विचार / लेख
-ओम थानवी
सुरेखा (वर्मा) सीकरी नहीं रहीं। अखबार में पहले पन्ने पर खबर देखकर अच्छा लगा। लेकिन मायूसी भी हुई कि उन्हें महज फिल्म-टीवी की अभिनेत्री के रूप में समझा गया। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का जिक्र हुआ। संगीत नाटक अकादमी सम्मान का नहीं। न किसी अभिनीत नाटक का।
यह ठीक है कि परदे पर भी उन्होंने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी। बालिका वधू ने अन्य अभिनेत्रियों के लिए एक लकीर खींच दी। मगर सुरेखाजी मुंबई बहुत बाद में गईं। रंगकर्म तो उन्होंने आधी शती से भी पहले अपना लिया था।
अलीगढ़ से बीए कर वे साठ के दशक में दिल्ली आईं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में इब्राहिम अलकाजी की छाया में अभिनय की दीक्षा ली। सुधा (शर्मा) शिवपुरी ने संस्थान छोड़ा तब उत्तरा बावकर और सुरेखा सीकरी आग हुईं। हालाँकि (हेमा सिंह बताती हैं) सुरेखाजी को ‘स्कूल’ में सीमित अवसर मिले।
1968 में वे एनएसडी से ‘पासआउट’ हुईं और स्वतंत्र मंच पर सक्रिय हो गईं। 1972 में रमेश बक्षी के नाटक देवयानी का कहना है (निर्देशक राजेंद्र गुप्ता) से उन्हें विशेष पहचान मिली। आइफैक्स में हुआ था वह मंचन। अलकाजी देखने आए। अपनी अभिनेत्री को रंगमंडल (एनएसडी रेपर्टरी कंपनी) लिवा लाए, जहां सुरेखाजी को अपार शोहरत मिली। 1987 तक वे वहीं रहीं। सिनेमा-टीवी के बुलावे वहीं रहते आए।
रेपर्टरी में उनकी प्रतिभा का जलवा बुलंदी पर था। मैंने सबसे पहले उन्हें वहीं रिहर्सल करते देखा। फिर कुछ नाटक भी देखे। तुगलक वागीश भाई की मेहरबानी से मुश्किल से मिले ‘टिकट’ पर देख सका। (उन दिनों मैं भी रंगकर्म से गहरे जुड़ा था)। रेपर्टरी में लुक बैक इन ऐंगर और आधे-अधूरे से सुरेखाजी की ख़ूब धाक जमी। फिर मुख्यमंत्री, संध्याछाया, जसमा ओडन, तुगलक, आठवाँ सर्ग, बीवियों का मदरसा, महाभोज, कभी न छोड़ें खेत, चेरी का बगीचा ... सुरेखा सीकरी आगे बढ़ती चली गईं।
उन्होंने कुछ नाटकों का अनुवाद भी किया था। इनमें तीन टके का स्वाँग (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट का थ्री पैनी ओपेरा) तो जर्मनी के प्रसिद्ध रंगकर्मी फ्रिट्ज बेनेविट्ज ने दिल्ली में निर्देशित किया।
आज सुबह एनएसडी के पूर्व निदेशक देवेंद्रराज अंकुर से लम्बी बात हुई। वे और सुरेखाजी स्कूल के दिनों के साथी रहे। रंगमंडल में निर्मल वर्मा की कहानियों पर आधारित तीन एकांत अंकुरजी ने ही निर्देशित किया था; वीकेंड में सुरेखाजी का अभिनय था। अंकुरजी भी इससे हैरान लगे कि एक सिद्ध रंगमंच अभिनेत्री के बुनियादी योगदान को कितना जल्दी भुला दिया जा रहा है।
मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने सुरेखाजी को मंच पर अभिनय करते, चरित्रों को जीते हुए करीब से देखा। काश मीडिया को रंगमंच की भी कुछ खबर रहा करे।