विचार/लेख
-आर.के. जैन
मैं वर्ष 2014 में लगभग 36 साल नौकरी करने के बाद सेवानिवृत्त हुआ था। उस समय मेरे पास पीएफ, ग्रेच्युटी तथा पूर्व में जमा धनराशि को मिलाकर इतना था कि बाकी जिंदगी मैं आराम से व पूरी शान से गुजार सकता था। उस समय बैंकों द्वारा फिक्स्ड डिपॉजिट पर 9.50 फीसदी ब्याज दिया जाता था।
आज मैं देखता हूँ कि बैंकों द्वारा उन्हीं एफडी पर मात्र 5.5 फीसदी की दर से ब्याज दिया जा रहा है यानि मेरी आय लगभग आधी हो गई है जबकि 2014 की तुलना में महंगाई दोगुने से भी ज्यादा हो गई है। यह भी बताना चाहूंगा कि मुझे पेंशन नहीं मिलती है। वरिष्ठ नागरिकों को जो पहले थोड़ी बहुत अतिरिक्त सुविधा मिला करती थी वह सब भी अब बंद हो चुकी है। मेडिक्लेम पॉलिसी की दरें भी उम्र बढऩे के साथ-साथ बढ़ती जा रही हैं जबकि उम्र बढऩे के साथ-साथ चिकित्सा आदि का व्यय भी बढ़ता जाता है।
अब मुझे अपनी जमा पूंजी से प्राप्त ब्याज के अलावा प्रतिमाह अपने मूल धन से भी कुछ धनराशि निकालनी पड़ती है और मेरी जमा पूंजी धीरे धीरे कम होती जा रही हैं। मूल धन कम होने का मतलब है कि आगे ब्याज भी कम मिलेगा। यदि स्थिति ऐसी ही बनी रहती हैं तो आगामी कुछ वर्षों में मेरी जमा पूँजी बिल्कुल खत्म हो जायेगी।
मैं समझता हूँ कि मेरी जैसी स्थिति उन सबकी होगी जिन्हें सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन नहीं मिलती है। मैं तो फिर भी अच्छे पद व उच्च वेतनमान से रिटायर हुआ हूँ और मैं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से सेवानिवृत्त होने से पहले ही मुक्त हो चुका था पर उनकी हालत सोचकर चिंता होती हैं जिन पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी है और पास में ख़ास जमा पूंजी भी नहीं है।
मैं समझता हूँ कि आज की तारीख में वरिष्ठ नागरिकों के सामने बड़ी चिंताजनक स्थिति उत्पन्न होती जा रही हैं। आज के जमाने में बेटे बेटियों के पास जाकर रहना व वहाँ की परिस्थितियों में अपने को एडजस्ट करना भी आसान नहीं है। समझ में नहीं आता कि वरिष्ठ नागरिकों के आने वाले दिन कैसे कटेंगे। कभी कभी तो लगता है कि सरकार की प्राथमिकता में वरिष्ठ नागरिकों की कोई जगह नहीं है और वह इनको बोझ समझती है। सरकार को चाहिए कि वरिष्ठ नागरिकों के लिए कुछ ऐसी स्कीम लाये कि वरिष्ठ नागरिक भी पूरे आत्म सम्मान व चिंता मुक्त होकर अपनी बाकी जिंदगी पूरी कर सके और उन्हें जीवन यापन के लिये किसी पर आश्रित न होना पड़े। वरिष्ठ नागरिकों ने पूरी जिंदगी सरकारों को अपनी आय से अच्छा खासा टैक्स भी दिया है और अब भी दे रहे हैं तो उन्हें जिंदगी के इस पड़ाव पर इतना परेशान क्यों होना पड़ रहा है? जिन वरिष्ठ नागरिकों को सरकारी पेंशन मिल रही हैं वह तो मजे कर रहे हैं क्योंकि उनकी पेंशन राशि तो नियमित रूप से सरकार बढ़ा रही हैं पर हमारे जैसे किसके आगे अपनी पीड़ा व्यक्त करे।
-राकेश कायस्थ
हिंदी के सुपरिचित लेखक राजकिशोर ने एक बार लिखा था-‘मुस्लिम पक्ष अगर राज जन्म भूमि अगर हिंदुओं को सौंप दे तो यह एक बेहतर निर्णय होगा। 1990 के बाद से राम जन्मभूमि का सवाल हिंदू मानस के भीतर एक तरह की हठ की तरह बैठ चुका है और उसका निकलना बहुत कठिन है। अगर मुस्लिम समाज उस ज़मीन पर अपना दावा छोड़ देता है, तो इससे समाज में दीर्घकालिक शांति आ सकती है।’
मैं उन लोगों में था, जो राजकिशोर के विचार का समर्थन करते थे। मुझे लगता था कि इतनी जिद क्यों? समाज को और देश को बहुत आगे बढऩा है। झगड़ा खत्म हो तो आदमी रोजगार और इलाज जैसे मुद्दों पर बात करे। राजकिशोर अब इस दुनिया में नहीं हैं। अगर होते तो मैं पूछता कि अब उनकी राय क्या है, क्योंकि मेरी राय पूरी तरह से बदल चुकी है।
मामला मुँह में खून लगने जैसा हो चुका है। 1989 से लेकर 1992 तक की लगभग फोटोग्राफिक मेमोरी मेरे जेहन में है। जब आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली थी और देशभर में हजारों लोग मारे गये थे। लेकिन समाज तब भी उतना जहरीला नहीं था, जितना आज है।
अयोध्या मामले में एक तरह का नॉवेल्टी फैक्टर था। रामलला के कैद होने की कहानी हिंदू समाज नहीं बल्कि बीजेपी के स्थानीय स्तर के नेताओं ने भी पहली बार सुनी थी। जोश हिलोरे मार रहा था और अयोध्या की तुलना मक्का से की जा रही थी। बहुत सारे तर्क जनता को जायज लग रहे थे। सबसे बड़ा तर्क यह था कि बाबरी मस्जिद सिर्फ एक ढांचा है।
काशी की स्थिति अयोध्या से एकदम अलग है। वहाँ एक मस्जिद है जो सदियों से इबादतगाह है और उसके ठीक बगल में मंदिर है, जो हिंदू आस्था का केंद्र है।
मैं वहाँ जब भी गया हूँ, विश्वनाथ जी को पंडे पुजारियों ने वहीं दिखाया है, जहाँ पर वो हैं। हिंदू आस्था वहीं है, मस्जिद के पिछले हिस्से का वो टूटा हिस्सा नहीं, जहाँ फव्वारे में शिवलिंग मिलने का दावा किया जा रहा है।
लोक श्रुतियों में मंदिर के तोड़े जाने की कहानियां ज़रूर हैं। ज्ञानवापी मस्जिद पर खड़े होकर चारो तरफ देखने पर यह महसूस करना कठिन नहीं है कि वहाँ कभी कोई मंदिर रहा होगा। लेकिन प्राचीन भारत में वो कौन सा हिस्सा होगा, जहाँ हिंदू मंदिर या कोई दूसरे प्रतीक ना रहे होंगे?
भारत के चप्पे-चप्पे पर हिंदू धार्मिक प्रतीक चिन्हों का मिलना उतना ही स्वभाविक है, जितना शहरों में आदिम संस्कृति और जन-जातीय चिन्हों का मिलना। जितने भी शहर और कस्बे बनाये गये हैं वो किसी ना किसी को उजाड़ कर बनाए गए हैं। क्या सारे मामलों में च्ऐतिहासिक भूलों का सुधारज् संभव है।
क्या 'ऐतिहासिक भूलों' के सुधार की माँग उन लोगों से करना तर्कसंगत, न्यायसंगत और नैतिक है, जो इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। हिंदू समाज जिस रास्ते पर चल पड़ा है, उसमें किसी तार्किकता और नैतिकता की जगह नहीं बची है। मैं जिस समाज का हिस्सा रहा हूँ, उसका इतना डरावना रूप मैं अपने जीवन में देखूंगा यह बात मेरे लिए अकल्पनीय थी।
सोशल मीडिया पर जो शोर दिखाई दे रहा है, उसमें अपेक्षाकृत शांत दिखने वाले बहुत से लोग अत्यंत हिंसक नज़ऱ आ रहे हैं और परपीडऩ के अनूठे आनंद में डूबे हैं। बहुत से स्वयंभू गाँधीवादी और सर्वोदयी तक भी इसी भीड़ में नजऱ आ रहे है।
मान लीजिये मस्जिद के अंदर भी धार्मिक प्रतीक चिन्ह ढूंढ लिए जाते हैं और अयोध्या जैसा कोई डिजाइन अपनाते हुए वह जगह भी खाली करवा ली जाती है तो क्या होगा? हिंदू समाज मौजूदा मंदिर वाले विश्वनाथ जी को छोडक़र मस्जिद वाले विश्वनाथ जी को पूजना शुरू कर देगा?
व्यवहारिक तौर पर हिंदू समाज को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि ज्ञानवापी मस्जिद के पिछले हिस्से और पूरी मस्जिद के अंदर क्या है। काशी के सौंदर्यीकरण के नाम पर ना जाने कितने पुराने मंदिर तोड़ दिये गये और शिवलिंग कूड़े के ढेर में नजऱ आये। हिंदू आस्था आहत नहीं हुई।
दरअसल हिंदू आस्था का केंद्र अब बदल चुका है और उसके केंद्र में सिर्फ मुसलमानों के प्रति नफरत है। दुनिया का प्राचीनतम धर्म अपने जन्म स्थल पर अपने आपको इस तरह पुनर्परिभाषित करने की जिद पर अड़ा है, जिसके केंद्र में सिर्फ नफरत हो, उसकी अपनी बुनियादी अच्छाइयां नहीं। यह धर्म के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है और इस आधार पर मैं यह मानने को तैयार हूँ कि हिंदू धर्म सचमुच खतरे में है।
ज्ञानवापी मस्जिद के भीतर पिछले कुछ समय में जो कुछ हुआ, उसे लेकर हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा आहलादित है। मन में इस बात संतोष है कि लाइन में लगवा दिया, तलाशी ले ली। अब जामा मस्जिद से लेकर कुतुब मीनार तक यही होगा। परपीडऩ का मास हिस्टीरिया बन जाना पूरी मानव जाति के लिए घातक है क्योंकि विश्व आबादी में एक बड़ी तादाद हिंदुओं की है।
आरएसएस राजनीतिक मेधा संपन्न लेकिन नैतिकता शून्य संगठन है। जिसकी भारत में रहने वाले सभी लोगों की सुख-शांति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। एक प्रक्रिया के तहत हिंदू समाज आज इतना नफरती बनाया जा चुका है, असर अपने समाज और परिवार पर दिखने लगा है, मुसलमानों पर होना तो एक अलग बात है।
मान लीजिये ‘ऐतिहासिक भूलो को सुधारने’ की माँग पर दलित भी अड़ जाये तो क्या होगा? केरल में ब्रेस्ट टैक्स की कहानी गजनवी के भारत पर हमले के मुकाबले काफी नई है और हाल-हाल तक चलती रही है। अगर वहाँ तक दलित समाज जिद पकड़ ले कि इस कुव्यवस्था का बदला लिया जाएगा तो आरएसएस की क्या प्रतिक्रिया होगी? पूछना बेकार है क्योंकि आरएसएस के काम करने के पीछे कोई तर्क पद्धति नहीं बल्कि संख्या बल काम करता है।
संख्या बल इस देश में मुसलमानों के पास भी है। वे अल्पसंख्यक नहीं बल्कि हिंदुओं के बाद इस देश का दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक समुदाय हैं। नये तमाशे खड़े करके उन्हें रोजाना उकसाने का सीधा उद्देश्य यह है कि अस्सी बनाम बीस एक स्थायी समीकरण हो जाये और तमाम उत्तरदायित्वों से परे आरएसएस अनंत काल तक इस देश पर राज कर सके। लेकिन तमाम उकसावों के बावजूद मुसलमान अब तक अभूतपूर्व संयम का परिचय दे रहे हैं।
स्थायी ध्रुवीकरण के लिए बीजेपी-आरएसएस ने हिंदुओं के भीतर इतनी कुंठा भर दी है कि वह एक पराजित समूह की तरह व्यवहार करने लगा है। वह भारतीय इस्लाम की उन बुराइयों की नकल करने पर आमादा है, जिसका घोषित तौर पर विरोधी रहा है। ये प्रवृतियां हिंदू समाज को कहां ले जाएंगी, धर्मगुरूओं की ओर से इस बात पर कोई चिंता नहीं दिखाई देती।
बीजेपी-आरएसएस के पास वो ताकत है कि अगर वो चाहें तो साल के 365 दिन धार्मिक ध्रुवीकरण के मुद्दों को जिंदा रख सकते हैं। इसका समाज और देश को कितना लाभ हो रहा है, यह सोचने की बात है। जिन चीज़ों को हिंदुओं की जीत बताई है, वो असल में नैतिक रूप से उनकी हार है।
मेरा हमेशा से मानना था कि मोदी सरकार नैतिक साहस दिखाये और ये कहे हमारे हिंदू वोटर अयोध्या में मंदिर चाहते हैं और हम संसद में विधेयक लाकर मंदिर बनाये। लेकिन जज साहब ने फैसला सुनाया और बिना किसी शर्म-हया के बीजेपी की तरफ से राज्यसभा के मेंबर बन गये। यह मामला कुछ ऐसा ही था, जैसे 1949 में गर्भगृह में मूर्तियां रखवाने वाले फैजाबाद के डीएम जनसंघ के सांसद बने थे।
सत्य और नैतिकता हिंदू दर्शन के दो बड़े तत्व रहे हैं। क्या आरएसएस की हिंदू आइडियोलॉजी में इन दोनों बातों की कोई जगह है? दुनिया अब भारत को स्वामी विवेकानंद नहीं बल्कि नरसिंहानंद के देश के रूप में देख रही है। एक हिंदू होने के नाते मेरे लिए यह एक बेहद दुखद स्थिति है।
मानव गतिविधियों की वजह से हो रहे ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हो या अन्यथा, फिलहाल मुद्दा यह है कि उत्तरी भारत औसतन 45 डिग्री सेल्सियस के दैनिक तापमान के साथ भीषण गर्मी की चपेट में है।
ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम के वैश्विक पैटर्न में परिवर्तन आएगा और भारत को और अधिक भीषण गर्मी का सामना करना पड़ सकता है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार ग्रीष्म लहर (लू) उस स्थिति को कहते हैं जब किसी दिन का तापमान लंबे समय के औसत तापमान से 4.5 से 6.4 डिग्री अधिक होता है (या मैदानी क्षेत्रों में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक और तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो)।
उदाहरण के लिए, दिल्ली में 1981 से 2010 के दौरान मई का औसत उच्च तापमान 39.5 डिग्री सेल्सियस रहा करता था लेकिन वर्तमान में 28 अप्रैल से प्रतिदिन का तापमान 44 डिग्री सेल्सियस है (औसत अधिकतम तापमान से 4.5 डिग्री सेल्सियस अधिक)। ये महज आंकड़े नहीं हैं बल्कि इनका सम्बंध मानव शरीर, जन स्वास्थ्य और जलवायु संकट के इस दौर में शासन व्यवस्था से जुड़ा है।
इस संदर्भ में वेट-बल्ब तापमान महत्वपूर्ण है। वेट-बल्ब तापमान वह न्यूनतम तापमान है जो कोई वस्तु गर्म वातावरण में हासिल कर सकती है जब साथ-साथ उसे पानी के वाष्पन से ठंडा किया जा रहा हो। जब आसपास का वातावरण गर्म हो और वस्तु की सतह से पानी वाष्पित हो रहा हो तो उनके बीच एक साम्य स्थापित होता है और वस्तु के तापमान में कमी आती है। अपनी त्वचा का उदाहरण लीजिए। किसी गर्म दिन में जब आपकी त्वचा की सतह से पसीना वाष्पीकृत होता है तब आपकी त्वचा कम-से-कम जितने तापमान तक ठंडी हो सकती है उसे वेट-बल्ब तापमान कहा जाता है। यह तापमान सिर्फ साधारण तापमापी से नापा गया तापमान नहीं बल्कि वाष्पन की वजह से आई या आ सकने वाली गिरावट को दर्शाता है।
यहां एक बात ध्यान देने योग्य है। किसी सतह से पानी का वाष्पन सिर्फ तापमान पर निर्भर नहीं करता बल्कि आसपास की हवा में मौजूद नमी की मात्रा पर भी निर्भर करता है। यदि आसपास की हवा बहुत अधिक नम है, तो सतह से पानी का वाष्पन कम होगा और उस वस्तु के तापमान में उतनी कमी नहीं आ पाएगी जितनी शुष्क हवा में आती।
मौसम का अध्ययन करने वाले एक संस्थान मेटियोलॉजिक्स के अनुसार 26 अप्रैल 2022 को सुबह साढ़े आठ बजे दक्षिण दिल्ली का वेट-बल्ब तापमान लगभग 19.5 डिग्री सेल्सियस था जो 29 अप्रैल को बढक़र 22 डिग्री सेल्सियस हो गया। ये दोनों ही तापमान फिलहाल सुरक्षित सीमा में हैं। लेकिन 32 डिग्री सेल्सियस के वेट-बल्ब तापमान में थोड़ी देर भी बाहर रहना हानिकारक हो सकता है। वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो, तो पर्याप्त पानी पीने और कोई शारीरिक कार्य किए बगैर भी कुछ घंटे बाहर छाया में गुजारना तक जानलेवा हो सकता है।
एशिया के मौसम मानचित्र में दिखेगा कि वेट-बल्ब तापमान भूमध्य रेखा की ओर जाने पर काफी तेजी से बढ़ता है और साथ ही भारत के पश्चिमी तट की तुलना में पूर्वी तट पर अधिक होता है। यह मुख्य रूप से नमी के कारण होता है। वातावरण में जितनी अधिक नमी होगी, उतना ही कम पसीना वाष्पित हो पाएगा और शरीर भी उतना ही कम ठंडा हो पाएगा। इसलिए किसी क्षेत्र में मात्र हवा का तापमान जानना पर्याप्त नहीं होता बल्कि आर्द्रता और वेट-बल्ब की रीडिंग भी महत्वपूर्ण है।
2020 में कोलंबिया युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि पृथ्वी की सतह के कई हिस्सों में गर्मी और आर्द्रता के कारण स्थिति जानलेवा बन चुकी है जबकि पहले ऐसा माना जा रहा था कि यह स्थिति सदी के अंत में आएगी। शोधकर्ताओं द्वारा 1979 से 2017 तक एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार पूर्वी तटवर्ती और उत्तर-पश्चिमी भारत पर सबसे अधिक वेट-बल्ब तापमान होने की संभावना है।
ज़्यादा व्यापक स्तर पर देखें तो मध्य अमेरिका, उत्तरी अफ्रीका, मध्य-पूर्व, उत्तर-पश्चिमी और दक्षिण-पूर्वी भारत तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के कुछ हिस्सों में अधिकतम वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस की सीमा तक 2010 में ही पहुंच चुका है।
ग्लोबल वार्मिंग से न सिर्फ तापमान में बढ़ोतरी हो रही है बल्कि समुद्र स्तर में भी वृद्धि हो रही है। इन दोनों समस्याओं के चलते भारत के कई क्षेत्र रहने योग्य नही रह जाएंगे। कब और कौन-से क्षेत्र निर्जन होंगे यह कई कारकों पर निर्भर करता है।
गौरतलब है कि भारत के प्रभावित क्षेत्र में कई ऐसे राज्य शामिल हैं जहां जन स्वास्थ्य व्यवस्था कमज़ोर और अपर्याप्त है, तथा चिकित्सा कर्मियों की कमी है। इन राज्यों की आय भी बहुत कम है और अधिकांश निवासी बाहरी काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर हैं और बहुत कम सुविधाओं के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। इन गर्म हवाओं के दौरान बाहर काम करना उनके लिए काफी जोखिम भरा होगा। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जलवायु परिवर्तन में जिस समूह का समसे कम योगदान हैं उसे इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
इस समस्या के समाधान के लिए ‘हीट एक्शन प्लान’ तैयार किया गया है जिसको सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद में अपनाया गया था। तब से लेकर अब तक 30-40 शहर इस योजना को अपना चुके हैं जिसमें जागरूकता अभियान, चेतावनी प्रणाली और शीतलन व्यवस्था की स्थापना तथा कमज़ोर वर्गों में गर्मी के जोखिम को कम करने के प्रयास किए गए हैं। देखा जाए तो गर्मी के शहरी टापू जैसे प्रभाव के कारण शहरी क्षेत्रों की गर्म हवाएं और भी घातक हो गई हैं। ये प्रयास सराहनीय हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। गर्म हवाओं की बात करते हुए आर्द्रता को शामिल करना अनिवार्य है क्योंकि वह वेट-बल्ब तापमान में वृद्धि करती है।
फिलहाल, आईपीसीसी के अनुसार भारत में वेट-बल्ब तापमान शायद ही 30 डिग्री सेल्सियस को पार कर रहा है लेकिन इसमें जल्द ही परिवर्तन की संभावना है।(स्रोत फीचर्स)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महंगाई यदि इसी तरह बढ़ती रही तो देश में अराजकता भी फैल सकती है। ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय थोक चीजों के दाम में 15.08 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई है। इतनी महंगाई 31 साल बाद बढ़ी है। इन तीन दशकों में महंगाई जब थोड़ी-सी भी बढ़ती दिखाई देती थी तो देश में शोर मचना शुरु हो जाता था। संसद में शोर मचने लगता था, सडक़ों पर प्रदर्शन होने लगते थे और सरकारों की खाट खड़ी होने लगती थी लेकिन इस वर्ष बढ़ी महंगाई को लोग दो कारणों से अभी तक बर्दाश्त किए हुए हैं। एक तो कोरोना महामारी की वजह से और दूसरे यूक्रेन-युद्ध के कारण!
कोरोना महामारी ने देश के करोड़ों लोगों को लंबे समय तक बेरोजगार कर दिया और यूक्रेन-युद्ध ने तेल की कीमतों में वृद्धि करवा दी। तेल की कीमतें बढ़ीं तो उसके कारण देश में एक जगह से दूसरी जगह जानेवाली हर चीज की कीमत बढ़ गई। भयंकर गर्मी के कारण साग-सब्जी, फलों और दूध की कीमतों ने भी उछाल ले लिया। पेट्रोल, डीजल और गैस की कीमतें इतनी उचका दी गईं कि मध्यम-वर्ग के लोग भी हैरान और परेशान हैं।
गांव के लोग तो फिर भी चूल्हे-अंगीठी से गुजारा कर सकते हैं और कार व फटफटी की बजाय साइकिल से अपने काम निकाल सकते हैं लेकिन शहरी लोग क्या करें? बसों और मेट्रो के किराए लगभग दुगुने हो गए हैं। आम आदमी की मुसीबतें ज्यादा बढ़ गई हैं। अनाज, दाल, मसालों जैसी रोजमर्रा की चीजें खरीदते वक्त उसके पसीने छूटने लगते हैं। मध्यम वर्ग, कर्मचारी वर्ग और मेहनतकश लोगों की आमदनी तो जस की तस है लेकिन उनका खर्च सवाया-डेढ़ा बढ़ गया है।
कुछ लोगों को तो अपना रोजमर्रा का जीवन चलाने के लिए बैंकों से अपनी स्थायी जमा राशियों को तुड़ाना पड़ गया है। लेकिन हमारी तेल बेचनेवाली कंपनियों ने इस दौर में अरबों रु. का मुनाफा कमाया है। जीएसटी की जरिए सरकारों को भी अभूतपूर्व आमदनी हो रही है लेकिन सरकार ने आम जनता को इधर कौनसी विशेष राहत दी है? सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज बांट रही है, यह तो बहुत अच्छा है लेकिन उसने अपने खर्चें में कौनसी कटौती की है? मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्षदों के वेतन, भत्ते, और तरह-तरह के खर्चों में बचत की क्या जरुरत नहीं है?
इसके अलावा यदि थोक चीजों के दाम 15 प्रतिशत बढ़े हैं तो जऱा बाजारों में जाकर मालूम कीजिए की उनके खुदरा दाम कितने बढ़े हैं? कई चीजों के दाम दुगुने-तिगुने हो गए हैं। उन्हें रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है? इस मंहगाई ने मालदार लोगों को पहले से कहीं ज्यादा मालदार बना दिया है। वे बेलगाम खर्चीली जिंदगी बिता रहे हैं।
अच्छा होता कि हमारे नेता लोग अपने खर्चे भी घटाते और मालदार लोगों को कम खर्च में जिंदगी चलाने की प्रेरणा भी देते। मुनाफाखोरों और मिलावटखोरों के विरुद्ध आवश्यक सख्ती भी कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है। महंगाई यदि बर्दाश्त के बाहर हो गई तो प्रचंड बहुमतवाली इस लोकप्रिय सरकार की नाक में दम हो सकता है।
-स्वराज करुण
अच्छा, आप लोग जरा ये बताइए! राजा-महाराजाओं के इतिहास में और उनसे जुड़े उत्खनन में सिर्फ मंदिर, मस्जिद, ही क्यों मिलते हैं? स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला जैसे परोपकारी निर्माण के अवशेष क्यों नहीं मिलते? क्या राजा-महाराजा अपनी प्रजा के बच्चों की शिक्षा और नागरिकों की सेहत का ध्यान नहीं रखते थे?
मनुष्य उस ईश्वर, अल्लाह या गॉड पर क्यों इतना भरोसा करता है, जिसे उसने कभी देखा ही नहीं? वह क्यों उसे बहुत दयालु भी मानता है? क्यों उसके काल्पनिक चित्र बनवाकर या काल्पनिक मूर्तियाँ गढक़र उसकी पूजा करता है? क्यों इतनी मिन्नतें करता है और मन्नतें मांगता है? जबकि सच तो यह है कि मिन्नतों और मन्नतों से होता जाता कुछ नहीं!
अगर कहीं ईश्वर, अल्लाह, गॉड नामक कोई देवी-देवता है भी और अगर उसने ही इस संसार का और मनुष्यों के साथ-साथ संसार के सारे प्राणियों का निर्माण किया है, तो वह अपने ही बनाए हुए प्राणियों के प्रति इतना निर्मम क्यों है? संसार का सारा इतिहास इंसान नामक प्राणियों के बीच खून-खराबे की घटनाओं से भरा हुआ क्यों है?आज के युग में भी कई लोग ईश्वर के नाम पर लिंग के लिए तो कहीं उसके काल्पनिक मंदिर के लिए क्यों लड़ते झगड़ते हैं?अगर ये कथित ईश्वर, अल्लाह या गॉड सचमुच बहुत शक्तिशाली है तो वह इंसानों के बीच के ऐसे झगड़ों को रोकता क्यों नहीं ?
राजा-महाराजा अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए एक-दूसरे से लड़ते हुए अपने राज्य के हजारों, लाखों गरीब सैनिकों की बलि चढ़ा देते थे, जिनके बच्चे अनाथ और पत्नियां विधवा हो जाती थी। उन सैनिकों के माता-पिता बेसहारा हो जाते थे! तब ये ईश्वर, अल्लाह, गॉड कहाँ छिप जाते थे? हम मनुष्य भी ऐसे खूनी राजा-महाराजाओं को कथित रूप से महान देशभक्त कहकर क्यों महिमा मंडित करते हैं? अगर मनुष्य द्वारा पूजित ईश्वर इतना दयावान है तो ज्यादा नहीं, सिर्फ एक शताब्दी के इतिहास को देखें, जिसमें दो-दो विश्व युद्धों के रक्त रंजित पन्ने चीख-चीखकर ईश्वर की निर्ममता की कहानी बयान कर रहे हैं। इन विश्व युद्धों में करोड़ों लोग बेमौत मारे गए।
अगर मनुष्य स्वयं को ईश्वर की संतान मानता है तो वह उससे इन मौतों का हिसाब क्यों नहीं मांगता?वह ईश्वर से क्यों नहीं पूछता कि अपनी ही संतानों को युद्ध की आग में झोंककर उसे क्या मिला?ताजा उदाहरण यूक्रेन पर रूसी हमले का है, जिसमें दोनों ही पक्षों के हजारों लोग काल के गाल में समा गए हैं। विगत लगभग पौने तीन महीनों से रूसी राष्ट्रपति पुतिन की सेनाएं यूक्रेन में भयानक तबाही मचा रही हैं। क्या उस सर्वशक्तिमान कहलाने वाले ईश्वर को यह सब नहीं दिख रहा है?अगर वह सर्वशक्तिमान मान है तो अपनी शक्ति से इस तरह की खूनी लड़ाइयों को शुरू होने ही क्यों देता है ?
इसके अलावा अगर ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है तो मनुष्य और मनुष्य के बीच धन-दौलत के मामले में इतना भेदभाव क्यों है? एक तरफ अमीरी का लगातार ऊँचा होता जा रहा पहाड़ है तो दूसरी तरफ गरीबी की दिनों दिन बढ़ती खाई क्यों है? दुनिया की 90 प्रतिशत दौलत सिर्फ 10 प्रतिशत अमीरों के हाथ में और बची हुई मात्र 10 प्रतिशत दौलत 90 प्रतिशत गरीबों के हिस्से में क्यों है? अगर ईश्वर इतना दयालु है तो उसके बनाए हुए संसार में यह भयानक आर्थिक विषमता क्यों? ऐसे सवालों का कभी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता! इसी से साबित होता है ईश्वर, अल्लाह, गॉड ये सब मनुष्यों द्वारा अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए गढ़े गए काल्पनिक प्रतीक हैं। इससे ज्यादा और कुछ नहीं!
यदि विशेष परिस्थितियों में किसी अतिक्रमण को हटाना बहुत जरूरी हो जाता है तो इस स्थिति में पहले उचित व न्यायसंगत पुनर्वास की व्यवस्था सभी प्रभावित व्यक्तियों या परिवारों के लिए होनी चाहिए व उसके बाद ही अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही होनी चाहिए।
-भारत डोगरा
शहरों की स्लम नीति पर जब भी तथ्य व विवेक आधारित अध्ययन हुए हैं, उन्होंने प्राय: यही संस्तुति की है कि स्लम बस्तियों व झोंपड़ी बस्तियों को उजाड़ा न जाए अपितु यथासंभव उसी स्थान पर विकास कार्य कर यहां रहने की व पर्यावरण की स्थितियों को सुधारा जाए। जल व स्वच्छता जैसी बुनियादी जरूरतें पूरा करने के साथ यहां व आसपास के नजदीकी क्षेत्र में हरियाली को भी बढ़ाना चाहिए।
इसी तरह अनौपचारिक व लघु स्तर के रोजगारों पर हुए अध्ययनों ने बताया है कि छोटी दुकानों, ठेलियों, खोकों, रेहडिय़ों, टी स्टाल व ढाबों से चलने वाले रोजगारों की रक्षा होनी चाहिए व इस रक्षा के अनुकूल ही नीतियां अपनानी चाहिए। वैसे तो ऐसी नीतियां सामान्यत: सभी समय के लिए होनी चाहिए पर हाल के समय में ऐसी निर्धन वर्ग का साथ देने वाली नीतियों की जरूरत तीन कारणों से और बढ़ गई है। पहली वजह तो यह है कि कोविड व उससे जुड़े लॉकडाउन के दौर में वैसे ही लोगों की कठिनाईयां बहुत बढ़ गई है। बहुत से लोग बेरोजगार हो गए हैं। दूसरी बड़ी बात यह है कि विमुद्रीकरण जैसी अनेक प्रतिकूल नीतियों के कारण भी बहुत से कमजोर आर्थिक स्थिति के लोगों की कठिनाईयां बढ़ी हैं। तिस पर महंगाई ने व यूक्रेन युद्ध की बाद की स्थितियों ने आम निर्धन मजदूरों व छोटे उद्यमियों की कठिनाईयों को और बढ़ा दिया है।
अत: इस दौर में तो शहरों व कस्बों में आवास या आजीविका के साधनों की तोड़-फोड़ की कार्यवाही नहीं होनी चाहिए। तिस पर भीषण गर्मी के दौर में तो यह और भी अनुचित है। इसके बावजूद ऐसे दौर में ही कुछ समय पहले चंडीगढ़ में एक ही दिन में लगभग 5000 लोगों को बस्ती तोड़ कर बेघर कर दिया गया, जबकि वे लगभग 40 वर्ष पहले बसी बस्ती में रह रहे थे।
इसी समय दिल्ली में भी कई स्थानों पर तोड़-फोड़ की कार्यवाही आरंभ हो गई है। पिछले वर्ष भी गर्मी के दिनों में बहुत बड़ी तोडफ़ोड़ की कार्यवाही फरीदाबाद में हुई थी। यह समय निर्धन वर्ग व शहरी जरूरतमंदों की मदद का है उनकी कठिनाईयां बढ़ाने का नहीं। कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच में अपनी मेहनत व हुनर के बल पर लोगों ने अपने रोजगार बनाए हुए हैं व अपने सिर पर छत की कोई व्यवस्था की हुई। जो सरकार इससे बेहतर जीवन की व्यवस्था इन मेहनतकशों के लिए नहीं कर सकती है, उसे कोई हक नहीं है कि इतनी कठिनाई से लोगों ने अपने लिए जो व्यवस्था स्वयं बनाई है उसे वह तहस-नहस करे।
अत: जगह-जगह बढ़ रही, अनेक शहरों को त्रस्त कर रही तोड़-फोड़ की कार्यवाहियों पर रोक लगनी चाहिए। हां यदि विशेष परिस्थितिश्सें में किसी अतिक्रमण को हटाना बहुत जरूरी हो जाता है तो इस स्थिति में पहले उचित व न्यायसंगत पुनर्वास की व्यवस्था सभी प्रभावित व्यक्तियों या परिवारों के लिए होनी चाहिए व उसके बाद ही अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही होनी चाहिए।
विभिन्न अध्ययनों में यह सामने आ रहा है कि शहरी बेरोजगारों की समस्या गंभीर हो रही है व विभिन्न शहरों में बेघर लोगों की संख्या बढ़ रही है। अत: जब यह समस्याएं पहले ही गंभीर हो रही हैं तो उनकी गंभीरता को बढ़ाने वाली कार्यवाहियों से सरकार को बचना चाहिए। प्राय: अनेक स्थानों पर देखा गया है कि जिन लोगों की आजीविका को नष्ट करके बेरोजगारी में धकेला जाता है वे कई बार धीरे-धीरे बेघरी की हालत में आ जाते हैं। दूसरी ओर आवास टूटने से लोग बेघर बनते हैं। जलवायु बदलाव और प्रतिकूल मौसम के इस दौर में दुनिया भर में यह कहा जा रहा है कि बेघर लोगों की समस्याएं विशेष तौर पर अधिक होंगी। इस स्थिति में यदि सरकार लोगों को बेघर बनाने की कार्यवाही करती है तो यह बहुत अनुचित है व इस नीति को बदलना चाहिए। (navjivanindia.com)
इन कानूनों को देखने के बाद सामने आता है कि इनमें से किसी को भी औपनिवेशक कानून नहीं कहा जाता है। इन कानूनों को हमने खुद बनाया है। हर सरकार इनका अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है और न्यायपालिका को भी इससे कोई दिक्कत नहीं है।
-आकार पटेल
सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह या देशद्रोह कानून पर रोक लगा दी है, और केंद्र सरकार ने यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि औपनिवेशिक युग के इस कानून को चरणबद्ध तरीके से हटाया जाए। यह एक अच्छा लम्हा है। यह कानून कहता है- ‘जो कोई भी, बोलकर या लिखकर, या संकेतों द्वारा, या जाहिर हो जाने वाल दृश्यों के प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, घृणा या अवमानना द्वारा देश के खिलाफ कुछ करने का प्रयास करता है, या सरकार के प्रति असंतोष को भडक़ाता है या भडक़ाने की कोशिश करता है, उसे भारत में प्रतिष्ठित कानून द्वारा, ‘आजीवन कारावास’ की सजा दी जाएगी।
आर्टिकल14 डॉट कॉम नाम की वेबसाइट ने इस कानून के सरकार द्वारा दुरुपयोग किए जाने के कई उदाहरणों का लेखा-जोखा तैयार किया है और इस मुद्दे को आम लोगों के बीच लाने का अच्छा काम किया है। विशेषज्ञों ने चेताया है कि एक तो इस कानून का सरकार द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है यानी सरकारें इस कानून के तहत मुकदमे दर्ज कर सकती हैं और दूसरा यह कि और भी बहुत से ऐसे कानून हैं जिनका गलत इस्तेमाल हो सकता है। ये दोनों बातें ही दुरुस्त हैं।
न्यायपालिका को एक बार यह समझ आ जाए कि कुछ कानून 21वीं सदी के लोकतंत्र में आवश्यकताविहीन हैं तभी इन जैसे कानूनों को खत्म किया जा सकता है। जब ऐसी सच्चाइयों का एहसास देश करते हैं तभी उन्हें दुरुस्त करने का काम किया जाता है।
भारत में बहुत से ऐसे कानून हैं जिनकी संविधान सम्मत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रकाश में समीक्षा की जरूरत है। और राजद्रोह अकेला ऐसा औपनिवेशक कानून नहीं है जिसे भारतीय भोगते हैं। गांधी जी ने जिस राउलेट एक्ट का विरोध किया था और जिसकी परिणति जलियांवाला बाग की त्रासदी के रूप में हुई थी उसे कानून के बुनियादी सिद्धांतों के आधार पर खत्म किया गया था। इस कानून के तहत लोगों को बिना किसी आरोप या मुकदमे के गिरफ्तार किया जा सकता था और बिना किसी अदालती सुनवाई के ही बंद कमरों मे हुए जजों के फैसले के आधार पर किसी को भी सजा दी जा सकती थी। इसे प्रशासनिक हिरासत का नाम दिया गया था, यानी बिना किसी अपराध या कोई अपराध हुए बिना ही लोगों को सिर्फ इस आधार पर जेल में डाल देना क्योंकि प्रशासन या सरकार को लगता था कि आने वाले समय में अमुक व्यक्ति कोई अपराध कर सकता है।
लेकिन आज भारत में इस किस्म के कई कानून हैं। 2015 में 3,200 से ज्यादा लोगों को इसी प्रशासनिक हिरासत में लिया गया था। गुजरात में प्रीवेंशन ऑफ एंटी सोशल एक्टिविटीज एक्ट 1984 (1984 का समाजविरोधी गतिविधि निरोधक अधिनियम) है। इसके तहत बिना किसी आरोप या मुकदमे के ही किसी को भी एक साल तक जेल में रखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून है जिसके तहत किसी को भी बिना किसी आरोप या मुकदमे के एक वर्ष के लिए हिरासत में रखा जा सकता है। इसके तहत, ‘किसी व्यक्ति को भारत की रक्षा, विदेशी शक्तियों के साथ भारत के संबंधों, या भारत की सुरक्षा के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से रोकने’ या ‘से किसी भी तरीके से राज्य की सुरक्षा के लिए हानिकारक या सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से, या समुदाय के लिए आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के रखरखाव के लिए प्रतिकूल तरीके से कार्य करने से कार्य करने के अपराध में हिरासत में लिया जा सकता है।
इस कानून का इस्तेमाल मध्य प्रदेश में पशु तस्करी और पशु वध के आरोपी मुसलमानों को जेल में डालने के लिए किया गया है। तमिलनाडु में मादक पदार्थों का काम करने वाले, ड्रग्स बेचने वाले, जंगलों के अवैध रूप से काटने वाले, गुंडों, मानव तस्करी करने वाले, अवैध रेत खनन करने वाले, यौन अपराधियों, झुग्गी-झोपडिय़ों के नाम पर जमीन कबजाने वाले आदि पर वीडियो पाइरेट्स एक्ट 1982 का इस्तेमाल किया जाता है। इस कानून में सरकार को बिना किसी मुकदमे के किसी को भी जेल में डालने का अधिकार है।
कर्नाटक में भी ऐसा ही कानून है जिसका इस्तेमाल तेजाब फेंकने वाले, अवैध शराब का धंधा करने वाले, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले, ड्रग्स का धंधा करने वाले. जुआरियों, गुंडों और मानव तस्करी के साथ ही जमीन कब्जाने वाले और सेक्सुअल अपराध करने वालों पर किया जाता है। इसे भी वीडियो पाइरेट्स एक्ट 1985 का नाम दिया गया है। इस कानून के तहत बिना किसी आरोप या मुकदमे के किसी को भी 12 महीने तक जेल में रखा जा सकता है।
असम में भी 1980 का प्रीवेंटिव डिटेंशन एक्ट यानी एहतियाती हिरासत कानून है। इसके तहत किसी व्यक्ति को बिना किसी आरोप या मुकदमे के दो साल तक जेल में रखा जा सकता है।
बिहार में विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी रोकथाम अधिनियम, 1984 है। यह ‘किसी व्यक्ति को i) तस्करी से रोकने के लिए, या (ii) माल की तस्करी को बढ़ावा देने पर, या (iii) तस्करी के सामान के परिवहन या छुपाने या रखने में संलग्न होने पर, या (vi) तस्करी के सामान को परिवहन या छुपाने या रखने के अलावा तस्करी के सामान में शामिल होने पर, या (1) तस्करी के सामानों में लगे व्यक्तियों को शरण देने या तस्करी को बढ़ावा देने पर लागू होता है।
जम्मू और कश्मीर में तीन कानून हैं, एक बिना आरोप या मुकदमे के छह महीने के लिए हिरासत में रखने की अनुमति देता है, दूसरा एक साल के लिए और तीसरा दो साल के लिए। पश्चिम बंगाल में हिंसक गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम 1970 है। छत्तीसगढ़ में पत्रकारों को नियमित रूप से एनएसए के तहत जेल में डाल दिया जाता है और उनकी रिपोर्टिंग के लिए एक साल के लिए जेल में रखा जाता है।
इन कानूनों को देखने के बाद सामने आता है कि इनमें से किसी को भी औपनिवेशक कानून नहीं कहा जाता है। इन कानूनों को हमने खुद बनाया है। हर सरकार इनका अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है और न्यायपालिका को भी इससे कोई दिक्कत नहीं है। इन दिनों हम भारतीय नागरिकों को एंटी-नेशनल बोलकर राजद्रोही घोषित करते रहते हैं।
अब हम जलियांवाला बाग जैसा सामूहिक प्रदर्शन तो नहीं करते और अगर करेंगे भी तो इन जैसे कानूनों के जरिये (जिनका जिक्र ऊपर किया गया है) हमें एंटी नेशनल घोषित कर दिया जाएगा। लेकिन इससे इस तथ्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये कानून पुराने हो चुके हैं और इनकी आज के समय में कोई जरूरत नहीं है और इन्हें उसी तरह खत्म करने की जरूरत है जिस तरह राउलेट एक्ट को खत्म किया गया था।
एक बार ऐसी समझ एक राष्ट्र के तौर पर हमारे बीच पैदा हो गई, खासतौर से हमारी उच्च न्यायपालिका में तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि वैसे ही न्यायिक सुधार हो सकते हैं जिसकी उम्मीद देशद्रोह कानून के मामले में बंधी है। (navjivanindia.com)
स्पेन शायद यूरोप का पहला देश होगा, जो महिलाओं को माहवारी की कठिनाइयों से निबटने के लिए छुट्टियां देगा. कई जगहों पर ये छुट्टियां पहले से ही हैं और महिलाओं को इनसे मदद मिलती है, लेकिन इसकी आलोचना भी बहुत होती है.
"मुझे याद है कि मैं क्लासरुम में पढ़ा रही थी और मुझे इतना दर्द था कि मेरी आंखों से आंसू निकल रहे थे. मुझे कुछ पता नहीं था कि क्या करना है और जाहिर है कि मुझे काम छोड़ना पड़ा."
जूडी बिर्ष ने माहवारी के गंभीर लक्षण दिखने पर अपनी अनुभूतियों को कुछ इस तरह से बयान किया. ब्रिटेन में पेल्विक पेन सपोर्ट नेटवर्क चलाने वाली बिर्ष उन अरबों महिलाओं में हैं, जो माहवारी के गंभीर लक्षणों का सामना करती हैं. इसे डिस्मोनेरिया कहा जाता है. इसमें भारी रक्तस्राव के साथ ही मरोड़ें उठती हैं, थकावट के साथ ही मितली आती है और दस्त भी हो सकता है. एक बड़ी रिसर्च के मुताबिक प्रजनन की उम्र में 91 फीसदी महिलाओं में डिसमेनोरिया की शिकायत होती है. इनमें से करीब 29 फीसदी महिलाओं को भयानक दर्द भी झेलना पड़ता है.
कैसे काम करती हैं औरतें?
अमेरिकन एकेडमी ऑफ फैमिली फिजिसियंस का कहना है कि डिसमेनोरिया इतना गंभीर है कि यह कम से कम 20 फीसदी महिलाओं के रोजमर्रा के कामकाज पर असर डालता है.
बिर्ष कहती हैं, "मैं इससे जूझती रहती हूं, ध्यान नहीं लगा पाती, अपने को केंद्रित नहीं कर पाती हूं...और मैं सिर्फ यह चाहती हूं कि अच्छे से काम करूं."
दुनिया के कुछ देशों में महिलाओं को कानूनी रूप से पीरियड्स के दौरान छुट्टी मिलती है. इस तरह की "मेंस्ट्रुअल लीव" की नीति अकसर विवादित होती है. इन नीतियों पर अक्सर इनसे भेदभाव बढ़ाने के आरोप लगते हैं और अक्सर इन्हें लेकर तीखी बहस होती है और लोगों को इस बारे में समझाना मुश्किल होता है. हालांकि फिर भी स्पेन यूरोप का पहला देश बनने जा रहा है, जहां इस तरह की छुट्टी का प्रावधान होगा.
हर महीने तीन दिन की अतिरिक्त छुट्टी
स्पेन की मंत्रिपरिषद में मंगलवार को जो प्रस्ताव आ रहा है, उसकी लीक हुई जानकारी से पता चला है कि महिलाओं को हर महीने तीन दिन की अतिरिक्त छुट्टी माहवारी अवकाश के रूप में मिलेगी. हालांकि अभी पूरा ब्यौरा सामने नहीं आया है. कहा जा रहा है कि इसके लिए महिलाओं में माहवारी के गंभीर लक्षणों का होना जरूरी होगा और मुमकिन है कि इस छुट्टी के लिए उन्हें मेडिकल सर्टिफिकेट पेश करना पड़े.
स्पेन के इंस्टीट्यूट ऑफ वीमेन के निदेशक टोनी मोरिलस ने न्यूज पोर्टल पब्लिको से कहा, " हमारे देश में...हमारे पास माहवारी को एक फिजियोलॉजिकल प्रक्रिया के रूप में देखने की दिक्कत है, जो निश्चित रूप से कुछ अधिकारों को जन्म देता है." मोरिलस ने आंकड़ों का हवाला देकर यह भी कहा कि हर दो में से एक महिला के लिए माहवारी दर्दनाक होती है.
डीडब्ल्यू ने इंस्टीट्यूट और स्पेन के समानता मंत्रालय से बात करने की कोशिश की, लेकिन दोनों ने इस वक्त इस मामले में कुछ करने के इनकार कर दिया.
नई नीति का प्रस्ताव जो अभी बदला भी जा सकता है, वह एक नए प्रजनन स्वास्थ्य कानून का हिस्सा है जो गर्भपात कराने वाली महिलाओं को छुट्टी देने के साथ ही 16 से 17 साल की औरतों के गर्भपात के लिए मां बाप की अनुमति की जरूरत को खत्म करने के लिए बनाया गया है. इसी कानून के जरिए टैंपोन और पैड जैसे माहवारी से जुड़े सामान पर से सेल्स टैक्स भी हटाया जा रहा है.
माहवारी की छुट्टी देने में पूर्वी एशियाई देश आगे
इटली की संसद ने 2017 में इसी तरह का एक प्रस्ताव रखा था. इसके बाद वहां इस बात पर लंबी बहस शुरू हो गई कि क्या यह दफ्तरों में भेदभाव को बढ़ावा देगा. आखिरकार यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सका.
जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, इंडोनेशिया और जांबिया जैसे मुठ्ठी भर देशों में ही फिलहाल माहवारी की वेतन के साथ छुट्टी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा है.
इंडोनेशिया में किरोयान पार्टनर्स की सीईओ वीव हितिपियू माहवारी की छुट्टी लेने वाली कर्मचारी भी रही हैं और छुट्टी देने वाली मालिक भी. उनका कहना है कि उन्होंने समय-समय पर इस छुट्टी का इस्तेमाल किया है क्योंकि उन्हें माहवारी के दौरान पेट में बहुत दर्द होता था. हितिपियू ने बताया, "ठीक से बैठ पाना बहुत मुश्किल था. अगर मुझे मरे डेस्क पर या लैपटॉप के सामने हर दिन आठ या नौ घंटे बैठना हो, तो मैं यह नहीं कर पाती थी. वह सचमुच बहुत खराब स्थिति थी."
हितिपियू ने बताया कि छुट्टी की नीति से उन्हें काफी मदद मिली. उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें छुट्टी लेने या देने में कभी दिक्कत नहीं हुई. हालांकि उनका यह भी कहना है, "इस छुट्टी के साथ आज भी भेदभाव या एक बुराई जुड़ी हुई है क्योंकि लोग समझते हैंः महिलाएं आलसी होती हैं और वो काम नहीं करना चाहतीं." इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं की उत्पादकता सीधे उनकी मौजूदगी से जुड़ी है. ऐसे में यह फ्रेमवर्क सिर्फ सिद्धांतों में ही नजर आता है.
माहवरी की छुट्टी से समस्या
जापान ने1947 में ही युद्ध के बाद हुए सुधारों के तहत माहवारी की छुट्टी शुरू कर दी थी. जापान को देखकर इससे जुड़ी समस्याओं का पता चलता है. हाल ही में निक्केई के सर्वे में पता चला कि केवल 10 फीसदी महिलाएं ही माहवारी की छुट्टियां ले रही हैं. हालांकि सर्वे में शामिल 48 फीसदी महिलाओं ने कहा कि कई बार वे यह छुट्टी लेना चाहती हैं, लेकिन उन्होंने कभी नहीं ली. इन महिलाओं ने बताया कि कई बार तो वो अपने पुरुष बॉस के सामने आवेदन नहीं करना चाहतीं या फिर कुछ महिलाओं को लगता है कि इस बात का दूसरी महिलायें फायदा उठा लेंगी.
यूरोपीय देशों में छुट्टी की नीतियां उदार हैं, लेकिन फिर भी इसके लिए माहवारी को कारण बताना आम बात नहीं है. नीदरलैंड्स की 30,000 डच औरतों पर 2019 में किये एक सर्वे में पता चला कि भले ही 14 फीसदी औरतों ने पीरियड्स के दौरान छुट्टी ली, लेकिन इनमें से महज 20 फीसदी ने ही सही कारण बताया.
2020 में माहवारी के अध्ययन पर हैंडबुक के रूप में प्रकाशित एक एकेडमिक पेपर में कामकाज में माहवारी की छुट्टियों के फायदे और कमियों पर जानकारी दी गई है. पेपर में इस तरह की नीतियों की कमियों में, "लैंगिक सोच और व्यवहार को बनाये रखना, माहवारी को कलंक की तरह दिखाने में योगदान और लिंग से जुड़ी छवियों को कायम रखना, लिंग आधारित वेतन में अंतर पर नकारात्मक असर और माहवारी के साथ बीमारी जैसे बर्ताव को बढ़ावा मिलता है."
इस तरह की नाकारात्मक छवियों में महिलाओं का नाजुक होना, गैरउत्पादकता और भरोसेमंद ना होना शामिल है. जबकि माहवारी के साथ बीमारी जैसा बर्ताव करने का नतीजे में इसे दवा से दुरूस्त करने की सोच उभरती है.
बिर्ष ने ब्रिटेन में नेटवर्क के साथ अपने अनुभव को साझा किया, "बहुत सी महिलायें अगर नियमित रूप से हर महीने ये छुट्टियां लें, तो उन्हें सजा मिलती है." उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है या उन्हें नौकरी से निकाला जा सकता है. माहवारी की छुट्टियों की नीति के मायने अलग अलग देशों में अलग है. बिर्ष ने ध्यान दिलाया कि अमेरिका जैसे देशों में तो यह बहुत कठिन है क्योंकि वहां वेतन के साथ आमतौर पर बहुत कम छुट्टी मिलती है. उनका यह भी कहना है कि स्पेन का प्रस्ताव पर्याप्त नहीं है, "जब उस तरह का दर्द आपको हर महीने हो, तो तीन दिन कुछ भी नहीं हैं. मेरे विचार में यह दुखद है."
उनका मानना है कि कुल मिला कर कामकाजी माहौल को ऐसा लचीला बनाने की जरूरत है, जिससे कि गंभीर माहवारी के लक्षणों वाली महिलाओं को उसमें शामिल किया जा सके. कुछ कंपनियां इस मुद्दे को समझ रही हैं और उन्होंने इसे लेकर नीतियां भी बनाई हैं.
दफ्तर में महिलाओं को सहयोग
भारत में खाना डिलीवरी करने वाले प्लेटफॉर्म जोमैटो ने अगस्त 2020 से माहवारी की छुट्टी के लिए अपनी कंपनी में नीति बनाई. कंपनी की कम्युनिकेशन हेड वेदिका पराशर ने बताया कि इसके लिए महिलाओं को दूसरी छुट्टियों के अतिरिक्त हर साल 10 और छु्ट्टी देने की नीति लागू हुई है.
उन्होंने बताया कि इसके लिए एक सम्मानजनक सिस्टम बनाया गया है, जिसमें कैलेंडर पर बस लाल रंग के निशान वाला एक इमोटिकॉन टीम को इन छुट्टियों की जानकारी दे देता है और इसके बारे में कोई सवाल नहीं पूछे जाते. वो खुद भी इन छुट्टियों का इस्तेमाल करती हैं. पराशर का कहना है, "उन दिनों में मैं सचमुच इमोटिकॉन लगा देती हूं, और इसका मतलब है कि मैं उपलब्ध नहीं हूं. मैंने देखा है कि बहुत से लोग इसका सम्मान करते हैं. यहां जोमैटो में इसे बहुत गंभीरता से लिया जाता है."
कंपनी ने ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कई कोशिशें की हैं, जिससे कि माहवारी की छुट्टियों के साथ कोई बुराई ना जुड़े. कंपनी की नीति सभी योग्य लिंगों पर लागू होती है. इसमें ट्रांसजेंडर भी शामिल हैं. वो कहती हैं, "आपको इसे लेकर असहज नहीं होना चाहिए. यह एक जैविक प्रक्रिया है."
इस नीति को लागू करने के बाद वास्तव में कंपनी की उत्पादकता बढ़ गई है. पराशर जोर देकर कहती हैं. नीदरलैंड के सर्वे में शामिल महिलाओं का कहना था कि उनकी उत्पादकता घट जाती है क्योंकि 81 फीसदी महिलाओं को माहवारी के गंभीर लक्षणों वाली हालत में भी दफ्तर आना पड़ा जो हर साल में लगभग 9 दिन थे.
पराशर कहती हैं कि जोमैटो में माहवारी की छुट्टियों ने पारदर्शिता बढ़ाने में मदद की है और काम का माहौल ऐसा है जहां लोगों का खुद पर भरोसा रहता है, इससे कर्मचारियों को कंपनी में बनाये रखने में मदद मिली है और यह महिलाओं को काम पर रखने में कारगर है. 2020 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल कामकाजी लोगों में महज 16 फीसदी ही महिलायें हैं.
पराशर का मानना है कि शायद कुछ महिलायें बहुत खराब स्थिति ना होने पर भी माहवारी की छुट्टी लेती होंगी. हालांकि वो यह भी कहती हैं, "अब तक इसके किसी भी दुरुपयोग की हमें औपचारिक जानकारी नहीं मिली है."
हितिपियू का तो कहना है कि माहवारी की छुट्टियां देना, "बुनियादी रूप से उसे स्वीकार करने और महिलाओं को सहयोग देने का संकेत है. कामकाजी जगहों या कंपनियों को महिलाओं को इस लायक बनाना होगा कि वो अपना काम करने के साथ-साथ समाज में अपनी भूमिका निभा सकें, एक इंसान के रूप में और एक मां के रूप में."
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में अदालतें क्या फैसला करेंगी, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना समझ लीजिए कि यह मामला अयोध्या की बाबरी मस्जिद-जैसा नहीं है। कोई भी वकील या याचिकाकर्ता या हिंदू संगठन यह मांग नहीं कर रहा है कि ज्ञानवापी मस्जिद को ढहा दिया जाए और उसकी जगह जो मंदिर पहले था, उसे फिर से खड़ा कर दिया जाए। इस तरह की मांगों पर 1991 से ही प्रतिबंध लग चुका है, क्योंकि संसद में यह कानून पास हो चुका है कि 15 अगस्त 1947 को जो भी धार्मिक स्थान जैसा था, वह अब वैसा ही रहेगा।
इसीलिए यह डर पैदा करना कि ज्ञानवापी की मस्जिद को ढहाने की साजिश शुरु हो गई है, गलत है। यहां कुछ महिलाओं ने स्थानीय अदालत में जो याचिका लगाई हैं, उसका मंतव्य बहुत सीमित है। उनकी प्रार्थना है कि उन्हें मस्जिद के बाहरी हिस्से में बने गौरी श्रृंगार मंदिर में पूजा और परिक्रमा का अधिकार दिया जाए। कई वर्षों से मस्जिद की प्रबंध समिति ने इस पुरानी सुविधा को कुछ वर्षों से रोक दिया था। स्थानीय अदालत ने इस मस्जिद परिसर की जांच करने के आदेश दे दिए। जांच के परिणाम जगजाहिर हो गए।
उनके कारण सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया। कुछ हिंदू प्रवक्ता कह रहे हैं कि मस्जिद में तो मंदिर के अवशेष भरे पड़े है। मुगल आक्रांताओं ने मंदिर को तोडक़र मस्जिद बनाई है। इस पर मुस्लिम संगठन कह रहे हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद को गिराने की साजिश शुरु हो गई है। सच्चाई तो यह है कि सिर्फ काशी, मथुरा और अयोध्या के मंदिर ही नहीं, देश के सैकड़ों मंदिरों को तोडक़र विदेशी हमलावरों ने वहां मस्जिदें खड़ी की थीं। यह उन्होंने भारत में ही नहीं किया, स्पेन, तुर्की, इंडोनेशिया आदि कई देशों में किया है।
सत्ता के भूखे उन ज़ालिम और जाहिल बादशाहों ने पैगंबर मोहम्मद के आदर्शों को ताक पर रखते हुए दुनिया के कई मंदिरों और गिरजों को गिराकर अपने अहंकार को तुष्ट किया। उन्हें सर्वव्यापी अल्लाह से नहीं, अपनी सत्ता से सरोकार था। मैंने ईरान में वे मस्जिदें भी देखी हैं, जो पड़ौसी मुस्लिम शासकों ने गिराई हैं। दक्षिण भारत में गोलकुण्डा की जामा मस्जिद भी औरंगजेब ने गिराई थी, क्योंकि बादशाहत का रौब कायम करने के तीन बड़े साधन हुआ करते थे। पराजितों की औरतों पर कब्जा, संपत्ति की लूट-खसोट और उनके पूजा-स्थलों को भ्रष्ट करना।
यदि इन कारणों से कोई मंदिर, मस्जिद या गिरजा बनता है तो क्या उस पर कोई गर्व कर सकता है? किसी भी धर्म को मानने वाला सच्चा भक्त ऐसे पूजा-स्थलों को सम्मान की नजर से नहीं देख सकता। लेकिन उन्हें अब ढहाने के बात करना भी बर्र के छत्ते में हाथ डालने-जैसी बात है। जो जैसा है, उसे वैसा ही पड़ा रहने दें। वे शासकीय अत्याचारों के स्मारक बनकर खड़े रहेंगे लेकिन जो सच्चे ईश्वर या अल्लाहप्रेमी हैं, उनको क्या फर्क पड़ता है कि वे मस्जिद में जाएं या मंदिर में जाएं? या दोनों में एक साथ चले जाएं। मंदिर में जो ईश्वर है, मस्जिद में वही अल्लाह है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन और उत्तरोत्तर गिरती स्थिति पर चर्चा और विमर्श जारी है। हाल के दिनों में पत्रकारों के दमन और उत्पीड़न के समाचारों की आवृत्ति भी चिंताजनक रूप से बढ़ी है। पत्रकारों को निर्वस्त्र करने की दुःखद, शर्मनाक और निंदनीय घटनाओं पर कुछ मित्रों से चर्चा हो रही थी। किराना व्यवसाय से जुड़े एक मित्र की प्रतिक्रिया ने चौंकाया भी और डराया भी। यह मित्र सोशल मीडिया पर निरंतर सक्रिय रहते हैं और व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के नवप्रवेशी उत्साही छात्रों में उन्हें शुमार किया जा सकता है। उन्होंने कहा- आजकल जो भी हो रहा है वह बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था, इन पत्रकारों को भी एक बार जमकर सबक सिखाना जरूरी है। मैंने उनसे पूछा कि पत्रकारों के प्रति उनकी इस नफरत का आधार क्या है? क्या वे पत्रकारिता की ओट लेकर भयादोहन करने वाले किसी अपराधी तत्व द्वारा प्रताड़ित किए गए हैं? उनके उत्तर से ज्ञात हुआ कि कोई अप्रिय व्यक्तिगत अनुभव पत्रकारों के प्रति उनकी घृणा के लिए उत्तरदायी नहीं है अपितु वे उस नैरेटिव के शिकार हैं जिसके अनुसार सत्ता की नजदीकी से वंचित कर दिए गए वामपंथी पत्रकार षड्यंत्र पूर्वक नए भारत के नए तेवरों पर सवाल उठा रहे हैं। मेरे मित्र ने यह भी कहा कि सरकार की त्वरित बुलडोजर मार्का न्याय प्रणाली आज की जरूरत है, अदालतें उपद्रवियों और दंगाइयों को संरक्षण देने के लिए बनी हैं, इसलिए सरकार इनकी उपेक्षा कर ऑन द स्पॉट जस्टिस देने का कार्य कर रही है। पत्रकार बौद्धिक उपद्रवी हैं, वे विध्वंसकारी प्रवृत्ति के शिकार हैं और नकारात्मकता फैलाने के स्रोत भी हैं इसलिए यह भी इंस्टैंट पुलिसिया न्याय के लायक हैं। मध्यम वर्गीय व्यवसायी मित्रों की बहुलता वाली मंडली ने इन तर्कों का पुरजोर समर्थन किया।
मैंने उन्हें बताया कि किस प्रकार हमारे स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास और हमारी पत्रकारिता की यात्रा अविभाज्य रूप से अन्तर्ग्रथित हैं। किस प्रकार वैश्विक स्तर पर और हमारे देश में भी 'सत्ता' -चाहे वह जिस दल या विचारधारा की हो पत्रकारों से भयभीत रही है और उन्हें दमन का सामना करना पड़ा है। मैंने उन्हें यह भी समझाने का प्रयास किया कि सत्ता के सुर में सुर मिलाना न तो पत्रकार से अपेक्षित होता है न ही यह स्वस्थ पत्रकारिता का कोई लक्षण है। सत्ता से नजदीकी और सत्ता की प्रशंसा अर्जित करना किसी भी अच्छे पत्रकार का लक्ष्य नहीं होता बल्कि यह तो उसके विचलन और पतन का सूचक है।
असहमति की बेबाक अभिव्यक्ति, आलोचना करने का साहस, समीक्षात्मक दृष्टिकोण, तथ्यपरक-तार्किक विवेचना और अप्रिय प्रश्न पूछने में संकोच न करना- यह सभी अच्छे पत्रकार के मूल गुण हैं। सत्ता से सहमत होने के लिए बहुत से लोग हैं यदि पत्रकार भी ऐसा करने लगें तो जनता की समस्याओं और पीड़ा को स्वर कौन देगा? पत्रकार निष्पक्ष से कहीं अधिक जनपक्षधर होता है और किसी घटना के ट्रीटमेंट में जनता, समाज एवं देश का हित उसके लिए सर्वोपरि होता है।
मैंने उन्हें यह भी समझाने की कोशिश की कि सत्ता का विरोध करने वाले हर व्यक्ति को वामपंथी समझ लेना कितना गलत है। और यह भी कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में वामपंथी होना कोई अवगुण नहीं है एकदम उसी तरह जैसे दक्षिणपंथी होना कोई अपराध नहीं है। अलग अलग वैचारिक प्रतिबद्धताओं के मध्य स्वस्थ वैचारिक संघर्ष और उनके सह अस्तित्व से ही हमारा लोकतंत्र समृद्ध, पुष्ट और स्थिर होता है।
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हमारे निराशाजनक प्रदर्शन से अधिक चिंताजनक यह है कि इस पर लज्जित और चिंतित होने के स्थान पर हम आनंदित हो रहे हैं। समाज में ऐसे आत्मघाती चिंतन वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है जो सत्ता द्वारा सर्वाधिक प्रताड़ित किए जाने के बावजूद स्वयं को सत्ता का एक अंग समझ रहे हैं और अपने ही हितों की बात करने वाले पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों के दमन से प्रसन्न हो रहे हैं।
प्रेस की स्वतंत्रता पर गहराते संकट की चर्चा तो हो रही है किंतु प्रेस के अस्तित्व पर जो संकट है उसे हम अनदेखा कर रहे हैं। अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के मुद्रण आधारित या इलेक्ट्रॉनिक साधनों का उपयोग करने वाले हर व्यक्ति या संस्थान को प्रेस की आदर्श परिभाषा में समाहित करना घोर अनुचित है विशेषकर तब जब वह पत्रकारिता की ओट में अपने व्यावसायिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहा हो।
आज राजनीतिक दलों तथा उद्योगपतियों से मीडिया के अवैध संबंधों को वैधानिकता प्रदान करने के लिए अब इनके मीडिया सेल सक्रिय दिखाई देते हैं और हम 'मीडिया प्रबंधन' जैसी अभिव्यक्ति को लोकप्रिय होते देखते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ ही यह दर्शाता है कि मीडिया को मैनेज किया जा सकता है।
धनकुबेरों का अखबार और टीवी चैनल पालने का शौक बहुत पुराना रहा है और कदाचित किसी समय यह उनके सम्मान, प्रतिष्ठा एवं परिष्कृत अभिरुचि का सूचक समझा जाता रहा होगा। किंतु बहुत जल्द उन्होंने अपनी व्यावसायिक बुद्धि से यह अनुमान लगा लिया कि प्रेस में निवेश महज विलासिता नहीं है अपितु इससे सत्ता से नजदीकी बढ़ाई जा सकती है। हमने वह युग भी देखा है जब किसी समाचार समूह पर सरकार समर्थक होने के आक्षेप लगा करते थे लेकिन सरकार समर्थक मीडिया जैसी अभिव्यक्ति में जो द्वैत बोध था वह इतनी जल्दी तिरोहित हो जाएगा और मीडिया सरकार के साथ तद्रूप हो जाएगा इसकी कल्पना हमें नहीं थी।
उच्चतम और नवीनतम तकनीकी सुविधाओं की उपलब्धता, भव्य स्टूडियो तथा सेलिब्रिटी एडिटरों-एंकरों-रिपोर्टरों के जमावड़े से बनने वाले टीवी चैनलों में पत्रकारिता का कलेवर तो है लेकिन तेवर नदारद है। ऐसा बहुत कुछ जिसे हम पत्रकारिता समझ कर देख-पढ़ रहे हैं और जिसके आधार पर अपने अभिमत का निर्माण कर रहे हैं वह दरअसल पत्रकारिता की तकनीकों का उपयोग करने वाले चतुर उद्योगपतियों और सत्ताधीशों की भरमाने वाली प्रस्तुतियां हैं जिनसे जनपक्षधरता, जनशिक्षण और जन अभिरुचि के परिष्कार की आशा करना व्यर्थ है।
वैकल्पिक मीडिया का उदय आशा तो जगाता है किंतु 'वैकल्पिक' शब्द के साथ उसकी सीमाओं का बोध जुड़ा हुआ है और ऐसा बहुत कम होता है कि विकल्प मूल को प्रतिस्थापित कर दे। वैकल्पिक मीडिया संवेदनशील पत्रकारों और पाठकों की शरण स्थली है। यह मुख्य धारा के मीडिया के प्रति उनकी निराशा और आक्रोश की अभिव्यक्ति है। मुख्य धारा के मीडिया के नाम पर चल रहे पाखंड के प्रति प्रतिक्रिया स्वरूप जन्म लेने वाला वैकल्पिक मीडिया स्वाभाविक रूप इस पाखंड,छद्म और भ्रम जाल को तोड़ने में अपनी सारी ऊर्जा लगा रहा है, यही कारण है कि अनेक बार इसमें सृजनशीलता और रचनात्मकता का अभाव दिखाई देता है। किसी बुरी प्रवृत्ति का प्रतिकार जब उसकी आलोचना के माध्यम से किया जाता है तब भी हम उसे चर्चा में तो बनाए ही रखते हैं। हमारी अपनी मूल्य मीमांसा और सकारात्मक चिंतन को जनता तक पहुंचाने का करणीय कृत्य तब हमारी दूसरी प्राथमिकता बन जाता है।
वैकल्पिक मीडिया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का आश्रय लेता है जिस पर भी धनकुबेरों का नियंत्रण है जिनके व्यावसायिक हितों की सिद्धि के लिए सत्ता से मैत्री आवश्यक है। सोशल मीडिया की स्वतंत्रता कुछ कुछ खुली जेल की आजादी की तरह है, जहाँ आजादी का दायरा बड़ा तो है किंतु अंततः है तो यह जेल ही। कानून व्यवस्था का अवलंबन लेकर इंटरनेट बाधित करना हमारी शासन व्यवस्था का नव सामान्य व्यवहार है। तकनीकी के विकास ने सोशल मीडिया पोस्टों की निगरानी को इतना परिष्कृत कर दिया है कि स्वयं को स्वतंत्र और अचिह्नित समझना बहुत बड़ी नादानी होगी। जब तक हमारे विद्रोही तेवरों को सत्ता बाल सुलभ कौतुक समझ कर गंभीरता से नहीं लेती तब तक सोशल मीडिया पर हमारी यात्रा निर्बाध गति से चलती रहती है किंतु जैसे ही सत्ता हमें संभावित खतरे के रूप चिह्नित करती है वैसे ही पहले इन प्लेटफॉर्म्स के अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्यायित किए जाने वाले कम्युनिटी स्टैंडर्ड्स प्रकट होते हैं और जब प्रतिबंध पर्याप्त नहीं लगता तो हमारा कमजोर साइबर कानून अचानक सशक्त हो जाता है और सुस्त कही जाने वाली जांच एजेंसियां असाधारण तत्परता से हमारे पीछे लग जाती हैं। स्थिति यह है कि सोशल मीडिया पर झूठ और नफरत फैलाकर एक पूरी पीढ़ी को तबाह करने वाली शक्तियां उत्तरोत्तर ताकतवर हो रही हैं और सत्ता से हल्की सी असहमति प्रतिबंधों और कानूनी कार्रवाई के दायरे में लाई जा रही है।
टेक फॉग का सच तो शायद कभी सामने नहीं आ पाएगा किंतु इसके दुरुपयोग को लेकर जो आरोप लगे हैं वे बहुत गंभीर हैं। क्या सोशल मीडिया के माध्यम से सत्ताधारी दल से संबंध रखने वाले राजनीतिक कार्यकर्त्ता कृत्रिम रूप से पार्टी की लोकप्रियता बढ़ाने में लगे हुए हैं? क्या सत्ता के आलोचकों एवं असहमत स्वरों को प्रताड़ित करने के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया जा रहा है? क्या सभी प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर व्यापक रूप से पब्लिक ओपिनियन को इच्छित दिशा में मोड़ने के लिए टेक फॉग का उपयोग किया गया? क्या यह सवाल इसलिए अनुत्तरित ही रह जाएंगे क्योंकि इनके जवाबों के जरिए आधुनिक राजनीति का छिपा हुआ स्याह आपराधिक चेहरा उजागर हो जाएगा?
ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया जमीनी सच्चाइयों को सामने लाने का जरिया नहीं बना है किंतु इसके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की पुष्टि के वैकल्पिक साधन के अभाव में यह खबरें 'माय वर्ड अगेंस्ट योर्स' बनकर रह जाती हैं। सोशल मीडिया पर झूठी और भ्रामक पोस्ट्स की भरमार ने इसकी विश्वसनीयता को घटाया है। अभिव्यक्ति के संयम का अभाव भी यहां इतना अधिक है कि कहा जाने लगा है कि जो कुछ घर-परिवार और समाज में प्रत्यक्ष रूप से नहीं कहा जा सकता वह सोशल मीडिया पर कहा भी जा सकता है और उसके लिए सराहना भी प्राप्त की जा सकती है। सोशल मीडिया ने फेक न्यूज़ के कारोबार को बढ़ावा दिया है और मनोरंजक स्थिति यह है कि जनता को फेक इश्यूज पर दिन रात फंसाए रखने वाले पारंपरिक टीवी चैनल और अखबार इनकी पड़ताल करते देखे जाते हैं।
उस संपादक के लिए -जो किसी घटना से खबर को तराश कर बाहर निकालता था - सोशल मीडिया में कोई स्थान नहीं है। प्रिंट मीडिया में संपादकों का स्थान न्यूज़ अरेंजर जैसी किसी नई प्रजाति के लोग पहले ही ले चुके हैं। टीवी चैनलों और अखबारों से जुड़े पत्रकारिता के बहुत सारे बड़े नाम शायद यह भ्रम पैदा करने के लिए ही हैं कि जो कुछ उनकी छत्र छाया में हो रहा है उसे पत्रकारिता मान लिया जाए। अशोभनीय जल्दबाजी से मूर्द्धन्य का दर्जा हासिल करने वाले असमय विगत शौर्य हो चुके अनेक पत्रकारों के विषय में तो अब यह शंका भी होती है कि उनका पराक्रम कहीं अपना बाजार भाव बढ़ाने की किसी रणनीति का हिस्सा तो नहीं था। जेनेटिक कारणों से होने वाला रोग प्रोजेरिया बचपन में वृद्धावस्था ला देता है किंतु इन युवा पत्रकारों के वैचारिक प्रोजेरिया का कारण तो सत्ता और संपन्नता की उनकी भूख ही है।
ऐसा बहुत कुछ जो आज पत्रकारिता के नाम पर परोसा जा रहा है दरअसल हमें कुछ खास विषयों पर खास दिशा में सोचकर अपनी राय बनाने के लिए बाध्य करने की रणनीति का एक हिस्सा है। सरकार अब सेंसरशिप जैसी आदिम अभिव्यक्तियों पर विश्वास नहीं करती। आज का मीडिया ऐसे बहुविकल्पीय प्रश्न की भांति है जिसके सारे उत्तर सत्ता के पक्ष में हैं और सत्ता बड़े गौरव से यह कह सकती है कि जनता को चुनने की आजादी है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-विष्णु नागर
मंगलेश डबराल अब नहीं हैंं। नहीं हैं मतलब अब हम उन्हें अपने बीच कुछ नया रचते-बनाते हुए नहीं पा सकते। बहुत से कवि मरने से बहुत पहले मर चुके होते हैं। जब उनकी मृत्यु की खबर आती है, तब हम चौंंकते हैं, अरे ये अब तक हमारे बीच थे?ऐसा शायद इसलिए कि तब तक वे अपने को भुलाये जाने की पर्याप्त योग्यता अर्जित कर चुके होते हैं। इसके विपरीत मंगलेश या उनकी तरह के दूसरे कुछ कवियों की मौत हमें सदमा देती है क्योंकि कुछ नया, कुछ भी नया करने की संभावना उनमें शेष थी। इसके प्रमाण हमें मिल रहे थे।
मुक्तिबोध की मृत्यु के समय मैं एक किशोर था, जानता भी नहीं था कि ऐसा कोई कवि था, जो अब नहीं है और उसका होना बहुत मायने रखता था। इसलिए जिस सदमे को उनकी कविता को निकट से जानने वालों ने तब महसूस किया था, उसे बाद में ही मैं महसूस कर पाया। 1990 के अंत में जब रघुवीर सहाय नहीं रहे तो उनके अभाव को मंगलेश सहित हम सबने बहुत देर तक महसूस किया था और आज वह खला हमारे भीतर हैं कि हमने उन्हें बहुत जल्दी खो दिया। मंगलेश का अभाव भी कुछ ऐसा है। वह थे तो उस आदमी को चैन नहीं था। तमाम बेचैनियाँ उसकी कविताओं और उसके बाहर दर्ज होती रहती थीं। अब वह शायद चैन होंं मगर हम उनके समवयस्क और बाद के कवि उनके न रहने से बेचैन हैं। जब कोई रहता है तो हम वह शायद उसके रहने को उस तरह महसूस नहीं कर पाते, जिस प्रकार उसके न रहने पर। और मंगलेश एकदम चले जाएँगे, इसका अहसास किसी को नहीं था। तब भी नहीं, जब वह कोविड के कारण अस्पताल में भर्ती किए गए, जबकि उनका ऑक्सीजन स्तर खतरनाक रूप से नीचे जा चुका था। उस बीच उनके ठीक होते जाने की रोशनी की धीमी चमक दिखती रहती थी तो आश्वस्ति होती थी।
मंगलेश और हम एक-दूसरे के कितने दोस्त थे, कितने नहीं, मैं ठीक ठीक कह नहीं सकता। उनकी अंतरंग मंडली का कुछ दूसरों की तरह मैं सदस्य नहीं था, हालांकि उनकी बहुत सी अंतरंगताओं का एक गवाह मैं भी रहा हूँ। मैं उन्हें 1971-72 से जानता रहा हूँ। हम दोनों के तब संघर्ष के दिन थे।मंगलेश मुझसे कुछ पहले यहाँ आ चुके थे। साहित्य का संसार कुछ-कुछ उन्हें जानता था,जबकि मेरा कुछ सामने आया नहीं था। विचारधारागत तैयारी भी तब तक मंगलेश की काफी हो चुकी थी। मैं शून्य या शून्य से थोड़ा ऊपर था। मोहनसिंह प्लेस के काफी हाउस में इनकी बहसें सुना करता था।
खैर वह दौर गुजरा। बाद में हमारी मित्रता हुई। और भी बाद में कविता के कई मंचों पर हम साथ रहे।कविता के बाहर की दुनिया में भी।रसरंजन की कई शामों में भी। ‘जनसत्ता’ के दफ्तर में भी कई दोपहरें बीतींं। बहादुर शाह जफर मार्ग पर उनका छोटा सा कैबिन मित्रों का अड्डा और कई नवागत लेखकों-पत्रकारों का स्वागत कक्ष था। इतनी भीड़ होती थी अक्सर वहाँ कि अगर वह कभी अकेले काम करते हुए मिल जाए तो आश्चर्य होता था मगर कभी मंगलेश ने किसी से नहीं कहा कि यारों अब मुझे काम करने दो, जाओ।ज्यादा काम होता तो वह सब कुछ सुनते भी रहते और काम भी मुस्तैदी से निबटातेभी जाते। तब ‘जनसत्ता’ के चार रविवारी पृष्ठों की जो धमक थी, वह फिर कभी किसी की नहीं रही। बहुत सी बातें उनसे अलग से भी हुईं। सहमतियाँ-असहमतियाँँ सभी। असहमतियाँ हुईं तो एक दूसरे से कुछ उदासीन रहे मगर संबंधों का धागा कभी नहीं टूटा। जब मैं रघुवीर सहाय की जीवनी पर काम कर रहा था, तो मुझे लगता था कि इस काम को करने के सच्चे अधिकारी वह हैं। फिर भी यह अच्छा हुआ, यह काम मैंने किया। शायद उनसे पूरा नहीं हो पाता, जैसा शमशेर बहादुर सिंह की जीवनी लिखने की परियोजना में हुआ। यह काम पूरा न हो पाने का एक कारण कोरोना के बाद अस्त व्यस्त हुआ सबका जीवन भी था। शमशेरजी वाला काम शायद आरंभिक नोट्स लेने से आगे नहीं बढ़ पाया। बहुत तरह की उलझनों के बीच ऐसा काम-जो रचनात्मक भी हो और निरंतर शोध भी माँगता हो, उनकी तमाम योग्यताओं के बावजूद कठिन तो था मगर मेरे काम में उन्होंने किसी और से ज्यादा तत्परता से सहयोग दिया। इसका कारण रघुवीर सहाय से उनका लगाव था और मुझसे मित्रवत संबंध भी इसका कारण था।
बहरहाल वह अब नहीं है और उनका न होना इतना अप्रत्याशित है। फिर भी इस प्रकार वह हमारे बीच भी हैंं-
अपने ही भीतर मरते जा रहे हैं
जीवित लोग
मैं उम्मीद से देखता हूँ मृतकों की ओर
वे ही हैं जो दिखते हैं जीवित।
यह मंगलेश डबराल के ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ कविता संग्रह की तीन छोटी कविताओं में से एक है। छोटी और अर्थपूर्ण। मंगलेश को क्या पता रहा होगा कि वह भी जल्दी ही उनमें से एक हो जाने वाले हैंं, जो उन मृतकों में एक होंगे, जो दीखते रहेंंगे, हमें जीवित। हम जो जीवित अपने भीतर मरते जा रहे है, उम्मीद से उनकी ओर देखा करेंगे।वैसे उनमें जीवन जीने की अदम्य इच्छा थी। जीवन से। कभी वह हारे नहीं। उन्हें निजी अस्पताल से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती किया जाए, यह उन्हीं का आग्रह था।
हारना तो जैसे आरंभ से उस शख्स को आता नहीं था। हाँ लडऩा-भिडऩा आता था। अपनी बात के लिए कविता के लिए जगह बनाना आता था। अपनी कविताओं से ज्यादा दूसरों की कविताओं के लिए यह काम उन्होंने अपने सुदीर्घ पत्रकारिता के जीवन मेें किया और जहाँ भी रहे,वहाँ किया।’
जनसत्ता ‘जिन वर्षों मेंं सचमुच एक अखबार हुआ करता था, तब उसने हिन्दी और भारतीय भाषाओं की कविता और कवियों के लिए उसमें बहुत जगह बनाई बल्कि कविता के लिए ही क्यों, साहित्य और संस्कृति के लिए भी। जब दूसरे हिंदी अखबार साहित्य और संस्कृति से विमुख होने के लिए तत्पर हो चुके थे, तब ‘जनसत्ता’ ने मंगलेश डबराल के रहते लगभग दो दशकों तक यह काम जम कर किया। इसमें किसी तरह का समझौता स्वीकार नहीं किया। उस समय की कोई बड़ी सांस्कृतिक-साहित्यिक हस्ती ऐसी नहीं थी, जिसकी ‘जनसत्ता’ के साप्ताहिक संस्करण में चर्चा न हुई हो, जिसे महत्व को रेखांकित न किया गया हो, हिंदी के पाठक उससे अपरिचित रखा गया हो। यही बात युवा प्रतिभाओं के बारे में थी। यह काम मंगलेश ने अन्यत्र भी किया था मगर ‘जनसत्ता’ ने उसे दीर्घकालिक स्मृति का हिस्सा बना दिया। रघुवीर सहाय कभी जो काम ‘दिनमान’ के जरिए कर रहे थे, वह काम अपनी तरह से उनके वहाँ रहते भी और बाद में भी मंगलेश ने किया। जब रघुवीर जी ‘दिनमान’ से बाहर कर दिए गए तो उनके लेखन का उपयोग अपने यहाँ मंगलेश ने उनसे स्तंभ लिखवाकर किया। अक्सर कवि की कविताओं की आभा में उसके इस तरह के योगदान को विस्मृत कर दिया जाता है।
जीवन के बहत्तर वर्ष पूरे कर चुका और पचास से भी अधिक वर्षों से लिख रहा यह कवि अभी भी बहुत कुछ कर रहा था और बहुत कुछ करने की इच्छा से प्रेरित था। मंगलेश जब अपने गाँव काफलपानी में रहते थे अभावों के बीच, जहाँ व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएँ भी मुश्किल से पहुँचती थीं, तब 1967-68 में ही छोटी पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपने लगी थीं। 1970 में जब अशोक वाजपेयी की आलोचना की पहली और उल्लेखनीय किताब ‘फिलहाल’ आई , उसमें भी मंगलेश की कविता का जिक्र है, हालांकि कविता से विचारों की विदाई के संदर्भ में।
मंगलेश के जानने वालों को लगता था कि वह कोरोना से भी नहीं हारेंंगे। अभी एक दिसंबर को ही निजी अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए अर्धचेतनावस्था में उन्होंने फेसबुक पर कुछ लिखने-कहने की कोशिश की थी-,द्ग ड्ढ4 ह्यद्गद्ग श्च.। पता नहीं यह कुछ कहने का प्रयत्न जैसा था या कुछ कह न पाने मेंं असमर्थता का संकेत। इसके बाद आल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में भर्ती होने के बाद मृत्यु से चारेक दिन पहले तक मित्र रवींद्र त्रिपाठी से संक्षिप्त बात की थी। इससे लगता था कि एम्स के कुशल डाक्टर और वह स्वयं आत्मबल से कोरोना संकट से बाहर निकल आएँगे,बस समय लगेगा। मंगलेश की हालत से इतने लोग चिंतित थे और इतनों की शुभेच्छाएँ उनके साथ थीं और हर तरह से सहयोग करने की इच्छाएँ भी कि जिसकी कल्पना इस समय करना कठिन है।
वह हमारे समय के सबसे चर्चित और सबसे सक्रिय -सफल कवियों-लेखकों में थे। उनकी चौतरफा तैयारी और सक्रियता नौजवान कवियों-लेखकों के लिए भी प्रेरक शायद रही हो। फेसबुक पर उनकी सक्रियता भी गजब थी। शायद ही कोई दिन जाता हो, जब किसी न किसी रूप में वह अपनी उपस्थिति दर्ज न कराते रहे होंं। कई बार वह एक योद्धा की तरह कूद पड़ते थे, चाहे हमला उनके किसी कथन या कविता पर हो या कोई और व्यापक मुद्दा हो। मंगलेश की निगाहें साहित्य ही नहीं,हमारे समय के राजनीतिक विद्रूप पर भी खूब थी। वह इस समय जितना बेचैन, व्यथित और बदलाव की इच्छा से प्रेरित कवि थे, ऐसे हिंदी कवि इस समय कम मिलेंगे। इस हत्यारे समय की जैसी पहचान मंगलेश के अंतिम कविता संग्रह ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ में है, वैसी कम मिलेगी। हिटलर, तानाशाह, हत्यारों का घोषणापत्र, हत्यारा चाकू आदि आदि। उनकी अनेक कविताएँ हैं। बाकी कविताओं में भी यह उपस्थिति नजर आएगी।
मंगलेश उन हारे-थके हुए कवियों में नहीं थे, जिनका वक्त ने साथ छोड़ दिया मगर जो वक्त का हाथ जबर्दस्ती पकड़े हुए घिसट रहे हैं। वह अपार ऊर्जा से भरा हुए थे। अभी अक्टूबर के अंत में मुझे साथ लेकर मंगलेश ने बहुत बड़ी लेखक-कलाकार बिरादरी को बिहार चुनाव में धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के पक्ष में खड़ा किया था। यह कवि इस समय हिंदी कवियों में अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर था। हमारी पीढ़ी के वह ऐसे अकेले कवि थे, जिनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान भी इस बीच बनी थी। उनके कवि-मित्रों की बिरादरी भाषाओं और देशों के पार थी। जीवन में उनके कइयों के कई मतभेद रहे मगर कवि-लेखक के रूप में उनकी प्रतिभा से शायद ही कभी कोई इंकार कर पाया हो,जबकि किसी को भी सिरे से नकार देने का रिवाज हमारी भाषा में बहुत है।
शमशेर बहादुर सिंह के अलावा उनके एक और आदर्श कवि रघुवीर सहाय थे, जिनसे उनकी व्यक्तिगत निकटता बहुत रही। 9 दिसंबर को रघुवीरजी का जन्मदिन था लेकिन अब यह दिन मंगलेश के हमसे बिछुडऩे के दिन की तरह शायद अधिक याद किया जाए। इसी दिन हिंदी के एक और फक्कड़ और बड़े कवि त्रिलोचन शास्त्री भी नहीं रहे थे और अब मंगलेश भी नहीं हैं।
1981 में प्रकाशित पहले कविता संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ से पहले ही हिंदी कविता की दुनिया में मंगलेश को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था। उनके दूसरे कविता संग्रह का नाम था-‘घर का रास्ता’। वह रास्ता अपनी कविताओं में तो वह बार-बार तलाशते रहे मगर वास्तविक जीवन में उसे पाना इतना आसान कहाँ था! जब कोई अपना गाँव घर छोडक़र दिल्ली-बंबई जैसे महानगर में आने को मजबूर हो जाता है तो फिर घर का रास्ता पता होने पर भी घर लौटना कहाँ आसान रह जाता है! मंगलेश की एक कविता का अंश है-
मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया
यहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया।
वह शुरू से विश्वासों से वामपंथी रहे और इसमें कभी विचलन नहीं आया। 2015 में जब साहित्य अकादमी ने अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक एम ए कलबुर्गी की हत्या पर मौजूदा सत्ता के भय से अकादमी ने शोकसभा तक करने से इंकार कर दिया था तो भारतीय भाषाओं के जिन करीब पचास लेखकों ने अपना विरोध व्यक्त करने के लिए अकादमी पुरस्कार लौटाया था, उनमें मंगलेश डबराल अग्रणी थे, जिसे हुक्मरानों ने और उस समय के अकादमी अध्यक्ष ने इसे कुछ लेखकों का षडय़ंत्र तक बताया था और इन लेखकों को अवार्ड वापसी गैंग कहा था। यह पुरस्कार मंगलेश को आज से 19 वर्ष पहले मिला था। उम्र के अस्सीवें वर्ष के बाद मिलनेवाले कुछ पुरस्कारों को छोड़ दें तो मंगलेश को सभी महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले मगर पुरस्कारों से अधिक महत्वपूर्ण होता है कविता की दुनिया में कवि का अकुंठ सम्मान।
इतने सम्मानों से नवाजा गया यह कवि सत्ता के विरोध के हर मंच पर उपस्थित रहता था, भले कवि के रूप में किसी समारोह में बुलाए जाने और उसके निमंत्रण को स्वीकार करने के बाद भी वह किसी कारण जाना टाल जाए,जो वह कई बार करते थे। वह उन कवियों-व्यक्तित्वों में रहेंंगे, जिन्हें मृत्यु के बाद श्रद्धांजलि देकर फिर हमेशा के लिए भुला नहीं दिया जा सकता।
-चिन्मय मिश्र
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाए,
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।
कबीर
और
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,
सीस दिए से गुरु मिले, वो भी सस्ता जान।
कबीर
दुनिया बदलती है, यह तो दस्तूर है, लेकिन क्या उसके साथ शाश्वत मान्यताएं और शाश्वत मूल्य भी बदल जाते हैं ? आश्चर्य तब होता है जब कि इन सनातन मूल्यों को वे तोड़ते हैं, जो कि स्वयं को सनातन धर्म का प्रवक्ता और ठेकेदार मानते हैं। कबीर का जीवनकाल सन् 1398 ईस्वी से सन् 1518 (करीब 120 वर्षों का) तक माना जाता है। वे निरक्षर थे लेकिन गुरु का महत्व समझते थे। वह समझा गए थे कि अक्षरज्ञान ही सब कुछ नहीं है। वे बता गए थे कि गुरु और गोविंद में से पहले कौन वंदनीय है। उन्होंने यह बात भी कान में डाल दी थी कि सिर कटाने से भी बड़ी बात एक गुरु से साक्षात्कार है। परंतु उनकी मृत्यु के करीब 504 वर्षों बाद भारत में सभ्यता और संस्कृति की नई (बयार) लू चल पड़ी है। खबर आई है भारत के आदर्श राज्य और जहां से देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री आते हैं, उसी गुजरात से, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की अहमदाबाद इकाई के एक नेता ने विगत शुक्रवार को शहर के साइंस सिटी रोड स्थित ‘साल टेक्निकल इंस्टिट्यूट’ जिसे साल कालेज भी कहा जाता है, की महिला प्रिंसिपल को एक छात्रा के पैर छूने को मजबूर कर दिया।
इक्कीसवीं सदी की इस ‘महान’ प्ररेणादायी और अब तक चली आ रही सड़ी-गली परंपरा जिसमें कि छात्र गुरुजनों के पैर छूते थे, उनके चरणों की वंदना करते थे, जैसी परंपरा को बदल कर यह ऐतिहासिक कार्य किया गया। इस प्रगतिशील कदम के अन्तर्गत महाविद्यालय की प्राचार्या ने अपने विद्यार्थी के प्रति जो घृणित अपराध किया था, उसके पश्चाताप स्वरूप उनसे अपनी ही विद्यार्थी के पैर छुआए गए। प्राचार्य ने जो अपराध किया उसे भी जान लेना जरुरी है। उनका घनघोर अपराध यह था कि उन्होंने 75 प्रतिशत से कम उपस्थिति के चलते कालेज में डिप्लोमा इंजीनिरिंग कर रहे पहले, दूसरे और चौथे वर्ष के 12 विद्यार्थियों के अभिभावकों को महाविद्यालय बुलाया था। कुछ के अभिभावक आ भी गए थे
सोचिए वे यानी प्रिसिंपल जिनका नाम डा. मोनिका गोस्वामी है, कितना बड़ा अपराध कर रहीं थीं। ऐसे विद्यार्थी जिन्होंने महाविद्यालय न आकर महाविद्यालय और पूरे शिक्षा जगत पर अहसान किया था, के माता-पिता को कालेज में बुला लिया ! जाहिर है कुछ अति मेधावी और महान विद्यार्थी जो कि कक्षाओं में न आकर अहसान कर रहे थे, को यह नागवार गुजरा। एबीवीपी यानी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, जो कि गुजरात व भारत में सत्तासीन राजनीतिक दल का समर्थक संगठन है, के पदाधिकारियों को भी यह कृत्य नागवार गुजरा। उन्हें लगा होगा कि उनके समर्थकों के साथ ऐसा कैसे हो सकता है? बहरहाल ये निरीह और असहाय छात्र अपने परम आदरणीय नेता अक्षत जयसवाल के पास पहुंचे। जाहिर है अक्षत जी को प्रधानाचार्यं की इस कारगुजारी से गहरी चोट पहुंची होगी। उनका हृदय करुणा जो अपने साथियों के प्रति थी और गुस्सा जो प्राचार्या के प्रति था, एकसाथ उबल पड़ा। वे बेहद भावुक व क्रोधित एकसाथ हो उठे होंगे। उन्होंने करीब 100 विद्यार्थियों को साथ लिया और प्राचार्य डा. मोनिका गोस्वामी को दंड देने उनके दफ्तर में जा पहुंचे। गोस्वामी से याद आया कि महाकवि तुलसीदास को भी तो गोसांई या गोस्वामी तुलसीदास कहा जाता था। वे भी गुरु के लिए रामचरित मानस के बालकांड में लिखते हैं,
श्रीगुर पद नख मनि गन जोति, सुमिरत दिव्य दृष्टि हिंय होती।।
दलन मोह तमसो स प्रकासू, बड़े भाग उर आवई जासू।।
उपरोक्त चौपाईयों का अर्थ है, ‘‘श्री गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही ह्दय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाला है। वह जिसके ह्दय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।
अब आप ही सोचिए इस इक्कीसवीं सदी में क्या कबीर और क्या तुलसीदास! कबीर तो पूरे पैर की बात करते हैं लेकिन तुलसीदास तो सिर्फ पैरों के नाखून को ज्योति मणि बता रहे हैं। हम तो इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं। विज्ञान के युग में रह रहे हैं और इस बात पर विश्वास कर लेंगे कि गुरु के नाखून ज्योति मणि के समान हैं ? कतई नहीं। तो आधुनिक संत शिरोमणी श्री श्री अक्षत जी अपने 100 दिव्य शिष्यों के साथ अधम या उधम करने वाली प्राचार्या के कक्ष में पहुंचते हैं और उन्हें उनकी ही एक छात्रा के पैर छूने को मजबूर कर देते हैं। इस तरह से वह भारत में अनादि काल से चली आ रही एक रूढ़ परंपरा को ध्वस्त कर देते हैं। जाहिर है वे एक ऐतिहासिक कार्य कर रहे हैं। एक ऐसा कार्य जिसकी कल्पना भी नेहरू के शासनकाल में नहीं की जा सकती थी। आप ही सोचिए आजादी के 75 वर्षों में क्या कभी ऐसा हुआ? यह महान कार्य आजादी के अमृत वर्ष में और अमृत काल के चलते एबीवीपी द्वारा ही संभव हो पाया है। कांग्रेस को शर्म से डूब मरना चाहिए कि गांधी व नेहरू ने उन्हें शिक्षकों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह भी नहीं सिखाया था।
घटना का वीडियो जारी हो जाने के बाद, एबीवीपी की महानगर मंत्री प्रार्थना अमीन ने अक्षत जयसवाल को निलंबित कर दिया। देखिए, कितनी कठोर कार्यवाही की है? नहीं? सोचिए हम किस तरह का दोहरा आचरण अपने आसपास देख रहे हैं। कायदे से होना तो यह था कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व अन्य सभी छात्र संगठन इस घटना की भत्र्सना करते। महाविद्यालय की प्राचार्या से सार्वजनिक माफी मांगते और अक्षत जायसवाल के खिलाफ पुलिस थाने में रिपोर्ट करते। वैसे यह कोई बिरली घटना नहीं है जो शिक्षकों के खिलाफ हुई हो । अभी कुछ दिन पहले ही बड़ौदा स्थित एमएस विश्वविद्यालय में विवाद हुआ और उत्तरप्रदेश के लखनऊ में विवाद हुआ। असहमति की गुंजाइश हमेशा से रही है और होना भी चाहिए। परंतु किसी विद्यार्थी की कलाकृति या किसी प्राध्यापक की टिप्पणी पर विद्यार्थियों द्वारा इतनी कटुता भरी और कमोवेश अपमानजनक ढंग से दी गई प्रतिक्रियाएं वास्तव में आश्चर्यचकित करतीं हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से अपने शिक्षकों का मूल्यांकन छात्रों द्वारा किया जाना वास्तव में बेहद अरुचिपूर्ण व अभद्र है।
चूंकि नवीनतम मसला अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ा है, ऐसे में उनके मूल संगठन से अपेक्षा है कि वह गुजरात के अपने संगठन के सभी पदाधिकारियों व सदस्यों को नए दिशा-निर्देश जारी करें कि गुरुजनों से किस प्रकार से व्यवहार किया जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि मूल संगठन को इस तरह की अपमानजनक व अमानवीय घटना के मद्देनजर गुजरात के अपने संगठन में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहिए और खोज करना चाहिए कि इस तरह की खतरनाक विकृति कैसे पनप गई। यह घटना हमारे देश के शिक्षकों के लिए भी बड़ा सबक है। उन्हें सोचना समझना होगा कि वे किस तरह की भस्मासुरी पीढ़ी को विकसित कर रहे हैं। इस घटना की जिम्मेदारी से शिक्षक वर्ग भी बच नहीं सकता। अहमदाबाद में जिन छात्रों ने इस तरह की घृणित हरकत की है, वे उन्हीं के द्वारा पढ़ाए (?) गये हैं। महाविद्यालयों में उपस्थिति में छूट को तमाम छात्रों द्वारा अपना मौलिक व वैधानिक अधिकार मान लेना कोई एक दिन में नहीं हो गया है। पिछले कई वर्षों से यह परंपरा बनती जा रही है कि विद्यार्थी महाविद्यालय जाते ही नहीं और जाते भी हैं तो कक्षाओं में नहीं बैठते। वैसे उनका कहना कि बैठकर करेंगे भी क्या, शिक्षक तो हैं ही नहीं। तो ये छात्र कहां पढ़ रहे हैं, कैसे पढ़ रहे हैं, किससे पढ़ रहे हैं और कैसे हमेशा पहली श्रेणी यानी फस्र्ट क्लास में उत्तीर्ण हो जाते हैं ? अब यह बीमारी विद्यालयों में भी फैल गई है। नौंवी से तमाम छात्र कमोवेश विद्यालय जाना बंद कर देते है या ‘डमी स्कूलों’ में प्रवेश ले लेते हैं। वे सिर्फ कोचिंग क्लासेस में ही जाते हैं। अतएव छात्रों और शिक्षकों में शिक्षा संबंधी संबंध विकसित ही नहीं हो पाते। उनके संबंध उपभोक्ता और आपूर्तिकर्ता के रह जाते हैं।
छात्र और उनके अभिभावक शिक्षा शुल्क देने के बाद मान लेते हैं कि उनकी जिम्मेदारी खत्म हो गई है। शिक्षा अब एक उत्पाद है, और उन्होंने उनकी कीमत चुका दी है। चूंकि इस उत्पाद का प्रमाणीकरण डिग्री से होता है और उसका नकद भुगतान पहले कर ही चुके हैं। अहमदाबाद की घटना एकाध अखबार में पिछले पन्ने या अंदर के पन्ने पर छपी है। जबकि यह प्रथम पृष्ठ का सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य समाचार है जो समझा रहा है हम पतन के गर्त से भी नीचे कोई जगह होती होगी, तो उस रसातल पर पहुंच चुके हैं। एक शिक्षक को इस तरह अपमानित करना राष्ट्रीय रोष नहीं शोक का विषय है। इस पतन का अगला चरण तो यही हो सकता है कि यदि हम अपने माता-पिता के कार्य से संतुष्ट नहीं हैं या विरोध में हैं तो समझौते की स्थिति में आने के लिए उन्हें हमारे यानी बच्चों के पांव छूने पड़ेंगे।
यह घटना को अंजाम एक ऐसे संगठन के सदस्य ने दिया है जो भारतीय संस्कृति, सभ्यता और संस्कार की कसमें खाता है। पिछले कुछ समय से उन्होंने कसमें खिलवाना भी आरंभ कर दिया है। अहमदाबाद में प्राचार्या/शिक्षक को छात्रा के पांव छूने को मजबूर करना हमारे समाज में बढ़ती वीभत्सता का स्पष्ट संकेत है। शिक्षक या गुरु बनना महज नौकरी नहीं है। शिक्षकों को भी समझना होगा कि वे ज्ञान की परंपरा के संवाहक हैं। यदि वे इसे महज एक नौकरी की तरह लेंगे और अधिकांशत: ऐसा कर भी रहे हैं, तो फिर प्रतिष्ठा प्राप्त कर पाना भी संभव नहीं है। प्रथम सिख इतिहासकार भाई गुरदास गुरु अंगद को गुरु गद्दी मिलने पर कहते हैं, ऐसा माना जाता है कि गुरुगद्दी पर नामजद किए जाने पर प्रत्येक गुरु में गुरु की ज्योति प्रवेश कर जाती थी। अत: वे भी नानक ही कहलाए और उनमें से कुछ ने अपना उपनाम भी नानक रखा। याद रखिए (गुरु) ग्रंथ साहेब भक्ति काव्य के महानतम संकलनों में से एक है। इसकी शुरुआत या आरंभ में मूलमंत्र हैं,
एक ओंकार/सतनाम/करता पुरख/निरभौ/निरवैर/अकाल सूरत/अजूनी/सैभं/गुरु प्रसाद।।
अर्थात, ईश्वर एक है, वही सृष्टि का रचनाकार है। वह निर्भय है और किसी से बैर नहीं रखता। वह शाश्वत है, वह जन्म-मृत्यु से परे है। वह स्वयं-भू है, उसे गुरुकृपा से प्राप्त किया जा सकता है।
जबकि अहमदाबाद की घटना तो बता रही है कि अब गुरु ही शिष्य की कृपा पर निर्भर हैं। इस संक्रमण को जितनी जल्दी रोका जाएगा बेहतर रहेगा। अन्यथा कोरोना से तो दुनिया बच भी सकती है, लेकिन गुरु के अपमान के बाद...
दिलनवाज़ पाशा
उदयपुर में चला कांग्रेस पार्टी का तीन दिवसीय चिंतन शिविर रविवार को ख़त्म हो गया. इसे 'नव संकल्प शिविर' का नाम दिया गया और इस दौरान पार्टी को फिर से मज़बूत करने की रणनीति बनाई गई.
चिंतन शिविर का फ़ोकस पार्टी नेतृत्व में युवाओं को जगह देने और देश को फिर से पार्टी के साथ जोड़ने पर रहा.
आज़ादी के बाद से भारत में सबसे लंबे समय तक सत्ता संभालने वाली और देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस मौजूदा राजनीतिक हालात में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है.
पिछले दो लोकसभा चुनावों में बुरी तरह पराजित हुई और अब सिर्फ़ दो राज्यों की सत्ता तक सिमटी कांग्रेस पार्टी में अब ये समझ बन रही है कि ये 'करो या मरो' की स्थिति है.
इस नव संकल्प शिविर में पार्टी ने देशव्यापी पद-यात्रा निकालने, कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने, 'एक व्यक्ति, एक पद' नियम लागू करने, मंडल कांग्रेस समितियों का गठन करने और संगठन में रिक्त पदों को समय पर भरने का निर्णय लिया गया है. इसके अलावा पार्टी में युवाओं को 50 फ़ीसदी आरक्षण देना भी तय किया गया है.
2024 के लोगसभा चुनाव या आगामी राज्य चुनावों को लेकर पार्टी की कोई रणनीति इस चिंतन शिविर से निकलकर सामने नहीं आई है.
इस चिंतिन शिविर के बाद जहां पार्टी कार्यकर्ता ये कह रहे हैं कि उनमें जोश भरा है, वहीं विश्लेषकों का मानना है कि कोई ऐसा ठोस निर्णय नहीं लिया गया है जिससे पार्टी का कायापलट हो जाए या चुनावों में उसकी संभावना मज़बूत हो जाए.
कांग्रेस की राजनीति पर बारीक नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, "नव संकल्प शिविर से कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नरेंद्र मोदी सरकार से त्रस्त लोगों को कुछ उम्मीद थी. उन्हें लग रहा था कि नई ऊर्जा का संचार होगा. विपक्ष की सक्रिय भूमिका में कांग्रेस सामने आएगी. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को लेकर असमंजस की जो स्थिति है वो दूर होगी. इन बुनियादी मुद्दों पर कोई साफ़ बात नज़र नहीं आई है."
क्या जनता तक संदेश पहुंचा पाएगी कांग्रेस?
जानकार कहते हैं कि हाल के चुनावों में कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती ये रही है कि वो अपना संदेश आम जनता या अपने संभावित वोटरों तक पहुंचाने में कामयाब नहीं रही है. बीजेपी के मुक़ाबले पार्टी सोशल मीडिया पर कमज़ोर है और मीडिया की बहसों में भी पार्टी के मुद्दों को जगह नहीं दी जाती है.
हाल के सालों में बीजेपी ने मीडिया और सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने सियासी नैरेटिव को सेट करने और अपना संदेश लोगों तक पहुंचाने में कामयाबी से किया है. लेकिन कांग्रेस इस मोर्चे पर कमज़ोर नज़र आती रही है. पार्टी ने अब तय किया है कि देशव्यापी पदयात्रा निकालकर लोगों को जागरूक किया जाएगा.
क्या पदयात्रा से पार्टी ज़मीनी स्तर पर मज़बूत हो सकेगी इस सवाल पर रशीद किदवई कहते हैं, "यात्रा निकालना एक पुराना मॉडल है. महात्मा गांधी से लेकर चंद्रशेखर तक कई नेताओं ने ये किया और इससे उन्हें फ़ायदा भी हुआ. लेकिन आज सोशल मीडिया के ज़माने में राजनीतिक फ़िज़ा बदल चुकी है. आज धर्म और आस्था का राजनीति में मिश्रण किया जा रहा है. पुराने गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं. इस तरह के मुद्दों से सत्ता मिल रही है.
सवाल ये है कि क्या भारत में बहुसंख्यकवाद रहेगा? बहुसंख्यकों की जो धारणाएं हैं, या जो धारणाएं बनाई जा रही हैं उन पर ही राजनीति चलेगी. या जो कहा जा रहा है सबका साथ-सबका विकास, उसका अनुसरण भी होगा. इन तमाम चीज़ों पर यात्राएं निकालने से कोई बहुत ज्यादा लाभ नहीं होने वाला है."
इसी सवाल पर कांग्रेस के अल्पसंख्यक विभाग के राष्ट्रीय अध्यक्ष इमरान प्रतापगढ़ी कहते हैं, "पार्टी सिर्फ़ पदयात्रा की बात नहीं कर रही है, पार्टी ने और भी बहुत से संकल्प लिए हैं. पदयात्रा उन संकल्पों का एक हिस्सा है. पदयात्रा का मतलब ये नहीं है कि राहुल कश्मीर से चलकर कन्याकुमारी तक पैदल जाएंगे. पदयात्रा मतलब ग़रीब जनता तक, आम जनता तक पहुंचना है.
हमें ये लगता है कि तकनीक के दौर में भी, भागदौड़ के दौर में भी पदयात्रा को पुरातन कहकर नकारा नहीं जा सकता है. जब गांधी जी ने पदयात्राएं कीं तब तो संसाधन और भी कम थे. गांधीजी ने पदयात्राएं कीं और देश को जोड़ा, हम भी यही करने जा रहे हैं."
लेकिन क्या मीडिया और सोशल मीडिया के इस दौर में पदयात्रा जैसा संकल्प प्रभावी हो पाएगा, इस पर इमरान प्रतापगढ़ी कहते हैं, "जहां तक नई तकनीक और मीडिया का सवाल है, भाजपा इसी का इस्तेमाल देश को तोड़ने में, लोगों को बांटने में कर रही है. हम तकनीक और पदयात्रा का इस्तेमाल लोगों को जोड़ने के लिए, एक-दूसरे के क़रीब लाने के लिए करने जा रहे हैं. कांग्रेस पार्टी जनता के बीच में जाने के लिए हर माध्यम का इस्तेमाल करेगी और पदयात्रा भी एक माध्यम होगी."
ये सवाल भी उठता रहा है कि कांग्रेस पार्टी के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं और पार्टी का संगठन भी कमज़ोर है. इस सवाल पर इमरान प्रतापगढ़ी कहते हैं, "कांग्रेस के पास संसाधन मौजूद हैं. देश के कोने-कोने में आज भी कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं. देश के हर हिस्से में पार्टी के कार्यकर्ता मौजूद हैं. हां ये सच बात है कि पिछले कुछ चुनावों में, देश के कुछ हिस्सों में पार्टी कमज़ोर हुई है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि हमारे कार्यकर्ता ख़त्म हो गए हैं या उनका हौसला समाप्त हो गया है. हमारे पास संसाधन मौजूद हैं."
कांग्रेस के चिंतन शिविर में 'भारत जोड़ो' का नारा भी दिया गया. कांग्रेस सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी पर देश में विभाजन की राजनीति करने और धार्मिक और जातीय समूहों के बीच भेदभाव करने का आरोप लगाती रही है.
इमरान प्रतापगढ़ी कहते हैं, "पार्टी ने देश में यात्रा करने और भारत को जोड़ने की बात की है क्योंकि भाजपा लगातार देश को तोड़ने की कोशिश कर रही है, धर्मों को बांट रही है, जातियों को अलग-अलग कर रही है. ऐसे में राहुल गांधी ने जो बात रखी है और पार्टी की तरफ़ से जो संकल्प लिया गया है उसमें साफ़ कहा गया है कि हम भारत को जोड़ेंगे और पार्टी फिर से उठ खड़ी होगी."
चिंतन शिविर में क्या-क्या हुआ?
इस चिंतन शिविर में पार्टी के 430 नेताओं ने हिस्सा लिया. तीन दिन के शिविर में पार्टी नेताओं को समूहों में बांटा गया था और उन्होंने 'पार्टी को कैसे मज़बूत करें, क्या नया किया जाए' ऐसे विषयों पर चर्चा की.
इमरान कहते हैं, "चिंतन शिविर में मैं जिस ग्रुप का हिस्सा था उसमें बीजेपी से आए हुए लोग भी थे. यशपाल आर्य पांच साल बीजेपी में रहकर फिर से कांग्रेस में आए हैं. वो चिंतन शिविर में तीन दिन हमारे ग्रुप का हिस्सा थे. वो स्वयं कह रहे थे कि 'भाजपा और आरएसएस हमें दलितों के मुद्दों पर बोलने का मौका ही नहीं देती'. लेकिन कांग्रेस में हम खुलकर बात रख सकते हैं. मैंने ये बताया कि किस तरह मुसलमानों और ईसाइयों पर हमले हो रहे हैं और पार्टी को इस दिशा में क्या किया जाना चाहिए."
"हमने चिंतन शिविर में एक दिन ये बात रखी और अगले ही दिन सामाजिक न्याय सलाहकार परिषद का गठन किया गया जो सामाजिक न्याय के मुद्दों पर पार्टी को सलाह देगी. इन तीन दिनों के चिंतन शिविर में हमने सभ्यता सीखी, हमने सीखा कि देश को बचाने के लिए कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है."
आगामी गठबंधन का कोई संदेश नहीं
कांग्रेस के चिंतन शिविर पर नज़र रख रहे विश्लेषकों का मानना है कि इससे भविष्य में कांग्रेस के संभावित गठबंधनों को लेकर किसी रणनीति का कोई संकेत नहीं मिला है.
रशीद किदवई कहते हैं कि पार्टी को सत्ता के क़रीब आने के लिए प्रभावशाली गठबंधनों की ज़रूरत है, लेकिन ऐसा लगता है चिंतिन शिविर में इस पर कोई चर्चा नहीं हुई.
किदवई कहते हैं, "बात दो टूक और साफ़ है कि चुनावों में, ख़ासकर 2024 आम चुनाव में कांग्रेस और विपक्ष (जो बिखरा हुआ है) क्या लामंबद हो पाएंगे. क्या वो नरेंद्र मोदी और भाजपा को कम से कम तीन सौ-साढ़े तीन सौ सीटों पर चुनौती दे पाएंगे? उसके लिए कांग्रेस को करना ये होगा कि 2014 में जो 44 सीटें आई थीं या 2019 में जो 52 सीटें आई थीं उसे बढ़ाकर कम से कम सौ सीटें करना होगा. वहीं क्षेत्रीय पार्टियों को डेढ़ सौ सीटों पर अपने आप को प्रभावशाली बनाना होगा और इन सीटों को जीतना होगा. ये अगर हुआ तब ही नरेंद्र मोदी या भाजपा को चुनौती दी जा सकेगी."
किदवई कहते हैं, "लेकिन अगर इस संदर्भ में देखें तो नव संकल्प शिविर या चिंतन शिविर से कोई उम्मीद पैदा होती नहीं दिख रही है. ना ही कांग्रेस ने ये स्पष्ट किया है कि वो विपक्ष के गठबंधन का नेतृत्व करेगी और ना ही ये बताया है कि वो विपक्षी दलों से बातचीत करके एक नया फ़्रंट बनाने का प्रयास करेगी और नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश करेगी."
रशीद किदवई मानते हैं कि इस नव संकल्प शिविर से कोई नया विचार नहीं निकला है. वो कहते हैं, "कांग्रेस की सोच अभी भी 80 या 90 के दशक से आगे नहीं बढ़ी है. उसे ये लगता है कि हमारे बाप-दादा ने घी खाया है, हमारी हथेली सूंघ लो. लेकिन आज राजनीति बहुत बदल चुकी है."
विश्लेषक ये मान रहे हैं कि कांग्रेस अभी भी वर्तमान की राजनीतिक परिस्थितियों और उनमें अपनी जगह को नहीं समझ पा रही है.
किदवई कहते हैं, "आज कांग्रेस को तृणमूल या आम आदमी पार्टी जैसे गैर-भाजपा राजनीतिक दल चुनौती दे रहे हैं. अब कांग्रेस के पास अपनी सिर्फ़ दो राज्य सरकारें हैं, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में. उसी तरह आम आदमी पार्टी की भी दो सरकारें आ चुकी हैं दिल्ली और पंजाब में. कांग्रेस को अपने यथार्थ के धरातल पर अपनी ताक़त और कमज़ोरियों को आंकना होगा और उसी के हिसाब से अपनी योजना बनानी होगी."
नेतृत्व को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं
कांग्रेस नेता राहुल गांधी पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ चुके हैं और अंतरिम ज़िम्मेदारी उनकी मां सोनिया गांधी निभा रही हैं.
चिंतन शिविर में ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हैं. नेतृत्व को लेकर असमंजस पार्टी कार्यकर्ताओं को असहज कर सकती है.
किदवई कहते हैं, "कांग्रेस में काफ़ी समय से अंतरिम अध्यक्ष हैं. सोनिया गांधी ये ज़िम्मेदारी निभा रही हैं. राहुल गांधी 'कभी हां कभी ना' की भूमिका में हैं. चिंतन शिविर में उन्होंने कहा है कि पार्टी जो ज़िम्मेदारी देगी, मैं उसे निभाऊंगा लेकिन उन्होंने ये नहीं कहा कि सितंबर में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के जो चुनाव हो रहे हैं उसमें वो लड़ेंगे. उन्होंने किसी भी क़िस्म की दावेदारी पेश नहीं की है.
अगर कांग्रेस में इस तरह की संस्कृति रहेगी तो उससे जनता मायूस ही होगी क्योंकि जनता और कांग्रेस के समर्थक ये चाहते हैं कि वो ज़िम्मेदारी संभाले और क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर सभी लोकसभा सीटों पर भाजपा को घेरे, इस दिशा में कोई प्रयास नज़र नहीं आता है."
वहीं इमरान प्रतापगढ़ी का कहना है कि चिंतन शिविर में पार्टी ने ठोस निर्णय और संकल्प लिए हैं और अगर उन्हें लागू किया गया तो पार्टी फिर से उठ खड़ी होगी.
प्रतापगढ़ी कहते हैं, "हमने जो नव संकल्प लिए हैं यदि हम उन्हें अमली जामा पहना पाए और मुझे भरोसा है कि हम ऐसा कर पाएंगे, तो फिर हमें यक़ीन है कि पार्टी फिर उठ खड़ी होगी." (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभी महिना भर पहले तक सरकार दावे कर रही थी कि इस बार देश में गेहूं का उत्पादन गज़ब का होगा। उम्मीद थी कि वह 11 करोड़ टन से ज्यादा ही होगा और भारत इस साल सबसे ज्यादा गेहूं निर्यात करेगा और जमकर पैसे कमाएगा। इसकी संभावना इसलिए भी बढ़ गई थी कि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण दुनिया में गेहूं की कमी पडऩे लगी है लेकिन ऐसा क्या हुआ कि सरकार ने रातों-रात फैसला कर लिया कि भारत अब गेहूं निर्यात नहीं करेगा?
इसका पहला कारण तो यह है कि गेहूं का उत्पादन अचानक घट गया है। इसका मुख्य कारण मार्च, अप्रैल और मई में पडऩे वाली भयंकर गर्मी है। सरकार ने पिछले साल अपने गोदामों में सवा चार करोड़ टन गेहूं खरीदकर भर लिया था लेकिन इस बार वह सिर्फ दो करोड़ टन गेहूं ही खरीद पाई है। पिछले 15 साल में इतना कम सरकारी भंडारण पहली बार हुआ है। सरकार को उम्मीद थी कि इस बार 11 करोड़ टन से भी ज्यादा गेहूं पैदा होगा और वह लगभग एक-डेढ़ करोड़ टन निर्यात करेगी।
सरकारी अनुमान है कि इस साल गेहूं का उत्पादन 10 करोड़ टन से भी कम होगा। लगभग 4-5 करोड़ टन के निर्यात के समझौते हो चुके हैं और लगभग डेढ़ करोड़ टन निर्यात भी हो चुका है। हजारों टन गेहूं हम अफगानिस्तान और श्रीलंका भी भेज चुके हैं। अब इस निर्यात पर जो प्रतिबंध लगाया गया है, उसके पीछे तर्क यही है कि एक तो लगभग 80 करोड़ लोगों को निशुल्क अनाज बांटना है और दूसरा यह कि अनाज के दाम अचानक बहुत बढ़ गए हैं।
20-22 रू. किलो का गेहूं आजकल बाजार में 30 रु. किलो तक बिक रहा है। यह ठीक है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस समय गेहूं के दामों में काफी उछाल आ गया है और भारत उससे काफी पैसा कमा सकता है लेकिन सरकार का यह डर बहुत स्वाभाविक है कि यदि निर्यात बढ़ गया तो गेहूं इतना कम न पड़ जाए कि भारत में संकट खड़ा हो जाए। सरकार का यह सोच तो व्यावहारिक है लेकिन यदि गेहूं का निर्यात रूक गया तो हमारे किसानों की आमदनी काफी घट जाएगी। उन्हें मजबूर होकर अपने गेहूं को सस्ते से सस्ते दाम पर बेचना होगा।
इस समय सबसे बड़ी चांदी उन व्यापारियों की है, जिन्होंने ज्यादा कीमतों पर गेहूं खरीदकर अपने गोदामों में दबा लिया है लेकिन गेहूं का निर्यात रूक जाने से उसके दाम गिरेंगे और इससे किसानों से भी ज्यादा व्यापारी घाटे में उतर जाएंगे। सरकार चाहती तो निर्यात किए जानेवाले गेहूं के दाम बढ़ा सकती थी। उससे निर्यात की मात्रा घटती लेकिन सरकार की आमदनी बढ़ जाती। वह किसानों से भी थोड़ी ज्यादा कीमत पर गेहूं खरीदती तो उसका भंडारण दुगुना हो सकता था। गेहूं के निर्यात पर रोक लगाने के पीछे श्रीलंका से टपक रहा सबक भी है। इस समय देश में खाद्य-पदार्थों की मंहगाई से लोगों का पारा चढऩा स्वाभाविक हो गया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
यादों का पन्ना
-आर.के. जैन
आजादी से पहले ही तीन रियासतों के अलावा सभी देशी रियासतों के राजाओं ने भारतीय गणराज्य में विलय के पत्रों पर हस्ताक्षर कर दिये थे। छोटी बड़ी सब मिलाकर 625 रियासतें थीं। कुछ राजाओं के पास अपनी सेना और अपने कानून थे पर सभी रियासतें अंग्रेजों के अधीन थी। ये रियासतें जनता से लगान/टैक्स वसूलती और एक निश्चित रक़म अंग्रेजी खजाने में जमा करती थी और शेष रकम से अपना गुजारा करते थे।
भारत में विलय की शर्तों में इन राजाओं को रियासत के आकार के हिसाब से प्रिवी पर्स देने का प्रावधान था। प्रिवी पर्स के अलावा उनके महलों और साज संपत्ति पर भी उनका ही अधिकार था। देश की 662 रियासतों को प्रिवी पर्स के रूप में एक निश्चित राशि मिलती थी। छह रियासतों को तो 26.00 लाख से 15.00 लाख रुपये सालाना मिलते थे। दस लाख रुपये से ज़्यादा रक़म पाने वाली रियासतों की संख्या कुल पंद्रह थी जबकि लगभग 102 रियासतों को लगभग 1.00 लाख रुपये ही मिलते थे। कुछ रियासतों को तो 5000/- रुपये से भी कम मिलते थे। मैसूर, हैदराबाद, त्रावणकोर, जयपुर, पटियाला और बड़ौदा रियासतों को सबसे ज़्यादा रक़म मिलती थी। प्रिवी पर्स राजाओं और उनके उत्तराधिकारियों को आजीवन मिलना तय हुआ था जिसमें 1947 को आधार वर्ष मान कर हर साल बढ़ोतरी होती थी। उस समय सोने के भाव लगभग पचास रुपये प्रति तोला था जबकि इस समय सोना पचास हजार रुपये प्रति दस ग्राम है।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजाओं को दिये जाने वाले प्रिवी पर्स पर वर्ष 1969 में एक अध्यादेश के जरिये रोक लगा दी थी जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिया गया था। संसद में उस समय कांग्रेस के पास पूर्ण बहुमत नहीं था तो इंदिरा जी ने समय पूर्व 1971 में लोकसभा के चुनाव कराकर दो तिहाई से ज़्यादा बहुमत लेकर 26 वाँ संविधान संशोधन पारित कर प्रिवी पर्स को स्थायी रूप से बंद कर दिया था। दरअसल उस समय के राजे महाराजों ने भारतीय गणतंत्र में विलय तो मजबूरीवश कर दिया था पर उनका जनता के प्रति रवैया नहीं बदला था। आम जनता के प्रति सामंती व्यवहार और उन्हें हीन भावना से देखना उनकी आदत में शुमार था। प्रिवी पर्स बंद होने के साथ साथ उन्हें जो भी विशेषाधिकार थे सब बंद हो गये थे और वह भी आम नागरिक बन गये थे।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स का बंद किया जाना ये दोनों इंदिरा जी के सबसे बड़े क्रान्तिकारी कदम आज भी माने जाते है जिन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जान डाली थी और देश को सच्चे अर्थों में गणतंत्र बनाया था जिसने सब नागरिकों को बराबरी का अधिकार दिया था।
-ध्रुव गुप्त
विज्ञापनों की दुनिया बड़ी अजीब है। यहां किसी खास ब्रांड का सूट, जीन्स, बनियान और यहां तक कि अंडरवियर पहनने से भी लडकियां मक्खियों की तरह लडक़ों के इर्द-गिर्द मंडराती हैं। किसी खास ब्रांड के परफ्यूम या डियो लगाने वाले मर्दों के पीछे वे भुक्खड़ों की तरह भागती हैं। किसी खास कंपनी की बाइक अगर आपके पास है तो लिफ्ट मांग कर सरेराह आपसे लिपट जाने वाली लड़कियों की भी यहां कोई कमी नहीं। यह भी कि अगर आपके घर का बाथरूम किसी खास कंपनी के उपकरणों से सुसज्जित है तो कोई अनजान लडक़ी भी आपके बाथरूम में प्रवेश कर आपके लिए सेक्सी नृत्य भी करने लग सकती हैं। यहां पुरुष के अंतर्वस्त्र धोते-धोते चरम सुख का अहसास करने वाली लड़कियां भी हैं। टेलीविजन और अखबारों में आने वाले ऐसे विज्ञापनों को देखकर सर पीट लेने का मन करता है। हैरत भी होती है कि क्या हमारे देश की लड़कियां सचमुच ही इतनी खाली दिमाग, मूर्ख और कामातुर हैं? अगर नहीं तो फिर देश के किसी भी कोने से ऐसे अश्लील, विकृत और अपमानजनक विज्ञापनों के खिलाफ कोई आवाज क्यों नहीं उठती? स्त्रियों की अस्मिता या स्वाभिमान को ललकारते ऐसे फूहड़ विज्ञापनों के विरुद्ध कहीं मुकदमें क्यों नहीं दायर होते? देश और तमाम प्रदेशों में भी स्त्रियों की प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए महिला आयोग मौज़ूद हैं। आजतक किसी भी महिला आयोग ने ऐसे विज्ञापन बनाने वाली कंपनियों, उन्हें दिखाने वाले टीवी चैनलों, अखबारों और पत्रिकाओं के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की?
देश की सभी जागरूक और स्त्रीवादी महिलाओं से एक सवाल- क्या आपको ऐसे विज्ञापन देखकर गुस्सा नहीं आता? आता है तो महिला आयोग तक अपनी शिकायत पहुंचाएं। न्यायालय के दरवाजें खटखटाएं। यह भी नहीं तो कम से कम यहां सोशल मीडिया पर ऐसे विज्ञापनों के विरुद्ध जनचेतना जगाने के लिए एक आंदोलन तो खड़ा किया ही जा सकता है!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
‘नाटो’ नामक सैन्य संगठन में अब यूरोप के दो नए देश भी जुडऩेवाले हैं। ये हैं- फिनलैंड और स्वीडन। इस तरह 1949 में अमेरिका की पहल पर बने 15 देशों के इस संगठन के अब 32 सदस्य हो जाएंगे। यूरोप के लगभग सभी महत्वपूर्ण देश इस सैन्य संगठन में एक के बाद एक शामिल होते गए, क्योंकि शीतयुद्ध के जमाने में उन्हें सोवियत संघ से अपनी सुरक्षा चाहिए थी और सोवियत संघ के खत्म होने के बाद उन्हें स्वयं को संपन्न करना था। फिनलैंड, स्वीडन और स्विटजरलैंड जान-बूझकर सैनिक गुटबंदियों से अलग रहे लेकिन यूक्रेन पर हुए रूसी हमले ने इन देशों में भी बड़ा डर पैदा कर दिया है।
फिनलैंड तो इसलिए भी डर गया है कि वह रूस की उत्तरी सीमा पर अवस्थित है। रूस के साथ उसकी सीमा 1340 किमी की है, जो नाटो देशों से दुगुनी है। फिनलैंड पर हमला करना रूस के लिए यूक्रेन से भी ज्यादा आसान है। यूक्रेन की तरह फिनलैंड भी रूसी साम्राज्य का हिस्सा रहा है। सेंट पीटर्सबर्ग से मास्को जितनी दूर है, उससे भी कम दूरी (400 किमी) पर फिनलैंड है। द्वितीय महायुद्ध के बाद फिनलैंड तटस्थ हो गया लेकिन स्वीडन तो पिछले 200 साल से किसी भी सैन्य गठबंधन में शामिल नहीं हुआ। अब ये दोनों देश नाटो में शामिल होना चाहते हैं, यह रूस के लिए बड़ा धक्का है। उधर दक्षिण कोरिया भी चौगुटे (क्वाड) में शामिल होना चाह रहा है। ये घटनाएं संकेत दे रही हैं— नई वैश्विक गुटबाजी के! रूस और चीन मिलकर अमेरिका को टक्कर देना चाहते हैं और अमेरिका उनके विरूद्ध सारी दुनिया को अपनी छतरी के नीचे लाना चाहता है। यदि फिनलैंड और स्वीडन नाटो की सदस्यता के लिए अर्जी डालेंगे तो भी उन्हें सदस्यता मिलने में साल भर लग सकता है, क्योंकि सभी 30 देशों की सर्वानुमति जरुरी है। नाटो के महासचिव ने इन दोनों देशों का स्वागत किया है लेकिन मास्को ने काफी सख्त प्रतिक्रिया दी है।
रूसी प्रवक्ता ने कहा है कि नाटो का यह विस्तार रूसी सुरक्षा के लिए सीधा खतरा है। रूस चुप नहीं बैठेगा। वह जवाबी कार्रवाई करेगा। वह फौजी, तकनीकी और आर्थिक कदम भी उठाएगा। रूस ने धमकी दी है कि वह फिनलैंड को गैस की सप्लाय बंद कर देगा। वह बाल्टिक समुद्र के तट पर परमाणु प्रक्षेपास्त्र तैनात करने की भी तैयारी करेगा। इन सब धमकियों को सुनने के बावजूद इन देशों की जनता का रूझान नाटो की तरफ बढ़ रहा है। इनकी 70-80 प्रतिशत जनता नाटो की सदस्यता के पक्ष में है, क्योंकि नाटो चार्टर की धारा 5 कहती है कि नाटो के किसी एक सदस्य पर किए गए हमले को सभी तीसों सदस्यों पर हमला माना जाएगा। यदि यूक्रेन नाटो का सदस्य होता तो रूस की हिम्मत ही नहीं होती कि वह उस पर हमला करे। यूक्रेन की फजीहत इसीलिए हो रही है कि वह नाटो का सदस्य नहीं है। ऐसा लगता है कि अब विश्व राजनीति फिर से दो गुटों में बंटनेवाली है। यह खेल जऱा लंबा चलेगा। भारत को अपने कदम फूंक-फूंककर रखने होंगे। भारतीय विदेश नीति को अपना ध्यान दक्षिण और मध्य एशिया के पड़ौसी देशों पर केंद्रित करना होगा। इन देशों को गुटीय राजनीति में फिसलने से बचाना भारत का लक्ष्य होना चाहिए।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच में चीफ जस्टिस रमन्ना, जस्टिस सूर्यकान्त तथा जस्टिस हिमा कोहली ने राजद्रोह के नये पुराने मुकदमों की कार्यवाही रोककर केन्द्र सरकार को दो माह का वक्त पुनर्विचार के लिए दिया है। अगस्त में रिटायर होने वाले जस्टिस रमन्ना के कार्यकाल की यह उपलब्धि कही जाएगी।
राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्दों का कचूमर निकलता रहता है। देशद्रोह और राजद्रोह शब्द भारतीय दंड संहिता में हैं ही नहीं, फिर भी धड़ल्ले से इस्तेमाल में हैं। सबसे मशहूर मामला गांधी का 1922 में हुआ। गांधी ने तर्क किया ब्रिटिश कानून की अवज्ञा करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है। उन्होंने कहा यह कानून वहशी है। राजद्रोह भारतीय दंड संहिता में राजनीतिक अपराधों का राजकुमार है। वह नागरिक आजादी को कुचलना चाहता है। हुकूमत के लिए प्रेम या लगाव मशीनी तौर पर पैदा नहीं किया जा सकता और न ही उसे कानून के जरिए लागू किया जा सकता है। एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से प्रेम या घृणा हो तो उसे जाहिर करने की आज़ादी होनी चाहिए, बशर्ते वह हिंसा नहीं भड़काए। गांधी ने कहा भारत में राजनीतिज्ञों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं। उनमें हर दस में नौ लोग बेकसूर हैं। उनका यही अपराध है कि वे अपने देश से मोहब्बत करते हैं।
संविधान सभा में भी ‘राजद्रोह‘ को स्वतंत्रता के बाद कायम रखने के खिलाफ जीवंत बहस हुई थी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंतशयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने इस सड़ांध भरे अपराध को निकाल फेंकने के पक्ष में पुरजोर तर्क रखे। इतिहास का सच है संविधान लिखने की शुरुआत में मूल अधिकारों की उपसमिति के सभापति सरदार पटेल ने राजद्रोह को अभिव्यक्ति की आज़ादी और वाक् स्वातंत्र्य के प्रतिबंधों की सूची में शामिल किया था। सोमनाथ लाहिरी ने इस अपराध को वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोड़ा बनाए जाने पर व्यंग्य में यहां तक पूछा क्या सरदार पटेल सोचते हैं कि स्वतंत्र भारत की सरकार को ब्रिटिश सरकार से भी ज़्यादा नागरिक विरोधी शक्तियां मिलनी चाहिए? ऐसा हुआ तो हर तरह का राजनीतिक विरोध कुचला जा सकेगा। दूसरे दिन ही सरदार पटेल ने राजद्रोह के अपराध को जनअभिव्यक्तियों के पर कुतरने वाले सरकार के बचाव के हथियार के रूप में रखने से इंकार कर दिया।
संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ कानून के जरिए प्रतिबंध लगाए जाने को प्रख्यात समाजवादी नेता राममोहर लोहिया ने बार बार चुनौती दी। लेकिन सबसे चर्चित मुकदमे केदारनाथ सिंह के 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और आशंकित करता थानेदारों के जरिए सरकारों को हौसला देता रहता है। लंबे बहस मुबाहिसे के बाद राजद्रोह के अपराध को दंड संहिता से निकाल फेंकने की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया। दरअसल केदारनाथ सिंह ने तो यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंगरेज़ों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी। आज ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती से गद्दी पर बैठ गए हैं। यदि हम अंगरेज़ों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो कांग्रेसी गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कुछ पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में‘ नामक शब्दांश की बहुत व्यापक परिधि है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
जानना दिलचस्प है केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी का तर्क भी उल्लिखित नहीं किया। 1951 में ही सुप्रीम कोर्ट ने रमेश थापर की पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स‘ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य पत्र ‘आर्गनाइज़र‘ में क्रमश: मद्रास और पंजाब की सरकारों द्वारा प्रतिबंध लगाने के खिलाफ बेहतरीन फैसले दिए थे। उनके कारण नेहरू मंत्रिपरिषद को संविधान में संशोधन करते हुए अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के आधारों में राज्य की सुरक्षा तथा लोकव्यवस्था को जोड़ना पड़ा था। को संशोधित करना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजद्रोह का अपराध चिंताएं करता हुआ बनाया गया है। इसलिए उसे दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सकता। यह भी कहा कि कानूनसम्मत सरकार तो अलग अभिव्यक्ति है। उसे चलाने वाले अधिकारियों को सरकार नहीं माना जा सकता।
भारतीय दंड संहिता के जरिए सरकारों को बहुत गुमान है कि राजद्रोह उनका गोद पुत्र है। वह अंगरेज मां की कोख से जन्मा है। भारतीय दंड संहिता भारतीय नागरिकों की धाय मां है। राजद्रोह को अंगरेज बच्चा भारत माता की कोखजाई सन्तानों को अपनी दुष्टता के साथ गिरफ्तार करता रहता है। दुर्भाग्य है इस अपराध को दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सका। गुलाम भारत की सरकार की समझ, परेशानियां और चिंताएं और सरोकार अलग थे। राजद्रोह का अपराध हुक्काम का मनसबदार है। अब तो लेकिन जनता का संवैधानिक राज है। राष्ट्रपति से लेकर निजी स्तर तक सभी जनता के ही सेवक हैं। फिर भी मालिक को लोकसेवकों के कोड़े से हंकाला जा रहा है।
केदारनाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के संबंध में व्यापक अवलोकन कर लिया होता तो राजद्रोह को कानून की किताब से हटा देने का एक अवसर बहस में आ सकता था। दंड संहिता के अध्याय 6 में राजद्रोह के साथ कुछ और अपराध हमजोली करते हैं। उनके लिए राजद्रोह के मुकाबले कम सजाओं का प्रावधान नहीं है। ‘राज्य की सुरक्षा‘ जैसा शब्दांष बेहद व्यापक और लचीला है। सरकार या हुक्कामों के खिलाफ कोई विरोध की आवाज उठाता है तो केवल उससे राज्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है- ऐसा भी तो सुप्रीम कोर्ट ने नहीं कहा। आजादी के संघर्ष के दौरान जिस कौमी विचारधारा ने नागरिक आज़ादी को सरकारी तंत्र के ऊपर तरजीह दी। आज उनके प्रशासनिक वंशज इतिहास की उलटधारा में देश का भविष्य कैसे ढूंढ़ सकते हैं? राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है। यही जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ के प्रकरण में राजद्रोह की संवैधानिकता पर मुहर लगाई थी। तब इंग्लैंड में प्रचलित समानान्तर प्रावधानों का सहारा लिया था। इंग्लैंड में तो अब संबंधित धारा का विलोप कर दिया गया है। न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया वगैरह में भी इस तरह के कानून की कोई उपयोगिता प्रकट तौर पर नहीं रह गई है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अंग्रेजों के बनाए हुए 152 साल पुराने राजद्रोह कानून की शामत आ चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने उसे पूरी तरह से अवैध घोषित नहीं किया है लेकिन वैसा करने के पहले उसने केंद्र सरकार को कहा है कि 10 जून तक वह यह बताए कि उसमें वह क्या-क्या सुधार करना चाहती है। दूसरे शब्दों में सरकार भी सहमत है कि राजद्रोह का यह कानून अनुचित और असामयिक है। यदि सरकार की यह मन्शा प्रकट नहीं होती तो अदालत इस कानून को रद्द ही घोषित कर देती।
फिलहाल अदालत ने इस कानून को स्थगित करने का निर्देश जारी किया है। अंग्रेज ने यह कानून 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम के तीन साल बाद बना दिया था। यह कानून भारत की दंड सहिता की धारा 124ए में वर्णित है। इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को यदि अंग्रेज सरकार के खिलाफ बोलते या लिखते हुए, आंदोलन या प्रदर्शन करते हुए, देश की शांति और व्यवस्था को भंग करते पाया गया तो उसे तत्काल गिरफ्तार किया जा सकता है, उसे जमानत पर छूटने का अधिकार भी नहीं होगा और उसे आजन्म कारावास भी मिल सकता है।
इस कानून का दुरुपयोग अंग्रेज सरकार ने किस-किसके खिलाफ नहीं किया? यदि भगतसिंह के खिलाफ किया गया तो महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरु ने भी इसी कानून के तहत जेल काटी। आजादी के बाद भी यह कानून जारी रहा। इंदिरा गांधी के राज में इसे और भी सख्त बना दिया गया। किसी भी नागरिक को अब राजद्रोह के अपराध में वारंट के बिना भी जेल में सड़ाया जा सकता है। ऐसे सैकड़ों लोगों को सभी सरकारों ने वक्त-बेवक्त गिरफ्तार किया है, जिन्हें वे अपना विरोधी समझती थीं।
किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की आलोचना या निंदा क्या राजद्रोह कहलाएगी? देश में चलनेवाले शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन के कई नेताओं को राजद्रोह का अपराधी घोषित करके जेल में डाला गया है। कई पत्रकार भी इस कानून के शिकार हुए जैसे विनोद दुआ, सिद्दीक़ कप्पन और अमन चोपड़ा।आगरा में तीन कश्मीरी छात्रों को इसलिए जेल भुगतनी पड़ी कि उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट टीम को भारत के विरुद्ध उसकी जीत पर व्हाट्साप के जरिए बधाई दे दी थी।
बेंगलुरु की दिशा रवि को पुलिस ने इसलिए पकड़ लिया था कि उसने किसान आंदोलन के समर्थन में एक ‘टूलकिट’ जारी कर दिया था। जितने लोगों को इस ‘राजद्रोह कानून’ के तहत गिरफ्तार किया गया, उनसे आप असहमत हो सकते हैं, वे गलत भी हो सकते हैं लेकिन उन्हें ‘राजद्रोही’ की संज्ञा दे देना तो अत्यंत आपत्तिजनक है। यह कानून इसलिए भी रद्द होने लायक है कि इसके तहत लगाए गए आरोप प्राय: सिद्ध ही नहीं होते।
पिछले 12 साल में 13306 लोगों पर राजद्रोह के मुकदमे चले लेकिन सिर्फ 13 लोगों को सजा हुई याने मुश्किल से एक प्रतिशत आरोप सही निकले। नागरिक स्वतंत्रता की यह हत्या नहीं तो क्या है? इस दमघोंटू औपनिवेशिक कानून को आमूल-चूल रद्द किया जाना चाहिए। वास्तविक राजद्रोह और देशद्रोह को रोकने के लिए कई अन्य कानून पहले से बने हुए हैं। उन कानूनों का प्रयोग भी बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
रोजगार के कम अवसरों पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की बजाय मणिपुर के युवा आपदा में अवसर की तर्ज पर खेलों के जरिए ही आजीविका कमाने की राह पर बढ़ रहे हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर का नाम आजादी के बाद से ही उग्रवाद या सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) के कथित दुरुपयोग के लिए सुर्खियों में रहा है. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद राज्य में कोई बड़ा उद्योग नहीं होने के कारण रोजगार के संसाधन नहीं के बराबर हैं. ऐसे में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले राज्य के कई पूर्व चैंपियन अपनी अकादमी के जरिए युवाओं की प्रतिभा निखारने का काम कर रहे हैं.
खेलों की संस्कृति राज्य में गहरे रची-बसी है. शायद यही वजह है कि फुटबाल से लेकर भारोत्तोलन और कुश्ती से लेकर बॉक्सिंग तक राष्ट्रीय टीम में शामिल हो कर पदक बटोरने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है. राज्य में खेलों की इस परंपरा को ध्यान में रखते हुए नई प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए ही राज्य में देश का पहला राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय स्थापित गया है.
डिग्को सिंह, मैरी कॉम, सरिता देवी, विजेंदर, देवेंद्र सिंह और सरजूबाला जैसे चैंपियन खिलाड़ियों की सूची भी लगातार लंबी हो रही है. यह ऐसे नाम हैं जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में देश के लिए पदक बटोर कर देश का नाम तो रोशन किया ही है, रोजगार की नई राह भी खोली है. इनमें से कई खिलाड़ी अब दूसरी उभरती प्रतिभाओं को तराशने में लगे हैं.
राजधानी इंफाल स्थिति भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) भी इसमें अहम भूमिका निभा रही है. हालांकि निजी प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले ज्यादातर पूर्व खिलाड़ियों को सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिल पाने की शिकायत भी है. बावजूद इसके इन प्रशिक्षण केंद्रों में दाखिला लेने वालों की लगातार लंबी होती सूची अपनी कहानी खुद कहती है. खेल कोटे में इन युवाओं को पुलिस से लेकर सेना, केंद्रीय बलों और दूसरे सार्वजनिक उपक्रमों में आसानी से नौकरियां मिल जाती हैं. इन युवाओं खासकर पुरुषों में ज्यादातर का सपना भारतीय सेना में शामिल होना है.
सामाजिक ताने-बाने में बुनी संस्कृति
मणिपुर के सामाजिक ताने-बाने में खेलों की संस्कृति गहरे रची-बसी है और इसकी परंपरा सदियों पुरानी है. भारत की आबादी में इस राज्य की हिस्सेदारी महज 0.24 प्रतिशत है. बावजूद इसके वर्ष 1984 से अब तक यहां से 19 खिलाड़ी ओलंपिक की विभिन्न स्पर्धाओं में देश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. अकेले टोक्यो ओलंपिक में ही राज्य के छह खिलाड़ी चुने गए थे.
मणिपुर में मूल रूप से मैतेयी समुदाय के लोग रहते हैं और लगभग 29 कबायली समुदाय हैं. राजा कांगबा और राजा खागेम्बा के समय में खेल को काफ़ी तरजीह दी गई. राजा कांगबा के समय मणिपुर के कुछ पांरपरिक खेलों की शुरुआत हुई थी.
ब्रिटिश सेना में अफसर रहे सर जेम्स जॉनस्टोन ने मणिपुर पर अपनी पुस्तक 'मणिपुर एंड नगा हिल्स' में राज्य के पारंपरिक खेलों का जिक्र करते हुए स्थानीय लोगों की खेलों में कुशलता की प्रशंसा की थी. राज्य में उत्सवों और त्योहारों के मौकों पर भी खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन की परंपरा रही है. मिसाल के तौर पर होली के मौके पर पांच दिनों तक विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है. इस त्योहार को राज्य में याओसांग कहा जाता है. इसमें हर उम्र के लोग सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं.
साई के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, "मणिपुर में राष्ट्रीय खेलों का आयोजन साल 1999 में हुआ था. लेकिन उससे पहले ही राज्य के कई खिलाड़ी ओलंपिक में हिस्सा ले चुके थे.” आधारभूत सुविधाओं की कमी के बावजूद राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय स्तर पर करीब एक हजार खेल क्लबों का संचालन होता है जहां स्थानीय प्रतिभाओं को निखारा जाता है. यह सामुदायिक क्लब बिना किसी सरकारी सहायता के ही चलते हैं.
रोजगार का जरिया
राज्य में रोजगार के साधन नहीं के बराबर हैं. ऐसे में खेल ही युवाओं के लिए रोजगार की राह खोलते हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदक जीतते ही खेल कोटे के तहत नौकरियां मिल जाती हैं. सेना यहां के युवकों की पहली पसंद है. राजधानी इंफाल के बाहरी इलाके में स्थित बॉक्सिंग की विश्व चैंपियन रहीं सरिता देवी की अकादमी में प्रशिक्षण लेने वाले आठ साल के लोहेम्बा कहते हैं, "मैं सेना में जाना चाहता हूं. इसलिए मुक्केबाजी सीख रहा हूं.” वहीं प्रशिक्षण लेने वाली थोंग कुंजरानी देवी कहती है, "मैरी कॉम और सरिता देवी की तरह वह भी बॉक्सर बन कर देश और राज्य का नाम रोशन करना चाहती है.”
बैडमिंटन के राज्य चैंपियन विद्यासागर सलाम कहते हैं, "हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है. खेल से हमारे लिए रोजगार की राह खुलती है और भविष्य सुरक्षित होता है.” एक महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बेलिंदा कहती है, "मेरा सपना ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करना है.”
बॉक्सिंग की पूर्व राष्ट्रीय व विश्व चैंपियन सरिता देवी कहती हैं, "छोटा और सुदूर राज्य होने के बावजूद लोगों में खेलो के प्रति काफी दिलचस्पी है. हम नई प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देकर तैयार करते हैं. राज्य में प्रशिक्षण औऱ आधारभूत ढांचे की भारी कमी है.”
सरिता देवी अपने सहयोगियों के साथ दुर्गम पहाड़ी इलाकों में बसे गांवों में जाकर लोगों को समझाती हैं कि खेलों से करियर बन सकता है. उसके बाद छोटी उम्र में ही प्रतिभाओं को चुन कर अकादमी में प्रशिक्षण दिया जाता है. सरिता देवी कहती हैं कि "सरकार से सहायता मिले तो और बेहतर काम हो सकता है. मैंने बीस साल देश का प्रतिनिधित्व किया. अब इन बच्चों को प्रशिक्षण दे रही हूं ताकि यह आगे चल कर राज्य व देश का नाम रोशन कर सकें." उनका कहना है कि युवाओं में खेलों के प्रति दिलचस्पी बढ़ा कर उनको नशीली वस्तुओं के सेवन और अपराधों से भी बचाया जा सकता है.
वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार शर्मा कहते हैं, "मणिपुर में खेलों की परंपरा बहुत पुरानी है. इसलिए इसे देश में खेलों का पावरहाउस कहा जाता है. राज्य में विभिन्न त्योहारों के मौकों पर घरेलू प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं. उनमें हर उम्र के लोग हिस्सा लेते हैं. यही वजह है कि तमाम दिक्कतों के बावजूद राज्य से दर्जनों चैंपियन निकलते रहे हैं.”
रेसलिंग फेडरेशन आफ इंडिया के उपाध्यक्ष और राज्य इकाई के सचिव एन फोनी कहते हैं, "राज्य में शुरू से ही खेलों की संस्कृति गहरे रची-बसी है. स्पोर्ट्स अथारिटी आफ इंडिया और राज्य सरकार भी प्रशिक्षण के जरिए खेलों को बढ़ावा देने का काम कर रही है. इससे नौकरियां भी मिल जाती हैं.” उनके मुताबिक, एक चैंपियन को तैयार करने में 15 से 20 साल का समय लगता है. लेकिन पदक जीतने के बाद वह नौकरी पा कर दूसरे राज्य में चला जाता है. उसके बाद फिर वही कवायद दोहरानी पड़ती है. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उदयपुर में कांग्रेस का चिंतन-शिविर आयोजित किया जा रहा है। सबसे आश्चर्य तो मुझे यह जानकर हुआ कि इस जमावड़े का नाम चिंतन-शिविर रखा गया है। हमारे नेता और चिंतन! इन दो शब्दों की यह जोड़ी तो बिल्कुल बेमेल है। भला, नेताओं का चिंतन से क्या लेना-देना? छोटी-मोटी प्रांतीय पार्टियों की बात जाने दें, देश की अखिल भारतीय पार्टियों के नेताओं में चिंतनशील नेता कितने है? क्या उन्होंने गांधी, नेहरु, जयप्रकाश, लोहिया, नरेंद्रदेव की तरह कभी कोई ग्रंथ लिखा है?
अरे लिखना तो दूर, वे बताएंगे कि ऐसे चिंतनशील ग्रंथों को उन्होंने पढ़ा तक नहीं है। अरे भाई, वे इन किताबों में माथा फोड़ें या अपनी राजनीति करें? उन्हें नोट और वोट उधेडऩे से फुरसत मिले तो वे चिंतन करें। वे चिंतन शिविर नहीं, चिंता-शिविर आयोजित कर रहे हैं। उन्हें चिंता है कि उनके नोट और वोट खिसकते जा रहे हैं। इस चिंता को खत्म करना ही इस शिविर का लक्ष्य है।
ऐसा नहीं है कि यह चिंतन-शिविर पहली बार हो रहा है। इसके पहले भी चिंतन-शिविर हो चुके हैं। उनकी चिंता भी यही रही कि नोट और वोट का झांझ कैसे बजता रहे? किसी भी राजनीतिक दल की ताकत बनती है, दो तत्वों से! उसके पास नीति और नेतृत्व होना चाहिए। कांग्रेस के पास इन दोनों का अभाव है। नेतृत्व का महत्व हर देश की राजनीति में बहुत ज्यादा होता है। भारत-जैसे देश में तो इसका महत्व सबसे ज्यादा है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा मूर्तिपूजक देश है। मूर्ति चाहे बेजान पत्थर की ही हो लेकिन भक्तों को सम्मोहित करने के लिए वह काफी होती है।
आज कांग्रेस में ऐसी कोई मूर्ति नहीं है। अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और कमलनाथ ने अपने-अपने प्रांत में अच्छा काम कर दिखाया है लेकिन क्या कांग्रेसी इनमें से किसी को भी अपना अध्यक्ष बना सकते हैं ? कांग्रेस की देखादेखी हमारी सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। उक्त सुयोग्य नेताओं की हैसियत भी सिर्फ मेनेजरों से ज्यादा नहीं है। यदि कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय और प्रांतीय अध्यक्षों और पदाधिकारियों का चुनाव गुप्त मतदान से हो तो इस महान पार्टी को खत्म होने से बचाया जा सकता है। लेकिन सिर्फ कोई नया नेता क्या क्या कर लेगा?
जब तक उसके पास कोई नई वैकल्पिक नीति, कोई सामायिक विचारधारा और कोई प्रभावी रणनीति नहीं होगी तो वह भी मरे सांप को ही पीटता रहेगा। वह सिर्फ सरकार पर छींटाकशी करता रहेगा, जिस पर कोई ध्यान नहीं देगा। आजकल कांग्रेस, जो मां-बेटा पार्टी बनी हुई है, वह यही कर रही है। कांग्रेस के नेता अगर चिंतनशील होते तो देश में शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार को लेकर कोई क्रांतिकारी योजना पेश करते और करोड़ों लोगों को अपने साथ जोड़ लेते लेकिन हमारी सभी पार्टियां चिंतनहीन हो चुकी है।
चुनाव जीतने के लिए वे भाड़े के रणनीतिकारों की शरण में चली जाती हैं। सत्तारूढ़ होने पर उनके नेता अपने नौकरशाहों की नौकरी करते रहते हैं। उनके इशारों पर नाचते हैं और सत्तामुक्त होने पर उन्हें बस एक ही चिंता सताती रहती है कि उन्हें येन, केन, प्रकारेण कैसे भी फिर से सत्ता मिल जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
- संजय श्रमण
जिद्दु कृष्णमूर्ति का असली चमत्कार भारतीयों को भारतीयों की भाषा में समझाया नहीं गया है. उनके गहरे मित्र और समर्थकों ने भी अभी तक बहुत ही ईमानदारी से कृष्णमूर्ति का प्रचार करने की कोशिश की है. उन्होंने भारतीय मन की कमजोरियों का लाभ उठाकर कृष्णमूर्ति का प्रचार नहीं किया है. इसीलिये कृष्णमूर्ति को लोग न तो जानते हैं न समझते हैं.
लेकिन ओशो रजनीश और जग्गी वासुदेव या रविशंकर जैसे लोगों ने भारतीय मन की कमजोरियों का फायदा उठाते हुए खुद को बहुत ही व्यवस्थित ढंग से प्रचारित किया है. इसीलिये न सिर्फ लोग उन्हें जानते हैं बल्कि उनकी पूजा भी करते हैं. इन लोगों ने भारतीयों का कितना हित या अहित किया है ये बात अलग है, इसका हिसाब लगाना हालाँकि बहुत आसान है.
इनके शिष्यों की जिन्दगी में थोड़ा सा गहराई से झांकिए सब पता चल जाता है. इनके अंधविश्वास, भाग्यवाद और गुरु पर हद दर्जे की निर्भरता (जिसे ये गुरुभक्ति कहते हैं) से साफ़ पता चलता है कि इन गुरुओं ने नुक्सान ही अधिक पहुँचाया है और अभी भी पहुंचा रहे हैं.
आइये कृष्णमूर्ति को भारतीय मन के ढंग से समझते हैं. हालाँकि यह ढंग बिलकुल ही गलत है लेकिन इसके प्रति चेतावनी जाहिर करते हुए मैं ये पोस्ट लिख रहा हूँ. इसका उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि कृष्णमूर्ति को न जानने वाले लोगों को ये पता चल सके कि कृष्णमूर्ति सामान्य बाबाओं से किस तरह भिन्न हैं. कितने ईमानदार, बोल्ड और कितने खालिस जमीनी इंसान हैं. यह बताना इसलिए भी जरूरी है कि भारतीय मन चमत्कार में ही भरोसा करता है.
ईमानदारी यहाँ चमत्कार नहीं है इंसानियत यहाँ चमत्कार नहीं है. जब तक ये न बताया जाए कि किसी ने करोड़ों रुपयों को लात मार दी तब तक लोग त्याग को भी नहीं समझते.
अगर ये कहें कि फलाने चंद गरीब पैदा हुए और गरीब ही मर गए लेकिन बड़े अच्छे कवि थे तो लोग उन्हें नहीं पूछते. लेकिन ये कहें कि ढिकाने चंद राजमहल में पैदा हुए थे फिर अरबों खरबों की संपत्ति को लात मारकर बाबाजी बन गए तो इस आदमी को भारतीय लोग एकदम से पूजने लगते हैं. उसकी शिक्षा क्या है या वो क्या कह के गए हैं इससे उन्हें कोई भी मतलब नहीं, वे बस उसकी मूर्ति और मन्दिर बनाकर ढोल पीटने लग जायेंगे.
इसीलिये राम कृष्ण सहित भारतीयों के सभी चमत्कारी अवतार या तो राजा हैं, या किसी अन्य अतिभौतिक या अतिप्राकृतिक अर्थ में चमत्कारी हैं. यहाँ तक कि स्वयं बुद्ध भी इसी अर्थ में लोगों को अधिक महिमावान नजर आते हैं. इसीलिये बुद्ध को भी बहुत पारम्परिक अर्थ में ही समझा जाता है.
यह बात बुद्ध के लिए समस्या बन गयी है. और इसीलिये कबीर,रविदास और नानक सहित गोरख को भी भारतीय भीड़ सम्मान नहीं दे पाती.
इस दृष्टि से कृष्णमूर्ति के चमत्कार को उजागर करना होगा ताकि लोग समझ सकें कि वे चमत्कारी बाबाओं और त्यागियों से गुणात्मक रूप से भिन्न हैं, न सिर्फ भिन्न हैं बल्कि उनसे बहुत ज्यादा सुलझे हुए और बहुत ज्यादा स्पष्टवादी और उपयोगी हैं. तो सवाल उठता है कि कृष्णमूर्ति के पास क्या था जिसे उन्होंने लात मार दी? क्या त्याग उन्होंने किया? इसे समझें की कोशिश कीजिये.
थीयोसोफिकल सोसाइटी ने बचपन में ही कृष्णमूर्ति को गोद ले लिया था और उन्हें पाल पोसकर बड़ा किया. गुलाम भारत के दौर में उनकी शिक्षा इंग्लैण्ड में करवाई गई और उन्हें विश्व गुरु की भूमिका के लिए चुना गया. एनी बेसेंट और बिशप लीडबीटर, जो थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख थे, उन्होंने इस बालक को चुना था. उनकी मान्यता ये थी कि इस बालक में गौतम बुद्ध की आत्मा का प्रवेश कराया जा सकता है और बुद्ध को भगवान मैत्रेय के रूप में कृष्णमूर्ति के शरीर के जरिये फिर से दुनिया के सामने लाया जा सकता है.
इस सोच के साथ कृष्णमूर्ति की शिक्षा शुरू की गयी. उनके नाम से कुछ किताबें भी लिखी गयी (एट द फीट ऑफ़ मास्टर) उनके नाम से एनी बेसेंट कई लेख लिखती रहीं. और उन्हें महान साबित करती रहीं. कृष्णमूर्ति के जवान होते होते उनके नाम पर करोड़ों की संपत्ति महल किले और जायदाद इकट्ठी हो गयी. उनके शरीर में बुद्ध के प्रवेश की घोषणा के बहुत पहले से ही उन्हें बुद्ध मानकर पूजा जाने लगा.
गुलाम भारत में जहां अंग्रेजों से मित्रता होना अपने आप में सौभाग्य माना जाता था वहां नौजवान कृष्णमूर्ति को अंग्रेज और सारे यूरोपियन पूजने लगे थे, वे लोग उनके प्रति इतने समर्पित हो गये थे जिसका कोई हिसाब नहीं. दुनिया के बड़े राजनेता, दार्शनिक,धन्नासेठ, वैज्ञानिक, साहित्यकार इत्यादि उनकी एक झलक पाने को मरे जाते थे.
लेकिन कृष्णमूर्ति को इस सबसे नफरत थी. जिस दिन यह तय था कि कृष्णमूर्ति बुद्ध बनकर बोलना शुरू करेंगे उस दिन कृष्णमूर्ति से सारी बिसात उलट डाली और कहा कि मैं कोई बुद्ध या अवतार या गुरु इत्यादि नहीं हूँ. मैंने अपना समाधान अपनी मेहनत से पाया है और आप भी अपनी समझ और मेहनत से अपना समाधान हासिल कीजिये.
आप कल्पना कीजिये, जिस नौजवान को लाखों यूरोपीय, अमेरिकी और भारतीय लोग भगवान समझने लगे थे वह अगर किसी पोंगा पंडित की तरह अवतार या गुरु होने का नाटक करने लगता तो उसके लिए कितना आसान न होता? कितनी आसानी से वह दुनिया पर राज कर सकता था? कितनी आसानी से वह सब कुछ हासिल कर सकता था.
लेकिन कृष्णमूर्ति ने इस सबको इकट्ठा नकार दिया. इस नौजवान ने अपने नाम की गयी अरबों की संपत्ति को ठुकरा दिया. अपने नाम पर बनाई गयी संस्था (स्टार इन द ईस्ट) को भंग कर दिया और सबको सीधे सीधे ये कहा कि सत्य एक पथहीन भूमि है उस पर कोई किसी को साथ नहीं ले जा सकता उस पर सबको अकेले ही चलना है और सारे धर्म, भगवान और मसीहा सब इंसानियत के दुश्मन हैं.
भारतीय धर्मप्रेमी तो ठीक हैं, वैज्ञानिक बुद्धि के यूरोपीय भी अभी तक इस सच्चाई को अपने गले नहीं उतार सके हैं. अभी भी गिने चुने लोग ही कृष्णमूर्ति को पढ़ते या समझते है. बाकी सब लोग किसी न किसी दाढ़ी वाले या बाबा की गुलामी कर रहे हैं. कृष्णमूर्ति इतने ईमानदार और गैर समझौतावादी हैं कि वे एक अर्थ में भारतीय लगते ही नहीं हैं. और आध्यात्मिक तो बिलकुल ही नहीं लगते.
यही उनका चमत्कार है – अगर कोई समझ सके तो.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंद्र राजपक्ष को मजबूरन इस्तीफा देना पड़ गया। उनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्ष अभी भी श्रीलंका के राष्ट्रपति पद पर डटे हुए हैं। श्रीलंका में आम-जनता के बीच इतना भयंकर असंतोष फैल गया है कि इस राजपक्ष सरकार को कई बार कर्फ्यू लगाना पड़ गया है। इस राजपक्ष सरकार के मंत्रिमंडल में राजपक्ष-परिवार के लगभग आधा दर्जन सदस्य कुर्सी पर जमे हुए थे। जब आम जनता का गुस्सा बेकाबू हो गया तो मंत्रिमंडल को भंग कर दिया गया। लोगों के दिलों में यह प्रभाव जमाया गया कि राजपक्ष परिवार को कोई पद-लिप्सा नहीं है।
राष्ट्रपति गोटबाया ने सारे विपक्षी दलों से निवेदन किया कि वे आएं और मिलकर नई संयुक्त सरकार बनाएं लेकिन विपक्ष के नेता सजित प्रेमदास ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया। अब भी राष्ट्रपति का कहना है कि विपक्ष अपना प्रधानमंत्री खुद चुन ले और श्रीलंका को इस भयंकर संकट से बचाने के लिए मिली-जुली सरकार बनाए लेकिन विपक्ष के नेता इस प्रस्ताव पर अमल के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। वे
सारे श्रीलंकाइयों से एक ही नारा लगवा रहे हैं- ‘गोटा गो’ याने राष्ट्रपति भी इस्तीफा दें। श्रीलंका के विपक्षी नेताओं की यह मांग ऊपरी तौर पर स्वाभाविक लगती है लेकिन समझ नहीं आता कि नए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की नियुक्ति क्या चुटकी बजाते ही हो जाएगी? उनका चुनाव होते-होते श्रीलंका की हालत और भी बदतर हो जाएगी। नये राष्ट्रपति और नई सरकार खाली हुए राजकोश को तुरंत कैसे भर सकेगी?
श्रीलंका का विपक्ष भी एकजुट नहीं है। स्पष्ट बहुमत के अभाव में वह सरकार कैसे बनाएगा? वह सर्वशक्ति संपन्न राष्ट्रपति को कैसे बर्दाश्त करेगा? यदि श्रीलंका का विपक्ष देशभक्त है तो उसका पहला लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह मंहगाई, बेरोजगारी और अराजकता पर काबू करे। गोटबाया सरकार जैसी भी है, फिलहाल उसके साथ सहयोग करके देश को चौपट होने से बचाए। भारत, चीन और अमेरिका जैसे देशों से प्रचुर सहायता का अनुरोध करे और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष से भी आपात् राशि की मांग करे।
अभी तो लोग दंगों और हमलों से मर रहे हैं लेकिन जब वे भुखमरी और बेरोजगारी से मरेंगे तो वे किसी भी नेता को नहीं बख्शेंगे, वह चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का! श्रीलंका की वर्तमान दुर्दशा से पड़ौसी देशों को महत्वपूर्ण सबक भी मिल रहा है। तमिल आतंकवाद को खत्म करने वाले महानायक महिंद गोटबाया की प्रतिष्ठा अचानक यदि पैंदे में बैठ सकती है तो पड़ौसी देशों के जो नेता आज लोकप्रियता की लहर पर सवार हैं, उनकी हालत तो और भी बुरी हो सकती है। गोटबाया बंधुओं ने श्रीलंका सरकार को अपनी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना लिया था। उसमें भाई-भतीजे मिलकर मनचाहे फैसले कर लेते थे। श्रीलंका के ज्यादातर पड़ौसी देशों का भी यही हाल है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में सरकारी अस्पतालों को देखकर हमारे केंद्र और राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों को जरा भी शर्म क्यों नहीं आती? ऐसा नहीं है कि उन्हें इन अस्पतालों की हालत का पता नहीं है। उन्हें अगर पता नहीं है तो वे ‘राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ की ताजा रपट जरा देख लें। उसके मुताबिक बिहार के 80 प्रतिशत मरीज अपने इलाज के लिए गैर-सरकारी अस्पतालों में जाते हैं। उन्हें पता है कि इन निजी अस्पतालों में जबर्दस्त ठगी होती है लेकिन जान बचाने की खातिर वे उसे बर्दाश्त करते हैं।
वे पैसे उधार लेते हैं, दोस्तों और रिश्तेदार के कृपा-पात्र बनते हैं और मजबूरी में मंहगा इलाज करवाते हैं। ये लोग कौन हैं? निजी अस्पतालों में क्या कोई मजदूर या किसान जाने की हिम्मत कर सकता है? क्या तीसरे-चौथे दर्जे का कोई कर्मचारी अपने इलाज पर हजारों-लाखों रु. खर्च कर सकता है? इन अस्पतालों में इलाज करवाने लोग या तो मालदार होते हैं या मध्यम वर्ग के लोग होते हैं। ये ही ज्यादा बीमार पड़ते हैं। जो मेहनतकश लोग हैं, वे बीमार कम पड़ते हैं लेकिन जब पड़ते हैं तो उनके इलाज का ठीक-ठाक इंतजाम किसी भी राज्य में नहीं होता।
उत्तरप्रदेश में भी 70 प्रतिशत मरीज निजी अस्पतालों में जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में भयंकर भीड़ होती है। दिल्ली के प्रसिद्ध मेडिकल इंस्टीटयूट में अगर आप जाएं तो आपको लगेगा कि किसी दमघोंटू हॉल में मेले-ठेले की तरह आप धक्के खाने को आ गए हैं। देश के कस्बों और गांवों के लोगों को लंबी-लंबी यात्रा करनी पड़ती है, सरकारी अस्पताल खोजने के लिए ! करोड़ों लोग तो ऐसे हैं, जिन्हें अपने गंभीर रोगों के बारे में बरसों कुछ जानकारी ही नहीं होती, क्योंकि भारत में जांच और चिकित्सा बहुत मंहगी है।
होना तो यह चाहिए कि देश में चिकित्सा बिल्कुल मुफ्त हो। सरकार ने अभी पांच लाख रु. के स्वास्थ्य बीमे की जो व्यवस्था बनाई है, उससे लोगों को कुछ राहत जरुर मिलेगी लेकिन इससे क्या सरकारी अस्पतालों की दशा सुधरेगी? सरकारी अस्पतालों की दशा सुधारने का पक्का उपाय मैंने कुछ वर्ष पहले एक लेख में सुझाया था। उस सुझाव पर इलाहाबाद न्यायालय ने मुहर लगा दी थी लेकिन उत्तरप्रदेश की अखिलेश या योगी-सरकार ने उस पर अभी तक अमल नहीं किया है।
सुझाव यह था कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक और सांसद से लेकर पार्षद तक सभी के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वे अपना इलाज सरकारी अस्पतालों में ही करवाएं। यदि ऐसा नियम बन जाए तो देखिए कि सरकारी अस्पतालों की दशा रातों-रात ठीक हो जाती है या नहीं? इसके अलावा यदि आयुर्वेद, होमियोपेथी, यूनानी और प्राकृतिक चिकित्सा को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाए और उनमें अनुसंधान बढ़ाया जाए तो भारत की चिकित्सा पद्धति दुनिया की सबसे सस्ती, सुगम और सुघड़ चिकित्सा पद्धति बन सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सरिता माली
मेरा अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में चयन हुआ है यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया और यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंग्टन मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया को वरीयता दी है। मुझे इस यूनिवर्सिटी ने मेरी मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फेलोशिप में से एक ‘चांसलर फेलोशिप’ दी है।
मुंबई की झोपड़पट्टी, जेएनयू , कैलिफोर्निया, चांसलर फेलोशिप, अमेरिका और हिंदी साहित्य... कुछ सफर के अंत में हम भावुक हो उठते हैं क्योंकि ये ऐसा सफर है जहाँ मंजिल की चाह से अधिक उसके साथ की चाह अधिक सुकून देती हैं। हो सकता है आपको यह कहानी अविश्वसनीय लगे लेकिन यह मेरी कहानी है मेरी अपनी कहानी। मैं जिस वंचित समाज से आई हूँ वो भारत के करोड़ों लोगों की नियति है लेकिन आज यह एक सफल कहानी इसलिए बन पाई है क्योंकि मैं यहाँ तक पहुंची हूँ। जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं तो उम्मीद की वह मध्यम रौशनी जो दूर से रह-रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है वही आपका सहारा बनती है। मैं भी उसी टिमटिमाती हुयी शिक्षा रूपी रौशनी के पीछे चल पड़ी। मैं ऐसे समाज में पैदा हुई जहाँ भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था।
हमें कीड़े-मकोड़ों के अतिरिक्त कुछ नहीं समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद थे मेरे माता-पिता और मेरी पढ़ाई। मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं। मैं आज भी जब दिल्ली के सिग्नल्स पर गरीब बच्चों को गाड़ी के पीछे भागते हुए कुछ बेचते हुए देखती हूँ तो मुझे मेरा बचपन याद आता और मन में यह सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी पढ़ पाएंगे? इनका आने वाला भविष्य कैसा होगा? जब हम सब भाई-बहन त्यौहारों पर पापा के साथ सडक़ के किनारे बैठकर फूल बेचते थे तब हम भी गाड़ी वालों के पीछे ऐसे ही फूल लेकर दौड़ते थे।
पापा उस समय हमें समझाते थे कि हमारी पढ़ाई ही हमें इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है। अगर हम नही पढेंग़े तो हमारा पूरा जीवन खुद को जिन्दा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जायेगा। हम इस देश और समाज को कुछ नहीं दे पायेंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे। मैं यह सब नही कहना चाहती हूँ लेकिन मैं यह भी नही चाहती कि सडक़ किनारे फूल बेचते किसी बच्चे की उम्मीद टूटे उसका हौसला खत्म हो। इसी भूख अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए 2014 में मैं जेएनयू हिंदी साहित्य में मास्टर्स करने आई। सही पढ़ा आपने ‘जेएनयू’ वही जेएनयू जिसे कई लोग बंद करने की मांग करते हैं, जिसे आतंकवादी, देशद्रोही, देशविरोधी पता नही क्या क्या कहतें हैं लेकिन जब मैं इन शब्दों को सुनती हूँ तो भीतर एक उम्मीद टूटती है। कुछ ऐसी जिंदगियाँ यहाँ आकर बदल सकती हैं और बाहर जाकर अपने समाज को कुछ दे सकती हैं यह सुनने के बाद मैं उनको खत्म होते हुए देखती हूँ। यहाँ के शानदार अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति ने मुझे इस देश को सही अर्थों में समझने और मेरे अपने समाज को देखने की नई दृष्टि दी। जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया। यहाँ की प्रगतिशील छात्र राजनीति जो न केवल किसान-मजदूर, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, गरीबों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के हक के लिए आवाज उठाती है बल्कि इसके साथ-साथ उनके लिए अहिंसक प्रतिरोध करना का साहस भी देती है।
जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के खिलाफ बोल सके। मैं बेहद उत्साहित हूँ कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौका मुझे मिला है। 2014 में 20 साल की उम्र में मै छ्वहृ मास्टर्स करने आई थी और अब यहाँ से MA, M.PhiL की डिग्री लेकर इस वर्ष PhD जमा करने के बाद मुझे अमेरिका में दोबारा PhD करने और वहां पढ़ाने का मौका मिला है। पढ़ाई को लेकर हमेशा मेरे भीतर एक जूनून रहा है। 22 साल की उम्र में मैंने शोध की दुनिया में कदम रखा था। खुश हूँ कि यह सफर आगे 7 वर्षों के लिए अनवरत जारी रहेगा।