राजनांदगांव
राजनांदगांव, 11 जनवरी। जैन मुनि सम्यक रतन सागर जी ने कहा कि संसार में बिना कांटे के फूल मिल सकते हैं, बिना कंकड़ वाला मार्ग मिल सकता है, किंतु यह कदापि नहीं हो सकता कि बिना दुख के सुख मिल जाए। संसार का एक भी सुख ऐसा नहीं है जो बिना दुख के मिल जाए।
मुनिश्री ने कहा कि जिसमें समर्पण का भाव आ जाता है उसे कभी अभाव नहीं खटकता और यदि अभाव खटकता है तो उसे गुणों का अभाव खटकना चाहिए। मुनिश्री ने कहा कि सागर के पानी से प्यास नहीं बुझ सकती। यह संसार भी सागर की तरह है । यहां कभी तृप्ति नहीं मिल सकती, बल्कि उल्टे बढ़ती ही जाती है। इच्छाएं हमेशा अनंत होती है। उन्होंने कहा कि आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो जाती है, किंतु इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हो सकती।
उन्होंने कहा कि शरीर रेखा जैसी है और मन वर्तुल जैसा। रेखा का अंत आ जाता है, किंतु वर्तुल का अंत नहीं आता। उन्होंने कहा कि जितना पात्र आपके पास है उतना ही पानी आपको मिल सकता है। इसी तरह पुण्य के हिसाब से इच्छाओं की पूर्ति होती है। पुण्य के आधार पर सब कुछ मिलने के बाद भी हम उसका मर्यादित तरीके से ही भोग कर सकते हैं, जिस तरह हमारे पास भले ही 2 किलो सोने के बहुत सारे जेवर हो, किंतु हम निश्चित जेवर ही पहन सकते हैं।
श्रमण संघ के उपाध्याय प्रवीण मुनि ने कहा कि श्रद्धेय से श्रद्धा का जन्म नहीं होता, बल्कि श्रद्धा से श्रद्धेय का जन्म होता है। उन्होंने कहा कि जमीन के रास्ते संसार की ओर ले जाते हैं और जमीर के रास्ते श्रद्धा की ओर ले जाते हैं। उन्होंने कहा कि संयम का जन्म श्रद्धा से हो जाए तो सिद्धि मिलती है। संयम कठिन है किंतु श्रद्धा उसके रास्ते को सुगम बनाती है।