलों के साथ-साथ पार्टी के अंदरूनी तत्वों को भी शामिल किया जा सकता है।दांव पर आख़िर दो सौ के क़रीब लोकसभा की वे सीटें हैं जिनकी कि कांग्रेस के खाते में प्रशांत किशोर ने पहले से गिनती कर रखी है। इन सीटों पर मुक़ाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही रहता है। प्रशांत किशोर के जुड़ जाने से उन ग्यारह राज्यों के विधान सभा परिणामों पर भी फ़र्क़ पड़ सकता था जहां लोक सभा के पहले चुनाव होने हैं।
अब जबकि तात्कालिक तौर पर साफ़ हो गया है कि प्रशांत किशोर नहीं जुड़ रहे हैं, बातचीत की असफलता के संबंध में सफ़ाई पेश करने के साथ-साथ चर्चाएँ कांग्रेस के भविष्य को लेकर भी प्रारम्भ हो गईं हैं। जैसी कि सम्भावना ज़ाहिर की जा रही थी, प्रशांत किशोर चाहे औपचारिक तौर पर कांग्रेस से नहीं जुड़ने वाले हों, पार्टी ने उनके दिए गए सुझावों पर काम प्रारम्भ कर दिया है। पी चिदम्बरम ने स्वीकार किया है कि प्रशांत किशोर द्वारा सुझाए गए कुछ प्रस्तावों पर पार्टी कार्रवाई करना चाहती है। उनके द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण और आँकड़े काफ़ी प्रभावशाली हैं।
कांग्रेस आलाकमान और प्रशांत किशोर के बीच बातचीत के असफल होने के असली कारणों का पता वार्ताकारों और भाजपा के शिखर क्षेत्रों के अलावा किसी को नहीं चल पाएगा। इनकार प्रशांत किशोर ने किया कि कांग्रेस ने इस पर किसी अगले दौर की बातचीत की खबरों तक पर्दा पड़ा रहेगा। बातचीत की असफलता को लेकर क़यास यह भी लगाया जा सकता है कि सास इंदिरा गांधी की तरह से सोनिया गांधी का असंतुष्ट नेताओं पर नियंत्रण नहीं है या फिर पार्टी में आंतरिक प्रजातंत्र ज़रूरत से ज़्यादा मौजूद है।इसीलिए कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं को अभी सूझ नहीं पड़ रही है कि वे प्रशांत किशोर के नहीं जुड़ने की खबर पर दुःख मनाएँ या एक दूसरे को बधाई देते हुए मिठाई बाँटें !
कई दौरों की बातचीत के बाद भी दोनों पक्षों के बीच किसी समझौते पर नहीं पहुँच पाने को लेकर इतना अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि प्रशांत किशोर अपनी शर्तों पर ही कांग्रेस को परिणाम देने की गारंटी चाहते थे। वे गांधी परिवार से संवाद के दौरान मध्यस्थों के हस्तक्षेप या विरोध के ख़िलाफ़ भी आश्वासन चाहते थे। परिवार और पार्टी नेताओं को इस तरह की कार्य-संस्कृति की निश्चित ही आदत नहीं है। ऐसी शर्तों का पालन केवल उन्हीं दलों में सम्भव है जहां केवल एक व्यक्ति की हुकूमत है। प्रशांत किशोर ने अतीत में ऐसी ही पार्टियों के साथ काम किया है। संक्षेप में कहना हो तो कांग्रेस के नेता समस्या के इलाज के लिए मिट्टी के लेप और टब बाथ से प्रारम्भ कर चरणबद्ध प्राकृतिक चिकित्सा चाहते थे और प्रशांत किशोर पहले ही दिन एनीमा देना चाहते थे।
वैसे यह मान लेना भी जल्दबाज़ी करना होगा कि कांग्रेस के लिए प्रशांत किशोर अध्याय अंतिम रूप से समाप्त हो गया है। किसी दिन फिर से यह खबर आ सकती है कि प्रशांत किशोर एक बार पुनः दस जनपथ के दरबार में परिवार के साथ बातचीत करने पहुँच गए हैं। प्रशांत किशोर और कांग्रेस के बीच बातचीत टूटी है पर रिश्ते क़ायम हैं। एक बात तो तय है कि इस समय कांग्रेस को ही प्रशांत किशोर की ज़्यादा ज़रूरत है।