विचार / लेख

मन में स्नेह भर दे, वही सच्ची शिक्षा
16-Oct-2020 2:03 PM
मन में स्नेह भर दे, वही सच्ची शिक्षा

-चैतन्य नागर 

जब हम सुनते हैं कि किसी कम शिक्षित इंसान ने घरेलू हिंसा की, अपनी पत्नी या पति, या सहकर्मियों के साथ बदसलूकी की, राह चलते लोगों के साथ दुव्र्यवहार किया तो हमें उतना आश्चर्य नहीं होता, पर जब यही काम कोई डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या बड़ा अधिकारी करता है तो लोगों को बड़ा ताज्जुब होता है। ऐसा क्यों?

हमारी शिक्षा व्यक्ति का एकतरफा विकास करने पर ही जोर देती है। व्यक्ति का समेकित, सर्वांगीण, सम्पूर्ण विकास इसके उद्देश्यों में शामिल नहीं रहा है। इनका उल्लेख स्कूलों के विज्ञापनों और पत्रिकाओं में जरूर होता है, पर जमीनी हकीकत एक अलग कहानी कहती है। जब शिक्षा समेकित विकास की बात भी करती है, तो वह कई क्षेत्रों में प्रतिभा विकसित करने की बात करती है। वह छात्र को कई अलग-अलग गतिविधियों में उलझा कर रखने को ही उनका समेकित विकास मान लेती है। वह छात्र के और अधिक करने, कुछ और अधिक बनने पर जोर देती है। हमारी शिक्षा बौद्धिक उपलब्धि या ‘इंटेलीजेंट कोशेंट’ (आईक्यू ) पर अधिक जोर देती है जबकि बुद्धि या विचारणा समूचे मस्तिष्क के एक बहुत ही सीमित क्षेत्र में होने वाली घटना है।

सिर्फ विचार और बुद्धि के संवर्धन पर जोर देने वाली शिक्षा, पुस्तकों में उपलब्ध लिखित शब्द को ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत मानने वाली शिक्षा ऐन्द्रिक बोध को कमजोर और भोथरा कर देती है। यह एक बहुत बड़ा कारण है कि हमारे सामने एक असंवेदनशील पीढ़ी निर्मित हुए जा रही है और हम इसके कारणों की तह तक नहीं जा पा रहे। जहाँ पुस्तक से मिलने वाला शाब्दिक ज्ञान कीमती हो जाए, वहां उसी अनुपात में संवेदनशीलता घटेगी। संवेदनशीलता का संबंध है संवेदनाओं, इन्द्रियों की सक्रियता से। जब विचार और बौद्धिकता पर अधिक जोर दिया जाएगा, वहां इन्द्रियों की क्षमता घटनी ही है।

समेकित शिक्षा को बुद्धि के साथ भावनाओं और इन्द्रियों की तीव्रता को विकसित करने और उसे कायम रखने की जिम्मेदारी भी लेनी होगी। ‘आईक्यू’ के साथ एक भावनात्मक स्तर भी होता है जिसे ‘इमोशनल कोशेंट’ या ‘ईक्यू’ कहते हैं। क्या हम सिर्फ बुद्धि के संवर्धन पर जोर दे रहे हैं? क्या बच्चों के भावनात्मक विकास, उनके आपसी संबंधों, घरेलू रिश्तों वगैरह को पूरी तरह अनदेखा नहीं कर रहे? विचार अक्सर पूरी तरह बौद्धिक हो जाते हैं, या पूरी तरह भावुक और इस तरह का एकतरफा जीवन हमारे लिए कई बाधाएं खड़ी करता है।

इससे जुड़ा दूसरा मुद्दा है गलत मूल्यों के सम्प्रेषण का। एक अच्छा पेशा या नौकरी इंसान की मूलभूत आवश्यकताओं के क्षेत्र में आते हैं। बुनियादी सुरक्षा देह, मन और मस्तिष्क के लिए जरुरी है और इसके बगैर अस्तित्व ही संभव नहीं, पर यदि कुछ लोग बहुत अधिक सफल होना चाहते हैं और उनका बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखते जो तथाकथित रूप से ‘असफल’ हैं तो इसका मतलब हम लगातार एक रुग्ण समाज की ओर बढ़ रहे हैं, प्रतिस्पर्धात्मक मूल्यों को पोषित कर रहे हैं। एक बहुत ही शिक्षित और संवेदनशील पश्चिमी महिला के साथ हाल ही में हुई बातचीत याद आती है। उसने कहा कि मैं जीवन में बहुत सफल हो सकती हूँ, धन और शोहरत कमा सकती हूँ, पर मुझे अपनी बहन से बहुत प्यार है और मेरी बहन ज्यादा प्रतिभाशाली नहीं, न ही सामान्य अर्थ में ज्यादा शिक्षित है; मैं सोचती हूँ कि मैं सफल हो जाऊं तो उसे बहुत दु:ख होगा!

ऐसी उदात्त भावना सबमें होगी यह अपेक्षा करना अवास्तविक होगा पर यह तो सच है कि जब हम सफलता के पीछे भागते हैं तो उन लोगों का ख्याल नहीं करते जो अक्सर इस व्यवस्था के कारण ही असफल रह जाते हैं। वे बेहतर इंसान हैं, पर उनमें प्रतिभा नहीं है, या जो प्रतिभा है, वह समाज के मूल्यों के हिसाब से ज्यादा महत्व नहीं रखती। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या शिक्षा का उद्देश्य समाज के मूल्यों के हिसाब से सिर्फ सफल होना है? क्यों हम समझ और शालीनता, स्नेह और करुणा की तुलना में सफलता को ज्यादा महत्व देते हैं?  

जाने-अनजाने में हमारी शिक्षा व्यवस्था सफलता की उपासना पर जोर दे रही है। कोई सफल होने के साथ धनी हो तो उसे बहुत ऊंचा दर्जा दिया जाता है। स्कूलों के समारोहों में कलेक्टर या आयुक्त को बुलाया जाता है; कोई स्टार क्रिकेटर मिल सके, फिर तो क्या बात है! इससे बच्चों को यह साफ संदेश मिलता है कि उन्हें बड़े होकर वैसा ही बनना है। ऐसे समारोहों में किसी स्कूल के बहुत ही ईमानदार या समर्पित शिक्षक को क्यों नहीं बुलाया जा सकता? या किसी बच्चे से ही इन कार्यक्रमों का उद्घाटन वगैरह क्यों नहीं करवाया जा सकता?

एक भूखे-प्यासे, वंचित समाज में सफलता की पूजा आपत्तिजनक इसलिए भी है क्योंकि इसे हासिल करने के अवसर सबके पास नहीं हैं। जिन परिवारों में पहले से ही लोग उच्च पदों पर हैं, उनके बच्चों के लिए बेहतर अवसर होते हैं और वे दूसरे बच्चों की तुलना में ज्यादा आगे निकलने की संभावना रखते हैं, भले ही दूसरे बच्चे ज्यादा मेहनती और प्रतिभावान हों। उनके आर्थिक और सामाजिक दबाव उन्हें उन्हीं कामों तक सीमित रखते हैं जिनसे उनका जीवन चल भर सके। बहुत ऊंचे सपने देखना उनके लिए वर्जित है। वंचित तबकों तक पहुँचते-पहुँचते पानी सूख जाता है, समृद्धि और सफलता की नदियाँ कहीं ऊंचाई पर ही रुक जाया करती हैं।

गांधी जी ह्रदय के संवर्धन या ‘कल्चर ऑफ द हार्ट’ की बात करते थे। इमोशनल कोशेंट को महत्व देते थे। यह बात उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में टॉलस्टॉय फार्म में शिक्षा सम्बन्धी प्रयोगों के दौरान ही अप्रत्यक्ष रूप से कह दी थी। बौद्धिक ताकत, सफलता, प्रतिष्ठा और आर्थिक समृद्धि प्राप्त करना जीवन का एकमात्र उद्देश्य नहीं हो सकता और शिक्षक को प्राथमिक स्तर से ही यह बात समझनी और समझानी होगी। इससे उसमें अपना आत्म-सम्मान भी बढ़ेगा, क्योंकि अभी भी हमारे समाज में शिक्षक को एक निरीह प्राणी के रूप में देखा जाता है। अक्सर लोग समझते हैं कि जब कोई, किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाता तो वह शिक्षक बन जाता है। शिक्षक को समाज की समूची तस्वीर बच्चों के सामने रखनी चाहिए। यह सिखाना चाहिए कि सफलता और धन ही जीवन का अकेला मकसद नहीं हो सकता। खासकर ऐसे समाज में जहाँ ये सबके लिए उपलब्ध न हो।

यह भी जरूरी है कि इन मूल्यों को परंपरागत अर्थ में व्याख्यायित न किया जाए, बल्कि उन्हें आज के सन्दर्भ में, आधुनिक परिस्थितियों में स्पष्ट किया जाए। बच्चों को संसार के उन अरबपतियों के भी उदाहरण दिए जाने चाहिए जिन्होंने जीवन के आखिर में खुदकुशी कर ली। धन और प्रसिद्धि के गहरे निहितार्थ उनकी समग्रता में समझाने चाहिए। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने इस संबंध में बहुत अच्छी बात कही थी कि ‘एक धनी व्यक्ति और कोई नहीं, बस एक पैसे वाला गरीब इंसान होता है।‘ सही शिक्षा में धन और सफलता के बखान करने के अलावा आतंरिक समृद्धि, सृजनशीलता, समझ, तार्किक सोच और स्नेह से भरे एक ह्रदय की आवश्यकता बच्चों को किसी भी तरह समझाई जानी चाहिए। इसमें शिक्षक की स्वयं की शिक्षा भी शामिल है क्योंकि यह सब वह ईमानदारी के साथ तभी बता सकता/सकती है जब वह खुद भी उन मूल्यों को थोड़ा बहुत जीता हो।

इसमें माता-पिता की भी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। घर पर ऐसी बातें ही नहीं की जानी चाहिए जिनसे बच्चों के मन पर इस तरह के झूठे मूल्य अंकित हो जाएं कि उन्हें बस धन और शोहरत के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर देना है। समेकित विकास का सौंदर्य ही इस बात में है कि उसमें देह, बुद्धि, धन और प्रेम के साथ-साथ जीवन के गहरे प्रश्न पूछने की क्षमता विकसित हो। अंधाधुंध धन कमाने के अलावा सुरुचिपूर्ण साहित्य, कला, संगीत वगैरह के प्रति भी बच्चे का ध्यान आकर्षित किया जाए। अपने दैहिक स्वास्थ्य के बारे में भी वह उतना ही सजग हो सके। समूची धरती और छोटे-से-छोटे जीव-जंतुओं की फिक्र करने की सीख देना शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों में शामिल होना चाहिए। सर्वांगीण विकास इसी में निहित है। (सप्रेस) 

श्री चैतन्य नागर स्वतंत्र लेखक है।

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