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नेपाल की संसद में प्रचंड के विश्वासमत के दौरान हुआ यह खेल, भारत पर क्या होगा असर
11-Jan-2023 4:39 PM
नेपाल की संसद में प्रचंड के विश्वासमत के दौरान हुआ यह खेल, भारत पर क्या होगा असर

-रजनीश कुमार

नेपाल, 11 जनवरी । नेपाल की संसद में मंगलवार को जो कुछ हुआ, उसे वहाँ के संसदीय लोकतंत्र में लंबे समय तक याद रखा जाएगा.

25 दिसबंर को पुष्प कमल दाहाल प्रचंड तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे और मंगलवार को उन्हें बहुमत साबित करना था.

275 सदस्यों वाली नेपाल की प्रतिनिधि सभा में प्रचंड को बहुमत साबित करने के लिए 138 सदस्यों के समर्थन की ज़रूरत थी, लेकिन उन्हें 268 सांसदों ने समर्थन में वोट किया.

प्रतिनिधि सभा में कुल 270 सांसद मौजूद थे और इनमें से 268 ने प्रचंड के समर्थन में वोट किया. केवल दो सांसदों ने प्रचंड के ख़िलाफ़ वोट किया.

यह हुआ कैसे?

प्रचंड ने 2022 के नवंबर महीने में हुआ आम चुनाव नेपाली कांग्रेस के साथ लड़ा था. नेपाली कांग्रेस चुनाव में 89 सीटें जीत सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.

प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी सेंटर) के महज़ 32 सांसद हैं. प्रचंड को केपी शर्मा ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का समर्थन मिला है. ओली की पार्टी के पास 78 सीटें हैं.

ऐसा माना जा रहा था कि नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ही प्रधानमंत्री रहेंगे, लेकिन प्रचंड ने ऐन मौक़े पर पाला बदल लिया.

प्रचंड चाहते थे कि नेपाली कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री बनाए, लेकिन उनकी मांग नहीं मानी गई थी.

ओली और प्रचंड के हाथ मिलाने के बाद नेपाली कांग्रेस विपक्ष में हो गई थी. ऐसा माना जा रहा था कि नेपाली कांग्रेस 10 जनवरी को पुरज़ोर कोशिश करेगी कि प्रचंड संसद में बहुत हासिल न कर पाएं.

लेकिन हुआ ठीक उल्टा. नेपाली कांग्रेस के 89 सदस्यों ने भी प्रचंड के समर्थन में वोट कर दिया.

नेपाली कांग्रेस के इस रुख़ से नेपाल का लोकतंत्र फ़िलहाल पूरी तरह से विपक्ष विहीन हो गया है. लेकिन यह केवल विपक्ष विहीन होने का मामला नहीं है.

नेपाली कांग्रेस के प्रचंड को समर्थन करने से केपी शर्मा ओली भी असहज हो गए हैं. संसद में यह नज़ारा देख मंगलवार को ओली ने नेपाली कांग्रेस पर तंज़ किया और कहा कि देउबा ने जिस उम्मीद से समर्थन किया, उसमें निराशा ही हाथ लगेगी.

ओली ने प्रचंड पर भी शक़ किया कहीं खेल कुछ और तो नहीं हो रहा है.

नेपाली कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया?

नेपाली कांग्रेस के संयुक्त महासचिव महेंद्र यादव ने प्रचंड के समर्थन पर मीडिया से कहा कि पार्टी ने सर्वसम्मति से मंगलवार को फ़ैसला किया था कि विश्वासमत के समर्थन में वोट करेंगे, लेकिन सरकार में शामिल नहीं होंगे.

हालांकि प्रचंड को समर्थन करने पर नेपाली कांग्रेस बुरी तरह से बँटी हुई बताई जा रही है. सोमवार को प्रचंड नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा से मिलने उनके आवास पर गए थे और उन्होंने मंगलवार के विश्वासमत में समर्थन में वोट करने का आग्रह किया था.

नेपाली कांग्रेस को जब प्रचंड के समर्थन में ही वोट करना था तब गठबंधन क्यों टूटने दिया? इसके पीछे की रणनीति क्या है?

नेपाल के प्रतिष्ठित अख़बार कांतिपुर के संपादक उमेश चौहान को लगता है कि नेपाली कांग्रेस पहली ग़लती ठीक करने के चक्कर में दूसरी ग़लती कर बैठी है.

उमेश चौहान कहते हैं, ''नेपाली कांग्रेस शुरू में प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए अड़ी रही. इसका नतीजा यह हुआ कि प्रचंड ने ओली से हाथ मिला लिया. इसके बाद नेपाली कांग्रेस को लगा कि बड़ी पार्टी होने के बावजूद वह ख़ाली हाथ रह गई.

उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ कि प्रचंड को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए था. लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी. मुझे लगता है कि नेपाली कांग्रेस को अब विपक्ष की भूमिका में रहना चाहिए था लेकिन उसने लालच में प्रचंड को समर्थन कर दूसरी ग़लती कर दी है.''

उमेश चौहान कहते हैं, ''अभी राष्ट्रपति का चुनाव होना है. प्रतिनिधि सभा के स्पीकर का चुना जाना बाक़ी है. उपराष्ट्रपति भी चुने जाएंगे. नेपाली कांग्रेस के मन में यह लालच है कि कम से कम राष्ट्रपति और स्पीकर का पद मिल जाए. लेकिन यह आसान नहीं होगा.

नेपाल की सिविल सोसाइटी और आम लोगों में यही इम्प्रेशन गया है कि यहाँ की सारी पार्टियां सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती हैं. मुझे लगता है कि पूरे घटनाक्रम में प्रचंड भी संदिग्ध बनकर उभरे हैं. ओली के साथ एक ठोस रोडमैप बन चुका था. सत्ता में हिस्सेदारी का भी ब्लूप्रिंट तैयार था. ऐसे में उन्हें देउबा के पास समर्थन के लिए नहीं जाना चाहिए था.''

उमेश चौहान कहते हैं, ''अगर प्रचंड को लग रहा है कि उनके पास ओली और देउबा दोनों का समर्थन है तो वह मुग़ालते में हैं. मेरा मानना है कि उनके पास 268 सांसदों का समर्थन है भी और नहीं भी है. यहाँ कोई तीसरा खेल भी हो सकता है.

ओली और प्रचंड दोनों नेपाली कांग्रेस को सरकार में बनाने गठबंधन के लिए सबसे मुफ़ीद सहयोगी मानते हैं. प्रचंड की गुगली के जवाब में ओली और देउबा में सरकार बनाने के लिए बात चल सकती है. दोनों संपर्क में भी हैं. संभव है कि दोनों एक साथ प्रचंड से समर्थन वापस ले लें और प्रचंड को कुर्सी छोड़नी पड़े. मैं मानता हूँ कि प्रचंड 268 सांसदों के समर्थन पाकर भी बहुत दिनों तक सत्ता में नहीं रह पाएंगे.''

संसद में बहुमत हासिल करने के बाद प्रचंड ने मंगलवार को कहा, ''हमारी सरकार की प्रतिबद्धता सामाजिक न्याय, सुशासन और संपन्नता के प्रति है. एक प्रधानमंत्री के रूप में मैं सहमति, सहयोग, आपसी विश्वास और प्रतिशोध रहित मंशा से काम करूंगा. राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति में राष्ट्रीय सहमति का कोई विकल्प नहीं है.''

ख़ास बातें:-

प्रचंड ने चुनाव नेपाली कांग्रेस के साथ लड़ा था, लेकिन सरकार केपी शर्मा ओली के साथ बनाई
275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में प्रचंड के महज़ 32 सांसद हैं और प्रधानमंत्री बन गए
नेपाली कांग्रेस ने अचानक से विश्वासमत के दौरान प्रचंड का समर्थन कर दिया
नेपाली कांग्रेस 89 सासंदों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है और ओली की पार्टी 78 सांसदों के साथ दूसरे नंबर पर है
नेपाली कांग्रेस के समर्थन के बाद संसद विपक्ष विहीन हो गई है

नेपाल के नागरिक आंदोलनों में सक्रिय रहने वाले और वरिष्ठ पत्रकार युग पाठक से पूछा कि नेपाली संसद का विपक्षी विहीन होना वहाँ के लोकतंत्र के लिए कैसा होगा?

युग पाठक कहते हैं, ''नेपाल संसदीय लोकतंत्र की तमाम बुराइयों से बहुत जल्दी ग्रस्त हो गया है. लोकतंत्र में विपक्ष का होना अनिवार्य होता है लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी पाने के लिए सारी पार्टियां एक हो गई हैं. यह तो ऐसा ही है कि भारत में कांग्रेस, बीजेपी और वामपंथी पार्टियों तीनों एक साथ आ जाएं.''

युग पाठक कहते हैं, ''नेपाली कांग्रेस के समर्थन देने से प्रचंड की मंशा घेरे में है और ओली भी सशंकित हैं. ओली का डर बढ़ गया है कि प्रचंड अब उस तरह से तवज्जो नहीं देंगे क्योंकि नेपाली कांग्रेस का भी समर्थन है.

प्रचंड भले अभी शह-मात के खेल में ऊपर दिख रहे हैं लेकिन उन्हें अपनी हक़ीक़त पता होगी कि महज़ 32 सांसदों के दम पर पीएम बने हुए हैं. जब ओली और शेरबहादुर देउबा 32 सांसद वाली पार्टी को पीएम की कुर्सी दे सकते हैं तो दोनों के पास क्रमशः 78 और 89 सांसद हैं और ये ख़ुद को भी पीएम बना सकते हैं.''

युग पाठक कहते हैं, ''प्रचंड जब ओली के साथ गए तो नेपाली कांग्रेस को अपनी ग़लतियों का एहसास हो गया था. लेकिन जब उसने विपक्ष में रहने का फ़ैसला किया था तो रहना चाहिए था.

नेपाली कांग्रेस ने विपक्ष में रहने के बजाय प्रचंड को समर्थन कर सिविल सोसाइटी में अपनी इज़्ज़त खोई है. नेपाल की सिविल सोसाइटी में यह बात भी कही जा रही थी कि भारत नेपाली कांग्रेस को सत्ता में भागीदार देखना चाहता था. ऐसे में शेर बहादुर देउबा के प्रचंड के साथ जाने को इस रूप में भी देखा जा रहा है.''

युग पाठक से पूछा कि अब नेपाल में प्रचंड विश्वासमत जीत चुके हैं. उनके पास ओली और देउबा का भी समर्थन है. ऐसे में भारत के प्रति प्रचंड का रुख़ कैसा रहेगा?

युग पाठक कहते हैं, ''भारत का राष्ट्रवाद स्वतंत्रता की लड़ाई से निकला और आकार लिया. अंग्रेज़ चले गए तो राष्ट्रवाद पाकिस्तान विरोध के ईर्द-गिर्द घूमने लगा. भारत अपने दो पड़ोसियों चीन और पाकिस्तान से युद्ध कर चुका है. ऐसे में भारत के लोकप्रिय राष्ट्रवाद के लिए पर्याप्त मसाला है.

नेपाल में इस मसाले का अभाव है. नेपाल कोई उपनिवेश रहा नहीं. राजशाही को बेदखल किया जा चुका है. चुनावी राजनीति में वोट लेने के लिए राष्ट्रवाद शॉर्टकर्ट होता है. भारत नेपाल का पड़ोसी है. ऐसे में भारत से जुड़े कुछ विवादों को राष्ट्रवाद की चाशनी में पेश किया जाता है. संभव है कि आने वाले वक़्त में ऐसी चीज़ें बढ़ेंगी.''

भारत से विवाद शुरू?

काठमांडू पोस्ट की ख़बर के मुताबिक़ प्रचंड के नेतृत्व वाली सत्ताधारी गठबंधन सरकार ने भारत से लिंपियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को 'वापस' लेने का वादा किया है.

इस ख़बर के मुताबिक़ सत्ताधारी गठबंधन का कॉमन मिनिमम प्रोग्राम सोमवार को सार्वजनिक हुआ और इसी में यह वादा किया गया है.

काठमांडू पोस्ट की ख़बर के अनुसार, प्रचंड सरकार नेपाल की संप्रभुता, एकता और स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध है. हालांकि कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में चीन से लगी सरहद पर चुप्पी है.

मई 2020 में भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड में धारचुला से चीन की सीमा लिपुलेख तक एक सड़क का उद्घाटन किया था. नेपाल का दावा है कि सड़क उसके क्षेत्र से होकर गई है. अभी यह इलाक़ा भारत के नियंत्रण में है.

2019 के नवंबर महीने में भारत ने जम्मू-कश्मीर के विभाजन के बाद अपने राजनीतिक मानचित्र को अपडेट किया था, जिसमें लिपुलेख और कालापानी भी शामिल थे. नेपाल ने इसे लेकर कड़ी आपत्ति जताई थी और जवाब में अपना भी नया राजनीतिक नक़्शा जारी किया.

अपने नए नक़्शे में नेपाल ने लिपुलेख और कालापानी को नेपाल में दिखाया था. नेपाल के तत्कालीन रक्षा मंत्री ईश्वर पोखरेल ने राइजिंग नेपाल को दिए इंटरव्यू में यहाँ तक कह दिया कि अगर ज़रूरत पड़ी तो नेपाल की सेना लड़ने के लिए तैयार है.

कालापानी में इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस की भी तैनाती है. पूरे विवाद पर भारत के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल मनोज नरवणे ने कहा था कि नेपाल सरहद पर चीन की शह में काल्पनिक दावा कर रहा है.

नेपाल एक लैंडलॉक्ड देश है और वो भारत से अपनी निर्भरता कम करना चाहता है. 2015 में भारत की तरफ़ से अघोषित नाकाबंदी की गई थी और इस वजह से नेपाल में ज़रूरी सामानों की भारी किल्लत हो गई थी. कहा जाता है कि तब से दोनों देशों के बीच संबंधों में वो भरोसा नहीं लौट पाया है.  (bbc.com/hindi)

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